Friday, August 24, 2012

जल्दबाज ड्राइवर कभी बूढ़ा नहीं होता....

बस यूं ही

आफिस से घर पहुंचते-पहुंचते डेढ़ बज चुका था। अचानक ख्याल आया कि एकलव्य (मेरा छोटा बेटा, जो केजी टू में पढ़ता है) की स्कूल बस आने का समय हो गया है। बस रोजाना डेढ़ और पौने दो बजे के बीच ही आती है लेकिन वह घर तक नहीं आती है। इसलिए एकलव्य को लेने के लिए सड़क तक जाना पड़ता है। रायपुर-नागपुर मार्ग होने के कारण इस पर वाहनों की आवाजाही भी खूब रहती है। एकलव्य को लेकर घर पहुंचा तब तक श्रीमती ने खाने की तैयारी लगभग पूरी कर ली थी। चाहे गर्मी हो या सर्दी अपनी आदत के अनुसार मैं गर्मागर्म एक-एक चपाती ही खाता हूं। खाने की स्पीड भी इतनी तेज है कि जब तक दूसरी आए तब तक पहली वाली साफ हो चुकी होती है। खाने की स्पीड उस वक्त तो और भी बढ़ जाती है जब कहीं जाना होता है।
दरअसल मैं जल्दबाजी इसलिए दिखा रहा था कि मुझे कांग्रेस पार्टी के दुर्ग में आयोजित घेराव कार्यक्रम को देखने जाना था। करीब आधा घंटे कार्यक्रम देखने के बाद मैंने ऑटो पकड़ा और भिलाई के लिए रवाना हो गया। रास्ते में मेरे ऑटो के आगे एक लोडिंग ऑटो चल रहा था। उसके पीछे की साइड में लिखा था, जल्दबाज ड्राइवर कभी बूढा नहीं होता है। यह स्लोगन मैंने पढ़ लिया और इसका मर्म समझ कर मन ही मन मुस्कुरा भी लिया। ऑटो चालक की बगल में ही उसका साथी बैठा था। चेहरे के हावभाव देखकर मुझे उनके बालिग होने में संदेह लगा। दोनों बच्चे ही थे। उन दोनों ने भी वह स्लोगन पढ़ा और इसके बाद तो बार-बार पढ़ने लगे। दोनों की हालत देखकर मुझे लगा कि शायद दोनों को स्लोगन के पीछे छिपा मर्म समझ में नहीं आ रहा है। मैंने जिज्ञासावश दोनों को टोकते हुए पूछ लिया कि इस स्लोगन से आप क्या समझते हैं। जवाब भी वैसा ही आया जैसा मैं सोच कर चल रहा था। दोनों ने असहमति में सिर हिलाया। मैंने उनको कहा कि जो ड्राइवर गाड़ी तेज चलाता है वह कभी बूढा नहीं होता है। चूंकि मैं पीछे बैठा था लिहाजा दोनों ने मेरी बात को गंभीरता से सुना, लेकिन किसी तरह की प्रतिक्रिया ना होती देख मैंने फिर पूछा समझे कि नहीं, इस पर उन्होंने असहमति स्वरूप अपना सिर हिला दिया। मैंने उनको बताया कि जो वाहन तेज चलाता है वह इसलिए बूढा नहीं होता है क्योंकि वह असमय ही ऊपर मतलब भगवान के घर चला जाता है। वे फिर भी नहीं समझे और पूछने लगे कि कैसे। मैंने बताया कि जब तेज चलेगा तो हादसा होगा और हादसा होगा तो जान जाने की आशंका रहती है। मेरी बात एक युवक को समझ में आ गई। उसने तत्काल अपने साथी को अपने हिसाब से समझाया तो दोनों ठहाका लगाना लगे। फिर तो एक युवक ने बिलकुल विशेषज्ञ की तरह मुझसे कहा, भाईसाहब सिगरेट पीने वालों के लिए भी ऐसा ही कहा जाता है ना। इसी दौरान दूसरा बोल उठा सिर्फ सिगरेट ही नहीं कोई नशा करने वाला कभी बूढ़ा नहीं होता। ऑटो अपनी गति से दौड़ा जा रहा था। नशे की बात पर इतनी गंभीर बातें करने वाले युवकों को गुटखा चबाते व पीक थूकते देख मैं सोच में इस कदर डूबा कि मेरा स्टैण्ड कब आया पता ही नहीं चला। उतरते वक्त मैंने गुटखे के लिए दोनों को टोका तो उलटे मेरे को ही नसीहत देने लगे, बोले भाईसाहब कैन्सर तो उनके भी होता है जो नशा नहीं करते। मैं उन नासमझों की बातों पर बिना कोई टिप्पणी किए किराये के दस रुपए थमा कर चुपचाप कार्यालय लौट आया।

पालक हित में काम करें

टिप्पणी 

 स्कूलों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और बेतहाशा स्कूल फीस वृद्धि से उकताए शिक्षानगरी भिलाई के पालकों को उस वक्त बड़ी उम्मीद बंधी थी कि कम से कम उनकी पीड़ा को सुनने वाला कोई संगठन तो तैयार हुआ। उनको लगने लगा कि उनकी आवाज को अनसुना कर देने वाले संबंधित स्कूल संचालकों में अब कुछ तो भय होगा। इसी भरोसे के साथ पालकों ने एक नए नवेले संगठन को भरपूर समर्थन भी दिया। शुरुआती दौर में छत्तीसगढ़ पालक संघ अपने उद्‌देश्यों पर खरा उतरता नजर भी आया जब उसने पालकों की कई समस्याओं को हल करवाया। पालक संघ की पहल पर निजी स्कूलों पर लगाया गया जुर्माना तो समूचे प्रदेश में एक नजीर के रूप में याद किया जाएगा। इन सब कामों के चलते अल्प समय में ही पालक संघ ने अच्छी खासी लोकप्रियता भी हासिल कर ली। तभी तो पालकों को यह लगने लगा कि जिले में एक संगठन पहले से मौजूद होने के बावजूद नया संगठन अस्तित्व में क्यों आया। इतना कुछ करने के बाद गुरुवार को एक निजी स्कूल के बस चालकों के प्रदर्शन को समर्थन देकर संघ ने अपने उद्‌देश्यों की मर्यादा को लांघने का ही काम किया है। आखिर संघ यह करके क्या साबित करना चाहता है। बस चालकों के प्रदर्शन की वजह से विद्यार्थी ढाई घंटे तक स्कूल में बैठे रहे। समय पर बच्चों के घर न पहुंचने के कारण पालकों को हुई परेशानी को तो शब्दों में बयां करना भी मुश्किल है। पालकों के हितैषी कहलाने वाले संघ पदाधिकारियों को इस बात का जरा सा भी ख्याल नहीं आया कि उनके इस निर्णय की गाज सबसे पहले कहां पर गिरने वाली है। स्कूल प्रबंधन और बस चालकों की लड़ाई में पालक संघ के बीच में कूदने से सर्वाधिक नुकसान तो विद्यार्थियों का ही हुआ। बस चालक एवं स्कूल प्रबंधन में तो कल को समझौता भी हो जाएगा लेकिन मासूमों की भावना से खिलवाड़ करने की क्षतिपूर्ति किसी भी रूप में संभव नहीं है। 
बहरहाल, गड़बड़ियों एवं अव्यवस्थाओं को दुरुस्त करवाने के लिए इस प्रकार के संगठन होना जरूरी हो सकता है लेकिन इसका मतलब यह भी तो नहीं कि इस बहाने उसे कुछ भी करने की आजादी मिल जाए। लोकतंत्र में अपनी मांगे मनवाने के तरीके से बहुत से हैं और अव्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना भी बुरी बात नहीं है लेकिन ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि इस कवायद में कहीं जन को कोई नुकसान या पीड़ा तो नहीं हो रहा है। जनता की उम्मीदों की बुनियाद पर खड़ा होने वाला संगठन कभी जनहित को नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ सकता। पालक संघ का गठन पालकों की समस्याओं का निराकरण करवाने के लिए किया गया था ना कि समस्याएं बढ़ाने के लिए। ऐसे में उसके आंदोलनों या प्रदर्शनों का मकसद सस्ती लोकप्रियता पाने या केवल वाहवाही बटोरने तक तो सीमित कतई नहीं होना चाहिए। इस बात का ध्यान रखना तो बेहद जरूरी है कि पालकों का हमदर्द कहलाने के चक्कर में किसी से दादागिरी या मनमानी तो बिलकुल ना हो। जरूरत है कि पालकों का हितैषी कहलवाने वाले अपने गिरेबान में झांकें, गलतियों से सबक लें और बिना किसी राजनीति व लाग लपेट के ईमानदारी के साथ पालक हित में काम करें।

साभार - भिलाई पत्रिका के 24 अगस्त 12 के अंक में प्रकाशित।