Friday, December 23, 2011

आज के युवा और अभिभावक

ब्लॉग लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं तकनीक एवं संचार क्रांति का विरोधी कतई नहीं हूं बशर्ते उसका उपयोग देशहित में हो, लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा बहुत कम हो रहा है।  सूचना एवं तकनीक ने जितनी तरक्की है उसके उतने ही साइड इफेक्ट्‌स भी देखने को मिल रहे हैं। विशेषकर आजकल की युवा पीढ़ी तो सूचना तकनीक के मामले में इतनी एडवांस और उसमें इतनी खो चुकी है उसे न अभिभावकों की खबर है और न ही खुद का होश रहता है। विशेषकर देश में जब से मोबाइल क्रांति का सूत्रपात हुआ है तब से समाज में कई तरह की विकृतियां भी आ गई हैं। यह सही है कि संचार क्रांति से दुनिया बेहद छोटी हो गई है और आम आदमी, भले ही वह खेत में बैठा हो, सात समुन्दर पार बतिया सकता है।  लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में संचार क्रांति के सूत्रपात से समाज का तानाबुना प्रभावित होना लगा है। कई जगह तो इस संचार क्रांति की अति इतनी हो गई कि इस छोटे से खिलौने पर प्रतिबंध लगाने जैसी बात भी उठनी लगी है। देश के कई हिस्सों में विभिन्न समाजों में मोबाइल का प्रचलन बिलकुल प्रतिबंधित कर दिया गया है। कई अन्य समाजों में भी इस प्रकार प्रतिबंध लगाने की मांग उठ रही है। इसके अलावा पाश्चात्य संस्कृति में रचे-बसे परिधानों पर प्रतिबंध लगाने का बातें भी गाहे-बगाहे उठती रही हैं। एक दो ऐसी ही सामाजिक बैठकों का मैं साक्षी रहा हूं जब वक्ताओं ने सार्वजनिक मंच से इस बात को बड़ी बेबाकी के साथ कहा कि समाजोत्थान के लिए जरूरी है कि बच्चो को मोबाइल नहीं दिया जाए। लाड-प्यार के चलते अभिभावक उनको यह छोटा सा खिलौना थमा तो देते हैं लेकिन उसके दूरगामी परिणामों से अनजान होते है। अभिभावकों की आंख भी उस वक्त खुलती है जब पानी काफी बह चुका होता है।
खैर, इस विषय ही इतनी लम्बी चौड़ी भूमिका बांधने से पहले यह भी बताता चलूं कि मैं यह ब्लॉग अपने अति प्रिय भतीजे के कहने पर ही लिख रहा हूं जो कि स्वयं इस मोबाइल क्रांति के मोहपाश में बंधा हुआ है। मजे की बात यह है कि वह हाल ही में 18  साल का हुआ है लेकिन मोबाइल का उपयोग पिछले दो-तीन साल से कर रहा है। मतलब साफ है कि इस दौरान वह मोबाइल से संबंधित कमोबेश हर प्रकार की तकनीक में महारत हासिल कर चुका है। विशेषकर मोबाइल पर इंटरनेट चलाने या कुछ डाउनलोड करने का काम तो वह पलक झपकते ही कर लेता है। पेशेगत मजबूरियों के चलते मैं पिछले नौ साल से मोबाइल रख रहा हूं लेकिन यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि भतीजे के मुकाबले मैं मोबाइल पर अन्य तकनीकों का लाभ उठाने में बीस ही हूं। मोबाइल पर  इंटरनेट कैसे चलता है, गीतों या फिल्मों को डाउनलोड कैसे किया जाता है, सच मानिए मुझे अभी तक इसकी जानकारी नहीं है। इंटरनेट पर सर्च करके मौजूदा युवा पीढ़ी ऐसे-ऐसे अनछुए एवं अनजाने विषयों को भी छू रही है, जिनके बारे में उनके अभिभावकों ने देखना तो दूर सपने में भी कल्पना नहीं होगी। फिर अपनी बात पर लौटता हूं लेकिन यह आभास निरंतर हो रहा है कि मोबाइल की चकाचौंध में चुंधियाए युवा मेरे बारे में गलत धारणा ही बनाएंगे। खैर, सत्य हमेशा कड़वा होता है और उसे सहन करने की क्षमता भी बहुत कम लोगों में होती है।
मैं शुरुआत में ही कह चुका हूं कि मैं तकनीक एवं संचार क्रांति का विरोधी नहीं लेकिन  जो तकनीक हमें नैतिकता से, संस्कारों से, रिश्ते-नातों एवं अपनों से दूर करे, वह किस काम की। हो सकता है कोई मेरे विचारों से सहमत नहीं हो लेकिन मेरा मानना है और मैंने इसे महसूस भी किया है कि संचार क्रांति जितना जोड़ने का काम करती है उससे कहीं ज्यादा तोड़ने काम भी करती है। आज की युवा पीढ़ी मोबाइल पर इतनी मशगूल दिखाई देती है गोया इसके अलावा कोई दूसरा काम ही नहीं है। विशेषकर मोबाइल पर एसएमएस भेजने का सिलसिला तो इतना आम हो चला है कि इससे सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती है। एकांतवादी होकर आज की युवा पीढ़ी मोबाइल के माध्यम से ऐसे-ऐसे गुल खिला देती है जिनके चलते उनके अभिभावकों को बाद में शर्मसार होना पड़ता था। देखा जाए तो हमारे देश में संचार क्रांति अचानक आ गई और लोगों ने इस कदर प्रेम दिया कि यह अब गले की फांस बनती नजर आती है। संस्कारों में बंधे हमारे देश ने इस तकनीक को आत्मसात तो कर लिया लेकिन गलती यह हुई कि इसका उपयोग करने में उसने अति कर दी। और जैसा कि सर्वविदित है कि अति सभी जगह वर्जित है।
सूचना एवं तकनीक के इस दौर में अभिभावक दो राहे पर खड़े हैं। बच्चों की जरूरतों को पूरा न करें तो मुश्किल और करें तो भी दिक्कत। मेरी मां मुझे बाल्यकाल एवं किशोरावस्था में अक्सर बाहर जाने से टोकती थी। वह कहती थी कि बेटा काली हांडी के पास बैठोगे तो कालस, मतलब काला रंग लगेगा। मां के कहने का आशय यही था कि बदनाम लोगों के साथ संगत करोगे या उठोगे-बैठोगे तो तुम पर भी बदनामी का ठपा लगेगा। लिहाजा घर में ही रहते, लेकिन अब बदनाम अर्थात बिगड़ने के लिए बाहर जाने की जरूरत ही कहां रह गई है। बच्चा घर पर बैठे-बैठे भी वह सब जान रहा है जो कि वह बाहर जाने पर नहीं जान पाता।
बहरहाल, मोबाइल से प्रेम करने वाली या यूं कहूं कि मोबाइल बुखार की गिरफ्त में आ चुकी युवा पीढ़ी संस्कार भूल चुकी है। संस्कारों के अभाव के कारण सहनशक्ति भी नहीं है। अभिभावकों द्वारा टोकने पर आने वाला गुस्सा इसी का नतीजा है। चूंकि मैं यह लेख भतीजे के आग्रह पर लिख रहा हूं इसलिए उसके साथ-साथ उसके दोस्तों एवं तमाम युवा पीढ़ी से यह निवेदन जरूर है कि नैतिकता का पालन करें तथा अभिभावकों के साथ संवादहीनता जैसी परिस्थितियां कतई पैदा न होने दें। अक्सर देखा गया है कि अभिभावकों के व्यस्तता के चलते बच्चा उनसे निरंतर संवाद स्थापित नहीं कर पाता और रफ्ता-रफ्ता एकांतवादी हो जाता है। और इसी एकांतवाद में उसे आनंद की अनुभूति होने लगती है। इसी आनंद के चक्कर में वह अपनों से दूर हो जाता है और फिर मोबाइल पर ही निर्भर होकर रह जाता है। जब तक अभिभावक उसको संभालते है, तब तक वह उनसे काफी दूर जा चुका होता है। बस अपनी ही धुन में मगन। ऐसे हालात अभिभावकों के लिए बड़े ही विकट होते हैं। चूंकि बच्चा नासमझ होता है लिहाजा इस प्रकार की परिस्थितियों के लिए अभिभावक ज्यादा जिम्मेदार होते हैं। मोबाइल दिलाकर वे अपने आप को जिम्मेदारी से मुक्त मानते लेते हैं जबकि मेरा मानना है कि अगर मोबाइल देना ज्यादा ही जरूरी है तो उस पर निगरानी रखना उससे कहीं जरूरी है।
आखिर में भतीजे के साथ उन सभी जान-पहचान के युवाओं से यह छोटी सी अपील की इस छोटे से खिलौने का  सदुपयोग ही करें। अगर इसके कारण आज समाज से कट रहे हैं, अपनों से दूर हो रहे हैं, संस्कार भूल रहे हैं, तो यह बेहद खतरनाक है। मेरी बात पर एक बार सोचिएगा जरूर।


Friday, December 16, 2011

मुश्किल तो कुछ भी नहीं बशर्ते...

टिप्पणी
बिलासपुर की बदहाल यातायात व्यवस्था पर माननीय हाईकोर्ट ने गुरुवार को फिर से फटकार लगाई है और व्यवस्था में सुधार के लिए यातायात पुलिस एवं आरटीओ को करीब डेढ़ माह का समय दिया है। दोनों विभागों को इससे पहले भी करीब एक माह की समय-सीमा दी गई थी, लेकिन व्यवस्था में सुधार दिखाई नहीं दिया। दोनों विभागों ने माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद चार-पांच दिन जरूर तत्परता दिखाई लेकिन इसके बाद कार्रवाई का तरीका फिर पुराने ढर्रे पर लौट आया। इस बार वैसी गफलत न हो तथा दोनों विभाग बिना औपचारिकता निभाए ईमानदारी से अपना काम करे, इसके लिए माननीय हाईकोर्ट ने वकीलों की पांच सदस्यीय कमेटी भी गठित की है। यह कमेटी न केवल दोनों विभागों की गतिविधियों पर निगरानी रखेगी बल्कि यातायात व्यवस्था में सुधार के लिए अपने सुझाव भी देगी।
कहने को पुलिस एवं आरटीओ ने अपने पक्ष में  समाचार पत्रों की कतरन एवं चालानों के आंकड़ों की फेहरिस्त को पेश किया, लेकिन माननीय हाईकोर्ट ने इन तर्कों को खारिज करते हुए फिर कहा कि अफसरों का ध्यान अब भी समस्या से निपटने के उपाय खोजने की बजाय वसूली पर ही ज्यादा है। देखा जाए तो यह बात सही भी है, कार्रवाई के नाम पर वसूला गया जुर्माना इसका प्रमाण है। वैसे भी माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद पुलिस एवं आरटीओ विभाग ने जिस अंदाज में कार्रवाई को अंजाम दिया, उसमें बड़े वाहनों के मुकाबले दुपहिया वाहनों पर कार्रवाई ज्यादा की गई। नतीजा यह रहा है कि शहर की यातायात व्यवस्था में कोई खास सुधार दिखाई नहीं दिया।
दरअसल, शहर की यातायात व्यवस्था सुधार में बाधक जो कारण बताएं जाते हैं, उनमें कई तो व्यवस्थागत व मानवजनित ही हैं। अक्सर देखा गया है कि वीआईपी आगमन के दौरान न केवल यातायात पुलिसकर्मी चाक चौबंद नजर आते हैं बल्कि व्यवस्था में सुधार दिखाई देता है। वाहनों की गति भी निर्धारित हो जाती है। सड़कों से आवारा पशु गायब हो जाते हैं। अक्सर एक दूसरे के क्षेत्राधिकार का मामला बताकर जिम्मेदारी टालने वाले यातायात पुलिस एवं आरटीओ विभाग में बेहतर तालमेल दिखाई देने लगता है। शहर में जगह-जगह होने वाली पार्किंग दिखाई नहीं देती। यातायात नियमों की कड़ाई से पालना होने लगती है। उस दिन कोई सिफारिश या राजनीति हस्तक्षेप भी काम नहीं करता है। इतना ही नहीं बिना भेदभाव के लगभग सभी पर समान रूप से कार्रवाई को अंजाम दिया जाता है।
बहरहाल, यातायात पुलिस एवं आरटीओ के लिए व्यवस्था बनाना तथा बदहाल व्यवस्था को पटरी पर लाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। किसी वीआईपी के आगमन पर जब शहर में व्यवस्था सुधर सकती है तो सामान्य दिनों भी इसमें सुधार हो सकता है। इसके लिए कहीं बाहर जाने आवश्यकता नहीं है। जरूरत बस दृढ इच्छा शक्ति के साथ दवाबमुक्त होकर ईमानदारी से काम करने की है। दोनों विभाग अगर तालमेल एवं समन्वय रखकर ऐसा कर पाए तो व्यवस्था में काफी कुछ सुधार संभव है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 16  दिसम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।


Sunday, November 27, 2011

मैं और मेरी तन्हाई.....4


छब्बीस नवम्बर
राहत में है दिल, मौसम जुदाई का गुजार के,
आने ही वाले हैं फिर से दिन अब बहार के।
खुशी मनाओ, झूमो, नाचो, गाओ जोर से,
कट गए हैं देखो 'निर्मल', दिन सभी इंतजार के।

सत्ताईस नवम्बर
मायके पहुंच गई तुम 'निर्मल', छोड़ आज ससुराल,
उस घर से इस घर आने में देखो, बदल गई है चाल।
तुम सब से थी रौनक जहां, वहां आज उदासी छाई,
बच्चों के बिन पूछे कौन अब, दादा-दादी के हाल।

अठाईस नवम्बर
दोनों में है खुलापन खूब, नहीं है कोई राज,
पर तुम बिन सूना है, इस दिल का हर साज।
पता नहीं क्यों मूड मेरा, कर ना रहा शायरी,
सूझ नहीं रहा मुझे 'निर्मल',  लिखूं तुझे क्या आज।

उनतीस नवम्बर
तन्हाई की सब बातें देखो, अब पुरानी हो जाएगी,
दिन कटेंगे मस्ती में, हर शाम सुहानी हो जाएगी।
क्या खूब नजारा होगा, दो दिन के बाद 'निर्मल',
अपने मिलन की जब, एक नई कहानी बन जाएगी।

तीस नवम्बर
बातों-बातों में गुजरे, देखो दिन तन्हाई के,
यादों में खो जाएंगे, किस्से सभी जुदाई के।
अपने मिलन की खुशियों में तो निर्मल,
दिल झूम झूम के गाएगा, गीत अब पुरवाई के।


24 नवम्बर को  धर्मपत्नी ने भी  काउंटर मार दिया और मुझे लिखा कि....
अपना ही अंदाज लिए हम चले जमाने में,
अपने को बांध लिया पैमाने में
कट रही जिंदगी, हंसने-रो जाने में,
सुख-दुख बांट लिया हमने जाने-अनजाने में।

इसके जवाब में मैंने उसे लिखा....

गमों की बात ना करो फसाने में,
मस्त रहने के भी हैं रास्ते जमाने में।
हंसने से ही तो संवरती है जिंदगी 'निर्मल'
आजाद पंछी बनो, ना बांधों खुद को पैमाने में।

26 नवम्बर को धर्मपत्नी को भेजा गया मैसेज मैंने फेसबुक पर लगाया तो  पत्रकार साथी कुंअर अंकुर ने उस पर कमेंट किया कि...
दूर रहने से कोई दूर नहीं हुआ करते हैं,
दूर तो वो रहते हैं जो मजबूर हुआ करते हैं।

इसके जवाब में मैंने लिखा कि....

यह सच है जो मजबूर है, वो नजरों से दूर है,
जालिम जमाने का मगर यही तो दस्तूर है।
यह दुनिया बहुत छोटी है कुंअर साहब लेकिन
यहां फासले दिलों के नहीं, जगहों के जरूर है।

क्रमशः........

मैं और मेरी तन्हाई-3

अठारह नवम्बर
दिलासाओं के सहारे आजकल बहल रहा यह दिल,
इंतजार में तो एक पल गुजारना भी है मुश्किल।
पर किसी ने सच ही तो कहा है 'निर्मल'
हौसला रखने वालों को ही तो मिलती है मंजिल।

उन्नीस नवम्बर
ज्यादा बीत गए, दिन कम रहे अब शेष,
मिलन का वो दिन, होगा कितना विशेष।
सोच-सोच के मन में मेरे फूट रहे हैं लड्‌डू,
तन्हाई के दिन छोड़ जाएंगे अब अपने अवशेष।

बीस नवम्बर
मिलने को दिल अब हो चहा है बेकरार,
पर दस दिन बाद ही आएगा इसको करार।
क्या खूबसूरत वो दिन होगा 'निर्मल' जब
आंखों से आंखों की बातें होंगी हजार।

इक्कीस नवम्बर
कभी तो आंखों में कोई सपना आता ही होगा,
कभी तो सपने में कोई अपना आता ही होगा।
माना थक कर सौ जाती हो तुम अक्सर 'निर्मल',
पर सांसों को मेरा नाम जपना आता ही होगा।

बाइस नवम्बर
सपनों की बात, उम्मीदों से संवरती है,
जैसे काली रात, चांदनी से निखरती है।
गुजर जाता है दिन तो जैसे-तैसे 'निर्मल'
पर तन्हाई की रात मुश्किल से गुजरती है।

तेईस नवम्बर
मिलन की रात बेहद रंगीन होती है,
पर यादों की बारात भी हसीन होती है।
बिन तुम्हारे इस सर्द मौसम में 'निर्मल'
प्यार की बात भी कितनी संगीन होती है।

चौबीस नवम्बर
दुनिया की महफिल में, क्या अपने क्या बेगाने,
सब रिश्तों के किरदार जो हमको हैं निभाने।
दो दिन की जिंदगी में लगता है प्यार थोड़ा,
गाओ खुशी के नगमे 'निर्मल' देखो सपने सुहाने।

पच्चीस नवम्बर
मिलने को दिल जब बेकरार होता है,
तब लम्हा प्यार का यादगार होता है।
गिले शिकवे करना है फितरत है सभी की,
कटे प्यार से 'निर्मल', सफर वो शानदार होता है।

क्रमशः........

मैं और मेरी तन्हाई...2

दस नवम्बर
दिल में मोहब्बत लेकिन दिमाग में तनाव है,
दोनों का मुझसे आजकल अजीब सा जुड़ाव है।
तालमेल बैठाने की तो आदत सी हो गई है 'निर्मल'
क्योंकि मुझे तुम दोनों से ही गहरा लगाव है।

ग्यारह नवम्बर
बड़ी मुश्किल से कटते हैं दिन इंतजार के,
रह-रह के याद आते हैं लम्हे वो प्यार के।
गिन-गिन के कट रहे हैं दिन जुदाई के,
मेरे नैना भी प्यासे हैं तुम्हारे दीदार के।

बारह नवम्बर
काम की फिक्र में आई ना तेरी याद,
इसलिए तो देरी से कर रहा फरियाद। 
दिवस दस बीते, बाकी हैं अब बीस,
फिर मेरी तन्हाई भी हो जाएगी आबाद।

तेरह नवम्बर
ना रहो उदास ना उदास करो मन को,
रो-रोकर ना कमजोर किया करो तन को।
खुशियों की बारात जल्द लौटेगी 'निर्मल'
हंसी की खिलखिलाहठ से महकाया करो आंगन को।

चौदह नवम्बर
करो सेवा बड़ों की, भले हो कोई त्रस्त,
कोई बोले कुछ करे, तुम रहो हमेशा मस्त।
जैसे बीते आधे दिन बाकी भी गुजर जाएंगे,
जीतो दन सभी का, मत करो हौसले पस्त।

पन्द्रह नवम्बर
छोटी बात पर ही देखो मचा है यह बवाल,
कैसे बताऊं तुमको 'निर्मल' कैसा है मेरा हाल।
पता नहीं क्या होगा आगे, रस्ता भी मालूम नहीं,
काम के बोझ और तन्हाई ने कर दिया बदहाल।

सोलह नवम्बर
मिली खुशी अपार मुझे, दूर हुआ तनाव,
प्रबंधन की नजरों में बढ़ा गया मेरा भाव।
सोच-सोचकर जिसको था, मन मेरा व्याकुल,
उसी काम के प्रति दिखा उनका गहरा लगाव।

सत्रह नवम्बर
यह जन्म-जन्म का नाता है,
कोई किस्मत वाल ही पाता है।
तुम जैसा साथी पाकर तो,
दिल प्यार के नगमे के गाता है।




क्रमशः........

मैं और मेरी तन्हाई....1

दो नवम्बर
तुम बिन यह रात अधूरी है,
नहीं हो दिल से दूर फिर भी दूरी है।
नहीं रह सकते हम जुदा होकर,
पर क्या करूं 'निर्मल' मजबूरी है।

तीन नवम्बर
मैं हूं और जालिम यह तन्हाई है,
होगा मिलन पर अभी तो जुदाई है।
नहीं हो दिल से कभी दूर लेकिन
इस बार याद कुछ ज्यादा आई है।

चार नवम्बर
कभी-कभी जुदाई में भी बढ़ता है प्यार,
सजा ही नहीं मजा भी देता है इंतजार।
दो दिन बीते बाकी भी यूं ही गुजर जाएंगे,
सुख-दुख ही तो हैं 'निर्मल' जीवन के आधार।

पांच नवम्बर
बिन पीए चढ़े वो सुरुर तुम हो,
हमदम मेरी आंखों का नूर तुम हो।
हर पल महसूस करता हूं पांस अपने,
आजकल दिल के करीब मगर नजरों से दूर तुम हो।

छह नवम्बर
जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रही,
तुम जब से हमसफर बनकर आई हो।
अकेले ही कट रही थी उम्र बेमजा,
तुम ही हो जो बहार बनकर छाई हो।

सात नवम्बर
यूं ही कट जाएगा यह यादों का सफर,
मिलेगी मंजिल चलते चलो इसी डगर।
बातें तो फोन रोज हो रही हैं आजकल,
चैन तब आएगा जब तुमको देखेगी नजर।

आठ नवम्बर
बच्चों को मत डांटा करो, यह तो हैं नादान,
माना तुमको करते हैं, बात-बात पर परेशान।
जीतो दिल सभी का बने अलग पहचान,
हंसते-हंसते हो जाएगी, हर मुश्किल आसान।

नौ नवम्बर
ख्याबों में तुम, विचारों में भी तुम ही हो,
नजर में तुम नजारों में भी तुम ही हो।
आंखों में तुम, इशारों में भी तुम ही हो,
एक दो ही नहीं, हजारों में भी तुम ही हो।


क्रमशः........

फिर जिंदा हुआ शौक...


कॉलेज लाइफ में मुझे शेरो-शायरी का शौक खूब रहा है। हालत यह थी कि बाहर कहीं पर भी जाता तो रास्ते में पढ़ने के लिए बुक स्टॉल से शेरो-शायरी की किताबें ही खरीदता। इसके अलावा समाचार-पत्रों में प्रकाशित गजलों एवं रुबाइयों की कतरन काट कर सहेज कर रख लेता। इन्हीं कतरनों को याद कर अपने सहपाठियों को सुना दिया करता और बदले में उनकी वाहवाही बटोर लेता। मेरे इसी शौक के चलते मुझे कॉलेज में सभी शायर कहने लगे थे। बीए फाइनल ईयर के छात्रों को जब विदाई दी जा रही थी तो प्रत्येक छात्र को एक टाइटल दिया गया था। मुझे भी कभी-कभी फिल्म के चर्चित गीत, मैं पल दो पल का शायर हूं... का टाइटल दिया गया। कॉलेज छूटने के साथ ही शेरो-शायरी का शौक धीरे-धीरे कम होता है। क्योंकि डिग्री हासिल करने के बाद नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया। करीब तीन साल मशक्कत करने के बाद भी जब कहीं सफलता नहीं मिली तो पत्रकारिता में भाग्य आजमाया। किस्मत से पत्रकारिता में प्रवेश की परीक्षा में पास हो गया। इतना ही नहीं परीक्षा के बाद लिए गए दोनों साक्षात्कार में सफलता हाथ लग गई। इसके बाद मेरा पत्रकारिता के क्षेत्र में आना तय हो गया। नया-नया काम था, इसलिए सीखने का जुनून कुछ ज्यादा ही था। रोजाना 15-16 घंटे तो काम करता ही। कभी-कभी तो 18-18, 20-20 घंटे भी काम किया। इस प्रकार पत्रकारिता में आने के बाद शेरो-शायरी का शौक लगभग छूट गया। करीब पांच साल बाद होली पर पत्रकाार साथियों को टाइटल देने का ख्याल आया, फिर क्या था, सभी पर तुकबंदी कर चार-चार लाइन लिख डाली। इसके बाद तो यह एक तरह की परम्परा सी बन गई। हर होली पर यही कहानी दोहराई जाने लगी। बाद में स्थानांतरण दूसरी जगह होने के कारण इस काम पर फिर विराम लग गया।
अभी दीपावली पर पत्नी एवं बच्चों के साथ गांव गया था। मां एवं पापा ने बताया कि आंखों से धुंधला दिखाई देता है। इस पर मैंने दोनों का नेत्र विशेषज्ञ के यहां चैकअप कराया। चिकित्सक ने बताया कि दोनों की आंखों का ऑपरेशन करना जरूरी है। अब धर्मसंकट खड़ा हो गया क्या किया जाए। आखिरकार धर्मपत्नी ने हिम्मत करके कहा कि वह एक माह के लिए गांव ही रुक जाएगी। मैंने भी उसके निर्णय पर हां भरकर मोहर लगा दी। अब मामला बच्चों की पढ़ाई पर अटका था कि आखिर एक माह तक बच्चे क्या करेंगे। इस पर धर्मपत्नी ने ही सुझाव दिया कि बच्चे अभी छोटी कक्षाओं में हैं, एक माह में कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा। मैं धर्मपत्नी की बात मानकर ड्‌यूटी पर अकेला ही चला आया। एक नवम्बर को घर से रवाना हुआ तथा दो नवम्बर को गंतव्य पर पहुंच गया। पहले ही दिन मैंने धर्मपत्नी को तुकबंदी करके चार लाइन की रुबाई लिखी। दूसरे दिन उसने रुबाई की प्रशंसा कर दी। फिर क्या था, बड़ाई सुनकर अंदर का शायर फिर जाग उठा और निर्णय किया कि हर रात को एक रुबाई बनाकर मोबाइल पर कम्पोज कर धर्मपत्नी को मैसेज करूंगा। यह सिलसिला चल पड़ा। दिन-प्रतिदिन तुकबंदी में सुधार आने लगा। पति-पत्नी के बीच बातें बेहद गोपनीय होती हैं लेकिन मैं इतनी अंतरंगता से भी बातें नहीं करता कि किसी को बताने में संकोच हो। तभी तो धर्मपत्नी को लिखी गई वे तमाम रुबाइयां मैं ब्लॉग के माध्यम से आप सभी से साझा कर रहा हूं। मेरा यह प्रयास आपको कैसा लगा, मुझे आपके कीमती सुझावों एवं प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।  हालांकि मेरा गांव पहुंचना दो दिसम्बर को प्रस्तावित है। मैं यहां से एक दिसम्बर को रवाना होऊंगा। मतलब साफ है दो नवम्बर से शुरू हुए सिलसिले पर एक दिसम्बर को विराम लग जाएगा, हालांकि धर्मपत्नी ने यह काम जारी रखने का सुझाव दिया है। खैर, अब तक लिखी गई सारी रुबाइयां सार्वजनिक कर रहा हूं।

क्रमश.........

Friday, November 25, 2011

स्टेशन ही नहीं रेल में भी हो कार्रवाई

टिप्पणी
अधिकारियों के सामने कर्मचारियों का काम करने का तरीका व रवैया कैसे बदलता है, इसका ताजा उदाहरण बिलासपुर रेलवे स्टेशन है। बीते तीन दिन में यहां दो घटनाएं हुईं हैं, जिनको आरपीएफ के जवानों ने रेलवे अधिकारियों की मौजूदगी में अंजाम दिया। मंगलवार को रेलवे स्टेशन पर दूध बिखेरा गया, वहीं गुरुवार को लोकल ट्रेन में गुटखा बेचने के आरोप में एक युवक को पिटाई कर दी गई। दोनों ही  घटनाओं के बाद रेलवे का स्पष्टीकरण भी आया। ऐसे में सवाल उठता है कि जब कार्रवाई वैध है तो फिर सफाई देने की जरूरत ही क्या है। दरअसल, जिन कर्मचारियों ने 'दबंगई' दिखाते हुए इन कार्रवाइयों को अंजाम दिया वे अधिकारियों को दिखाना चाह रहे थे कि वाकई वे काम करते हैं और जरा सी गफलत भी उनको बर्दाश्त नहीं होती। वे अपना काम ईमानदारी से साथ अंजाम देते हैं, जबकि हकीकत इससे विपरीत है। अगर आरपीएफ के जवान तत्परता एवं ईमानदारी से काम करते तो न तो इस प्रकार के निर्णय लेने की जरूरत पड़ती और ना ही व्यवस्था में खलल डालने वाली घटनाएं दरपेश आती। युवक से मारपीट के बाद आरपीएफ थाना प्रभारी की ओर से दिया गया बयान ही सारी कहानी बयां कर देता है। आरपीएफ थाना प्रभारी को कौन बताए कि प्रतिबंधित चीजें विक्रय करना न केवल रेलवे परिसर बल्कि रेल के डिब्बों में  भी प्रतिबंधित है। बिलासपुर से किसी भी दिशा में जाने वाली ट्रेन में बैठ जाएं आपको डिब्बों में गुटखे बेचने वाले मिल ही जाएंगे। भिखारियों एवं खाद्य सामग्री बेचने वालों की तो बात ही छोड़िए। एक के बाद एक की लाइन लगी रहती है। बेचारे यात्रियों के इनकी आवाज सुन-सुनकर कान पक जाते हैं।
क्या यह सब वैध है? लेकिन आरपीएफ के जवान उनको पकड़ना तो दूर रोकते या टोकते भी नहीं है। डिब्बों के अंदर ऊंची आवाज लगाकर गुटखा बेचना या भीख मांगना क्या व्यवस्था में व्यवधान नहीं है? लेकिन इनकी आवाज आरपीएफ के जवानों को सुनाई नहीं देती है। सुनता सब है, कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं होता। वे केवल अधिकारियों के सामने ही इस प्रकार की कार्रवाई कर यह साबित करना चाहते हैं कि वास्तव में वे अपनी ड्‌यूटी के प्रति सजग हैं। आरोप तो यहां तक लगते हैं कि यह काम आरपीएफ जवानों के संरक्षण में ही होता है। सुविधा शुल्क लेकर वे अपनी आंखें मूंद लेते हैं। 
बहरहाल, किसी का दूध बिखरने से या गुटखे बेचने से रोकने से व्यवस्था नहीं सुधरने वाली। जब तक आरपीएफ के जवान मुस्तैदी एवं ईमानदारी के साथ अपनी ड्‌यूटी नहीं करेंगे तब तक यात्रियों का रेलवे में आरामदायक एवं सुरक्षित सफर का सपना  बेमानी है। आजकल तो रेल में रात को सोते हुए यात्रियों का सामान भी गायब होने लगा है। आरपीएफ के जवानों की कार्यप्रणाली जानने के लिए अचानक किसी ट्रेन का निरीक्षण किया जा सकता है। दिन या रात में किन्ही दो स्टेशनों के बीच यात्रा भी की जा सकती है। सच सामने आते देर नहीं लगेगी। उम्मीद की जानी चाहिए रेलवे अधिकारी इस दिशा में कोई कदम उठाएंगे ताकि यात्री आरामदायक सफर निश्चिंत होकर कर सकें।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 25 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Friday, November 18, 2011

सड़क निर्माण में गुणवत्ता का हो ख्याल

टिप्पणी

माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद शहर में बन रही सड़कों में गुणवत्ता की अनदेखी की जा रही है। यह बात निगम के अधिकारी ही कह रहे हैं। इतना ही नहीं स्वयं महापौर भी गुणवत्ता की बात को लेकर विरोध जता चुकी हैं। इन सबके बावजूद सड़कें बनने का काम बदस्तूर जारी है। दिन तो दिन रात में भी सड़कें बन रही हैं। आलम देखिए कि निगम की ओर से सड़क बनाने में प्रयुक्त सामग्री का सैम्पल जांच के लिए भिजवाया गया है। निगम अधिकारियों का कहना है कि अगर जांच रिपोर्ट में अगर गड़बडी पाई गई तो संबंधित कंपनी को नोटिस जारी किया जाएगा। मतलब साफ है जब तक रिपोर्ट नहीं आती तब तक कंपनी सड़क बनाने का काम निर्बाध गति से जारी रखेगी। ऐसे में कई तरह के सवाल उठना लाजिमी है। मसलन, अगर जांच रिपोर्ट में गड़बड़ी पाई गई तो सैंपल लेने के बाद से लेकर जांच रिपोर्ट आने के बीच में जिन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है, उनका क्या होगा। गुणवत्ता को लेकर जब विरोध हो रहा है तो क्यों न पहले ही गुणवत्ता के मापदण्ड तय कर दिए जाते। आखिरकार सड़क निर्माण के लिए कोई तो पैमाना तो तय होगा ही। सड़कें निर्धारित पैमाने के अनुसार बन रही हैं या नहीं, क्या यह देखने की फुर्सत भी निगम अधिकारियों को नहीं है। जांच रिपोर्ट आने के इंतजार में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना  एक तरह से छूट देने के समान ही है।
इस मामले का दूसरा पहलू यह भी है कि निगम के ऊपर निर्धारित समय सीमा में सड़कें पूरी करवाने का न्यायालय का डंडा है, लिहाजा उसका भी एकसूत्री कार्यक्रम आनन-फानन में सड़कें तैयार करवाना ही है। निगम की जल्दबाजी को देखते हुए सड़कें संभवतः निर्धारित समय-सीमा बन जाएंगी लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि वे कितना चलेंगी।
बहरहाल, सड़कें आमजन के लिए ही हैं। अगर उनका निर्माण तय मापदण्डों से नहीं हो रहा है तो लोगों को विरोध करना चाहिए। जनप्रतिनिधियों को भी अपने क्षेत्रों में बनने वाली सड़कों पर नजर रखनी चाहिए। सिर्फ न्यायालय के आदेश के बाद आनन-फानन में सडक़ें बनवानें से आमजन को राहत मिलने वाली नहीं है। यह एक तरह से रस्म अदायगी ही है। ऐसा न हो कि जब तक सभी सड़कें बनकर तैयार हों, तब तब उनके टूटने का दौर भी शुरू हो जाए। सड़कें जल्दी बने यह सब चाहते हैं लेकिन गुणवत्ता की कीमत पर तो कतई नहीं है।


साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

...तो यह हालात नहीं होते

टिप्पणी

माननीय हाईकोर्ट ने जनहित से जुड़े एक मामले में गुरुवार को पुलिस अधीक्षक एवं जिला परिवहन अधिकारी को फटकार लगाई तथा कहा कि उनके विभाग का ध्यान जनहित पर न होकर सिर्फ वसूली पर है। दोनों अधिकारियों को शहर की बदहाल यातायात व्यवस्था के मामले में हाईकोर्ट ने तलब किया गया था। देखा जाए तो लोकसेवकों को फटकार का यह नया मामला नहीं है। इससे पहले बिलासपुर की बदहाल सड़कों पर भी न्यायालय ने कड़ी आपत्ति जताई थी। उसके बाद निगम अधिकारियों को शहर में सड़कों को दुरुस्त करने की समय सीमा तय कर  शपथ पत्र देना पड़ा। बदहाल यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के मामले में भी हाईकोर्ट ने समय सीमा बताने एवं शपथ पत्र पेश करने के आदेश दिए हैं।
उक्त दोनों मामलों से इतना तो तय है कि लोकसेवक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं कर रहे हैं। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि जो काम इनको करना चाहिए थे, समय रहते उन पर ध्यान नहीं दिया गया। मजबूरन लोगों को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। इन सबके पीछे जनप्रतिनिधियों की भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। शहर में टूटी सड़कों से संबंधित मामला ही देख लीजिए। 'बयानवीर' जनप्रतिनिधि दनादन आश्वासन का लॉलीपॉप ही देते रहे, लेकिन राहत का रास्ता न्यायालय की शरण में जाने के बाद ही नजर आया। इसी तरह शहर की यातायात व्यवस्था को बदहाल करने वाले कारणों में जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं। उनके किसी 'अपने' या  'नजदीकी' ने बेजा कब्जा कर रास्ता रोकने या नियम विरुद्ध कोई काम किया तो उनको संरक्षण देने का काम भी यही लोग करते हैं। अंततः लोकसेवकों एवं जनप्रतिनिधियों के इस गठजोड़ की परणिति बदहाल यातायात व्यवस्था व अधूरे कामों के रूप में ही सामने आती है।
बहरहाल 'बेलगाम' लोकसेवक एवं 'बयानवीर' जनप्रतिनिधि अपना काम ईमानदारी से करते, अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसे हालात ही नहीं बनते। आमजन की समस्याओं से मुंह मोड़ने वाले इन दोनों वर्गों से पूछा जाना चाहिए कि वे किस मुंह से खुद को जनप्रतिनिधि एवं लोकसेवक कहलाना पसंद करते हैं। आलम देखिए जनप्रतिनिधि हैं, लेकिन प्रतिनिधिनित्व किसका और किसके लिए कर रहे हैं, किसी से कुछ छिपा नहीं है। इसी तरह  लोकसेवक हैं  लेकिन सेवक किसके हैं और किसकी सेवा में जुटे हैं, सब जगजाहिर है।  विडम्बना देखिए दोनों वर्गों के पद के आगे जन/लोक जुड़ा है। इसके बावजूद दोनों वर्ग जन की बजाय आपस में एक दूसरे के इर्द-गिर्द ही दिखाई देते हैं।  आजादी के छह दशक बाद भी आमजन को मूलभूत सुविधाएं मयस्सर नहीं होना बेहद शर्मनाक है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18  नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, November 12, 2011

काश! आप बिलासपुर घूम लेते...

खुली पाती

आदरणीय, मुख्यमंत्री जी,
करीब छह माह के लम्बे समय के बाद आपका बिलासपुर आगमन का कार्यक्रम बना है। आप तखतपुर के अलावा बिलासपुर में भी दो कार्यक्रमों में भाग लेंगे। इस दौरान करीब 35 मिनट आपका छत्तीगसढ़ भवन में रुकना भी प्रस्तावित है। कितना अच्छा होता आप इस अवधि में शहर का भ्रमण कर लेते। इस बहाने आप 'बीमार' शहर की नब्ज भी पहचान लेते। क्योंकि जिस रास्ते से आप गुजरेंगे तथा जो आपको दिखाया जाएगा, आप उसी को सच मान लेंगे, जबकि हकीकत इससे अलग है। आपकी राह में आने वाली रुकावटें मसलन, सडक़ें चकाचक हो रही हैं। धूल हटा कर सफाई की जा रही है। गड्‌ढे ठीक किए जा रहे हैं। आवारा मवेशियों का तो कहीं नामोनिशान तक दिखाई नहीं दे रहा है। इनके अलावा उन तमाम समस्याओं का 'निराकरण' भी युद्धस्तर पर हो रहा है, जो आपकी राह में परेशानी पैदा कर सकती हैं। बिलासपुर में ऐसा अक्सर होता आया है। विशिष्ट लोगों की आवभगत कैसे होती है तथा सड़कों की दशा 'चमत्कारिक रूप से' रातोरात कैसे सुधरती है, इस बात का साक्षी यह शहर रहा है। आमजन की तो बिसात ही क्या? वह बेचारा रोता रहे, बिलखता रहे या आंदोलन करे, गांधीगिरी दिखाए, लेकिन उसकी पीड़ा पर गौर करना न तो आपके नुमाइंदों की फितरत में है और ना ही उनके पास फुर्सत है। पता नहीं किस काम में व्यस्त हैं। आपके मंत्री और अफसर तो माशाअल्लाह इतना बढ़-चढ़कर बोलते हैं कि उनको 'बयानवीर' की उपाधि से नवाजा जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। शहर में सड़कों की दशा सुधारने के लिए क्या-क्या बयान नहीं दिए। ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा। लेकिन हुआ कुछ नहीं। यह तो माननीय हाईकोर्ट की फटकार काम आई वरना आपके 'बयानवीर' तो यूं ही सब्जबाग दिखाते रहते।
सबसे हैरत की बात तो यह है कि आप जिस ओवरब्रिज का लोकार्पण करने आ रहे हैं, वह भी अपने आप में ऐतिहासिक है। एक दशक से ज्यादा समय से इस ब्रिज के बनने एवं बिगड़ने की कहानी चल रही है। हालात यह हैं कि ब्रिज अभी भी पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाया है। आनन-फानन में कमियों को रंगरोगन करके छिपाया जा रहा है। अगर इतनी जल्दी पहले दिखाई जाती तो लोगों को राहत मिलने में देर नहीं होती। जब दस साल से ज्यादा समय इसको बनने में लग गए  तो फिर इसे पूरी तरह से पूर्ण करवाकर ही लोकार्पण करवाना चाहिए था। इस प्रकार के कामों में भी प्रमुख भूमिका आपके 'बयानवीरों' की ही है। वैसे भी इस प्रकार कामों को पूर्ण करवाने से पहले उनका लोकार्पण करवाने या बीच में अधूरा छोड़ने की बिलासपुर में परंपरा रही है। खैर, सभी कार्यक्रमों में शिरकत करने के बाद जहां से आपका हेलीकॉप्टर रायपुर के लिए उड़ेगा, वह वही बस स्टैण्ड है, जिसका लोकार्पण आप इसी साल जनवरी माह  में कर चुके हैं। हाइटेक सुविधाओं से सुसज्जित यह बस स्टैण्ड भी शुरू होने के इंतजार में बदहाल हो रहा है। यह तो आपको भी पता ही है कि आधी-अधूरी तैयारियों  तथा  तमाम औपचारिकताओं को पूर्ण किए बिना लोकार्पित किए जाने वाले काम सस्ती लोकप्रियता हासिल करने से ज्यादा कुछ भी नहीं। इससे आमजन आहत ही ज्यादा होता है।
आप निजाम के मुखिया हैं। इस कारण आपकी व्यस्तता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है लेकिन अवाम की खैर-खबर लेना भी आपकी नैतिक जिम्मेदारी में आता है। आपका दौरा इतना भी थकाऊ या उबाऊ नहीं है कि बदहाल शहर की हकीकत जानने के लिए आपके पास समय ही न हो। चुनावों के समय भी तो आप दिन-रात एक कर देते हो, नहाने-धोने  तक की सुध नहीं रहती। ऐसे में इस बात की गुंजाइश तो लेशमात्र भी नहीं है कि आप इस प्रकार के कामों के अभ्यस्त नहीं हैं।  यकीन मानिए, आपके छोटे से फैसले से तथा केवल आधा एक-घंटा खर्च करने से इस शहर की तस्वीर बदल सकती है। लगे हाथ आपको पता भी चल जाएगा कि बेमिसाल एवं बेनजीर बिलासपुर को बदहाली के कगार पर पहुंचाने वाले कारण कौन से हैं। 'दूध का दूध' और 'पानी का पानी' होते देर नहीं लगेगी। पानी बहुत गुजर चुका है।आम आदमी हताश एवं निराश है। आपके  'बयानवीरों'  से उसने उम्मीद करना लगभग छोड़ दिया है। आप राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ डाक्टर भी हैं लिहाजा, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर लाइलाज मर्ज की ओर बढ़ रहे शहर की सुध लीजिए। यकीन मानिए इलाज में अब जरा सी देरी या लापरवाही किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। अगर आपने 'आज' बिलासपुर से मुंह फेरा तो त्रस्त लोग 'कल' आपसे भी मुंह मोड़ सकते हैं।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 12 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, November 10, 2011

औपचारिकता नहीं, कार्रवाई की जरूरत

टिप्पणी
बेशक यातायात नियमों की पालना करवाना  यातायात पुलिस के रोजमर्रा के कामों में शामिल है, लेकिन बिलासपुर में यातायात पुलिस का अभियान कब शुरू होता है तथा कब खत्म होता है,  पता ही नहीं चलता। तभी तो यातायात नियमों की जितनी धज्जियां बिलासपुर में उड़ती दिखाई देती हैं, शायद की कहीं दूसरी जगह दिखाई दे। शहर के किसी भी हिस्से में चले जाएं, सभी जगह कमोबेश एक जैसे ही हालात मिलेंगे। जो जैसे जी में आया वाहन चला रहा है लेकिन किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है। मतलब साफ है किसी में भी कानून का भय नहीं है। हो भी कैसे? यातायात पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करने या यातायात नियमों की पालना करवाने की बजाय जबरिया वसूली करने के आरोप ज्यादा लगते हैं। लगातार होने वाली बड़ी दुर्घटनाओं से इन आरोपों को बल भी मिलता है। बुधवार सुबह हुआ हादसा भी इसी का नतीजा है। प्रतिबंधित इलाकों में भारी वाहनों का प्रवेश अब भी बिना किसी रोक टोक के बदस्तूर हो रहा है, जबकि पिछले माह 21 अक्टूबर को हुए सडक़ हादसे के बाद जिला प्रशासन ने सुरक्षा समिति की बैठक ब़ुलाई थी। इस बैठक में  भारी वाहनों के शहर से आवाजाही पर पूर्णतः प्रतिबंधित लगाकर इनको बार्इपास से बाहर निकालने का निर्णय लिया गया था। इस निर्णय की एक दिन भी पालना नहीं हुई। भले ही बचाव के लिए यातायात पुलिस के पास अपनी दलीलें हों, लेकिन शहर में जो कुछ हो रहा है,  वह यातायात पुलिस की उदासीनता का ही नतीजा है।
अगर यातायात पुलिस गंभीर होती तो शहर की सड़कों पर नाबालिग बच्चे बेखौफ दुपहिया दौड़ाते नजर नहीं आते। दुपहिया वाहनों पर तीन-तीन, चार-चार लोग बैठे दिखाई नहीं देते। यह पुलिस की उदासीनता एवं कर्तव्यविमुखता का ही परिणाम है कि वाहन चालक यातायात नियमों का सरेआम मखौल उड़ा रहे हैं। गति पर कोई नियंत्रण नहीं है। हेलमेट अनिवार्य करने की बात तो यातायात पुलिस के लिए दूर की कौड़ी है। यह  सही है कि यातायात नियमों की पालना करवाने से संबंधी अभियान की शुरुआत में जागरुकता विषयक कार्यक्रम करवाए जाते हैं। इसके बाद समझाइश दी जाती है और इन सब के बाद नियमों की कड़ाई से पालना करवाई जाती है। बिलासपुर की यातायात पुलिस  जागरुकता एवं समझाइश का काम तो जैसे-तैसे कर लेती है लेकिन कार्रवाई के नाम पर उसके हाथ हिचकिचा जाते हैं, जबकि मुख्य काम तो कार्रवाई का ही है। कार्रवाई में कड़ाई नहीं होगी तो फिर परिणाम भी आशा के अनुकूल नहीं आएंगे।
 बहरहाल, शहर में कई हादसे हो चुके हैं। इनकी फेहरिस्त लम्बी न हो तथा इन पर प्रभावी नियंत्रण हो, इसके लिए जरूरी है कि यातायात पुलिस अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी के साथ निभाएं। यातायात जागरुकता अभियान बाकायदा सुनियोजित एवं कारगर तरीके से चले। बिना किसी भेदभाव एवं राजनीतिक हस्तक्षेप के सभी दोषियों पर समान रूप से कार्रवाई हो। महज कागजी आंकड़ों को दुरुस्त करने के लिए चलाए जाने वाले अभियानों से किसी प्रकार की राहत की उम्मीद करना बेमानी है। क्योंकि इस प्रकार के कागजी अभियानों में कार्रवाई के नाम पर सिर्फ औपचारिकता ही निभाई जाती है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 10 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, October 20, 2011

काहे के लोकसेवक


टिप्पणी
प्रशासन के निर्देशों के बावजूद बाजार फिर अतिक्रमण की चपेट में है। दीपोत्सव के चलते शहर की सड़कें और ज्यादा संकरी हो गई हैं। बीच सड़क पर पार्किंग हो रही है। सजावट के नाम सडक़ों पर टेंट लगाने का काम बेखौफ, बेधड़क और सरेआम हो रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। कुछ जगह तो हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि वाहन तो दूर पैदल निकलने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। दरअसल, यहां  तासीर ही ऐसी है।  प्रशासन तो बस बयान जारी करने तक ही सीमित हो गया है। कार्रवाई के नाम पर अफसरों के माथे पर बल पड़ जाते हैं।  पता नहीं किस बात की नौकरी कर रहे हैं और किसके लिए कर रहे हैं। काहे के लोकसेवक हैं। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर दिशा-निर्देश जारी हो जाते हैं। अधिकारी कभी बाजार में निकल कर देखें तो पता चलेगा कि आमजन को बाजार में सड़क पार करने में किस प्रकार की दुविधाओं एवं दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। अमूमन देखा गया है कि कुछ वर्ग विशेष के लोगों तथा वीआईपी को फायदा पहुंचाने के लिए आमजन के हितों की सरेआम बलि चढ़ा दी जाती है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी किसी के जन्मदिन के नाम पर। कभी किसी वीआईपी के आगमन के नाम पर तो कभी किसी बड़े आयोजन के बहाने, शहर में कुछ भी करो। किसी प्रकार की मनाही नहीं है। कोई रास्ता रोक रहा है तो कोई चंदे के नाम पर उगाही कर लेता है। मनमर्जी का खेल यहां खुलेआम चलता है।
भूल से कोई कानून की पालना करवाने की हिम्मत करता भी है तो ऐन-केन-प्रकारेण उसे चुप करवा दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि जिस जोश एवं उत्साह के साथ अभियान का आगाज होता है वह उसी अंदाज में अंजाम तक पहुंच ही नहीं पाता। मिलावटी मिठाई के खिलाफ चले अभियान का उदाहरण सबके सामने है। व्यापारियों के विरोध के बाद अभियान को रोक दिया गया। यहां सवाल उठाना लाजिमी है कि सिर्फ एक दिन में क्या अभियान का मकसद हल हो गया। प्रशासन के इस प्रकार के रवैये के कारण ही तो  अवैध कामों को बढ़ावा मिलता है। तभी तो बाजार में मिलावटी मिठाइयां बिकती हैं। कम तौल पर पेट्रोल मिलता है। घरेलू सिलेण्डरों का व्यावसायिक दुरुपयोग होता है। बिना बिल के बाजार में सोना बिकने आ जाता है। नकली मावे की खेप लगातार पहुंच जाती है। नेताओं के नाम के लेटरपैड से लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। यह चंद उदाहरण ही ऐसे हैं, जो यह बताने के लिए .पर्याप्त हैं कि प्रशासन कैसे व किस प्रकार की भूमिका निभा रहा है। यह सब क्यों व कैसे हो रहा है इस पर विचार करने का समय किसी के पास नहीं है। जनप्रतिनिधि तो इस प्रकार के मामले में कुछ बोलने की बजाय पर्दे के पीछे बैठकर तमाशा देखना ही ज्यादा पसंद करते हैं। उनको वोट बैंक खिसक जाने का खतरा जो रहता है।
बहरहाल, प्रशासन को अपनी भूमिका ईमानदारी से निभानी चाहिए। किसी प्रकार के दबाव या दखल को दरकिनार कर आम जन के हित से संबधित निर्णय तत्काल लेना चाहिए। प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों के रोज-रोज के बयानों से लोग अब तंग आ चुके हैं। बात काम की हो, विकास हो या किसी तरह की व्यवस्था बनाने की हो, ऐसे मामलों में अब तक शहरवासियों के हिस्से बयानबाजी ज्यादा आई है। उन पर अमल होता दिखाई नहीं देता। पानी बहुत गुजर चुका है। जरूरी है अब काम को, विकास को प्राथमिकता दी जाए। बदहाल व्यवस्था को सुधारने के लिए कोई निर्णायक पहल होनी चाहिए। बिना किसी लाग लपेट व राजनीति के। ईमानदारी के साथ।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 20 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, October 15, 2011

ये मोबाइल फोन कम्पनी वाले....

बात इसी सोमवार यानी दस अक्टूबर की है। मैं अपने कार्यालय की सुबह की मीटिंग की निवृत्त होकर घर पहुंचा ही था कि अचानक मैंने मेरे दूसरे मोबाइल पर एक अजनबी नम्बर से आई मिस्सड काल को देखा। जैसी कि मेरी आदत है, मैं जो भी मिस्सड कॉल देखता हूं, उस पर कॉल कर लेता हूं। उस दिन भी मैंने वैसा ही किया। मैंने फोन दूसरे नम्बर से लगाया था, इसलिए पहले मुझे परिचय देना पड़ा और बताना पड़ा कि मेरे दूसरे नम्बरों पर आपने कॉल किया था। मामला समझ में आने के बाद सामने वाले शख्स ने कहा कि मैं दिल्ली पुलिस का इंस्पेक्टर बोल रहा हूं। आपके खिलाफ दिल्ली तीस हजारी कोर्ट में याचिका लगी हुई है। फोन पर उस कथित इंस्पेक्टर की बात सुनकर मुझे यकायक करंट सा लगा और मेरे हाथ से मोबाइल छूटते-छूटते बचा। जैसे-तैसे खुद को संभालते हुए मैंने घबराहट में  पूछा आखिरकार मेरा कसूर क्या है। तो वह बोला कसूर की बात करते हो। एक तो नोटिस का जवाब नहीं देते हा्रे ऊपर से सवाल भी करते हो। आप को कल 11 अक्टूबर को दिल्ली हाईकोर्ट में उपस्थित होना है। इतना सुनते ही मेरी धड़कनें लुहार की धौकनी की मानिंद जोर-जोर से चलने लगी। चेहरा एकदम से पीला पड़ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि आखिरकार अब क्या करूं। थोड़ी हिम्मत से जुटाकर फिर पूछा तो वह कथित इंस्पेक्टर बोला भाईसाहब आपके नाम कोई वोडाफोन का बिल लम्बित है। आपने उसे लम्बे समय से जमा नहीं कराया है, इसलिए वोडाफोन वालों ने आपके खिलाफ यह कार्रवाई की है।
कथित इंस्पेक्टर ने आगे कहा कि बिल जमा कराने के लिए तीन माह पूर्व आपको नोटिस भेजा था लेकिन आपने उसका जवाब ही नहीं दिया। इस पर मैंने कहा कि जिस स्थान की आप बात कर रहे हैं, मैं उस स्थान पर छह माह से नहीं रह रहा हूं। रही बात बिल जमा कराने की तो मैंने बिल जमा कराने से इनकार ही कब किया, जो नोटिस देने या अदालत में हाजिर होने की नौबत आ गई। मेरी दलीलों का उस कथित इंस्पेक्टर पर कोई असर नहीं हुआ। उसने कहा कि आप इस मामले को देख रहे वकील के नम्बर ले लो। हो सकता है वह आपकी कुछ मदद कर दें। वकील के नम्बर देते हुए उस इंस्पेक्टर ने मुझे बताया कि इनका नाम आरके चौधरी हैं। आप अपना पूरा मामला इनको बता दो। हो सकता है आपकी कोई मदद हो जाए।
मैंने हिम्मत जुटाकर तत्काल वकील साहब को फोन लगाया तो सामने से धीमे से आवाज आई। मैंने अपना परिचय देते हुए मामले की जानकारी लेनी चाही तो उन्होंने कुछ देर के लिए मुझे फोन पर होल्ड रखा। इसके बाद बोले आपने वोडाफोन का बिल जमा नहीं करवाया है और कनेक्शन भी विच्छेद करवा लिया है। आपको कल 11 अक्टूबर को तीस हजारी कोर्ट में हाजिर होना है। मैंने उनको बताया कि  एक दिन में मेरा दिल्ली पहुंचना संभव नहीं है। क्या इस समस्या का किसी तरह से कोई समाधान हो सकता है? वकील साहब ने कहा कि आप एक घंटे के भीतर 2307 रुपए जमा करवाके मुझे रसीद नम्बर बताओ तो मामले का निपटारा हो सकता है अन्यथा आपको कल हाजिर होना पड़ेगा। इसके बाद मैंने उस कथित इंस्पेक्टर को फोन लगाया और वकील साहब से हुए वार्तालाप के बारे में बताया। उस कथित इंस्पेक्टर ने भी वकील साहब की तर्ज पर मुझे एक घंटे के भीतर बिल जमा करवाने की सलाह दी।
दरसअल यह वोडाफोन की कहानी भी करीब छह माह पुरानी है। वोडाफोन के नम्बर वाला फोन मेरी धर्मपत्नी के पास था। पोस्टपैड होने के कारण वह बिल भी मैं ही जमा करवाता था। अचानक मेरा तबादला राजस्थान से बाहर हो गया। ऐसे में  बिल समय पर जमा नहीं हो पाया। जिस एजेंसी से यह फोन नम्बर लिया गया था, वहां से  मेरे पास फोन आया तो मैंने अपनी धर्मपत्नी जो कि उस वक्त अपने मायके में थी, से कहा कि किसी परिचित को बोलकर बिल जमा करवा दो।  तब उसने अपने बुआ के बेटे  जो कि वोडाफोन में किसी सीनियर पोस्ट पर काम करते बताए, उनसे कहा तो उन्होंने कहा कि आप चिंता मत करो काम हो जाएगा। यह बात सुनकर मैं निश्चिंत हो गया। कुछ समय बाद श्रीमती ने भी राजस्थान छोड़ दिया और मेरे पास आ गई, लेकिन बिल जमा नहीं हो पाया। हम तो बुआ के बेटे के भरोसे पर बैठे थे, इसलिए नहीं करवाया। मन में कोई पूर्वाग्रह या बिल जमा न कराने की भावना भी नहीं थी। सोचा राजस्थान चलेंगे तो बिल की राशि लौटा देंगे।
करीब दस दिन ही शांति से बीते होंगे कि एजेंसी वाले का फोन फिर आ गया, बोला भाईसाहब बिल जमा नहीं कराओगे क्या? मैं उसके बात करने के तरीके पर कुछ चौंका फिर उससे पूछा कि भईया उसमें जमा कराने या न कराने की कोई बात ही नहीं है। मेरे रिश्तेदार हैं, जो कि वोडाफोन में ही है। उन्होंने कहा कि बिल जमा हो जाएगा, इसलिए मैं तो शांत हूं। आप एक बार उनसे बात कर लो। इसके बाद मेरे पास एजेंसी से फोन आना बंद हो गए। करीब दो माह बाद फिर एजेंसी से फोन आया। वह बोला आपका बिल अभी पेंडिंग ही चल रहा है। आपके वोडाफोन वाले रिश्तेदार ने कोई बिल जमा नहीं कराया है। इस पर मैंने एजेंसी वाले को कहा कि यार तू मेरे गांव के पास का है। मैं तेरे को जानता हूं और तू मेरे को जानता है। ऐसा कर अगर रिश्तेदार ने नहीं कराया है तो तू करा दे। मैं अगले माह दीवाली पर गांव आ रहा हूं तब तुम्हारा पैसा लौटा दूंगा। मेरी बात पर सहमति जताते हुए उसने फोन काट दिया। मैं भी आश्वस्त हो गया कि अब फोन नहीं आएगा। मुझे नहीं पता था कि इस बार फोन नहीं बल्कि इस तरह का बवाल आएगा।
खैर, कहानी बताने का मतलब यही था कि मेरे मन में कहीं भी फोन की राशि हड़पने की बात भी नहीं थी। मैं एक प्रतिष्ठित परिवार से जुड़ा हूं और बेहद संवेदनशील इंसान हूं। मेरा जॉब भी सार्वजनिक उपक्रम का है, लिहाजा वैसे भी फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। वकील से बात खत्म होते ही मैंने अपने पुराने साथी को फोन लगाया और वकील के नम्बर दे दिए। उसने पूछा क्या बात हो गई तो मैंने कहा पूरी कहानी बाद में बताऊंगा पहले 2307 रुपए का बिल वोडाफोन की एजेंसी पर जाकर जमा कराओ और वहां से जो रसीद मिले उसके नम्बर वकील को बताओ। राशि जमा होने के होने के बाद उसका मेरे पास फोन आ गया कि बिल जमा हो चुका है। उसने कहा कि वकील को आप ही बता दो, यह कहकर उसने रसीद नम्बर भी मुझे नोट  करा दिए। राहत की सांस लेते हुए मैंने वकील को इस समूचे घटनाक्रम से अवगत कराया। मैंने वकील से वोडाफोन के किसी अधिकारी के नम्बर जानना चाहे तो उन्होंने कहा कि उनके पास तो कम्पनी से ई मेल से शिकायत आती है उसी के आधार पर वे केस लड़ते हैं चूंकि आपने बिल जमा करवा दिया है इसलिए आपके समझौते का मेल वोडाफोन के अधिकारियों को भेज देता हूं।
इधर, फोन पर लम्बे समय तक मुझे बात करते देख मेरी धर्मपत्नी  भी सारा माजरा समझ चुकी थी। उसने तत्काल अपने पिताश्री को फोन लगाया और कहा कि भैया (बुआ के बेटे) को उलहाना दो कि उनके भरोसे के कारण आज क्या-क्या सुनने को मिल गया। इसके बाद श्रीमती ने ही अपने भैया को फोन लगाया। भैया ने मुझे बताया कि बिल की रिकवरी करने के लिए वोडाफोन वाले ऐसा ही करते हैं। आपको बिल जमा कराने से पहले एक बार मेरे से बात कर लेनी चाहिए थी। अब तो आपने बिल जमा करवा दिया है, इसलिए कुछ नहीं हो सकता है। चूंकि इस समूचे घटनाक्रम से मैं बेहद गुस्सा था। मैंने कहा कि आप वोडाफोन के किसी बड़े अधिकारी के नम्बर या मेल आईडी दीजिए ताकि मैं अपनी बात कह सकूं। मैं चोर नहीं हूं फिर भी मेरा साथ जो बर्ताव हुआ, उससे मुझे काफी दुख पहुंचा है। इसके बाद उन्होंने मामला दिखवाने का आश्वासन देते हुए दुबारा फोन करने का आश्वासन दिया।
इसके बाद मेरे एक दोस्त जो कि पहले वोडाफोन में कार्यरत थे और आजकल दूसरी मोबाइल कम्पनी में गुजरात चले गए, मैंने उनको फोन लगाया। मैंने उनसे भी वोडाफोन के किसी अधिकारी का नम्बर या ईमेल आइडी की जानकारी चाही, तो उन्होंने कहा कि बकाया बिल की रिकवरी के लिए इसी प्रकार के तरीके अपनाए जाते हैं ताकि उपभोक्ता डर के मारे राशि जमा करवा दें। उन्होंने कहा कि इस तरीके पर पहले भी काफी बवाल मच चुका है और समाचार-पत्रों में काफी छपा है। इसके बावजूद इन फोन कम्पनियों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है। दोस्त से बात अभी खत्म ही हुई थी कि श्रीमती के बुआ के बेटे का फोन दुबारा आ गया और उन्होंने कहा कि आपका मूल बकाया तो 12 सौ ही है, उसने 2307 रुपए कैसे जमा करवाए। इसके बाद उन्होंने कहा कि रसीद लेकर आपके बंदे को एजेंसी तक भिजवा दीजिए। मैंने दुबारा फोन करके अपने साथी को एजेंसी तक भिजवा दिया। वहां पर 12 सौ रुपए जमा करके बाकी राशि वापस कर दी गई। इस प्रकार से यह समूचा घटनाक्रम करीब तीन घंटे तक चला।
चूंकि घटनाक्रम मेरे लिए एकदम नया और चौंकाने वाला था इस कारण इसको लिखने का मन कर गया। उस कथित इंस्पेक्टर तथा वकील साहब के नम्बर भी लिखना चाह रहा था, जो कि उस दिन एक किताब पर लिखे थे। जल्दबाजी में आज वह किताब मिली नहीं। मिली तो दोनों के नम्बरों का उल्लेख जरूर करूंगा। इस सारे घटनाक्रम से एक बात तो साबित हो गई कि खुद के  मरे बिना स्वर्ग नहंी मिलता। आज उस घटना को पांच दिन हो गए हैं लेकिन उसको याद करके कभी गुस्सा आता है तो कभी खुद पर ही हंसता हूं।  किसी बात को हल्के से लेना बाद में कितना गंभीर बन जाता है यह मैंने अभी तक सुना ही था अब जान भी गया हूं। मन में एक तरह की टीस जरूर है कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। अपनी इस पीड़ा को मैंने सार्वजनिक जरूर किया है लेकिन सुकून तभी मिलेगा जब वोडाफोन के किसी बड़े अधिकारी से मुलाकात होगी। ज्यादा नहीं तो इतना तो कह ही दूंगा कि रिकवरी करवाने का यह तरीका कृपया बंद करवा दीजिए, क्योंकि आपका यह तरीका किसी हंसते-खेलते परिवार में कोहराम मचवा सकता है। पैसे वसूलने के तरीके और भी हो सकते हैं। किसी की जान पर बन आए, यह तो सरासर नाइंसाफी है। सवाल यह भी है कि जितनी नम्रता के साथ यह फोन वाले कनेक्शन देते वक्त या उपभोक्ताओं को अपनी तरफ मोड़ते समय पेश आते हैं, लेकिन बाद में इनका व्यवहार बदल जाता है। इसी घटनाक्रम को एक परिचित को बताया तो वे हंस पड़े और बोले, आप उनकी बातों से डर गए। बड़े-बड़े अपराधियों का कुछ नहीं होता फिर आपने ऐसा कौनसा गुनाह किया था जो डर गए। अब परिचित को यह कौन समझाए कि इज्जजदार के लिए तो तू कहना ही गाली के समान है।
और अंत में आखिरकार नम्बर मिल गए। कथित पुलिस इंस्पेक्टर के नम्बर 9250213864 हैं जबकि वकील साहब के नम्बर 92137 11928  हैं। इन दोनों नम्बरों पर मैंने बात की थी।









Friday, October 14, 2011

पूंछ तो गीली हो गई...

मेरा छोटा बेटा चीकू (एकलव्य) जितना चंचल है, उतना ही हाजिर जवाब भी। अभी वह पांच साल का भी नहीं हुआ है कि अपनी बातों से बड़े-बड़ों को भी आसानी से बेवकूफ बना देता है। अभी दशहरे की बात है। मोहल्ले में रावण का पुतला देखकर मचल गया और अपनी मम्मी से कहने लगा कि उसे रावण देखने जाना है। उसकी मम्मी उससे दो कदम आगे निकली। तत्काल बाजार गई और प्लास्टिक की गदा खरीद लाई वह भी दो। दो इसलिए क्योंकि मेरा बड़ा बेटा योगराज भी जब किसी चीज के लिए मचल जाए तो फिर जिद पूरी करके ही मानता है। दोनों चुप और संतुष्ट रहे इसलिए दो गदा खरीदी गई। इसके बाद चीकू की जिद देखते उसकी मम्मी ने उसे बाल हनुमान के रूप में सजा दिया। बाकायदा धोती पहनाई गई। कानों में बिन्दी चिपका दी गई। हाथों में पट्‌का और गालों पर सिंदूर लगा दिया गया। चीकू छोटा है इस कारण सहज ही हनुमान के रूप में उसने सभी को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया। भूल यह हो गई कि  बाल हनुमान के पूंछ नहीं लगाई है। वह भूल से रह गई थी। वैसे भी पूंछ के लायक कोई वस्तु थी नहीं जिसे पूंछ बनाकर लगाया जा सके, लिहाजा बिना पूंछ का ही हनुमान बना दिया गया। हाथ में गदा लिए वह रावण के पास पहुंच गया और जोर जोर से जय सियाराम, जय सियाराम के जयकारे लगाने लगा।
छोटे से बालक को जयकारे लगाते देख वहां मौजूद लोग आश्चर्य जताने लगे। इतने में चीकू ने अपनी गदा से रावण के पुतले पर प्रहार किया। फिर क्या था मोहल्ले वाले कहने लगे कि आज तो रावण का दहन बाल हनुमान ही करेंगे। इसके बाद चीकू ने रावण का दहन किया। रावण की अंदर आतिशबाजी एवं पटाखों का शोर सुनकर वह बहुत उत्साहित हो गया। रावण दहन के बाद  जब चीकू अपनी मम्मी व योगराज के साथ घर लौट रहा था पड़ोस की आंटी जो चीकू से बेहद प्यार करती है उसने चीकू को अपने पास बुलाया। वैसे चीकू मूडी है जब मूड होता है तभी किसी के पास जाता है वरना वह टस से मस नहीं होता है। चाहे कोई कितनी भी मन्नत कर ले। चूंकि हनुमान बनने की खुशी में वह इतना उत्साहित था कि बिना किसी ना नुकर के वह आंटी के पास चला गया। आंटी देखते ही बोली, अरे वाह चीकू तुम तो आज बाल हनुमान के रूप में बहुत जम रहे हो। चलो यह तो बताओ की तुम्हारी पूंछ कहां है। इतना सुनते ही चीकू ने जवाब दिया कि पूंछ तो गीली हो गई थी, इसलिए मम्मी ने सूखा दी। चीकू का जवाब सुनकर वहां मौजूद अन्य महिलाएं भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी। मेरी धर्मपत्नी भी चीकू के जवाब से काफी प्रसन्न नजर आई। इसकी वजह यह थी कि  पूंछ न लगाने की उसकी भूल को चीकू ने बड़ी ही चतुराई के साथ नया मोड़ दे दिया था।

Thursday, October 13, 2011

वर्तमान की नहीं भविष्य की चिंता

टिप्पणी
पुरानी कहावत है कि राम और राज की 'मर्जी' के आगे किसी का बस नहीं चलता है। बिलासपुर नगर निगम की एमआईसी को भंग करने से यह साबित हो भी गया है। यह भी एक संयोग ही है कि नगरीय प्रशासन विभाग का यह निर्णय ऐसे समय पर आया जब महापौर अपने जन्म दिन की बधाइयां लेने में व्यस्त थीं तो स्थानीय विधायक बदहाल शहर को पटरी पर लाने की कवायद में अधिकारियों से बैठक करने में जुटे थे। इस संयोग के पीछे भी गहरे अर्थ छिपे हैं। तभी तो एमआईसी भंग होने के साथ ही सड़क, नाली, बिजली एवं पानी की व्यवस्था के लिए आनन-फानन में २० करोड़ रुपए के प्रस्ताव बनाकर स्वीकृति के लिए राज्य शासन को भिजवा भी दिया गया। संभवतः यह प्रस्ताव स्वीकृत भी हो जाएगा।
राज्य सरकार के नुमाइंदे भी तो यही चाहते हैं कि शहर में होने वाले विकास कार्यों का श्रेय उनके हिस्से में आएं। वे यह आसानी से प्रचारित कर सकें कि  निगम ने जो काम नहीं करवाए वे राज्य सरकार ने या उन्होंने कर दिखाए। देखा जाए तो एमआईसी भंग करने के पीछे भी शहर का विकास कम बल्कि नुमाइंदों के भविष्य की चिंता ज्यादा छिपी है। राज्य सरकार के नुमाइंदे सत्ता मद में इतने गाफिल हैं कि उनको शहर की वर्तमान दुर्दशा की चिंता की बजाय अपने भविष्य का डर सता रहा है। इसी डर को भगाने के लिए उन्होंने अभी से प्रयास करने शुरू कर दिए हैं। एमआईसी भंग करवाने को भी उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
वैसे भी राज्य सरकार का यह निर्णय राजनीति से प्रेरित ज्यादा नजर आता है। राज्य सरकार ने एमआईसी भंग करने के लिए दो साल किस बात का इंतजार किया?  इसके असंवैधानिक होने का ख्याल इसके गठन के समय क्यों नहीं आया? भंग करने के लिए बीच का समय ही क्यों चुना गया? भंग होने के बाद विकास कार्यों के लिए हाथोहाथ प्रस्ताव भिजवाने का मतलब क्या है? अगर गठन गलत था तो हर बैठक में निगम के आयुक्त तथा अधिकारी क्यों आए?  वे किस हैसियत से इन बैठकों में भाग लेते रहे?  एमआईसी की ओर से पारित प्रस्तावों को क्यों पास किया जाता रहा?  एमआईसी की ओर से पारित ३३ में से २५ को ही निरस्त क्यों किया? आठ प्रस्तावों के बारे में चुप्पी क्यों साधी गई? आदि अनगिनत सवाल हैं, जो आम मतदाता के जेहन में उमड़ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि एमआईसी से पारित योजनाओं पर खर्च हुई राशि का क्या होगा? 
एमआईसी भंग करने से ऐसा लगता है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित था। सुनियोजित तरीके से ऐसे समय को चुना गया जब माहौल को अपनी तरफ मोड़ा जा सके। जनता की दुखती रग को टटोला जा सके। वर्तमान समय से ज्यादा मुफीद समय शायद हो भी नहीं सकता है। वर्तमान में शहरवासियों को मूलभूत एवं बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से मय्यसर नहीं हो पा रही हैं। शहर की बदहाली से आमजन त्रस्त हैं। आलम यह है कि एमआईसी भंग होने के बाद प्रस्ताव तैयार करने में तत्परता दिखाने वाले निगम के अधिकारी हाईकोर्ट की फटकार पर भी गंभीर नहीं हुए। यह भी एक यक्ष प्रश्न है कि निगम अधिकारियों में इतना सजगता एवं सतर्कता यकायक कहां से एवं कैसे आ गई। वैसे भी एमआईसी के गठन के बाद से असंतोष के स्वर उठने शुरू हो गए थे। कांग्रेस के कुछ पार्षद भी एमआईसी के गठन से संतुष्ट नहीं थे। पार्टी के नाते एवं दिखावे के लिए अब भले ही वे राज्य सरकार के निर्णय का विरोध कर रहे हों लेकिन राज्य सरकार के नुमाइंदों से उनकी नजदीकियां शहरवासियों के लिए न तो नई हैं और न ही छिपी हुई नहीं है।
बहरहाल, एमआईसी भंग होने के बाद उसे सही एवं गलत ठहराने के अपने-अपने दावे किए जा रहे हों लेकिन इतना तो तय है कि शहर अभी भी राजनीतिक चंगुल में फंसा हुआ है। शहर के नुमाइंदे बदहाल शहर एवं बेबस जनता के दुखदर्द दूर करने के बजाय अपना भविष्य पुख्ता एवं सुनिश्चित करने की कवायद में जुटे हैं। खामोश जनता यह सब देख रही है लेकिन  'उचित मौके'  की तलाश भी कर रही है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 13 अक्टूबर 11 के अंक में प्रकाशित।


Friday, October 7, 2011

'रावण' बोला- मैं जिंदा हूं...


टिप्पणी
बोलने वाले रावण के पुतले को अग्नि के हवाले करने के बाद गर्वित मन से शहरवासी जैसे ही घरों की ओर मुडे़, तभी जोरदार धमाका हुआ। अचानक आसमान में कौंधी तेज रोशनी से वहां मौजूद लोगों की आंखें चुंधियां गई। इसके बाद का नजारा देखकर तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। जलते पुतले से एक विशालकाय आकृति निकली और देखते ही देखते आसमान में जोरदार अट्‌टाहास गूंजने लगा। यह सब देख शहरवासियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे एकदम डरे, सहमे उस आकृति को अपलक निहारने लगे। रफ्ता-रफ्ता आकृति आकार लेने लगी और पुनः पुतले में तब्दील हो गई। पुतले का अट्‌टाहास जारी था, लिहाजा, वहां जमा सभी लोग जड़वत हो गए। अचानक पुतले ने बोलना शुरू गया। वह बोला 'बिलासपुरवालो, मुझे पहचानो। मैं रावण हूं, रावण। वही रावण, जिसके पुतले का आप लोगों ने अभी-अभी दहन किया है। ऐसा आप लोग हर साल करते हो। फिर भी मैं हर बार नए रूप में आता हूं और भी बड़ा होकर। मैं तो आप लोगों का इस बात के लिए शुक्रिया अदा करने आया हूं कि आज आपने मेरे साथ भ्रष्टाचार रूपी पुतले का भी दहन किया है।'
लम्बी सांस छोड़ते हुए पुतला हंसने लगा। हंसते-हंसते ही उसने सवाल दागा, 'भ्रष्टाचार का पुतला जलाने से क्या भ्रष्टाचार खत्म हो गया? आप ही बताओ, आज भ्रष्टाचार कहां नहीं है। आपका शहर तो भ्रष्टाचार के दलदल में बुरी तरह फंसा हुआ है। हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। कदम-कदम पर भ्रष्टाचार है। शासन-प्रशासन के लिए तो भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार बन चुका है। हालात यह हो गए हैं कि आचार, विचार, संस्कार आदि भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे। गली, घर, समाज, प्रदेश व देश सभी जगह भ्रष्टाचार की घुसपैठ है।'
गंभीर मुद्रा बनाते हुए पुतला फिर बोला 'बिलासपुर वालो। हजारों हजार वर्ष पूर्व मर कर भी मैं आज तक नहीं मरा हूं। भ्रष्टाचार मेरा ही स्वरूप है। यह मेरा छोटा भाई ही तो है। मैं त्रेतायुग में पैदा हुआ और यह कलयुग में। वैसे भी इस भ्रष्टाचार रूपी रावण को पैदा करने तथा पनपाने में आप सब का ही योगदान है और इसके लिए जिम्मेदार भी आप लोग ही हैं। आप लोगों ने भ्रष्टाचार को इतना प्यार एवं स्नेह दिया कि इसका कद मेरे से भी बड़ा हो गया। आपने भ्रष्टाचार रूपी पुतले का दहन करके एक नई बहस को जन्म दे दिया है।'
यकायक पुतला आवेश में आ गया। वह गुस्से में जोर से गरजा, 'कलयुग के इस रावण को मारने के लिए अब कोई विभीषण भी नहीं आएगा। वह बेचारा हिम्मत जुटाकर कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास करता भी है तो आप लोग ही उसे पागल कह कर शांत कर देते हो। मेरी जमात मेरे अनुयायी तो साल दर साल बढ़ रहे हैं लेकिन विभीषण जैसे लोग तो अपने वजूद के लिए जूझ रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं।' पुतले के ठहाके लगातार गूंज रहे थे। वह कहने लगा 'भ्रष्टाचार का रावण अब नहीं मरेगा। वह जिंदा रहेगा। उसके जिंदा होने से मुझे भी संबल मिला है। मैं जिंदा हूं, मैं जिंदा हूं....मेरा नए रूप में पुनर्जीवन हो गया।' इतना कहकर पुतला आसमान में लीन हो गया।
 शहरवासी इस समूचे घटनाक्रम से हतप्रभ थे। उनके जेहन में कई सवाल उमड़ने लगे तो कानों में पुतले के डायलॉग ही गूंज रहे थे। वे सोचने लगे, सचमुच भ्रष्टाचार ही तो कलयुग का रावण है। आज का सबसे बड़ा रावण। सबसे खतरनाक रावण। बिलासपुर एवं देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा संकट। परेशान सब हैं, लेकिन विभीषण या राम बनने को कोई तैयार नहीं।


साभार : बिलासपुर पत्रिका के  07 अक्टूबर 11 के अंक में प्रकाशित।


Monday, October 3, 2011

नई परम्परा का आगाज

टिप्पणी
लम्बी जद्‌दोजहद एवं कशमकश के बाद आखिरकार शहर में दूध के भाव तय हो गए हैं। इसी के साथ करीब सप्ताहभर से चल रहे दूध के दंगल का भी पटाक्षेप हो गया। दूध उत्पादक संघ व डेयरी व्यवसायियों के बीच सहमति के बाद अब आम उपभोक्ताओं को दूध 32 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से मिलेगा। नई दरें तय करने के मामले में दोनों पक्षों को ही झुकना पड़ा। अपनी-अपनी मांगों एवं शर्तों से समझौता करना पड़ा। वैसे भी इस प्रकार के मामलों में समझौते या सहमति की बुनियाद भी तभी संभव है, जब दोनों पक्ष बराबर झुकें। इधर प्रशासन ने देर आयद, दुरुस्त आयद वाली कहावत चरितार्थ करते हुए दूध के दाम तय करने में न केवल प्रमुख भूमिका निभाई बल्कि भविष्य के लिए नई इबारत भी लिख दी। नई बात यह है कि प्रशासन के हस्तक्षेप से बिलासपुर में पहली बार दूध के दाम तय हुए वो भी लिखित में, वरना अभी तक मनमर्जी से ही भाव बढ़ रहे थे। कोई रोकने या टोकने वाला नहीं था। प्रशासन की इस पहल से एक नई परम्परा का आगाज हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए इस परम्परा का लाभ उपभोक्ताओं को कालांतर में भी मिलता रहेगा। सबसे अहम बात यह भी रही कि आम उपभोक्ताओं से जुडे़ इस मामले में 'पत्रिका' ने शुरू से लेकर आखिर तक सजग प्रहरी की भूमिका निभाई। इसका नतीजा यह निकला कि शुरू में मूल्यवृद्धि का समर्थन करने वाला 'एक खास वर्ग' भी अंततः 'पत्रिका' के सुर में सुर मिलाता दिखाई दिया। जनप्रतिनिधि एवं स्वयंसेवी संगठनों ने तो इस मामले में अंत तक चुप्पी ही साधे रखी। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि गाहे-बगाहे मतदाताओं के दुख-दर्द में शामिल होने का दम भरने वालेकिसी भी दल के जनप्रतिनिधि ने इस मूल्यवृद्धि के विरोध में एक शब्द तक नहीं कहा। इस बात को उपभोक्ताओं ने महसूस भी किया होगा।
खैर, दूध की नई दरें तय होने से उपभोक्ताओं को कुछ तो राहत मिली ही है, मनमर्जी से कीमतें तय करने वालों को भी अपनी औकात का अंदाजा हो गया होगा। उनको यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई होगी कि सार्वजनिक हित के आगे और सारे हित गौण क्यों हैं। मांगें जबरिया मनवाने का उपक्रम करने वालों को इस बात का अंदाजा भी हो गया कि महापुरुषों की प्रतिमाओं का दूध से अभिषेक करने तथा अरपा नहीं में दूध प्रवाहित करना किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। यह दूध का अपमान है। इस प्रकार के उपक्रमों से ध्यान जरूर बंटाया जा सकता है लेकिन मागें मान ली जाएं यह जरूरी तो नहीं।
बहरहाल, दूध की कीमतें नए सिरे तय होने के बाद सवाल उसकी गुणवत्ता का है। प्रशासन ने गुणवत्ता के मामले में समझौता करने वालों के पर कुतरने की कोशिश तो जरूर की है लेकिन उसमें भी स्पष्ट दिशा-निर्देश और सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दूध की थोक में खरीदी के मामले  गुणवत्ता की बात कहने वाला प्रशासन, आम उपभोक्ताओं के मामले में भी गंभीरता से विचार करेगा। जिस गुणवत्ता का दूध थोक में खरीदा जा रहा है, ठीक वैसा ही आम उपभोक्ता तक भी पहुंचे, तभी  जिला प्रशासन की इस पहल का सही अर्थों में लाभ मिलेगा। भले ही दूध की गुणवत्ता के लिए कोई अभियान ही क्यों न चलाना पड़े। वैसे भी कीमत का असर जेब पर पड़ता है लेकिन गुणवत्ता से खिलवाड़ तो सरासर स्वास्थ्य से खिलवाड़ है। तभी तो गुणवत्ता  मूल्यवृद्धि से भी बड़ा विषय है, इसलिए जितनी गंभीरता एवं तत्परता दरें तय करने में दिखाई गई, उतनी ही सजगता गुणवत्ता के मामले में भी दिखानी होगी। यह काम प्रशासन के लिए चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन असंभव तो बिलकुल नहीं।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के  03 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।


Sunday, October 2, 2011

प्रशासन है किसके लिए

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बिलासपुर के लिए शनिवार का दिन अब तक के इतिहास का संभवतः पहला दिन था जब किसी संगठन ने अपनी मांगें जबरिया मनवाने के लिए एक अनूठा तरीका अपनाया। संगठन के लोगों ने न केवल दूध को अरपा नदी में प्रवाहित किया बल्कि महापुरुषों की प्रतिमाओं का अभिषेक भी दूध से ही किया। इतना ही नहीं छोटे दूधियों को रोककर उनसे जबरन दूध छीनने की खबर भी है। इस आंदोलन का सारांश यही था कि जैसा वो चाहते हैं, वैसा नतीजा भुगतने को तैयार रहो। खैर, दूध की बर्बादी का मंजर जिसने भी देखा या सुना वह इसअनूठे तरीके की आलोचना से खुद को रोक नहीं पाया। जिसने भी सुना, उसका कहना था, इससे अच्छा तो किसी जरूरतमंद को दे देते। किसी गरीब के बच्चे को बांट देते। और नहीं तो अस्पताल में मरीजों के लिए दान ही कर देते आदि-आदि। अपनी मांगें मनवाने के लिए अपनाए गए इस तरीके पर जिला कलक्टर ने भी नाराजगी जतार्इ। इस तमाम घटनाक्रम के बाद भी दूध के भावों का विवाद सुलझता दिखार्इ नहीं दिया। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि दूध के भावों को लेकर दो खेमों में बंटे लोगों को प्रशासन भी संतुष्ट नहीं कर पाया। उनमें आम सहमति नहीं बनवा पाया। इतना जरूर हुआ कि ३५ रुपए प्रति लीटर बेचने की मुनादी करने वालों के तेवर कुछ ढीले पड़ गए हैं। इसके बावजूद विवाद सुलझा नहीं है।
प्रशासन के इस रवैये से यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिरकार वह किसके लिए काम रहा है। राज्य सरकार भी तो आखिरकार आमजन के लिए ही प्रतिबद्ध है। एक तरफ राज्य सरकार के नुमाइंदे सुराज अभियान के तहत लोगों के घर-घर तक पहुंच रहे हैं जबकि दूसरी तरफ लोग प्रशासन के पास खुद चलकर आ रहे हैं, ज्ञापन दे रहे हैं। इसके बावजूद उनकी बातों को अनसुना किया जा रहा है। आखिरकार ऐसी कौनसी दिक्कत या दबाव है जो प्रशासन को भाव तय करने से रोक रहा है। अगर प्रशासन ने दोनों पक्षों की बैठक बुलाई थी तो लगे हाथ भाव भी तय कर देने चाहिए थे। प्रशासन ने भाव तय करने का निर्णय भी उन्हीं लोगों पर छोड़ दिया जो पहले से ही लड़ रहे हैं। अगर दोनों धड़े सहमत ही होते तो शहर में पांच दिन से दूध क्या दो भावों पर बिकता। वैसे दूध की इस लड़ार्इ में सर्वाधिक नुकसान तो उस दूधिये या ग्वाले का ही है जो इन दो संगठनों के बीच पीस रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए दो धड़ों की इस नूरा कश्ती का प्रशासन जल्द ही कोर्इ सर्वमान्य हल निकालेगा। कीमतों की इस लड़ार्इ में छोटे दूधियों का भी ख्याल जरूरी है। उपभोक्ताओं को हित तो सर्वोपरि है ही।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 02 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।

Thursday, September 29, 2011

जिसकी लाठी, उसकी भैंस

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बिलासपुर में दो दिन से दूध दो भावों पर बिक रहा है। दूध उत्पादक संघ की ओर से 35 रुपए प्रति लीटर दूध बेच जा रहा है जबकि डेयरी व्यवसायी इसे 30 रुपए में उपलब्ध करा रहे हैं। दूध के दामों को लेकर मचे इस बवाल के पीछे सभी के पास अपने-अपने तर्क हैं, दलीलें हैं। कोई गुणवत्ता की बात कह रहा है तो कोई महंगाई को इसकी वजह मान रहा है। सप्ताह भर से चल रहे दूध के इस दंगल में उपभोक्ता तय नहीं कर पा रहा है कि आखिरकार माजरा क्या है। भावों के भंवर में फंसे उपभोक्ताओं के समझ में नहीं आ रहा है कि कीमत एवं गुणवत्ता का नाम लेकर खेले जा रहे इस खेल के पीछे असली अंकगणित क्या है। उनकी समझ में आएगा भी कैसे?  एक ही शहर में दूध के दो-दो भाव ही यह बताने के लिए काफी हैं कि कीमतों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। जिसके जो जी में आ रहा,  कर रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर भाव तय हो रहे हैं। मनमर्जी के इस खेल में देखा जाए तो प्रशासन की उदासीनता ही जिम्मेदार है। प्रशासन की इस मामले में अभी तक भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की ही बनी रही है।  प्रशासन ने न इस मामले को  गंभीरता से लिया और ना ही कोई पहल की। हैरत की बात है कि प्रशासनिक अधिकारी इस मामले को दिखवा लेने की बात कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो रहे हैं।
आम जन के स्वास्थ्य से जुड़े इस विषय को लेकर गंभीरता तो कतई नहीं बरती जा रही है। इससे बड़ी अंधेरगर्दी और क्या होगी कि दूध में मिलावट के खिलाफ दो साल से कोई अभियान ही नहीं चलाया गया है,  जबकि दो साल पूर्व जांच में  80 फीसदी सैंपल में मिलावट पाई गई थी। अब की भी कोई गारंटी नहीं है। दो भावों से इतना तो तय है कि कहीं न कहीं गड़बड़ी जरूर है। दोनों तरह के भावों की गहनता के साथ ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। अगर दूध उत्पादक संघ महंगाई की वजह से दूध की कीमत बढ़ाने की बात कर रहा है, तो इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि वाकई महंगाई कितनी बढ़ी है। जांच का विषय यह भी है कि उत्पादक संघ महंगाई के जो आंकडे़ बता रहा है उनमें और बाजार भाव में कहीं कोई अंतर तो नहीं। पशुपालकों से दूध कितने में खरीदा जा रहा है, बढ़ी कीमतों को उनको कितना फायदा मिला आदि बिन्दुओं पर भी  गौर करना आवश्यक है। इधर डेयरी व्यवसायी दूध की कीमतों में वृद्धि नहीं कर रहे हैं तो इसका राज क्या है। कहीं सस्ते के नाम पर गुणवत्ता से समझौता तो नहीं हो रहा। दोनों ही पक्षों की दलीलों की जांच होनी चाहिए। एक साल में दूध के दामों में कितनी वृद्धि हुई इस बात पर सभी एकमत नहीं है। डेयरी व्यवसायी संघ दो साल में चार बार, दुग्ध विक्रेता संघ पांच बार तथा दुग्ध उत्पादक संघ दो साल में दो बार दूध कीमत बढाने की बात कर रहा है।  लेकिन उपभोक्ता हकीकत से अनजान नहीं है। उसे पता है कब-कब कीमतें बढ़ाई गई।
बहरहाल, प्रशासन को कीमतों के इस खेल के वास्तविक कारणों की तलाश करनी चाहिए। सभी पक्षों को एक साथ बैठाकर कोई सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। कीमत बढ़ाने के लिए नियम तथा समय सीमा तय होनी चाहिए ताकि बेमौसम भाव नहीं बढ़े।  दूध की गुणवत्ता तथा मिलावट के मामले में तो समझौता होना ही नहीं चाहिए। इसके लिए भी लगातार अभियान चले तभी उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर गुणवत्तायुक्त दूध मिलने की कल्पना की जा सकती है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 29  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Sunday, September 25, 2011

उदासीनता से बढ़ता दुस्साहस

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बिलासपुर जिले का शिक्षा विभाग इन दिनों चर्चा में है। शातिर लोग शिक्षा विभाग के नाम पर खुलेआम भर्तियों से संबंधित इश्तहार निकाल रहे हैं, आवेदन बेच रहे हैं। एक के बाद एक फर्जीवाड़े उजागर हो रहे हैं। आलम यह है कि बीते एक माह में शिक्षा विभाग से संबंधित चार मामले सामने आ चुके हैं। चूंकि सभी मामले शिक्षा विभाग से संबंधित हैं, लिहाजा विभाग की संलिप्तता या किसी कर्मचारी की मिलीभगत से भी इनकार नहीं किया जा सकता। फर्जी चपरासी भर्ती प्रकरण में तो शिक्षा विभाग के एक शिक्षक की भूमिका संदिग्ध मानी भी जा रही है। मामले की तह तक जाने के लिए पुलिस इस शिक्षक की सरगर्मी से तलाश कर रही है। बिलासपुर में कम्प्यूटर ऑपरेटर भर्ती की सूचना खुलेआम चस्पा करने तथा भर्ती से संबंधित आवेदन बेचने का मामला तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया गया है। इंदिरा शक्ति योजना के नाम पर ठगी के शिकार हुए दो युवकों के मामले में भी विभाग ने बजाय कोई कार्रवाई करने के भर्ती को फर्जी बताकर पीड़ित युवकों को टरका दिया। फर्जीवाड़े से संबधित इन मामलों में ऐसे लोगों को निशाना बनाया जा रहा है, जो कम पढ़े लिखे हैं। वे आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। तभी तो शातिर लोगों को बेरोजगारी की मार से परेशान युवाओं को सरकारी नौकरी का सब्जबाग दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर लेने में कोई दिक्कत नहीं होती। फर्जीवाड़े की उक्त घटनाओं से इतना तो तय है कि विभाग ने इन मामलों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना कि उसे लेना चाहिए था।  विभाग की ओर से इस प्रकार के मामलों में शुरू से ही सख्ती बरती जाती तो शायद फर्जीवाड़ा करने वालों के हौसले इस कदर बुलंद नहीं होते। एक-दो शातिरों के खिलाफ अगर कड़ी कार्रवाई हो जाती तो बाकी को अपने आप सबक मिल जाता। लेकिन यह हो न सका, विभाग ने इस प्रकार के मामलों में लगातार उदासीनता बरती तभी ऐसे मामलों की फेहरिस्त बदस्तूर बढ़ती गई।  वैसे भी शिक्षा विभाग को सबसे महत्वपूर्ण महकमा इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसके जिम्मे शिक्षा का उजियारा फैलाकर लोगों को जागरूक करने की महत्ती जिम्मेदारी है। बिलासपुर जैसे जिले में तो शिक्षा विभाग की भूमिका इसलिए भी अहम है क्योंकि यहां आर्थिक असमानता का ग्राफ अन्य जिलों के मुकाबले काफी नीचे हैं। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के जीवन स्तर में भी बड़ा फासला देखने को मिलता है। इसी अंतर के कारण लोग विकास की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाते। यहां की साक्षरता दर भी राज्य के अन्य जिलों के मुकाबले कम है। जिले के लोगों की अशिक्षा एवं अज्ञानता का फायदा शातिर लोग गाहे-बगाहे उठाते रहते हैं। ऐसे में शिक्षा विभाग को जिम्मेदारी ज्यादा बन जाती है।
बहरहाल, ऐसे मामलों में शिक्षा विभाग का सतर्कता बरतना बेहद जरूरी है। उसके नाम पर कोई धोखाधड़ी कर रहा है। लोगों को ठग रहा है तो वह उसके खिलाफ तत्काल कार्रवाई करे। इस प्रकार के मामलों में उदासीनता बरतने का मतलब शातिरों को प्रोत्साहन देना ही तो है। इधर, भर्ती के नाम पर ठगी के शिकार होने वाले युवकों को भी चाहिए कि वे किसी की चिकनी चुपड़ी बातों में आने की बजाय अपने विवेक से काम लें। कोई भी निर्णय लेने से पहले मामले की तह तक जाएं। क्योंकि जो काम वे अपना पैसा एवं चैन लुटाने के बाद कर रहे हैं अगर पहले कर लें तो दोनों की बचत होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि विभाग भविष्य में इस प्रकार के मामलों पर गंभीरता से विचार करेगा ही संबंधित युवक भी जागरुकता के साथ सावधानी बरतेंगे। कड़ी कार्रवाई तथा जागरुकता से ही इस प्रकार के फर्जीवाड़ों पर रोक संभव है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 25  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।


Wednesday, September 21, 2011

आखिर मेरा कसूर क्या है?

टिप्पणी

प्यारी  'मां',
समझ में नहीं आता कि तुमको किस मुंह से 'मां' कहूं, मुझे तो ऐसा कहने में भी शर्म आती है। तुमने 'मां' होने फर्ज निभाया ही कहां, जो तुमको 'मां' कहूं। क्या सिर्फ पैदा करने से ही कोई 'मां' बन जाती है। तुमने तो मां-बेटी का रिश्ता बनाने से पहले ही तोड़ दिया। पैदा होते ही मैं यतीम हो गई। मुझ पर अनाथ का ठपा लग गया। मुझे इस हालत में देखकर पता नहीं लोग क्या-क्या कयास लगाते हैं। जितने मुंह उतनी बातें। कोई कुछ कहता है, तो कोई कुछ। किसी को मेरी हालत पर तरस आता है, तो कोई बदनसीब कहता है।  किस-किस को रोकूं। तुम भी मेरी नहीं हुई तो दूसरों से क्या उम्मीद रखूं। मेरा बस एक ही सवाल है। मैं तुमसे फकत इतना पूछना चाहती हूं कि आखिर मुझे किस बात की सजा मिली। मेरा क्या दोष है, मेरा कसूर क्या है। अच्छा या बुरा तुमने जो किया वो तुम जानो लेकिन तुम्हारे किए की सजा मुझे क्यों।  हां, जीवन देने के लिए तुम्हारी शुक्रगुजार जरूर हूं। वरना कई माताएं तो मुझ जैसी कई मासूमों का दुनिया में आने से पहले ही गर्भ में गला घोंट देती हैं। सुना है इस शहर को लोग संस्कारधानी और न्यायधानी के नाम से भी पुकारते हैं, लेकिन इन दोनों ही बातों की अवहेलना यहां कदम-कदम पर होती है।
मेरे साथ जो तुमने किया, कोई बताए कि आखिर यह कैसा संस्कार है, कैसा न्याय है। भले ही यहां के लोग इन नामों से खुद को गौरवान्वित महसूस करते होंगे, लेकिन मुझे तो इन नामों से शर्म आती है। यह दोनों ही नाम मेरे कानों में ऐसे गूंजते हैं, जैसे किसी ने गर्म शीशा घोल दिया है। नफरत सी हो गई है इन नामों से। यकीन नहीं है तो यहां का लिंगानुपात देख लो। प्रति एक हजार पुरुषों के पीछे यहां ९७२ ही महिलाएं हैं। यह फासला दिनोदिन लगातार बढ़ ही रहा है। बेटियां कम होती जा रही हैं। क्या यह अंतर सभ्य समाज को शर्मसार नहीं करता? क्या यह आंकड़ा आधी दुनिया के कड़वे सच को उजागर नहीं करता? खैर, इतना सब कहकर छोटा मुंह बड़ी बात कर रही हूं लेकिन क्या करूं, मजबूर हूं। प्यारी 'मां'। तुमने तो पैदा करते ही मुझसे किनारा करके नदी के किनारे छोड़ दिया। यह तो भला हो किसी दयावान का। उसका दिल पसीजा और उसे मेरी हालत पर तरस आ गया। मैं अब जिंदा हूं। भगवान ने चाहा तो कल मैं अस्पताल से बाहर भी आ जाऊंगी लेकिन  गर्भ के दौरान जो सपने बुने वो एक-एक करके तार हो गए। तुम्हारी ममतामयी गोद में प्यार भरी थपकियों के साथ सोने की हसरत अधूरी ही रह गई। चाहती तो मैं भी थी कि तुम्हारे आंचल में लेटकर लोरियां सुनूं। मैं भी तुम्हारे आंगन की चिड़िया बनकर चहकना चाहती थी, लेकिन एक ही दिन में पराई हो गई। और भी पता नहीं क्या-क्या सपने थे मेरे। तुम्हारी अंगुली पकड़कर चलना सीखती। कभी रुठती, कभी मनाती, कभी जिद करती।  तुम्हारा आंगन मेरी किलकारियों एवं अठखेलियों से आबाद होता। कितना अच्छा होता कि मैं तुतलाती आवाज में मां-मां पुकारती और तुम दौड़कर मुझे बाहों में भर लेती, मगर सपने, सपने ही रह गए।
मुझे नहीं मालूम तुमने यह फैसला क्यों किया। लोकलाज के भय से या पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के चलते, यह तुम जानो। लेकिन इतना तय है कि नौ माह तक मुझे गर्भ में रखने के बाद मुझे पराई करके नींद तुमको भी नहीं आई होगी। मुझे याद करके तुम्हारा अंतस भी जरूर भीगा होगा। तुम अकेले में फूट-फूटकर भी रोई हो। जरूर हमारे बीच कोई मजबूरी आ गई वरना तुम इतनी निर्दयी, निर्मोही व निष्ठुर कैसे हो सकती हो। मुझे पहाड़ सा दर्द देने से पहले जरूर तुमने अपने कलेजे पर हजारों टन पत्थर रखा होगा।
खैर, मेरे जैसा हश्र मेरी और बहनों के साथ न हो इसलिए कहना चाहूंगी कि दर्द और तकलीफ सहने के बाद भी मासूम की एक मुस्कुराहट पर सारे गम भुला देने वाली मां होती है। जिगर के टुकड़ों के लिए कुछ भी त्यागने को तत्पर रहने वाली भी मां ही होती है। मां इस सृष्टि का सबसे सुंदर नाम है। इसका नाम लेते ही सुकून मिलता है, दर्द गायब हो जाता है। इतना कुछ होने के बाद भी मां इतनी बेदर्द क्यों जाती है। सवाल मेरा ही नहीं बल्कि मेरी जैसी कई बेटियों का है, इसलिए न केवल सोचना होगा बल्कि भविष्य में ऐसा कृत्य न करने का संकल्प लेना भी जरूरी है।
तुम्हारी
बदनसीब बिटिया।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 21  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।


Sunday, September 18, 2011

'चमत्कार' की उम्मीद

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शहर की बदहाली से परेशान और ठप व अधूरे कार्यों से हलकान शहरवासियों के लिए यह खबर किसी अजूबे से कम नहीं है। खबर ही ऐसी है कि आमजन का चौंकना भी लाजिमी है। नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के एक आदेश से लोग यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो खुशी मनाएं या अपना सिर पीटें। आदेश यह है कि ग्राम सुराज अभियान की तर्ज पर प्रदेश भर में १८ से २४ दिसम्बर तक शहर सुराज अभियान चलाया जाएगा। इससे पहले अभियान के तहत १९ से ३० सितम्बर तक प्रत्येक वार्ड में जन समस्या निवारण शिविर लगाए जाएंगे। बताया जा रहा है कि इन शिविरों में लोगों से समस्याएं पूछी जाएंगी। इनमें कुछ का निराकरण हाथोहाथ तो शेष समस्याओं का अभियान के दौरान होगा। बुनियादी सुविधाओं को तरसते न्यायधानी के लोगों के यह खबर बेहद महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है कि जिस समस्या को लेकर वे परेशान हैं, उसको जानने तथा निराकरण करने प्रशासनिक अमला उनके वार्ड तक आएगा। लेकिन उनके जेहन में कुछ सवाल भी हैं। मसलन, पीड़ित लोग खुद निगम कार्यालय जाकर समस्या बता रहे हैं। सड़कों के लिए अनशन कर रहे हैं। आंदोलन कर रहे हैं। जाम लगा रहे हैं। अन्नागिरी दिखाते हुए मरम्मत का काम भी खुद ही कर रहे हैं। ज्ञापन दे रहे हैं। इतना कुछ करने के बावजूद उनकी मांगों पर गौर नहीं हो रहा है। समस्याएं यथावत हैं, तो फिर वार्डों में जाकर समस्याएं चिन्हित करने से उनका निराकरण कैसे होगा? अभियान चलाने से क्या फायदा जब वही निगम, वही अमला, वही कर्मचारी और वही अफसर लोगों से दो-चार होंगे, उनकी समस्याएं जानेंगे।
निगम के जिन अधिकारियों एवं कर्मचारियों को शहर की बेबसी एवं बदहाली पर तरस नहीं आ रहा है, क्या गारंटी कि वे अभियान के दौरान कोई चमत्कार दिखा देंगे। इस बात की भी उम्मीद कम ही है कि समस्याओं के निराकरण में किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा। पीड़ितों को अब तक आश्वासनों का लॉलीपॉप देने वाले अधिकारी-कर्मचारी आखिर किस मुंह से उनकी समस्याएं जानेंगे। सियासत के भंवर में फंसे तथा कदम-कदम पर उपेक्षित शहरवासियों की हालत 'भेड़िया आया, भेड़िया आया' वाली कहानी जैसी हो गई है। वादों एवं विकास के नाम पर उनके साथ अक्सर छलावा ही होता रहा है। ऐसे में वे  'राहतभरी' खबर को भी शंका की नजर से देखते हैं।
बहरहाल, इस खुशखबर का दूसरा पहलू भी है। समस्याओं के निराकरण के लिए शहर सुराज अभियान चलाने का निर्णय स्वागत योग्य है। उसकी कार्ययोजना अच्छी है। लेकिन शर्त इतनी सी है कि आम आदमी से जुडे़ इस अभियान में औपचारिकता कतई नहीं हो। राजनीतिक हस्तक्षेप, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या राजनीतिक पूर्वाग्रह जैसी बात भी सामने नहीं आनी चाहिए।  उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस सोच के साथ अभियान की परिकल्पना की गई है, उसी सोच के साथ आम जन के काम भी होंगे। समस्याओं का निराकरण करने में ईमानदारी हो, पारदर्शिता हो तथा किसी प्रकार के भेदभाव की गुंजाइश नहीं हो, तभी ऐसे अभियानों की सार्थकता है, वरना यह भी लोकप्रियता बटोरने के बहाने जैसा ही होगा। कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि जनता कई अभियानों का हश्र पहले भी देख चुकी है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित

Friday, September 16, 2011

अपनी सुरक्षा स्वयं ही करें

टिप्पणी
बिलासपुर में इन दिनों जो घटित हो रहा है, वह किसी भी सूरत में उचित नहीं है। विशेषकर महिलाओं पर अत्याचार से जुड़ी जो खबरें आ रही हैं, वे सुरक्षा व्यवस्था के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। सोमवार को टोनही के शक में एक वृद्धा की सरेराह तलवार से हमला कर हत्या कर दी गई। इसी वारदात के ठीक दो दिन बाद बुधवार को मामूली विवाद को लेकर एक महिला को जलाने का प्रयास किया गया। इस मामले में आरोपियों का दुस्साहस इस कदर बढ़ गया कि उन्होंने तोरवा थाने के सामने ही महिला की पिटार्इ कर दी। इस वारदात में पुलिस की आंख उस वक्त खुली जब मौके पर काफी लोग जमा हो गए। इसी दिन देर रात रेलवे स्टेशन से एक नाबालिग बालिका को न केवल बलपूर्वक अगवा किया गया बल्कि उससे सामूहिक बलात्कार भी किया गया। उसलापुर रेलवे स्टेशन से गायब हुए भाई-बहन की हत्या का मामला भी अभी पहेली बना हुआ है। टोनही के शक में महिला की हत्या तथा अपहरण के बाद किशोरी से सामूहिक बलात्कार के मामले इसलिए गंभीर हैं, क्योंकि जहां पर इन वारदातों को अंजाम दिया गया वे दोनों ही सार्वजनिक स्थान हैं और यहां पर लोगों की आवाजाही लगातार बनी रहती है। तेलीपारा शहर का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है और जिस दिन वृद्ध महिला की हत्या हुई, उस दिन गणेश विसर्जन की झांकियां निकल रही थी। रेलवे स्टेशन की घटना तो जीआरपी एवं आरपीएफ के मुंह पर करारा तमाचा है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती, जिस एम्बुलेंस से बालिका का अपहरण किया गया, वह रेलवे के अस्पताल में ठेके पर चलती है। मामला सामने आने के बाद कार्रवाई के नाम पर रेलवे प्रबंधन ने एम्बुलेंस का ठेका निरस्त जरूर कर दिया लेकिन जिनके भरोसे सुरक्षा का जिम्मा है, उनको बख्श दिया गया। देखा जाए तो रेलवे स्टेशन पर होने वाली तमाम आपराधिक एवं संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखने एवं रोकने की जिम्मेदारी जीआरपी एवं आरपीएफ की ही बनती है। रेल में सफर अब कितना सुरक्षित है, इस बात की पोल भी गाहे-बगाहे होने वाली घटनाएं खोल देती हैं। वैसे भी बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर आपराधिक गतिविधियां होने के आरोप नए नहीं हैं। इस प्रकार के मामलों में अक्सर देखा गया है कि रेलवे प्रबंधन यात्रियों की सुरक्षा से संबंधित स्लोगन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता हैं। मसलन, 'अनजान व्यक्ति का दिया खाना न खाएं', 'जहरखुरानी से बचें ' व 'लावारिस वस्तु होने पर तत्काल सूचित करें' आदि। बेहतर होगा रेलवे प्रबंधन 'यात्री अपने सामान की रक्षा स्वयं करे' जैसे स्लोगन के साथ 'यात्री अपनी सुरक्षा स्वयं करें' भी जारी कर दे, ताकि यात्री सावचेत रहें और रेलवे के सुरक्षा बलों से उम्मीद की 'गलतफहमी ' भी न पालें।
बहरहाल, सावर्जनिक स्थानों पर हुई उक्त वारदातें न केवल सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती हैं बल्कि कानून की पालना करवाने वालों को भी कठघरे में खड़ा करती हैं। कानून के रखवाले अगर जनता की आवाजाही वाले सार्वजनिक स्थानों तथा थानों के आसपास ही अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं कर रहे तो फिर आम आदमी की सुरक्षा की बात करना बेमानी है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 16  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

उदासीनता उचित नहीं

पत्रिका तत्काल
शहर की लोगों की गणेश महोत्सव की खुमारी ठीक से उतरी भी नहीं थी कि सोमवार को दो बड़ी वारदातों से शहर सहम गया। पहली वारदात में लालखदान रेलवे फाटक के पास एक अधेड़ की सरेराह गोली मारकर हत्या कर दी गर्इ जबकि दूसरी वारदात में शहर के व्यस्तम इलाके तेलीपारा में अपने घर के बाहर गणेश विसर्जन की झांकी देख रही एक महिला की तलवार मारकर नृशंस हत्या कर दी गर्इ। दोनों ही वारदातों के पीछे जो कारण सामने आ रहे हैं, उनमें एक प्रमुख कारण पुलिस की उदासीनता भी माना जा रहा है। लालखदान में लम्बे समय से थाने की मांग की जा रही है, क्योंकि यहां बाहरी लोगों की बसावट होने के कारण आपराधिक गतिविधियों की आशंका ज्यादा रहती है। तेलीपारा में महिला की हत्या के बाद पुलिस पर  इस बात को लेकर अंगुली उठार्इ जा रही है कि उसने इस मामले में लगातार मिल रही शिकायतों को नजरअंदाज किया।
बहरहाल, दोनों की मामलों में पुलिस आरोपियों की सरगर्मी से तलाश कर रही है, लेकिन एक ही दिन हुर्इ इन दोनों वारदातों से इतना तो तय है कि पुलिस अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन भली भांति से करती तो शायद दो जिंदगियों को यूं सरेराह शांत नहीं किया जाता। देखा गया है कि रिकॉर्ड दुरुस्त रखने के चक्कर में पुलिस अक्सर छोटी-मोटी घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती और थाने में आने वाले परिवादियों को ऐसे ही टरका दिया जाता है जबकि इन घटनाओं में से ही कुछ कालांतर में बड़े हादसे में तब्दील हो जाती हैं। पुलिस को इस प्रकार की वारदातों को हल्के में कतर्इ नहीं लेना चाहिए। उसे प्रकार की वारदातों से न केवल सबक लेना चाहिए बल्कि चुनौती मानकर काम करना चाहिए। तभी तो वह थानों में आने वाले परिवादियों की भावनाओं को समझ कर उनके साथ न्याय कर पाएगी। पीडि़तों की शिकायतों का  निराकरण समय पर पाएगी। शिकायतों पर शुरुआती दौर में अगर गंभीरता नहीं बरती गई तो अपराधी पुलिस की उदासीनता का फायदा उठाकर आपराधिक वारदातों को इसी प्रकार अंजाम देते रहेंगे।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 13  सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, September 10, 2011

मनमर्जी की आपूर्ति

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इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिस दिन राजधानी  रायपुर में मुख्यमंत्री 'सांची'  दूध के नए ट्रेड मार्क 'देवभोग' का लोकार्पण कर रहे थे, उस दिन न्यायधानी बिलासपुर में दूध का वितरण ही नहीं हुआ। यह कोई एक दिन की कहानी नहीं है। बिलासपुर के साथ ऐसा अक्सर होता है। जब जी में आए रायपुर से दूध की आपूर्ति बिना किसी पूर्व सूचना के रोक दी जाती है। मजबूरी में उपभोक्ताओं को ज्यादा कीमत पर ऐसा दूध खरीदना पड़ रहा है, जिसकी शुद्धता की भी कोई गारंटी नहीं है। रायपुर सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड के अधिकारियों की इस 'मनमर्जी' के कारण उपभोक्ताओं का दोहरा नुकसान उठाना पड़ रहा है। सोचनीय विषय तो यह है कि समस्या लम्बे समय से निरंतर बनी हुई है लेकिन रायपुर एवं बिलासपुर के अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। एक अनुमान के मुताबिक सामान्य दिनों में बिलासपुर में साठ हजार लीटर दूध की मांग प्रतिदिन है लेकिन रायपुर दुग्ध उत्पादक संघ से मात्र 15 हजार लीटर दूध ही आता है, इसमें से भी चार हजार लीटर दूधर कोरबा चला जाता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है संघ मांग का 25 फीसदी दूध ही वितरण बड़ी मुश्किल से कर पा रहा है। संघ की स्थानीय शाखा को एक हजार लीटर जिले से एकत्रित करने का लक्ष्य है लेकिन आंकड़ा तीन सौ-चार सौ लीटर से आगे नहीं बढ़ पाता है। त्योहारों में दूध की मांग और भी बढ़ जाती है। ऐसे में निजी क्षेत्र के लोग न केवल जमकर चांदी कूटते हैं बल्कि उपभोक्ताओं को गुणवत्ता से परिपूर्ण दूध भी मुहैया नहीं करवाते।
देखा जाए तो राज्य में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए कभी गंभीरता से प्रयास हुए ही नहीं हैं। दूध की किल्लत खत्म करने तथा दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए अब भले ही नए सिरे से कवायद की जा रही हो लेकिन पूर्व में भी दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए चलाई गई योजनाएं भी उपभोक्ताओं को लाभान्वित किए बिना ही दम तोड़ गईं। पूर्व में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के नाम पर ऐसे 'किसानों' को ऋण बांट दिया जो राजनेताओं या नौकरशाहों के करीबी थे। मतलब साफ है, ऋण पाने वालों में कई किसान ही नहीं थे। ऐसे में दुग्ध उत्पादन कैसे बढ़ता तथा योजना का हश्र क्या होता, सहज की कल्पना की जा सकती है। लापरवाही एवं  अंधेरगर्दी की इससे बड़ी हद और क्या होगी कि बिलासपुर जिले में चालू की गई समितियों में से वर्तमान में इक्का-दुक्का ही संचालित हैं। इससे भी गंभीर बात तो यह है कि बिलासपुर दुग्ध केन्द्र में लाखों रुपए के उपकरण महज इसलिए धूल फांक रहे हैं कि उनकी क्षमता के मुताबिक दूध एकत्रित नहीं हो पा रहा है।
बहरहाल, दूध का ट्रेड मार्क बदलने से उसकी किल्लत मिटने वाली नहीं है। आम आदमी से जुड़े इस मसले में जब तक ठोस कार्रवाई नहीं होगी तब तक यह खेल यूं ही चलता रहेगा। सबसे जरूरी बात है कि पुरानी भूलों एवं गलतियों में सुधार हो। लम्बे समय से संघ में जमे बैठे अकर्मण्य अधिकारियों-कर्मचारियों को न केवल इधर-उधर किया जाए बल्कि उन पर पूर्ण नियंत्रण भी हो। योजनाएं बनाने से पूर्व उनकी क्रियान्विति कैसी होगी, इस पर विचार करना भी निहायत जरूरी है, क्योंकि पूर्व की योजनाओं में   इस बात की कतई पालना नहीं हुई। अगर सरकार एवं संघ गंभीर हैं तो उपभोक्ताओं को मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति करने का हल तत्काल खोजें अन्यथा  बिलासपुर को मिल्क हब बनाने का सपना, सपना ही रह जाएगा।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 10 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Friday, September 9, 2011

'अ' से अरपा और आमजन

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एक अरसे बाद अरपा को अनूप (जल से परिपूर्ण) देख लोग उत्साहित हैं। मामला आस्था व अकीदत से जुड़ा है, लिहाजा लोगों को अरपा से खासा अनुराग भी है। तभी तो इस अनूठे व अनोखे अवसर को देख लोग बेहद रोमांचित हैं। वैसे भी पूर्ण आवेग से बहती अरपा का आकर्षक नजारा किसी अजूबे से कम नहीं है। उसकी उफनती अतुलनीय व अद्वितीय अदाओं व आश्चर्यजनक अंदाजों को कैमरे में कैद करने की होड़ सी लगी है, गोया अक्कासी (फोटोग्राफी) की कोई प्रतियोगिता हो। मोबाइल लिए सैकड़ों अक्कास (फोटोग्राफर) अकस्मात ही पैदा हो गए हैं। शनिचरी रपटे का नजारा तो किसी उत्सव से कम नहीं। अपार हर्ष से लबरेज लोग बड़ी शिद्‌दत के साथ अरपा के साथ आनंद मना रहे हैं, झूम रहे हैं। कुछ अति उत्साही तो खुशियों के अतिरेक में अमान (सुरक्षा) को भी दरकिनार कर रहे हैं। अरपा की इस अंगड़ाई को आमजन अचरज से निहार रहा है लेकिन उसके आवेश एवं आक्रोश से अनजान बना है। लम्बे अंतराल के बाद उदासी का लबादा उतार कर उफनी अरपा आम लोगों के लिए नया अनुभव हो सकती है लेकिन जान की कीमत पर कतई नहीं।
क्योंकि जीवन अनमोल है। उत्साह में अक्लमंदी जरूरी है। प्रशासन की मुनादी की अवहेलना नहीं उस पर अमल आवश्यक है। अफवाहों से सावधान एवं सावचेत रहना भी जरूरी है। पता नहीं अति उत्साह में  कब कोई आपका अजीज इस अवाम से अलविदा हो जाए और आपकी आंखों में अश्क व लबों पर अफसोस के अलावा कुछ नहीं रहे।
इन सब के अलावा अरपा का दूसरा रूप भी है। अतिवृष्टि के चलते अंतः सलीला की अतुराई (चंचलता) से लोग भले ही उत्साहित हों लेकिन इससे अब अपकार (अहित) ज्यादा हो रहा है। इसका रौद्र रूप देखकर लोग अनहोनी और अमंगल की आशंका में अधीर हो चले हैं। अरपा किनारे आबाद कई आशियानों का तो अस्तित्व ही गायब हो गया है। गाढ़ी कमाई से तैयार किए गए आशियानों को छोड़कर अन्यत्र जाने में लोग असहज महसूस कर रहे हैं, उनको असुविधा हो रही है, लेकिन सवाल जिंदगी का है। अरपा से आहत अधिकतर लोगों पर प्रशासनिक अमले की अनुकम्पा तो बनी हुई है लेकिन लोग इससे असंतुष्ट दिखाई देते हैं। राहत के नाम पर किए गए प्रबंध नाकाफी हैं। उनमें अव्यवस्था होने से लोगों में असंतोष है। बहरहाल, आसमान के नीचे आए लोगों को नीड़ के फिर से निर्माण के लिए अनकूल मौसम का इंतजार है। ...और आर्थिक मदद का भी।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 9 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, September 8, 2011

दूरदर्शिता का अभाव

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तीन साल पहले जिस उद्‌देश्य के साथ शहर में ऑडिटोरियम का निर्माण शुरू हुआ था, वह अभी तक अधूरा ही है। इस ऑडिटोरियम को दो साल में बनकर तैयार तैयार होना था लेकिन यह शुरुआती दौर में ही विवादों में घिर गया। अभी तक इसका बेसमेंट पार्किंग का काम ही हो सका है जबकि इस ऑडिटोरियम में बेसमेंट में कार और भूतल पर दो पहिया वाहनों के पार्किंग का निर्माण किया जाना है। इसके अलावा ऊपरी तल पर ऑडिटोरियम तथा ओपन थियेटर का निर्माण भी प्रस्तावित है। वर्तमान में ऑडिटोरियम का निर्माण कार्य बंद है, क्योंकि इसकी ड्राइंग डिजाइन पर आपत्ति उठने के बाद उसे  निरस्त कर दिया गया। नगर निगम प्रशासन फिलहाल नई डिजाइन का इंतजार कर रहा है। जैसे ही नई डिजाइन आएगी कार्य फिर से शुरू होगा।
ऑडिटोरियम निर्माण पर महापौर भी सवाल उठा चुकी हैं। उन्होंने बाकायदा सदन में आरोप लगाया था कि ऑडिटोरियम का निर्माण गलत तरीके से हो रहा है तथा इससे कभी भी जनहानि हो सकती है। इधर, निगम के अधिकारी महापौर के आरोपों में दम नहीं बता रहे हैं। भले ही निगम के अधिकारी कुछ भी कहें लेकिन ऑडिटोरियम को लेकर जो हालात उपजे हैं, उससे अनियमितता की आशंका बलवती को उठी है। इन बातों से इतना तो तय है कि ऑडिटोरियम के निर्माण कार्य को निगम अधिकारियों ने गंभीरता से नहीं लिया। साथ ही कई ऐसे सवाल भी उठ खड़े हुए हैं, जिनसे निगम की भूमिका संदिग्ध दिखाई दे रही है। मसलन, आम लोगों को भवन निर्माण के दौरान नियम-कायदों की औपचारिकता में अटका देने वाले निगम अधिकारियों ने इस काम की कार्ययोजना पहले से तैयार क्यों नहीं की? जिस डिजाइन पर हंगामा बरपा है, उसको तैयार करने में गंभीरता क्यों नहीं बरती गई? ऑडिटोरियम बनने की निर्धारित समयावधि की पालना क्यों नहीं की गई? सहित ऐसे कई सवाल हैं, जो निगम अधिकारियों  को कठघरे में खड़ा करते हैं। जाहिर सी बात है कि निर्धारित समयावधि गुजर जाने के कारण ऑडिटोरियम के लिए प्रस्तावित लागत सात करोड़ 80 लाख 58 हजार में भी वृद्धि होगी।
बहरहाल, इस समूचे मामले से इतना तो तय है कि अनुभवहीन एवं अदूरदर्शी अधिकारियों के  हाथों में अगर इसी प्रकार बड़ी जिम्मेदारी दी जाती रही तो योजनाओं का हश्र ऐसा ही होगा। निगम के उच्च अधिकारी अगर बड़े प्रोजेक्ट की कार्ययोजना तैयार करवाने में किसी अनुभवी एवं दूददर्शी अधिकारी को तरजीह दें तो निसंदेह उसके परिणाम भी आशातीत आएंगे। इतना ही नहीं योजनाओं में गंभीरता न बरतने वाले तथा अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय लेने वाले अधिकारियों से अतिरिक्त खर्च होने वाली राशि वसूलने का प्रावधान भी हो ताकि कोई ऐसी हिमाकत ही नहीं करे।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 8 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Friday, September 2, 2011

बेतुका निर्णय

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स्कूल शिक्षा विभाग ने एमएड एवं बीएड छात्रों की  फीस के संबंध में  संशोधित आदेश जारी किया है। संशोधित आदेश के अनुसार अब छात्रों को फीस की धनराशि में कम से कम एक हजार रुपए की राहत प्रदान की गई है साथ ही फीस जमा करने में देरी होने पर 25 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से वसूले जाने वाले विलम्ब शुल्क को भी वापस ले लिया है।  21 जुलाई को फीस तय करने के बाद अब 27 अगस्त को उसमें संशोधित करना यह दर्शाता है कि विभाग के नीति नियंता आंखें मूंदकर ही नियम बना रहे हैं।  संशोधित नियम में पुरानी भूलों एवं गलतियों को कुछ हद तक दुरुस्त करने का प्रयास तो किया गया है लेकिन उनसे सबक नहीं लिया गया है। जो काम सत्र के शुरुआत में हो जाना चाहिए था, वह देरी से हो रहा है। एक माह से अधिक समय बीतने के बाद विभाग का संशोधित  निर्णय जारी करना सांप गुजरने के बाद लाठी पीटने के समान ही है। फीस के मामले में किया गया संशोधन न केवल अव्यवहारिक है बल्कि बेतुका भी है।
संशोधन जारी करने के पीछे विभाग की क्या मंशा रही यह तो विभाग जाने लेकिन इससे छात्रों को किसी प्रकार की राहत नहीं मिलने वाली। बीएड के छात्रों की प्रथम सूची 12 अगस्त को जारी हुई थी तथा 18 अगस्त तक प्रवेश हुए। दूसरी सूची भी 25 अगस्त को जारी हुई तथा इसमें प्रवेश शुक्रवार तक होने हैं। जाहिर है  इस अवधि में प्रथम सूची के सभी छात्रों ने  फीस जमा करवा दी है जबकि दूसरी सूची के भी अधिकतर छात्र फीस जमा करवा चुके हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो छात्र 12 से 27 अगस्त के बीच अतिरिक्त फीस जमा करवा चुके हैं, उनको राहत कैसे मिलेगी। उनसे वसूली गई फीस वापस कैसे होगी। इसी प्रकार का गड़बड़झाला पिछले सत्र में भी हुआ हो चुका था। वह मामला भी अभी तक सुलझ नहीं पाया है। विभाग ने अधिक वसूली गई राशि के लिए संबंधित कॉलेजों को दिशा-निर्देश जारी कर अपनी औपचारिकता पूरी कर ली, लेकिन छात्रों को राशि नहीं मिली। राशि के लिए छात्र, कॉलेज एवं विभाग के बीच फुटबाल बने हुए हैं। उनको ज्ञापन, धरना व प्रदर्शन जैसे उपक्रम भी करने पड़ रहे हैं।
बहरहाल, लगातार दूसरे सत्र में इसी प्रकार की गफलत से यह तो तय है कि विभाग ने पुरानी गलतियों से कोई सबक नहीं लिया है। साथ ही विभाग की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। संशोधित निर्णय जारी करते समय अधिक वसूली गई फीस को वापस करने का रास्ता दिखाया जाता तो बेहतर होता, क्योंकि इस निर्णय से छात्रों को राहत कम उनकी मुश्किलें ज्यादा बढ़ने वाली हैं। उम्मीद की जानी चाहिए लगातार दो सत्रों से दोहराई जा रही गलती फिर नहीं होगी। साथ ही फीस वापस लौटाने का रास्ता भी विभाग को निकालना होगा, क्योंकि इसमें छात्रों की तो कोई गलती है नहीं।  अगर कॉलेज, विभाग के दिशा-निर्देश नहीं मानते हैं तो उन पर भी कड़ी कार्रवाई की जाए।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 2 सितम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Wednesday, August 31, 2011

कब टूटेगी कुंभकर्णी नींद

टिप्पणी
सरकारी विभाग दिशा निर्देश जारी करने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी उनके पालन करवाने में नहीं। बिलासपुर के एक स्कूल पर आकाशीय बिजली गिरने के बाद विभाग ने सभी शासकीय एवं अशासकीय स्कूलों में तडि़त चालक लगाने के निर्देश जारी किए थे। उदासीनता की इससे ज्यादा इंतहा और क्या होगी कि इन निर्देशों को जारी किए दस साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन स्कूलों में तड़ित चालक नहीं लग पाए हैं। इससे विभाग की कार्यकुशलता का भी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लगातार दस साल तक बारिश के मौसम में नौनिहाल मौत के साये में भयभीत होकर अध्ययन करते रहे लेकिन विभाग की कुंभकर्णी नींद नहीं टूटी। वैसे भी छत्तीसगढ़ राज्य में दूसरे राज्यों के मुकाबले आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएं ज्यादा होती हैं। बारिश के मौसम में तो अमूनन रोजाना ही कहीं न कहीं से बिजली गिरने तथा उससे जनहानि होने की खबरें आती रहती हैं। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो यहां पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण बादल गरजने तथा बिजली गिरने की घटनाएं ज्यादा होती हैं।
मामला गंभीर इसलिए भी है क्योंकि बिलासपुर जिले में 22 सौ प्राथमिक शिक्षा केन्द्र, छह सौ मिडिल स्कूल, सौ से ऊपर  हायर सैकण्डरी स्कूल तथा दो सौ के करीब हाई स्कूल हैं। इस प्रकार जिले में तीन हजार से ऊपर स्कूल हैं।  इनमें अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या तो हजारों में है। सन 2001 में बर्जेश स्कूल भवन पर आकाशीय बिजली गिरने तथा उसमें एक छात्रा के हताहत होने के बाद जिला शिक्षा विभाग ने सभी स्कूलों में तड़िल चालक लगाने के निर्देश जारी किए थे। साथ में निर्देशों के पालन न करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की बात भी कही गई थी। निर्देशों के बाद कई अशासकीय स्कूल संचालकों ने मामले की गंभीरता को देखते हुए अपने यहां तड़ित चालक लगवा लिए लेकिन शासकीय स्कूलों का मामला अटक गया। दस साल से अधिक समय गुजरने के बाद तड़ित चालक तो दूर एक भी व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है, हालांकि विभाग के आला अधिकारी इस बात को स्वीकर करते हैं कि इस मामले में लापरवाही बरती गई है।
बहरहाल, शिक्षा विभाग के अधिकारी इस मामले में नए सिरे से जानकारी जुटा कर कडे़ निर्देश जारी करने तथा व्यवस्था में जल्द सुधार करने की बात कह रहे हैं। विभाग अगर इस मामले में वाकई गंभीर है तो उसे निर्देश का पालन तत्काल करवाना चाहिए। निर्देश के पालन में आई रुकावटों को दूर करने की दिशा में भी काम होना चाहिए। साथ ही इतना लम्बा समय गुजरने के बाद भी निर्देश लागू क्यों नहीं हो पाए, इसके कारणों की पड़ताल करना भी जरूरी है। उम्मीद की जानी चाहिए शिक्षा विभाग नोटिस देने जैसी औपचारिकता से आगे बढ़कर मामले की गंभीरता को देखते एवं समझते हुए कार्रवाई करेगा।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 31 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, August 30, 2011

सद्‌भाव की सरिता

टिप्पणी
न्याय की नगरी बिलासपुर अपने आप में कई विशेषताओं को समेटे हुए है। शहर में विभिन्न संस्कृतियों का समागम तो है ही यहां का साम्प्रदायिक सद्‌भाव भी गजब का है। गंगा-जमुनी संस्कृति के संवाहक यहां के लोग इतने संजीदा एवं जिंदादिल हैं कि सम्प्रदाय विशेष की मानसिकता से ऊपर उठकर सामूहिक रूप से त्योहार मनाते हैं। तभी तो यहां के सद्‌भाव की अक्सर मिसाल दी जाती है। यह यहां के सद्‌भाव एवं कौमी एकता का ही कमाल है कि जो यहां एक बार आया तो फिर यहीं का होकर रह गया। वैसे तो बिलासपुर में साल भर विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों के दर्शन वहां के स्थानीय पर्वों के रूप में होते रहते हैं, लेकिन इस बार एक सुखद संयोग भी जुड़ा है। संयोग यह है कि ईद व गणेश चतुर्थी  एक दूसरे केआगे-पीछे ही आ रहे हैं। वैसे माना जा रहा है कि 30 अगस्त को चांद दिखा तो ईद  31 अगस्त को और नहीं दिखा तो फिर एक सितम्बर को मनेगी। अगर ईद एक को हुई तो दोनों त्योहार एक ही दिन भी मनाए जा सकते हैं। ऐसे में शहर के साम्प्रदायिक सद्‌भाव में एक अध्याय और जुड़ जाएगा।
दोनों त्योहारों की अहमियत इसलिए भी है, क्योंकि इनमें न केवल दोनों संस्कृतियों के रंग मिलते हैं बल्कि 'राम' और 'रहमान' की सहभागिता भी बराबर रहती है। पुलिस लाइन में मनाया जान वाला गणेश उत्सव तो अपने आप में ही अनूठा है। सुनकर खुशी मिश्रित आश्चर्य होता है कि यहां कि गणेशोत्सव समिति में जमुनी तहजीब के डेढ़ दर्जन लोग सरंक्षक से लेकर कार्यकर्ता की भूमिका में है। शहर के अन्य कई गणेशोत्सव में इसी प्रकार की सहभागिता दिखाई देती है। खास बात यह है शहर में यह परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है। इससे भी बड़ी बात तो यह है कि कई सियासी उलटफेर एवं साम्प्रदायिक झंझावत भी शहर की इस साझी विरासत का बाल तक बांका नहीं कर पाए। विषम परिस्थितियों में भी यहां के लोग एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े नजर आए। समय के साथ कदमताल करती शहर की यह साझा विरासत दिन दूनी रात चौगुनी और भी मजबूत व प्रगाढ़ हो रही है। सद्‌भाव व एकता का जज्बा यहां के जर्रे-जर्रे में है। शायद यहां के पानी की तासीर ही ऐसी है। तभी तो यहां इस प्रकार के सद्‌भाव की सरिता बहती है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 30 अगस्त11 के अंक में प्रकाशित।

Monday, August 29, 2011

अन्नागिरी और बिलासपुर

टिप्पणी
बारह दिन तक चली 'जनतंत्र की जंग' के बाद मिली 'जीत' का जश्न मनाने के लिए शायद इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका हो भी नहीं सकता था। यह एक तरह की 'खुशियों की बारात' थी, जिसमें शामिल हर आम और खास के चेहरे पर विजयी मुस्कान साफ-साफ जाहिर हो रही थी। खुशी के मारे हर 'बाराती' झूम रहा था, गा रहा था। उत्साह एवं उमंग से लबरेज उसके जोश में शर्म-संकोच की तो जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं थी। 'आजादी की दूसरी लड़ाई' में संकल्प एवं साहस की 'फतह' के उपलक्ष्य में निकली यह 'बारात' न केवल अनूठी रही बल्कि कई अर्थों में अलग भी नजर आर्इ। इसमें हर वर्ग की भागीदारी रही। लोग इस 'बारात' में शामिल होते गए और समय के साथ बधाई दर बधाई की फेहरस्ति लम्बी होती गई। मिठाई बंटी। हवन हुए। इतना ही नहीं खुशी के गुलाल व उल्लास के अबीर के बीच हुई आतिशबाजी और गले मिलकर दी गई मुबारकबाद ने होली-दीवाली व ईद के माहौल को साकार कर दिया। तभी तो 'जनतंत्र की जीत' का यह उल्लास किसी उत्सव से कम नजर नहीं आया। तीनों त्योहारों की झलक के इस ऐतिहासिक संगम के साक्षी शहर के सैकड़ों लोग बने। इस आकर्षक नजारे के बीच हुई रिमझिम बारिश ने तो सोने पर सुहागे जैसा काम किया। ऐसा लगा मानो बारिश भी 'जनतंत्र की जंग' में शामिल 'दीवानों' का खैरमकदम करने को आतुर थी। तभी तो जश्न का यह दौर जैसे ही थमा आसमान से बादल भी छंट गए।
दरअसल, मामला 'आजादी की दूसरी लड़ाई' से बावस्ता था, लिहाजा, इसमें देशभक्ति के सभी रंग होना लाजिमी थे। 'आजादी के दीवाने' खुशी में झूमते-गाते इस कदर शंखनाद कर रहे थे गोया उनको मुंह मांगी मुराद मिल गई हो। कई आंदोलनों का गवाह रहा बिलासपुर का नेहरू चौक तो देशभक्ति की इस अद्‌भुत सरिता को देख धन्य हो गया।
बहरहाल, जनतंत्र के इस अनूठे अनुष्ठान की 'पूर्णाहुति' सुखद रही। यह बात दीगर है कि 'आजादी के दीवाने' लगातार बारह दिन तक अनुशासन की अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे लेकिन आखिरी एवं निर्णायक दिन उनके जोश के आगे अनुशासन कुछ बौना नजर आया और अन्ना के आह्वान की अवहेलना होती दिखाई दी। खैर, भ्रष्टाचार के विरोध में प्रज्वलित हुई उम्मीद की यह लौ कालांतर में प्रचंड अग्नि में तब्दील होकर 'अन्ना की अधूरी जीत' को पूरी जीत में परिवर्तित करने का मार्ग प्रशस्त करेगी। बिलासपुर जैसे शहर में तो इस लौ का निरंतर जलते रहना निहायत ही जरूरी है। यह काम चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन न्यायधानी में 'आजादी के दीवानों' का हौसला एवं जोश देखते हुए मुश्किल तो बिलकुल भी नहीं।
साभार  : पत्रिका बिलासपुर के 29 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित

अन्नागिरी के अनूठे व अनोखे अंदाज

बिलासपुर. जन लोकपाल के मुद्‌दे पर अनशन कर रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन करने वालों का कारवां दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। वैसे तो गांधी टोपी तथा तिरंगा झण्डा इस आंदोलन की पहचान बन चुके हैं, लेकिन इनके अलावा और भी कई तरीके हैं, जो लोगों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच रहे हैं। बीते दस दिनों में आंदोलन के एक से बढक़र एक कई ऐसे अहिंसक तरीके सामने आए हैं, जो आज तक शायद ही किसी आंदोलन के हिस्से बने हैं। इन सभी तरीकों में एक खास बात यह भी है कि इनमें गंभीरता के साथ मनोरंजन का तड़का भी है। आंदोलन के संबंध में गढे गए नारों तथा वंदेमातरम व भारत माता के जयकारों ने न केवल लोगों में देशभक्ति की भावना भर दी है बल्कि उनको एकजुट करने में भी प्रमुख भूमिका निभाई है।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत जो देखने में आ रही है, वह है अनुशासन। धरनास्थल पर सुरक्षा के लिहाज से शायद ही कोई पुलिस वाला दिखाई देगा। कई तरह की गतिविधियों के बावजूद अनुशासन भी गजब का है। सभी लोग अनुशासित सिपाही की तरह अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन बखूबी कर रहे हैं। धरने से संबंधित तमाम व्यवस्थाओं की कमान युवाओं ने संभाल रखी है। धरनास्थल पर मौजूद लोगों को पानी पिलाने से लेकर यातायात बाधित न हो इसका भी विशेष ध्यान रखा जा रहा है। हर वर्ग का समर्थन तथा उनका विरोध करने का तरीका अलहदा होने के कारण भी यह आंदोलन अनूठा बन पड़ा है।  आंदोलन में किन्नरों से लेकर कुलियों तक की सहभागिता भी  अनोखी है।
ये हैं तरीके
धरना, अनशन, मोटरसाइकिल रैली, शांति मार्च, मशाल जुलूस, केडिंल मार्च, ऑटो रैली, पोस्टकार्ड अभियान, हस्ताक्षर अभियान, घण्टा रैली, काली पट्‌टी बांधकर काम, दीप प्रज्वलित करना, सद्‌बुद्धि यज्ञ, हवन, हनुमान चालीसा के पाठ, स्टीकर अभियान, पम्पलेट का वितरण, नाचते गाते जुलूस, भ्रष्टाचार की मटकी फोड़ना, भजन-कीर्तन, देशभक्ति गीत, चुटकुले, शेरो शायरी एवं कविता पाठ, मंदिरों में अन्ना की सलामती की दुआ, सांसदों के निवास पर प्रदर्शन, मानव श्रृंखला, शैक्षणिक बंद, नारेबाजी आदि।
साभार  : पत्रिका बिलासपुर के 26 अगस्त 11के अंक में प्रकाशित

Sunday, August 28, 2011

न्यायिक जांच हो

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बिलासपुर बीएसएनएल महाप्रबंधक कार्यालय में लगे अग्निशमन यंत्र लम्बे समय से शोपीस बने हुए हैं। इन यंत्रों को रिफिल करने की निर्धारित अवधि को गुजरे पांच साल से ज्यादा समय हो चुका है। कार्यालय भवन में लगे फायर अलार्म की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। सुरक्षा के लिहाज से कार्यालय भवन में लगाए गए अन्य उपकरण भी देखरेख के अभाव में धूल फांक रहे हैं। ऐसे में कार्यालय में अगर आगजनी जैसी कोई अनहोनी हो जाए तो सुरक्षा फिर रामभरोसे ही है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीएसएनएल अधिकारी-कर्मचारी जब खुद के कार्यालय या यूं कहें कि खुद की सुरक्षा के प्रति ही गंभीर नहीं है तो उस कंपनी की सेवा फिर कैसी होगी। उसके उपभोक्ता किस हाल में होंगे। इतना समय गुजरने के बाद  उपकरणों के संबंध में ध्यान दिलाने पर बीएसएसएल के आला अधिकारियों के बयान बेहद ही हास्यास्पद हैं। बड़े अधिकारी यंत्रों के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने की कह रहे हैं तो उनके अधीनस्थ अधिकारी को अभी तक पूरी जानकारी ही नहीं है। वे जानकारी जुटाकर यंत्रों का नवीनीकरण करवाने की बोल रही हैं।
खैर, यंत्रों की उपेक्षा तथा अधिकारियों के बयान से इतना तो तय है कि कार्यालय की सुरक्षा को लेकर कोई भी गंभीर नहीं हैं। गनीमत तो यह है कि अब तक कोई अनहोनी नहीं हुई। दबे स्वर में तो यह भी सुनने को मिल रहा है कि बीएसएनल के आला अधिकारियों एवं कर्मचारियों में समन्वय तक नहीं है। जाहिर है जब समन्वय ही नहीं होगा तो फिर कामकाज की गति क्या होगी, सोचा जा सकता है। तीन मंजिला बीएसएनएल भवन में कर्मचारी बिना मुंह खोले, जान हथेली पर रखकर अगर काम रहे हैं तो, इसके पीछे के अंकगणित को भी आसानी से समझा जा सकता है। जरूर कहीं न कहीं कोई दबाव या डर है, जो कर्मचारियों को मुंह खोलने से रोक रहा है।
बहरहाल, पांच साल से अधिक समय से सुरक्षा संबंधी उपकरणों की उपेक्षा या अनदेखी सरासर लापरवाही की श्रेणी में आती है। ऐसा हो नहीं सकता कि अधिकारियों एवं कर्मचारियों को इस मामले की जानकारी नहीं हो। जिनके जिम्मे  इन सुरक्षा उपकरणों की सारसंभाल की जिम्मेदारी है, वे पांच साल से क्या  कर रहे थे। उम्मीद की जानी चाहिए बीएसएनएल प्रबंधन इस लापरवाही को दूर करने के लिए आवश्यक एवं कारगर कदम उठाएगा। बस शर्त इतनी है कि मामला गंभीर है, लिहाजा इसकी जांच में लेटलतीफी नहीं होनी चाहिए। जांच भी ऐसी-वैसी नहीं बल्कि न्यायिक हो, तभी दूध का दूध और पानी का पानी होगा।

साभार-पत्रिका बिलासपुर के 28 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित

Saturday, August 20, 2011

कायम रहे यह जज्बा

टिप्पणी
सियासत के भंवर में उलझे, विकास कार्यों में उपेक्षित तथा कदम-कदम पर भ्रष्टाचार का दंश झेलने वाले बिलासपुर में लम्बे समय से चुप्पी साधकर बैठे लोगों का सामाजिक कार्यकर्ता  अन्ना हजारे के समर्थन में सड़कों पर उतरना न केवल काबिलेगौर है बल्कि एक सुखद एहसास की तरह भी है। हजारे के बहाने से ही सही शहर के लोगों को एकजुट होने का मंच तो मिला है। शासन-प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों से नाउम्मीद हो चुके शहरवासियों की एकजुटता से अब कुछ तो उम्मीद बंधी है। यह कहना अभी जल्दबाजी है लेकिन उनकी इस एकजुटता में उज्ज्वल भविष्य का अक्स भी दिखाई देने लगा है। वैसे तो देशभर में अन्ना का समर्थन करने वालों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है लेकिन बिलासपुर में इसके अर्थ दूसरे हैं। यहां के लोगों में आक्रोश है, लोग गुस्से में हैं, उनमें कुछ कर गुजरने का जज्बा है, तो मान लेना चाहिए कि इन सब के पीछे अन्ना के अलावा और भी कई ठोस कारण हैं। विकास की मुख्यधारा से कटकर बदहाली के कगार पर पहुंच चुके शहर का दर्द भी लोगों को लम्बे समय से अंदर ही अंदर कचोट रहा है। व्यवस्था के प्रति गुस्सा सभी के मन में है लेकिन वह बाहर आने का बहाना ढूंढ रहा था। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। अब हालत यह है कि शहर का हर आम से लेकर खास तक, जाति, धर्म एवं पार्टी से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा है। इसमें लेशमात्र भी राजनीति दिखाई नहीं दे रही है।
शहरवासियों के मौजूदा जोश, जुनून एवं जज्बे को देखकर कहीं से भी नहीं लगता है कि यह वही लोग हैं, जो कल तक खामोश थे। शहर के प्रति उनका क्या सरोकार है? जिम्मेदार नागरिक होने की वजह से वे शहर के लिए क्या कर सकते हैं? जैसी सामान्य बातों का अर्थ भी वे लगभग बिसरा चुके थे। तभी तो जिसके जैसे मन में आया, उसने शहर को बदहाली के कगार तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब ऐसा लगता है कि रेल जोनल कार्यालय के आंदोलन के बाद शांत, सुस्त एवं उदासीन बैठे लोग अन्ना के बहाने यकायक पुनर्जीवित हो उठे हैं। उनको जीने का मकसद मिल गया है। जाहिर है जनता जनार्दन की एकजुटता एवं जागरुकता से उन सब नेताओं एवं नौकरशाहों को अब अपना सिंहासन हिलता हुआ नजर आ रहा है, जो अब तक जनता की उदासीनता की फायदा उठाते आए हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि सिंहासन को खतरे में जान कर जनता व विकास से दूरी बनाए रखने वाले अब उनको गले भी लगा लें।
बहरहाल, बिलासपुर में भ्रष्टाचार की लड़ाई के मायने कई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए अन्ना के एक आह्वान पर एकजुट होने वाले न्यायधानी के लोग शहर के विकास में सियायत करने तथा शहर की उपेक्षा करने वालों के खिलाफ भी प्रभावी तरीके से आवाज बुलंद करेंगे। जरूरत है तो बस मौजूदा जज्बे को कायम रखने की।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 20 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित।