Tuesday, October 30, 2012

बड़ा ईमान



बस यूं ही...

सुबह नहाने के बाद जैसे ही जींस पहनी तो एकदम से सन्न रह गया। जेब से पर्स गायब था। माह का अंतिम दौर होने के कारण पर्स में पैसे तो ज्यादा नहीं थे लेकिन उसमें दो एटीएम जरूर थे। एक स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर का तो दूसरा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का। एक दो और जरूरी कागजात भी थे। मैं बिलकुल अवाक था, कुछ सूझ नहीं रहा था कि अब क्या किया जाए। मन के कोने में एक हल्की सी उम्मीद जरूर 
थी कि शायद पर्स आफिस में मिल जाए। इस उम्मीद की सबसे बड़ी वजह तो यह थी कि कई बार पर्स आफिस में गिर भी चुका है, लेकिन हाथोहाथ संभाल लेने के कारण किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई। बस इसीलिए थोड़ी सा आशा बची थी। मन व्याकुल था और आफिस पहुंचने से पहले ही हकीकत जानने का उत्सुक भी। फिर सोचा अभी तो साढ़े नौ बजे हैं। कार्यालय सहायक, सफाईकर्मी एवं सुरक्षा गार्ड के अलावा अभी कौन होगा वहां। किससे पूछूं कि वह मेरे कक्ष में जाकर देखे.. कहीं पर्स तो नहीं पड़ा है। इसी कशमकश में तैयार हो रहा था। अचानक सुरक्षा गार्ड का ख्याल आया। अरे उसके नम्बर तो मेरे पास हैं, क्यों ना उसको ही पूछ लूं। फोन लगाया तो नहीं लगा...बेचैन मन को चैन कहां था, लिहाजा पांच-छह बार लगाया, नहीं लगा तो फिर सब्र की लम्बी सांस खींचकर तैयार होने लगा। तैयार होकर सीढिय़ों से नीचे उतर रहा था तो नजर नीचे इस उम्मीद से निहार थी कि शायद पर्स कहीं दिख जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरवाजे से बाहर उस स्थान को भी दो-तीन बार देखा कि शायद मोटरसाइकिल से उतरते वक्त कहीं गिर गया हो लेकिन सब बेकार। आखिर तेज कदमों से कार्यालय की ओर से रवाना हो गया। रास्ते में कई तरह के विचार जेहन में आ जा रहे थे। सोच रहा था, अगर पर्स नहीं मिला तो एटीएम कहां से बनवाऊंगा। बैंक खाते की बुक एवं चैक बुक का अभी तक कोई पता नहीं मिल पाया। पता नहीं स्थानांतरण के दौरान पैकिंग करते समय किस जगह उनको रख दिया। अब एकमात्र एटीएम ही तो सहारा था, जिसके माध्यम से पैसे निकलवा रहा था। अब एटीएम नहीं है तो फिर बैंक जाना पड़ेगा। बैंक भी तो बिलासपुर का है। मन ही मन में तय किया कि किसी दिन फुर्सत से समय निकाल कर बिलासपुर जाऊंगा और खाते की बुक एवं एटीएम के लिए नए सिरे से कवायद करूंगा। दूसरे ही पल फिर नया ख्याल आया कि अपने किसी साथी को कहकर भी तो यह काम करवा सकता हूं, लेकिन फिर सवाल कौंधा कि इस काम के लिए शायद स्वयं को उपस्थित होना होगा। विचारों की इसी उधेड़बुन में मैं कब आफिस पहुंचा एहसास ही नहीं हुआ। आफिस घुसते ही सबसे पहले गार्ड ने नमस्कार किया तो मैंने बताया कि शायद मेरा पर्स रात को कार्यालय में गिर रहा है। इतना कहते ही वह मेरे पीछे-पीछे हो लिया और बोला, साहब शायद आपके केबिन में गिरा गया हो. । आप काका. से पूछ लें। वह आपके केबिन में ही सफाई कर रहा है। मैं तेजी से सीढिय़ां चढ़कर अपने केबिन की तरफ आया, तभी काका एकदम से उठा और रोजाना की तरह सावधान होकर उसने मुझे सेल्युट मारा। करीब पचास-पचपन उम्र के काका का पूरा नाम मोहन सागर है और वह आफिस में साफ-सफाई का काम देखता है। मेरी चेहरे की परेशानी को काका भांप चुका था। बिना पूछे ही तत्काल दौड़कर आया बोला, साब.. आप का पर्स आपकी कुर्सी पर गिरा था। तोलिये के नीचे था दिखाई नहीं दिया। तोलिया उठाया तो नीचे गिर गया। उसे आपकी टेबिल की दराज में रख दिया है, साब। इतना सुनते ही मैंने एक लम्बी सांस छोड़ी और तत्काल दराज की तरफ लपका। काका ने सुरक्षा के लिए दराज के ताला लगा दिया लेकिन चाबी दराज में लगी हुई छोड़ दी थी। मैंने तत्काल चाबी घुमाकर दराज खोला और पर्स देखकर चेहरे पर चमक लौट आई। तब तक काका सफाई का काम छोड़कर मेरे पास केबिन में आ चुका था। बोला साब, पर्स संभाल लो। मैं मन ही मन मुस्कुराया। सोच रहा था कि अब पर्स संभालने की जरूरत ही कहां है। अगर गायब होता तो पूरा ही पर्स हो जाता है। मुझे काका की ईमानदारी ने बेहद प्रभावित किया और मैंने तत्काल उसे सौ रुपए बतौर इनाम देना चाहा तो वह थोड़ा सा हिचकिचाया। मैंने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा कि काका मेरी ओर से तो पूरा पर्स ही गायब हो चुका था। आप की वजह से ही मुझे मिला है। मैं खुशी से आपको दे रहा हूं आप रख लो। इतना कहने के बाद काका ने सौ का नोट रख लिया।
बहुत भारी तनाव से मुक्त होने के बाद मेरी खुशी का ठिकाना न था। और इसी खुशी में मैं फिर सोचने लगा... और अतीत की यादों में खो गया। कुछ इसी तरह का मामला तो करीब पांच साल पहले भी हो चुका है, जब कार्यालय के दो हजार रुपए मैं आफिस में अपने टेबिल के दराज में रखकर भूल आया था। इतना ही नहीं दराज के चाबी लगाना तो दूर उसको दराज में लटकता हुआ ही छोड़कर आ गया था। कुछ अनहोनी की आशंका रात को ही हो गई थी और दूसरे दिन हुआ भी वैसा। सुबह आफिस पहुंचा था दराज से चाबी गायब थी। तलाश की तो वह बगल की ट्रे में डाली मिल गई थी। बदहवाश हालात में मैंने तत्काल दराज खोला तो रुपए कम दिखाई दिए। गिनने लगा तो सौ-सौ के नौ नोट गायब थे। आफिस में सबसे पूछा लेकिन सभी ने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। अचानक विचार आया कि सुबह पांच बजे सफाई वाला आता है। कहीं उसी ने तो ऐसा नहीं कर दिया। शक को बल तब और ज्यादा मिल गया जब उसने उस दिन के बाद आफिस आना बंद कर दिया। खैर, वह पैसे मैंने अपने खाते से जमा किए।
संयोग देखिए दोनों ही घटनाएं आफिस में हुई लेकिन दोनों में अंतर कितना है। मैं इसी सोच में डूबा था। मेरी यह बात बहुत अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि क्यों सभी लोग एक जैसे नहीं होते और क्यों सभी को एक जैसा नहीं समझना चाहिए। वाकई काका की ईमानदारी ने मेरा सीना चौड़ा कर दिया। इसलिए नहीं कि उसने मेरा पर्स लौटा दिया बल्कि इसलिए कि एक अदना सा कर्मचारी होने के बाद भी उसका ईमान कितना बड़ा है। बहुत बड़ा। सलाम उसकी ईमानदारी को।