Friday, August 31, 2012

...ताकि कष्टप्रद ना हो अंतिम सफर

जो आया है, वह एक दिन जाएगा। यही जिंदगी की कड़वी हकीकत है। बावजूद इसके लोग इस हकीकत को दरकिनार करने से बाज नहीं आते। स्वतंत्रता सेनानी बालाराम जोशी के अंतिम संस्कार से पहले जब उनकी अंतिम यात्रा दुर्ग की शिवनाथ मुक्तिधाम की इस टूटी-फूटी सड़क से होकर गुजरी तो विकास के नारे बेमानी से लगे। अंतिम यात्रा में शामिल लोगों को यह तो यकीन हो गया कि मुक्तिधाम की यह सड़क भी ऐसे ही लोगों ने बनाई है, जिन्होंने अपना जमीर बेचकर जिंदगी के इस सच को नजरअंदाज किया। सड़क पर बने बड़े-बड़े गड्‌ढ़े और उनमें भरा कीचड़ यह बताने के लिए काफी है कि इसके निर्माण में किस तरह की गफलत की गई है। कितनी दिक्कत होती है यहां से गुजरने वालों को। अकेले आदमी को भी एहतियातन यहां से गुजरते हुए सावधानी बरतनी पड़ती है। अर्थी लेकर चलने वाले कैसे गुजरते होंगे यहां से, समझा जा सकता है। इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ शासन-प्रशासन एवं जनप्रतिनिधि ही नहीं है। हम सब भी हैं। ऐसे हालात क्यों बने, हम कभी सोचते नहीं हैं। हम केवल उसी वक्त व्यवस्था को कोसते हैं, जब इस मार्ग से गुजरते हैं। हमको तकलीफ भी उसी वक्त होती है। उसके बाद हम भूल जाते हैं। हम बात-बात पर रास्ता रोकते हैं, हंगामा खड़ा करते हैं। तोड़फोड़ पर उतारू हो जाते हैं। फिर इस बात के लिए अपनी आवाज बुलंद क्यों नहीं करते। इस जगह देर सबेर हम सभी को आना है। पहल करने बाहर से कोई नहीं आएगा। शुरुआत खुद से ही करनी होगी। इस विषय में सोचना और कोई उचित निर्णय जरूर लेना ताकि जैसा आज स्वतंत्रता सेनानी बालाराम जोशी की अंतिम यात्रा के दौरान हुआ कल किसी और के साथ न हो। इस बहाने सड़क सुधारने के लिए अगर शासन-प्रशासन या जनप्रतितिनिधियों की तरफ से कोई सार्थक प्रयास होते हैं तो निसंदेह स्वतंत्रता सेनानी बालाराम जोशी को एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी, ताकि किसी का अंतिम सफर इस प्रकार कष्टदायी ना बने।

साभार : भिलाई पत्रिका के 31 अगस्त 12 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, August 28, 2012

...क्योंकि मैं एक सड़क हूं

(सड़क की कहानी, उसी की जुबानी)

टिप्पणी 

बनना और टूटना मेरी फितरत है। मैं बनती हूं, टूटती हूं। फिर बनती हूं और फिर टूट जाती हूं।... क्योंकि मैं एक सड़क हूं। यह सिलसिला चलता रहता है। लगातार, निरतंर और बदस्तूर। तभी तो टूटने का क्रम कभी रुकता नहीं है, थमता नहीं है। अनवरत चलता ही रहता है बिना थके। मेरे साथ विडम्बना यह जुड़ी
है कि मैं बनती देर से हूं लेकिन उखड़ बहुत जल्दी जाती हूं। मेरे उखड़ने से भले ही कोई दुर्घटनाग्रस्त हो। कोई चलते-चलते ठोकर खाए। हाथ-पैर तुड़वाए, मेरे बाप का क्या जाता है। मुझे घुट्‌टी भी इसी बात की पिलाई जाती है। क्या सांप काटना छोड़ सकता है। क्या कुत्ता भौंकना छोड़ सकता है। तो मैं अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूं। मौसम बदल जाते हैं। हालात बदल जाते हैं। और तो और सरकारें भी बदल जाती हैं लेकिन मेरा टूटना या उखड़ना कभी बंद नहीं होता। हो भी कैसे ..क्योंकि मैं एक सड़क हूं। जगह कोई भी हो, मेरी जैसी कहानी मेरी सभी बहनों की है। तभी तो हमारे बनने-बिगड़ने का गणित सभी जगह कमोबेश एक जैसा ही है। सरकार किसी की भी हो। सत्ता में कोई भी बैठा हो। क्या फर्क पड़ता है उससे। टूटने का सिलसिला तो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। आजादी के बाद से ही। उस परम्परा को भला कैसे छोड़ दूं। समाज के नियमों को कैसे तोड़ दूं। मैं जब टूटती हूं तो ठाले-बैठे विपक्षी दलों को एक जोरदार मुद्‌दा जरूर मिल जाता है। विरोध करने का। मेरा नाम लेकर कइयों के भाग्य बन गए और अभी तो कइयों के बनेंगे। मैंने अपना स्वभाव बदल लिया तो यकीन मानिए नेता बनने की एक राह तो सदा के लिए ही बंद हो जाएगी। किसी की राह रोकना भी तो मेरा काम नहीं है।...क्योंकि मैं एक सड़क हूं।
मैं अक्सर टूटती हूं। कई बार तोड़ दी भी जाती हूं। कभी किसी बहाने से तो कभी कोई कारण बताकर। इंद्रदेव को तो हमारी जमात पर जरा सा भी तरस नहीं आता। घोटालों और घपलों की तमाम खामियां बारिश में बहा ले जाते हैं। कितने दयालु हैं दूसरों का गुनाह खुद अपने ऊपर ले लेते हैं। मेरे टूटने की सबसे बड़ी वजह (बहाना) तो बारिश ही बनती है। खैर मेरे टूटने के बहाने वहां भी हैं, जहां बारिश नहीं है। और फिर मुझे तोड़ा भी तो आपके भले के लिए जाता है। मेरी बहनें जो बार-बार टूटती है। नजर अक्सर उन्हीं पर रहती है। उन्हीं की पूछ परख होती है। जो समय पर टू टती नहीं है, उसे कोई पूछता ही नहीं है। उपेक्षित रहती है बेचारी। लाचारी एवं मजबूरी की मारी। देखा जाए तो मेरे बनने-बिगड़ने की कहानी से कई जिंदगियां जुड़ी हैं। कई परिवार पल रहे हैं। मैं अपनी आदत छोड़ दूंगी तो यह सब कहां जाएंगे। घरों में रोटियों के लाले पड़ जाएंगे। नेताओं की कुर्सियां हिल जाएंगी। ठेकेदार बेरोजगार हो जाएंगे। मैं चाहकर भी अपनी आदत नहीं छोड़ सकती। अपने उसूलों से कभी मुंह नहीं मोड़ सकती। घर दूसरों का भरने के कारण ही मेरा दामन गरीब है। बार-बार बनना और बिगड़ना ही मेरा नसीब है। ...क्योंकि मैं एक सड़क हूं।
मेरी हालत पर आम आदमी तरस खाता है। रोता है, चिल्लाता है। गुस्से में बड़बड़ाता है। गालियां भी निकालता है लेकिन मैं क्या कर सकती हूं। दोष बनाने व बनवाने वालों के साथ आप सब का भी है। वैसे भी किसी पर फिजूल में दोषारोपण करना ठीक नहीं है। मुझे यह भी पता है कि बिना तालमेल के घालमेल संभव नहीं है। लेकिन जब आप लोग ही चुप हैं तो फिर मैं किसके लिए बोलूं और क्यों बोलूं.... क्योंकि मैं तो एक सड़क ही हूं। दिल से भी पैदल और दिमाग से भी पैदल।... आखिर एक सड़क जो ठहरी।
साभार- पत्रिका भिलाई के 28 अगस्त 12  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, August 25, 2012

जरूरी है शहीदों का सम्मान


प्रसंगवश

छत्तीसगढ़ प्रदेश के युवाओं की सेना में भागीदारी इसीलिए कम है, क्योंकि इस मामले में न तो यहां की सरकार रुचि लेती है और ना ही जनप्रतिनिधि। प्रदेश के युवाओं को ऐसा माहौल भी उपलब्ध नहीं कराया जाता जिसकी बदौलत उनमें देश सेवा करने के प्रति जोश, जुनून और जज्बा पैदा हो। सरकारी उदासीनता के बीच अगर कोई युवा देश सेवा की हसरत लिए सेना में भर्ती हो भी जाता है तो उसके मान-सम्मान को बनाए रखने के भी प्रयास नहीं किए जाते। सोचनीय एवं दुखद विषय तो यह भी है कि देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले शहीदों एवं उनके परिवारों को भी राज्य सरकार की ओर से यथायोग्य सम्मान भी नहीं मिल पाता। वैसे भी छत्तीसगढ़ में शहीदों के अंतिम संस्कार में राज्य सरकार की ओर से अक्सर निभाई जाने वाली औपचारिकता के उदाहरणों के फेहरिस्त भी बेहद लम्बी है। बात चाहे माओवादी हमले में शहीद होने वाले जवानों की हो या फिर सरहद पर दुश्मन से लोहा लेते हुए बलिदान होने वालों की। दोनों ही मामलों में सरकार का रवैया कमोबेश एक जैसा ही है। ताजा मामला जम्मू-कश्मीर में शहीद हुए भिलाई के लाडले प्रवीणसिंह के अंतिम संस्कार से जुड़ा है। शहीद को श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के मामले में जिले के अधिकतर जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने दूरी बनाए रखी। जो पहुंचे वे भी मौका देखकर अत्येष्टि से पूर्व ही वहां से खिसक लिए। कुछ तो अंतिम यात्रा में शामिल हुए बिना ही शहीद के घर से ही लौट गए। मतलब सभी को पहुंचने से पहले जल्दी लौटने की चिंता ज्यादा थी। शहीद के प्रति जिले के जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारी का इस प्रकार का रवैया निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है। विडम्बना देखिए कि जिले के कई जनप्रतिनिधियों के पास सैलून व जूतों की दुकान का उद्‌घाटन करने,  नाली निर्माण के लोकार्पण समारोह में रिबन या फीते काटने और सस्ती लोकप्रियता के लिए छोटे-मोटे कार्यक्रमों में उपस्थित होकर ठुमके लगाने के लिए तो पर्याप्त समय है लेकिन शहीद की पार्थिव देह पर श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए वक्त नहीं है। इतना ही नहीं बात-बात पर बयान जारी करने वाले जनप्रतिनिधियों के पास शहीद के मामले में सांत्वनास्वरूप कहने के लिए दो शब्द भी नहीं है। पता नहीं क्यों जुबान तालु से चिपकी हुई है।
बहरहाल, शासन-प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह शहीद परिजनों तथा देशसेवा से जुड़े परिवारों की न केवल खैर-खबर ले बल्कि उनका मान-सम्मान भी बनाए रखे। अगर शासन-प्रशासन ऐसा नहीं कर पाए तो फिर कौन मां होगी जो अपने लख्तेजिगर को सरहद पर गोलियां खाने के लिए भेजेगी। क्यों कोई पिता अपने बुढ़ापे की लाठी को देश के खातिर मर-मिटने की शिक्षा देगा। क्यों कोई वीरांगना अपना सुहाग मिटाकर वैधत्व भोगने पर मजबूर होगी। मामला संवदेनशील एवं बेहद गंभीर है, इसमें देरी किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। यह शासन-प्रशासन को सोचनी चाहिए।

साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 25 अगस्त 12  के अंक में प्रकाशित।

Friday, August 24, 2012

जल्दबाज ड्राइवर कभी बूढ़ा नहीं होता....

बस यूं ही

आफिस से घर पहुंचते-पहुंचते डेढ़ बज चुका था। अचानक ख्याल आया कि एकलव्य (मेरा छोटा बेटा, जो केजी टू में पढ़ता है) की स्कूल बस आने का समय हो गया है। बस रोजाना डेढ़ और पौने दो बजे के बीच ही आती है लेकिन वह घर तक नहीं आती है। इसलिए एकलव्य को लेने के लिए सड़क तक जाना पड़ता है। रायपुर-नागपुर मार्ग होने के कारण इस पर वाहनों की आवाजाही भी खूब रहती है। एकलव्य को लेकर घर पहुंचा तब तक श्रीमती ने खाने की तैयारी लगभग पूरी कर ली थी। चाहे गर्मी हो या सर्दी अपनी आदत के अनुसार मैं गर्मागर्म एक-एक चपाती ही खाता हूं। खाने की स्पीड भी इतनी तेज है कि जब तक दूसरी आए तब तक पहली वाली साफ हो चुकी होती है। खाने की स्पीड उस वक्त तो और भी बढ़ जाती है जब कहीं जाना होता है।
दरअसल मैं जल्दबाजी इसलिए दिखा रहा था कि मुझे कांग्रेस पार्टी के दुर्ग में आयोजित घेराव कार्यक्रम को देखने जाना था। करीब आधा घंटे कार्यक्रम देखने के बाद मैंने ऑटो पकड़ा और भिलाई के लिए रवाना हो गया। रास्ते में मेरे ऑटो के आगे एक लोडिंग ऑटो चल रहा था। उसके पीछे की साइड में लिखा था, जल्दबाज ड्राइवर कभी बूढा नहीं होता है। यह स्लोगन मैंने पढ़ लिया और इसका मर्म समझ कर मन ही मन मुस्कुरा भी लिया। ऑटो चालक की बगल में ही उसका साथी बैठा था। चेहरे के हावभाव देखकर मुझे उनके बालिग होने में संदेह लगा। दोनों बच्चे ही थे। उन दोनों ने भी वह स्लोगन पढ़ा और इसके बाद तो बार-बार पढ़ने लगे। दोनों की हालत देखकर मुझे लगा कि शायद दोनों को स्लोगन के पीछे छिपा मर्म समझ में नहीं आ रहा है। मैंने जिज्ञासावश दोनों को टोकते हुए पूछ लिया कि इस स्लोगन से आप क्या समझते हैं। जवाब भी वैसा ही आया जैसा मैं सोच कर चल रहा था। दोनों ने असहमति में सिर हिलाया। मैंने उनको कहा कि जो ड्राइवर गाड़ी तेज चलाता है वह कभी बूढा नहीं होता है। चूंकि मैं पीछे बैठा था लिहाजा दोनों ने मेरी बात को गंभीरता से सुना, लेकिन किसी तरह की प्रतिक्रिया ना होती देख मैंने फिर पूछा समझे कि नहीं, इस पर उन्होंने असहमति स्वरूप अपना सिर हिला दिया। मैंने उनको बताया कि जो वाहन तेज चलाता है वह इसलिए बूढा नहीं होता है क्योंकि वह असमय ही ऊपर मतलब भगवान के घर चला जाता है। वे फिर भी नहीं समझे और पूछने लगे कि कैसे। मैंने बताया कि जब तेज चलेगा तो हादसा होगा और हादसा होगा तो जान जाने की आशंका रहती है। मेरी बात एक युवक को समझ में आ गई। उसने तत्काल अपने साथी को अपने हिसाब से समझाया तो दोनों ठहाका लगाना लगे। फिर तो एक युवक ने बिलकुल विशेषज्ञ की तरह मुझसे कहा, भाईसाहब सिगरेट पीने वालों के लिए भी ऐसा ही कहा जाता है ना। इसी दौरान दूसरा बोल उठा सिर्फ सिगरेट ही नहीं कोई नशा करने वाला कभी बूढ़ा नहीं होता। ऑटो अपनी गति से दौड़ा जा रहा था। नशे की बात पर इतनी गंभीर बातें करने वाले युवकों को गुटखा चबाते व पीक थूकते देख मैं सोच में इस कदर डूबा कि मेरा स्टैण्ड कब आया पता ही नहीं चला। उतरते वक्त मैंने गुटखे के लिए दोनों को टोका तो उलटे मेरे को ही नसीहत देने लगे, बोले भाईसाहब कैन्सर तो उनके भी होता है जो नशा नहीं करते। मैं उन नासमझों की बातों पर बिना कोई टिप्पणी किए किराये के दस रुपए थमा कर चुपचाप कार्यालय लौट आया।

पालक हित में काम करें

टिप्पणी 

 स्कूलों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और बेतहाशा स्कूल फीस वृद्धि से उकताए शिक्षानगरी भिलाई के पालकों को उस वक्त बड़ी उम्मीद बंधी थी कि कम से कम उनकी पीड़ा को सुनने वाला कोई संगठन तो तैयार हुआ। उनको लगने लगा कि उनकी आवाज को अनसुना कर देने वाले संबंधित स्कूल संचालकों में अब कुछ तो भय होगा। इसी भरोसे के साथ पालकों ने एक नए नवेले संगठन को भरपूर समर्थन भी दिया। शुरुआती दौर में छत्तीसगढ़ पालक संघ अपने उद्‌देश्यों पर खरा उतरता नजर भी आया जब उसने पालकों की कई समस्याओं को हल करवाया। पालक संघ की पहल पर निजी स्कूलों पर लगाया गया जुर्माना तो समूचे प्रदेश में एक नजीर के रूप में याद किया जाएगा। इन सब कामों के चलते अल्प समय में ही पालक संघ ने अच्छी खासी लोकप्रियता भी हासिल कर ली। तभी तो पालकों को यह लगने लगा कि जिले में एक संगठन पहले से मौजूद होने के बावजूद नया संगठन अस्तित्व में क्यों आया। इतना कुछ करने के बाद गुरुवार को एक निजी स्कूल के बस चालकों के प्रदर्शन को समर्थन देकर संघ ने अपने उद्‌देश्यों की मर्यादा को लांघने का ही काम किया है। आखिर संघ यह करके क्या साबित करना चाहता है। बस चालकों के प्रदर्शन की वजह से विद्यार्थी ढाई घंटे तक स्कूल में बैठे रहे। समय पर बच्चों के घर न पहुंचने के कारण पालकों को हुई परेशानी को तो शब्दों में बयां करना भी मुश्किल है। पालकों के हितैषी कहलाने वाले संघ पदाधिकारियों को इस बात का जरा सा भी ख्याल नहीं आया कि उनके इस निर्णय की गाज सबसे पहले कहां पर गिरने वाली है। स्कूल प्रबंधन और बस चालकों की लड़ाई में पालक संघ के बीच में कूदने से सर्वाधिक नुकसान तो विद्यार्थियों का ही हुआ। बस चालक एवं स्कूल प्रबंधन में तो कल को समझौता भी हो जाएगा लेकिन मासूमों की भावना से खिलवाड़ करने की क्षतिपूर्ति किसी भी रूप में संभव नहीं है। 
बहरहाल, गड़बड़ियों एवं अव्यवस्थाओं को दुरुस्त करवाने के लिए इस प्रकार के संगठन होना जरूरी हो सकता है लेकिन इसका मतलब यह भी तो नहीं कि इस बहाने उसे कुछ भी करने की आजादी मिल जाए। लोकतंत्र में अपनी मांगे मनवाने के तरीके से बहुत से हैं और अव्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना भी बुरी बात नहीं है लेकिन ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि इस कवायद में कहीं जन को कोई नुकसान या पीड़ा तो नहीं हो रहा है। जनता की उम्मीदों की बुनियाद पर खड़ा होने वाला संगठन कभी जनहित को नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ सकता। पालक संघ का गठन पालकों की समस्याओं का निराकरण करवाने के लिए किया गया था ना कि समस्याएं बढ़ाने के लिए। ऐसे में उसके आंदोलनों या प्रदर्शनों का मकसद सस्ती लोकप्रियता पाने या केवल वाहवाही बटोरने तक तो सीमित कतई नहीं होना चाहिए। इस बात का ध्यान रखना तो बेहद जरूरी है कि पालकों का हमदर्द कहलाने के चक्कर में किसी से दादागिरी या मनमानी तो बिलकुल ना हो। जरूरत है कि पालकों का हितैषी कहलवाने वाले अपने गिरेबान में झांकें, गलतियों से सबक लें और बिना किसी राजनीति व लाग लपेट के ईमानदारी के साथ पालक हित में काम करें।

साभार - भिलाई पत्रिका के 24 अगस्त 12 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, August 18, 2012

सरासर जान से खिलवाड़

प्रसंगवश

 एक चर्चित जुमला है, रोम जब जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। कुछ ऐसा ही हाल राज्य सरकार एवं उनके नुमाइंदों का है। इन दिनों दुर्ग-भिलाई में सरकारी भवनों से प्लास्टर उखड़ने की खबरें लगातार आ रही हैं। वैसे भी बारिश के मौसम में सीलन आने से इस प्रकार के मामलों में यकायक इजाफा हो ही जाता है। प्लास्टर उखड़ने से प्रभावित लोग अपने बचाव के लिए जहां बन रहा है गुहार लगा रहे हैं लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। सरकार एवं उसके नुमाइंदे तो कुंभकर्णी नींद में ऐसे गाफिल हैं कि उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही हैं। यह तो गनीमत है कि प्लास्टर उखड़ने से जानमाल की कोई बड़ी हानि नहीं हुई। देखा जाए तो दुर्ग के जिला अस्पताल परिसर स्थित टीबी अस्पताल की छत्त का प्लास्टर उखड़ना ही अपने आप में बेहद गंभीर बात है। अस्पताल एक ऐसी जगह होती हैं, जहां लोग स्वस्थ होने की उम्मीद के साथ आते हैं, लेकिन यहीं पर भी हादसों से वास्ता पड़े तो फिर यह सरासर जान से खिलवाड़ ही है। बात अकेले अस्पताल की ही नहीं है, बल्कि दुर्ग में अधिकतर सरकारी कार्यालय एवं आवास बेहद पुराने एवं जर्जर हैं और इनसे अक्सर प्लास्टर उखड़ता रहता है। ऐसी विषम परिस्थितियों के बावजूद अधिकारी-कर्मचारी एवं उनके परिजन जान जोखिम में डालकर इन आवासों में रहने को मजबूर हैं। 
पिछले दिनों पुलिस लाइन में भी इसी तरह प्लास्टर उखड़कर गिरने से एक महिला घायल हो गई थी। समस्या से प्रभावित महिलाएं जब अपना दुखड़ा सुनाने स्थानीय सांसद के पास गई तो उन्होंने अनर्गल बयान देकर जले पर नमक छिड़कने जैसा काम किया। जन से इस तरह रुखा व्यवहार करने के बाद भी खुद को जनप्रतिनिधि कहलवाना निसंदेह शर्मनाक एवं गंभीर बात है। जनप्रतिनिधि से उम्मीद की जाती है कि भले ही वह समस्या का निराकरण ना कर/करा पाए, कम से कम दिलासा तो दे। ज्यादा नहीं तो वह उम्मीद भरा आश्वासन तो दे ही सकता है, लेकिन सत्तारूढ़ दल एवं उसके नुमाइंदों से ऐसी उम्मीद करना भी बेमानी है।  
बहरहाल, पुलिस ऐसा विभाग है जिसके कंधों पर प्रदेश की कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी हैं। परिजनों पर मंडरा रही मौत की आशंका में पुलिसकर्मी अपने काम को कितनी ईमानदारी से कर पाएंगे, सोचा जा सकता है। कहा गया है कि जान है तो जहान है, लेकिन जब खतरा जान पर ही हो तो फिर सारे काम गौण हो जाते हैं। राज्य सरकार को भावी हादसे की दस्तक को तत्काल प्रभाव से समझते हुए आवश्यक कदम उठाना चाहिए। देखना यह है कि राज्य सरकार इस मामले में पहल अपने विवेक से करती है या किसी हादसे के बाद। और अगर जानमाल की हानि के बाद ही यह सब होना है तो सरकार एवं उसके नुमाइंदों को सद्‌बुद्धि देने के लिए भगवान से प्रार्थना के अलावा और कुछ किया भी नहीं जा सकता है।

साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ के  18 अगस्त 12  के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, August 14, 2012

यह पानी निकलवा दीजिए


 टिप्पणी

माननीय, अनिल टुटेजा जी
आयुक्त नगर निगम, भिलाई।
आपको भिलाई नगर निगम की जिम्मेदारी संभाले हुए सप्ताह भर से अधिक समय हो गया है। इस अवधि में आपके काम करने का अंदाज देखकर लगा कि वाकई आपमें कुछ करने का जज्बा है। वैसे भिलाई निगम के लिए आप नए हो सकते हैं लेकिन आप छत्तीसगढ़ के ही जन्मे जाए हैं, लिहाजा यहां की जानकारी तो आ
पको पहले से है। विशेष रूप से भिलाई को तो आप भली-भांति जानते ही हैं। जानने की वजहें भी हैं। कौन होगा जो भिलाई को नहीं जानता। इस्पातनगरी एवं शिक्षा नगरी, यही तो दो नाम हैं, जो भिलाई का प्रतिनिधित्व करते हैं। बड़े गर्व की अनुभूति होती है भिलाई के लिए यह दोनों विश्लेषण सुनकर, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन विशेषताओं के साथ कई कड़वी हकीकतें भी जुडी हैं भिलाई के साथ। बुनियादी सुविधाओं के अभाव से लेकर प्रदूषण तक की कड़वी हकीकतें। खैर, रफ्ता-रफ्ता आप इन हकीकतों से वाबस्ता हो जाएंगे। आप संवदेनशील हैं तथा जनता के दर्द को भी समझते हैं। तभी तो पदभार ग्रहण करने के साथ ही आपने अधिकारियों-कर्मचारियों को निर्धारित समय पर कार्यालय आने की कड़ी नसीहत दे डाली। इतना ही नहीं लगे हाथ आपने शहर की टूटी सड़कों का जायजा भी ले लिया। चाहते तो आप मातहत को मौके पर भेजकर सड़कों की रिपोर्ट मंगवा सकते थे लेकिन आपने खुद मौका देखना उचित समझा। एक अधिकारी में ऐसा गुण होना भी चाहिए। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर रिपोर्ट पर भरोसा करने वाले अधिकारियों का हश्र बाद में कैसा होता है, यह आप बखूबी जानते हैं। ऐसे अधिकारी कमोबेश हर जगह मिल जाएंगे। भिलाई में भी कमी नहीं है। आपके निगम में भी मिल जाएंगे।
कुछ ऐसे ही अधिकारियों की बदौलत तो भिलाई में मौर्या टाकीज के पास एक अंडरब्रिज बनकर तैयार हो गया। बनाने वालों ने यहां नियमों को अनदेखा किया ही, बनने के बाद भी उसकी किसी ने शायद ही सुध ली होगी। फिलवक्त महीने भर से चल रही बारिश के कारण यह अंडरब्रिज पानी से लबालब है। यहां भरे पानी को निकालने के किए जा रहे प्रयास नाकाफी हैं। अंडरब्रिज बंद होने के कारण पावर हाउस एवं सुपेला के रेलवे क्रासिंग पर यातायात का दवाब यकायक बढ़ गया है। जल्दी निकलने के चक्कर में वाहन चालक जान को दाव पर लगाने से भी नहीं हिचक रहे हैं। आप समझ सकते हैं, ऐसा वे जानबूझकर तो नहीं करते। परेशान लोगों के हालात व मजबूरी पर आपके मातहतों को कतई तरस नहीं आता है। आप ही सोचिए, आपके मातहत संवेदनशील होते तो क्या एक माह तक रास्ता इस तरह बाधित रहता?।
यकीन मानिए यह शहर अपनी विशेषताओं के कारण जितना प्रसिद्ध है, उनसे उतना ही परेशान एवं हलकान भी है। करने को भिलाई में बहुत काम है। समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त है। बस एक बार नब्ज देखने और मर्ज जानने की जरूरत है। फिलहाल तो आप एक बार मौका देखकर किसी तरह पानी निकासी का प्रबंध करवा दीजिए। अगर इस पानी भराव का कोई स्थायी हल भी हो जाए तो सोने में सुहागा होगा। प्रभावितों के लिए यह बड़ा काम है लेकिन आप जैसे सक्षम अधिकारी के लिए कुछ भी असंभव नहीं। आप ऐसा करवा देंगे तो यकीनन प्रभावित लोग इस काम के लिए आपके ऋणी तो रहेंगे ही दिल से दुआ भी देंगे।
 
साभार -पत्रिका भिलाई के 14 अगस्त 12  में  प्रकाशित।

चुपचाप कट गया मैं...


पेड़ का दर्द

मेरी दशा देखकर आप समझ गए होंगे कि मेरा दर्द क्या है। सोमवार दोपहर को मैं मरते-मरते बचा हूं। वो तो भला हो एक दो जागरूक लोगों का, जिनकी बदौलत मेरा अस्तित्व रह गया। वरना मेरी हत्या तो लगभ तय थी। बेरहमों ने समय भी बड़ा मुफीद चुना। मैं बहुत चीखा, चिल्लाया भी, लेकिन कोई नहीं था, उस वक्त। वो तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि एक-दो पर्यावरण प्रेमी संयोग से वहां पहुंच गए और मैं बच गया। पता नहीं क्यों कोई यकायक मेरे खून का प्यासा हो गया। क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का। मैं तो आसपास के लोगों को सुकून भरी छाया ही उपलब्ध कराता रहा हूं। सैकड़ों परिंदे मेरी शाखाओं पर बेखौफ होकर शिद्दत के साथ रात गुजारते रहे हैं।
अफसोस उन परिन्दों का आशियाना उजड़ गया। कहां रात गुजारेंगे वो। एकदम ठूंठ बन गया हूं मैं। हालात यह हो गई मैं अभी किसी को छाया तक भी नहीं दे सकता। काफी वक्त लगेगा मेरे जख्म भरने में। हुड़को में श्रीराम चौक के मैदान के पास मुझे बड़े आदरभाव व विधि विधान के साथ लगाया था। बरगद का पेड़ होने तथा सबका चहेता होने के बाद भी पता नहीं क्यों मैं किसी को अखर गया। खैर, यह आप लोगों के स्नेह एवं दुआओं का ही कमाल था कि मैं बच गया। फिर भी आपको आगाह करता हूं कि मेरे से दुश्मनी निकालने वाले को आप सजा जरूर दिलवाएं ताकि वह भविष्य में इस प्रकार की हिमाकत ही ना करे। अगर आज आप लोगों ने हिम्मत करके यह पुनीत कार्य कर दिया तो यकीन मानिए आप पर्यावरण प्रेम की नई इबारत लिख देंगे।

साभार -पत्रिका भिलाई के 14 अगस्त 12 में  प्रकाशित।

Saturday, August 11, 2012

इसकी टोपी, उसके सिर

प्रसंगवश

भिलाई में फोरलेन (राष्ट्रीय राजमार्ग-6) पर बने क्रासिंग पर सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं हैं। आलम यह है कि भिलाई एरिया में 11 में से पांच क्रासिंग नियमों को नजरअंदाज करके बनाए गए हैं। यह तो अकेले भिलाई एरिया की कहानी है। फोरलेन में बहुत सी जगह ऐसी हैं, जहां नियमों एवं मापदण्डों को दरकिनार कर इस प्रकार के क्रासिंग छोड़े गए हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जनप्रतिनिधियों ने सस्ती लोकप्रियता पाने एवं वाहवाही बटोरने के चक्कर में फोरलेन बनाने वाली कम्पनी पर दबाव डालकर नियम विरुद्ध क्रासिंग बनवा लिए। निर्माता कंपनी ने भी बिना किसी ना नुकर के हाइवे में क्रासिंग इसलिए छोड़ दिए क्योंकि वह खुद भी कठघरे में है। शहर के बीचोबीच फोरलेन का निर्माण ही सवालों के घेरे में है। देखा जाए तो फोरलेन हाइवे में कट पाइंट बनाने का प्रावधान ही नहीं है। बावजूद इसके जनहित का हवाला देकर व दबाव बनाकर जनप्रतिनिधियों ने तात्कालिक लाभ उठाते हुए मनमाफिक रास्ते (क्रासिंग) खुलवा लिए। बढ़ते यातायात दबाव के कारण अब यही क्रासिंग जानलेवा साबित हो रहे हैं, लेकिन यहां सुरक्षा के प्रबंध करने के नाम पर कोई भी तैयार नहीं है। फोरलेन निर्माता कंपनी के नुमाइंदे, जनप्रतिनिधि व यातायात पुलिस के अधिकारी इसकी टोपी, उसके सिर पर की तर्ज पर बयान देकर जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं। फोरलेन निर्माता कंपनी का कहना है कि बढ़ते हादसों के पीछे सबसे बड़ा कारण लोगों में जागरुकता का अभाव होना है। किसी हद तक यह बात सही भी है लेकिन बिना भय के कानून की पालना संभव नहीं है। अकेली जागरुकता के भरोसे के यातायात नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। गौर करने वाली बात तो यह है कि फोरलेन पर दो क्रासिंग तो पुलिस थानों के ठीक सामने बने हैं। यानि कानून की पालना करवाने वालों की आंखों के सामने ही कानून की धज्जियां उड़ रही हैं। सोचनीय विषय है कि किसी वीआईपी के आगमन के दौरान इन क्रासिंग पर यातायात पुलिस के जवान बड़ी मुस्तैदी के साथ ड्‌यूटी बजाते नजर आते हैं लेकिन आमजन की सुरक्षा के नाम पर उनके पास बगले झांकने के अलावा कोई जवाब नहीं है।
बहरहाल, सभी को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। समय की नजाकत को देखते हुए फोरलेन कंपनी को जहां जरूरत है, वहां सूचना पट्‌ट, ब्लींकर या सिग्नल लगाने चाहिए। क्रासिंग पर बढ़ते यातायात दबाव को देखते हुए यातायात पुलिसकर्मियों की तैनाती भी बेहद जरूरी है। सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो उन जनप्रतिनिधियों की है, जो खुद को बचाने के चक्कर में जिम्मेदारी यातायात पुलिस एवं फोरलेन निर्माता कंपनी की बता रहे हैं। आखिर नियम विरुद्ध काम करवाने की बुनियाद तो जनप्रतिनिधियों ने ही रखी है। ऐसे में जान माल की सुरक्षा कैसे हो, यह भी तो उनको ही तय करना चाहिए।

साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ के 11 अगस्त 12 के अंक में प्रकाशित।


Thursday, August 9, 2012

स्थायी हल खोजना जरूरी

टिप्पणी 

नागपुर-रायपुर फोरलेन हाइवे में नियमों को दरकिनार कर सुपेला थाने के पास डिवाइडर को काटकर बनाया गया रास्ता अब लोगों को राहत कम परेशानी ज्यादा दे रहा है। चौराहे पर यातायात का दबाव सुबह से लेकर देर रात तक लगातार बना रहता है। हाइवे के दाएं-बाएं स्थित राधिका नगर व प्रियदर्शनी के अलावा सेक्टर एरिया के दुपहिया वाहन चालक भी शॉर्टकट के चक्कर में इसी चौराहे का उपयोग करते हैं। बहुत से स्कूली बच्चे भी जान जोखिम में डालकर रोज इधर से उधर एवं उधर से इधर आते हैं। यहां से गुजरने वाले वाहनों की रफ्तार पर न तो कोई अंकुश है और ना ही कोई डर। वे बेखौफ व बेलगाम होकर यहां से गुजरते हैं और अक्सर बेकाबू होकर हादसों का सबब बन जाते हैं। इतना कुछ होने के बाद भी इस चौराहे पर न तो कोई सिग्नल लगा है और ना ही यातायात पुलिस के किसी जवान की ड्‌यूटी लगती है। लब्बोलुआब यह है कि यहां सब कुछ स्वयं स्फूर्त एवं भगवान भरोसे ही है। तभी तो यहां एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब कोई हादसा नहीं होता हो। बुधवार दोप हर बाद हुआ हादसा भी तेज रफ्तार का नतीजा था। पहले निकलने की होड़ में दोनों वाहन टकरा गए। गनीमत यह रही कि हादसे में कोई जन हानि नहीं हुई। देखा जाए तो इस प्रकार के नियम विरुद्ध कामों का तात्कालिक लाभ जरूर हो सकता है लेकिन दूरगामी परिणाम हमेशा प्रतिकूल ही रहे हैं। जब यहां रास्ता छोड़ना इतना ही जरूरी था तो यहां से गुजरने वालों की जानमाल की सुरक्षा का ख्याल तो जेहन में सबसे पहले आना चाहिए था। आखिर जिनके लिए रास्ता छोड़ा जा रहा है, उनकी ही जान हथेली पर रहे तो फिर इस प्रकार के काम से फायदा भी क्या।
बहरहाल, हाइवे के आजू-बाजू दुर्घटना से देरी भली। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। रफ्तार का मजा, अस्पताल की सजा। गाड़ी धीरे चलाएं, घर पर कोई आपका इंतजार कर रहा है। जिन्हे जल्दी थी वे चले गए। आदि स्लोगन लिख भर देने से जागरुकता नहीं आएगी। जरूरी है कि नियमों की पालना कड़ाई से करवाई जाए। दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे यातायात के दवाब से इतना तो तय है कि इस समस्या का स्थायी हल खोजना अब बेहद जरूरी हो गया है। हल भी तभी संभव है, जब पीछे की भूलों में सुधार हो। भले ही वह यहां सिग्नल लगाकर या किसी यातायात पुलिसकर्मी की तैनाती के रूप में भी हो सकता है, लेकिन यह सब करना अब जरूरी है। पीछे की इस भूल में अब सुधार नहीं किया तो कालांतर में यह किसी बड़े हादसे की वजह भी बन सकती है। समस्या का हल जनभावना के अनुकूल हो तो फिर कहना ही क्या।
 
साभार : पत्रिका भिलाई के 9 अगस्त 12  के अंक में प्रकाशित।




Saturday, August 4, 2012

किस काम के अंडरब्रिज


प्रसंगवश

मुम्बई-हावड़ा रेल मार्ग पर भिलाई के नेहरूनगर क्रॉसिंग के पास रेलवे मंत्रालय की ओर से अंडरब्रिज निर्माण की स्वीकृति की खबर से एक बार फिर बोतल में कैद जिन्न बाहर आ गया है। तय मानकों पर न बनने के कारण भिलाई में दो अंडरब्रिज पहले से ही लोगों के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। ऐसे में नया अंडरब्रिज कितना कारगर साबित होगा, इस पर सवाल उठने लगे हैं। भिलाई के मौर्या टाकीज व प्रियदर्शनी नगर के अंडरब्रिज बारिश में किसी काम के नहीं रहते हैं। जमीन की स्तह से काफी नीचे होने के कारण दोनों अंडरब्रिज में थोड़ी सी बारिश में ही इतना पानी भर जाता है कि आवागमन अवरुद्ध हो जाता है। बारिश के मौसम में यह समस्या हर साल पैदा होती है। मौर्या टाकीज के पास तो बरसाती पानी की निकासी के लिए एक कुआं भी खोदा गया था लेकिन वह भी किसी काम नहीं आया। इसके बाद पम्प लगाकर अंडरब्रिज का पानी निकाला जाता है, लेकिन यह भी समस्या का स्थायी हल नहीं है। हर साल पम्प से पानी निकालने के खेल के चलते अंडरब्रिज के निर्माण के औचित्य पर ही सवाल उठ रहे हैं। आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि जनहित को दरकिनार कर अंडरब्रिज का निर्माण कर दिया गया। हैरत वाली बात तो यह है कि अंडरब्रिज का निर्माण करने वाली रेलवे की अधिकृत ऐजेंसी राइट्‌स  की रिपोर्ट को अनदेखी करके इन अंडरब्रिज को बनवाया गया। अंडरब्रिज के निर्माण में बरती गई अनियमितता एवं अदूरदर्शिता का खमियाजा जनता को भुगतान पड़ रहा है। पानी से लबालब भरे व ऊपर से टपकते तथा करीब चार करोड़ की लागत से बने ये दोनों अंडरब्रिज कितने कारगर व उपयोगी हैं, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
बहरहाल, इनके निर्माण में कितनी पारदर्शिता बरती गई है। इनका निर्माण तय मानकों पर क्यों नहीं हुआ? आदि  बिन्दु़ओं की जांच जरूरी है। आखिर चार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद जनता को बारिश के मौसम में परेशान होना पड़े तो फिर ऐसे अंडरब्रिज किस काम के। सुनने में आ रहा है कि व्यक्ति विशेष को लाभ पहुंचाने के लिए, इसके निर्माण में तय मानकों व जनहित को नजरअंदाज कर दिया गया। देखा जाए तो राहत पहुंचाने के नाम पर आमजन के साथ यह एक तरह का धोखा ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नेहरू नगर के अंडरब्रिज के निर्माण में किसी तरह की अनियमिता व गड़बड़ी ना हो। अंडरब्रिज का निर्माण एकदम पारदर्शी तरीके, तय मानकों एवं भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जैसी समस्या का सामना मौर्या टाकीज व प्रियदर्शनी नगर के अंडरब्रिज को लेकर आ रही है, वैसी ही नेहरूनगर के अंडरब्रिज में देखने को मिल जाए तो हैरत की बात नहीं होनी चाहिए।


साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ के 4 अगस्त 12  के अंक में प्रकाशित।