Friday, July 29, 2011

विकास पर बोलती बंद

छत्तीसगढ़ राज्य के बड़े शहरों में शुमार बिलासपुर सियासी दंगल एवं वर्चस्व की लड़ाई में इस कदर फंस चुका है कि विकास के मुद्‌दे गौण हो चुके हैं। विडम्बना देखिए, जिनके जिम्मे विकास है वे जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर आरोप-प्रत्यारोपों के खेल में उलझे हैं। कोई जवाबदेही लेने को तैयार नहीं है। विकास फुटबाल बना हुआ है। मूकदर्शक बनी जनता के पास इस सियासी फुटबाल के खेल को देखने के अलावा कोई चारा भी नहीं है।  लम्बे चौड़े विकास की बातें तो छोड़िए, मूलभूत सुविधाओं का हाल भी बुरा है। बिजली, पानी, सड़क, चिकित्सा, शिक्षा जैसी सुविधाओं मे एक भी तो ऐसी नहीं है, जिस पर दावा किया जा सके। यह बात दीगर है कि कागजों में विकास के दावों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है लेकिन हकीकत के धरातल पर आते ही दावों की हवा निकल जाती है। विकास के नाम पर जो काम शहर में चल रहे हैं, उनमें अनियमितता की बू आती है। निर्धारित समय गुजरने के बाद भी आधे-अधूरे काम सरकारी उदासीनता की चुगली करते दिखाई देते हैं। बहरहाल, कई संस्कृतियों के संगम वाली न्याय की इस नगरी के लोगों के साथ  पग-पग पर नाइंसाफी हो रही है। शहर ठप है और बयानों के शोर में जनता जनार्दन की आवाज दब गई है या यूं कहे कि दबा दी गई है। शहरवासियों के मन में अव्यवस्था के प्रति आक्रोश है। अगर बयानों का यह खेल यूं ही बदस्तूर चलता रहा है तो जिनको उम्मीद के साथ  सिर, आंखों पर बिठाया गया है, कल उनको दरकिनार भी किया जा सकता है। सब्र की इंतहा होने को है, धैर्य भी रफ्ता-रफ्ता जवाब देने को है। बहुत हो चुका यह सियासी खेल। जनता अब काम चाहती है। जनता जनार्दन का आक्रोश भड़के,  इससे पहले सभी को राजनीति से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ शहर के विकास को जेहन में रखना चाहिए। तभी बेपटरी हुआ शहर विकास की मुख्यधारा से कदमताल कर पाएगा।

साभार- पत्रिका बिलासपुर के  09 जुलाई 11 के अंक में प्रकाशित

खासियत का खामियाजा

राज्य का दूसरा बड़ा शहर होने का गौरव हासिल करने वाला बिलासपुर इसी खासियत का खामियाजा भी भुगत रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद बिलासपुर की राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्तर पर उपेक्षा इस कदर हुई कि यह शहर विकास से कदमताल करने में विफल हो गया। शहर के लोग खुद को छला हुआ सा महसूस कर रहे हैं। बिलासपुर एवं रायपुर की प्रगति के मौजूदा सफर को साथ रखकर देखें तो पाएंगे कि न्यायधानी के हिस्से में केवल हाईकोर्ट ही आया। शिक्षा के मामले राज्य का अग्रणी शहर होने तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में सर्वाधिक सफल विद्यार्थी देने के बावजूद बिलासपुर में गुरुघासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय को छोड़कर आईआईटी, एम्स, आईआईएम तथा विधि विश्वविद्यालय जैसे बड़े सरकारी शिक्षण संस्थानों का अभाव है। तमाम संभावनाएं होने के बावजूद बिलासपुर अभी हवाई सेवा से भी अछूता है। शहर को हवाई सेवा से जोड़ने के वादे भी हवाई ही साबित होकर रह गए। और तो और शहर के विकास के लिए बनने वाला मास्टर प्लान भी प्रशासनिक उदासीनता का शिकार है।
लब्बोलुआब यह है कि विकास की भरपूर संभावनाएं मौजूद होने के बावजूद न्यायधानी को नजरअंदाज किया जा रहा है। एक तरह से यह न्याय की नगरी के लोगों के साथ नाइंसाफी ही है। राज्य के गठन के बाद बिलासपुर के लोगों ने जो सपना देखा और जो उम्मीदें थीं, वे एक-एक कर टूटती गई। सुविधाओं से वंचित बिलासपुर विकास की बड़ी योजनाओं से दूर मूलभूत सुविधाओं में सुधार के लिए ही जूझ रहा है। पत्रिका ने बिलासपुर के लोगों को विकास के संबंध में दिखाए गए सब्जबाग की पड़ताल की तो वे मुद्‌दे और बातें सामने आए, जिनको पूरा करने से बिलासपुर का विकास न केवल रफ्तार पकड़ेगा बल्कि शहर की छवि में भी अप्रत्याशित सुधार होगा। 

साभार- पत्रिका बिलासपुर के 26 जुलाई 11 के अंक में प्रकाशित

Sunday, July 24, 2011

ब और बिलासपुर

टिप्पणी
लगता है ब शब्द  बिलासपुर की नियति बन चुका है। या यूं कहें कि बिलासपुर का ब शब्द से चोली दामन का साथ है। शायद तभी बिलासपुर का नामकरण बिलासा नामक महिला पर हुआ। पुलिस कान्फ्रेंस हाल का नाम भी बिलासा गुणी रखा गया। और तो और बिलासपुर के पुराने बाजारों में से एक बुधवारी बाजार की शुरुआत भी ब से ही होती है। खैर, यह सब अतीत की बातें हैं। ब शब्द को वर्तमान के साथ रखकर देखें तो बिलासपुर की मौजूदा तस्वीर यह है कि यहां के लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। विकास के लिए बयानवीर जनप्रतिनिधि बयानों पर बयान जारी कर खुद को बड़ा साबित करने की बाजीगरी दिखा रहे हैं। बयानों की ऐसी बानगी विकास से संबंधित बैठकों में भी बखूबी देखने को मिल रही है। समूचा बिलासपुर जानता है और मानता है कि इन बैठकों में नीतिगत निर्णय कम बकबक और बकवास ही ज्यादा हो रही है। समस्याओं की फेहरिस्त बदस्तूर बढ़ रही है। शहर बदरंग, बदसूरत एवं बेनूर हो चुका है। मानसून की बरसात भी बिलासपुर के लोगों के लिए बैरन बनी हुई है। बरसात से बिलासपुर की बदइंतजामी की पोल तो खुली ही, शहर बदहाल भी हो चला है। बिलासपुर की बदकिस्मती यह भी है कि स्थानीय एवं राज्य की बागडोर दो धुर विरोधी दलों के हाथों में है।
बहरहाल, बिलासपुर में बहरतौर (हर प्रकार से) बदहाली का आलम है। कभी बेमिसाल एवं बेनजीर इतिहास के गवाह रहे बिलासपुर की यह बदनसीबी ही कही जाएगी कि वह फिलवक्त बदतरीन दौर से गुजर रहा है। इस नाइंसाफी को बिलासपुर के लोग बहुत देर से बराबर बर्दाश्त कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए बिलासपुर के बाशिंदे बहमदीगर (एक दूसरे के साथ) होकर  बरवक्त (सही समय पर) कोई निर्णय लेंगे। शायद तभी बिलासपुर की बिगड़ी एवं बेपटरी हुई व्यवस्था लाइन पर आएगी। आखिर एकजुटता के बहुमत के बलबूते से ही तो बुलंदी हासिल होती है, इसलिए बयानों की बिसात बिछाकर सियासत की बागडोर हासिल करने करने वालों की बोलती बंद करने के लिए एकजुटता बेहद जरूरी है। बिना एकजुटता के तो सब बातें बेमानी हैं।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 24 जुलाई के अंक में प्रकाशित।

जिम्मेदारी समझें अधिकारी

टिप्पणी
शहर में संचालित अवैध विवाहघरों के मामले में स्टाफ की कमी बताकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने वाले निगम आयुक्त का बयान न केवल हास्यास्पद बल्कि बचकाना भी है। इससे भी बड़ी और गंभीर बात तो यह है कि विवाहघरों के नक्शे पास करने वाले, आयुक्त की नजरों में दोषी ही नहीं है। आयुक्त तो सारा दोष भवन निर्माण करवाने वाले मालिक के सिर ही मंढ़ रहे हैं। वे यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि स्टाफ कम है, लिहाजा मानिटरिंग करना मुमकिन नहीं है। अगर आयुक्त के  बयानों को नियमों के साथ रखकर देखें तो अंतर साफ नजर आता है। निगम क्षेत्र में रिहायशी या व्यावसायिक काम्प्लेक्स का निर्माण तय नियमों के अंतर्गत हो, इसके लिए निगम में भवन शाखा संचालित है। इस शाखा में किसी भी निर्माण के लिए निर्माणकर्ता भूखण्ड मालिक को शहर तथा ग्रामीण निवेश से भू उपयोग प्रमाण-पत्र, फायर सेफ्ट पार्किंग, डायवर्सन आदि से संबंधित दस्तावेज इस शाखा में जमा करना होता है। इतना सब कुछ साफ और स्पष्ट होने के बावजूद निगम आयुक्त का बयान जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने वाला ही है। विचारणीय बिन्दु यह भी है कि शहर में इतने विवाहघर एक साथ या रातोरात तो बने नहीं है। जाहिर है यह सारा खेल मिलीभगत और सांठगांठ की बुनियाद पर ही चल रहा है। दूसरों शब्दों में कहें तो निगम की शह पर ही इन विवाहघरों का संचालन हो रहा है।
वैसे देखा जाए तो निगम आयुक्त का बयान एक तरह से अवैध निर्माण करवाने वालों का समर्थन ही करता है। इस बयान से आमजन तथा शहर के विकास से सरोकार रखने वालों के हाथ निराशा ही लगी है। लकीर पीटने के लिए भले ही निगम प्रशासन शहर में ऐसे विवाह घरों तथा व्यावसायिक काम्प्लेक्स का नापजोख करवा रहा हो लेकिन इसके बाद क्या होगा कहना मुश्किल है। निगम के निर्देशन में शहर में अन्य कामों की जो मानिटरिंग चल रही है, उनकी प्रगति देखकर यह सवाल मौजूं है कि विवाहघरों के नापजोख का हश्र भी कहीं वैसा ही नहीं हो?
बहरहाल, छोटे-छोटे कब्जे हटाने के लिए आम जन तथा मुफलिस लोगों पर कार्रवाई का डंडा चलाने वाले निगम अधिकारियों को यह सोच लेना चाहिए कि विकास के मामले में पिछड़ चुके इस शहर में अब कागजी घोड़े दौड़ाने से काम नहीं चलेगा।  उम्मीद की जानी चाहिए कि नापजोख का काम ईमानदारी से होगा तथा इसके बाद सभी दोषियों पर कार्रवाई बिना किसी भेदभाव के समान रूप से होगी। राजनीतिक हस्तक्षेप को भी नजरअंदाज करना होगा। सियासी दांवपेचों में उलझे इस शहर में यह काम निगम अधिकारियों के लिए चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन मुश्किल नहीं है। इस काम के लिए पहली जरूरत तो यह है कि अधिकारियों को अपनी जिम्मेदारी न केवल समझनी होगी बल्कि उनका निवर्हन भी बखूबी से करना होगा। शायद तभी लोगों का खोया हुआ विश्वास बहाल हो पाएगा।
साभार : पत्रिका बिलासपुर के 14 जुलाई के अंक में प्रकाशित।