Wednesday, February 28, 2018

नाली बनाए बिना ही लगा दिया बोर्ड!

मेरे गांव की कहानी
स्वच्छता का नारा यहां बेमानी हो जाता है। यह कहानी मेरे गांव केहरपुरा कलां की है। ग्रामीण बेहद परेशान हैं। गांव से लगातार फोन आ रहे हैं। उनकी एक ही गुहार है कि समस्या का समाधान करवाओ। स्कूल जाने वाली बच्चियों को दिक्कत हो रही है। समस्या यह है कि बालिका स्कूल जाने वाले रास्ते पर कीचड़ है। इससे बालिकाओं को आने जाने में दिक्कत हो रही है। यह कीचड़ इसीलिए भरता है क्योंकि इस रास्ते को पक्का तो कर दिया गया है लेकिन नाली नहीं छोड़ी। इस समस्या के समाधान के लिए कथित रूप से कुछ घरों के आगे सोखती कुइयां भी बनाई तो कुछ घरों को एेसे ही छोड़ दिया गया। एेसे में घरों से दैनिक उपभोग का पानी रास्ते पर आता है और बिना बरसात बारह माह यहां कीचड़ रहता है। खास बात यह है कि राजकीय माध्यमिक विद्यालय केहरपुरा कलां से राजकीय औषधालय भवन तक खरंजा मय नाली तो लिखा हुआ है। खरंचा तो बना है लेकिन नाली नहीं है। इस काम को ग्राम पंचायत केहरपुरा कलां ने करवाई गया है। यह वर्ष 2015-16 में बना है। इस काम के लिए स्वीकृत राशि सात लाख 95 हजार थी जिसमें सात लाख 93 हजार 651 राशि खर्च होने की जानकारी दीवार पर चस्पा की गई है। इस जानकारी पर यकीन किया जाए तो तय मानिए नाली बनने का पैसा उठ चुका है लेकिन नाली बनी नहीं है। स्कूल के अलावा आंगनबाड़ी तथा सहकारी समिति भवन भी यही सड़क जाती है।
मेरे पास इस संबंध में आधा दर्जन से ज्यादा अलग अलग लोगों के फोन आ गए। इसके बाद मैंने सरपंच से बात की तो उनका कहना था कि समस्या उनकी जानकारी में है। फिलहाल वो बिजी है। मौके पर जाकर समस्या का समाधान करवा देंगे। उनका यह भी कहना था कि आम रास्ते पर पानी न फैलाने वालों को नोटिस दिए गए थे। स्कूल जाते वक्त एक मैडम फिसल कर गिर भी गई। पुलिस भी मौके पर जाकर आई और कीचड़ करने वालों को पाबंद किया था। खैर, सरंपच का आश्वासन पाकर मैं निश्चिंत हो गया और फोन करने वालों को कह भी दिया कि आप लोग समस्या का समाधान चाहते हैं, वह हो जाएगा। सरपंच ने भरोसा दिया है। इसके बाद कुछ दिन शांति रही। लेकिन फिर से फोन, फोटो व दीवार पर लिखी जानकारी का फोटो आ रहे हैं। मैं समझ चुका था कि समस्या यथावत है अभी समाधान नहीं हुआ। मैं भी चाहता हूं कि यह काम शांतिपूर्वक हो जाए। सिर्फ गांव के ही ग्रुप में यह पोस्ट को लिखने का मेरा मकसद भी यही है कि मेरी बात सरपंच के पास एक बार फिर से पहुंचे और वो इस काम को प्राथमिकता से करवाएं। उम्मीद है वो इस पर गौर करेंगे।

शहादत व शौर्य की गाथा सुनाता है मंदिर

दो सौ ज्यादा शहीदों की समाधि है दर्शनीय स्थल 
श्रीगंगानगर. यह मंदिर शहादत की कथा सुनाता है। यह मंदिर शौर्य के किस्से बयां करता हैं। यह मंदिर शहीद सैनिकों की शौर्य गाथा का सजीव प्रतीक है। यहां कोई एक-दो नहीं बल्कि दो सौ से ऊपर शहीदों की सामूहिक अन्तेष्टि की गई थी। सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान फाजिल्का सेक्टर में सर्वाधिक भयानक लड़ाई हुई थी। इसमें टैंक, तोप व बंदूकों के माध्यम से भारत-पाक सैनिकों के बीच मुकाबला हुआ था। बताते हैं कि तब पाक सेना ने फाजिल्का शहर को हथियाने का निश्चय किया हुआ था। इसके लिए पाक सेना भारतीय क्षेत्र में आगे भी बढ़ गई थी लेकिन भारतीय सेना की जाबांज शूरवीरों ने न केवल पाकिस्तानी सैनिकों को पीछे धकेला अपितु स्वयं एक अभेद्य चट्टान की भांति डटे रहकर दुश्मन के दांत खट्टे किए थे। इस आमने-सामने की लड़ाई में इस जगह पर 225 वीर सैनिक शहीद हुए थे। इनमें चार जाट रेजीमेंट, आसाम रेजीमेंट, राजपूत रेजीमेंट, बीएसएफ, होमगार्ड के जवान शामिल थे। इस दौरान 450 सैनिक गंभीर रूप से घायल हुए इनमें से कुछ सैनिक स्थायी रूप से अपंग हो गए।
17 दिसंबर 1971 को युद्ध विराम के बाद फाजिल्का सेक्टर में प्राणोत्सर्ग करने वाले बहादुर सैनिकों का प्रमुख नागरिकों और ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से अंतिम संस्कार किया था। सामूहिक अंतिम संस्कार के लिए 90 फीट लंबी तथा 55 फीट चौड़ी चिता तैयार की गई थी। सर्वधर्म सभा के माध्यम से दिवंगत सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। मुख्य समाधि के गर्भ गृह में इन शहीदों की पावन अस्थियों के अंशों का समावेश किया किया। फाजिल्का क्षेत्र के लोगों ने इन शहीद सैनिकों को फाजिल्का के रक्षक के रूप में मान्यता दी है। शहीदों के संस्कार के बाद अल्प समय में ही एक स्मारक का निर्माण किया है जो अब बेहद बड़ा स्वरूप ले चुका है। भारत-पाक सीमा पर सादगी पोस्ट पर पर रिट्रीट सेरेमनी देखने जाने वाले इस शौर्य मंदिर को देखने जरूर आते हैं तथा वीर सैनिकों की शहादत को याद करके शीश नवाते हैं।

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 पत्रिका डॉट कॉम पर 28 फरवरी 18 को प्रकाशित 

यहां शहीद सैनिकों की आत्माएं करती हैं हिफाजत

तीर्थ स्थल से कम नहीं है आसफवाला का शौर्य मंदिर

श्रीगंगानगर. यह न तो मंदिर है और न ही कोई मस्जिद। यह गुरुद्वारा, चर्च या कोई धार्मिक स्थान भी नहीं हैं। इसके बावजूद यह पूजा, अर्चना व श्रद्धा का स्थान है। यह एक स्मारक है और इसको तीर्थ स्थल के रूप में पूजा जाता है। यह मंदिर शौर्य का मंदिर है। पड़ोसी प्रदेश पंजाब के फाजिल्का जिले से मात्र सात किलोमीटर की दूरी पर है यह शौर्य मंदिर स्थित है। जगह का नाम है आसफवाला। भारत-पाकिस्तान बॉर्डर इस शौर्य मंदिर से महज चार किलोमीटर की दूरी पर है। सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिकों की अस्थियां इस शौर्य मंदिर में बने समाधि स्थल के गर्भगृह में रखी हैं। इस समाधि पर लोग श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं तथा दीपक प्रज्वलित करते हैं। इस शौर्य मंदिर के साथ किवदंतियां व विश्वास जुड़ा हुआ है। मान्यता है कि शौर्य मंदिर के गर्भ गृह में शहीद सैनिकों की आत्माएं निवास करती हैं, जो फाजिल्का क्षेत्र को प्रत्येक प्रकोप से बचाए हुए हैं। क्षेत्रवासियों का विश्वास है फाजिल्का शहर को सितम्बर 1988 की भीषण बाढ़ से शहीद सैनिकों की आत्माओं ने ही बचाया था। इस बाढ़ से दर्जनों सीमावर्ती गांव पूरी तरह बह गए थे। बाढ़ का पानी आसफवाला गांव के बाद फाजिल्का की तरफ बढ़ रहा था। आसफवाला का स्मारक भी घुटनों तक पानी में डूब गया लेकिन इसके बाद आश्चर्यजनक रूप से पानी का स्तर गिरना शुरू हो गया। इसके बाद क्षेत्रवासियों का इस शौर्य मंदिर के प्रति विश्वास और भी बढ़ गया। इसी शौर्य मंदिर के साथ दूसरी किवदंती यह भी जुड़ी है कि यहां सच्चे मन से श्रद्धा अर्पित करने वालों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। स्मारक को क्षेत्रवासी बेहद पवित्र मानते हैं। मान्यता यह भी है कि यहां शीश झुकाने वाला व्यक्ति जीवन की ऊंचाइयों को छूता है तथा समृद्धि को प्राप्त करता है। क्षेत्रवासियों की मानें तो इस प्रकार के कई उदाहरण हैं जो इन मान्यताओं की पुष्टि करते हैं।
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 पत्रिका डॉट कॉम पर 27 फरवरी 18 को प्रकाशित 

कारण खोजने होंगे

 टिप्पणी
श्रीगंगानगर के जवाहरनगर थाने में तोडफ़ोड़ और पथराव करना निसंदेह दुर्भाग्यजनक है, लेकिन जिस अंदाज में यह समूचा घटनाक्रम हुआ, इससे जाहिर होता है कि यह सब कुछ आक्रोश का प्रतिफल था। युवक की गुमशुदगी और पुलिस की भूमिका से तो लोग पहले ही गुस्सा थे। सोमवार को गुमशुदा युवक का शव मिलने के बाद आक्रोश और भड़क उठा। अब बात क्या हुआ, कैसे हुआ की बजाय यह सब क्यों हुआ पर होनी चाहिए। जो हुआ उसे तो समूचे शहर ने देख ही लिया। लेकिन यह हुआ क्यों? यह सवाल सभी के मन में है। इस सवाल के कारण खोजने होंगे। इस तरह का आक्रोश एक दिन में या यकायक तो पैदा हो नहीं सकता। वैसे भी शहर का जवाहरनगर थाना शेष अन्य थानों की बजाय ज्यादा चर्चा में रहता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि आक्रोश पुलिस की बजाय थानाधिकारी के प्रति ज्यादा नजर आया। उनकी कार्यशैली पर लोग सवाल उठा रहे हैं। घटनाक्रम के बाद जिस तरह के आरोप लगाए गए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। मसलन, जवाहरनगर थाना क्षेत्र में जुआ, सट्टा, वेश्यावृत्ति का धंधा कथित रूप से पुलिस संरक्षण में संचालित हो रहा है। आरोप तो यहां तक लगा दिए गए हैं कि जवाहरनगर थाने पर उच्च अधिकारियों का नियंत्रण ही नहीं है। आम आदमी की शिकायतों को अनसुना कर दिया जाता है। थानाधिकारी पर इस तरह के आरोपों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। फिर भी यह संभव नहीं है कि यह सब आरोप आज ही लगे? तथा यह सब तात्कालिक आक्रोश का ही नतीजा है।
बहरहाल, इस तोडफ़ोड़ के बाद पुलिस वह सब करेगी जो कानून के दायरे में आता है। तोडफ़ोड़ करने वालों पर मुकदमे दर्ज हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। पीडि़त परिवार को उचित जांच का आश्वासन भी मिलेगा। इसके अलावा आक्रोशित लोगों के समझाने के लिए कई तरह के प्रयास भी होंगे। यह भी हो सकता है कि आक्रोश शांत करने के लिए थानाधिकारी का स्थानांतरण भी कर दिया जाए, हालांकि उनको हटाने की मांग भी की जा रही है। और जब पुलिस इतना कुछ करेगी ही तो फिर इस समूचे घटनाक्रम के कारण भी तलाश लेने चाहिए। थानाधिकारी पर जितने भी आरोप हैं, उन सबकी ईमानदारी के साथ जांच हो। ऐसा न हो मामला शांत होने के साथ ही आरोप केवल आरोप ही रह जाएं या उनको अनसुना कर दिया जाए। समय रहते अगर कारण नहीं खोजे गए तो फिर कोई पीडि़त कानून हाथ में लेने को मजबूर हो जाएगा।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 27 फरवरी 18 के अंक में.प्रकाशित

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना...
निदा फाजली का यह चर्चित शेर मुझे आज मौजूं लग रहा है। विशेषकर उनके लिए जो कल एक सिने अदाकारा की मौत पर भावुक हो रहे थे। व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम की डिपी में उस दिवंगत अदाकारा की फोटो लगा रहे थे। कल और आज में जिस तरह से मौत के कारण बदले हैं, उसी अंदाज में श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के काम को भी कुछ विराम लगा है। वैसे किसी शख्यिसत का प्रशंसक होना बुरा नहीं होता। होना भी चाहिए लेकिन अंध प्रशंसक तो कभी भी नहीं होना चाहिए। वह भी तब जब किसी को हम पूरी तरह से जानते ही न हो। सिर्फ पर्दे की भूमिकाओं से हम किसी के संपूर्ण व्यक्तित्व का आकलन नहीं कर सकते। पर्दे की दुनिया और हकीकत की दुनिया में बहुत अंतर है। रूपहली दुनिया इस तरह के उदाहरणों से भरी पड़ी है। पर्दे पर दर्शकों की गालियां खाने वाले कई विलेन निजी जीवन में इतने सीधे होते हैं कि जानकर या पढ़कर आश्चर्य होता है। वैसे बचपन की सीख यहां भी प्रासंगिक लगती है। यही कि घृणा पाप से करो पापी से नहीं। वैसे ही प्रेम अभिनय से करो। अभिनेता या अभिनेत्री से नहीं। खैर, यह पसंद का मामला है। और पसंद हमेशा दिल से जुड़ी होती है। हो सकता है मेरी बात किसी को जमे, किसी को न जमे। किसी को नागवार गुजरे।

झुंझुनूं आने और फिर न जीतने का जुमला

बस यूं ही
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 8 मार्च को झुंझुनूं आने का कार्यक्रम प्रस्तावित है। बताया जा रहा है प्रधानमंत्री महिला दिवस के उपलक्ष्य में बेटी बचाओ, बेटी अभियान का संदेश देंगे। प्रधानमंत्री के झुंझुनूं आगमन की खबर के साथ इन दिनों एक बात की खासी चर्चा है। यह चर्चा सोशल मीडिया और कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में भी आ चुकी है। चर्चा इस बात की है कि प्रधानमंत्री रहते जो भी नेता झुंझुनूं या जिले में आया वह फिर दुबारा प्रधानमंत्री नहीं बना। इसके समर्थन में कई उदाहरण भी बताए जा रहे हैं। इस सूची में कांग्रेस, भाजपा व जनता दल के प्रधानमंत्रियों के नाम भी गिनाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी, राजीव गांधी अटलबिहारी वाजपेयी, एचडी देवगौड़ा के नाम बताए जा रहे हैं। कहा जा रहा है यह लोग प्रधानमंत्री रहते झुंझुनूं आए लेकिन इसके बाद दुबारा प्रधानमंत्री नहीं बने। अब नरेन्द्र मोदी का दौरा प्रस्तावित है तो इस बात ने फिर जोर पकड़ लिया है कि क्या मोदी भी न जीतने वालों की श्रेणी में शामिल होंगे या जीतकर इतिहास बनाएंगे। हालांकि हार जीत अभी दूर की कौड़ी है। ऊंट किस करवट बैठेगा अभी तय नहीं है लेकिन चौपाल व नुक्कड़ों पर बैठने वाले लोगों को जाने-अनजाने में एक चर्चा जरूर मिल गई है। यह चर्चा एक तरह की जिज्ञासा भी है, जिसका पटाक्षेप तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही हो पाएगा।
काबिलेगौर है प्रधानमंत्री ने 22 जनवरी 2015 को हरियाणा के पानीपत में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान का शुभारंभ किया था। इसके बाद 24 जनवरी को 2015 झुंझुनूं के शहीद पीरूसिंह स्कूल में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान पर कार्यक्रम हुआ था। जिसमें एक हजार से अधिक बेटियों का सम्मान किया गया था। इसी कार्यक्रम को लेकर 24 जनवरी 2017 को दिल्ली में झुंझुनूं जिले का सम्मान भी हुआ। झुंझुनूं में हुए कार्य की मोदी मन की बात में चर्चा कर चुके हैं। इसके अलावा टविटर पर भी इस अभियान की सराहना कर चुके हैं। इसीलिए माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री आठ मार्च को महिला दिवस पर झुंझुनूं आएंगे और अभियान के तहत काम का संदेश समूचे देश को दे सकते हैं, हालांकि उनका इसी तरह का दौरान 22 जनवरी को प्रस्तावित था लेकिन वह किन्ही कारणों के चलते निरस्त हो गया।
बहरहाल, कई तरह के कयासों का दौर जारी है। अंधविश्वास व टोने टोटकों में विश्वास करने वाले प्रधानमंत्री के दौरे के टलने की मन ही मन दुआ करें तो कोई बड़ी बात नहीं है। फिलहाल पहली बात तो यही देखने की है कि प्रधानमंत्री का दौरा बनता है या टलता है।

शिक्षित युवाओं की अनूठी पहल, खुद पढ़ेंगे भी और पढ़ाएंगे भी

अच्छी खबर
श्रीगंगानगर। कहा जाता है और माना भी जाता है कि देश का भविष्य युवाआें पर निर्भर होता है। अगर युवाओं की सोच सकारात्मक है तो निंसदेह देश प्रगति की राह पर अग्रसर होगा। कुछ इसी तरह की सकारात्मक सोच झुंझुनूं जिले की चिड़ावा पंचायत समिति की ग्राम पंचायत केहरपुरा कलां के युवाओं की है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए गांव के आधा दर्जन युवाओं ने एक अनूठी शुरुआत की है। वे न केवल खुद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करेंगे बल्कि गांव के जरूरमंद युवाओं को भी निशुल्क पढ़ाएंगे। फिलहाल यह व्यवस्था अध्यापक और पुलिस भर्ती की लिखित परीक्षा के लिए है। इन युवाओं ने तैयारी के लिए एक शेड्यूल भी बनाया है जो कि कालांश की तरह है। मतलब कुल तीन घंटे की कक्षा में। इनमें छह पीरियड होंगे, जिसके तहत हिन्दी, भूगोल, इतिहास, कला-संस्कृति, राजनीतिक विज्ञान तथा रिजनिंग का अध्ययन और अध्यापन होगा। एक कालांश साप्ताहिक होगा जो समसामयिक विषयों पर होगा। खास बात यह है कि सात युवकों के इस समूह में सारे ही उच्च शिक्षित है। इनमें चार तो एमए, बीएड व नेट हैं जबकि तीन एमए बीएड हैं। अनूठी कक्षा का यह बैच पांच रोज पूर्व 21 फरवरी से शुरू हो चुका है। युवाओं के इस काम की समूचे गांव में सराहना हो रही है।
ये हैं टीम में
सात युवकों की टीम में श्रीराम पाटिल, जितेन्द्र काला, ईश्वरसिंह शेखावत, सुनील लोहिया, मुकेश झाझडि़या, श्रीकांत लोहिया व मुकेश राठी शामिल हैं।

चमत्कार की उम्मीद

बताया जाता है कि श्रीगंगानगर पेरिस शहर के नक्शे पर बसा है। लोकतंत्र के रहनुमाओं की अदूरदर्शिता व अकर्मण्यता के चलते यह खूबसूरत बसावट वाला शहर गंदानगर हो चला है। योजनाएं बनती हैं, लेकिन उनमें जनहित गौण रहता है..। शिव चौक से जिला अस्पताल तक डेढ किमी सड़क का होने वाला कथित कायाकल्प भी कुछ ऐसी ही कहानी कहता है। इसी विषय पर केन्द्रित है मेरी यह जो  लगी है। 
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टिप्पणी 
शिव चौक से जिला अस्पताल तक 160 लाख रुपए की लागत से सर्विस रोड बनेगी। इस दिशा में बुधवार को काम शुरू हो गया। बताया जा रहा है रविवार को इस काम का विधिवत उदघाटन भी होगा। इस सर्विस रोड को लेकर बहुत कुछ बताया जा रहा है, मसलन, चंडीगढ-जयपुर की तर्ज पर बनेंगे डिवाइडर। फुटपाथ व हरियाली की व्यवस्था होगी, अत्याधुनिक स्ट्रीट लाइट लगेंगी। पैदल चलने वालों के लिए डिवाइडर ट्रेक, पशुओं को रोकने के लिए जाली, छोटे-बड़े वाहनों के लिए अलग-अलग लेने होंगी। डिवाइडर पर रैलिंग लगेगी। खाली जगह पर खास की तरह की घास लगाई जाएगी। फूलों के पौधे लगाए जाएंगे। साथ में ट्री गार्ड पर हरियाली व स्वच्छता से संबंधित स्लोगन लिखे जाएंगे। इनमें अधिकतर काम तीन माह में पूरा हो जाएगा। कल्पना कीजिए, तीन माह बाद शिव चौक से जिला अस्पताल तक सड़क जयपुर या चंडीगढ़ जैसा नजारा देगी। एक-डेढ़ किलोमीटर के इस टुकड़े से गुजरते वक्त एक अलग तरह का अहसास होगा। 
सच में ऐसा हो जाएगा और इसका नियमित रूप से रखरखाव होगा, इसमें संशय है। यूआईटी प्रशासन की मौजूदा कार्यशैली से तो कतई लगता नहीं है कि यह कल्पना इस रूप में साकार भी होगी। वर्तमान में शिव चौक से जिला अस्पताल सड़क के दोनों तरफ अतिक्रमण हैं। खुलेआम सड़कों पर व्यापार हो रहा है। रेते, ग्रिट के ढेर, बजरी से भरे ट्रक व टै्रक्टर से यहां दिन भर जाम की स्थिति रहती है। रोड लाइट नियमित रूप से नहीं जलती हैं। आवारा पशुओं को यहां वहां स्वच्छंद विचरण करते देखा जा सकता है। बरसाती पानी निकासी के नाले की सफाई भी तभी होती है, जब यह जाम हो जाता है। यह नाला भी एक तरफ ही है। इसी रोड पर स्थित दो होटलों के सामने तो सड़क इतनी नीची है कि बरसात के दिनों में डेढ़-डेढ़ फीट पानी भर जाता है। इस मार्ग पर सर्वाधिक धूल उड़ती है। 
क्या सर्विस रोड़ बनने से इतनी सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा? इस बात का यकीन कैसे किया जाए कि जिस यूआईटी प्रशासन ने आज अतिक्रमण करने वालों को अभयदान दे रखा है, वह कल उनके खिलाफ कार्रवाई करेगा? इतना ही नहीं, सिर्फ क्या जिला अस्पताल से शिव चौक तक मार्ग का कायाकल्प करने से शहर की छवि सुधर जाएगी? बाइपास से लेकर जिला अस्पताल तक की तस्वीर तो कुछ और ही कहानी बयां करेगी। महज एक -डेढ़ किमी सड़क का कथित कायाकल्प मौजूदा समस्याओं का समाधान किए बिना एक तरह से पैसे की बर्बादी ही है। इस मार्ग पर सबसे पहली जरूरत अतिक्रमण हटाने तथा बीच सड़क पर खुलेआम होने वाले व्यापार पर अंकुश लगाने की है। जो लोग आज जहां जमे हैं वे सड़क बनने के बाद फिर वहीं काबिज होंगे। यूआईटी प्रशासन की भूमिका से लगता नहीं है कि वह इन अतिक्रमियों के खिलाफ कार्रवाई करेगी। यकीन किया भी कैसे जाए , जो यूआईटी प्रशासन शहर को बदरंग करने वालों पर कार्रवाई नहीं करता, जो यूआईटी प्रशासन एक अदना सा होर्डिंग्स नहीं हटा सकता, वह अतिक्रमण करने वालों को खदेड़ देगा, इस पर बात पर फिलहाल तो यकीन नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 23 फरवरी 18 के अंक में प्रकाशित 

लीपापोती क्यों?

टिप्पणी
वैसे तो पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना कोई नई बात नहीं है, लेकिन श्रीगंगानगर पुलिस किसी न किसी बहाने चर्चा में रहती ही है। पुलिस पर दबाव या प्रभाव में काम करने के आरोप भी गाहे-बगाहे लगते रहते हैं। हालिया दो मामले ऐसे हैं, जिनको लेकर पुलिस की भूमिका कठघरे में है। पहला मामला सप्ताह भर पहले गांव ९ जैड में हुए सड़क हादसे तथा उस संबंध में हुई गिरफ्तारी का है, जबकि दूसरा बुधवार को युवकों के टंकी पर चढऩे से संबंधित है। टंकी वाले घटनाक्रम में पुलिस व प्रशासन की याचक की सी भूमिका को तो समूचे शहर ने देखा। खैर, तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक था, लेकिन इसके बाद क्या हुआ? यह दबाव नहीं तो क्या था? या फिर इससे पहले टंकी पर चढऩे वालों पर की गईं तमाम कार्रवाइयां ही गलत थी? या फिर टंकी पर चढऩे पर मुकदमा दर्ज करने के आदेश महज कागजी थे? पुलिस व प्रशासन इस तरह नतमस्तक क्यों हुए? या फिर यह समूचा घटनाक्रम ही प्रायोजित था? कल को कोई भी अपनी छोटी-मोटी बात या मांग को लेकर इस तरह टंकी पर चढ़ गया तो क्या पुलिस प्रशासन उसके साथ भी इसी तरह से पेश आएंगे?
कुछ यही हाल ९ जैड के सड़क हादसे का है। यहां पर भी पुलिस पर प्रभाव में काम करने का आरोप हैं। दुर्घटना के दौरान कार कौन चला रहा था? चालक की पहचान कैसे हुई? सीसीटीवी फुटेज में क्या आया? चालक की पहचान किस तरीके से हुई? जैसे कई सवाल हैं जो अभी अनुत्तरित हैं। पुलिस ने इस मामले का खुलकर खुलासा भी नहीं किया। हादसे के आरोप में चालक की गिरफ्तारी से लेकर जमानत लेने तक का घटनाक्रम में भी पुलिस की भूमिका एक तरह की औपचारिकता निभाने जैसे ही रही है। छह जनों की मौत की तफ्तीश का अंजाम इस अंदाज में होने के आसार तो पहले दिन से ही लगने लग गए थे। जांच का आगाज ही जब सवालों से घिरा हो तो फिर अंजाम तो घिरना लाजिमी है।

हादसे वाले मामले में तो हैरत की बात यह थी कि कोई बोलने वाला ही नहीं सामने आया। सच है गरीब के लिए बोलने वाला कोई नहीं है। गरीब की जान की कीमत समझने वाला कोई नहीं। चींटी मरने या काटने पर हंगामा करने वाले शहर में छह मौतों पर छाई खामोशी भी बहुत कुछ कहती है। कथित जनसेवक व समाजसेवियों की जुबान भी इस मामले में तालु से चिपक गई। बहरहाल, जागरूक लोगों की चुप्पी तथा पुलिस प्रशासन की मुंह देखकर तिलक लगाने की आदत रही तो तय मानिए हालात और भयावह होंगे। फिर तो किसी गरीब की जान किसी आवारा कुत्ते की मौत से ज्यादा नहीं होगी। सच में जागरुक लोगों का संवेदनहीन होना बेहद चिंताजनक है
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 16 फरवरी 18 के अंक में प्रकाशित

गुरुजी चले गए

स्मृति शेष
मेरे स्कूली जीवन के पहले गुरु श्री रामजीलाल जी नहीं रहे। लंबी बीमारी के बाद दो रोज पूर्व मंगलवार को उनका निधन हो गया। गांव के ही राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय में पहली व दूसरी क्लास में वो मेरे कक्षा अध्यापक रहे। छात्रों के प्रति उनका लगाव, जुड़ाव व प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता था। मैंने उनको कड़क मास्टर के रूप में कभी नहीं देखा। मैंने उनके हाथ में डंडा जरूर देखा लेकिन इसका उपयोग उन्होंने शायद ही कभी किया हो। वो गुरु होने के साथ-साथ अभिभावक भी थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वो विद्यार्थियों के अभिभावकों के सतत संपर्क में रहते थे तथा उनसे फीडबैक लेने व देने का काम बखूबी करते थे। कोई विद्यार्थी अगर पढ़ाई में ध्यान नहीं देता था गुरुजी चलकर उसके घर जाते थे और अभिभावकों को उलाहना देकर आते थे। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैं दूसरे स्कूल में चला गया लेकिन गुरुजी से मेरा संपर्क बना रहा। मुझे याद है गुरुजी कई बार कुर्सी पर बैठे-बैठे ही झपकी ले लेते थे। यह काम वो इतना बखूबी करते थे हमको कानोंकान खबर तक नहीं होती। स्कूल में तब रामजीलाल जी व गुमानसिंह जी मास्टरजी की जोड़ी खासी चर्चित थी। इन दोनों गुरुओं को मैंने स्कूल में खाली वक्त के दौरान तथा स्कूल से बाहर भी अक्सर साथ-साथ ही देखा। खैर, उनका नश्वर शरीर इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनसे शिक्षित-दीक्षित उनके शिष्य देश व प्रदेश के विभिन्न कोनों में किसी न किसी क्षेत्र में परचम फहरा रहे हैं। एक अध्यापक के लिए यही तो जमा पूंजी होती है। गुरुजी को मेरा प्रणाम। भगवान उनको अपने श्री चरणों में स्थान दे तथा परिजनों व हम सब शिष्यों को यह अपार दुख सहन करने का संबल प्रदान करे।

अतीत जिंदा हो गया...

बस यूं ही
शादी समारोह में शामिल होने का सबसे बड़ा फायदा मेरी नजर में जो है वह यह है कि आपको एक साथ कई परिचित मिल जाते हैं। सामान्य दिनों में जाओ तो इतने मित्र एक साथ मिलना संभव नहीं हो पाता। परिचितों व दोस्तों से मुलाकात न केवल अतीत की यादें जिंदा कर देती हैं बल्कि सफर की थकान को भी भुला देती हैं। अति व्यस्त शेड्यूल होने के बावजूद मैं परिचित या दोस्तों के यहां होने वाले शादी समारोह में शिरकत करने को हमेशा उत्सुक रहता हूं। 17 फरवरी को दोपहर दो बजे शुरू हुआ सफर आज शाम पांच बजे पूर्ण हुआ। पहले दिन करीब 260 किलोमीटर की यात्रा कर श्रीगंगानगर से बीकानेर पहुंचा। रात्रि विश्राम बीकानेर में करने के बाद 18 फरवरी को अगला पड़ाव बगड़ था। यह भी 250 किलोमीटर की यात्रा हो गई। रात्रि विश्राम कालीपहाड़ी में करने के बाद फिर श्रीगंगानगर वापसी के लिए यात्रा। यह भी करीब 350 किलोमीटर का सफर है। इस तरह तीन दिन में 860 किलोमीटर की यात्रा कर ली। इस यात्रा के साथ बीकानेर व बगड़ में शादियों में भी शामिल हुआ। इससे भी बड़ी बात तो आत्मिक लगाव वालों से आत्मिक मुलाकातें रही। बीकानेर में श्री राजेन्द्र जी भार्गव की बिटिया की शादी में जब भार्गव जी से मुलाकात हुई तो उनकी चेहरे की खुशी से जाहिर हो रहा था कि मेरे शादी में जाने से वो बेहद प्रफुल्लित थे। अपने रिश्तेदारों से परिचय कराते हुए उन्होंने कह भी दिया कि यह होता है आना। यह हुई ना कोई बात। सच में बहुत खुश नजर आए वो।
इससे कहीं अधिक खुशी तो बगड़ में मिली। कॉलेज लाइफ में साथी रहे हिम्मतसिंह जी की बिटिया की शादी में हर दूसरा चेहरा जाना-पहचाना लगा। मुद्दतों बाद इतने लोगों से मुलाकात हुई। समय कम पड़ रहा था लेकिन परिचितों की सूची और मुलाकात के दौर का कोई छोर नहीं था। यहां हाथ मिलाने वाली औपचारिकता नहीं थी, बल्कि दोस्तों से गले मिलने वक्त वही कॉलेज टाइम वाली फीलिंग हो रही थी। सोते-सोते रात का एक बज चुका था लेकिन हथाई/ मुलाकातों का दौर थमा नहीं था। किसी से कॉलेज के समय की बातें तो किसी से क्रिकेट के किस्से। किसी से झुंझुनूं कार्यकाल का जिक्र तो किसी से कुछ। कॉलेज व क्रिकेट के समय युवा दिखाने वाले चेहरों पर अब झुर्रियां थी तो उस दौर के बच्चे नवयुवक बन चुके हैं। 18 से 24 साल पहले का दौर/ मजाक/ किस्से अब फिर ताजा हो गए। बगड़ तो वैसे भी गांव के जैसा ही है। आठ नौ साल तो लगातार बगड़ को दिए हैं। पढ़ाई व क्रिकेट के नाम रहा था यह समय। बाद में झुंझुनूं में पत्रकारिता के दौरान भी कई बार बगड़ आया। वैसे जिला मुख्यालय से गांव को जोडने वाला रास्ता भी बगड़ से होकर ही गुजरता है, इसलिए बगड़ आगमन होना तय ही है। सच में यह लगाव, यह स्नेह ही तो सभी को जोड़े रखता है। यह साथ इसी तरह से कायम रहे। आमीन।

इक बंजारा गाए-20


गरीब की जोरू
एक कहावत है गरीब की जोरू, सबकी भौजाई। इस कहावत का आशय है कि कमजोर आदमी से कोई डरता नहीं है। अपने यहां यह कहावत नगर विकास न्यास व नगर परिषद पर एकदम सटीक बैठती है। शहर में अवैध होर्डिंस लगाने वाले के प्रति यूआईटी व परिषद की भूमिका गरीब की जोरू जैसी है। यह विभाग न तो होर्डिंग्स हटाते हैं और न ही लगाने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई करते हैं। शहर में चौक चौराहों पर होर्डिंग्स टांगने का शगल ऐसा है कि हर कोई ऐरा-गैरा-नत्थू खैरा जहां मर्जी को वहां होर्डिंग्स टांग देता हैं। अब यह तो यूआईटी व परिषद के अधिकारियों को तय करना है कि वे इसी तरह की छवि को बरकरार रखना चाहते हैं या फिर कोई कारगर कार्रवाई कर पहल करेंगे?
वाह री पुलिस
खाकी चाहे तो क्या नहीं हो सकता। अपराधियों की धरपकड़ के लिए परिजनों को उठाने का तरीका तो काफी समय से प्रचलन से है। इधर परिजन को हिरासत में लिया और उधर आरोपित सरेंडर कर देता है। लेकिन कई बार खाकी मुंह देखकर टीका निकालने लग जाती है तो खुद ही सवालों के घेरे में आ जाती है। अब एक कार की टक्कर से छह जनों की मौत के बाद भी आरोपित पुलिस की पकड़ से बाहर हैं। जब खाकी को कार के मालिक का पता है तो गिरफ्तारी में इतनी ढील की कुछ तो वजह है। प्रशासन ने तो पीडि़त परिवारों को पचास-पचास हजार दे दिए हैं लेकिन पुलिस अभी तक यह कहने की स्थिति में नहीं है कि कार चला कौन रहा था? कार में कितने लोग सवार थे? थानाधिकारी का बिना नाम पते जल्द गिरफ्तारी का कहना तो और भी बचकाना बयान है।
इतिहास बनेगा या दोहराया जाएगा!
श्रीगंगानगर में मेडिकल कॉलेज को लेकर और कुछ हो या न हो लेकिन राजनीति जमकर हो रही है। और इस राजनीति में जनता चक्करघिन्नी बनी है। वह तय नहीं कर पा रही है कि किसकी बात पर यकीन किया जाए। कौन सच्चा है और कौन सियासी चालें चल रहा है। खास बात तो यह है कि इस मामले में हर पक्ष के पास अपनी-अपनी दलीलें हैं। और सब यह साबित करना चाहते हैं कि उनके स्तर पर कोई गड़बड़ नहीं है। सोचा जा सकता है जब गड़बड़ ही नहीं है तो फिर काम क्यों रुका हुआ है। जैसे जैसे चुनाव व एमओयू की तिथि नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे सभी के सुर बदले-बदले नजर आ रहे हैं। कल सुबह मंत्री जी कुछ बोले और शाम होते-होते धरातल पर कुछ और दिखाया दिया। इस समूचे घटनाक्रम से यह तो साबित हो रहा है कि कुछ तो है? भले ही सकारात्मक हो या नकारात्मक। आज शाम को जयपुर से खबर आ गई कि मेडिकल कॉलेज बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। अब सरकार और दानदाता दोनों ही एकमत हैं लेकिन चुनावी साल में मेडिकल कॉलेज बनकर इतिहास बनाएगा या पिछले चार साल के इतिहास को दोहराएगा, यह समय ही बताएगा!
पांच सौ में प्रचार
चुनाव नजदीक आने के साथ कई मौसमी नेता भी पैदा हो जाते हैं और इसी के साथ शुरू हो जाता है प्रचार-प्रसार का काम। भले ही चुनावी वैतरणी पार लगे या न लगे, यह अलग बात है परंतु नाम चर्चा में जरूर आ जाता है। यह एक तरह से होर्डिंग्स का तोड़ है। इसमें किसी तरह की कार्रवाई का खतरा भी नहीं है। श्रीगंगानगर में अपना पद व कद बड़ा करने के लिए प्रयासरत नेताजी इन दिनों इसी तरह के प्रचार को प्रमुखता दे रहे हैं। बताया जा रहा है कि यह गाड़ी के पीछे नेताजी का नाम लिखने पर एक माह के पांच सौ रुपए मिल रहे हैं। पांच सौ में प्रचार के इस तरीके को कई लोग अपना रहे हैं। इस प्रचार में कार वालों को फायदा है। एक तो पैसे मिल रहे हैं। दूसरा फायदा यह है कि नेताजी का नाम लिखा देखकर पुलिस/ प्रशासन संबंधी कार्रवाई का भय भी खत्म हो जाता है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 15 फरवरी 18 के अंक में प्रकाशित।

चम्मच/ चमचा पुराण-2

बस यूं ही
तीन दिन लैपटाप से दूर रहा, इस कारण लेखन का काम नहीं हो पाया। आज लैपटाप पर हूं तो लिखना तो बनता ही है। हां तो चार रोज पूर्व चम्मच/चमचा पुराण की बात हो रही थी। इसी दौरान इस विषय पर और लिखने की भी बात हुई। चमचा वैसे तो चम्मच की प्रजाति का ही है लेकिन यह उपमाओं में कब शामिल हुआ यह जांच का विषय है। गूगल विकिपीडिया के अनुसार चमचा भारतीय खाना बनाने में इस्तेमाल होनेवाला बर्तन है। इसमें एक लंबी छड़ के अंत में एक कटोरीनुमा भाग होता है, जो कि तरल खाद्य को प्रयोग में लाने के लिए होता है। यह धातु, लकड़ी आदि का होता है। विकिपीडिया में यह भी बताया गया है कि, बड़े चमचे को चमचा ही कहा जाता है। यह खाना बनाने के काम आता है जबकि छोटे चमचे को चम्मच कहा जाता है। यह खाना खाने के काम आता है। अब इस परिभाषा में एक बात देा तय हो गई कि चमचा दो प्रकार का होता है। छोटा और बडा। खैर, चमचा शब्द विशेष प्रजाति के आदमी से कैसे जुड़ा। यह शब्द प्रचलन में आया कैसा। खोजबीन शुरू की तो वरिष्ठ पत्रकार अजित वेडनेरकर के ब्लॉग में काफी मैटर मिला। लेख जानकारीपरक लगा लिहाजा बिना कांट छांट के मूल स्वरूप में साभार साझा कर रहा हूं।
(चमचा शब्द का इस्तेमाल हिन्दी में दो तरह से होता है। एक तो चापलूस, चाटूखोर के अर्थ में और दूसरा चम्मच के अर्थ में। भोजन परोसने या ग्रहण करने की क्रिया को सुविधाजनक बनानेवाला एक उपकरण जो कलछी से छोटा होता है, चम्मच कहलाता है। पतले मुंह वाले बर्तन में भरी वस्तु निकालने में इसका प्रयोग होता है। इसके अलावा भोज्य सामग्री को हाथ न लगाते हुए भोजन ग्रहण करने की सुविधा भी यह उपकरण देता है। एक पतली सींख के सिरे पर छोटी कटोरी जैसा आकार होता है जिसमें आमतौर पर द्रव या गाढ़ा पदार्थ भर कर उसे चुसका जाता है। चम्मच या चमचा शब्द इंडो-ईरानी भाषा परिवार का है। इसकी हिन्दी में आमद आमतौर पर तुर्की से मानी जाती है मगर लगता है यह मूल रूप से संस्कृत की पृष्ठभूमि से निकलकर अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी में विकसित हुआ, अलबत्ता चम्मच में चापलूस या खुशामदी व्यक्ति का भाव मुस्लिमदौर की देन हो सकती है। चम्मच के तुर्की मूल का होने के ठोस प्रमाण भाषाशास्त्री भी नहीं देते हैं। विभिन्न कोश भी इसकी व्युत्पत्ति के बारे में अलग अलग जानकारी देते हैं मगर हिन्दी के कोश निश्चयात्मक तौर पर इसे संस्कृत मूल का नहीं बताते हुए फारसी या तुर्की का बताते हैं। इसके विपरीत कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्तिकोश में इस शब्द का मूल संस्कृत ही बताया गया है। संभव है किन्हीं संदर्भो और च-म-च जैसे ध्वनियों की वजह से इसे तुर्की का माना गया हो क्योंकि तुर्की शब्दावली में इन ध्वनियों की अधिकता है। संसकृत धातु चम् से चम्मच की व्युत्पत्ति तार्किक लगती है।
संस्कृत धातु चम् से चम्मच की व्युत्पत्ति ज्यादा तार्किक लगती है, क्योंकि अन्य कोई आधार इतने मज़बूत हैं नहीं। चम् धातु में पीना, कण्ठ में उतारना, गटकना, एक सांस में चढ़ाना, चाटना, पी जाना, सोखना जैसे भाव हैं। चम् धातु में अदृष्य तौर पर पीने के पात्र का भाव भी छुपा है जिसकी वजह से इससे चम्मच की व्युत्पत्ति हुई। चम् धातु से बने कुछ अन्य शब्दों पर गौर करें जो हिन्दी में प्रचलित हैं। चमत्कार का अर्थ बतौर आश्चर्यजनक खेल तमाशा खूब होता है। इसे जादू भी कहते हैं और विस्मयकारी घटना भी। गौर करें कि जादू के तौर पर सर्वाधिक जो क्रिया मनुष्य को प्रभावित करती है वह है लुप्त होना, गायब होना। किसी वस्तु की निकट वर्तमान तक सिद्ध अस्तित्व का अचानक लोप होना। चम् धातु में निहित गटागट पीने, निगलने, कण्ठ में उतारने के भाव पर गौर करें। इसमें पदार्थ के अन्तर्धान होने का ही भाव है। चम् से ही बना है चमत्कार। बच्चों को दवा पीने के लिए यही कहा जाता है कि इसे फटाफट खत्म कर दो। जाहिर है, खत्म करने में पदाथज़् के लोप का ही भाव है। यही भाव चम् से बने चमत्कार ने ग्रहण किया। पूजाविधियों में शुद्धजल को ग्रहण करने की क्रिया आचमन कहलाती है, जिसका अर्थ भी पीना या ग्रहण करना है। गौर करें, यह इसी चम् धातु से बनी है। आजकल आचमन का अर्थ मदिरा के संदर्भ में भी होने लगा है।
चम् से बना संस्कृत का चमस् जिसका प्राचीन अर्थ हुआ सोमपान करने के काम आनेवाला चम्मच के आकार का एक चषक। याद रहे, प्राचीनकाल में श्रेष्ठिवर्ग में सार्वजनिक रूप में मद्यपान करने का एक ढंग यह भी था। आज के दौर की तरह सबके हाथों में मद्यपात्र न होकर एक बड़े पात्र में मदिरा होती थी और एक निर्धारित मात्रा या मानक वाले चम्मच से उसे सभी लोग ग्रहण करते थे। प्राचीन यूनान और ग्रीस में भी यह तरीका कुलीन घरानों में प्रचलित था। संभव है यह तरीका भारत में ग्रीक या यूनानियों के जरिये आया हो क्योंकि दो हजार साल पहले तक गांधार क्षेत्र में यूनानी उपनिवेश कायम थे। चमस् का अगला रूप हुआ चमस्य। प्राकृत में यह हुआ चमस्स। संभव है चमस्स से ही किन्हीं अपभ्रंशों में यह चमच, चम्मच या चमचा का रूप ले चुका हो, मगर अभी स्पष्ट नहीं है। फारसी में चमस् का रूप चम्च: हुआ और फिर हिन्दी में यह चम्मच या चमचा के रूप में दाखिल हुआ। भारत में इतिहास को दर्ज करने की वैसी परम्परा नहीं रही जैसी पश्चिमी सभ्यता में रही है इसलिए सभ्यता, संस्कृति, भाषा के क्षेत्र में कई बार अनुमानों से काम चलाना पड़ता है क्योंकि बीच की कडय़िां गायब होती हैं। चमस् का फारसी रूप चम्च: हुआ। पर यह पता नहीं चलता कि चम्मचनुमा एक उपकरण जब भारत में मौजूद था तब उसे चमचा बनने में फारसी संस्कार की ज़रूरत क्यों पड़ी। जाहिर है चमस् का लोकभाषा में भी कुछ न कुछ रूप रहा होगा, मगर वह दर्ज नहीं हो सका। फिर भी बरास्ता फारसी चम्च: की आमद हिन्दी में हुई यह मान लेने से भी हमारे निष्कर्षों पर कोई अंतर नहीं पड़ता है।
चम्मच शब्द का प्रयोग खुशामदी के अर्थ में कब कैसे शुरू हुआ यह कहना कुछ कठिन है, पर अनुमान लगाया जा सकता है। चाटुकार शब्द का प्रयोग संस्कृत से लेकर अपभ्रंश में भी होता आया है। संस्कृत शब्द चटु: में कृपा तथा झूठी प्रशंसा का भाव है। चटु: बना है चट् धातु से। है। मूलत: यह ध्वनि-अनुकरण पर बनी धातु है। टहनी, लकड़ी के चटकने, फटने की ध्वनि के आधार पर प्राचीनकाल में चट् धातु का जन्म हुआ होगा। कालांतर में इसमें तोडऩा, छिटकना, हटाना, मिटाना आदि अर्थ भी स्थापित हुए। हिन्दी में सब कुछ खा-पीकर साफ करने के अर्थ में भी चट् या चट्ट जैसा शब्द बना और चट् कर जाना मुहावरा भी सामने आया। समझा जा सकता है कि तड़कने, टूटने के बाद वस्तु अपने मूल स्वरूप में नहीं रहती। इसी लिए इससे बने शब्दों में चाटना, साफ कर जाना जैसे भाव आए। इसमें मूल स्वरूप के लुप्त होने का ही अभिप्राय है। इसी मूल से उपजा है चाटु: या चाटु शब्द जिसका अर्थविस्तार हुआ और इसमें प्रिय तथा मधुर वचन, ठकुरसुहाती, मीठी बातें, लल्लो-चप्पो जैसे भाव शामिल हुए। समझा जा सकता है कि किसी को खिलाने-पिलाने की क्रिया के तौर पर जब चट् धातु से चटाने, चाटने जैसे शब्द बने वही भाव प्रक्रिया प्राचीनकाल में प्राकृत-संस्कृत में भी रही होगी। किसी को जबरदस्ती नहीं खिलाया जा सकता। जाहिर है इसके लिए प्रेमप्रदर्शन या मीठा बोलना ज़रूरी है। जाहिर है चाटु: शब्द में दिखावे की बोली का भाव स्थिर हुआ। चाटु: में कार प्रत्यय लगने से बना चाटुकार जिसका अर्थ हुआ खुशामदी, चापलूस अथवा झूठी प्रशंसा करनेवाला।
चट् धातु से चाटुकार जैसी अर्थवत्ता वाला शब्द बनने जैसी ही यात्रा चमस से चम्च: से गुजरते हुए चम्मच के दूसरे अर्थ यानी चमचा में हुई। चम्च: से बने चम्मच ने पहले चमचा का रूप लिया और फिर इसमें फारसी का मशहूर गीरी प्रत्यय लगने से बना चमचागीरी यानी चटाना, खिलाना, गले से उतारना। भाव हुआ खुशामद करना, चापलूसी करना, मीठी बोली बोलना या आगे-पीछे डोलना। एक बच्चे को कुछ खिलाने के लिए जिस तरह से मां उसके आगे पीछे डोलती है, मनुहार करती है, ठीक वही भाव अगर वरिष्ठ व्यक्ति के लिए उसके कनिष्ठ करें तो इसे भी चम्च:गीरी कहा गया अर्थात खुशामद करना। आज लोहे-पीतल-स्टील के चम्मचों की बजाय हाड़-मांस के चमचों की चर्चा ज्यादा होती है। चम्मच बनाने वाली किसी बहुराष्ट्रीय या राष्ट्रीय कम्पनी का नाम आप नहीं बता सकते। पर असली चमचे समाज में अपने आप बन जाते हैं। बिना ब्रांडवाले, खाने-खिलाने की क्रिया से जुड़े चम्मच हमेशा टिकाऊ होते हैं इसी तरह चमचे भी हमेशा टिकाऊ होते हैं, पर खुद के लिए। आज जिसे खिलाते हैं, कल वो उल्टी करता नजऱ आता है।)
क्रमश:

चम्मच/चमचा पुराण

बस यूं ही
इसमें कोई दोराय नहीं फेसबुक विविधताओं का भंडार हैं। यहां सब रंग हैं। इन को लेकर पूर्व में एक लंबी चौड़ी पोस्ट भी लिख चुका हूं। ताजा मामला भी एक पोस्ट से ही जुड़ा है। यह पोस्ट सिर्फ एक लाइन की थी। इसे एक लाइन का सामान्य सा सवाल कहूं तो ज्यादा उचित प्रतीत होगा। मामला चम्मच और चमचा पुराण से जुड़ा होने के कारण इस पोस्ट में रोचकता इसके नीचे आए कमेंट्स से और ज्यादा पैदा हुई। रोचकता के साथ इसमें हास्य रस भी जुड़ गया। तभी ख्याल आया कि इस विषय पर लिखा जाना चाहिए। दरअसल, पिछले दिनों एक साहित्यिक कार्यक्रम में जोधपुर जाना हुआ। वहां मंच संचालन करने वाले शख्स की शैली से बेहद प्रभावित हुआ। व्यस्तता कहिए या शर्म शंका लेकिन तब मेरा उनसे व्यक्तिश: परिचय नहीं हो पाया। श्रीगंगानगर लौटने के बाद जब मैंने इन महाशय को एफबी पर सर्च किया और फिर तत्काल मित्रता आग्रह भेजा। स्वीकार भी हुआ। फिर मैसेंजर के माध्यम से परिचय हुआ और जब यह कहा कि आपको उस दिन सुना था, तो ठेठ जोधपुरी अंदाज में जवाब आया। इसे उलाहना भी कह सकते हैं, जो अभी तक चढ़ा हुआ है। उलाहना यही है कि अब भविष्य में कभी जोधपुर आओ तो चुपचाप मत निकल जाना। मिलकर ही जाना। इसके बाद दोनों का एफबी व व्हाट्सएप के माध्यम कमोबेशे रोज ही संवाद हो जाता है। फिर भी आमने-सामने की मुलाकात अभी बाकी है। खैर, इतनी भूमिका बांधने के बाद अब बता ही देता हूं यह शख्स हैं जोधपुर के श्री रतनसिंह जी चांपावत। रणसी गांव के हैं। शिक्षा विभाग में अंग्रेजी के व्याख्याता हैं लेकिन हिन्दी, मारवाड़ी भी गजब की है। कवि हृदय हैं, लिहाजा सृजन के काम से भी जुड़े हैं। अब मूल बात पर आता हूं। रतनसिंहजी ने कल रात अपने वाल पर एक पोस्ट (सवाल लिखा ) 'एक चम्मच और चमचे में क्या अंतर है?; 
पोस्ट के जवाब में पहला कमेंट आया, चम्मच- भोजन ग्रहण करने का सहायक उपकरण। चम्मचे-राजनीतिकरण के सहायक उपकरण। दोनों युग्म शब्द है लेकिन भावार्थ भिन्न भिन्न। इसके बाद कमेंट्स का सिलसिला शुरू हो गया। 
दूसरा आया, चम्मच खिलाता है, चमचा बजाता है।
तीसरा कमेंट्स- चम्मच हर घर मे मिलता है और चमचा हर कार्यालय मे मिलता है।
चौथा कमेंट्स- एक चम्मच खाना सुधारता है। और ज्यादा चमच यानी चमचे बरतनों की दुकान पर होते हैं जो कुछ पैसो मे बिकते हैं या बेचे जाते हैं।
पांचवां कमेंट्स- चम्मच - खाना खाने खिलाने में मददगार। चमचे-चापलूस चाटूकार इंसान
छठा कमेंट्स- चम्मच निर्जीव होता है और चमचे सजीव।
सातवां कमेंट्स- वही ...जो सुविधा और समस्या में है।
आठवां कमेंट्स- चम्मच सुधारने की प्रकिया में उपयोगी होता है। और चम्मचे तो हर काम को चापलूसी के द्वारा अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। इनका इस्तेमाल हानिकारक होता है।
नौवां कमेंट्स- आदमी अपने उपयोग अनुसार चम्मच का लाभ लेता है....। चम्मचे-अपने स्वार्थ अनुसार आदमी का लाभ उठा सकते हैं.।
दसवां कमेंट्स- एक स्त्रीलिंग व एक पुलिंग।
ग्याहरवां कमेंट्स- दोनो इधर की ऊधर करते हैं।
बारहवां कमेंट्स- कुछ चम्मच चांदी के होते हैं। कुछ चमचों की चांदी होती है।
तेरहवां कमेंट्स- चमचा
च से चुगली जो करे, चतुर वही कहलाय।
म से मख्खन, जो मिले, दे वो उसे लगाय।
चा से चालू जो मिले, चापलूस बन जाय,
लक्षण जो ये सभी रखे, चमचा वही कहाय।
चौदहवां कमेंट्स-चम्मच घर में होवे, चम्मचे घर से बाहर।
इसके बाद कमेंट्स आने का दौर थमा हुआ है। लेकिन जो आया वो सब एक से बढ़कर एक हैं। सभी हंसाते गुदगुदाते हैं और सोचने पर मजबूर भी करते हैं। इस हास्य में व्यंग्य भी छिपा है। इतना सब पढ़ कर किसी के चेहरे पर मुस्कान लौटती है तो समझता हूं मैं अपने मकसद में सफल रहा। हां चम्मच/ चमचा पुराण पर और व रोचक लिखने के वादे के साथ।

इक बंजारा गाए-19

दूध का जला
कहावत है दूध का जला छाछ को फूंक-फूंक कर पीता है। कहने का आशय है यह है कि एक बार कोई सीख मिल जाती है या अनुभव हो जाता है तो फिर दुबारा वैसे होने के चांस खत्म या कम हो जाते हैं। ऐसा ही धार्मिक संगठन के साथ हुआ। चूंकि इस संगठन ने कार्यक्रम के बहाने इस बार चार संकल्प भी ले लिए थे। इनमें एक संकल्प स्वच्छता का भी था। शुरुआत में तो इस संकल्प का पालना होती दिखाई नहीं दी, जब कार्यक्रम के बहाने सभी ने अपने-अपने प्रतिष्ठान के नाम के साथ होर्डिंग्स लगाकर शहर को बदरंग कर दिया। इतना ही नहीं कार्यक्रम के पहले दिन निकली यात्रा में शामिल श्रद्धालुओं ने ठंडा पेय पीकर रैपर व खाली पैकेट सड़कों पर फेंक दिए थे। खैर, कार्यक्रम के समापन के बाद जरूर स्वच्छता का संकल्प साकार होता दिखाई दिया जब शहर से सभी होर्डिंग्स रातोंरात ही उतर गए।
राजनीति तो नहीं
शहर का स्वच्छता सर्वे होने के बाद कई जगह नाले अचानक से उफान मारने लगे हैं। नाले बंद हो रहे हैं और पानी सड़कों पर फैल रहा है। एक ही क्षेत्र में इस तरह की समस्या होना न केवल गंभीर बात है बल्कि जांच का विषय भी है। सफाई के नाम पर मोटा बजट खर्च करने तथा नए ठेके में बजट बढ़ाने के बावजूद नालियां जाम क्यों हो रही हैं। उनमें कचरा अटक रहा है या उनको जानबूझकर अवरुद्ध किया जा रहा है, यह भी बड़ा सवाल है। पिछले दिनों तो एक नाला ऐसा भी मिला जिस पर सड़क तक बना दी गई। अब सड़क किसने बनाई, क्यों बनाई, इससे क्या फायदा था, यह तो नगर परिषद ही जाने। क्यों न नाला बनाने वाले अधिकारी या जनप्रतिनिधि से यह राशि वसूली जाए। यह भी एक तरह का राजकोष को नुकसान ही तो था। लगता नहीं परिषद प्रशासन इतनी हिम्मत दिखा पाएगा। 
नया शगल
चुनाव का मौसम नजदीक आने के साथ-साथ ही सभी लोग अपने कद व पद के हिसाब से काम पर लग जाते हैं। यही कारण है कि सभी की अपने-अपने हिसाब से सक्रियता भी बढ़ जाती है। इन दिनों ऐसे लोग कार्यक्रमों में देखे जा सकते हैं। कहीं बाकायदा प्रायोजित तरीके से कार्यक्रम हो रहे हैं तो कहीं यह बिन बुलाए मेहमान ऐसे ही पहुंच जाते हैं। विशेषकर शादी व गमी में तो बिन बुलाए मेहमानों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। यह क्रम चुनाव तक बदस्तूर चले तो कोई बड़ी बात नहीं। किसी न किसी बहाने से खुद को चर्चा मेंं रखने का नया शगल भी पनप रहा है। हर जगह सहभागिता दिखाना भी इसी का हिस्सा है। पिछले दिनों जिला मुख्यालय पर निकली रैली में भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने को मिला था। एक नेताजी बाइक पर खड़े होकर फोटो सेशन तक करवाने लगे।
गले की हड्डी
कई बार सुना है कि अक्सर अनाज के साथ घुण भी पिस जाता है। अब ऐसा होता साक्षात देखा भी जा रहा है। पिछले दिनों पड़ोसी प्रदेश की खाकी ने जोश-जोश में एनकाउंटर तो कर दिया लेकिन यह एनकाउंटर अब खाकी के गले की हड्डी बन गया है। हालात यह है कि न उगलते बन रहा है न निगलते। दरअसल, एनकाउंटर में दो गैंगस्टर के साथ एक जना और मारा गया। पहले तो इसकी शिनाख्त ही नहीं हुई। बाद में पता चला है कि यह तो ऐसे ही लपेटे में आ गया है। बचाव के लिए दोनों प्रदेशों का पुलिस रिकॉर्ड भी इस उम्मीद से खंगाला गया कि शायद तीसरे युवक के खिलाफ कहीं कोई आपराधिक मामला मिल जाए लेकिन खाकी को निराशा ही हाथ लगी। फिलहाल तो पड़ोसी प्रदेश की खाकी के पैरों के नीचे की जमीन खिसकी हुई है।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 01 फरवरी 18 के अंक में प्रकाशित