टिप्पणी
याद है दिल्ली में दरिंदगी की शिकार हुई 'दामिनी' के प्रति संवेदना जताने
के लिए किस कदर होड़ मची थी हम सब में। कोई मोमबत्ती जला रहा था तो कोई
जज्बाती स्लोगन लिख रहा था। हम सब अपने-अपने हिसाब से आरोपियों के खिलाफ आग
उगल रहे थे। कोई उनके लिए उम्रकैद तो कोई फांसी तक मांग रहा था। और भी पता
नहीं कितनी ही तरह की सजा देने की मांग भी उठी थी। इन सब के बीच पुलिस
कार्रवाई पर भी कई तरह के सवाल उठाए गए थे। याद कीजिए, यह सब करने वाले भी
तो आप और हम ही लोग थे। और आज न तो हम शर्मिन्दा हैं और ना ही शोकाकुल।
संवेदनाओं का सैलाब भी लगता है सूख गया है। पीडि़ता की मदद के लिए कोई पहल
तो दूर प्रार्थना तक नहीं हैं। बात-बात पर प्रतिक्रिया जाहिर करने और केंडल
मार्च निकालने वाले तो पता नहीं कहां भूमिगत हो गए। कथित नारीवादी
एवं स्वयंसेवी संगठनों की चुप्पी भी चौंकाने वाली है। मात्र नौ माह के बाद
जागरूक एवं शिक्षित लोगों का व्यवहार इतना बदला हुआ सा क्यों है? पता
नहीं, आज हम गुस्से से क्यों नहीं उबल रहे? क्या अब यह किसी की अस्मिता का
सवाल नहीं रहा? क्या भिलाई की युवती किसी की बेटी या बहन नहीं? क्या भिलाई
की 'दामिनी' का दर्द दिल्ली की 'दामिनी' जैसा नहीं? जब हम दिल्ली की
'दामिनी' का 'दर्द' महसूस कर सकते हैं तो अपनी 'दामिनी' के लिए क्यों नहीं?
सवाल तो बहुत सारे हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि भिलाई के पावर हाउस
रेलवे स्टेशन के पास दरिंदगी की शिकार हुई युवती के समर्थन में
इक्का-दुक्का संगठनों को छोड़कर कोई कारगर व सार्थक आवाज उठती दिखाई नहीं
दे रही। सब के सब चुप हैं। यह दोहरा चरित्र नहीं तो क्या है। और सरासर
भेदभाव भी।
वैसे भी इस मामले में भेदभाव तो कदम-कदम पर दिखाई दे रहा है। पुलिस की जांच तो वैसे ही संदेह के घेरे में है। भिलाई-दुर्ग पुलिस के प्रति शक की सुई तो उसी वक्त घूम गई थी जब उसने सामूहिक अनाचार के आरोपियों को मात्र कुछ ही घंटों के भीतर पकडऩे का दावा तक कर दिया। और उसके बाद जो हुआ वह गले उतरने वाला तो कतई नहीं है। बिल्कुल अविश्वसनीय सा काम। बिना शिनाख्त परेड करवाए आरोपी पकड़ कर न्यायालय में पेश भी कर दिए लेकिन पुलिस उनके नाम बताने से पता नहीं क्यों एवं क्या सोच कर परहेज करती रही। इससे भी दुखद तो यह है कि दिल्ली के 'दामिनी' प्रकरण में पुलिस भूमिका पर सवाल उठानेवाले तथा उसको कोसने वाले लोग अब खामोश हैं। उनकी यह चुप्पी हर लिहाज से खतरनाक है। चाहे वह सामूहिक अनाचार को लेकर हो या पुलिस कार्रवाई पर।
जाहिर सी बात है हम सब की यह चुप्पी अनाचार के दरिंदों के साथ उन सभी का मनोबल भी बढ़ा रही है जो इस मामले को हल्के में ले रहे हैं या रफा-दफा करने के उपक्रम में जुटे हुए हैं। कवि अवतारसिंह पाश ने कहा भी है 'सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना, तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना।' वाकई मुर्दा शांति सबसे खतरनाक है। अगर आज हम चुप बैठे तो यकीन मानिए अगला नम्बर आप या हम में किसी का भी हो सकता है।
वैसे भी इस मामले में भेदभाव तो कदम-कदम पर दिखाई दे रहा है। पुलिस की जांच तो वैसे ही संदेह के घेरे में है। भिलाई-दुर्ग पुलिस के प्रति शक की सुई तो उसी वक्त घूम गई थी जब उसने सामूहिक अनाचार के आरोपियों को मात्र कुछ ही घंटों के भीतर पकडऩे का दावा तक कर दिया। और उसके बाद जो हुआ वह गले उतरने वाला तो कतई नहीं है। बिल्कुल अविश्वसनीय सा काम। बिना शिनाख्त परेड करवाए आरोपी पकड़ कर न्यायालय में पेश भी कर दिए लेकिन पुलिस उनके नाम बताने से पता नहीं क्यों एवं क्या सोच कर परहेज करती रही। इससे भी दुखद तो यह है कि दिल्ली के 'दामिनी' प्रकरण में पुलिस भूमिका पर सवाल उठानेवाले तथा उसको कोसने वाले लोग अब खामोश हैं। उनकी यह चुप्पी हर लिहाज से खतरनाक है। चाहे वह सामूहिक अनाचार को लेकर हो या पुलिस कार्रवाई पर।
जाहिर सी बात है हम सब की यह चुप्पी अनाचार के दरिंदों के साथ उन सभी का मनोबल भी बढ़ा रही है जो इस मामले को हल्के में ले रहे हैं या रफा-दफा करने के उपक्रम में जुटे हुए हैं। कवि अवतारसिंह पाश ने कहा भी है 'सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना, तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना।' वाकई मुर्दा शांति सबसे खतरनाक है। अगर आज हम चुप बैठे तो यकीन मानिए अगला नम्बर आप या हम में किसी का भी हो सकता है।
साभार - पत्रिका भिलाई के 27 अगस्त 13 के अंक में प्रकाशित।