Saturday, December 29, 2012

...हमको जगा गई दामिनी


बस यूं ही

 
शर्मिन्दा तो हम उसी दिन हो गए थे लेकिन आज शोकाकुल हैं। दामिनी के दर्द से हम इतने गमगीन हैं कि गुस्सा भी एक बार इस पहाड़ जैसे गम में गुम हो गया है। हम स्तब्ध भी हैं और निशब्द भी। आज हमारा आक्रोश, अफसोस में बदलकर आंसुओं तक पहुंच गया है। संवेदनाओं के सैलाब की तो कोई सीमा ही नहीं है। कल तक जिन होठों पर प्रार्थनाएं थी, आज उन पर पछतावा है। दरिंदगी की शिकार हुई दामिनी की सलामती के लिए मांगी गई दुआएं भी एक-एक कर दम तोड़ गई। उम्मीदें तो पहले दिन से ही आशंकाओं से घिरी थी, लिहाजा तेरह दिन बाद वे भी साथ छोड़ गई। वैसे जिंदगी की जंग के परिणाम आशाओं के अनुरूप नहीं आए, लेकिन सही मायनों में जंग अब शुरू हुई है। दीपक खुद चलता है लेकिन दूसरों को राह दिखाता है। वह पथ प्रदर्शक का काम करता है। दामिनी का दर्जा तो दीपक से भी बड़ा है। वह तो बिजली है। एक बार 'कौंधकर' हकीकत बता गई। हमको आइना दिखा गई, औकात बता गई। जाते-जाते एक नई राह और दिशा भी दिखा गई। पखवाड़े भर पहले तक न तो उसको कोई जानता था, लेकिन आज हर दिल में दामिनी के लिए दर्द है। हर दिल दुखी है। फर्क फकत इतना है कि अब दुआओं की जगह आहें हैं। ऐसे आहें, जो हर ओर से और हर आदमी के दिल से उठ रही है। खुद चिरनिद्रा में सोकर हम सबको जगा गई है दामिनी।
समूचा देश दामिनी के दर्द से दुखी है। लोगों ने जिस जज्बे एवं हौसले के साथ दुष्कर्म के विरोध में जो आवाज उठाई है, निसंदेह उसके दूरगामी परिणाम होंगे, इसमें कोई दोराय नहीं होनी चाहिए। वैसे देश में कदम-कदम पर प्रताडि़त होने वाली दामिनियों की कमी नहीं है। सोचिए हम उनके समर्थन में कितना आगे आते हैं। दामिनी जैसी हमदर्दी और हिम्मत अगर हम हर बार और हर मामलो में दिखाएं तो यकीन मानिए ऐसा दु:साहस कोई सपने में भी नहीं करेगा। सिर्फ संवेदना जताने, जज्बाजी स्लोगन लिखने या मोमबत्ती जलाने से हमारी फितरत नहीं बदलने वाली। हमको अब संवेदनाओं को सब्र देने का कोई सबब चाहिए। वह किसी संकल्प के रूप में भी हो सकता है। दूसरों से उम्मीद न करते हुए शुरुआत खुद से कीजिए। परिवार से कीजिए। बच्चों को संस्कार दीजिए। दामिनी ने चेतना की जो नई लौ प्रज्वलित की है, वह निरंतर और अनवरत जलती रहे, यही उसको सच्ची श्रद्धांजलि होगी। नए साल की शुरुआत इसी संकल्प के साथ करेंगे तो सचमुच सोने पे सुहागा होगा।

Friday, December 21, 2012

जिम्मेदारी को समझें


टिप्पणी 

 
हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि हमें केवल तात्कालिक हादसों पर ही गुस्सा आता है। कभी-कभी तो हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि तोडफ़ोड़ करने से भी नहीं चूकते। दिल्ली में मेडिकल छात्रा से हुए गैंगरेप का मामला भी कुछ इसी तरह का है। समूचे देश में सड़क से लेकर संसद तक बवाल मचा हुआ है। शर्मसार करने वाले इस वाकये की निंदा दुर्ग-भिलाई में भी हो रही है, लेकिन जैसा गुस्सा और आक्रोश देश के बाकी हिस्सों में दिखाई दिया वैसा यहां नहीं दिखा। और जो थोड़ा बहुत गुस्सा कहीं दिखा, वह भी तात्कालिक ही है। वैसे दुर्ग व भिलाई के लोग न केवल स्थानीय बल्कि देश-विदेश की गतिविधियों पर प्रतिक्रिया स्वरूप अजीबोगरीब प्रदर्शन कर ध्यान बंटाते रहते हैं, लेकिन गैंगरेप मामले में एक दो कागजी बयान एवं कैंडलमार्च को छोड़कर कुछ नहीं हुआ। क्या दोनों शहरों में ऐसे जागरूक लोग व संगठन नहीं हैं, जो इस अत्याचार के खिलाफ इतनी आवाज बुलंद करें कि उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दे और यहां भी कोई इस प्रकार का कृत्य करने की सपने में भी ना सोचे। बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं रहा है। तभी तो दोनों शहरों में बेटियों से अनाचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। दुर्ग जिले में इस साल अब तक अस्मत लुटने के छह दर्जन से अधिक मामले दर्ज हो चुके हैं जबकि छेड़छाड़ की घटनाएं तो डेढ़ सौ के पार हो गई। यह तो वे मामले हैं जो पुलिस के पास पहुंचे और दर्ज हुए। वरना बहुत से मामले कभी संस्कारों के नाम पर, कभी गरीबी के नाम पर तो, कभी सत्ता पक्ष के दबाव के चलते तो कभी मजबूरी के चलते दबा दिए जाते हैं। और फिर कोई विरोध भी नहीं जताता। आम लोगों की चुप्प्पी के साथ-साथ नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों का हाल भी एक जैसा ही है। कमोबेश यही हालात पुलिस की है। हाल ही में भाई-बहन के अपहरण के प्रयास में प्रयुक्त गाड़ी बिना नम्बर की थी और उसके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी। अपहर्ताओं में से एक ने नकाब भी बांध रखा था। गाडिय़ों तथा शीशों की जांच नियमित होती तो क्या ऐसे वाहन सड़कों पर नजर आते? अपहर्ताओं में एक नकाबपोश क्या नजर आया अब सड़क पर चलने वाला हर नकाबपोश ही पुलिस की नजरों में संदिग्ध हो गया है। इस मामले में पुलिस शुरू से ही गंभीर होती तो क्या आज ऐसे अभियान चलाने की जरूरत पड़ती? भिलाई की पहचान शिक्षानगरी के रूप में है। यहां बाहर से बड़ी संख्या में विद्यार्थी अध्ययन करने आते हैं। शहरवासियों व सामाजिक संगठनों की चुप्पी तथा पुलिस की उदासीनता से निसंदेह अपराधियों के हौसले बढ़ेंगे। फिर ऐसे माहौल में कोई यहां क्यों व किसलिए आएगा, समझा जा सकता है।
बहरहाल, हम सभी हादसों को जल्दी भूल जाने की बीमारी से ग्रसित हैं। इसलिए सबसे पहले याददाश्त दुरुस्त करने की जरूरत है। न केवल आम आदमी को बल्कि पुलिस और नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों को भी। यकीन मानिए सभी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी तो दुर्ग को 'दिल्ली' बनते देर नहीं लगेगी। बदकिस्मती से ऐसा हुआ तो शिक्षा के मामले में अव्वल शहर की शान पर ऐसा धब्बा लग जाएगा जो लाख चाहने के बाद भी मिट नहीं पाएगा।



साभार - पत्रिका भिलाई के 21 दिसम्बर 12 के अंक में प्रकाशित। 

Sunday, December 16, 2012

आंखें


आंखें करती
हैं बातें,
आंखों से
चुपचाप।
आंखों का
यह बोलना
भी आंखों
को ही सुनाई
देता है।
आंखों की
भी अलग
ही दुनिया
है, अजीब
सी और,
भाषा भी।
इस भाषा
को आखें
ही समझती
हैं, सुनती हैं
और जवाब
देती हैं।
अंखियां लड़ती
भी हैं,
बिना किसी
शोरगुल के।
कोई हो-हल्ला
भी नहीं
करती हैं।
आदमी की
तरह लड़कर,
अलग भी
नहीं होती,
हैं आखें।
अंखियां घर
भी बसा
लेती हैं,
एक दूजे
के पास।
कितने ही
किस्से जुड़े
हैं आखों
के साथ।
और मुहावरों
की तो
बहुत लम्बी
सूची है।
आंख लगना,
आंख मिलना,
आंखें दिखाना,
आखें लड़ाना,
आंखें चुराना,
आंख मूंदना,
आंख मारना,
आंख फेरना,
आंख झुकाना,
आंख का तारा,
आंख की किरकिरी,
और भी
न जाने
क्या क्या
जुड़ा है
आंखों से।
आखें सागर है,
नदिया है,
झील है,
तभी तो
प्यास भी
बुझाती हैं,
आखें।
आंखें भी
कई तरह
की होती हैं।
उनींदी आखें,
सपनीली आखें,
नीली आखें,
काली आखें,
भूरी आंखें।
आखें कटार
भी हैं
और तलवार
भी।
अजूबा है,
इन आंखों
का संसार,
अनूठा है,
निराला है,
बिलकुल रोचक,
कितना कुछ
करवाती हैं
आखें।
बिना बोले
चुपचाप,
एकदम चुपचाप।

मन

मन, तो
मन है।
इसकी
थाह भला
कौन
ले पाया।
कितने ही
अर्थ जुड़े

हैं मन से।
और हां,
नाम भी
कई हैं
मन के।
और रूप
भी तो हैं कई।
कभी मन
मीत बन
जाता है
तो कभी
मन मौजी।
और कभी कभी
मन मयूरा
भी हो जाता है।
मन किसी
को चाहने भी
लगता है।
मन ही मन।
कोई आस
अधूरी रह
जाती है
तो मन
मसोस
दिया
जाता है।
और कोई
चाह पूरी
होती है तो,
वह मन
की मुराद
बन जाती है।
मन तो
रमता जोगी
है, एक पल
में ही
कितनी
सीमाएं लांघ
जाता है।
पलक झपकते
ही दुनिया
की सैर
कर आता है
कभी
आसमान में
उड़ता है।
चांद-तारों की
बात करता है।
मन तो मन है।

दिन


दिन,
आज भी
उसी अंदाज में
निकला,
और
ढल गया।
रोज ही तो
ऐसा होता है।

बस लोगों का
नजरिया,
अलग है।
किसी ने
सुबह को सर्द
तो किसी ने
सुहानी कहा।
और धूप
उसको भी
कहीं गुनगुनी तो
कहीं चटख
नाम से
पुकारा गया।
दिन ढला
उसे भी
सुहानी शाम,
सिंदूरी शाम,
नाम दे
दिया, गया
दिन,
रोज ही
तो ऐसे
निकलता है,
वह कहां
बदलता है,
मौसम
बदलता है
आदमी
बदलता है
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
सदा,
वह बदलता
नहीं
बस नजरिया
बदल जाता है।
और हां,
तारीख बदलती है
माह बदलता है
साल बदल जाते हैं
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
हां हमने दिन
का नामकरण
कर दिया है
हर साल
उसको
उसी नाम से
पुकारते हैं
लेकिन
दिन तो दिन ही
रहता है,
बदलता नहीं।

आदमी

शेरो शायरी का शौक तो बचपन से ही रहा है। आज कविता लिखने की सोची। संयोग देखिए शुरुआत आदमी से हुई। अति व्यस्तता के बीच कल्पना के घोड़े दौड़ाना वैसे बड़ा मुश्किल काम है। फिर भी तुकबंदी के सहारे कुछ तो लिखने में सफल हो गया। कभी फुर्सत मिली तो और लिखूंगा। फिलहाल तो इतना ही...



 आदमी



आदमी,
आज का आदमी,
अपनों से कट गया है,
जाति में बंट गया है,
भूल सब रिश्ते-नाते,
खुद में सिमट गया
है
आदमी,
आज का आदमी।
दर्प से चूर हुआ है,
फिर भी मजबूर हुआ है,
भरी भीड़ में देखो,
अपनों से दूर हुआ है।
आदमी
आज का आदमी।

Friday, December 14, 2012

ममता


बस यूं ही 
 
शुक्रवार सुबह आफिस गया तो वह कुतिया उसी अंदाज में पिल्ले के शव के पास बैठी थी लेकिन दोपहर को लौटा तो ना वह कुतिया दिखाई दी और ना ही उसके बच्चे का क्षत-विक्षत शव।  घर पहुंचा तो श्रीमती ने बताया कि आपके जाने के बाद सफाई वाला आया था, वह लेकर चला गया। मन ही मन खुद को दिलासा दिया कि चलो अच्छा हुआ। दो दिन से जो नजारा मेरी आंखों ने देखा, वह मेरे लिए असहनीय था।
दस-बारह दिन पहले ही की तो बात है, जब मोहल्ले में रहने वाली एक कुतिया ने पांच पिल्लों को जन्म दिया था। उसने अपने रहने का ठिकाना वहीं सामने एक सूखे नाले को बना लिया था। ऊपर से ढंका हुआ था, इसलिए रात को सर्दी से व दिन में तल्ख धूप से बचाव को जाता था। पिल्ले कुछ बड़े हुए और उन्होंने हलचल शुरू की तो नाले से बाहर आना शुरू हो गए। मोहल्ले के सभी बच्चों के लिए यह पिल्ले देखते-देखते मनोरंजन का साधन बन गए। सभी बच्चों को उनसे एक तरह का लगाव हो गया था। मैंने भी बचपन में काफी पिल्ले पाले थे। करीब दर्जनभर, लेकिन सभी एक-एक करके दूर हो गए। मैं खूब रोता था। मां  दिलासा देती थी। समझाती और कहती बेटा, तू कुत्ता पालना छोड़ दे। पता नहीं क्यों तू जो कुत्ता पालता है वह जिंदा नहीं रहता है। यकीन मानिए कुत्तों के वियोग में मैं रो-रोकर आंखें सूजा लेता था।
खैर, सब बताने का आशय है कि जीवों के प्रति प्रेम रखने का यह शगल मेरे दोनों बच्चों में
भी है। मोहल्ले के पिल्लों से उनको भी गहरा लगाव हो गया। रोजाना शाम को जाना और गोद में लेकर उनको सहलाना एक नियम सा बन गया। मंगलवार रात को घर पहुंचा तो श्रीमती ने बताया कि आज तो एक पिले को कोई वाहन कुचल गया। काफी देर तक शव सड़क पर ही पड़ा रहा। बाद में किसी ने वहां से फिंकवा दिया। श्रीमती ने कहा कि पिल्ले का शव देखकर कुतिया बार-बार उसके पास जा रही थी। वह न केवल उसको सूंघ रही बल्कि चाट भी रही थी। मन में अचानक अफसोस के भाव आए। लम्बी सांस छोड़ते हुए बिना कुछ कहे मैं कपड़े बदलने की तैयारी में जुट गया।
बुधवार को छोटे बेटे एकलव्य को लेकर लौट रहा था तो एक कार बगल से निकली। मेरी नजर कार पर ही टिकी थी कि एक पिल्ला दौड़ता हुआ कार के पास पहुंच गया। चालक की नजर शायद पर उस पर पड़ गई थी। उसने ब्रेक लगा दिए थे। इस दौरान मेरी आंखें अनहोनी की आशंका में यकायक बंद हो गई और मुंह से हल्की से आह भी निकली। मैं हल्के से बुदबुदाया, भगवान उसे बचा लो। आंखें खोली तो कार रुकी हुई थी लेकिन पिल्ला उसके नीचे घुस गया और काफी देर बाद निकल कर सड़क के दूसरे छोर पर चला गया। यह नजारा देखकर उस दिन यह आशंका घर कर गई थी कि कुतिया ने अपना आशियाना गलत जगह बना लिया है। पिल्ले अब बड़े होकर रोड पर जाने लगे हैं। सभी वाहन चालक तो एक जैसे होते नहीं है। आंख मूंदकर रफ्तार से चलते हैं। आदमी तक को नहीं देखते हैं, बेचारे पिल्ले कहां से दिखाई देंगे। मैं मन ही मन अनहोनी की आशंका में थोड़ा विचलित भी था। मेरी आशंका दूसरे दिन सही साबित हुई। गुरुवार दोपहर को मैं बड़े बेटे योगराज को बस स्टॉप से लेकर आया और जैसे ही घर की तरफ मुड़ा तो पिल्ले के शव को सड़क पर पड़े देखा। कुतिया पास खड़ी उसको चाट रही थी। बेजुबान जानवर की अपने बच्चे के प्रति ममता देखकर मैं भावुक हो उठा। योगराज पूछता रह गया पापा, क्या हो गया...। मैं बिना कुछ बोले ही ना की मुद्रा में गर्दन हिलाते हुए उसको घर ले आया।
इसके बाद फिर छोटे बेटे एकलव्य को लेने गया तो कुतिया वहीं बैठी थी। शाम चार बजे आफिस के लिए निकला तो भी वहीं बैठी थी। वाहनों की आवाजाही से पिल्ले का शव सड़क से चिपक चुका था। किसी ने सड़क से कुरचकर क्षत-विक्षत शव को साइड में कर दिया था। शव देखकर फिर हल्की सी आह निकली और मैं चुपचाप आफिस के लिए बढ़ गया। रात को 11 बजे लौटा तो कुतिया सर्दी में सिकुड़ी हुई नाले में बैठे शेष पिल्लों के पास जाने के बजाय उसी पिल्ले के शव के पास बैठी थी। घर जाकर श्रीमती को बताया कि देखो वह कुतिया दोपहर से उसी पिल्ले के पास बैठी हुई है। सचमुच वह नजारा देखकर मन बहुत दुखी हुआ। शुक्रवार सुबह का नजारा देखकर मैं चौंक गया था। कुतिया उसी स्थान पर उसी मुद्रा में बैठी थी। सर्दी से कांप भी रही थी। योगराज को स्कूल बस में बैठाने के बाद मैं घर लौटा और बिस्तर में दुबक गया लेकिन नींद उचट चुकी थी। लेटे-लेट मैं सोच रहा था। मेरे बार-बार जेहन में यही सवाल उमड़ रहे थे लेकिन मैं जवाब नहीं ढूंढ नहीं पा रहा था। सवाल यही कि औलाद का पालन-पोषण एवं परवरिश करते समय लोग अक्सर यही सोचते हैं कि यह बड़ा होकर बुढापे की लाठी बनेगा। दुख एवं संकट में सहारा देगा। मदद करेगा। बचपन से यही बात बड़े बुजुर्गों से भी सुनी है, लेकिन बेजुबानों को कौन से सहारे की जरूरत होती है। आदमी तो अपना दुख रोकर कम कर लेता है, किसी को बताकर बांट लेता है लेकिन बेजुबान क्या करें। इसी उधेड़बुन में सोचता रहा। नींद गायब हो गई थी। शुक्रवार दोपहर को आफिस से आने के बाद छोटे बेटे को लेकर आ रहा था तो दिमाग में ख्याल आया कि नाले में बैठे पिल्लों को तो देख लूं। देखा तो दो पिल्ले नींद में सुस्ता रहे थे। मैं फिर से सन्न रह गया। एक और कहां गया। देखा तो वह पड़ोसी के घर के आगे बैठा था। मैंने संतोष की लम्बी सांस छोड़ी और बेटे को लेकर घर में घुस गया। वाकई ममता तो ऐसी ही होती है। क्या इंसान और क्या जानवर।

अब तो कुछ कीजिए

 टिप्पणी 

फोरलेन पर गुरुवार को फिर एक और हादसा हो गया। एक महिला की मौत हो गई। साथ में दो युवतियां भी घायल हो गई। इस हादसे ने किसी की हंसती खेलती जिंदगी में कोहराम मचा दिया। जिंदगी भर उसको यह दर्द सालता रहेगा। लेकिन भिलाई की यातायात पुलिस के लिए तो यह रोजमर्रा की बात है। वह इस प्रकार के हादसों की अभ्यस्त हो चुकी है। उसको इस प्रकार के हादसे न तो डराते हैं और ना ही वह इनसे कोई सबक लेती है। भले ही लोग यातायात नियमों का मखौल उड़ाएं। अपनी मनमर्जी से वाहन चलाएं। रोज अकाल मौत के शिकार हों, लेकिन यातायात पुलिस को इससे कोई सरोकार नहीं है। यातायात पुलिस की यह कार्यप्रणाली न केवल चौंकाने वाली बल्कि चिंतनीय भी है। वह न तो हादसों से कोई सबक लेती है और ना ही कार्यप्रणाली में कोई सुधार होता है। लगातार हादसे होने के बाद भी यातायात पुलिस की नींद कभी टूटती ही नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि फोरलेन के अलावा दूसरी जगह यातायात पुलिसकर्मी नजर क्यों नहीं आते। पता नहीं
क्यों उनको शहर की अंदरूनी सड़कों पर यातायात नजर नहीं आता है। उनकी मुस्तैदी सिर्फ हाइवे पर ही दिखती है। और इस जरूरत से ज्यादा मुस्तैदी के कारण भी सबको पता हैं।
बहरहाल, हादसों से तनिक भी विचलित नहीं होने वालों पर पीडि़तों का रुदन असर डाल पाएगा। उनके जमीर को झाकझाोर पाएगा, इसमें संशय है। लम्बे समय से जड़ें जमाए बैठे पुलिसकर्मी एवं अधिकारी क्या जनहित में फैसले लेने ही हिम्मत जुटा पाएंगे। बेलगाम यातायात पर नकेल ना कसना यातायात पुलिस की नाकामी को ही उजागर करता है। और यह नाकामी तभी दूर को सकती है जब कारगर एवं प्रभावी कार्रवाई हो। हालात बद से बदतर होने को हैं और यातायात पुलिस को अब भी आंकड़ों को दुरुस्त करने तथा राजस्व बढ़ाने की कार्रवाई से ही फुरसत नहीं है। हर तरफ सुविधा शुल्क का ही शोर है। आखिर कब तक लोग यूं ही अकाल मौत मरते रहेंगे। बहुत हो चुका। कुछ तो तरस खाइए। अब तो कुछ कीजिए। ज्यादा कुछ नहीं तो खुद को यातायात पुलिसकर्मी की बजाय इंसान समझाने की हिम्मत जुटा लो। शायद उससे कुछ सद्बुद्धि आ जाए और शहर का भला हो जाए। यूं ही लोग अकाल मौत के शिकार तो नहीं होंगे।



 साभार : पत्रिका भिलाई के 14 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Saturday, December 8, 2012

पूरी हुई तलाश की आस


बस यूं ही 

 
शनिवार सुबह बच्चों का स्कूल में पिकनिक का कार्यक्रम था, वह भी नौ बजे का। इस कारण मैं देर तक सोता रहा। सुबह आठ बजे पत्नी की आवाज से आंख कुछ इस अंदाज में खुली कि बातचीत का दौर नोकझोंक के साथ ही शुरू हुआ। उसने चाय के लिए जगाते हुए कहा कि साब आठ बज गए। अक्सर निर्धारित समय से कुछ समय ज्यादा हो जाता है तो वह इसी अंदाज में कहती है। उठते ही मैंने थोड़े तल्ख लहजे में कहा कि

यह क्या तरीका है। कभी साब साढ़े पांच बज गए, कभी आठ बज गए। समय पर उठा करो। देरी से क्यों उठते हो। मेरा इतना कहना ही था कि श्रीमती जी के चेहरे की त्योरियां चढ़ गई और आंखों में पानी आ गया। गुस्से में उसने दोनों बच्चों को तैयार किया। दरअसल, श्रीमती का साब आठ बजे कहने का आशय यह था कि उसको उठने में कुछ देरी हो गई है, लिहाजा मैं बच्चों को तैयार करवाने में उसकी थोड़ी मदद कर दूं। और मैंने मदद तो दूर नोकझोंक शुरू कर दी। खैर, दोनों बच्चे तैयार होकर नौ बजे स्कूल के लिए घर से निकल लिए। इसके बाद हम दोनों के बीच गिले-शिकवे का दौर शुरू हुआ। कभी दोनों नरम पड़े तो कभी गरम भी हुए लेकिन बाद बनी नहीं। दोनों खुद को सही साबित करने की बात पर अड़े रहे। दिमाग में यह बात भी थी कि श्रीमती के गुस्से होने की वजह एक यह भी हो सकती है कि वह सप्ताह भर से आमिर खान की हालिया प्रदर्शित फिल्म तलाश देखने के लिए कह रही थी। शनिवार को देखने के लिए दबाव इसलिए बनाया क्योंकि इस दिन बच्चों को पिकनिक पर जाना था। उनके स्कूल से लौटने का समय तीन बजे का था। वैसे भी श्रीमती बच्चों को यह फिल्म दिखाने की पक्षधर नहीं थी। बच्चों के पिकनिक से लौटकर आने से पहले ही वह फिल्म देखकर आने की सोच रही थी। और इधर फिल्म को लेकर मैंने सुबह से ही कोई बात नहीं की। हो सकता है फिल्म की चर्चा न करना भी उसको नागवार गुजरा हो।
नोकझोंक के कारण दस बज चुके थे। समय ज्यादा होता देख मैंने कार्यालय में कह दिया कि आज सुबह की मीटिंग में नहीं आ पाऊंगा। इस बीच मेरे एवं श्रीमती के बीच तकरार एवं मनुहार का दौर चलता रहा। सुबह के 11 बज चुके थे। मैंने परिचित को फोन लगाया और श्रीमती के साथ हुए वाकये को सुनाया तो उनका कहना था कि आपको भाभीजी को माह में एक बार तो  आउटिंग पर ले जाना चाहिए। मैंने कहा कि नाराजगी तो दोनों तरफ है, इसलिए मैं ऐसा क्यों करूं.. तो उनका कहना था कि कोई बात नहीं है। गलती चाहे किसी की भी हो आपको तो  आउटिंग पर जाना ही चाहिए। इस दौरान 11.10 बज चुके थे। परिचित की बात अचानक क्लिक कर गई और मैंने तत्काल श्रीमती को कहा कि तैयार हो जाओ फिल्म देखने चलते हैं। टाइम कम है। शो साढ़े 11 बजे शुरू हो जाएगा, जल्दी करो। मैं फटाफट बाथरूम गया और नहाकर लौट आया और 11.18 पर कपड़े, जूते आदि पहनकर तैयार हो गया। श्रीमती को फिल्म की कहकर तो मैंने जैसे उसकी मुंह मांगी मुराद  पूरी कर दी। समय की नजाकत को देखते हुए वह बिना नहाए हुए हाथ-मुंह धोकर तैयार हो गई। जल्दबाजी में किसी तरह सिनेमाघर पहुंचे। फिल्म शुरू हो चुकी थी। पर्दे पर फिल्म का दुर्घटना से संबंधित दृश्य चल रहा था। फिल्मी पुलिस दुर्घटना के कारणों की तलाश में जुटी थी। श्रीमती ने कहा कि कुछ फिल्म शायद निकल गई है, तो मैंने कहा कि ज्यादा नहीं निकली है। मैंने समीक्षा पढ़ी है यह शुरुआती सीन है। इसके बाद वह फिल्म देखने में तल्लीन हो गई।
फिल्म को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका है। कई समीक्षकों ने तो बाकायदा फिल्म की प्रशंसा में कसीदे गढ़े हैं तो कइयों ने संतुलित शब्दों में व्याख्या कर बीच का रास्ता निकाल लिया। एक लाइन में कहूं तो मुझे फिल्म सामान्य सी लगी। कुछ विशेष नजर नहीं आया इसमें। छोटी सी कहानी को बेवजह लम्बा खींचा गया। आप यकीन नहीं करेंगे आमिर, रानी, करीना सहित कुल 26-27 कलाकार हैं, जिनका फिल्म में छोटा-बड़ा रोल है। करीब सवा दो घंटे की फिल्म और उसमें मुख्य किरदारों के अलावा 26-27 कलाकार हों तो प्रत्येक के हिस्से में कितना समय आएगा, सोचने की बात है। तवायफों की गली में काम करने वाले लंगड़े  तैमूर (नवाजुद्दीन सिद्दकी) पर काफी सीन फिल्माए गए हैं। कई फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की पटकथा में कसावट की बात कही है लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। कई सीन तो बेवजह ही लम्बा खींचे हुए प्रतीत होते हैं। हो सकता है बनाने वालों के पास इसको लेकर कोई जवाब हो लेकिन मुझे यह सीन फिल्म के मूल कथानक के साथ न्याय करते नजर नहीं आए।  तैमूर  का नोटों से भरा बैग लेकर भागने से लेकर उसके मर्डर तक का अकेला दृश्य ही करीब दस मिनट का है। हां यह अलग बात है कि इस सीन को रेलवे स्टेशन की रेलमपेल के बीच बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म में रहस्य है और उससे पर्दा आखिर में जाकर उठता है। आत्माओं को सिरे से नकारने वाले फिल्म के नायक आमिर खान के साथ जब हकीकत में ऐसा होता है तो वह आत्मओं के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है। फिल्म के गीत भी ऐसे नहीं है कि जो जुबान पर चढ़ जाएं।  पुत्र की मौत के वियोग में आमिर अपराध बोध से ग्रसित रहता है। रह-रह कर उसके जेहन में यही विचार कौंधते हैं अगर वह बच्चे को अकेले जाने की बजाय उसके साथ खेलने को कहता या उसके साथ चला जाता तो ऐसा हादसा नहीं होता। बस यही सोच कर वह खुद को गुनहगार मानता है। उसी ऊहापोह में न तो वह अपनी पत्नी को समय दे पाता है और ना ही खुद को। पुत्र की मौत के बाद आमिर एवं रानी अपना दर्द कम करने का रास्ता खोजते हैं। आमिर जहां रातों को करीना से बातें करते नजर आते हैं, वहीं रानी पड़ोस में रहने वाली उस महिला से प्रभावित नजर आती है, जो आत्माओं से बात करवाती है। फिल्म में आमिर महाराष्ट्र पुलिस के इंस्पेक्टर बने हैं और उनका नाम है सूरजनसिंह शेखावत। फिल्म में रानी उनको सूरी कहती है जबकि पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर शेखावत के नाम से पुकारते हैं। खुद आमिर भी अपना परिचय इसी नाम से देते हैं।
बहरहाल, सिनेमाघर की आधी से ज्यादा खाली कुर्सियां और बीच-बीच में उठकर जाने वाले दर्शक यह जाहिर कर रहे थे कि फिल्म दर्शकों को बांधे रखने या उनका मनोरंजन करने के उद्देश्य में खरी नहीं उतरी है। मेरे जैसा शख्स भी इसलिए बैठा रहा ताकि श्रीमती यह आरोप ना लगा दे कि यह तो होना ही था। आप तो गए ही आधे अधूरे मन से थे, इसलिए बीच में आ गए। बस इसी बात को ध्यान में रखकर मैं न चाहते हुए बैठा रहा। मध्यांतर में भी नहीं उठा। खैर, फिल्म के प्रति मेरी जैसी धारणा बनाने वाले कम नहीं थे। हो सकता है आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकारने वालों को यह विषय भा जाए। आमिर, करीना एवं रानी जैसे सितारों के नाम सुनकर अच्छी फिल्म की उम्मीद में आए कई युवाओं को तो निराशा ही हाथ लगी। कइयों ने फिल्म को टाइमपास करने तथा महज पैसा वसूल हो जाए इसी अंदाज में देखा। ऐसा मुझे उस वक्त लगा जब श्रीमती के साथ मैं सिनेमाघर से बाहर निकल रहा था तो हमारे पीछे-पीछे आ रही दो युवतियों की बातें कानों में पड़ी। वे कह रही थी यार फिल्म मेरे तो ऊपर से निकल गई। वाकई गंभीरता के साथ फिल्म ना देखने वालों के साथ ऐसा ही होता है। आखिकार सवा दो बजे हम फिल्म देखकर घर लौट आए। श्रीमती के चेहरे पर गुस्सा गायब हो चुका था और उसकी जगह लम्बी चौड़ी मुस्कान ने ली थी। मुस्कान की सबसे बड़ी वजह यही थी कि लम्बे समय से तलाश देखने की उसकी आस आज इस बहाने पूरी हो गई थी। हां यह बात दीगर है कि इतना कुछ होने के बाद भी उसने टोक ही दिया कि आप फिल्म दिखाने ले तो जाते हो लेकिन साथ वालों का कुछ ख्याल नहीं रखते। देखा नहीं लोग कैसे कोल्ड ड्रिंक और पॉपकार्न खरीद कर ला रहे थे। दूसरों को देखकर तो कुछ समझ जाया करो। और मैं बिना कुछ बोले मन ही मन मुस्कुरा रहा था।

Friday, December 7, 2012

आप शुरुआत तो कीजिए...


टिप्पणी 


माननीय, पुलिस अधीक्षक, दुर्ग
काफी समय से आप दुर्ग जिले की कमान संभाल रहे हैं। इस दौरान दुर्ग एवं भिलाई की यातायात व्यवस्था का तो आपको अच्छा-खासा अनुभव हो गया होगा। दोनों शहरों की हालत कमोबेश एक जैसी ही है। सड़कों पर न तो कहीं यातायात नियमों का पालन होता है और न ही आपके मातहत नियमों के प

ालन के प्रति गंभीर नजर आते हैं। आलम यह है कि दोनों शहरों की सड़कों पर पैदल चलना भी खतरे से खाली नहीं है। शायद ही ऐसा कोई दिन नहीं बीतता है जब इन शहरों के अंदरुनी इलाकों से हादसों की खबरें न आती हों। वाहनों चालकों में यातायात पुलिस का जरा भी खौफ नजर ही नहीं आता। यह डर क्यों, कब एवं कैसे गायब हुआ, आपको भी पता है। डर होता तो क्या दुपहिया वाहन चालक बिना हेलमेट चलते? क्या दुपहिया पर तीन-तीन, चार-चार लोग सवारी करते? क्या स्कूली बच्चे बिना लाइसेंस वाहन दौड़ाते? इतना ही नहीं, चलते वाहन पर मोबाइल फोन पर बात करना, सीट बेल्ट न लगना, नम्बर की जगह संगठन और खुद का नाम, कारों के शीशों पर काली फिल्म और सरकारी वाहनों की तर्ज पर लाल पट्टी बनवा लेना भी यातायात नियमों से खिलवाड़ है। लेकिन दुर्ग-भिलाई में यह सब आम है। यह सब रोकने की जिम्मेदारी जिन पर है, वे कहते हैं- कार्रवाई हो रही है। सोचिए, अगर कार्रवाई होती तो क्या इस प्रकार यातायात नियमों का मजाक बनता?
दुर्ग-भिलाई के ऑटो चालकों को तो मानो आपके मातहतों ने मनमानी का अघोषित परमिट दे दिया है। क्षमता से अधिक सवारी बैठाना, जहां मर्जी ब्रेक लगाना, मर्जी से ही रूट बदल देना मनमानी नहीं तो और क्या है? किसी वीआईपी के आगमन के दौरान यातायात पुलिस एवं परिवहन विभाग के बीच गजब का तालमेल दिखता है? सड़कों से पशु गायब हो जाते हैं। फोरलेन की सर्विस लेन पर भी कोई वाहन खड़ा नजर नहीं आता। ऐसे चौराहों पर भी यातायात पुलिसकर्मी मुस्तैद नजर आते हैं, जहां सामान्य दिनों में कभी उनको देखा तक नहीं जाता। क्या ऐसा रोजाना नहीं हो सकता? ऐसा कभी होता भी है तो वसूली पर ध्यान 'यादा होता है। येन-केन-प्रकारेण लक्ष्य हासिल हो जाए। उसके बाद व्यवस्था फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती है। अगर आप यातायात नियमों की कड़ाई से पालना करवाएंगे तो यह जनहित का बड़ा काम होगा। और फिर आपको न तो लक्ष्य हासिल करने के लिए विशेष अभियान चलाने की जरूरत पड़ेगी और न ही न्यायालय के दिशा-निर्देश पर दिन-रात एक करना पड़ेगा। लोग व्यवस्था बनाने में सहयोग को तैयार बैठे हैं, बस जरूरत शुरुआत करने की है।



साभार : पत्रिका भिलाई के 5 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Wednesday, December 5, 2012

अतीत से सीख लें


टिप्पणी 

 
वक्त फिर अपने आप को दोहरा रहा है। ठीक वैसे ही हालात अब दुबारा बन रहे हैं। जिला भी वही और विभाग भी। अधिकारी और कर्मचारी भी लगभग वही हैं। तकरीबन जिन कमियों की वजह से दुर्ग के हाथों से ट्रोमा यूनिट निकली थी, कमोबेश वैसी ही परिस्थितियां मेटरनिटी चाइल्ड हेल्थ यूनिट को लेकर बन रही हैं। यूनिसेफ की

ओर से मेटरनिटी चाइल्ड हेल्थ यूनिट के लिए दुर्ग जिला अस्पताल एवं लाल बहादुर अस्तपाल सुपेला को पांच करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव तैयार किया गया था। यूनिट के तहत दुर्ग में 60 और सुपेला में 40 बिस्तर की व्यवस्था प्रस्तावित है। इस काम के लिए यूनिसेफ ने अस्पताल प्रबंधन को बाकायदा आठ माह का समय भी दिया था, लेकिन समय पर उचित फैसला न लेने की कमी यहां भी दिखाई दी और आठ माह में भी कार्ययोजना तैयार नहीं हो पाई। कहने को अस्पताल प्रबंधन, जीवनदीप समिति एवं जिला प्रशासन के बीच इस संबंध में चार बार बैठकें भी हुई, लेकिन उनका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। इतना नहीं इन बैठकों में अतीत में हुई भूलों से भी कोई सबक नहीं लिया गया। आठ माह में सिर्फ जगह की तलाश पूरी की गई। निर्धारित समय सीमा में काम न होने के कारण यूनिट के प्रस्ताव पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। यूनिट के लिए ठोस कार्ययोजना न बन पाने तथा प्रस्ताव की प्रगति की रिपोर्ट देखकर यूनिसेफ के प्रतिनिधियों ने हाल ही में रायपुर में हुई बैठक में न केवल नाराजगी जाहिर की, बल्कि प्रस्ताव निरस्त करने की बात तक डाली। तभी तो सीएमएचओ ने सिविल सर्जन को पत्र लिखकर यूनिट के लिए तत्काल कार्ययोजना तैयार करने को कहा है।
बहरहाल, ट्रोमा यूनिट के मामले में गंभीरता न बरतने वाले अगर इस मामले में भी गंभीर नहीं हुए तो यकीनन यह काम फिर घोर लापरवाही की श्रेणी में आ जाएगा। दुर्ग जिले की बदहाल एवं बेपटरी चिकित्सा व्यवस्था को पटरी पर लाने की दिशा में उम्मीद की कोई हल्की सी किरण दिखाई देती है तो विभाग को उस पर तत्परता एवं सजगता से काम करना चाहिए, ताकि पीडि़त लोगों को ज्यादा से ज्यादा लाभ मिले। अगर दुर्ग व सुपेला में यूनिट स्थापित होती है तो सामान्य व गंभीर मरीजों के लिए अलग से वार्ड बनेगा, साथ ही नवजात एवं प्रसुताओं को भी विशेष सुविधाएं मिलना तय है। जिले के प्रशासनिक एवं स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों को अतीत से सीख लेकर मेटरनिटी चाइल्ड हेल्थ यूनिट से संबंधित तमाम औपचारिकताओं को जितना जल्दी हो पूर्ण करना चाहिए। समय की मांग भी यही है।
 
 साभार : पत्रिका भिलाई के 5 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Saturday, December 1, 2012

मिलग्यो... मिलग्यो-पार्ट 2



बस यूं ही

मोबाइल मिलने की सूचना तो रात को ही मिल चुकी थी लेकिन मेरी जिज्ञासा इस बात में थी कि यह सब अचानक हुआ कैसे? कार्यालय का काम पूर्ण कर रात साढ़े 11 बजे के करीब घर पहुंचा और पहुंचते ही श्रीमती से पहला सवाल यही किया कि आपका मोबाइल बंद कैसे बता रहा है। दोनों नम्बर ही नहीं लग रहे है। बोली पता नहीं क्या है। मोबाइल पर मैसेज आ रहा है सिम रजिस्टे्रशन फेल्ड। मैंने मोबाइल देखा तो वाकई ऐसा ही था। कोई सिम काम नहीं कर रही
थी। तत्काल मोबाइल खोलकर दोनों सिम निकाली फिर बंद करके दोबारा चालू किया तो भी सफलता नहीं मिली। फिर दोनों सिम का स्थान बदला तो एक सिम एक्टीवेट हो गई। मेरे फोन से डायल करके चैक भी कर लिया। घंटी बज गई थी। इस मशक्कत में 12 बज गए। इसके बाद रात का भोजन लिया सोते-सोते 12.30 हो गए। खाने के दौरान बीच-बीच में मोबाइल खोने की कहानी भी चल रही थी। श्रीमती ने बताया कि बच्चे नीचे खेल रहे थे। पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि मोबाइल को वहीं पेड़ के इर्द-गिर्द बने गट्टे (चबूतरे) पर छोड़ दिया। बाद में श्रीमती ने जो कहानी बताई उसे जानकर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। उसने कहा कि दिन से ही फोन टीवी वाले कमरे में लगे सोफे पर रखा था। दोपहर बाद उसी सोफे पर कपड़े डाल दिए और फोन उन कपड़ो के नीचे दब गया। रात को बड़े बेटे ने कपड़े कमरे के अंदर रखे तो मोबाइल उन कपड़ों में लिपट कर साथ ही चला गया।
श्रीमती को मोबाइल की याद
आती भी नहीं  लेकिन उसको व दोनों बच्चों को टीवी धारावाहिक कौन बनेगा करोड़पति देखने का शौक है। वह कई सवालों के जवाब में एसएमएस करती है। कल भी एक सवाल का जवाब देने के चक्कर में ही उसने मोबाइल संभाला, नहीं मिला तो होश फाख्ता हो गए। फौरी तौर पर इधर-उधर देखा, नहीं मिला तो घबरा गई। तत्काल दौड़ी-दौड़ी पड़ोसन के पास गई और अपनी पीड़ा जाहिर की। उसने कहा दीदी आप अपना नम्बर बता दो, मैं उस पर डायल कर देती हूं। लेकिन घबराहट में श्रीमती को खुद के छत्तीसगढ़ वाले नम्बर भी याद नहीं रहे। राजस्थान वाले नम्बर तो याद रहने का सवाल ही नहीं था। हां, इतना जरूर था कि ऐसी घबराहट के बावजूद उसको मेरे नम्बर याद रहे, तभी तो उसने मेरे को मोबाइल गुमशुदगी की सूचना दे दी। मैंने भी पहले छत्तीसगढ़ वाले तथा उसके बाद राजस्थान वाले नम्बरों पर डायल किया। कपड़ों के अंदर दबे मोबाइल की आवाज भी बड़े बेटे को सुनाई दी और और वह तत्काल मोबाइल को कपड़ों से बाहर निकाल लाया और बोला, मम्मा आपका मोबाइल तो यह रहा। श्रीमती खुशी से झाूम उठी।
श्रीमती से पूरा वाकया सुनने के बाद मैंने रात को ही तय कर लिया था कि मोबाइल मामले की दूसरी किश्त भी लिखनी है। शनिवार सुबह उठा तो पूरा बदन दर्द कर रहा था। रात को ही श्रीमती यह फैसला कर चुकी थी कि बच्चों को शनिवार को स्कूल नहीं भेजेंगे, वैसे उसका रोजाना सुबह उठने का समय पांच बजे का और मेरा साढ़े पांच बजे का है। बच्चों को स्कूल न भेजने का निर्णय होने के कारण हम निश्चिंत होकर सो गए। यह बता दूं कि श्रीमती सुबह मेरे से आधा घंटे पहले इसलिए उठती है, क्योंकि वह बच्चों का टिफिन और उनको नहलाकर तैयार करती है। इसके बाद मेरे को जगाती है। बड़े बच्चे की बस सुबह पौने छह बजे के करीब आती है। स्कूल बस का स्टॉपेज घर से करीब तीन सौ मीटर की दूरी पर है। मौसम परिवर्तन के कारण आजकल सूर्योदय अपेक्षाकृत देरी से होता है। इसक कारण सुबह-सुबह अंधेरा रहता है। उसने कहा कि अकेली महिला का अंधेरे में हाइवे पर बस के इंतजार में खड़ा होना उचित नहीं है। बात की गंभीरता को समझते हुए ही मैंने तय किया कि बड़े बेटे को मैं छोड़ आ जाऊंगा। छोटे बेटे की बस सुबह साढे सात बजे आती है तक तक काफी उजाला हो जा
ता है और लोगों की आवाजाही शुरू हो जाती है।
खैर, यह सब बताने का मकसद यह था कि सुबह देर से उठा। उठने की इच्छा ही नहीं हुई। दोनों बच्चे अलसुबह उठकर टीवी के सामने जम चुके थे जबकि श्रीमती रोजमर्रा के कार्य में व्यस्त थी। एक बार तो सोचा तबीयत कुछ खराब है आज सुबह की मीटिंग में नहीं जाऊंगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका। मीटिंग के बाद आफिस में ही कुछ ऐसा उलझा कि दोपहर का डेढ़ बज गया। इस बीच श्रीमती का फोन भी आया, बोली आज आना नहीं है क्या है? भोजन का समय हो गया। इसके बाद दो बजे घर पहुंचा। खाना तैयार था। भोजन ग्रहण करने के बाद बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी, तो सो गया। बीच में दो तीन बार पर हल्की सी आहट पर आंख खुली लेकिन उठा नहीं लेटा ही रहा। आखिर में जब आंख खुली तो कमरे में छाया अंधेरा इस बात का आभास दिला रहा था कि समय कुछ ज्यादा ही हो गया है। घड़ी देखी तो वह सवा चार बजा रही थी। वैसे चार बजे आफिस चला जाता हूं। आज देर हो गई थी। बदन अब भी दर्द कर रहा था। सिर दर्द भी था। गले में खरखराहट और हल्की सी खांसी देखकर समझ गया था कि जुकाम ने अपना असर कर दिया है। मर्ज को कभी खुद पर हावी न होने की प्रवृत्ति बचपन से ही रही है, मैंने तत्काल मुंह धोया और फटाफट कपड़े पहनकर धड़धड़ाते हुए सीढिय़ों से नीचे उतरकर लम्बे कदमों से कार्यालय की ओर चल पड़ा। कार्यालय आ तो गया लेकिन मन यहां भी अनमना ही रहा। कुछ देर तो सोच में डूबा रहा कि क्या करूं.. घर चलूं कि नहीं। आखिरकार तय किया कि काम करुंगा। इस पूरी उधेड़बुन में मोबाइल की कहानी गौण हो चुकी थी। शाम का रोजमर्रा का काम कुछ हल्का हुआ तो ख्याल आया कि मोबाइल गुमशुदगी की दूसरी
किश्त तो लिखी ही नहीं है। बस फिर क्या था, हो गया शुरू और लिखकर ही दम लिया। मामला न केवल रोचक बल्कि श्रीमती से जुड़ा था, इसलिए इस पर लिखना बनता ही है। अब यह पूछकर शर्मिन्दा ना करें कि मोबाइल पर लिखकर मैंने श्रीमती पर व्यंग्य किया या फिर उसका मनोबल बढ़ाया। धन्यवाद।

Friday, November 30, 2012

...मिलग्यो... मिलग्यो



बस यूं ही

सूचना एवं प्रौद्योगि
की क्रांति के चलते आज मोबाइल फोन रोजमर्रा की जरूरत बन गया है। विशेषकर युवा वर्ग तो इसके बिना खुद को अधूरा पाता है। मेरी धर्मपत्नी का हाल भी कुछ ऐसा ही है। शुक्रवार रात पौने दस बजे अचानक मेरा मोबाइल बजा। उस वक्त मैं कार्यालय में अपने कक्ष से बाहर था। आकर चैक किया तो स्क्रीन पर नम्बर दिखाई दिए। अपनी आदत के अनुसार मैंने वापस कॉल किया तो चौंक गया। सामने से आवाज श्रीमती की थी। अजनबी नम्बर से श्रीमती का फोन देखकर मैं समझ तो गया था कि कहीं न कहीं गड़बड़ तो हो गई। खैर, जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ। सामने से धर्मपत्नी की बिलकुल घबराई हुई सी आवाज आई। मुझसे बोली मेरा फोन नहीं मिल रहा है। आप एक बार फोन पर घंटी करो, शायद बज जाए। मैंने तत्काल फोन काट कर श्रीमती के फोन पर डायल किया तो वह स्विच ऑफ बता रहा था। मैंने पलटकर फोन किया और श्रीमती को बताया कि आपका फोन तो बंद है। मेरा जवाब सुनकर श्रीमती एकदम निराश हो गई। बोली आज तो फोन गया। नीचे बैठी थी, बच्चों के साथ, शायद वहीं भूल गई और कोई ले गया। लम्बी सांस छोड़ते हुए वह फिर बोली, हाय राम उसने बंद भी कर लिया, मतलब चोरी हो गया मेरा फोन। पत्नी के जवाब पर मैं भी अवाक था और मन ही मन गुस्सा भी। मैंने उसको फोन पर हल्का सा डांट भी दिया कि ध्यान क्यों नहीं रखा। आपने लापरवाही की है, इसलिए उसका परिणाम भी भोगो। यह अलग बात है कि मेरे मन में भी उम्मीद थी कि शायद कहीं रखकर भूल गई होगी। उसकी भूलने की आदत है और अक्सर चीजें रखकर भूल जाती है। तभी तो मैंने उसको बताया कि घर में ढूंढ लो, शायद मिल जाएगा। मेरा इतना कहते ही फोन कट गया। यह भी हो सकता है कि श्रीमती ने मेरे को फोन करने से पहले मोबाइल की तलाश अपने स्तर पर की हो। उसने जिस फोन से मेरे को फोन किया उसी फोन से अपने नम्बर पर भी किया हो। किसी तरह का हल न निकलने पर ही उसने मेरे को फोन किया हो। दूसरा यह भी हो सकता है कि उसको राजस्थान वाले नम्बर याद ना हो क्योंकि उसका उपयोग यहां कम ही होता है। ऐसे में आखिरी विकल्प मैं ही था। मेरे पास श्रीमती के दोनों नम्बर सेव हैं।
मैं श्रीमती की पीड़ा भली भांति महसूस कर ही रहा था कि तत्काल अतीत जिंदा हो गया। पांच साल पहले झुंझुनू कार्यालय में मेरी टेबल पर रखा नया मोबाइल किसी ने बड़ी ही सावधानी के साथ पार कर दिया था। नया नया ही तो खरीदा था। बड़े ताने सुनने के बाद। पांच-छह साल तक तो नोकिया के 3310 मॉडल से ही काम चलाया। बेचारा कितना साथ निभाता खराब हो गया, तो जुगाड़ से चलाया। बैटरी खराब हुई तो वह भी बदल ली। एक दिन आफिस में बैटरी लॉ होने की समस्या ढूंढने के लिए खुद ही मैकेनिक बन गया। अचानक हाथ से छूटा और ऐसा टूटा कि फिर ठीक ही नहीं हुआ। दुकान पर गया नया मोबाइल लेने तो साथ वाले ने कहा कि भाईसाहब नोकिया 6300 खरीदो। एकदम लेटेस्ट मॉडल है। बहुत दिन हो गए पुराने मोबाइल के साथ। अब तो कुछ नया करो। यकीन मानिए मैं सस्ता मोबाइल ही लेने गया था और आज भी सस्ता मोबाइल ही इस्तेमाल करता हूं लेकिन साथी ने चांद पर चढ़ाकर जेब से 11 हजार रुपए ढीले करवा दिए। ज्यादा दिन भी नहीं हुए थे उसको खरीदे हुए। बहुत दुख हुआ जब चोरी हुआ। मैंने मोबाइल की गुमशुदगी की पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। इससे पहले घर आकर पैकेट देखकर ईएमईआई नम्बर नोट किए और पुलिस थाने जाकर निवेदन किया। लेकिन आज तक मोबाइल का पता नहीं लगा है।
मैं समझ गया था कि अगर चोरी हुआ तो अब मिलने से रहा। यकायक दिमाग में कई तरह के सवाल भी कौंध गए। फोन मल्टीमीडिया था और डबल सिम वाला। सिम भी दो लगी थी। एक छत्तीसगढ़ की तो दूसरी राजस्थान की। कितना सहेज कर रखती है धर्मपत्नी उसको। छह माह पहले मायके गई तब लिया था। अभी दीपावली पर गई तो राजस्थान के नम्बरों की एक सिम और डलवा ली। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मोबाइल में मेरी, बच्चों एवं श्रीमती की बहुत सारी फोटो भी थी। मन ही मन में दिलासा दिया कि खो गया तो खो गया लेकिन फोटो भी गई। बहुत सी यादें जुड़ी थी उनके साथ। फिर ख्याल आया अभी रिचार्ज भी करवाया था, पांच सौ रुपए का। शायद पुलिस में शिकायत करने से भले ही मोबाइल एवं फोटो ना मिले यह राशि तो मिल जाएगी। इस तरह दिमाग में कई सवालों का द्वंद्व और अधेड़बुन चल ही रही थी अचानक ख्याल आया कि क्यों ना एक बार राजस्थान वाले नम्बरों पर डायल किया जाए। फोन लगाया तो घंटी बज गई। जब तक श्रीमती ने फोन अटेंड नहीं किया। ऐसे में दिमाग में पहला विचार तो यह आया कि फोन बंद तो नहीं हैं। एक नम्बर पर तो घंटी जा रही है। दूसरे ही पल ख्याल आया कि यह राजस्थान का नम्बर है हो सकता है चोरी करने वाले ने मोबाइल से एक सिम निकाल ली हो। तीसरा विचार यह आया कि कहीं उसने राजस्थान वाली सिम दूसरे मोबाइल में तो नहीं डाल ली। मेरे दिमाग में यह विचार कौंध ही रहे थे कि अचानक घंटी बंद हो गई और सामने से आवाज आई... मिलग्यो... मिलग्यो...। मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही फोन कट गया। मतलब मैं समझ गया था कि श्रीमती की चिंता दूर हो गई थी और मोबाइल मिलने की खुशी में उसके मुंह से केवल दो ही शब्द निकल पाए।
आखिर में एक बात और जिसको मैंने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है। आदमी हो या महिला जब वह बहुत अधिक गुस्से में होता तब और दूसरा जब वह बहुत अधिक खुश होता है तो उसके मुंह से स्थानीय भाषा ही निकलती है। श्रीमती के साथ भी वैसा ही हुआ है। वह अक्सर हिन्दी में ही बात करती है लेकिन मोबाइल मिलने की खुशी में हिन्दी भूलकर मारवाड़ी पर उतर आई। मैंने श्रीमती को दुबारा फोन लगाया तो दोनों ही नम्बरों पर नहीं लगा। शायद ज्यादा खुश हो गई या फिर सिम बंद होने के कारण तलाशने में जुट गई। कारण जो भी
हो घर जाने के बाद ही पता चलेगा। अभी तो इतना ही कह सकता हूं... वाह रे मोबाइल। तेरी भी अजीब माया है। न हो तो भी दिक्कत और हो तो भी। तेरी माया से कोई नहीं बच पाया।

Wednesday, November 28, 2012

का वर्षा जब कृषि सुखाने


प्रसंगवश 

 
अक्सर देखा गया है कि लोकप्रियता एवं वाहवाही बटोरने के चक्कर में प्रदेश की राज्य सरकार लोक लुभावन योजनाएं तो शुरू कर देती हैं, लेकिन उन योजनाओं के क्रियान्वयन में गंभीरता नहीं बरती जाती। प्रदेश में ऐसी योजनाओं की फेहरिस्त लम्बी हैं, जो तात्कालिक लाभ लेने के लिए जोरशोर से शुरू तो

कर दी गई, लेकिन वे जल्द ही अपने उद्देश्यों से भटकती नजर आई। बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के नाम पर शुरू की गई सरस्वती नि:शुल्क साइकिल वितरण योजना का हश्र भी कुछ ऐसा ही है। सबसे पहले 2004 में यह योजना अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की कक्षा नवमी में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए शुरू की गई थी। इसके बाद 2008 में इस योजना का लाभ गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की छात्राओं को भी दिया जाने लगा। इस योजना के प्रति छात्राओं ने खासा उत्साह दिखाया, लेकिन साइकिल को पाने की प्रक्रिया छात्राओं एवं उनके अभिभावकों का मनोबल तोडऩे का काम ज्यादा कर रही है। चयन से लेकर आवंटन तक की प्रकिया जटिल व लम्बी है। प्रवेश प्रक्रिया में ही एक-दो माह गुजर जाता है। इसके बाद चयनित छात्राओं की रिपोर्ट जिला शिक्षा अधिकारी के पास तथा वहां से पूरे जिले की रिपोर्ट मंत्रालय को भेजी जाती है। इस प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है और लगभग पूरा सत्र इंतजार में ही बीत जाता है। साइकिल देरी से मिलने की समस्या समूचे प्रदेश में है और सभी स्कूलों में हालात एक जैसे हैं। साइकिल लेने के प्रति छात्राओं की कितनी दिलचस्पी है, इस बात की पुष्टि साल दर साल आंकड़ों में होने वाली बढ़ोतरी ही बयां कर देती है। अविभाजित दुर्ग जिले में सत्र 2011-12 में साइकिल पाने वाली छात्राओं की संख्या 12091 थी। इसके बाद दुर्ग से अलग होकर बालोद एवं बेमेतरा जिले में अस्तित्व में आ गए। सत्र 2012-13 में तीनों जिलों से करीब 14501 छात्राओं को साइकिल मिलने का अनुमान है। बहरहाल, राज्य सरकार को इस योजना पर पुनर्विचार कर इसमें संशोधन करना चाहिए और ऐसी व्यवस्था हो कि छात्राओं को नवमी कक्षा में प्रवेश के दौरान ही साइकिल मिल जाए। ऐसा हो तभी इस योजना का फायदा है, वरना तो यह, 'का वर्षा जब कृषि सुखाने' वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है। मामला बेटियों से जुड़ा है, लिहाजा राज्य सरकार को तत्काल सोचना चाहिए।




साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 28  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Monday, November 26, 2012

चुप्पी तोड़ो


टिप्पणी

रोज-रोज पैदल चल लम्बा सफर तय कर स्कूल जाने की मजबूरी और शोहदों से फब्तियां सुनने की लाचारी से आजिज आ चुकी नेहा ने आखिर समस्या की मूल जड़ पर ही चोट करने का फैसला किया। उसे भली-भांति मालूम था कि इन दोनों समस्याओं के पीछे प्रमुख कारण अतिक्रमण ही है। उसने हिम्मत जुटाई और सांसद द्वारा किए गए अतिक्रमण की शिकायत करके ही दम लिया। दुर्ग शहर की न्यू पुलिस कॉलोनी में रहने वाली कक्षा आठ की छात्रा नेहा ने वाकई साहसिक काम किया है। नेहा का यह काम अपने आप में बहुत बड़ा है। समाज के जागरूक लोगों को आईना दिखाकर उसने न केवल एक मिसाल कायम की है, बल्कि सुस्त समाज को जगाने की दिशा में एक अनूठी सीख भी दी है। नेहा ने यह साबित कर दिया है कि इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। निसंदेह नेहा ने सियासी भंवर में फंसे उदासीन शहर को झिाझाोड़ दिया है। नेहा का पत्र सोचने को मजबूर करता है और समाज की कड़वी हकीकत को भी बयां करता है। दरअसल, दुर्ग में लोगों की सहनशीलता इस कदर बढ़ गई है कि कोई मुंह खोलना ही नहीं चाहता। इसी वजह से जिम्मेदार व प्रभावशाली लोग जो चाहे वो करने की जुर्रत कर बैठते हैं। कभी-कभार किसी ने हिम्मत भी दिखाई तो पंगु प्रशासन से किसी तरह का सहयोग नहीं मिला। सांसद के अतिक्रमण की दबे स्वर में एक-दो लोगों ने पहले शिकायत की थी, लेकिन उनको अनुसना कर दिया गया। वैसे भी यह अतिक्रमण कोई रातोरात नहीं हुआ था। दो साल से अधिक समय हो गया था। ऐसे में इस बात की संभावना बेहद कम है कि शासन-प्रशासन को इसकी जानकारी न हो। और इससे भी गंभीर बात तो यह है कि गाहे-बगाहे अनूठे प्रदर्शन कर सस्ती लोकप्रियता पाने वाले भी इस मामले में अब तक खामोश ही रहे। उनको इस बात की जानकारी कैसे नहीं मिली यह भी किसी रहस्य से कम नहीं है।
वैसे भी शासन-प्रशासन के लिए इस अतिक्रमण को हटाना किसी चुनौती से कम नहीं है। शासन-प्रशासन को चाहिए कि वह नेहा की हिम्मत की दाद देते हुए अतिक्रमण के मामले में कार्रवाई करे। सुराज का मतलब भी तभी है। और इधर खुद को जनप्रतिनिधि कहलाने में गर्व महसूस करने वाली सांसद को भी महिला होने के नाते नेहा और उस जैसी कई लड़कियों की मजबूरी को समझना चाहिए। प्रशासन कोई कार्रवाई करे, इससे पहले सांसद को अपना अतिक्रमण हटा कर एक नजीर पेश करनी चाहिए।

 साभार - पत्रिका भिलाई के 26  नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित 

इन तालाबों पर कुछ तो तरस खाइए


हमें पर्यावरण की याद अक्सर तभी आती है जब बात खुद से जुड़ जाती है। हाल में मनाया गया छठ पर्व इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसके लिए बड़े पैमाने पर तालाबों की सफाई भी की गई थी। इतना ही नहीं सफाई को लेकर कुछ संगठनों की ओर से तो बड़े-बड़े दावे भी किए गए थे, लेकिन पर्यावरण एवं तालाब की चिंता करने वाले इन तथाकथित पर्यावरण प्रेमियों के दावों का दम छठ पूजा के दूसरे दिन ही निकल गया। दुर्ग व भिलाई के उन सभी तालाबों पर जहां छठ पूजा की गई थी, वहां यत्र तत्र सर्वत्र बिखरी पूजन सामग्री, फूलमालाएं एवं पॉलीथीन की थैलियां बदहाली की कहानी बयां कर रही हैं। दुर्ग-भिलाई जैसे शहरों में पर्यावरण को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है, ऐसे में इन शहरों में तालाबों की दुर्दशा सोचनीय एवं चिंतनीय विषय है।  वैसे भी तालाब अकेले दुर्ग व भिलाई की ही नहीं, बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ की पहचान हैं। इन तालाबों से अतीत की कई सुनहरी कहानियां व यादें जुड़ी हैं, लेकिन इनकी दुर्दशा को लेकर न तो निगम प्रशासन गंभीर है और ना ही आमजन। गणेश पूजन, नवरात्रि आदि आयोजन पर भी बड़े पैमाने पर तालाबों में प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है, लेकिन इसके बाद के हालात पर किसी को तरस नहीं आता है। अगले साल तक फिर अवसर विशेष आने पर ही इन तालाबों की याद आती है। दुर्ग-भिलाई में बीएसपी के टाउनशिप इलाके को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो दोनों निगमों में सफाई व्यवस्था के हालात कमोबेश एक जैसे ही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब टाउनशिप इलाके में पर्यावरण को लेकर जितने गंभीरता बरती जाती है, उतनी निगम क्षेत्रों में क्यों नहीं? निगम व शासन के स्कूलों में गठित इको क्लब भी महज कागजी ही साबित हो रहे हैं, जबकि बीएसपी के स्कूलों इको क्लब न केवल उल्लेखनीय काम कर रहे हैं, बल्कि लगातार पुरस्कार भी जीत रहे हैं। रविवार को पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाएगा। दोनों शहरों में निगमों की कार्यप्रणाली किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यहां के जागरूक, सेवाभावी एवं उत्साही लोग अगर प्रदूषित तालाबों की सुध लें एवं उनकी देखभाल का संकल्प कर लें तो निसंदेह वे पर्यावरण बचाने की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं।



साभार - पत्रिका भिलाई के 25 नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, November 10, 2012

'राजनीति' में पिस रही जनता


प्रसंगवश

प्रशासन एवं स्वास्थ्य विभाग की मशक्कत के बाद आखिरकार दुर्ग में डायरिया पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा चुका है। जिला कलक्टर ने भी सफाई व्यवस्था का जायजा लेने के लिए बाकायदा टीमें गठित की हैं। इसके बावजूद बदहाल व्यवस्था से परेशान लोगों का धैर्य जवाब दे रहा है। डायरिया प्रकरण

सामने आने के बाद अब तक दो बार प्रदर्शन हो चुके हैं। पहले डायरिया प्रभावित क्षेत्र की महिलाओं ने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के साथ निगम कार्यालय में प्रदर्शन किया। इसके बाद स्थानीय पार्षद के नेतृत्व में वार्डवासियों ने पंचायत मंत्री व स्थानीय विधायक हेमचंद यादव एवं महापौर डा. शिव कुमार के खिलाफ प्रदर्शन कर उनके पुतले फूंके। पीडि़त लोगों का आरोप तो यहां तक है कि डायरिया से मौत का जो आंकड़ा प्रशासन की ओर से बताया जा रहा है, वह हकीकत से दूर है। डायरिया प्रभावित स्थानों पर आज भी अव्यवस्था फैली हुई है। गौर करने की बात यह है कि दुर्ग के ऐसे हालात तब हैं जब निगम पर कब्जा भाजपा का है। वहां के विधायक भी भाजपा के हैं और राज्य सरकार में मंत्री हैं। इतना ही नहीं दुर्ग की सांसद भी भाजपा से संबंधित है। कहने का आशय यह है कि नीचे से लेकर ऊपर तक एक ही दल के लोग काबिज हैं, इसके बावजूद लोगों को बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसना पड़ रहा है। शासन-प्रशासन के आगे गिड़गिड़ाना पड़ रहा है। वैसे भी दुर्ग के हालात आज किसी से छिपे हुए नहीं है। जिला मुख्यालय होने के बावजूद दुर्ग विकास की मुख्यधारा से कटा हुआ है। जिला मुख्यालय के कई हिस्से तो गांवों से भी बदतर हैं और वहां के लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। दुर्ग की बदहाल सफाई व्यवस्था के पीछे के कारणों में पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों का न होना तथा लगातार मानिटरिंग न होना तो है ही। इसके अलावा प्रमुख एवं अहम कारण जनप्रतिनिधियों का राजनीतिक द्वंद्व भी है। वर्चस्व की इस लड़ाई में आम लोग पिस रहे हैं। ऐसे में इस आशंका को बल मिलना स्वाभाविक है कि कंडरापारा में डायरिया फैलने के पीछे नेताओं के अहम की लड़ाई भी जिम्मेदार है।
बहरहाल, आम जन की इस तरह से उपेक्षा लम्बे समय तक बर्दाश्त से बाहर है। अगर वह चाहें तो अर्श से फर्श पर भी ला सकते हैं। इसलिए जनप्रतिनिधियों को अब राजनीति से ऊपर उठकर दुर्ग की चिंता करनी चाहिए। राजनीति बहुत हो चुकी है, शहर एवं लोग अब विकास चाहते हैं। जनप्रतिनिधियों को अपनों को उपकृत करने की मानसिकता से उबरना होगा, तभी दुर्ग का भला होगा वरना लोग यूं ही मरते रहेंगे और व्यवस्था को कोसते रहेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि वजूद की लड़ाई में उलझे राजनीतिज्ञों का दिल परेशान जनता के आर्तनाद से कुछ तो पिघलेगा।



साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 10  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Wednesday, November 7, 2012

ऐसा भी होता है


बस यूं ही...
 

सुबह बिस्तर से उठने के बाद लघुशंका के लिए बाथरूम में घुसा ही था कि मोबाइल की घंटी बज गई। वापस लौटा तब तक कॉल पूरी हो चुकी थी। मोबाइल देखा तो फोन झुंझुनू के परिचित का था। मैंने वापस फोन लगाया और फिर रोज की तरह बातों का सिलसिला लम्बा खींच गया। बातों ही बातों में एक ऐसी बात सामने आ गई, जिसको सुनकर मैं जोर-जोर से हंसने लगा। अब भी वह बात याद आ रही है तो हंसी छूट रही है। खैर
मुख्य बात पर लौटता हूं...। झुंझुनू के परिचित महेश से हालचाल पूछने के बाद मैंने पूछा और कोई खास समाचार है क्या? तो उसने बड़ी तल्लीनता एवं सहज भाव से एक घटनाक्रम के बारे में बिना कोई भूमिका बांधे विस्तार से बताना शुरू किया। शुरू में तो मुझे भी पता भी नहीं था कि महेश का यह घटनाक्रम क्लाइमेक्स पर पहुंचते-पहुंचते यू टर्न ले लेगा, क्योंकि उसने घटनाक्रम कुछ ऐसे ही अंदाज में शुरू किया था, आप भी देखिए.... बोला भाईसाहब मंगलवार रात को एक दोस्त के साथ पिलानी चला गया। वहां इन दिनों सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा है। हम दोनों सांस्कृतिक कार्यक्रम की उम्मीद लेकर ही गए थे लेकिन वहां जाने के बाद पता चला कि आज तो कवि सम्मेलन हो रहा है। चूंकि कार्यक्रम विद्यार्थियों के द्वारा ही आयोजित था, इसलिए सार्वजनिक नहीं था। हां बाहर का कोई व्यक्ति देखने जाए तो उसके लिए टिकट लेना अनिवार्य था। हमने भी चार सौ-चार सौ रुपए की दो टिकट ले ली और हॉल के अंदर चले गए। महेश ने बताया कि हॉल में घुसने से पहले उन्होंने पिलानी के अपने एक और परिचित को बुला लिया था। उसके आने के बाद तीनों हॉल के अंदर चले आए। जब तीनों हॉल में घुसे तो वहां खामोशी पसरी थी लेकिन अंदर का माहौल देखकर महेश हतप्रभ था। दर्शकों में सभी युवा थे। कई युगल तो दीन ओर दुनिया से बेखकर बिलकुल अपने ही अंदाज में मस्त थे। इसके बाद कवि सम्मेलन शुरू हुआ तो महेश और उसके साथी तीनों आपस में एक दूसरे का मुंह ताकने लगे जबकि दर्शक जोर-जोर से हंस रहे थे। तीनों यह तो समझ गए कि मंच पर कवि ने जरूर कोई चुटकुला सुनाया है, इसलिए दर्शक हंस रहे हैं। इसके बाद महेश एवं उसके पिलानी वाले दोस्त ने तय किया है कि भले ही कवि का सुनाया उनके समझ में आए या ना आए लेकिन दर्शक को देख कर वे भी उनके साथ-साथ हंसेंगे ताकि दूसरों के लगे कि वे भी कार्यक्रम का आंनद उठा रहे हैं। लेकिन बनावटी हंसी भला कब तक चलती। पांच-सात मिनट बाद महेश का धैर्य जवाब दे गया। वह अपने झुंझुनू वाले मित्र से बोला, आपको कुछ समझा में आ रहा है क्या? इस पर महेश के दोस्त ने हां कहने के अंदाज में सिर हिलाया। दोस्त का जवाब सुनकर महेश अपने पिलानी वाले दोस्त के साथ बाहर आ गया। थोड़ी देर बाहर लॉन में घूमता रहा। अचानक महेश की नजर अपने झुंझुनू वाले मित्र पर पड़ी। वह भी निराश भाव से हॉल बाहर आ गया था। इसके बाद दोनों ने पिलानी वाले दोस्त से अनुमति ली और झुंझुनू के लिए रवाना हो गए।
मैंने पूछा कि आपने चार सौ-चार सौ रुपए टिकट लिए इसके बावजूद इतनी जल्दी क्यों लौट आए? आप तो कवि सम्मेलनों के शौकीन हो। आपको तो पूरे कवि सम्मेलन का आंनद उठाना चाहिए था। मेरा इतना कहते ही महेश जोर से बोला. आनंद कहां से उठाते... कवि सम्मेलन अंग्रेजी में था और सारे कवि अपनी रचनाएं अंग्रेजी में ही सुना रहे थे। हमारे कुछ समझ में नहीं आया। बाकी दर्शक हमको मूर्ख ना समझ लें इसलिए हमको उनको देख कर उनके साथ ठहाके लगा रहे थे। मैंने कहा जब आप बाहर आए तो आपका झुंझुनू वाला मित्र क्यों नहीं आया तो महेश ने कहा कि उसने पहले बताया कि उसको अंग्रेजी समझ में आती है लेकिन हकीकत यह थी कि उसने जोश-जोश में अंग्रेजी की बात कह तो दी कि लेकिन उसका हाल भी हमारे जैसा ही था, इसलिए थोड़ी देर बाद वह भी बाहर चला आया। महेश के मुंह से समूचा घटनाक्रम सुनने के बाद मेरी हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वह बोला ठीक है भाईसाहब आपका सब कुछ बता दिया इसलिए आप हंस रहे हो। आप भी मजे ले लो, कोई बात नहीं। मैंने कहा कि बात तो मजे वाली ही है, इसलिए ले रहा हूं। जब मैंने उसको कहा कि इस घटनाक्रम पर मैं ब्लॉग लिखूंगा तो महेश यकायक सुरक्षात्मक अंदाज में आकर गिड़गिड़ाने लगा। बोला प्लीज भाईसाहब मैं आपसे निवेदन करता हूं आप ऐसा मत करना। मेरी इज्जत का कुछ तो ख्याल करो। मैंने कहा कि इज्जत का तो पूरा ख्याल है लेकिन मामला रोचक है, इसलिए मैं इस पर कुछ न कुछ तो लिखूंगा। उसने बार-बार निवेदन किया और मुझको ऐसा करने के लिए मना करता रहा। आखिरकार एक रास्ता मैंने ही निकाला और उसको कहा कि ठीक है मैं तेरी इज्जत का पूरा ख्याल रखूंगा। मैं ऐसा करता हूं कि तेरे नाम की जगह काल्पनिक नाम रख दूंगा। मेरे इस सुझाव पर वह सहमत हो गया। हालांकि उसने मेरे सुझाव पर भी सवाल उठाया और बोला कि आखिर परिचित लोग तो उसको काल्पनिक नाम से भी पहचान लेंगे। वैसे आप समझ गए होंगे मेरे परिचित का हकीकत में नाम दूसरा है। उससे वादा किया था, इसलिए महेश उसका काल्पनिक नाम है। खैर, यह वाकया याद आते ही चेहरे पर मुस्कान फैल जाती है। इसलिए नहीं कि चार-चार सौ रुपए देने के बाद भी वे कवि सम्मेलन का लाभ नहीं उठा सके, बल्कि इसलिए कि महेश अपने आप को बहुत ज्यादा स्मार्ट समझता है। बस यही सोच के हंस रहा हूं कि उसकी होशियारी यहां काम क्यों नहीं आई। हर काम ठोक बजाकर कहने की बात कहने वाले महेश ने टिकट लेते समय पूछ लिया होता तो शायद वह कवि सम्मेलन में कभी नहीं जाता। वैसे महेश के लिए यह टेंशन वाली बात इसलिए भी नहीं है क्योंकि टिकटों का भुगतान उसकी जेब से ना होकर उसके झुंझुनू वाले मित्र ने किया था। बात पैसे लगने का नहीं होकर महेश की समझदारी की थी और ज्यादा होशियारी ही उस पर भारी पड़ गई। मुझे उसकी होशियारी पर अब हंसी आ रही है। बहुत ज्ञान बांटता है वह। हर किसी को ही बेवजह और बेमतलब।

Monday, November 5, 2012

मच्छरों से लगाव


टिप्पणी
 

भिलाई एवं दुर्ग नगर निगमों का पर्यावरण व जीव प्रेम सबसे अलग, सबसे जुदा है। पर्यावरण एवं जीवों के प्रति प्रेम की ऐसी नजीर दूसरे निगमों में शायद ही देखने को मिले। अगर केवल मच्छरों की ही बात करें तो दोनों शहरों में उनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। अगर ईमानदारी के साथ गहनता
से जांच की जाए तो दुर्ग व भिलाई में मच्छरों की कई तरह की प्रजातियां मिल जाएंगी। इन प्रजातियों को पनपाने का लगभग श्रेय दोनों निगमों को ही जाता है। संयोगवश कहें या बदकिस्मती कि भिलाई में डेंगू के दो तीन मामले सामने आ गए तो निगम के अमले को मच्छरों के खिलाफ बुझे मन से ही कार्रवाई करनी पड़ रही है, उनके संभावित ठिकानों पर पूरे लाव लश्कर के साथ दबिश दी जा रही है, वरना निगम की तरफ से तो मच्छरों के सौ खून माफ हैं। उधर दुर्ग में फैला तो डायरिया है, लेकिन किसी तरह का इल्जाम मच्छरों पर ना आ जाए, इसलिए एहतियातन दवा का छिड़काव किया जा रहा है, ताकि मच्छर दूसरे मोहल्ले में सुरक्षित जगह पर चले जाएं।
वैसे भी मच्छरों को लेकर लोग निगम प्रशासन को नाहक ही कोसते हैं। विरोध करने वालों को शायद पता नहीं है कि मच्छरों के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं बनती हैं। बजट आता है। अगर मच्छर ही नहीं होंगे तो बजट कैसे बनेगा। योजनाएं बनें, बजट पारित हो और उसमें सभी की बराबर की हिस्सेदारी हो, इसके लिए जरूरी है कि मच्छर पैदा हों। मच्छर होंगे तभी मलेरिया व डेंगू जैसे रोग फैलेंगे। उनको काबू में करने के लिए फिर लाखों-करोड़ों रुपए का बजट पारित होगा। मच्छररहित शहर की परिकल्पना इसलिए भी नहीं की जा सकती कि आखिर मच्छरों के उन्मूलन के लिए तय राशि फिर कौनसी मद में खर्च होगी। देश में लम्बे समय से यही परम्परा चल रही है। भला इसे तोडऩे का दुस्साहस कौन करे। इसको बंद करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही तो है। इतना ही नहीं मच्छरों को भगाने के नाम पर कई तरह के मॉस्किटो क्वाइल, स्प्रे , अगरबत्ती एवं और न जाने कितने ही उत्पाद बाजार में हैं। हजारों लोग जुड़े हुए हैं, इस कारोबार से। कइयों की रोजी-रोटी का तो साधन ही यही है। गौर फरमाइएगा, इतना होने के बाद भी मॉस्किटो क्वाइल, अगरबत्तियां एवं स्प्रे मच्छरों को मारते नहीं बल्कि भगाते हैं, क्योंकि जीव हत्या का पाप कोई अपने सिर नहीं लेना चाहता। और फिर मच्छर जंगल में जाकर करेंगे भी क्या? किसको काटेंगे वहां पर। सोचिए, निगम प्रशासन अगर इन पर कार्रवाई करेगा तो कितने जीवों की हत्या का पाप चढ़ेगा उस पर। इसलिए नफा-नुकसान, धर्म-कर्म, पाप-पुण्य का हिसाब-किताब लगाकर प्रशासनिक अमला चुप है। बेहतर है आप भी चुप ही रहें। जीव हत्या का संगीन आरोप लगवाने से अच्छा है कि आप भी जीव बचाने एवं पर्यावरण प्रेमी कहलवाने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाएं और मच्छरों के खिलाफ बोलने की गुस्ताखी तो कभी भूलकर भी ना करें। बेहतर है निगम के अधिकारियों की तरह आप भी दयालु बन जाओ, आखिर मच्छरों की रगों में भी तो इंसानी खून ही दौड़ रहा है।


 साभार - पत्रिका भिलाई के 05 नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित

Saturday, November 3, 2012

किस काम की जागरूकता


प्रसंगवश

 

कल्पना कीजिए कोई आपको समस्या बताए या किसी खतरे से अवगत कराए लेकिन उन पर पार पाने का कोई रास्ता ना सुझाए तो आप पर क्या बीतेगी? कुछ इसी तरह की परेशानी से इन दिनों दुर्ग-भिलाई के दूध उपभोक्ता गुजर रहे हैं। उनको समस्या तो बता दी गई है लेकिन उसका समाधान नहीं बताया गया, लिहाजा उपभोक्ता पशोपेश में हैं कि वे कहां जाएं और क्या करें। हाल ही में रायपुर सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ की टीम ने कामधेनू विश्वविद्यालय के छात्रों के सहयोग से दुर्ग-भिलाई के छह स्थानों पर घरों से दूध के सैम्पल एकत्रित कर उनकी जांच की तो परिणाम चौंकाने वाले निकले। सभी जगह 60 से 80 फीसदी तक दूध के सैम्पल मानकों पर खरे नहीं उतरे। जांच के आंकड़े यह साबित करने के पर्याप्त है कि दूध में बेखौफ धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है। जांच में यह भी सामने आया कि मिलावट के अधिकतर मामले पानी से संबंधित हैं, लेकिन जांचकर्ताओं ने आशंका भी जताई है कि दूध में जो पानी मिलाया जाता है वह दूषित होता है। दूषित पानी मिले दूध का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही साथ में यह कई गंभीर बीमारियों की वजह भी बनता है। गंभीर विषय तो यह है कि दूध में मिलावट के मामले लगातार सामने आने के बाद भी सिर्फ दुर्ग के बोरसी इलाके को छोड़कर दूध विक्रेताओं में किसी तरह का डर दिखाई नहीं दिया। दूध उसी अंदाज में बिकता रहा। करीब दस दिन तक चले इस अभियान से लोगों को भले ही कुछ हासिल या फायदा नहीं हुआ हो अलबत्ता उनमें हड़कम्प जरूर मच गया। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि बिना कोई रास्ता सुझाए या विकल्प बताए मिलावट के प्रति जागरूकता का ढिंढोरा पीटना कितना न्यायसंगत है? दुग्ध संघ द्वारा की गई सघन इस जांच के पीछे प्रयोजन क्या है? वैसे दूध में मिलावट के प्रति उपभोक्ताओं को जागरूक करना बड़ी बात है, लेकिन कितना अच्छा होता कि दुग्ध उत्पादक संघ इस जागरूकता के साथ-साथ उपभोक्ताओं को इस बात का यकीन भी दिलाता कि उनको अब खुला दूध खरीदने की मजबूरी से मुक्ति दिलाई जाएगी। उनको अब देवभोग का पैकेट वाला शुद्ध दूध मिलेगा। संघ के अधिकारियों को यह भी भली प्रकार से मालूम है कि दुर्ग एवं भिलाई में देवभोग दूध की आपूर्ति कुल मांग की दस फीसदी भी नहीं है। ऐसे में उपभोक्ताओं को जागरूक करने का फायदा भी तभी है जब उनको आवश्यकतानुसार दूध मिले। केवल जांच भर कर देने, उपभोक्ताओं में हड़कम्प मचाने और मांग के हिसाब से आपूर्ति न करने से संघ खुद सवालों में घेरे में है, क्योंकि मिलावट के डर से उपभोक्ता खुले दूध के बजाय पैकेट वाले दूध को ज्यादा प्राथमिकता देंगे। और जब देवभोग के दूध के पैकेट नहीं मिलेंगे तो जाहिर सी बात है कि उपभोक्ता मजबूरी और मिलावट के डर के चलते दूसरी कम्पनियों का पैकेट वाला दूध खरीदेंगे। बहरहाल, दूध में मिलावट की जांच करने का औचित्य तभी है जब उपभोक्ताओं को शुद्ध दूध वाजिब दाम पर आसानी से उपलब्ध हो जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। ऐसे में मजबूर उपभोक्ताओं के पास दो ही विकल्प हैं या तो वे पैकेट वाला महंगा दूध पीएं या फिर सस्ते के लालच में गुणवत्ता से समझाौता कर लें। दुग्ध संघ को इस मामले में गंभीरता से विचार करना चाहिए।

  साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 03  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Tuesday, October 30, 2012

बड़ा ईमान



बस यूं ही...

सुबह नहाने के बाद जैसे ही जींस पहनी तो एकदम से सन्न रह गया। जेब से पर्स गायब था। माह का अंतिम दौर होने के कारण पर्स में पैसे तो ज्यादा नहीं थे लेकिन उसमें दो एटीएम जरूर थे। एक स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर का तो दूसरा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का। एक दो और जरूरी कागजात भी थे। मैं बिलकुल अवाक था, कुछ सूझ नहीं रहा था कि अब क्या किया जाए। मन के कोने में एक हल्की सी उम्मीद जरूर 
थी कि शायद पर्स आफिस में मिल जाए। इस उम्मीद की सबसे बड़ी वजह तो यह थी कि कई बार पर्स आफिस में गिर भी चुका है, लेकिन हाथोहाथ संभाल लेने के कारण किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई। बस इसीलिए थोड़ी सा आशा बची थी। मन व्याकुल था और आफिस पहुंचने से पहले ही हकीकत जानने का उत्सुक भी। फिर सोचा अभी तो साढ़े नौ बजे हैं। कार्यालय सहायक, सफाईकर्मी एवं सुरक्षा गार्ड के अलावा अभी कौन होगा वहां। किससे पूछूं कि वह मेरे कक्ष में जाकर देखे.. कहीं पर्स तो नहीं पड़ा है। इसी कशमकश में तैयार हो रहा था। अचानक सुरक्षा गार्ड का ख्याल आया। अरे उसके नम्बर तो मेरे पास हैं, क्यों ना उसको ही पूछ लूं। फोन लगाया तो नहीं लगा...बेचैन मन को चैन कहां था, लिहाजा पांच-छह बार लगाया, नहीं लगा तो फिर सब्र की लम्बी सांस खींचकर तैयार होने लगा। तैयार होकर सीढिय़ों से नीचे उतर रहा था तो नजर नीचे इस उम्मीद से निहार थी कि शायद पर्स कहीं दिख जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरवाजे से बाहर उस स्थान को भी दो-तीन बार देखा कि शायद मोटरसाइकिल से उतरते वक्त कहीं गिर गया हो लेकिन सब बेकार। आखिर तेज कदमों से कार्यालय की ओर से रवाना हो गया। रास्ते में कई तरह के विचार जेहन में आ जा रहे थे। सोच रहा था, अगर पर्स नहीं मिला तो एटीएम कहां से बनवाऊंगा। बैंक खाते की बुक एवं चैक बुक का अभी तक कोई पता नहीं मिल पाया। पता नहीं स्थानांतरण के दौरान पैकिंग करते समय किस जगह उनको रख दिया। अब एकमात्र एटीएम ही तो सहारा था, जिसके माध्यम से पैसे निकलवा रहा था। अब एटीएम नहीं है तो फिर बैंक जाना पड़ेगा। बैंक भी तो बिलासपुर का है। मन ही मन में तय किया कि किसी दिन फुर्सत से समय निकाल कर बिलासपुर जाऊंगा और खाते की बुक एवं एटीएम के लिए नए सिरे से कवायद करूंगा। दूसरे ही पल फिर नया ख्याल आया कि अपने किसी साथी को कहकर भी तो यह काम करवा सकता हूं, लेकिन फिर सवाल कौंधा कि इस काम के लिए शायद स्वयं को उपस्थित होना होगा। विचारों की इसी उधेड़बुन में मैं कब आफिस पहुंचा एहसास ही नहीं हुआ। आफिस घुसते ही सबसे पहले गार्ड ने नमस्कार किया तो मैंने बताया कि शायद मेरा पर्स रात को कार्यालय में गिर रहा है। इतना कहते ही वह मेरे पीछे-पीछे हो लिया और बोला, साहब शायद आपके केबिन में गिरा गया हो. । आप काका. से पूछ लें। वह आपके केबिन में ही सफाई कर रहा है। मैं तेजी से सीढिय़ां चढ़कर अपने केबिन की तरफ आया, तभी काका एकदम से उठा और रोजाना की तरह सावधान होकर उसने मुझे सेल्युट मारा। करीब पचास-पचपन उम्र के काका का पूरा नाम मोहन सागर है और वह आफिस में साफ-सफाई का काम देखता है। मेरी चेहरे की परेशानी को काका भांप चुका था। बिना पूछे ही तत्काल दौड़कर आया बोला, साब.. आप का पर्स आपकी कुर्सी पर गिरा था। तोलिये के नीचे था दिखाई नहीं दिया। तोलिया उठाया तो नीचे गिर गया। उसे आपकी टेबिल की दराज में रख दिया है, साब। इतना सुनते ही मैंने एक लम्बी सांस छोड़ी और तत्काल दराज की तरफ लपका। काका ने सुरक्षा के लिए दराज के ताला लगा दिया लेकिन चाबी दराज में लगी हुई छोड़ दी थी। मैंने तत्काल चाबी घुमाकर दराज खोला और पर्स देखकर चेहरे पर चमक लौट आई। तब तक काका सफाई का काम छोड़कर मेरे पास केबिन में आ चुका था। बोला साब, पर्स संभाल लो। मैं मन ही मन मुस्कुराया। सोच रहा था कि अब पर्स संभालने की जरूरत ही कहां है। अगर गायब होता तो पूरा ही पर्स हो जाता है। मुझे काका की ईमानदारी ने बेहद प्रभावित किया और मैंने तत्काल उसे सौ रुपए बतौर इनाम देना चाहा तो वह थोड़ा सा हिचकिचाया। मैंने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा कि काका मेरी ओर से तो पूरा पर्स ही गायब हो चुका था। आप की वजह से ही मुझे मिला है। मैं खुशी से आपको दे रहा हूं आप रख लो। इतना कहने के बाद काका ने सौ का नोट रख लिया।
बहुत भारी तनाव से मुक्त होने के बाद मेरी खुशी का ठिकाना न था। और इसी खुशी में मैं फिर सोचने लगा... और अतीत की यादों में खो गया। कुछ इसी तरह का मामला तो करीब पांच साल पहले भी हो चुका है, जब कार्यालय के दो हजार रुपए मैं आफिस में अपने टेबिल के दराज में रखकर भूल आया था। इतना ही नहीं दराज के चाबी लगाना तो दूर उसको दराज में लटकता हुआ ही छोड़कर आ गया था। कुछ अनहोनी की आशंका रात को ही हो गई थी और दूसरे दिन हुआ भी वैसा। सुबह आफिस पहुंचा था दराज से चाबी गायब थी। तलाश की तो वह बगल की ट्रे में डाली मिल गई थी। बदहवाश हालात में मैंने तत्काल दराज खोला तो रुपए कम दिखाई दिए। गिनने लगा तो सौ-सौ के नौ नोट गायब थे। आफिस में सबसे पूछा लेकिन सभी ने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। अचानक विचार आया कि सुबह पांच बजे सफाई वाला आता है। कहीं उसी ने तो ऐसा नहीं कर दिया। शक को बल तब और ज्यादा मिल गया जब उसने उस दिन के बाद आफिस आना बंद कर दिया। खैर, वह पैसे मैंने अपने खाते से जमा किए।
संयोग देखिए दोनों ही घटनाएं आफिस में हुई लेकिन दोनों में अंतर कितना है। मैं इसी सोच में डूबा था। मेरी यह बात बहुत अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि क्यों सभी लोग एक जैसे नहीं होते और क्यों सभी को एक जैसा नहीं समझना चाहिए। वाकई काका की ईमानदारी ने मेरा सीना चौड़ा कर दिया। इसलिए नहीं कि उसने मेरा पर्स लौटा दिया बल्कि इसलिए कि एक अदना सा कर्मचारी होने के बाद भी उसका ईमान कितना बड़ा है। बहुत बड़ा। सलाम उसकी ईमानदारी को।

Saturday, October 27, 2012

जनहित की अनदेखी


प्रसंगवश
सड़कों की खराब दशा को लेकर अभी पखवाड़े भर पूर्व दुर्ग शहर में कांग्रेस पदाधिकारियों ने पीडब्ल्यूडी कार्यालय के समक्ष भैंस के आगे बीन बजाई थी। विरोध जताने के इस अनूठे प्रदर्शन ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा जरूर लेकिन, आमजन से जुड़ी यह समस्या आज भी निराकरण की बाट जोह रही है। आमजन से ही जुड़ी ट्रैफिक सिग्नल समस्या को हल करवाने के लिए अब दुर्ग शहर के वकीलों ने कमर कसी है। वकील गांधीगीरी करते हुए एक नवम्बर को राज्योत्सव के दिन चंदा मांगेंगे और एकत्रित राशि जिला प्रशासन को सौंपेंगे। वकीलों का कहना है कि दुर्ग के पटेल चौक पर 20 साल पहले ट्रैफिक सिग्नल लगाया गया था। इसके माध्यम से यातायात को संचालित किया जाता रहा। वर्तमान में स्वचालित सिग्नल लगा होने के बाद भी चौक चौराहों पर ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिए यातायात पुलिसकर्मियों को मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे में यह सिग्नल अनुपयोगी है। यातायात सुचारू हो, चौक-चौराहों पर डिजीटल ट्रैफिक सिग्नल लगे, इसलिए चंदा एकत्रित किया जा रहा है। काबिलेगौर है कि ट्रैफिक सिग्नल की मांग को लेकर गांधीगीरी पर उतरे वकील इससे पहले शहर में सड़कों के गड्ढ़े, धूल, गंदगी और अव्यवस्थित यातायात को लेकर धरना प्रदर्शन कर चुके हैं लेकिन उनके आंदोलन का कोई नतीजा नहीं निकला। दुर्ग जिले के प्रति सरकार के अब तक के मौजूदा रुख से लगता नहीं है कि वह वकीलों की गांधीगीरी पर भी कोई दरियादिली दिखाएगी।
वैसे भी सियासी दावपेंचों में उलझे दुर्ग शहर में समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त है। तभी तो इनके निराकरण के लिए आंदोलन करना या विरोध दर्ज करवाना एक परम्परा सी बन गई है। शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षिक करने के लिए यहां विरोध के नित नए तरीके भी आजमाए जाते हैं। इसके बावजूद शासन-प्रशासन की आंखें नहीं खुलती हैं। विडम्बना तो यह है कि सरकार एवं उसके नुमाइंदे बड़ी-बड़ी योजनाओं का भूमिपूजन करके वाहवाही बटोरने से गुरेज नहीं करते लेकिन बुनियादी सुविधाओं के सुधार की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। एक बात और। कोई किसी भी तरह से आंदोलन कर ले राज्य सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। शासन-प्रशासन का रवैया भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही हो गया है। बहरहाल, वकीलों के पास मांग मनवाने के लिए दूसरा रास्ता भी है। पटरी से उतरी बदहाल व्यवस्था हो चाहे व्यवस्था में दोष, वकील अगर चाहें तो इसको कानून के माध्यम से भी ठीक करवा सकते हैं। कानून का सहारा लेकर समस्या का निराकरण करवाना भी तो गांधीगीरी की श्रेणी में ही आता है। ऐसे में अदालत का दरवाजा खटखटाने से गुरेज नहीं करना चाहिए। देश-प्रदेश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब शासन-प्रशासन से नाउम्मीद हो चुके लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और उनको वहां न्याय मिला। इसलिए धरना-प्रदर्शन एवं गांधीगीरी की भाषा का जहां कोई अर्थ न हो, वहां कानून का सहारा लेने में ही भलाई है। वकीलों से बेहतर यह काम भला और दूसरा वर्ग कौन जान सकता है।



 साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 27 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Friday, October 26, 2012

जोर जबरदस्ती का खेल


प्रसंगवश 

 
कोरबा जिले की कटघोरा तहसील के ग्राम पंचर में पावर ग्रिड की ओर से हाइटेंशन लाइन बिछाई जा रही है। इस काम के चलते खेतों में खड़ी धान की फसल को नुकसान हो रहा है। तार बिछाने के काम से धान की बालियां टूट कर गिर रही हैं। बिना किसी अधिग्रहण के हो रहे इस काम को एक तरह से जोर जबरदस्ती ही मा

ना जाएगा। अपनी मेहनत के मोतियों को आंखों के सामने बिखरते देख किसानों का खून के आंसू रोना और आक्रोशित होना स्वाभाविक है। किसानों ने अपनी पीड़ा प्रशासन तक पहुंचाई है। इधर, राजस्व अधिकारी नुकसान का आकलन करने के बाद मुआवजा प्रकरण तैयार होने की बात कह रहे हैं, लेकिन हालात ऐसे लगते नहीं हैं कि किसानों को यहां आसानी से इंसाफ मिल जाएगा। स्वयं किसान ही यह बात कह रहे हैं कि प्रति किसान को 20 से 25 हजार रुपए के करीब नुकसान हुआ है लेकिन मुआवजा बेहद कम तैयार किया जा रहा है। यह एक तरह से ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। वास्तविक नुकसान और उसके बदले दिए जाने वाले मुआवजे में जमीन आसमान का अंतर ही किसानों के आक्रोश की वजह बन रहा है। सवाल उठता है कि ऐसे हालात पैदा होने ही क्यों दिए जा रहे हैं। आखिर ऐसी क्या जल्दबाजी है कि किसानों की जमीन का अधिग्रहण किए बिना ही युद्धस्तर पर टावर लगाने व लाइन बिछाने का निर्णय कर लिया। अगर यही काम समय रहते कर लिया जाता तो न फसल बर्बाद होती और ना ही किसान आक्रोशित होते। इससे तो यही जाहिर होता है कि नियम कानून सब बड़ों के लिए ही है। सरकार कुछ भी कर ले, उसको कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है। चूंकि पावर ग्रिड का काम अभी शुरुआती दौर में है और इसकी जद में आने वाले गांव एवं किसानों की संख्या भी इक्का-दुक्का ही है, लेकिन भविष्य में यह काम इसी तर्ज पर आगे बढ़ा तो किसानों को एकजुट होने में देर नहीं लगेगी। इसलिए सरकार को तत्काल किसानों का दर्द समझाना चाहिए और जिनका जितना नुकसान हो रहा है उनको उतना मुआवजा मिलना चाहिए। अगर सरकार यह काम नहीं कर सकती तो उसको किसानों की हमदर्द होने का दंभ भरने का राग अलापना भी बंद कर देना चाहिए।
 
 साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 26 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Wednesday, October 24, 2012

काश! हर दिन नवमी हो जाए...


( एक बच्ची का खुला पत्र )




 टिप्प्पणी

मंगलवार का दिन मेरे लिए ऐतिहासिक रहा। दिन भर खूब पूछ-परख हुई। घरों से लगातार निमंत्रण आते रहे। दुर्ग के सती चौरा माता मंदिर के पास कन्याओं के सामूहिक भोज का नजारा तो मेरे लिए अविस्मरणीय है। दो हजार से अधिक मेरी बहनें लाल चुनरी ओढ़े ऐसी लग रही थी मानो मैया साक्षात अवतरित हो आई हों। सामूहिक भोज से पूर्व शक्ति स्वरूपा मेरी बहनों का जगह-जगह स्वागत हुआ। गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकली। मंदिर परिसर पहुंचने के बाद हुआ स्वागत तो अपने आप में अनूठा रहा। पुरुष प्रधान मानसिकता रखने वाले समाज का यह श्रद्धा-भाव देखकर मैं गदगद् हूं।
लेकिन क्या करूं, मैं जानती हूं मेरी यह खुशी स्थायी नहीं है। साल भर में नवमी जैसे एक-दो आयोजन ही ऐसे आते हैं, जब हमारी इतनी पूछ-परख एवं आवभगत होती है। वरना हमारी हालत किसी से छिपी नहीं है। कौन परवाह करता है हमारी? कदम-कदम पर चुनौतियां हैं। और इन सब के पीछे जो कारण छिपा है वह है पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता। लिंग भेद की काली छाया से तो समूचा देश ही अछूता नहीं है। छत्तीसगढ़ का हाल भी ठीक नहीं है। गर्भ में ही गला घोंट देने तथा लड़का-लड़की में भेद करने के उदाहरण यहां भी हर जगह मिल जाएंगे। तभी तो पूरे प्रदेश में लिंगानुपात गड़बड़ाया हुआ है। महिला सशक्तिकरण की बातें करने वालों से कोई पूछे जरा कि प्रदेश में प्रति हजार पुरुषों के पीछे हमारा अनुपात 991 क्यों है? दुर्ग जिले में तो यह और भी कम है। यहां प्रति हजार पुरुषों के पीछे 988 महिलाएं ही हैं। लिंगानुपात में अंतर के अलावा महिलाओं की हालत भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती। मेरी बहनों पर अनाचार एवं शोषण का रिकार्ड शर्मसार करने वाला है। प्रदेश में महिलाओं पर अत्याचार से जुड़े आंकड़े तो निसंदेह चौंकाने वाले हैं। बलात्कार, अपहरण, दहेज हत्या, पति से प्रताडऩा, लड़कियों की तस्करी व दहेज प्रताडऩा के सन 2010 में 4146 मामले पंजीबद्ध हुए थे। 2011 में ये मामले बढ़कर 4219 हो गए। इसके अलावा बहुत से मामले तो ऐसे भी हैं, जो पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते। बहुत दुख एवं आश्चर्य होता है यह सब जानकर। जिस देश में एक से बढ़कर एक विदुषी महिलाएं पैदा हुईं। नारियों की जहां पूजा होती है, वहां देवताओं के निवास का फलसफा भी तो मेरे देश ने दिया है। वैसे भी देखा जाए तो किस मामले में कम हैं मेरी बहनें। आखिर कौनसा ऐसा काम है जो मेरी बहनें नहीं कर सकती? धरती से लेकर आकाश, घर से लेकर संसद, खेल से लेकर कला, सभी जगह मेरी बहनें अपनी दमदार उपस्थिति दे रही हैं। इतना कुछ होने के बाद भी यह दोहरा व्यवहार क्यों?  क्यों एक-दो दिन मान-मनुहार करने के बाद हमको हमारे हाल पर छोड़ दिया जाता है? क्यों मेरी बहनों को दया का पात्र बना दिया जाता है? आखिर ऐसा क्या गुनाह कर दिया हमने? समाज में हमारा भी तो बराबर योगदान है। हम भी तो सम्मान से जीना चाहती हैं। इसलिए एक-आध दिन पूछ परख कर साल भर आंखें मूंदने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी। हर दिन को ही नवमी मान लें तो बहुत सारी समस्याओं का निराकरण स्वत: ही हो जाएगा। काश! हर दिन नवमी हो जाता।


 साभार- पत्रिका भिलाई के 24 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित


Saturday, October 20, 2012

निरीक्षण की औपचारिकता


प्रसंगवश
बिलासपुर रेलवे जोन के अधिकारियों ने गुरुवार को दुर्ग रेलवे स्टेशन का निरीक्षण किया। इससे पहले बुधवार को रायपुर रेलवे मंडल के अधिकारियों ने भी स्टेशन का जायजा लिया था। रायपुर रेलवे मंडल के अधिकारियों के दुर्ग आने की सूचना सम्बंधित ठेकेदार को मिल गई थी, इस कारण अव्यवस्थाओं पर परदा डालने का प्रबंध कर दिया गया। एक नम्बर प्लेटफार्म को तो तुरत-फुरत चकाचक कर दिया गया। दुर्ग स्टेशन पहुंचे रायपुर के अधिकारियों ने जायजे के दौरान प्रसाधन कक्ष के फ्लोर टाइल्स, वेंटिलेशन खिड़की और वाश बेसिन का संधारण करने के निर्देश दिए। इसके अलावा स्लीपर एवं एसी डारमेट्री टीटीई कक्ष का निरीक्षण कर चादर एवं कंबल नियमित बदलने तथा सफाई व्यवस्था सुचारू रखने के लिए भी कहा। अधिकारियों ने स्टेशन परिसर में चल रहे निर्माण कार्यों की धीमी गति पर भी नाराजगी जताई। वैसे, रायपुर की टीम ने निरीक्षण में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई भी नहीं। उनका मकसद तो यही था कि बिलासपुर से आने वाली टीम को कोई बड़ी अव्यवस्था ना मिल जाए, इसलिए क्यों ना उसको समय रहते ही दूर कर लिया जाए। लिहाजा, सम्बंधितों को दिशा-निर्देश जारी कर अधिकारी रायपुर लौट गए। गुरुवार को पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार बिलासपुर जोन के अधिकारी दुर्ग स्टेशन पहुंंचे तो जरूर, लेकिन उनके दौरे में गंभीरता कम ही दिखाई दी। इन अधिकारियों ने भी वही कुछ देखा या दिखाया गया जो रायपुर के अधिकारी एक दिन पूर्व देख चुके थे। अधिकारियों ने पूरे स्टेशन परिसर का निरीक्षण करना भी उचित नहीं समझाा। अधिकारियों के आगमन को देखते हुए जिन अव्यवस्थाओं के दुरुस्त होने की उम्मीद बंधी थी, वे वैसे की वैसे मुंह बाए खड़ी रही। हाल ही में चर्चा में आए पार्सल विभाग की तरफ तो अधिकारियों ने देखना तक उचित नहीं समझाा। पार्किंग एवं पेयजल व्यवस्था की भी यही कहानी रही। वैसे निरीक्षण का मतलब सिर्फ औपचारिकता निभाना ही नहीं है। इसका उद्देश्य मौके की वास्तविकता से अवगत होना तो है ही। व्यवस्थाओं में किसी तरह की गड़बड़ी न हो, स्टेशन पर आने वाले यात्रियों को किसी तरह की असुविधा का सामना ना करने पड़े आदि तमाम बातों का ध्यान रखना भी जरूरी है। निरीक्षण की सार्थकता भी तभी ही है। सिर्फ कागजी आंकड़े दुरुस्त करने या महज रस्म अदायगी करने से अव्यवस्थाएं दूर नहीं होने वाली। इसके लिए पहली प्राथमिकता तो यही है कि रेलवे के अधिकारी कामकाज के अपने परम्परागत ढर्रे में बदलाव लाएं। यात्री भार देखते हुए दुर्ग का स्टेशन रायपुर-बिलासपुर के समकक्ष ही है। इतना ही नहीं, दुर्ग स्टेशन को मॉडल स्टेशन का दर्जा भी दिया गया लेकिन सिर्फ मॉडल स्टेशन का झाुनझाुना देकर इतिश्री कर ली गई। भिलाई स्टील प्लांट के रेलवे के विस्तारीकरण में योगदान को नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद सुविधाओं में विस्तार न करके रेलवे एक तरह से दुर्ग-भिलाई के यात्रियों के साथ नाइंसाफी ही कर रहा है। अगर दुर्ग को मॉडल स्टेशन का दर्जा मिला है, तो फिर सुविधाएं भी उसी हिसाब से मिलनी चाहिए। रेलवे का दुर्ग-भिलाई से सौतेला व्यवहार समझा से परे है।
 साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 20 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Sunday, October 14, 2012

उद्‌देश्य से ना भटके अभियान

टिप्पणी

 
सुप्रीम कोर्ट की ओर से वाहनों के शीशों पर लगाई जाने वाली काली फिल्म हटाने के लिए अगस्त माह में जारी किए गए आदेशों की याद जिला पुलिस को अब आ रही है। आदेशों की अनुपालना में पुलिस ने शनिवार को वाहनों के शीशों पर काली फिल्म लगाने वाले विक्रेताओं के साथ बैठक की और प्रतिबंधित फिल्म विक्रय न करन

े की हिदायत दी। बढ़ती आपराधिक गतिविधियों के मद्देनजर वाहनों के शीशों पर काली फिल्म हटाने की मांग लम्बे समय से उठ रही थी, लेकिन यातायात पुलिस ने इस विषय पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। कभी ज्यादा दबाव आया तो औपचारिकता के नाम पर एक-दो दिन कार्रवाई जरूर की गई, वरना वाहन यूं ही बेखौफ दौड़ते रहे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पुलिस, यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों में किसी प्रकार का डर पैदा नहीं कर पाई। पुलिस अधिकारी खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जुर्माना लगाने के बावजूद लोग वाहनों के शीशों पर काली फिल्म लगवा रहे हैं। मतलब साफ है कि वाहन चालक जुर्माना देकर भी कानून तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। यातायात नियमों की पालना करवाने में अगर शुरू से ही गंभीरता बरती जाती तथा कड़ी कार्रवाई होती तो इस प्रकार फिल्म विक्रेताओं के साथ न तो बैठक करने की जरूरत पड़ती और ना ही कानून हाथ में लेने वालों का हौसला बढ़ता। शीशों पर काली फिल्म हटाने के लिए पुलिस पहले भी कई बार अभियान चला चुकी है, लेकिन उन अभियानों का हश्र सबके सामने है। वैसे भी भिलाई में यातायात व्यवस्था को दुस्त-दुरुस्त करने के लिए कई तरह के अभियान चलाए गए हैं, लेकिन शायद ही कोई अभियान होगा, जिसका व्यापक असर दिखाई दिया हो। यातायात पुलिस भले ही अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए आंकड़ें प्रस्तुत कर दे, लेकिन हकीकत इससे अलग है। बात भिलाई में दुपहिया वाहन चालकों द्वारा हेलमेट न लगाने लगाने की हो या फिर नाबालिग वाहन चालकों की। कहने को पुलिस इन सबके खिलाफ भी अभियान चला चुकी है, लेकिन सड़क पर इक्का-दुक्का वाहन चालकों के अलावा किसी के सिर पर हेलमेट दिखाई नहीं देता है। सैकड़ों की संख्या में स्कूली बच्चे दोपहिया वाहनों पर फर्राटे भरते नजर आते हैं। इतना ही नहीं वाहनों के कागजात जांचने की याद भी यातायात पुलिस को अवसर विशेष या त्योहारों के नजदीक ही ज्यादा आती है। इधर, दुर्ग-भिलाई के बीच चलने वाले ऑटो चालक जो चाहे वो कर रहे हैं। वे क्षमता से अधिक सवारियां बैठा रहे हैं। मनमर्जी से रूट तय कर रहे हैं। वे यहां-वहां रुककर यातायात नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। आधे घंटे में तय होने वाले सफर में एक-एक, डेढ़-डेढ़ घंटे का समय लगा रहे हैं, लेकिन यह सब पुलिस को दिखाई नहीं दे रहा है। इस मामले में पुलिस की भूमिका से तो ऐसा लगता है कि जैसे कि ऑटो का संचालन वह स्वयं करवा रही हो।
बहरहाल, यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ईजाद किया जाने वाला कोई भी अभियान बुरा नहीं होता है। उसका सफल या असफल होना पुलिस की कार्यशैली पर निर्भर करता है। वाहनों के शीशों पर काली फिल्में उतारने का अभियान भी ईमानदारी से चले, उसकी कड़ाई से पालना हो और कार्रवाई में किसी तरह का भेदभाव न हो। तभी इसके तत्कालिक एवं दूरगामी फायदे होंगे। अभियानों की सार्थकता भी तभी है, वरना अतीत इस बात का गवाह है कि बिना कार्य योजना एवं गंभीरता के चलाए जाने वाले अभियानों से सिर्फ कागजी आकंड़े ही दुरुस्त होते हैं, व्यवस्था में सुधार नहीं होता।
 
साभार - भिलाई पत्रिका के 14 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित।
 
 

Saturday, October 13, 2012

जांच के नाम पर लीपापोती

प्रसंगवश 

अविभाजित दुर्ग जिले के सुदूर ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग की व्यवस्था बेहद ही लचर एवं बदहाल स्थिति में है। इन स्थानों पर विभाग की लापरवाही एवं कारगुजारियों के किस्से अक्सर उजागर होते रहते हैं। बालोद नेत्रकांड तथा इसके बाद डौंडीलोहारा में रिकॉर्ड नसबंदी ऑपरेशन के मामले अभी चर्चा में ही हैं कि कुछ इसी तरह का एक और प्रकरण सामने आया है। बेमेतरा जिले के अमोरा गांव में शिवनाथ नदी पर बने पुल के नीचे ग्रामीणों को दवाइयों का बड़ा जखीरा मिला। इस मामले का पर्दाफाश पानी से उठी दवा की गंध के कारण हुआ। ग्रामीणों ने गंध की वजह टटोली तो बोरों में भरे दवा के पैकेट दिखाई दिए। पानी में बहाए गए दवाओं के पैकेट पर जो जानकारी लिखी गई है, उसके मुताबिक यह दवा बाजार में बिक्री के लिए नहीं थी और यह अवधिपार भी नहीं है। इसको सन्‌ 2013 व 2014 तक उपयोग किया जा सकता था। पैकेट्‌स को देखते हुए इनको यहां डाले भी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। जाहिर
सी बात है कि जिम्मेदारों ने इस दवा को पात्र व्यक्तियों को वितरित करने के बजाय पानी में बहाना बेहतर समझा। खैर, इस तरह से नदी के पास दवा मिलना तो अपने में अजूबा है ही। दवा मिलने के बाद स्वास्थ्य विभाग की भूमिका उससे भी बड़ा अजूबा है। अधिकारियों का रवैया तो निहायत ही गैर -जिम्मेदाराना रहा। शुरुआत में तो उन्होंने दवा मिलने की बात को सिरे से ही नकार दिया। अधिकारियों के बयानों की बानगी भी ऐसी थी कि लोगों ने आश्चर्य से दांतों तले अंगुली दबा ली। सीएमएचओ एवं बीएमओ दोनों के ही बयान न केवल विरोधाभासी थे, बल्कि सच से भी कोसों दूर दिखाई दिए। सीएमएचओ ने नदी के पास मिली दवा को नष्ट करवाने की बात कही, तो बीएमओ तो उनसे चार कदम आगे निकले। उनका कहना था कि वहां ऐसा कुछ मिला ही नहीं है। इस तरह बिना सोचे समझे बयान देना तथा गलती स्वीकारने या जांच का आश्वासन देने के बजाय सरासर झूठ बोलना बेशर्मी की हद है। स्वास्थ्य जैसे संवदेनशील विषय पर लगातार लापरवाही उजागर हो रही है, लेकिन सरकारी एवं प्रशासनिक स्तर पर कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही हैं। गंभीर एवं विचारनीय विषय तो यह है कि सरकार एवं उसके नुमाइंदे तो हमेशा की तरह इस मामले में भी नींद में गाफिल हैं। दवा मिलना तथा इसके बाद गलत बयानबाजी के बावजूद मामले को बेहद हल्के से लेना यह साबित कर रहा है कि सरकार को स्वास्थ्य से कोई सरोकार नहीं है। जब इस तरह से सरेआम सफेद झूठ बोलने वालों के हाथों में स्वास्थ्य सेवा की डोर हो तो सोचा जा सकता है कि लोग किस हाल में जी रहे हैं। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा से जुड़ी गफलतों को देखकर इतना तो तय है कि जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर गलत बयानबाजी करने वालों को शासन का कोई डर नहीं है। पीड़ितों को राहत देने तथा दोषियों पर कार्रवाई के नाम पर राज्य सरकार एवं उसके प्रतिनिधि महज मूकदर्शक की भूमिका ही निभा रहे हैं। सरकार की भूमिका से तो ऐसा लग भी रहा है कि यह सब उसके संरक्षण में ही चल रहा है। जैसे कि सरकार ने कुछ भी करने की अघोषित छूट दे रखी हो।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 13  अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, October 6, 2012

पोस्टर प्रेम का नया शगल


प्रसंगवश

छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के कार्यकर्ताओं ने गुरुवार को भिलाई के छावनी थाने के समक्ष विरोध प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इजहार किया। कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर आक्रोश था कि शहर में लगाए गए मंच के पोस्टरों को किसी ने बिना वजह के फाड़ दिया। मंच कार्यकर्ताओं ने पोस्टर फाड़ने वालों के खिलाफ जुर्म दर्ज करने की मांग को लेकर थानाधिकारी को ज्ञापन भी दिया। पोस्टर से संबंधित कमोबेश ऐसा ही एक वाकया पखवाड़े भर पूर्व भी हो चुका है। उस वक्त भिलाई महापौर के जन्मदिन की बधाई से संबंधित पोस्टरों पर कालिख पोत दी गई थी। इस मामले की भी पुलिस थाने में शिकायत की गई थी। पोस्टरों से संबंधित उक्त दोनों घटनाओं से यह तो जाहिर है ऐसा करने वाला यकीनन पूर्वाग्रह से तो ग्रसित था ही उसकी मानसिकता भी निहायत ओछी थी। हो सकता है यह सब करने के पीछे तात्कालिक गुस्से को शांत करना रहा हो लेकिन यह एक तरह की कायराना हरकत ही है। अगर किसी को कुछ शिकायत है भी तो वह इस प्रकार का कृत्य क
रने से दूर नहीं हो जाती। फिलहाल, दोनों ही मामले पुलिस के पास विचाराधीन हैं लेकिन इतना तो तय है कि इन प्रकरणों का मूल कारण सियासी अदावत ही है। वैसे पोस्टर लगाने का शगल बड़ी तेजी के साथ पनपा है। अकेले भिलाई ही नहीं समूचे प्रदेश में यह अब फैशन में तब्दील हो चुका है। छुटभैयों के लिए यह प्रचार करने का सबसे कारगर तरीका है तो उनके आकाओं के लिए किसी शक्ति प्रदर्शन से कम नहीं। पोस्टर लगाने के लिए वे अक्सर अवसरों को तलाशते रहते हैं। कभी त्योहारों के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय पर्व के नाम पर। सारे नियम-कायदे भी यहीं से तार-तार होना शुरू हो जाते हैं। सोचनीय विषय तो यह है कि जिम्मेदार लोग अपने समर्थकों के इस प्रेम को बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेते। उनकी भूमिका से तो ऐसा लगता है, जैसे उनके इशारे पर ही यह सब होता है। संभवतः इसी चक्कर में इन पोस्टरों को हटाने की हिमाकत प्रशासनिक अमला भी नहीं कर पाता है। तभी तो अवसर बीत जाने के बाद अप्रसांगिक होते हुए भी पोस्टर टंगे रहते हैं। न तो निगम प्रशासन उनको हटवाने की जहमत उठाता है और न ही लगाने वालों को इनकी याद आती है। कोई रोकने या टोकने वाला भी नहीं है। मनमर्जी का यह खेल यूं ही बदस्तूर चलता रहता है। बहरहाल, पोस्टर फाड़ने या उन पर कालिख पोतने का विरोध करने वालों के पास अपना तर्क हो सकता है, लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि इन पोस्टरों के सहारे कुछ हद तक सस्ती लोकप्रियता जरूर हासिल की जा सकती है लेकिन जनता का दिल नहीं जीता जा सकता है। इस नए शगल से सिवाय पैसे की बर्बादी के कुछ हासिल नहीं है। शहर बदरंग होता है वह अलग। इस दिशा में गंभीरता से सोचने एवं उस पर विचार करने की जरूरत है।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 06 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, October 2, 2012

बस एक दिन याद आता हूं मैं...

बापू बोले


गौर से देखिए मेरी प्रतिमा को। याद कीजिए भिलाई के जलेबी चौक पर कितने जोश-खरोश एवं मान-सम्मान के साथ मुझे प्रतिष्ठापित किया गया था। मेरी याद को चिरस्थायी रखने के लिए पता नहीं क्या-क्या संकल्प भी आप लोगों ने उस दिन लिया था। मैं खुश था आप लोगों का उत्साह एवं जोश देखकर। लेकिन मेरा यह सोचना गलत था। कुछ ही समय में आप लोग सब कुछ भूल गए। कड़वी हकीकत यह है कि आप लोगों को जरूरत के समय ही मेरी याद आती है। अक्सर चुनाव में कई नेता तो मेरे नाम के सहारे ही चुनावी नैया पार लगाने की कवायद में जुट जाते हैं। उस वक्त पार्टी, आदर्श, सिद्धांत आदि गौण हो जाते हैं। चुनाव की बात छोड़ भी दूं तो आप लोगों को साल में दो बार ही मेरी याद आती है। शहीद दिवस 30 जनवरी को तथा दो अक्टूबर को मेरी जयंती पर। कई जगह तो लोग उक्त दोनों तिथियां भी भूल जाते हैं। भूलना एक अलग बात है लेकिन दुखद विषय यह है कि मेरा राजनीतिकरण कर दिया गया है। एक दल के लोग अवसर विशेष पर गाजे-बाजे के साथ आते हैं लेकिन बाकी दल के लोग पता नहीं क्यों एवं क्या सोच कर मेरी प्रतिमा पर श्रद्धा के दो फूल चढ़ाने में भी शर्म-शंका करते हैं। खैर, ऐसे हालात के लिए दोष आपका नहीं समय का है। मौजूदा दौर में मानवीय मूल्य गौण हो गए हैं। व्यक्तिगत सोच के चलते लोग स्वार्थी हो गए हैं। अपने घर-परिवार वालों से भी ठीक से पेश नहीं आते हैं। फिर मैं क्या लगता हूं उनका। मेरा कौनसा खून का रिश्ता है उनसे। यह तो उनकी मर्जी पर निर्भर करता है कि चाहें तो याद करें चाहें तो नहीं। अब दुर्ग में भी मेरी प्रतिमा साल भर से उपेक्षित पड़ी थी। ऐसा भी नहीं कि मैं किसी कोने में लगा था। बिलकुल हिन्दी भवन के सामने मेरी प्रतिमा लगी है। साल भर मेरी प्रतिमा यहां अपनी बदहाली पर आंसू बहाती र। मेरी प्रतिमा पर लगा चश्मा और एक चरण पादुका कब गायब हुई किसी को खबर तक नहीं हुई। दो अक्टूबर आया तो मेरी याद आई। किसी ने देखा तो सोचा बड़ा मुफीद मौका है क्यों न भुना लिया जाए। बस ठान ली साफ-सफाई करने की। अचानक मेरे प्रति प्रेम उमड़ पड़ा। मैं मन ही मन अपने सपूतों की समझदारी पर मुस्कुरा रहा था। जयंती से एक दिन पहले ही उनको अपने कर्तव्य का बोध हो गया था। आखिरकार मेरी प्रतिमा की सफाई हुई। लम्बे समय से प्रतिमा पर जमी धूल को हटाया गया। इतना ही नहीं मुझे नया चश्मा भी पहनाया गया और चरण पादुका भी। मंगलवार को भी जयंती के उपलक्ष्य में कई आयोजन-प्रयोजन होंगे। वैसे भी चुनावी समय नजदीक है, ऐसे में दूसरे दल के लोग भी आकर श्रद्धा-सुमन चढ़ा जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देखा जाए तो साल भर अपनी बदहाली पर आंसू बहाने वाली मेरी प्रतिमा ही इकलौती नहीं है। शहर में और भी कई महापुरुषों की प्रतिमाएं चौक-चौराहों पर लगी हैं, जिनकी याद भी अवसर विशेष पर ही आती है। मैं आपसे ज्यादा नहीं मांगता, आप मेरी जयंती पर यह संकल्प लें कि न केवल मेरी प्रतिमा बल्कि दुर्ग-भिलाई में जितने भी महापुरुषों की प्रतिमाएं लगी हैं, उनकी सार-संभाल एवं नियमित सफाई का जिम्मा उठाएं। अगर आप लोग ऐसा कर पाए तो निसंदेह यह मेरे साथ बाकी महापुरुषों के लिए बहुत बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

साभार : पत्रिका भिलाइ के 02 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।


Saturday, September 29, 2012

बंद हो आंकड़ों का खेल

प्रसंगवश 

छोटा परिवार सुखी परिवार की अवधारणा को पुष्ट करने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार हर साल परिवार नियोजन पर करोड़ों रुपए खर्च करती हैं, लेकिन गाहे-बगाहे ऐसी घटनाएं दरपेश आती हैं, जो इस अभियान की सफलता पर सवालिया निशान लगाती हैं। मंगलवार को बालोद जिले के डौंडीलोहारा कस्बे के सामुदायिक स्

वास्थ्य केन्द्र में लगा नसबंदी शिविर इसका जीता जागता उदाहरण है। शिविर में शुरू से लेकर आखिर तक अव्यवथाएं हावी रहीं। हद तो उस वक्त हो गई जब सुबह दस बजे शुरू होने वाला शिविर शाम सात बजे बाद चिकित्सक के आने पर शुरू हुआ। इसके बाद आनन-फानन में ऑपरेशन शुरू किए गए तो बीच में बिजली गुल हो गई। करीब एक घंटे तक तो टॉर्च की रोशनी में ही ऑपरेशन होते रहे। बिजली आने के बाद रात 11 बजे तक ऑपरेशन हुए। ऑपरेशन का आंकड़ा तो वाकई चौंकाने वाला है। कुल 138 महिलाओं के नसबंदी ऑपरेशन मात्र चार घंटे में एक चिकित्सक ने कर दिए। यकीन नहीं होता इस आंकड़े को देखकर। किसी चमत्कार के होने जैसा ही है यह सब। गंभीर बात तो यह है कि संबंधित चिकित्सक इसको सामान्य-सी बात मान रहे हैं। वैसे चिकित्सकों का मानना है कि नसबंदी ऑपरेशन करने में दस से पन्द्रह मिनट तक का समय लगना सामान्य-सी बात है।
शिविर में घोर लापरवाही के बावजूद प्रशासनिक अधिकारियों ने इस मामले में जरा भी गंभीरता नहीं दिखाई। एसडीएम ने तो बीएमओ को नोटिस देकर इतिश्री कर ली। इधर, राज्य सरकार के मुखिया एवं उसके नुमाइंदे अक्सर सभाओं में राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर खुद की पीठ थपथपाने से गुरेज नहीं करते। लेकिन, उनके बड़े-बड़े दावे उस वक्त बेमानी लगने लगते हैं, जब इस तरह के प्रकरण सामने आते हैं। नसबंदी शिविरों में अक्सर अव्यवस्थाएं उजागर होती रहती हैं। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार इन सब से अनजान है। सरकार को यह भी पता है दुर्ग-बेमेतरा एवं बालोद जिले में केवल एक ही सर्जन हैं, जो नसबंदी के ऑपरेशन करते हैं, लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं है, उस इकलौते चिकित्सक को कुछ भी करने की छूट मिल जाए। नेत्रकांड के बाद बालोद जिले में ही परिवार नियोजन अभियान की पोल खोलने वाला यह शर्मनाक मामला है। सोचनीय विषय यह भी है कि आमजन के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वाले लगातार इस प्रकार के कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं और राज्य सरकार नींद में गाफिल है। इससे तो यही समझा जाना चाहिए कि राज्य सरकार की कथनी और करनी में समानता तो कतई नहीं है। आखिर, इस तरह लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने से हासिल भी क्या होगा। सरकार अगर वाकई परिवार नियोजन के प्रति गंभीर है तो उसको नसबंदी शिविरों के लिए तत्काल नए दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए। संबंधित चिकित्सक पर कार्रवाई तथा अव्यवस्थाओं को दुरुस्त करने के साथ-साथ शिविरों में चिकित्सकों के देर से आने तथा रात में ऑपरेशन करने पर तत्काल प्रभाव से रोक लगनी चाहिए। वरना, यही समझा जाएगा कि राज्य सरकार भी लोगों के स्वास्थ्य को दरकिनार कर लक्ष्य पूर्ति के आंकड़ों के खेल में अपनी सहभागिता निभा रही है।
 
साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ के 29 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Monday, September 24, 2012

उम्मीदों को पंख...



पत्रिका को टि्‌वनसिटी में दो साल पूरे हो गए। इन दो वर्षों में पत्रिका ने बेबाक, निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के नए आयाम गढ़े हैं, यह बात पत्रिका का पाठक बखूबी जानता है। दो वर्षों में पत्रिका ने जनहित से जुड़े अनेक मुद्‌दों को अपनी आवाज दी और अंजाम तक पहुंचाया। मुद्‌दे उठाना और परिणाम तक पहुंचाना ही पत्रिका की खासियत है। हाल ही में पत्रिका के अमृतम्‌ जलम्‌ अभियान को टि्‌वनसिटी के पाठकों ने जो समर्थन एवं सहयोग दिया, वह अभूतपूर्व है। पाठकों के इसी साथ ने एक और एक दो नहीं बल्कि ग्यारह होने की अवधारणा को पुष्ट किया। टि्‌वनसिटी में ऐसे मुद्‌दों की फेहरिस्त लम्बी है, जिनको पत्रिका ने बड़ी शिद्‌दत के साथ उठाया और मुहिम का ऐसा रंग दिया कि आखिकार शासन-प्रशासन को ध्यान देना पड़ा।
टि्‌वनसिटी के दोनों शहरों दुर्ग-भिलाई के बीच भौगोलिक दूरी आज भले ही मिट गई हो, लेकिन दोनों की अलग-अलग खासियतें एवं खूबियां हैं। पत्रिका ने टि्‌वनसिटी की इन खासियतों से रूबरू कराया तो विकास की विसंगतियों को भी लगातार उजागर किया। बीएसपी आयुध भंडार के पास अवैध बस्ती के खिलाफ  पत्रिका की मुहिम को तो पाठक आज भी याद करते हैं। बीएसपी प्रबंधन को आखिरकार उस बस्ती को वहां से हटवाना पड़ा। इतना ही नहीं, शहर में बाइपास या फोरलेन के मामले में भी पत्रिका की मुहिम पर निगम प्रशासन ने मुहर लगाई। फोरलेन की विसंगतियों को भी पत्रिका ने बेबाकी के साथ उठाया। शहर में खस्ताहाल चिकित्सा व्यवस्था से लेकर सेक्टर एरिया की समस्याओं तक जनहित से जुड़े हर मुद्‌दे पर पत्रिका की पैनी निगाह रही।
यह तो शुरुआत है। टि्‌वनसिटी में विकास की भरपूर गुंजाइश है। उम्मीदों का आकाश पंख फैलाने को बेताब है। जरूरत है तो बस इच्छाशक्ति जगाने व सोच बदलने की। पत्रिका ने दोनों ही कामों में अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाने का प्रयास किया है। पाठकों के विश्वास और उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए कलम यूं ही बेबाक, निष्पक्ष एवं निर्भीक बनी रहेगी, लगातार... अनवरत...।

साभार - पत्रिका भिलाई के 24 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, September 22, 2012

गंभीर है यह मर्ज

प्रसंगवश

भले ही समस्याओं का निराकरण हो या ना हो लेकिन वैशालीनगर विधायक भजनसिंह निरंकारी इससे कोई सरोकार नहीं रखते हैं। वे जनसमस्याओं के निराकरण के लिए लगातार चिटि्‌ठयां लिखते रहते हैं। कभी जिला प्रशासन को तो कभी राज्य सरकार को। हाल ही में उन्होंने भिलाई निगम आयुक्त को चिट्‌ठी लिखी है। चिट्‌ठी में उन्होंने जिस मामले को उठाया है, वह वाकई आम आदमी से जुड़ा है और समय की मांग भी है। चिट्‌ठी में उन्होंने निगम आयुक्त को अवगत कराया है किभिलाई निगम क्षेत्र में भवन निर्माण के लिए अनुमति लेने की प्रकिया बेहद जटिल है। इससे लोगों को परेशानी होती है। जब तक अनुमति मिलती है, तब तक निर्माण कार्य ही पूर्ण हो जाता है। ऐसे में इस प्रक्रिया का सरलीकरण किया जाना बेहद जरूरी है। इसी पत्र में विधायक ने कुछ गंभीर बातें भी कही हैं। उन्होंने कहा कि निगम क्षेत्र में अवैध कब्जों एवं अवैध निर्माण की बाढ़ आई हुई है और इन पर निगम प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है। विधायक यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने इसके लिए अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किया है। अवैध निर्माण के लिए उन्होंने निगम के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराते हुए आयुक्त से इन पर शिकंजा कसने की मांग भी की है। खैर, भवन निर्माण की अनुमति प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिल होना तो अपने आप में बड़ी समस्या है ही लेकिन अधिकारियों की भूमिका को लेकर जो सवाल उठाए गए हैं, वे वाकई ही गंभीर हैं और सोचने पर मजबूर करते हैं। कोई सामान्य या अदना सा आदमी अगर यही आरोप लगाता तो हो सकता है, उसे अनसुना कर दिया जाता लेकिन लम्बा राजनीतिक अनुभव तथा जनप्रतिनिधि होने के नाते निरंकारी की बातों में दम नजर आता है। उनके आरोप सच्चाई के नजदीक इसलिए भी दिखाई देते हैं, क्योंकि निगम और उसके अधिकारी उनके लिए अजनबी नहीं हैं। हालांकि कांग्रेसी महापौर वाले निगम में आयुक्त को चिट्‌ठी लिखना ही अपने आप में बड़ी बात है। राजनीतिक हलकों में इस चिट्‌ठी के कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, फिर भी आरोप तो आरोप ही हैं।
दरअसल, निगम क्षेत्र में अवैध कब्जे व अवैध निर्माण तो गंभीर विषय है ही, इनके अलावा भी बहुत सी ऐसी समस्याएं हैं, जो लम्बे समय से निराकरण की बाट जोह रही हैं। इधर निगम अधिकारियों का हाल यह है कि वे समस्याओं को लेकर जरा सी भी गंभीरता नहीं दिखाते। अपने आप से तो उनको कोई काम कभी सूझता ही नहीं है। वैसे अधिकारियों की इस तरह की उदासीनता एवं मनमर्जी कमोबेश हर सरकारी विभाग में दिखाई दे जाएगी। सरकारी कार्यालयों के कामकाज का ढर्रा ही ऐसा है कि बिना सेवा शुल्क दिए तो कोई काम होता ही नहीं है। आलम यह है कि छोटे-छोटे कामों के लिए भी भेंट पूजा करनी पड़ती है। निगम के तो हाल और भी बुरे हैं। नल कनेक्शन जैसी बुनियादी सुविधा पाने के लिए भी अधिकारियों का मुंह ताकना पड़ता है। बहरहाल, निगम आयुक्त को विधायक की चिट्‌ठी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। अगर अधिकारियों के के संरक्षण (जैसा कि विधायक ने आरोप लगाया है) में अवैध कब्जे या अवैध निर्माण इसी प्रकार होते रहे तो फिर निगम प्रशासन के होने या न होने में कोई खास फर्क नहीं रह जाता।
 
साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 22 सितम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।