Tuesday, December 31, 2013

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-7

चार किलोमीटर चलने के बाद ऑटो वाले ने हमको मंदिर से करीब आधा किलोमीटर दूर उतार दिया। यहां से आगे भीड़ ज्यादा रहती है, इस कारण चौपहिया वाहनों का प्रवेश बंद है, हालांकि मंदिर के आगे से रास्ता है, जिस पर दुपहिया वाहन निकलते रहते हैं। ऑटो से उतरने के बाद हम दस कदम ही चले होंगे कि सफेद धोती बनने एक युवा पण्डा साथ-साथ चलने लगा। हम चुपचाप मंदिर की और बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों तरफ दुकानें सजी थी। अधिकतर पर तो शंख, पूजा सामग्री, फोटोज आदि ही रखे थे। महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की दुकानों की भी भरमार थी। चूंकि हमारी पहली प्राथमिकता मंदिर में जाकर दर्शन करना था, लिहाजा हम दुकानों पर बस सरसरी नजर भर मारते हुए ही चल रहे थे। रोशनी की चकाचौन्ध में ऐसा महसूस हो रहा था मानो दिन ही हो। पान की जुगाली करते-करते अचानक खामोशी तोड़ते हुए पण्डे ने पूछा.. पूजा करोगे..। पांच सौ रुपए में सभी पूजा करवा दूंगा। हम उसकी बात को अनसुना करते हुए बढ़े जा रहे थे। वह पांच सौ से पचास रुपए तक आ गया लेकिन हम चुप ही रहे। वह फिर भी पूछने से बाज नहीं आ रहा था।
आखिरकार कहना ही पड़ा कि हमको पूजा वूजा नहीं केवल दर्शन करने हैं और वो हम अकेले ही कर लेंगे। चलते-चलते हम मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंच चुके थे। मंदिर के आजू-बाजू में कई दुकानें खुली हैं, जूते व अन्य सामान रखने के लिए। पॉलिथीन की थैली में जूते डाल कर दुकान वाले को जमा करवाए। यह थैली दुकान वाला ही देता है। बदले में उसने एक टोकन थमा दिया। दुकान पर लिखी हिन्दी पढ़कर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका..। उस पर लिखा था 'जोता ष्टाण्ड'। वैसे पुरी में मैंने एक दो जगह और लिखा देखा तो यकीन हुआ कि यहां 'स' को 'ष' लिखा जाता है। रेलवे स्टेशन को भी ष्टेशन लिखा था।
खैर, जूते को जमा कराने के काम से फारिग होने के बाद प्रवेश द्वार की तरफ बढ़े। मुख्य दरवाजे के बार्इं और चार नल हैं, जो निरंतर बहते रहते हैं। श्रद्धालु यहां हाथ मुंह धोते हैं। कुछ कुल्ला वगैरह करने से भी नहीं चूकते। हाथ धोने एवं कुल्ले करने का यही पानी बगल में बहता है। श्रद्धालु इसी पानी से होकर ही मंदिर की तरफ बढ़ते हैं। इस बहाने पैर भी धुल जाते हैं। श्रद्धा और आस्था का सवाल है, वरना हाथों के धोने और कुल्ले के पानी में पैर कौन देना चाहेगा। प्रवेश द्वार पर सुरक्षाकर्मियों का मजमा सा लगा था। प्रवेश द्वार के ऊपर सूचना पट्ट टंगा है। जिस पर तीन भाषाओं में निर्देश लिखे हुए हैं। उडिय़ा, हिन्दी और अंग्रेजी में। सूचना पट्ट पर निर्देशों के साथ मोटे अक्षरों में लिखा है 'हिन्दु श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश कर सकते हें।' यह पढ़ते ही मुझे रेल में मिले प्रगतिशील किसानों की बातें फिर याद आ गई। उन्होंने कहा था कि मंदिर में विदेशी लोग नहीं जा सकते हैं। किसानों ने बताया था कि एक बार तो इंदिरा गांधी को भी मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया था। मुझे यहां भी हिन्दी की अहिन्दी होते देख तरस आया.. हिन्दू को हिन्दु व हैं को हें जो लिखा था..। .......................जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-6

 
वैसे पुरी का बीच साफ सुथरा है। दूर तलक देखने पर पानी नीले की बजाय हरे रंग का आभास देता है। लहरें उठती है तो पानी एकदम दूधिया नजर आता है, एकदम सफेद। अद्भुत नजारा होता है। जी करता है कि बस देखते ही रहो.. अपलक, बिना थके, बिना रुके, लेकिन इस बीच बच्चे कपड़े बदल कर आ चुके थे। इसके बाद हम सब टीले पर बनी एक चाय की दुकान पर जाकर बैठ गए..। चाय की चुस्कियों के साथ बंगाल की खाड़ी और उसमें उठने वाली लहरों को निहारने का आनंद ही कुछ और है। हां, एक बात और सागर में न केवल लहरों की आवाज का शोर है, बल्कि मछुआरों की नाव भी खूब आवाज करती हैं। बहुत पहले भोपाल के ताल में नौका विहार किया था, तब ऐसी नाव नहीं देखी थी। मतलब जनरेटर से चलने वाली। उस वक्त तो लगभग नावें चप्पू से ही चलती थी, लेकिन आजकल नाव के एक तरफ जनरेटर लगा दिया जाता है। उसके पीछे एक अगजेस्ट फेन लगाया जाता है, जो पानी के अंदर डूबा रहता है। पंखें के तेजी से घूमने से नाव अपने आप ही चलती है। वैसे यह एक तरह का जुगाड़ है। नाव जैसे ही किनारे पर आती है, जरनेटर के पंखें को घुमाकर अंदर कर लिया जाता है,क्योंकि उसके रेत में लगकर टूटने या खराब होने का भय रहता है। इस बीच चाय खत्म हो चुकी थी। लेकिन दोनों पैर गड्ढ़ा बनाने में लगे थे। ऊपर से सूखी दिखाई देने वाली मिट्टी हटाने के बाद नीचे गीली मिट्टी दिखाई देने लगी। एक जुनून सा सवार था कि जल्दी से पानी निकले। इस बीच एक सीप के घर्षण के पैर के अंगुली पर खरोंच भी आई लेकिन उसको नजरअंदाज करते हुए लगा रहा, इसी उम्मीद के साथ शायद पानी आ जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बच्चे एवं धर्मपत्नी जिद करने लगे थे, शाम को मंदिर जाना था। आखिरकार उनके आग्रह को स्वीकार कर गड्ढे से पानी निकालने के प्रयास पर विराम लगा दिया। शरीर पर चिपकी मिट्टी जैसे-जैसे सूख रही थी, वैसे-वैसे अपने आप झाड़ भी रही थी। होटल लौटने तक हल्का सा अंधेरा हो चुका था। होटल आने के बाद धर्मपत्नी बाथरूप में घुस गई थी लेकिन मैं यह सोच कर और यह देखने के लिए नहीं नहाया कि सागर के पानी से त्वचा फटती है या नहीं? मेरा सोचना सही साबित हुआ। ना तो किसी तरह की खुजली हुई और ना ही त्वचा फटी। खैर, देर शाम होटल से बाहर खड़े ऑटो वाले मंदिर तक जाने के लिए मोलभाव तय करने में जुट गया। होटल से मंदिर की यही कोई चार या पांच किलोमीटर की दूरी थी, ऑटोवाले ने 70 रुपए सिर्फ ले जाने के मांगे। राजू नाम था ऑटो वाले का। कह रहा था, साहब आते वक्त भी मैं भी आपको ले आऊंगा। आप दर्शन करने के बाद फोन कर देना। देखने में बिलकुल सीधा एवं भोला सा था राजू। उसकी सूरत भी कुछ ऐसी थी कि ना चाहते हुए भी उस पर यकीन करना पड़ा। इतना ही नहीं राजू से अगले दिन के बुकिंग भी फाइनल कर दी। यह शायद उसके व्यवहार का ही नतीजा था। खैर, हम सब ऑटो में बैठकर जगन्नाथ मंदिर के दर्शन के लिए रवाना हुए। ..... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-5

 
वैसे लहरों के बीच नहाना किसी खतरे से खाली नहीं है। समुद्र से लहर जैसे ही किनारे से टकराकर वापस लौटती है तो पैरों के नीचे से मिट्टी निकल जाती है और संतुलन बिगड़ जाता है। लहर आते वक्त भी एक धक्का सा लगता है लेकिन वापसी ज्यादा खतरनाक होती है। पैरों के नीचे से मिट्टी खिसकने से मुझे गांव के पास बहने वाली काटली नदी की याद आ गई। काटली अब तो इतिहास बन गई है। मुद्दत हो गई उसे आए हुए और शायद अब आएगी भी नहीं। काटली नदी में भी पानी के बहाव के कारण पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक जाती थी और संतुलन बिगड़ जाता था। इसके बाद आदमी ठीक से खड़ा नहीं रह पाता और गिर जाता। यकायक गिरने से खुद से नियंत्रण हट जाता और आदमी नदी में बहने लगता। बंगाल की खाड़ी का नजारा भी कुछ इसी तरह का था। बड़ा मुश्किल होता है तेज लहरों के बीच संतुलन साधना। बताया गया कि बंगाल की खाड़ी की लहरें ज्यादा तेज होती हैं और काफी ऊंचाई तक उठती हैं। बच्चों को गोद में लेकर करीब बीस फीट अंदर तक गया। इसके बाद धर्मपत्नी को भी लेकर गया। बच्चे तो बीच के किनारे पर नाम लिखने और मस्ती करने में ज्यादा रुचि दिखा रहे थे। वैसे इस नहाने के दौरान अगर आपने जेब वाली टी-शर्ट या निकर पहन रखा है तो उसका वजन दुगुना या तिगुना होना तय है। ऐसा भीगने से नहीं बल्कि समुद्र की मिट्टी उसमें भरने से होता है। इस मिट्टी की खासियत यह है कि यह गीली रहने तक ही चिपकी रहती है। सूखने के बाद झड़ जाती है। मिट्टी में शंख एवं सीप आदि भी बहकर खूब आते हैं। बच्चे और बड़े बीच के किनारे पर मिट्टी के घरोन्दे बनाने में जुटे थे। बड़ी संख्या में लोग यहां पर घरोन्दे बनाते हैं। इसके अलावा गड्ढ़ा भी खोदते हैं। थोड़ा सा गड्ढा खोदते ही अंदर पानी आ जाता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि पुरी का मौसम इन दिनों सम सा है। ज्यादा सर्दी नहीं है। सुबह-सुबह जरूर हल्की सी सर्दी महसूस होती है। कमरे के अंदर तो चद्दर तक ओढऩे की जरूरत नहीं पड़ती। सर्दी ना होने के कारण समुद्र में नहाने का आनंद दुगुना हो जाता है। सूर्यास्त होने को था लेकिन बच्चे नहाने और खेलने में इतने मगन थे कि बाहर निकलने का नाम तक नहीं ले रहे थे। कई बार आवाज लगाई लेकिन वे बाहर नहीं निकले। वैसे भी समुन्द्र की लहरों की आवाज भी बड़ी तेज होती है। लहरों के साथ ऊपर उठा पानी जब नीचे गिरता तो बड़ी तेज आवाज आती है। मानो कोई सांप गुस्से में फुंकार रहा हो। आखिरकार, बच्चों को हाथ पकड़ कर बाहर लाया। इसके बाद धर्मपत्नी उनको पास ही के एक हैडपम्प पर लेकर गई और उनको नहलाकर कपड़े बदले। बताया गया कि समुन्द्र के पानी में नहाने से त्वचा के फटने और खुजली होने की आशंका रहती है। कपड़ों के बारे में यही कहा जाता है कि समुन्द्र के पानी में भीगने के बाद उनको सामान्य पानी से जल्दी से निकाल लेना चाहिए, अन्यथा उनके कटने का अंदेशा रहता है।...............जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-4
 
नहाऊं या नहीं मैं इसी ऊहापोह में ही था कि धर्मपत्नी खुद को रोक नहीं पाई और चुपके से बच्चों के साथ जाकर नहाने लगी। मैंने कैमरा थामा और लगा फोटो खींचने। वैसे बीच पर बड़ी संख्या में फोटोग्राफर भी थे, जो आपको आकर्षक फोटो दिखाकर वैसी ही फोटो खींच देने का भरोसा दिलाते हैं। मेरे पास भी कई बार फोटोग्राफर आए लेकिन मैंने उनकी बात पर गौर नहीं किया। उन्होंने कोशिश भी बहुत की। कहने लगे, अरे सर, हमको लेने दीजिए ना.. देखिएगा कैसा मस्त एंगल आता है। आप हमारे जैसी फोटो नहीं खींच पाओगे। मैंने उनको साफ-साफ कह दिया कि जैसे भी आए मैं ही खींच लूंगा। वैसे बीच पर दो तरह के फोटोग्राफर मौजूद रहते हैं। एक वे जो खुद के कैमरे से फोटो खींच कर उसको डवलप करवा कर आपको देते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो केवल एंगल व लोकेशन के नाम पर बेवकूफ बनाते हैं। उन फोटोग्राफर के पास खुद कैमरा तो होता ही है लेकिन सस्ते के चक्कर में उन्होंने एक रास्ता निकाल रखा है, वे आपके कैमरे से ही आपकी फोटो खींच देंगे, लेकिन एक क्लिक करने के नाम पर ही पांच रुपए ले लेते हैं। बीच पर ऊंट वालों का धंधा भी जबरदस्त चलता है। सजे-धजे ऊंटो पर पर्यटकों को बैठाकर बीच के चक्कर लगवाए जाते हैं। ऊंट पर बैठाने और नीचे उतारने का तरीका परम्परागत नहीं है, क्योंकि उसमें समय लगता है। इस कारण ऊंट वाले एक सीढ़ी अपने साथ रखते हैं। उसी के माध्यम से पर्यटकों की ऊंट की पीठ पर बैठाया जाता है और नीचे उतारा जाता है। एक दो बार ऊंट वाला मेरे पास भी आया लेकिन मैंने उसको मना कर दिया। अकेला करता भी क्या..। ऊंट पर बैठकर.। बच्चे एवं धर्मपत्नी तो नहाने में और मस्ती करने में ही तल्लीन थे। बंगाल की खाड़ी की किनारे पर मछुआरों की सैकड़ों की संख्या में नाव खड़ी थी। लगभग इतनी ही नाव समुन्द्र के अंदर थी। पुरी में मछलियां पकडऩे का काम बड़े पैमाने पर होता है। टीले पर लगी चाय की दुकानों पर भी काफी भीड़ रहती है। विदेशी पर्यटक तो धूप में लेटे हुए थे। वहीं कुछ छतरी के नीचे कुर्सी लगाकर नजारा देख रहे थे। बीच-बीच में जाकर डूबकी लगा आते और फिर बैठ जाते। समुद्र की किनारे ही मोतियों एवं सीप की मालाएं बेचने वाले भी बड़ी संख्या में घूमते हैं। मोती-मूंगा आदि की अंगुठिया भी दिखाते हैं। मेरे पास भी कई आए लेकिन मैं माला, बाली, अंगूठी आदि पहनता ही नहीं हूं। शादी में ससुर जी ने जो सोने की अंगूठी और चेन दी थी तो वो भी धर्मपत्नी को दे चुका, शौक ही नहीं हैं। खैर, बीच का नजारा आपको बोर नहीं करता है। एक बार आप वहां गए तो फिर हटने को मन ही नहीं करता। ऐसा लगता है कि बस यहीं के होकर रह जाएं लेकिन वक्त ऐसा करने की इजाजत नहीं देता। खैर, सूर्यास्त होने को था। मैं भी ज्यादा देर तक खुद को रोक नहीं पाया और बच्चों के साथ नहाने लगा। खूब देर तक नहाते रहे। डूबकी लगाते वक्त पानी कई बार मुंह में गया। इतना कड़ा और खारा पानी है कि मुंह का जायका तक बिगाड़ देता है।..... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-3

 
वह ऑटो वाला वहीं खड़ा रहा। जैसे ही हम लोग होटल के कमरे की तरफ बढ़े तो रिशेप्सन काउंटर पर बैठे युवक एवं ऑटो वाले के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया। यकीनन ऑटो वाला अपना कमीशन मांग रहा होगा। खैर, स्टेशन से होटल तक आने की कहानी साधारण सी है लेकिन यह सब बताने का मकसद इतना है कि पुरी में अगर होटल लेना है तो फिर मंदिर के आसपास ही ठीक रहता है। समुन्द्र किनारे जितने भी होटल हैं लगभग महंगे हैं। दूसरी बात ऑटो वालों से मोलभाव किया जाए और एक के भरोसे ना होकर दो तीन से पूछताछ की जाए तो संभव है जेब कम ढीली होगी। करीब 19 घंटे का ट्रेन का सफर और फिर एक-डेढ़ घंटे ऑटो में घूमने के बाद शरीर थकान से दोहरा हो रहा रहा था। सफर में वैसे भी नींद कम आती है, लिहाजा सोने की इच्छा हो रही थी। नहाने एवं शेव करने के बाद फटाफट खाना खाया और बेड पर पसर गया। बच्चे समुन्द्र जाने के लिए बेहद लालायित थे, इस कारण शोरगुल ज्यादा था। ऐसे में गहरी नींद तो नहीं आई लेकिन एक हल्की सी झपकी जरूर लग गई जो कि तरोताजा करने के लिए पर्याप्त थी। सामान्य दिनों में भी इसी प्रकार की झपकी ले ही लेता हूं। पांच-दस मिनट के लिए। व्यस्तता के बीच इतना ही तो वक्त मिल पाता है।
झपकी जैसे ही टूटी बच्चे एवं धर्मपत्नी भी तैयार हो चुके थे। बीच जाने के लिए बच्चे बेहद उत्साहित थे। खुशी से चहक रहे थे। होटल से बीच की दूरी से मुश्किल से चंद कदमों पर ही थी। होटल से बाहर निकलने की देर थी, बच्चे हाथ छुड़ा कर दौड़ पड़े। बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर पुरी में हजारों की संख्या में होटल बने हुए हैं। कुछ पर्यटक तो होटल के कमरों से ही बंगाल की खाड़ी का नजारा देखते हैं तो कुछ छत पर चढ़कर। वैसे समुन्द्र के बीच पर जाकर लहरों के बीच नहाने का आनंद तो सभी लेते ही हैं। बीच तक पहुंचने से पहले रेगिस्तान जैसी बालुई मिट्टी का टीला बना था। हालांकि इस मिट्टी के कण थोड़े मोटे होते हैं। बजरी की तरह। सूखी मिट्टी में पैर धंस रहे थे। ऐसे में चलने में अतिरक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ रही थी। टीले पर जैसे ही चढ़े सामने का विहंगम नजारा देख आंखें फटी की फटी रह गई। टीले ऊंचाई पर एक अलग ही दुनिया बसी थी और ढलान पर तो जैसे मेला लगा था। बच्चों से लेकर बड़ों तक सब एक ही रंग में रंगे थे। या यूं कहूं कि बड़े भी बच्चे बनकर लहरों के बीच अठखेलियां करने में मस्त थे। शर्म शंका से बिलकुल दूर.. जिसको जैसे अच्छा लग रहा था वह अपने अंदाज में वैसे ही नहा रहा था। बच्चे तो कपड़े उतारकर पानी में छलांग लगा चुके थे। इधर, मैं और धर्मपत्नी किनारे पर खड़े बच्चों की मस्ती को देखकर ही खुश हो रहे थे। वैसे जोहड़, नदी में बचपन में खूब नहाया हूं लेकिन बंगाल की खाड़ी को देखकर मन में हल्का सा डर लग रहा था। करीब दस-दस फीट तक ऊंची उठती लहरें मन में रोमांच भर रही थी लेकिन मैं पानी में घुसने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। ........ जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-2

 
वैसे पुरी में आने वालों को ललचाने एवं प्रलोभन देने वालों में टूर एंड टे्रवल्स वाले भी कम नहीं हैं। पुरी रेलवे स्टेशन ऐसा है, जहां रेलवे लाइन का आखिरी छोर है। जितनी भी ट्रेन यहां आती हैं, वे यहीं से दुबारा चलती है। यूं समझिए कि पुरी एक ऐसा स्टेशन है, जहां रेल लाइन का द एंड हो जाता है। खैर, स्टेशन पर जैसे ही कोई गाड़ी पहुंचती है, वहां कुलियों के अलावा और बहुत सारे लोग, यात्रियों पर एक तरह से टूट पड़ते हैं। रुट चार्ट लिखा एक पर्चा पुरी पहुंचने वालों को थमा दिया जाता है। तरह-तरह की छूट का प्रलोभन देकर यात्रियों/ पर्यटकों को ललचाने की कवायद शुरू हो जाती है। हमारी पास भी एक युवा आया और तत्काल ऑटो में बैठने का आग्रह करने लगा। बोला, श्रीमान जी, ऑटो आपके लिए निशुल्क है। इसका कोई चार्ज नहीं लगेगा। आप ऑटो में बैठिए। हमने उससे कहा कि आपने अपने नम्बर दे दिए हैं, हम शाम को आपको फोन पर अपना रुट प्लान बता देंगे, अब आप जाओ। लेकिन वह युवक मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। करीब एक घंटे तक वह आग्रह करता रहा। आखिरकार हम उसके कहेनुसार ऑटो में बैठ गए। युवक ऑटो को सीधे ट्रेवल्स एजेंसी ले गया और बोला आप अपनी यात्रा का टिकट बुक करा लीजिए..। हमारा बॉस बहुत ही अच्छा आदमी है। आप एक बार उससे मिल लीजिए। हमने कहा कि पहले हमको होटल छोड़ दो, हम शाम को फोन करके आपको जो भी प्लान अच्छा लगेगा, बता देंगे। लेकिन वह युवक बार-बार एक ही रट लगाए हुए था। हमने ऑटो वाले से कहा कि.. यह फ्री-व्री का चक्कर छोड़ और हमको जगन्नाथ मंदिर एवं समुन्द्र के मध्य में कोई रियायती दर वाले होटल में छोड़ दे, लेकिन वह जबरन गलियों में इधर-उधर घूमाता रहा। कहने लगा कि यहां के पुलिस वाले सख्त हैं; कार्रवाई कर सकते हैं, इसलिए वह मुख्य रास्ते से न जाकर दूसरे रास्ते से होटल जा रहा है। उसने हमको तीन-चार होटल दिखाए, लेकिन कोई लोकेशन के हिसाब से नहीं जमा तो कोई व्यवस्था के हिसाब से। यहां बताता चलूं कि पुरी में ऑटो और होटल वालों के बीच भी कमीशन का खेल चलता है। कई होटल वालों ने तो अपने यहां ऑटो वालों को स्थायी रूप से रखा हुआ है, जो स्टेशन से सीधे उनको होटल तक ले आते हैं। होटल से अनुबंध रखने वाले ऑटो का किराया भी अलग है। सामान्य ऑटो से करीब 30 से 50 रुपए ज्यादा। हमारे ऑटो वाला भी लगभग उन्ही होटल में लेकर गया, जहां उसकी जान-पहचान थी। आखिरकार करीब एक घंटे पुरी की गलियों में इधर-उधर घूमाने के बाद वह एक होटल में लेकर गया। किराया 12 सौ रुपए प्रतिदिन। सामान्य कमरा..। डबल बैड। ऑटो वाले से किराया पूछा तो बोला, दो सौ रुपए दे दीजिए। बाद में उसको 150 रुपए दिए लेकिन... जारी है।

जग के नहीं 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-1

नवम्बर माह में पुरी धाम की यात्रा का कार्यक्रम तय करने से लेकर 23 दिसम्बर को पुरी धाम रवाना होने और वहां पहुंचने तक बस इतनी ही जानकारी थी कि पुरी में जगन्नाथ जी का प्राचीन, ऐतिहासिक व भव्य मंदिर है और वह देश के चार धामों में से एक है। इसके अलावा वहां बंगाल की खाड़ी के किनारे बीच का विहंगम नजारा है, जहां पर्यटक मौज मस्ती एवं सैर सपाट के लिए आते हैं। वैसे भी रेल मार्ग से भिलाई से पुरी की दूरी करीब आठ सौ किलोमीटर है। पुरी रवाना होने से पहले वहां जा चुके कुछ साथियों ने अपने अनुभव के साथ-साथ वहां के प्रमुख स्थलों के बारे में बताया, लेकिन वहां की सबसे अहम बात बताना भूल गए। यह तो भला हो उन चार प्रगतिशील किसानों को जो पुरी जाते समय संयोग से मेरे ही डिब्बे में आकर बैठ गए थे। किसी प्रशिक्षण के चलते ये किसान कटक जा रहे थे। उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर देर तक चलता रहा। पुरी के बारे में कई बातें विस्तार से बताई, जो बाद में वाकई मददगार साबित हुई। मंदिर में दर्शन कैसे करने हैं? कहां ठहरना हैं? समुद्र कैसे जाना है? किस से बात करनी है और किससे नहीं. आदि-आदि..। खैर, प्रगतिशील किसानों का फीडबैक बहुत काम आया लेकिन किसी ने कहा है ना कि अक्ल बादाम खाने से नहीं भचीड़ (धक्के) खाने से आती है। अब तो मैं भी पुरी के बारे में काफी कुछ जान गया। होटल किराया, ऑटो किराया, भोजनालय, मंदिर दर्शन, रुट चार्ट आदि..। दो दिन के सफर और दो दिन वहां रुकने के बाद शुक्रवार दोपहर को मैं भिलाई लौट आया लेकिन पुरी की सूरत एवं सीरत से जुड़े कई संस्मरण ऐसे हैं, जो न केवल मेरे लिए बल्कि पुरी जाने वाले प्रत्येक पर्यटक/ यात्री के लिए न केवल रोचक बल्कि सच्चाई से पर्दा हटाकर वास्तविकता से रूबरू करवाने और आंख खोलने में बेहद कारगार साबित होंगे। वैसे तो संस्मरण का शीर्षक पढ़कर चौंकना लाजिमी है लेकिन यकीन मानिए पुरी से लौटने वाले कमोबेश हर पर्यटक/ यात्री के जेहन में यह बात जरूर रहती है कि पुरी के जगन्नाथ, जग के नाथ ना होकर पैसों के नाथ हैं। नगद नारायण भी कहें तो भी चलेगा। यहां पर भगवान और भक्त के बीच में पुजारी मतलब पण्डा नामक एक ऐसा शख्स है जो कथित रूप से सेतु का काम करता है लेकिन कदम-कदम पर इसकी कीमत वसूलता है। धर्म के नाम पर, अनहोनी के नाम पर.. कुछ अनिष्ट का भय दिखाकर..। और भी कई तरह की औपचारिकताएं...साथ में यह चेतावनी भी कि अगर ऐसा नहीं किया तो यात्रा का प्रयोजन सफल नहीं होगा..। और धर्मभीरु लोग.. चुपचाप किसी अनुशासित बच्चे की तरह पण्डों की हां में हां मिलाते हुए अपनी जेबें ढीली करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।.... जारी है।

Monday, December 16, 2013

सादगी और रणनीतिक कौशल के धनी ओला


स्मृति शेष

 
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झुंझुनू रेलवे स्टेशन पर ब्रॉडगेज रेलवे लाइन के कार्य की धीमी गति पर नाराजगी जताते हुए जब केन्द्रीय श्रम मंत्री शीशराम ओला ने कार्य में तेजी लाने के निर्देश दिए थे तो राजनीति हलकों में यह कयास लगाए जाने लगे थे कि ओला फिर से चुनाव लडेंग़े। ऐसा मानने एवं सोचने वाले गलत भी नहीं थे, क्योंकि ओला ने नब्बे के दशक से अब तक लोकसभा के लिए कुल पांच चुनाव लड़े और जीते भी..। हर बार इसी अपील पर कि 'यह उनका आखिरी चुनाव है।' तभी तो चुनाव के दौरान ओला के संसदीय क्षेत्र झुंझुनू में यह जुमला जन-जन की जुबान पर रहता कि 'ओला जी को जिंदा रखना है तो चुनाव जीताओ..।' खैर, उनकी यह मार्मिक अपील हमेशा ही इतनी कारगर रही कि विपक्ष को कोई तोड़ ही नहीं मिला। ओला इस बार भी जीते लेकिन मंत्री नहीं बने तब भी यह जुमला खूब जोर-शोर से उछला था। आखिरकार उनको लालबत्ती फिर नसीब हुई और वे मंत्री बनने में कामयाब रहे लेकिन इस बार की जीत और मंत्री पद ओला की उम्र बढ़ाने में सहायक साबित नहीं हुए। उम्र के 86 बसंत देखने के बाद लम्बी बीमारी से संघर्ष करते हुए ओला ने रविवार अलसुबह आखिरी सांस ली।
गांव से लेकर जिले और फिर प्रदेश में लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के बाद ओला ने केन्द्र में अपनी ताकत का एहसास करवाया। कांग्रेस में रहते हुए भी और कांग्रेस के बाहर रहकर भी। हालिया विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में हस्तक्षेप के चलते ओला चर्चाओं के केन्द्र में रहे लेकिन बीमारी की वजह से वे चुनाव प्रचार नहीं कर पाए। उनकी बीमारी को भी उनके प्रतिद्वंद्वी एक राजनीतिक स्टंट मान रहे थे। दबी जुबान में यह कहा जा रहा था कि ओला की बीमारी एक बहाना है और वे सहानुभूति बटोरकर वोट पाने के लिए यह सब कर रहे हैं लेकिन ओला इस बार सचमुच बीमार थे। वैसे ओला का चुनाव प्रचार गजब का ही रहता था। वे घर-घर या गांव-गांव जाकर प्रचार करने में विश्वास नहीं करते थे। खुद के चुनाव में तो बिलकुल भी नहीं। लोगों के प्रति उनका विश्वास इतना प्रबल था कि वे झुंझुनू में एक होटल में बैठे-बैठे ही चुनावी गतिविधियों पर नजर रखते थे। पिछले लोकसभा चुनाव में ओला मुश्किल से दो-तीन जगह गए थे। ओला दिन में ही खुद को होटल के कमरे में बंद कर लेते और उनका सहायक कमरे के बाहर ताला लगा देता। बाहर से जब कोई ओला से मिलने आता तो कह दिया जाता कि 'नेताजी तो बाहर गए हुए हैं।' और मिलने वाले विश्वास कर लौट भी जाते..।
यह सच है कि ओला ने जिले की राजनीति में अपने समकक्ष किसी को नहीं आने दिया..। ओला पर अक्सर चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों की खिलाफत कर अपने समर्थकों के लिए काम करने के आरोप लगते रहे लेकिन ओला इन सब आरोपों से बेफ्रिक ही रहे। तमाम विरोधों और आरोपों के बावजूद ओला ने हमेशा अपना वजूद कायम रखा। जिले में नहर लाने की ओला की घोषणा पर तो पता नहीं कितने ही चुटकुले बने लेकिन ओला इन सबसे आहत हुए बिना भी लगातार नहर लाने की टेर लगाए रहे। आखिरी वक्त तक।
उनकी सादगी और रणनीतिक कौशल के कायल तो उनके विरोधी भी रहे हैं। उनके सभी दलों से संबंध थे। झुंझुनू विधानसभा में हर बार यही चर्चा रहती आई है कि कांग्रेस के साथ-साथ दूसरे दलों के प्रत्याशियों का चयन भी ओला ही करवाते हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में भी यही चर्चा थी। खैर, ओला की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि उनका हर गांव से सीधा सम्पर्क रहता था। उनकी याददाश्त भी गजब की थी। भरी भीड़ में जब कोई खड़ा होकर अपना परिचय देता तो ओला झट से उसके गांव और पिता या दादा का नाम तक बता देते। उनकी यही अदा ग्रामीणों को लुभाती थी और उनके लोकप्रिय होने का राज भी थी। आम जनप्रतिनिधियों की तरह ओला ने कभी थाना स्तर की या तबादला करवाने की राजनीति नहीं की। उनकी छवि भी आक्रामक न होकर शांत एवं सादगी पसंद नेता ही रही।
बहरहाल, शिक्षा के मामले में अग्रणी झुंझुनू जिले के लोगों में राजनीतिक जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि झुंझुनू जिले में शायद ही ऐसा गांव हो जहां दो चार 'शीशराम' ना हो..। उस दौर में पैदा हुए बच्चों के नाम ग्रामीणों ने शीशराम रख दिए थे। यह सब इसीलिए हुआ कि ओला ने साबित कर दिखाया कि एक साधारण परिवार का आदमी भी काफी कुछ कर सकता है। ओला ने ग्रामीणों में उम्मीद जगाई और उनका विश्वास भी जीता.। एक छोटे से गांव के एक साधारण से कृषक परिवार में पैदा होकर राजनीतिक के अर्श तक पहुंचने वाले लोग विरले ही होते हैं। ओला भी उनमें एक थे। जिले में ओला की रिक्तता को भरना मुश्किल भी है।

Saturday, December 7, 2013

दिल है कि मानता नहीं...


पोल अकाउंट

 
सब्र का सैलाब सीमाएं तोडऩे को आतुर हैं..। धैर्य भी धमाल मचाने पर आमादा है। चुनावी चौपालें तो अब चरम पर हैं। संशय व संदेह के बादल छंटने तथा विश्वास को यकीन में बदलने की इच्छाएं अब बलवती हो उठी है। आशंकाओं, अनुमानों, अटकलों एवं आकलनों की असलियत आखिरकार अब सामने आने ही वाली है। फैसला आने का फासला अब सिकुड़कर कुछ घंटों का ही रह गया है। धड़कनों की बढ़ती धक-धक भी किसी लोहार की धौकनी का आभास देने लगी है। निर्णायक घड़ी नजदीक देख आंखों में नींद का दूर तलक कोई नामोनिशान तक नहीं है, जैसे दिन व रात एक हो गए हों। बेचैनी और बेताबी का आलम इस कदर है कि दिलासाएं तक बेअसर हैं। हालात यह हो गए हैं कि अब हकीकत जानने के अलावा कुछ नहीं दिख रहा है। नजर अब केवल नतीजों पर हैं। परिणाम की प्रतीक्षा में पेशानी पर बल सबके हैं। उत्सुकता और इंतजार का आलम खेत से लेकर दफ्तर तक और हर आम से लेकर खास में दिख रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि ईवीएम में लम्बे समय से कैद किस्मत का ताला अब खुलने ही वाला है।
आठ दिसम्बर का दिन..। मेहनत के परिणाम का दिन.. पांच साल की तपस्या का प्रतिफल, जो बोया, उसको पाने का दिन..। किसी को फर्श से अर्श तक पहुंचा देगा तो किसी के सुनहरे सपनों का गला घोंट देगा। पता नहीं कितने ही दावों का दम निकलेगा और कितने ही अरमान दफन होंगे। न जाने कितने दिल टूटेंगे और जुड़ेंगे इस दिन..। किस्मत का सितारा जितनों का चमकेगा.. उससे कहीं ज्यादा का अस्त भी होगा। कहीं खुशियों की बारातें निकलेंगी तो कहीं गम के फसाने होंगे। कहीं जीत के जश्न मनेंगे तो कहीं हार के बहाने होंगे।
खैर, राजनीतिक महारथियों ने किसी न किसी तरीके से संभावित परिणाम की थाह जरूर ले ली है। सभी के पास जीत के दावे हैं। हार की बात तो न कोई करता और ना ही सुनना चाहता है। कई तो ऐसे भी हैं, जिनको वस्तुस्थिति का अंदाजा है, फिर भी झूठ पर झूम रहे हैं, गा रहे हैं। सभी का विश्वास, सच में तभी बदलेगा जब परिणाम सामने आएंगे। आखिर परिणाम ही तो वह चीज है, जो किसी को गुमनामी की गर्त में धकेलेंगे तो किसी को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाएंगे। जनता जर्नादन तो अपना फैसला कर ही चुकी है, बस अंतिम मुहर लगनी है, लेकिन दिल है कि मानता ही नहीं..। तभी तो दिमाग में विचारों का द्वंद्व है। आशंकाओं का आवेग भी उफन रहा है

शुक्रिया अदा करूं या..


बस यूं ही 

 
माताश्री लम्बे से उच्च रक्तचाप से पीडि़त हैं। इस रोग की पुष्टि झुंझुनूं के एक ख्यात चिकित्सक ने काफी पहले की थी। चिकित्सक की सलाह पर तथा रोग पर काबू पाने के लिए उस दिन के बाद माताश्री प्रतिदिन टेबलेट खाने लगीं। यह क्रम करीब सात साल से चल रहा है। पहले वे जो टेबलेट खाती थीं, वह ब्रांड बाजार में आना बंद हो गया तो चिकित्सकों की सलाह पर उसी सॉल्ट की दूसरी टेबलेट बता दी गई। पिछले सप्ताह माताश्री की तबीयत अचानक खराब हो गई तो गांव में हाल ही में खुले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में पदस्थ चिकित्सक को दिखाया तो उन्होंने कहा कि आप का रक्तचाप तो बेहद हाई है। चिकित्सक के ऐसा कहने पर माताश्री घबरा गईं। ऐसे में पिताजी उसको सुलताना के एक दूसरे चिकित्सक के पास लेकर गए तो उसने कहा कि सब ठीक है। ब्लड प्रेशर भी उतना ज्यादा नहीं है जितना बताया गया है। सुलताना के चिकित्सक के इस दिलासे के बाद माताश्री कुछ सामान्य हुई। आज दोपहर बाद पापा का फोन आया, हालांकि सुबह बात हो चुकी थी। मैंने फोन अटेंड किया तो बोले अपने गांव के डाक्टर की एक शिकायत है। मैंने पूछा क्या हो गया.. तो बोले, आज तेरी मां, गांव वाले डाक्टर के पास चेकअप कराने गई थी..तो डाक्टर ने बताया कि उसको ब्लेड प्रेशर नहीं है। पापाजी चकित थे कि सप्ताह भर पहले जो चिकित्सक ब्लड प्रेशर बेहद हाई बता रहा था वह सप्ताह भर बाद उसके खत्म होने की बात कैसे कह रहा है। पापाजी की बात सुनकर मैं भी आश्चर्य में डूब गया। आखिर सात साल की बीमारी खत्म कैसे हो गई जबकि झुंझुनूं के चिकित्सक ने तो यह कहा था कि यह टेबलेट आपको जिंदगी भर खानी पड़ेगी। समझ नहीं आ रहा है किस पर यकीन किया जाए..। गांव वाले चिकित्सक पर या झुंझुनूं वाले पर। झुंझुनू वाले चिकित्सक को कोसूं या गांव वाले चिकित्सक का शुक्रिया अदा करुं। जानकारी तो यह भी मिली है कि हाल ही में राज्य सरकार ने करीब 20 प्रकार के सॉल्ट की दवा ब्लड प्रेशर के मरीजों के लिए निशुल्क कर दी है। गांव वाले डाक्टर साहब माताश्री को दवा नहीं दे पा रहे हैं या दवा देने से डर रहे हैं यह तो वो ही जाने, फिलहाल तो मैं उनके नम्बर तलाश रहा हूं। जैसे ही मिलेंगे। बात जरूर करूंगा।

डरता हूं तो सिर्फ भगवान से..।


बस यूं ही

 
हाल ही में फेसबुक पर स्लोगन पढ़ा था, उसका मजमून कुछ तरह से था 'जो आपको जानते हैं, उनको बताने की जरूरत नहीं है और जो नहीं जानते उनको बताने से भी कोई फायदा नहीं है। खैर, क्या पता था यह स्लोगन मेरे पर ही चरितार्थ हो जाएगा। आज दोपहर बाद फेसबुक पर मैंने एक फोटो लगाई। मैं हमेशा फोटो का विवरण लिखता हूं लेकिन इस बार यह सोचकर कुछ नहीं लिखा कि देखते हैं फेसबुक के दोस्त क्या अनुमान लगाते हैं। और ऐसा हुआ भी। कई साथियों ने तो बिलकुल सटीक कमेंट लिखे लेकिन कई कमेंट ऐसे भी आए हैं, जिनको पढऩे के बाद इतनी हंसी आ रही है कि पेट में बल पड़ रहे हैं। वैसे तो फोटो पर लाइक एवं कमेंट करने वाले यह सब पढ़ ही चुके होंगे और हो सकता है मुस्कुराए भी हों, लेकिन सब का बारी-बारी से जवाब देना ही उचित रहेगा। संशय किसी भी सूरत में नहीं रहना चाहिए। पहले बात कमेंट्स की। सबसे पहले तौफिक डाबडी झुंझुनूं ने लिखा. डियर सर, वेरी फाइन विद..। उन्होंने सवाल छोड़ दिया। दूसरे नम्बर पर साथी मधुसूदन शर्मा ने लिखा जोड़ी नम्बर वन। ऐसा इसलिए लिखा क्योंकि वो हकीकत से वाकिफ हैं। तीसरे नम्बर पर साथी वीरप्रकाश झाझडिय़ा ने संतुलित कमेंट लिखकर किसी प्रकार की गुंजाइश नहीं छोड़ी.. उन्होंने लिखा नाइस। साथी अशोक शर्मा ने सर... सर... सर.. लिखा। उनके इस तरीके से ऐसा लगा मानो.. उनको यह फोटो अप्रत्याशित लगा हो। खैर, इसके बाद भिलाई के पत्रकार साथी शिवनाथ शुक्ला लिखते हैं.. सीताराम...निर्भर आकाश के पास में पूनम का चांद..। साहित्यिक भाषा में उन्होंने भी साबित कर दिया कि फोटो के ये दो किरदार कौन हैं। बीच में एक कमेंट साथी बलजीत पायल का भी आया था लेकिन वो बेहद मजाकिया था, उन्होंने उसको हटा लिया है। हालांकि लिखते समय उन्होंने लिख दिया था कि गुस्ताखी माफ हो। इसके बाद कैलाश राव ने लिखा .. आदर्श हसबैन्ड बल्कि आदर्श जोड़ी..। पत्रकार हैं, फोटो का मिजाज भांप गए। हकीकत से वाकिफ साथी भगवान सहाय यादव ने लिखा. भाईसाहब परफेक्ट जोड़ी..जियो हजारों साल..। प्यारेलाल चावला के लिए भी इस फोटो में नया कुछ नहीं था तभी तो लिखा.. वाह गुड, रब ने बना दी जोड़ी। कमोबेश ऐसा ही कमेंट्स नीरज शेखावत का रहा है.. रब ने बना दी जोड़ी.. क्योंकि उनके लिए भी कुछ अनजाना नहीं है। हंसमुख और मजाकिया स्वभाव के साथी संदीप शर्मा यहां भी नहीं चूके.. वे लिखते हैं.. राम लक्ष्मण सी जोड़ी बनी रहे..। अरे सॉरी राम-सीता सी। साथी गोपाल शर्मा से तो कुछ छिपा ही नहीं है। वे लिखते हैं.. भगवान इस जोड़ी को जमाने की सारी खुशियां दें। बड़े भाई हैं, इसलिए छोटा होने के नाते मेरा आशीर्वाद का हक तो बनता ही है। और उन्होंने दिया भी। चौंकाने वाला कमेंट्स आया.. झाला सर का। उन्होंने शायद फेसबुक पर मुझे देखा और कमेंट्स लिखा.. महेन्द्र जी, कहां हो.खैर बाद में मैंने फोन पर उनको सारी जानकारी दी। करीब पांच साल बाद उनसे आज फेसबुक के माध्यम से सम्पर्क हुआ। भिलाई के ही साथी अनूप कुमार ने लिखा मैड फोर इच अदर.. । साथी संजय प्रताप ने एक कमेंटस क्या लिखा इसके बाद तो इन्क्वायरी करने वालों में होड़ सी लग गई। सबसे पहले तो संजय प्रताप ने ही लिखा.. सर, हू इज सी, इफ सी इज यूवर लाइफ पार्टनर देन यू आर लकी, एंड नोट देन यू आर नो वेरी वैल..। इसी तरह का सवाल मटाना गांव के साथी महेन्द्र ने पूछा..। वे कहते हैं.. भाईसाहब यह कौन है। कु़छ ऐसा ही सवाल भाईसाहब राजेन्द्रसिंह ने किया। उन्होंने लिखा.. यू नोट गिव डिटेल, हू इज सी, भाई प्लीज गिव इंट्रोडेक्शन..। साथी सतीश अग्रवाल तो कमेंट़स के रूप में किसी पेज का ही प्रचार कर गए। पेज का नाम है, दोस्तों की दुनिया में हम हैं आपके साथ तो फिर करो लाइक..। साथी सुलेमान खान शायद उक्त कमेंट्स से असंतुष्ट नजर आए। वे कोफ्त में कहते हैं.. बड़े अजीब लोग हैं, इतना भी नहीं समझते..। उनका दर्द मैं समझ गया। इसके बाद भाई लक्ष्मीकांत ने लिखा .. रब ने बना दी जोडी..। भाई पत्रकार है अनुमान लगा लिया। और अभी-अभी साथी संजय सोनी ने लिखा है। वे कहते हैं, सदा खुश रहो.. हर खुशी हो तुम्हारे लिए..। बड़े भाई हैं.. ऐसा तो कहेंगे ही। खैर इन सबके अलावा पांच दर्जन लाइक भी आए हैं। सबसे पहले तो सभी का आभार। इस प्रकार स्नेह बनाए रखने के लिए। दूसरी बात यह है कि जो इतना कहने पर भी नहीं समझे तो बता देता हूं फोटो में मेरे साथ खड़ी महिला मेरी अद्र्धांगिनी निर्मल राठौड़ है। यहां किसी दूसरी की गुंजाइश ही नहीं है। कतई नहीं, बिलकुल नहीं..। सपने में भी नहीं। यकीन करो, यह मैं डर कर नहीं.. हकीकत बता रहा हूं। डरता हूं तो सिर्फ भगवान से।

Friday, November 29, 2013

इस बार रोचक होगा दुर्ग का दंगल


दुर्ग विधानसभा

दुर्ग शहर के दंगल में इस बार भी भाजपा व कांग्रेस के परम्परागत दिग्गज ही दिखाई देंगे। इस विधानसभा क्षेत्र में अब तक हुए 13 मुकाबलों में नौ में जीत दर्ज करने वाली कांग्रेस को पिछले तीन चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है। यह भी संयोग है कि 1993 से हेमचंद यादव व अरुण वोरा चुनाव लड़ते आ रहे हैं। इस चुनाव में वोरा के पक्ष में माहौल है। इस क्षेत्र से कांग्रेस कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा पांच बार विधायक रहे हैं। इसके बाद उनकी विरासत उनके पुत्र अरुण वोरा ने सम्भाली, लेकिन वे केवल एक बार ही जीत दर्ज कर पाए।
भाजपा के हेमचंद यादव यहां से तीन बार जीत चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भिलाई में चुनावी सभा को संबोधित कर माहौल पक्ष करने में प्रयास तो भाजपा के नरेन्द्र मोदी भी दुर्ग सभा कर मतदाताओं को रिझाने की कोशिश की। राजबब्बर भी अरुण वोरा के समर्थन में सभा कर चुके हैं। इसके अलावा घर-घर दस्तक देने व जनसम्पर्क करने का काम भी गति पकड़ चुका है।
नाम वापसी के बाद मैदान में कुल 18 प्रत्याशी डटे हुए हैं। यहां से बसपा, सपा, एनपीपी एवं शिवसेना ने भी प्रत्याशी खड़े किए हैं, लेकिन इनमें कोई मुकाबले में दिखाई नहीं दे रहा है। इधर, महापौर के चुनाव में करीबी मुकाबले में हारे छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के राजेन्द्र साहू भी मैदान में हैं। ऐसे में मुकाबला रोचक एवं त्रिकोणीय होने के आसार बन गए हैं। हार-जीत को लेकर सभी के अपने-अपने दावे हैं, लेकिन फिलहाल तस्वीर साफ नहीं है। पिछली बार हार-जीत का अंतर करीबी होने के कारण मुकाबला दिलचस्प होना तय माना जा रहा है। क्षेत्र में साहू, कुर्मी, अल्पसंख्यक एवं मारवाड़ी मतदाताओं की बहुलता है।
विकास बनाम भ्रष्टाचार
चुनाव में फिलहाल विकास बनाम भ्रष्टाचार की प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। भाजपा प्रत्याशी जहां विकास के नाम पर वोट मांग रहे हैं और कांग्रेस व भाजपा शासन की तुलना कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा सरकार के कार्यकाल में हुए कार्यों की गुणवत्ता पर सवाल उठा रहे हैं। वे शहर की कानून व्यवस्था व भ्रष्टाचार को ही अपना हथियार बनाए हुए हैं। वैसे कांग्रेस प्रत्याशी सड़क, बिजली, पानी जैसी बुनियादी समस्याओं को लेकर क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे हैं। इधर मंच प्रत्याशी भी कई जन आंदोलनों से जुड़े रहे हैं।
मुद्दे दिखाएंगे असर
भाजपा प्रत्याशी भले की विकास का दावा करें, लेकिन हकीकत इससे उलट ही दिखाई देती है। निगम में भी भाजपा के महापौर होने के बावजूद कई जगह तो दुर्ग शहर की हालात ग्रामीण क्षेत्रों से भी बदतर है। बदहाल सड़कों की हालत में सुधार नहीं हुआ। पेयजल आपूर्ति हर दूसरे तीसरे दिन प्रभावित होती रही। कभी पाइपलाइन फूटने के नाम पर तो कभी लाइन बदलने के नाम पर। शहर में बढ़ते अपराधों पर कारगर अंकुश नहीं लग पाया। नशे का कारोबार भी बेखौफ चलता रहा।
थाह लेना मुश्किल
दुर्ग में मतदान का प्रतिशत 60-65 के बीच ही रहता आया है, लेकिन दुर्ग का चुनाव जरूर चर्चा में रहता है। इस बार भी परम्परागत चेहरे मैदान में हैं, लिहाजा मतदाताओं में वैसा उत्साह नहीं दिख रहा है। हालांकि मंच की उपस्थिति से मुकाबला रोचक होना तय है और इसी वजह से लोग खुलकर कुछ नहीं बोल पा रहे हैं। ऐसे में उनकी थाह लेना या मानस टटोलना टेढ़ी खीर है। अपनी पसंद व नापंसद को वे सीधे तौर पर जाहिर भी नहीं कर रहे हैं। मतदाताओं की यह खामोशी क्या गुल खिलाएगी यह तो समय के गर्भ में है, लेकिन दुर्ग के दंगल में इस बार घमासान जोरदार होगा।

 साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ में 18 नवम्बर 13 के अंक में प्रकाशित।

पुराने प्रतिद्वंद्वियों के बीच कांटे की टक्कर

साजा विधानसभा


कृ षि प्रधान क्षेत्र साजा में इस बार भी मुकाबला उन्हीं प्रतिद्वंद्वियों के बीच है, जो पिछले चुनाव में आमने-सामने थे। पिछले चुनाव में हार का अंतर कम होने के कारण भाजपा ने बजाय कोई नया प्रयोग करने की उसी प्रत्याशी को मैदान में उतार दिया है। भाजपा प्रत्याशी लाभचंद बाफना को मुख्यमंत्री का नजदीकी होने के कारण चुनाव को प्रतिष्ठा की लड़ाई से जोड़ कर देखा जा रहा है। तभी तो इस क्षेत्र में मुख्यमंत्री सहित भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वेकैंया नायडू, फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी, मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती आदि चुनावी सभाएं कर चुके हैं, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी फिलहाल अकेले की प्रचार की कमान संभाले हुए हैं। उनके समर्थन में पार्टी का कोई बड़़ा नेता नही आया है।
चुनाव प्रचार में इस प्रकार का अंतर इसलिए भी है, क्योंकि कांग्रेस प्रत्याशी रविन्द्र चौबे यहां से लगातार छह बार जीत दर्ज कर चुके हैं, जबकि भाजपा को यहां खाता खुलने का इंतजार है। यह बात दीगर है कि 1977 में साजा विधानसभा क्षेत्र जब अस्तित्व में आया, उस वक्त पहले विधायक जनता पार्टी के बने थे। इसके बाद से इस सीट पर लगातार कांग्रेस ही जीतती आई है। यह भी संयोग है कि अब तक जितने भी प्रत्याशी यहां से जीते हैं, सभी एक ही परिवार से संबंधित हैं। कांग्रेस के रविन्द्र चौबे ने सबसे बड़ी जीत 1998 में दर्ज की थी, जब वे 24 हजार 318 मतों से विजयी रहे थे। सबसे कम अंतर की जीत पिछले चुनाव में थी, जब वे महज 5055 मतों से जीत पाए।
भाजपा के बढ़े वोट
भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि पिछले दो चुनाव में उसके प्रत्याशी हारे जरूर हैं, लेकिन कुल वोट हासिल करने का ग्राफ बढ़ा है। 2003 में भाजपा प्रत्याशी को 40 हजार 831, जबकि 2008 में 58 हजार 720 मत मिले। इधर कांग्रेस प्रत्याशी ने 2003 में 58 हजार 573 तथा 2008 में 63 हजार 775 मत मिले। इस प्रकार भाजपा ने जहां अपने कुल मतों में 17 हजार 889 मतों की वृद्धि की, जबकि कांग्रेस ने 5 हजार 202 वोट बढ़ाए। साजा से इस बार आठ प्रत्याशी मैदान में हैं। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने रामकुमार साहू को मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस के पूर्व विधायक किशनलाल कुर्रे भी इस बार बतौर निर्दलीय साजा से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। फिर भी मुख्य मुकाबला भाजपा एवं कांग्रेस के बीच ही माना जा रहा है। साजा में लोधी एवं साहू समाज की बाहुल्यता है। इनके मत ही हमेशा निर्णायक रहते आए हैं।
वास्तविक मुद्दे गौण
साजा कृषि प्रधान क्षेत्र है। धान, सोयाबीन, चना, अरहर, टमाटर एवं हरी सब्जियों के उत्पादन में यह क्षेत्र अग्रणी है। यहां कृषि रकबा भी प्रदेश में अव्वल है। इतना कुछ होने के बाद भी दोनों दलों की ओर से कृषि आधारित शिक्षा एवं उद्योग के लिए कोई पहल नहीं की गई है। सिंचाई का पानी भी इस क्षेत्र में बड़ा संकट है। सूतियापाट-नरोधा डेम का पानी इस इलाके में लाने के लिए बनी योजना भी समय के साथ दफन हो गई। इसके अलावा क्षेत्र में कई जगह पेयजल संकट भी है। सूरही नदी का पानी रोकने के लिए कई जगह स्टॉप डेम बनाए गए, लेकिन यहां पानी रुकता नहीं है, इस कारण किसानों को उतना लाभ नहीं मिल पाता। हालांकि पानी को रोकने के लिए दर्जनभर स्टॉप डेम बनाए गए हैं, लेकिन वे ऐसी जगह बने हैं जहां पानी रुकता नहीं है। क्षेत्र में चिकित्सा एवं उच्च शिक्षा की व्यवस्था भी संतोषजनक नहीं है। इतने सारे मुद्दे होने के बावजूद इस संबंध में दोनों दलों की तरफ से कोई ठोस घोषणा नहींं की गई है।
आरोप-प्रत्यारोप का दौर
साजा विधानसभा में फिलहाल मुद्दे गौण हैं। आरोप-प्रत्यारोप का दौर जरूर चल रहा है। एक-दूसरे को जनता का हितैषी एवं सच्चा सेवक बताकर मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया जा रहा है। भाजपा प्रत्याशी लाभचंद बाफना मतदाताओं के समक्ष खुद को जनता का सेवक होने तथा पांच साल के लिए सेवा का मौका देने के नाम पर वोट मांग रहे हैं, जबकि चौबे इसको पंूजीपति बनाम किसान की लड़ाई करार देते हुए मैदान में डटे हैं। चौबे कह रहे हैं कि वे स्वयं किसान हैं, इस कारण किसानों के दुख-दर्द बेहतर तरीके से समझते हैं।

 साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ में 16 नवम्बर 13 के अंक में प्रकाशित।

प्रचार से अब तक मुद्दे गायब

पाटन विधानसभा

दुर्ग जिले की पाटन विधानसभा में एक बार फिर मुख्य मुकाबला दोनों रिश्तेदारों एवं परम्परागत प्रतिद्वंद्वियों के बीच ही माना जा रहा है। कहने को यहां बसपा एवं स्वाभिमान मंच ने भी प्रत्याशी उतारे हैं, लेकिन वे अभी तक मुकाबले में दिखाई नहीं देते हैं। नामांकन वापसी के बाद यहां से कुल 11 प्रत्याशी मैदान में हैं। भाजपा प्रत्याशी विजय बघेल यहां से तीसरी बार, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी भूपेश बघेल पांचवीं बार मैदान में हैं। विजय बघेल यहां से एक बार जबकि भूपेश बघेल तीन जीत चुके हैं। सन 1977 में अस्तित्व में आए इस विधानसभा क्षेत्र में अब तक आठ मुकाबलों में छह में बाजी कांग्रेस के हाथ लगी है, जबकि दो बार भाजपा ने जीत हासिल की है। पाटन विधानसभा क्षेत्र में मुकाबले हमेशा रोचक ही रहे हैं और हार-जीत का अंतर हमेशा आठ हजार मतों से कम ही रहता है। मजे की बात तो यह है कि यहां सबसे बड़ी जीत 1980 में 7983 मतों से कांग्रेस प्रत्याशी के नाम दर्ज है, तो सबसे कम अंतर 1985 में 2934 मत की जीत का सेहरा भी कांग्रेस के सिर पर ही बंधा है।
कुर्मी एवं साहू समाज निर्णायक
पाटन विधानसभा क्षेत्र में कुर्मी एवं साहू समाज की भूमिका हर बार निर्णायक रहती हैं, क्योंकि क्षेत्र में दोनों समाज की बहुलता है। इसके अलावा अनुसूचित जाति के रूप में सतनामी समाज की भी यहां अच्छी खासी दखल है। पिछले चुनाव में भाजपा का समर्थन करने वाले साहू समाज ने इस बार टिकट वितरण के दौरान भाजपा प्रत्याशी के प्रति नाराजगी जाहिर करते हुए टिकट मांगा था। अगर यह नाराजगी मतदान तक कायम रही तो फिर विजय बघेल के लिए खतरा हो सकता है। भाजपा एवं कांग्रेस दोनों के प्रत्याशी कुर्मी जाति से हैं, ऐसे में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने यहां दीनू साहू को टिकट थमाया है, लेकिन उससे नुकसान कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को ज्यादा होने के आसार हैं।
लगातार बढ़ रहा है जीत का अंतर
एक रोचक तथ्य यह भी जुड़ा है कि 1985 के बाद से लगातार जीत का अंतर बढ़ रहा है, जो पिछले चुनाव में 7842 था। बुनियादी सुविधाओं में पिछड़ा होने के बावजूद पाटन विधानसभा क्षेत्र के लोग मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। पिछले विधानसभा में यहां 79 प्रतिशत मतदान हुआ था। बहरहाल, चुनावी शतरंज पर पुराने खिलाड़ी होने की वजह से मतदाताओं में खास उत्साह दिखाई नहीं देता है। भाजपा प्रत्याशी के जहां अपने कार्यकाल की 'उपलब्धियों एवं 'विकास के नाम पर मतदाताओं के बीच वोट मांग रहे हैं, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी अपने कार्यकाल की तुलना करते हुए जनता के बीच हैं, लेकिन 'विकास के शोर में क्षेत्र के प्रमुख मुद्दे गौण हो गए हैं।
अधूरी घोषणाएं पड़ सकती हैं भारी
पाटन विधानसभा क्षेत्र के लोग प्रत्याशियों के मुंह से विकास के दावे सुनकर हैरान हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर विकास कहां हुआ है। देखा जाए तो मतदाताओं की यह हैरानी जायज भी है। क्षेत्र में बुनियादी सुविधाएं भी लोगों को ठीक से मयस्सर नहीं हैं। क्षेत्र में कई प्रमुख मुद्दे हैं, जो इस बार चुनाव में रंग दिखा सकते हैं। उपकोषालय के यहां के लोगों को दुर्ग जाना पड़ता है। ग्रामीणों की मानें तो मुख्यमंत्री ने यहां छह माह में उपकोषालय की घोषणा की थी, लेकिन वह घोषणा अमल में नहीं आई। आईटीआई भी पाटन में न खुलकर दरबारमुखली में खुल गई, लेकिन वहां भी उसमें संसाधनों का अभाव है। पाटन में महिला महाविद्यालय की मांग भी अधूरी ही रह गई। इसके अलावा नल योजना व वृहद पेयजल योजना भी यहां के प्रमुख मु्द्दे हैं। क्षेत्र की टूटी-फूटी सड़कें भी इस बार चुनाव में प्रभावी भूमिका निभाएंगी। इतना ही नहीं हाल में करोड़ों रुपए के बजट से बनाई गई सड़कें तो दो माह भी नहीं चल पाई। सड़क निर्माण में हुई अनियमितता के चलते लोगों में आक्रोश है।

2008 में मतदाता  155806
2013 में मतदाता 170581
मतदाता बढ़े 14775
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 साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ में 15 नवम्बर 13 के अंक में प्रकाशित।

नई बिसात, पुराने मोहरे

भिलाईनगर विधानसभा

प्रदेश के सर्वाधिक साक्षर एवं जागरूक विधानसभा क्षेत्र भिलाईनगर के साथ यह विडम्बना जुड़ी है कि इस बार चुनावी बिसात में भी वो ही चेहरे आमने-सामने हैं, जो न केवल पिछले चुनाव बल्कि बीस साल से एक-दूसरे के खिलाफ जोर आजमाइश करते आए हैं। आचार संहिता की सख्ती एवं मतदाताओं की चुप्पी ने प्रत्याशियों के समक्ष दुविधा खड़ी कर दी है। तभी तो राजनीति के खांटी खिलाड़ी एवं परम्परागत प्रतिद्वंद्वियों को इस बार जीत के लिए खूब पसीना बहाना पड़ रहा है। मतदान में मात्र सप्ताहभर का समय शेष होने के बाद भी कोई भी जीत के प्रति आश्वत दिखाई नहीं दे रहा है। इतना ही नहीं प्रत्याशियों के समर्थकों में भी बेचैनी कुछ कम नहीं। वे भी कुछ भी हो सकता है, मान कर चल रहे हैं। इन सब को देखते हुए भिलाईनगर का चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प एवं कांटे की टक्कर वाला होने की उम्मीद लगाई जा रही है। भाजपा के प्रेमप्रकाश पाण्डेय लगातार छठी बार भाग्य आजमा रहे हैं तो कांग्रेस के बदरुद्दीन कुरैशी भी लगातार पांचवीं बार मैदान में हैं। पाण्डेय तीन बार जीत चुके हैं, जबकि कुरैशी दो बार। नामांकन वापसी के बाद भिलाईनगर से कुल १८ प्रत्याशी मैदान में हैं। पिछले चुनाव में यहां से 12 प्रत्याशी मैदान में हैं। निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या में वृद्धि होने के भी राजनीतिक गलियारों में कई तरह के अर्थ लगाए जा रहे हैं। सांसद सरोज पाण्डेय की भाजपा प्रत्याशी के समर्थन में सभाओं को लेकर भी लोग कई तरह के कयास लगा रहे हैं।
कोई नया मुद्दा नहीं
जागरूक विधानसभा क्षेत्र के लिए प्रत्याशियों के पास कोई नया मुद्दा नहीं है। भाजपा के प्रेमप्रकाश पाण्डेय अपने पुराने कार्यकाल में किए गए कार्यों के सहारे की चुनावी वैतरणी पार करवाने के प्रयास में जुटे हैं तो कांग्रेस प्रत्याशी कुरैशी भी श्रमिकों के सम्मान और गांधी जयंती पर प्रतिभावान विद्यार्थियों को पुरस्कृत करने को ही अपनी उपलब्धि मानते हुए इससे भुनाने का उपक्रम कर रहे हैं।
जमने लगी है चुनावी रंगत
नामांकन वापसी तथा दीपोत्सव व छठ पर्व के बाद भिलाईनगर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी रंगत रफ्ता-रफ्ता जमने लगी है। मतदान की तिथि नजदीक आने के साथ ही प्रत्याशियों के जनसम्पर्क अभियान में यकायक गति आ गई है। नुक्कड़ नाटकों एवं गली-गली में जनसम्पर्क का सिलसिला भी परवान पर है। प्रत्याशियों के परिजनों ने भी मोर्चा संभाल लिया है। वैसे चुनाव का ज्यादा असर पटरीपार के खुर्सीपार इलाके में ज्यादा देखने को मिल रहा है। घर-घर भाजपा-कांग्रेस के झंडे टंगे हुए हैं। टाउनशिप में इस प्रकार का माहौल नहीं है, लेकिन प्रमुख रास्तों पर लगाए गए होर्डिंग्स आने-जाने वालों का ध्यान जरूर खींचते हैं। भाजपा प्रत्याशी की कार्ययोजना में भिलाई को विकास की दौड़ में सबसे आगे खड़ा करना और टाउनशिप को फिर से पुराना स्वरूप देने का की है, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी भिलाई को शांति और अमन की राह पर ले जाने तथा गुण्डागर्दी खत्म कर लोगों में एकता स्थापित करने का सपना लिए चुनावी समर में डटे हैं।
मंच ने उतारा प्रत्याशी
चुनावों की घोषणा होने तक चुप्पी साधने के बाद छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने यहां से अपना प्रत्याशी मैदान में उतार दिया है। भाजपा प्रत्याशी के खेमे में इस बात को लेकर खुशी व्यक्त की जा रही है। दरअसल ऐसा इसलिए हो रहा है कि पिछले चुनाव में मंच ने भाजपा के प्रत्याशी के खिलाफ प्रचार कर अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस प्रत्याशी की मदद की थी। भाजपा समर्थक मानते हैं कि इस बार मंच का उम्मीदवार खड़ा होने से नुकसान कांग्रेस को होगा। भाजपा प्रत्याशी के समर्थक इस बात को गाहे-बगाहे भुना भी रहे हैं। इधर, कांग्रेस समर्थकों का मानना है कि मंच ने भले ही उम्मीदवार खड़ा कर दिया, लेकिन वह कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगा इस बात के आसार कम हैं।
बदरुद्दीन कुरैशी 52848
प्रेमप्रकाश पाण्डे 43985
जीत का अंतर 8863

 साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ में 12 नवम्बर 13 के अंक में प्रकाशित।

इस बार चौंकाने वाला होगा परिणाम

वैशालीनगर विधानसभा

वैशालीनगर विधानसभा सीट से भाजपा-कांग्रेस ने भले ही प्रत्याशी फाइनल करने में वक्त लगाया हो, लेकिन यहां इस बार मुकाबला दिलचस्प होता दिख रहा है। आलम यह है कि वैशालीनगर की नस-नस से वाकिफ दोनों प्रत्याशियों के बीच कांटे की टक्कर होने के पूरे-पूरे आसार दिखाई दे रहे हैं। क्षेत्र में फिलहाल न कोई मुद्दा है और न ही किसी तरह की लहर। ऐसे में चुनावी परिणाम चौंकाने वाला ही होगा। दोनों दलों के प्रत्याशियों के नाम फाइनल होने के बाद मतदाताओं में फिलहाल चर्चा पर जरूर विराम लगा है, लेकिन जेहन में यह सवाल जरूर उठ रहा है कि आखिरकार लम्बे इंतजार एवं इतनी देरी के बाद प्रत्याशी घोषित करने के पीछे वजह क्या है? यह बात दीगर है कि दोनों ही प्रत्याशी देरी से टिकट मिलने के पीछे कोई बड़ा कारण नहीं मानते।
अजब संयोग से वास्ता
संयोग ही है कि प्रत्याशी घोषणा करने के मामले में दोनों ही दलों ने अपने पत्ते देर से खोले, लेकिन नाम की घोषणा एक ही दिन मंगलवार को हुई। दोनों ही दलों के प्रत्याशी पंजाबी समुदाय से संबंधित हैं और दोनों वैशालीनगर के स्थानीय वाशिंदे हैं। इतना ही नहीं है दोनों न तो वैशालीनगर के लिए अनजान हैं और न ही वैशालीनगर के लिए दोनों अजनबी। दोनों जाने-पहचाने एवं परखे हुए चेहरे हैं। कांग्रेस प्रत्याशी जहां साडा अध्यक्ष रहने के साथ वर्तमान में विधायक हैं, वहीं भाजपा प्रत्याशी भिलाई निगम के महापौर रह चुके हैं। दोनों ही प्रत्याशियों के बंगले आलीशान हैं। वैशालीनगर के साथ यह भी संयोग है कि परिसीमन के बाद दो चुनाव में एक में भाजपा व एक में कांग्रेस के हाथ जीत लगी है।
अब कार्यकर्ताओं पर दारोमदार
बुधवार सुबह 11 बजे के करीब का समय। पूर्व महापौर विद्यारतन भसीन के आवास के बाहर अन्य दिनों के मुकाबले ज्यादा चहल-पहल नजर आ रही है। वाहनों की आवाजाही भी निरंतर बनी हुई है। भसीन के बंगले में बना गैरेज अब मिनी कार्यालय में तब्दील हो चुका है। अंदर कुर्सियों लगा दी गई हैं। बैठने वालों को गर्मी न लगे, इसलिए पंखे भी लगाए जा रहे हैं। समर्थकों से घिरे भसीन के मोबाइल की घंटी थमने का नहीं ले रही है। वे मोबाइल पर न केवल समर्थकों की बधाई स्वीकार कर रहे हैं, लगे हाथ उनसे सहयोग और चुनाव में जुट जाने की अपील भी कर रहे हैं। कार्यालय में एक मेज पर फूलों की माला रखी है, तो ऊपर एक थाली में मिठाई रखी है। समर्थकों के आने का क्रम जारी है। कोई चरण-स्पर्श करता है तो कोई हाथ मिलाता है। खुशी से सराबोर कार्यकर्ता कहते हैं रतन भैया, पार्टी ने भले ही देर से घोषणा की, लेकिन फैसला अच्छा किया है। पलटकर भसीन जवाब देते हैं अब सारा दारोमदार आप पर ही है। पार्टी ने तो फैसला कर दिया अब उसको परिणाम में बदलने का दायित्व आप सभी का है।
होई वही जो राम रुचि राखा
बुधवार सुबह 11.45 बजे। भजनसिंह निरंकारी अपने आवास में बनाए गए अपने कार्यालय में अपने पांच समर्थकों के साथ बैठे हैं। सभी खामोश हैं। अचानक खामोशी टूटती है। एक समर्थक सवाल पूछता है 'टिकट मिलने में इतनी देरी कैसे हो गई? सवाल सुनकर निरंकारी मुस्कुराते हैं, थोड़ा रुकने के बाद कहते हैं 'देरी, कहां? सब कुछ समयानुसार ही होता है। फिर कहते हैं 'होई वही जो राम रुचि राखा..। ऊपर वाले के घर न देर है न अंधेर है। सब कुछ निश्चित है, वैसे भी टिकट तो तय ही था। इतना कहकर वे समर्थकों की तरफ देखते हैं, और सभी लोग 'हां, यह बात तो है कहकर निरंकारी का समर्थन करते हैं। फिर खामोशी छा जाती है। फिर सवाल एक उठता है 'भाजपा ने तो भसीन जी को टिकट दी है। निरंकारी थोड़े दार्शनिक होते हुए कहते हैं 'मैं किसी से मुकाबला नहीं करता है। मैं सिर्फ अपनी लाइन पर भरोसा करता हूं। इसी बीच दो समर्थक और आते हैं। निरंकारी को बधाई देते हैं। इतने में चाय आती है, साथ में मिठाई थी। निरंकारी समर्थकों को कहते हैं, 'फार्म भरने से संबंधित तैयारी पूरी कर के रखो।

फैक्ट फाइल
2008 में मतदाता- 2,05,504
2013 में मतदाता- 2,31,457

मतदाता बढ़े- 25,953

2008 के विधानसभा चुनाव में

कांग्रेस के बृजमोहन सिंह को मिले थे - 41,811

भाजपा की सरोज पाण्डे को मिले थे - 63,078

जीत का अंतर - 21,267

2009 के विधानसभा उपचुनाव में

कांग्रेस के भजन सिंह निरंकारी को मिले थे- 47,225

भाजपा के जागेश्वर साहू को मिले थे- 42,997

जीत का अंतर- 1228

निष्कर्ष
वैशालीनगर विधानसभा क्षेत्र परिसीमन के बाद 2008 में पहली बार अस्तित्व में आया, लिहाजा यह किसी दल की परम्परागत सीट नहीं रही है। दोनों की प्रत्याशियों के मुकाबला इसलिए आसान नहीं, क्योंकि भितरघात एवं गुटबाजी का फैक्टर दोनों जगह है, जो इस से पार पाने में सफल रहेगा उसकी राह उतनी ही आसान होगी। स्वाभिमान मंच के भिलाई निगम में पार्षद जांनिसार अख्तर ने भी यहां से अपनी दावेदारी पेश की है। अख्तर अल्पसंख्यक समुदाय के मतों से आस लगाए हुए हैं। अगर ऐसा हुआ तो नुकसान कांग्रेस को ही ज्यादा होने के आसार हैं, क्योंकि अल्पसंख्यक कांग्रेस के परम्परागत मतदाता रहे हैं। लब्बोलुआब यह है कि वैशालीनगर का मुकाबला बेहद करीब एवं रोचक रहने की उम्मीद की जा रही है।

साभार : पत्रिका छत्तीसगढ़ में 1 नवम्बर 13 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, November 28, 2013

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(3)

बस यूं ही

बस में जैसे ही रेडियो ऑन किया तो उसमें नेटवर्क गायब हो गया। वह खिलौना बन गया था। उसका एंटीना निकालकर खिड़की से बाहर भी किया लेकिन सिवाय सरसराहट के कुछ सुनाई नहीं दिया। किसी ने सुझाव किया कि बस के अंदर रेडिया नहीं चलेगा छत पर बैठ जाओ। फिर क्या था रेडियो लेकर बस की छत पर बैठ गया। बारात चूरू जिले के हडिय़ाल गांव गई थी। बारात के पहुंचने तक श्रीलंका की पारी पूरी हो गई थी। बारात नाश्ता करती तब तक भारत की पारी शुरू हो चुकी थी। इसके बाद ढुकाव (तोरण) का वक्त हो गया। बाराती बैंडबाजी की धुन पर मगन होकर अपनी मस्ती में नाचने लगे थे। इधर, मैं कान के रेडियो लगाए सबसे पीछे चल रहा था। सचिन उस विश्व में अच्छा खेल रहे थे। उनसे सेमीफाइनल भी वैसी उम्मीद थी। और वो उम्मीद के हिसाब से खेले भी। सचिन ने इस मैच में 88 गेंदों पर 65 रन बनाए थे। सचिन के आउट होते ही भारतीय पारी अप्रत्याशित रूप से ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। महज 22 रन के अंतराल में सात विकेट गिर गए। कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जड़ेजा तो बिना कोई रन बनाए ही पवेलियन लौट गए थे। थोड़ी देर पहले 98 रन पर एक विकेट का स्कोरकार्ड अब बदल कर आठ विकेट पर 120 रन हो गया था। विनोद कांबली नाबाद थे दस रन पर। 35वां ओवर फेंका जा रहा था। क्रिकेट के प्रति मैं बेहद सकारात्मक एवं आशान्वित रहता हूं। इतने प्रतिकूल हालात के बावजूद मैं विनोद कांबली से चमत्कार के उम्मीद लगाए बैठा था कि शायद वह कुछ जौहर दिखा दे। अचानक दर्शकों का पारा गरम हो गया और वे मैदान में बोतल आदि फेंकने लगे। स्टेडियम में एक जगह तो आग भी लगा दी गई। कोलकाता के ईडन गार्डन में हाहाकार मचा था। भारतीय टीम के पोचे प्रदर्शन के चलते दर्शक बेहद गुस्से में थे। तनावपूर्ण हालात देखते हुए मैच रोक दिया गया। उम्मीद की किरण अब भी जिंदा थी कि शायद मैच शुरू हो और कांबली कुछ कर के दिखा दे। बारात ढुकाव पर पहुंच चुकी थी। दूल्हा तोरण मारने चला गया और बाराती बगल में लगे टैंट में भोजन के लिए बढऩे लगे। सांसें ऊपर नीचे हो रही थी.. पता नहीं क्या होगा..। अचानक घोषणा हुई। मैच रैफरी ने श्रीलंका को विजयी घोषित कर दिया। मैं बिलकुल आवाक था। मेरे लिए यह झटका बेहद असहनीय था। मैं बिना भोजन किए रेडियो को बंद कर चुपचाप निराश कदमों से जहां बारात रुकी थी उस तरफ दौड़ पड़ा। आंखों में आंसू थे और सिर मारे दर्द के फट रहा था। वहां पहुंचा तो गांव के दो तीन बुजुर्ग बैठे थे। उन्होंने मेरे को देखकर टोका, अरे जल्दी कैसे आ गया.. भोजन हो गया क्या.. मैंने लगभग सुबकते हुए ही सिर हिलाकर हामी भर दी। सर्दी का मौसम था..। मैंने रजाई उठाई और बिलकुल उदास, निराश एवं हताश होकर अपना मुंह उसमें छिपा लिया। सचमुच उस मैच के बाद मेरे को सामान्य होने में करीब सप्ताह भर का समय लग गया था।
अब भी भारत की हार पर मन दुखी तो होता है लेकिन वैसा नहीं जैसा 1996 में हुआ था। बीच-बीच में सट्टेबाजी एवं मैच फिक्सिंग को लेकर क्रिकेट की काफी छिछालेदर हुई लेकिन मेरा क्रिकेट से मोह भंग नही हुआ। वैसे भी क्रिकेट को लेकर सभी के अपने-अपने तर्क है। आलोचक, समालोचक, समर्थक सभी तरह के व्यक्ति मिलेंगे। लेकिन जब 1985-86 में जब क्रिकेट खेलना सीखा तब से लेकर आज के माहौल को देखता हूं तो आमूलचूल एवं क्रांतिकारी बदलाव आया है, लोगों की सोच में। गांव में उस वक्त प्रतियोगिता के लिए जाते तो मुश्किल से 11 खिलाड़ी भी नहीं हो पाते थे। मान-मनौव्वल करके किसी तरह 11 का आंकड़ा बनाते थे। और आज गांव का हाल ये है कि छह से सात टीम तो गांव में बन जाएंगी। सौ से ज्यादा खेलने वाले हो गए। और इधर जो बुजुर्ग क्रिकेट को लेकर उस वक्त हम पर ताने कसते थे। कहते थे, क्रिकेट महंगा गेम है.. इसने परम्परागत खेलों की लील लिया.. इसको कोई भविष्य नहीं है, आज उनको भी क्रिकेट के रंग में रंगा देखता हूं तो हंसी आती है। माना क्रिकेट में प्रतिस्पर्धा बेहद कड़ी है। लेकिन मनोरंजन तो मनोरंजन है। भले ही कोई कपड़े की गेंद बनाकर कपड़े धोने की थापी का बल्ला कर खेले या लेदर गेंद से। बहरहाल, मैं तो जैसा कि बता ही चुका हूं, समय मिलता है तो क्रिकेट खेलने से खुद को रोक नहीं पाता..। अपने बच्चों के साथ भी..। हार पर आंसू बहाने की आदत पर तो किसी हद तक काबू पा लिया लेकिन खेलने पर शायद ही काबू पा सकूं... दिल तो बच्चा है जी..।

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(2)


बस यूं ही

 
कल भावनाओं पर काबू नहीं था। यह सब लाजिमी भी था। ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा। ना ऐसा संन्यास और ना ही ऐसी विदाई। सचमुच कल मेरे लिए सब कुछ अविस्मरणीय था। वैसे क्रिकेट के प्रति मेरा जुनून बचपन से ही रहा है। अब भी गांव जाता हूं तो बच्चों के साथ खेलने से खुद को रोक नहीं पाता हूं। यह अलग बात है कि इसके बाद तीन चार दिन तक सारा शरीर अकड़ा रहता हैं, दर्द होता है सो अलग। न जाने कितनी ही बार दर्द निवारक गोलियां खाकर काम चलाया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अब नियमित अभ्यास नहीं हो पाता है। जुलाई 2000 तक तो क्रिकेट खेला हूं। उस वक्त बिना क्रिकेट खेले शायद ही कोई दिन नहीं बीतता था। जिले की शायद ही ऐसी कोई बड़ी क्रिकेट प्रतियोगिता रही होगी, जिसमें मैं नहीं खेला ..। इतना ही नहीं गांव में भी लगातार तीन साल तक बड़े पैमाने पर क्रिकेट प्रतियोगिता करवाई। कमरे की अलमारियों में सजे क्रिकेट प्रतियोगिताओं में जीते इनाम व स्मृति चिन्ह देखकर मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं। वैसे विश्वविद्यालय टीम के लिए ट्रायल देने से पहले की बात का जिक्र तो भूल ही गया था। बीए द्वितीय वर्ष के दौरान लगातार तीन माह तक अलसभोर गांव से बगड़ आया। उस वक्त मां घर के कामों में व्यस्त रहती है, इस कारण बस चाय पीकर चुपके से निकल लेता। दिन भर भूखा ही क्रिकेट खेलता। बीच-बीच में चाय एवं कुछ बिस्किट्स का दौर जरूर हो जाता, नहीं तो क्रिकेट के जुनून में भूख महसूस ही नहीं होती थी। यह क्रिकेट के प्रति समर्पण था, प्यार था, दीवानगी थी। उस दौरान खाई चोटों के निशान आज भी अतीत को जिंदा कर देते हैं। सिर से लेकर पैर तक शरीर का कोई भी अंग चोट से अछूता नहीं बचा। नाक भी टूटी, सिर भी फूटा, और तो और दोनों हाथों की लगभग सभी अंगुलियां भी टूटी हैं। क्रिकेट के दौरान लगी यह सभी चोट आज तक राज ही हैं, किसी को नहीं बताया। चुपचाप दर्द सह लेता लेकिन बताता नहीं था। मन में यही डर रहता था कि अगर बता दूंगा कि तो फिर वाले घर क्रिकेट खेलने ही नहीं देंगे। एक बार जरूर चोट ऐसी लगी थी जो छुपाई नहीं जा सकी। विकेटकीपिंग करते वक्त स्टम्पस से टकराकर गेंद सीधी नाक पर आकर लगी थी। नाक से खून बहने लगा था। कई देर तक ग्राउंड पर ही लेटा रहा। खून जब रुका उस वक्त नाक पर काफी सूजन आ चुकी थी। यूं समझ लीजिए कि नाक की साइज सामान्य से दुगुनी हो गई थी। रुमाल से नाक छिपाने का बहुत प्रयास किया लेकिन घर पर पता चल ही गया। लेकिन झूठ बोलकर अपना बचाव किया। यह कहकर कि कैच लेने के प्रयास में दौड़ रहा था और दूसरे खिलाड़ी से भिड़ गया। इसीलिए चोट लग गई।
खैर, चोट लगने के इस प्रकार के वाकये तो बहुत हैं। बात तो भावुक होने की चल रही थी। एक वह भी दौर था जब सोते-उठते-बैठते बस क्रिकेट के अलावा कुछ नहीं सूझता था। पता नहीं क्यों, उस दौरान किसी भी मैच में भारत के हारने के बाद मैं खुद को सामान्य नहीं रखा पाता था। बड़ी तकलीफ होती थी। और बिना खाना खाए ही सो जाता था। कमोबेश ऐसा ही हाल भारत की रोमांचक जीत के दौरान भी होता था। जीत की खुशी से इतना उत्साहित हो जाता कि बस कुछ खाने की इच्छा ही नहीं होती थी। इसको पागलपन कहा जाए या दीवानापन लेकिन भारत की हार-जीत के साथ यह दोनों संयोग मेरे साथ लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं। बड़ी मुश्किल से इस अनूठी आदत पर काबू पाया है फिर भी कभी-कभी भावुकता हावी हो ही जाती है। 1996 के विश्व कप के सेमीफाइनल में भारत की शर्मनाक हार तो जेहन में आज भी जिंदा है। उस मैच का एक एक-एक लम्हा याद करता हूं तो साथ में एक रोचक वाकया भी याद आता है। 13 मार्च को खेले गए उस मैच के ही दिन गांव में एक शादी थी..। बारात भी जाना था और मैच भी था। दोनों काम जरूरी थे। अब क्या किया जाए.. बारात की बस में रेडिया लेकर बैठ गया। डे-नाइट मैच था। बारात दोपहर बाद ही रवाना हुई थी, उस वक्त मैच शुरू हो चुका था। भारत ने टॉस जीतकर पहले क्षेत्ररक्षण करने का निर्णय लिया था.। क्रमश...।

क्रिकेट... सचिन... और मैं...(1)


बस यूं ही

 
सुबह घर से कार्यालय के लिए निकला था उस वक्त वेस्टइंडीज के दूसरी पारी के पांच विकेट गिर चुके थे। आखिरकार वैसा हुआ जैसी संभावना थी। लंच का समय आते-आते वेस्टइंडीज की पूरी टीम सिमट गई और भारत मैच जीत गया था। मैंने कार्यालय की मीटिंग से फारिग होकर कम्प्यूटर पर नजर डाली तो न्यूज वेबसाइट पर पट्टी चल रही थी। भारत टेस्ट जीता, मैदान से लौटते वक्त सचिन की आंखों में आंसू। मैं कम्प्यटूर शट डाउन करके केबिन से निकला ही था कि श्रीमती की कॉल आ गई। बोली सचिन की फेयरवेल चल रही है, टीवी पर लाइव आ रहा है जल्दी से घर आ जाओ। मैं तत्काल घर पहुंचा। ससुर जी एवं श्रीमती दोनों टीवी के सामने जमे थे। उस वक्त रवि शास्त्री ने माइक संभाल रखा था। उन्होंने सचिन को बुलाया। शरद पवार ने उनको श्रीलंका की तरफ से प्रतीक चिन्ह भेंट किया। इसके बाद वेस्टइंडीज के कप्तान आए। इसके बाद जब सचिन को फिर कुछ कहने के लिए बुलाया गया तो समूचे स्टेडियम में सन्नाटा पसरा था। सचिन इतने भावुक हो गए थे कि कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। भावनाओं पर काबू पाते हुए उन्होंने बोलना शुरू तो किया लेकिन बार-बार सूखे होठों पर जीभ फेरते सचिन की मनोदशा समझी जा सकती थी। उन्होंने अपनी बात पूरी करने तक तीन-चार बार पानी भी पीया। सचिन की एक-एक बात सुनकर लोग भावुक थे। वानखेड़े स्टेडियम में मौजूद सभी लोग गमगीन थे। सबकी आंखों में नमी थी। क्या युवा, क्या बड़े, यहां तक विदेशी भी यह नजारा देखकर उदास थे। सबके चेहरे लटके हुए थे। सचिन-सचिन की गूंज के बीच संवदेनाओं का सैलाब सा आ गया था। सचिन की पत्नी, पुत्र एवं पुत्री भी रोने लगे थे। सचमुच स्टेडियम पर ऐसा नजारा मैंने आज तक नहीं देखा। इधर, हमारी दशा भी ऐसी ही थी। आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी, बगल में बैठी धर्मपत्नी का भी यही हाल था। आगे कुर्सी पर बैठे ससुर जी भी बार-बार चश्मे को ऊपर कर गीली आंखों को पौंछ रहे थे। सचमुच भावनाओं की बारिश हो रही थी। वानखेड़े स्टेडियम में भी और बाहर भी। सचिन क्रिकेट से विदा हो गए लेकिन दिल में हमेशा रहेंगे, जिंदगीभर। आज बस इतना ही.. भावनाओं पर काबू नहीं है। कल क्रिकेट, सचिन व खुद के बारे में कुछ लिखा तो फेसबुक के साथी भाई तौफिक ने कहा सर, आप इमोशनल हो गए। सचमुच तौफिक भाई मैं हूं ही भावुक एवं संवदेनशील... आज फिर इमोशनल हो गया हूं। क्रिकेट एवं सचिन को लेकर शायद पहली बार इतना.. भावुक। और इसी भावुकता के साथ कई पुरानी यादें भी ताजा हो गई हैं। यादों के बारे में फिर कभी आज तो बस इतना ही... सलाम सचिन..। क्रमश:

क्रिकेट... सचिन... और मैं...


बस यूं ही

 
मास्टर ब्लास्टर सचिन आज अपने आखिरी टेस्ट मैच में शतक से चूक गए। उनके समस्त प्रशंसकों को इसी बात का मलाल रहा कि काश, वे शतक बनाते। वैसे सचिन जिस अंदाज में खेल रहे थे, उससे ऐसा लग भी रहा था कि शतक मार देंगे, लेकिन ऐसा हो न सका। क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल ऐसे ही नहीं कहा जाता। यह खेल होता पर नहीं है पर चलता है। फिर भी दिल है कि मानता ही नहीं। मैं भी सचिन का मुरीद हूं। आज से नहीं बस उसी दिन से जब उन्होंने अपने साथी खिलाड़ी विनोद काम्बली के साथ 664 रनों की साझेदारी कर विश्व रिकार्ड बनाया था। उस वक्त मैं सातवीं कक्षा में था। आज भी याद है कि इंडिया टूडे में इस साझेदारी के बारे में पढ़ा था। काम्बली एवं सचिन का फोटो भी साथ में लगा था। संभवत: यह खबर चर्चित चेहरे वॉले कॉलम में लगी थी। वैसे मेरे गांव में क्रिकेट ने भारत के 1983 में वल्र्ड कप जीतने के बाद ही ज्यादा जोर पकड़ा। गांव के चुनिंदा युवा ही उस वक्त क्रिकेट खेला करते थे। बचपन में गांव के युवाओं को क्रिकेट खेलता देख मैं भी इस खेल की तरफ आकर्षित हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण देखना तो उस सपने जैसा ही था। गांव में टीवी जो नहीं थे। इस कारण रेडियो ही प्रमुख साधन था, जिसके माध्यम से आंखों देखा हाल बड़ी तल्लीनता के साथ सुना जाता था। दस-बारह युवाओं के बीच रेडिया तेज आवाज करके रख जाता था और सब बड़े गौर से कमेंटरी सुनते थे। इसके बाद 1985-86 में गांव में अस्थायी रूप से एक टीवी लगा। शारजाह में भारत-पाक के बीच क्रिकेट प्रतियोगिता के कारण। बिलकुल स्कूल की बगल में ही था वह घर। स्कूल से बीच-बीच में बंक मार कर टीवी देखने पहुंच जाते। धीरे-धीरे क्रिकेट इतना रच बस गया कि बस सोते-उठते क्रिकेट ही दिखाई देता। उस दौर में गांव में क्रिकेट का खेल भी बड़ा रोचक होता था। लेदर बॉल उस वक्त शायद 32 रुपए की आती थी। ठीक-ठाक बल्ला भी 150-200 के बीच आ जाता था। गेंद के लिए बाकायदा चंदा किया जाता था। सभी खेलने वालों का योगदान रहता था, उसमें। जो पैसे नहीं देता वह खेल नहीं पाता था। मैं छोटा था, इस कारण मेरे को गांव के युवा इसलिए नहीं खिलाते थे कि कहीं चोट ना लग जाए। यह सब देखकर मैं मन ही मन बहुत दुखी होता लेकिन कोई चारा नहीं था। पापाजी उस वक्त अजमेर में सेवारत थे। मैंने उनको पत्र लिखकर बल्ला और गेंद मंगवाने की मांग कर डाली। घर में सबसे छोटा होने के कारण सभी का चहेता रहा हूं, विशेषकर पापाजी का स्नेह तो मेरे पर कुछ ज्यादा ही रहा है और आज भी है। वो बल्ला और कॉर्क गेंद ले लाए। अब तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था, गेंद और बल्ले को मालिक होने के कारण भला अब मेरे को खिलाने से कौन रोक सकता था। स्कूल से आने के बाद बस क्रिकेट ही दिखाई देता था। कई बार झूठ मूठ में तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर स्कूल मिस कर के भी क्रिकेट खेला। मां बहुत डांटती, टोकती लेकिन बस उस वक्त क्रिकेट के अलावा सूझता ही नहीं था।
दरअसल, यह सब कहानी बताने का मकसद इतना है कि सचिन ने जिस उम्र में अंतराष्ट्रीय मैचों में पदार्पण किया, उस वक्त मेरे जैसा किशोर भी क्रिकेट को लेकर सपने देखा लगा था। मन में ख्याल था कि जब सचिन ऐसा कर सकता है तो अपन क्यों नहीं..। बस धुन सवार हो गई। और वह धुन ऐसी चढ़ी कि आठवीं कक्षा तक हमेशा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने का सिलसिला नवमीं कक्षा से बंद हो गया। बड़ी मुश्किल नवमीं-दसवीं उत्तीण कर पाया वह भी द्वितीय श्रेणी से। घर वालों की डांट डंपट के बाद भी मैं परीक्षा के दौरान भी क्रिकेट खेलने से गुरेज नहीं करता। परीक्षा परिणाम खराब रहना, उसी का नतीजा था। यही हाल ११ व १२ वीं कक्षा में रहा..। कॉलेज में प्रवेश लेने के साथ तो क्रिकेट परवान चढ़ गया। कॉलेज टीम के ट्रॉयल में ही इतना धांसू खेल दिखाया कि चयन हो गया। वैसे मैं क्रिकेट के तीनों फोरमेट में आजमाया गया। मतलब बल्लेबाजी, गेंदबाजी एवं विकेट कीपिंग और तीनों में ही मैंने खुद को साबित किया। बीए फाइनल तक क्रिकेट के प्रति दीवानगी ऐसी बढ़ी कि साल भर में केवल चार पीरियड ही अटेंड किए। इस बीच अंतर विश्वविद्यालयीन क्रिकेट मैच भी खेले। आगे बढऩे का सपने तो उस वक्त धराशायी हुए जब ट्रायल देने अलवर गया था। राजस्थान विश्वविद्यालय के करीब 147 खिलाड़ी पहुंचे थे वहां पर और जब टीम की घोषणा हुई तो 147 में से दो चार नाम ही थे। बाकी का चयन तो पहले ही हो चुका था। बहुत निराशा हाथ लगी थी उस वक्त। अलवर से घर लौटना भी मुश्किल हो गया था। ....... क्रमश :...

वैज्ञानिक प्रयोग.. अजीबोगरीब पात्र...


बस यूं ही

 
बच्चों का आग्रह था कि पापा दिवाली को तो आपका अवकाश है। आप आफिस नहीं जाओगे, प्लीज क्रिश-३ दिखा दो। मैं मासूमों के प्यार भरे आग्रह का नकार नहीं सका। रविवार को दोपहर 2.30 बजे वाला शो देखने का समय तय किया गया लेकिन बच्चों में उत्सुकता इतनी थी कि दस बजे ही नहा धोकर तैयार हो गए। दो बजने से पहले से मेरे से कम से दर्जन बार पूछ बैठे कि पापा कितना टाइम और बचा है। वैसे शुरू में तो कार्यक्रम बच्चों को लेकर जाने का ही था, लेकिन बाद में धर्मपत्नी ने कहा कि मैं भी चलूं क्या.? मैंने कहा, आपको को किसने रोका है, आप भी चलो। वह भी तैयार हो गई। मकान मालिक का बच्चा भी बच्चों का हमउम्र ही है। उसको भी साथ ले लिया। इसके अलावा साढू जी की बिटिया भी इन दिनों सास-ससुर जी के साथ भिलाई आई हुई है। इस प्रकार कुल चार बच्चे और दो हम मियां बीवी कुल छह लोग हो गए। निर्धारित समय से करीब 20 मिनट पहले ही सिनेमाघर पहुंच गए। बच्चों की उत्सुकता एवं उत्साह देखते ही बन रहा था। आखिर सिनेमाघर का दरवाजा खुला और हम अंदर प्रवेश कर गए। दर्शक उतने नहीं थे, जितने किसी बड़े बैनर की फिल्म के शुरुआती सप्ताह में होते हैं। कम दर्शक होने के दो ही कारण मेरे समझ में आए.. या तो दिवाली का दिन होने के कारण लोगों ने फिल्म देखने में दिलचस्पी कम दिखाई या फिर दो दिन में ही फिल्म लोगों के मन से उतर गई। समीक्षक फिल्म के फिल्मांकन, हैरतअंगेज एक्शन, स्पेशल इफेक्ट्स एवं ऋतिक की सुपरमैन की छवि को लेकर कशीदे गढ़ रहे हैं लेकिन फिल्म मेरे को बच्चों के मुकाबले कम ही जमी। इतना ही नहीं फिल्म के आखिरी सीन में ऋतिक के बेटे का जन्म तथा उसका अचानक अस्पताल से गायब होना यह बताता है कि फिल्म की अगली किश्त बनना तय है। फिल्म में इतने शीशे टूटे और फूटे हैं, यकीन मानिए आज तक ऐसा किसी फिल्म में नहीं हुआ होगा।
तकनीकी प्रेमी जरूर फिल्म देखकर ताज्जुब कर सकते हैं, हैरान हो सकते हैं। फिल्म में नायक का हवा में उडऩा मेरे को किसी कॉमिक्स के पात्र की तरह नजर आया। वैज्ञानिक प्रयोगों से तैयार किए गए पात्र बेहद ही अजीबोगरीब लगे। यह बात दीगर है कि बच्चे इन सबको देखकर अन्य दर्शकों की तरह जोर-जोर से हल्ला कर रहे थे, चिल्ला रहे थे। फिल्म में एक जानकारी मिली सूरप्रथा की। इसके माध्यम से कंगना रानौत किसी की भी शक्ल धारण कर लेती है। कभी वह पुरुष बन जाती है तो कभी महिला..। बड़ी-बड़ी इमारते गिरती हैं और सुपरमैन ऋतिक उनसे जनहानि नहीं होने देता। गाडिय़ां हवा में उड़ती हैं, हेलीकॉप्टर इशारे भर से भस्म हो जाते हैं। पुलिस की राइफल की दिशा घूम जाती हैं। विलेन का किला भी बेहद रहस्यमयी नजर आया। भला विज्ञान के इस युग में इस तरह या ऐसा हो सकता है, मैं तो नहीं मानता। फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है लेकिन यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है। इस तरह के फिल्मांकन से फिल्म को प्रयोगवादी व फंतासी की श्रेणी में रखा जा सकता है। इतना कुछ कहने के बाद भी मैं किसी को यह नहीं कह रहा कि फिल्म देखने योग्य नहीं है... समय बर्बाद ना करें। यह मेरी व्यक्तिगत राय है, क्योंकि बच्चे तो घर लौटने तक फिल्म में ही डूबे थे। उनकी जुबान पर फिल्म के ही किस्से थे। दो तीन बार तो पास आकर थैक्यूं भी बोल दिया। कारण पूछा तो बोले आपने इतनी अच्छी फिल्म दिखाई। मैं इतना जरूर सोच रहा था कि वही एक नायक और विलेन की कहानी.. दोनों के बीच अदावत.. थोड़ा सा सस्पेंस और थ्रिलर..और आखिर में विलेन का अंत। आखिर ऐसी कहानी तो लगभग हर भारतीय फिल्म में होती है। बस अंतर इतना है कि इस कहानी को इस अंदाज में फिल्माया गया जो दर्शकों को कुछ नएपन का अहसास जरूर करवाती है।

एक दिन पहले ही दिवाली..


बस यूं ही

 
यकीनन भारत की जीत से आज समूचा देश एवं क्रिकेट प्रेमी झूम रहे हैं लेकिन पटाखा विक्रेताओं की खुशी तो और भी बढ़ गई होगी। दीपावली के लिए लाए गए पटाखे लोगों ने एक दिन पहले ही जो फोड़ लिए। जब से भारत की जीत का समाचार आया है तब से लेकर अब धमाकों का दौर लगातार जारी है। भिलाई में पटाखे फूट रहे हैं आतिशबाजी हो रही है। मेरा मानना है कि ऐसा सिर्फ यहीं नहीं कमोबेश पूरे देश में हो रहा होगा। वैसे बैंगलोर के चिन्ना स्टेडियम स्वामी स्टेडियम में भी धमाके कम नहीं हुए। भाग्यशाली हैं, वो क्रिकेटप्रेमी, जिन्होंने यह मैच अपनी आंखों से देखा। वे भी कम भाग्यशाली नही, जिन्होंने इसको टीवी पर देखा। खैर, अपने हिस्से तो किसी भी प्रकार का प्रसारण नहीं आया, लिहाजा मैं तो नेट पर स्कोरकार्ड देखकर ही खुश हो लिया। इतना बड़ा स्कोर बनाने के लिए निसंदेह विस्फोटक क्रिकेट खेलना ही पड़ता है। नतीजा कुछ भी रहा दीपावली की पूर्व संध्या इस यादगार एवं ऐतिहासिक मैच से और भी सुहानी हो गई। चौकों एवं छक्कों की बरसात तो ऐसी हुई लोग लम्बे समय तक याद रखेंगे। दोनों पारियों में कुल 38 छक्के लगे। मतलब कुल 709 रनों में से 228 रन तो छक्कों से ही बन गए। चौके भी कम नहीं लगे। दोनों टीमों की तरफ से कुल 59 चौके लगे। इसका मतलब 236 रन चौकों से बन गए। इस प्रकार 464 रन तो चौकों एवं छक्कों की मदद से बन गए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है मैच कितना विस्फोटक था। दोनों टीमों की तरफ से 19-19 छक्के लगे। यही कहानी चौकों की रही। भारत ने 30 तो आस्टे्रेलिया टीम ने 29 चौके लगाए। जब इस बेरहमी के साथ बल्लेबाजी हो तो बेचारे गेंदबाजी का पिटना तो स्वाभाविक ही है। बल्ले द्वारा बेदर्दी से की गई इस कुटाई को भी गेंदबाज भूल नहीं पाएंगे। मैंने भी लम्बे समय तक क्रिकेट खेला है। इसलिए क्रिकेट प्रेम आज भी जिंदा है। मैच को लेकर मैं भी बेहद रोमांचित हो गया। सचमुच जिस अंदाज में आस्ट्रेलिया खिलाडिय़ों ने नवें विकेट के लिए साझेदारी की, उसने एक बार तो धड़कने बढ़ा दी थी। इसी सीरिज में एक ओवर में 30 रन लेकर भारत के हाथों से जीत छीनने वाले जेम्स फॉकनर तो इस मैच में इतने आक्रामक थे कि बस पूछिए मत। खैर, क्रिकेट अनिश्चिताओं का खेल है। जब तक आखिरी गेंद ना हो कुछ भी कहना मुश्किल होता है। आखिरी गेंद की नौबत तो इस मैच में नहीं आई लेकिन आस्टे्रेलियाई पुछल्लों ने मैच में रोमांच बरकरार रखा। मेरा मानना है आसान जीत की बजाय रोमांच के बीच जो जीत मिलती है उसका मजा ही कुछ और होता है। तो इसी के साथ कल दीपावली दुगुने उत्साह के मनाएंगे, ऐसा यकीन है। भारत जीत की बधाई की साथ-साथ सभी को दीपावली की भी राम-राम, बधाई, शुभकामनाएं।

Monday, October 28, 2013

समाज का सवाल, सियासत में उबाल


जनसम्पर्क व दौरे को लेकर बन रही हैं रणनीतियां
 दु र्ग जिले का पाटन विधानसभा क्षेत्र। चुनावी रंगत फिलहाल यहां परवान नहीं चढ़ी है। अलबत्ता शुरुआती दौर में प्रत्याशी मतदाताओं का मानस टटोलने में जरूर जुट गए हैं। ग्रामीण इलाकों में गुप्त बैठकों के माध्यम से मतदाताओं का रुझान पता किया जा रहा है। नामांकन भरने से लेकर जनसम्पर्क व कार्यकर्ता सम्मेलनों तक की रणनीति बनाई जा रही है। इसके लिए जिम्मेदारियां भी सौंपी जा रही हैं। फिलहाल पाटन क्षेत्र में कोई बड़ा मुद्दा नहीं है और न ही किसी तरह की कोई लहर। मतदाता अभी खामोश हैं, लेकिन समाजों में सियासी हलचलों का दौर शुरू हो चुका है। इन सियासी हलचलों के कारण कहीं नए समीकरण बन रहे हैं तो कहीं बिगड़ भी रहे हैं।
करीब 15 हजार मतदाता बढ़े
पाटन में इस बार गत चुनाव के मुकाबले पौने पन्द्रह हजार मतदाता ज्यादा हैं। पिछले चुनाव में यहां 155806 मतदाता थे, इस बार 170581 हो गए हैं। पिछले चुनाव में विजय बघेल को 59000 तो भूपेश बघेल को 51158 मत प्राप्त हुए थे। जीत का अंतर 7842 मतों का रहा था। तब करीब 79 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे।
निचोड़
कुर्मी एवं साहू समाज की बहुलता वाले इस विधानसभा क्षेत्र में फिलहाल तो टिकट वितरण का मामला गर्माया हुआ है। साहू समाज के पदाधिकारियों ने सांसद से मुलाकात कर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी है। साहू समाज की नाराजगी दूर करने की दिशा में फिलहाल कोई प्रयास या आश्वासन सामने नहीं आया है। इसके अलावा सतनामी समाज के वोट भी यहां निर्णायक हैं। दोनों समाजों का रुख ही दोनों दावेदारों की जीत का मार्ग प्रशस्त करेगा। वैसे विजय बघेल के विधानसभा क्षेत्र बदलने की चर्चाओं ने उनके सामने मुसीबत खड़ी कर दी है। माना जा रहा है इस बार मुकाबला दिलचस्प होगा। वैसे क्षेत्र में विकास एवं सिंचाई से संबंधित मामले मतदान के नजदीक आते-आते जोर पकडऩे के पूरे आसार हैं। भ्रष्टाचार का मसला भी प्रभावी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि अभी-अभी बनी पाटन-उतई रोड पूरी तरह उधड़ चुकी है। सड़क पर उड़ती धूल एवं बिखरे पत्थर भी इस बात के साक्षी हैं कि सड़क निर्माण में जमकर अनियमितता बरती गई है।

धोराभांठा गांव में गुप्त बैठक
भिलाई से करीब दस किसी दूरी पर आबाद धोराभांठा गांव में बुधवार दोपहर ग्रामीण अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त हैं। महिलाएं हैंडपम्प से पानी भर रही हैं तो पंक्चर की दुकान पर दो युवक अपने काम में तल्लीन हैं। कोई तालाब की तरफ नहाने जा रहा है तो कोई नहाकर लौट रहा है। गांव के चौक में संसदीय सचिव विजय बघेल का सड़क सीमेंटीकरण से संबंधित पत्थर लगा है, लेकिन सड़क की हालात खराब है। शिलान्यास पट्टिका पर 2010 का साल अंकित है। चौक से थोड़ा आगे बेहद ऊबड़-खाबड़ व तंग गली में एक घर के बाहर तीन महिलाएं हाथ में लाठी लिए हुए बंदरों के झुण्ड को भगाने में लगी हैं। किसी की कानोंकान तक खबर नहीं कि गांव में कहीं पर कोई बैठक भी हो रही है। गांव के मंदिर के पास एक मकान में करीब पांच दर्जन ग्रामीण अंदर एकत्रित हैं। अंदर तखत पर कांग्रेस के भूपेश बघेल बैठे हैं। उनकी बगल में तिलक लगाए एक वृद्ध बैठा है। बाकी सभी लोग दरी पर बैठे हैं। बारी-बारी से ग्रामीण सदस्यता अभियान और भाजपा की रणनीति के बारे में बताते हैं। बातचीत के इस दौर में कभी माहौल यकायक गंभीर होता है तो कभी ठहाके गंूजते हैं। बारी-बारी से बोलने का क्रम टूटता है और सब एक साथ बोलने लगते हैं। शोरगुल बढ़ता है। भूपेश बघेल सबको चुप कराते हुए चुनाव में जिम्मेदारी सौंपते हैं। कहते हैं एक-एक व्यक्ति दस-दस घरों के सम्पर्क में रहें और प्रचार करें। प्रचार के लिए वे तीन चार मामले गिनाते हैं। कहते हैं उनके कार्यकाल में दस साल पहले बनी सड़क आज भी ठीक है, जबकि हाल ही बनी सड़कें टूट रही हैं।
वे ग्रामीणों को केन्द्र सरकार की उपलब्धियां मतदाताओं के समक्ष गिनाने की बात कहते हैं। बघेल कहते हैं कि राज्य की मौजूदा सरकार ने बोनस के नाम पर किसानों का ठगा है। चुनावी साल में बोनस दिया, जबकि बाकी साल किसान इंतजार करते रहे। करीब घंटेभर के विचार-विमर्श के बाद बैठक समाप्ति की ओर है। मुट्ठीभर से कम नमकीन और दो-दो बिस्कुट रखी कागज की प्लेटें ग्रामीणों के बीच घुमाई जाती हैं। बघेल उठकर बाहर आते हैं। पीछे-पीछे ग्रामीण भी उठते हैं। अंदर से आवाज आती है, चाय बन रही है। बघेल अपनी गाड़ी में अगले गांव के लिए रवाना होते हैं।

विजय बघेल का आवास
गुरुवार यही कोई सुबह के 11.30 बजे हैं। संसदीय सचिव विजय बघेल के आवास के बाहर एक पोस्टर लगा है, जिस पर लिखा है 'कृपया, यहां पर वाहन खड़े न करें।' इसी स्लोगन के ठीक सामने दुपहिया व चौपहिया वाहन खड़े हैं। आवास के अंदर भी नसीहत भरे दो पोस्टर चस्पा किए हुए हैं। एक पर लिखा 'कृपया कार्यालय में अपने मोबाइल बंद रखें।' जबकि दूसरे पर 'कृपया जूतों चप्पलों को बाहर रखें।' लिखा हुआ है। कार्यालय के अंदर कुर्सियां खाली हैं। आवास के बाहर संसदीय सचिव के गार्ड के इर्द-गिर्द पांच युवक आपस में कानाफूसी में जुटे हैं। आवास के ठीक सामने बनाई गई खटाल की साफ-सफाई भी चल रही है।
अचानक विजय बघेल बाहर आते हैं और आवास के सामने खड़े एक प्रचार रथ के पास जाकर रुक जाते हैं। आसपास बैठे सभी लोग भी बघेल के अगल-बगल में खड़े हो जाते हैं। प्रचार रथ के पास कुर्सी डालकर बैठे युवक-युवती खड़े होते हैं। प्रचार रथ से पर्दा उठता है तो एक बड़ा स्पीकर दिखाई देता है। युवती माइक लेती है। अचानक संगीत चलता है, इसी के साथ 'ईश्वर ही सत्य है' 'सत्य ही शिव है' 'शिव की सुंदर है।' 'सत्यम शिवम सुंदरम'  बोल गूंजते हैं। थोड़ी देर सुनने के बाद बघेल उसे रुकने का इशारा करता है। युवक दौड़ता हुआ आता है, और कहता है सर आपका गीत 'दुख के सब साथी..' भी हमारे पास है। बघेल उसको बुक करने के लिए हामी भरते हैं। इसी बीच दो युवक और आते हैं.. कहते हैं सर, हमारा डेमो भी देख लो। बघेल कहते हैं, आपने देर कर दी, सब फाइनल कर दिया। बघेल लौटते हैं। कुछ परेशान से हैं। समर्थक वजह पूछते हैं तो कहते हैं, अरे भाई, क्या बताऊं, तबीयत खराब है। देखो ना.. बघेल हाथ आगे बढ़ाते हैं। फिर कहते हैं तबीयत के चक्कर में सुबह से नहाया ही नहीं हूं। धीरे-धीरे चहलकदमी करते हुए अंदर जाते हैं। दो-चार समर्थक भी उनके पीछे-पीछे हैं। बघेल का मोबाइल बजता है और वे बतियाते हुए अंदर प्रवेश कर जाते हैं। बाहर खड़े युवकों में फिर चर्चा शुरू हो जाती है। प्रचार रथ वाला भी अपना साजो-सामान समेट कर चल पड़ता है।

 साभार- पत्रिका छत्तीसढ़ में 26 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित


मतदाता मौन और समर्थकों में सरगर्मी

 
वर्तमान पर अतीत हावी : बीस साल से आमने सामने

दु र्ग जिले का भिलाईनगर विधानसभा क्षेत्र। जिला मुख्यालय से एकदम सटा हुआ, लेकिन सूरत एवं सीरत दोनों ही अलग। तभी तो चुनाव की सरगर्मी का असर खुर्सीपार को छोड़कर शेष हिस्सों में कम ही दिखाई दे रहा है। इसका प्रमुख कारण समूचे क्षेत्र में नौकरीपेशा आदमी होना है। यहां पर चुनाव के प्रति वैसा जुनून भी नजर नहीं आता, जैसा दूसरे विधानसभा क्षेत्रों में आता है। फिलहाल यहां मतदाता मौन हैं, लेकिन प्रत्याशियों के समर्थकों में सरगर्मी शुरू हो चुकी है। दोनों ही प्रत्याशियों के साथ एक संयोग भी जुड़ा है। दोनों के वर्तमान पर अतीत हावी है। इस बात की गवाही दोनों प्रत्याशियों के बंगलों के बाहर टंगे बोर्ड देते हैं। एक पर लिखा है पूर्व विधानसभा अध्यक्ष तो दूसरे पर पूर्व मंत्री छत्तीसगढ़ शासन। फिलहाल पूरे प्रदेश की नजर भिलाईनगर विधानसभा पर टिकी है। यहां मुकाबला रोचक एवं दिलचस्प होने के कयास लगाए जा रहे हैं।
बीस साल से ही प्रतिद्वं द्वी
भिलाईनगर विधानसभा समूचे प्रदेश में इकलौता ऐसा क्षेत्र है, जहां के लगभग सभी मतदाता भिलाई स्टील प्लांट के कर्मचारी या सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। थोड़ा सा हिस्सा खुर्सीपार का है, जिसमें बीएसपी से संबंधित लोग नहीं रहते हैं। यही कारण है कि इस सीट पर स्थानीय या राज्यस्तरीय मुद्दे उतना महत्त्व नहीं रखते, जितना बाकी सीटों के लिए रखते हैं। खुर्सीपार में चाय की दुकानों पर जरूर चुनावी चर्चाएं हैं, लेकिन सेक्टर एरिया के मतदाताओं में ऐसा कोई माहौल नहीं है। दोनों ही दलों ने अपने पुराने नेताओं पर विश्वास जताया है। दोनों नेता 20 साल से लगातार एक दूसरे के सामने चुनाव लड़ते आ रहे हैं।
1.65 लाख मतदाता
भाजपा प्रत्याशी प्रेमप्रकाश पाण्डे का यह छठा चुनाव है, जबकि कांग्रेस के बदरुद्दीन कुरैशी पांचवीं बार भाग्य आजमा रहे हैं। पाण्डे अब तक तीन बार चुनाव जीत चुके हैं, जबकि कुरैशी ने दो विजयश्री हासिल की है। भिलाईनगर विधानसभा में पिछले चुनाव में 162778 मतदाता थे, जो इस बार बढ़कर 165549 हो गए हैं। पिछली बार यहां के 62.93 मतदाताओं ने वोट डाले थे। पिछले चुनाव में कुरैशी को 52848 तथा पाण्डे को 43985 मत प्राप्त हुए थे।
लगातार दो बार कोई नहीं जीता
भिलाईनगर विधानसभा के साथ एक संयोग यह भी जुड़ा है कि 1993 के बाद से यहां कोई भी विधायक लगातार दूसरी बार नहीं जीता है। 1993 में जहां भाजपा के प्रेमप्रकाश पाण्डे ने बदरुद्दीन कुरैशी को हराया वहीं, 1998 के चुनाव में कुरैशी ने जीत दर्जकर हिसाब चुकता कर दिया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पहली बार 2003 में हुए चुनाव में पाण्डे ने कुरैशी को हराकर जीत दर्ज की तो इससे अगले चुनाव 2008 में कुरैशी ने पाण्डे को फिर हरा दिया। इस बार दोनों प्रत्याशी फिर आमने-सामने हैं।
निष्कर्ष
बाकी दलों ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। विशेषकर छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने भी यहां कोई प्रत्याशी अभी तक घोषित नहीं किया है। बीएसपी में कार्यरत अधिकतर स्थानीय लोगों ने पिछले चुनाव में मंच को वोट डाले थे। हाल ही बीएसपी यूनियन चुनाव में बाजी सीटू के हाथ लगी, लेकिन मंच समर्थित यूनियन ने दूसरा स्थान हासिल किया था। ऐसे में मंच की प्रभावी भूमिका रहेगी। मंच के प्रत्याशी न उतारने पर बीएसपी के स्थानीय वोटरों का झुकाव हार जीत के परिणाम तय करेगा।
बदरुद्दीन कुरैशी का बंगला
मंगलवार सुबह सुबह 11.20 बजे। कांग्रेस प्रत्याशी बदरुद्दीन कुरैशी के बंगले के बाहर करीब आधा दर्जन दुपहिया वाहन खड़े हैं। बंगले के ठीक सामने सड़क पर पटाखों के जले हुए कागज हवा के साथ उड़ रहे हैं। अंदर कार्यालय में चार लोग बैठे हैं। सभी अखबार पढऩे में तल्लीन। इसी कार्यालय के बगल में एक छोटा सा एक और कमरा। उसी में कुरैशी धीर-गंभीर मुद्रा में बैठे हैं। टेबल पर एक फूलों की माला रखी है, जबकि एक गुलदस्ता बगल में रखा हुआ है। उनका चश्मा टेबल पर रखा है। दोनों कुहनिया टेबल पर टिकाए कुरैशी के चेहरे पर आने वाले उतार-चढ़ाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं। टिकट मिलने की बधाई देने वाले बीच-बीच में आ जा रहे हैं। कोई चरण स्पर्श कर रहा है तो कोई हाथ मिला रहा है। आने वालों को मिठाई खिलाई जा रही है। बांटने वाला एक ही व्यक्ति, लेकिन मिठाई के प्रकार दो। किसी को लड्डू तो किसी को काजू कतली। इसी बीच दो समर्थक आते हैं, टिकट मिलने की कहानी पूछते हैं। कुरैशी खामोशी तोड़ते हैं। कुछ कहने पर जोर से ठहाका लगाते हैं, फिर कहते हैं, आप को तो पता ही है, टिकट कैसे मिलता है। बड़ा मुश्किल काम हो गया है। बिना रुके कुरैशी फिर कहते हैं, अरे यह तो इन दिनों दिल्ली आना-जाना कम कर दिया वरना, इतनी दिक्कत नहीं आती। अचानक कुरैशी उठते हैं और कार्यालय में आ जाते हैं।
प्रेमप्रकाश का बंगला
मंगलवार दोपहर 12.05 बजे भाजपा प्रत्याशी प्रेमप्रकाश पाण्डेय के घर करीब तीन दर्जन समर्थक मौजूद हैं। सभी अलग-अलग झुण्ड बनाकर बातचीत में तल्लीन। कोई मोबाइल पर बतिया रहा है तो कोई मोबाइल से खेल रहा है। करीब आधा घंटे के इंतजार के बाद यकायक सब खामोश हो जाते हैं। लुंगी पहने तथा शर्ट की आस्तीन के बटन बंद करते हुए पाण्डेय समर्थकों के बीच आते हैं। जब तक पाण्डेय बैठे नहीं सभी खड़े रहते हैं। उनके बैठते ही सब बारी-बारी से चरण स्पर्श करते हैं। उम्रदराज हो चाहे युवा, सभी यही करते हैं। इधर पाण्डेय हाथों को बांधे चरण स्पर्श करने वालों को बड़े ही सोचने वाले अंदाज में देखते हैं। एक खाली कुर्सी पाण्डेय की बगल में रखी है, जिस पर उनका छोटा तौलिया रखा है। सब खामोश हैं। एक समर्थक फोन लाकर पाण्डेय को देता है। थोड़ी देर फोन पर हूं..., हां..., करने के बाद फोन वापस समर्थक को थमा दिया जाता है। अचानक एक पार्षद का नाम पुकारते हैं। वह खड़ा हो जाता है। इसके बाद पाण्डेय एक दूसरा नाम पुकारते हैं, वह व्यक्ति भी हाथ जोड़े ही पाण्डेय की तरफ मुखातिब होता है। आंखों ही आंखों में इशारा होता है। चार-पांच पार्षद/पार्षद पति चुपचाप उठते हैं एक कमरे में चले जाते हैं। पाण्डेय अपनी कुर्सी से उठते हैं। थोड़ी ऊंची आवाज में कहते हैं, अरे चाय लाओ और वह भी उस कमरे में प्रवेश कर जाते हैं। बाहर बैठे लोगों में फिर चर्चा छिड़ जाती है।

साभार- पत्रिका छत्तीसढ़ में 24 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित


फिर आम आदमी सुरक्षित कहां?


बस यूं ही

 
आज दोपहर को झुंझुनू के पुराने परिचित को फोन लगा लिया। हाल-चाल जानने के बाद मैंने 'कहा कल तो झुंझुनू में राहुल गांधी आए थे।' जवाब आया 'हां, भाईसाहब, बहुत ही तगड़ी व्यवस्था थी। बाहर दीवार के पास खड़े होने वाले को भी पास जारी किए गए थे। दिल्ली से आए सुरक्षाकर्मियों ने तो हवाई पट्टी के आस-पास के कुछ घरों को भी खाली करवा लिया।' वह एक सांस में यह सब बोल गया। थोड़ा रुकते ही फिर बोला 'कलक्टर-एसपी तक को नहीं जाने दिया, बहुत की तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी। ' मैंने इतना सुनने के बाद पूछा और क्या खास रहा तो वो बोला भाईसाहब खास तो कुछ नहीं है। मैंने कहां चूरू में राहुल के कार्यक्रम की खबर तो यहां छत्तीसगढ़ में भी लगी है। मेरा इतना कहना ही था कि वह फट ही पड़ा बोला 'भाईसाहब आज के सभी अखबारों में राहुल की एक जैसी ही खबर है। सभी ने यही लिखा है दादी को मार दिया, पिता को मार दिया मेरे को भी मार देंगे।' मैंने उत्सुकतावश पूछा 'तो क्या हो गया?' वह बोला 'हुआ तो कुछ नहीं लेकिन यह भी कोई खबर है क्या..' 'कैसे?' मैंने फिर पूछा तो बोला 'इसमें खबर तो यह थी कि इतनी तगड़ी और जेड प्लस की सुरक्षा वाला भी खुद को देश में सुरक्षित नहीं मान रहा है। खुद के मार दिए जाने की आशंका जता रहा है। ऐसे में आदमी की बिसात ही कहां है? वह सुरक्षित कहां है?' थोड़ा रुकते हुए मजाकिया लहजे में वह फिर बोला 'आदमी के पास जेड प्लस तो दूर जेड माइनस भी सुरक्षा ही नहीं है भाईसाहब।' मुझे उसकी बातों में दम नजर आया। वाकई जब देश का इतना बड़ा आदमी खुद को सुरक्षित नहीं मान रहा है तो फिर आम आदमी किसके भरोसे खुद को सुरक्षित माने? कौन उसको सुरक्षा का दिलासा दिलाएगा? मेरे भी जेहन में विचारों का द्वंद्व चलने लगा। सोचते-सोचते यही सोचना लगा कि देशवासी भावुक है। भावुकता से भरी कहानी सुनकर वे भावना में बह जाते हैं। हिस्से में सिवाय आंखें गीली करने के कुछ नहीं आता है। सचमुच हम बेहद इमोशनल हैं और प्रोफेशेनल लोग हमारा दोहन कर लेते हैं। कभी विकास के नाम पर...। कभी सपनों के नाम पर तो कभी किसी कहानी के नाम पर। हमारे दोहन के इस अंतहीन सिलसिले का क्रम कब रुकेगा राम ही जाने...। क्योंकि देश भगवान भरोसे ही है और हम सब भी।

वो मेरे से बड़ी हो गई


बस यूं ही

 
सरकारी दस्तावेजों में गलती की बानगी का आलम उनसे पूछिए जो इनसे बावस्ता हैं। बात चाहे मतदाता परिचय पत्र की हो या फिर राशन कार्ड की, सब जगह रापांरौळ (गड़बड़ी) ही है। पता नहीं कब पति को पिता बना दे या पिता का पुत्र। इतना ही नहीं लिंग परिवर्तन तक कर दिया जाता है। महिलाओं को पुरुष तो पुरुषों को महिला तक बना दिया जाता है। गलत फोटो चस्पा तक कर दी जाती हैं। पत्रकारिता के पेशे में होने के कारण इस प्रकार की विसंगतियों से वास्ता कई बार पड़ा है। मतदाता परिचय पत्र में नाम को लेकर संशोधन करवाने के लिए मैंने स्वयं ने दो तीन बार प्रयास किए लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। अब आदमी का हाल क्या होगा बताने की शायद जरूरत ही नहीं है। हालिया मामला राशनकार्ड से जुड़ा है। अभी गांव गया तो पापाजी ने बताया कि नए राशनकार्ड बनकर आ गए हैं। उत्सुकतावश जब राशनकार्ड देखे (घर में सभी के राशनकार्ड अलग अलग हैं) तो वे पहले के मुकाबले साइज में कुछ छोटे नजर आए। कार्ड के ऊपर लिखा था एपीएल उपभोक्ताओं के लिए। नीले रंग में राजस्थान के नक्शे के साथ कार्ड का कवर पेज एक नजर देखने में आकर्षक नजर आया। अंदर देखा तो सारी इंट्री कम्प्यूटरीकृत थी। मतलब पैन या बालपैन का कहीं उपयोग नहीं हुआ था। सारा का सारा काम कप्यूटर के माध्यम से सम्पादित किया गया था। राशनकार्ड में लिखी गई जानकारी कितनी सही एवं सटीक है, इसको गंभीरता के साथ नहीं देख पाया।
दूसरे दिन दिल्ली से भाईसाहब आए तो मैंने उनको बताया कि नए राशनकार्ड बन गए हैँ। इसके बाद फिर कार्ड को देखने लगा। तीसरे पेज पर एक कॉलम था. आयकरदाता- उसके आगे नहीं लिखा गया था। मैं चौंका क्योंकि दो साल तो आयकर के पैसे कट रहे हैं फिर भी आयकरदाता नहीं हूं। खैर, इसके बाद मेरे को डबल गैस सिलेण्डर धारक उपभोक्ता बताया गया वह भी बगड़ की गैस एजेंसी का। हकीकत तो यह है कि मैं डबल गैस सिलेण्डर धारक उपभोक्ता ही हूं लेकिन जिस एजेंसी का हवाला दिया गया है, वहां का नहीं हूं। मैंने छत्तीसगढ़ आने के बाद बिलासपुर से गैस कनेक्शन लिया और तबादला होने के बाद उसको भिलाई स्थानांतरित करवा लिया। अब राशनकार्ड बनाने वालों को पता नहीं क्या आगे की सूझ गई, जो उन्होंने गैस एजेंसी का नाम बगड़ डाल दिया। मेरे लिए तो यह दोनों जानकारी ही चौंकाने के लिए पर्याप्त थी लेकिन आखिर में परिवार के सदस्यों के नाम देखकर तो मैं एक तरह से उछल ही पड़ा। चूंकि राशनकार्ड मैंने गैस कनेक्शन के उद्देश्य से ही पहले से ही अलग बनवा लिया था, इस कारण उसमें मेरा, धर्मपत्नी एवं बच्चों के नाम हैं। पुराने राशनकार्ड में भी उम्र को लेकर कुछ विरोधाभास था लेकिन नए वाले में तो जबरदस्त विरोधाभास नजर आया है। हकीकत में मेरी उम्र 37 हो गई है लेकिन राशनकार्ड बनाने वालों ने इसे 26 ही लिखा। इतना ही नहीं बड़े बच्चे योगराज की उम्र आठ व छोटे एकलव्य की छह साल है लेकिन राशनकार्ड में दोनों की उम्र छह साल लिखी हुई है। मतलब दोनों जुड़वा हो गए। अति तो धर्मपत्नी की उम्र के साथ कर दी गई। राशनकार्ड में उसकी आयु 29 साल दिखा रखी है। इस हिसाब से वह मेरे से तीन साल बड़ी हो गई। यह सब देखकर मेरे पास राशनकार्ड बनाने वालों के सामान्य ज्ञान को दाद देने के अलावा कोई चारा नहीं था। वैसे अखबार से जुड़े होने के कारण इस प्रकार की गलतियां अखरना लाजिमी भी है। भिलाई लौटने के बाद जब यही बात धर्मपत्नी से साझा की और मजाक में कहा कि अब तो तुम मेरे से बड़ी हो गई हो गई हो? यह बात बिलकुल प्रमाणिक और सरकारी दस्तावेज में दर्ज है। मेरे इस मजाक को उसने बड़ी ही साफगोई के साथ शांत कर दिया, बोली, पत्नी हमेशा पति से छोटी हो यह जरूरी तो नहीं होता, अभिषेक एवं एश्वर्या का उदाहरण ही ले लो। अब भला मैं क्या बोलता। हां मन ही मन में इतना जरूर सोच रहा था कि कहीं राशनकार्ड बनाने वाला भी धर्मपत्नी जैसी सोच व मानसिकता वाला तो नहीं था?

यह प्राइवेट बस वाले...


बस यूं ही

 
बचपन में देखी फिल्म शोले का गीत 'स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है... कोई हसीना जब रुठ जाती है तो...' वैसे तो कई बार सुना है लेकिन गीत की इस लाइन की गंभीरता उस दिन समझ में आई जब वास्तव में गाड़ी छूट गई। गाड़ी छूटने के बाद हुई दिक्कतों का उल्लेख तो कर ही चुका हूं लेकिन गाड़ी छूटने का वाकया भी बड़ा रोचक है। आठ अक्टूबर को दोपहर बाद 3.25 बजे दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से गोंडवाना एक्सप्रेस में मेरा कन्फर्म टिकट था। करीब इसी समय पर एक बार पहले राजधानी एक्सप्रेस से भिलाई जा चुका हूं, इसलिए इस बात से आश्वस्त था कि सुबह जल्दी चलकर आराम से स्टेशन पहुंच जाऊंगा। तैयार होकर सुबह गांव से बस पकड़कर नजदीकी बस स्टैण्ड बगड़ पहुंचा तब साढ़े सात बज चुके थे। पौने आठ बजे के करीब एक प्राइवेट बस आई, जिस पर राजस्थान राज्य पथ परिहवन निगम से अनुबंधित लिखा हुआ। उस पर लिखा था झुंझुनू से हरिद्वार वाया दिल्ली। अनुबंधित तथा दिल्ली व हरिद्वार लिखा देखकर मैं बस में यह सोचकर बैठ गया कि लम्बी दूरी की बस है, समय पर दिल्ली पहुंचा ही देगी। तसल्ली के लिए बस में बैठते वक्त परिचालक से पूछा तो उसने दोपहर डेढ़-दो बजे के बीच दिल्ली पहुंचने की बात कही। बस चल पड़ी। थोड़ी देर बाद परिचालक मेरे पास आया और किराया मांगा। मैंने किराया दिया तो बोला भाईसाहब बस हजरत निजामुद्दीन नहीं जाकर केवल धोलाकुआं तक जाएगी। मैं कुछ बोलता इससे पहले ही वह फिर बोला, धोलाकुआं से हजरत निजामुद्दीन के लिए काफी बसें हैं। आप उनमें चले जाना। खैर, उसकी बातों को सुनकर मैं चुप ही रहा। बस की रफ्तार एवं छोटे-छोटे गांव में उसके ठहराव को देखकर मन में आशंका घर कर चुकी थी लेकिन फिर भी मन ही मन खुद को दिलासा देता रहा कि अभी तो काफी समय बाकी बचा है। बगड़ से बस चिड़ावा पहुंची थी कि पीछे से हरियाणा रोडवेज की बस आई और तेजी के साथ निकल गई। यह वही बस थी, जिसमें पिछली बार दिल्ली गया था और निर्धारित समय से पहले ही पहुंच गया था। चूंकि किराया दे चुका था इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया। परिचालक भी उस वक्त पता नहीं कहां गायब हो गया था। आखिरकार साढ़े आठ बजे के करीब बस चिड़ावा से रवाना हुई। सिंघाना जाने के बाद फिर बस रोक दी गई। लम्बे-लम्बे ठहराव देखकर यकीन मानिए बहुत बुरा लग रहा था लेकिन कोई जोर भी नहीं चल रहा था। सिंघाना से नारनौल के बीच में भी उसने कई बार रोका। नारनौल पहुंचते-पहुंचते साढ़े दस बज चुके थे। नारनौल से बगड़ की दूरी करीब 70 किमी के लगभग है लेकिन वहां पहुंचने में उसने पौने तीन घंटे लगा दिए थे। नारनौल से रेवाड़ी की दूरी भी 60 किमी के करीब है लेकिन सड़क उपेक्षाकृत खराब है, लिहाजा बस उतनी रफ्तार से नहीं चल रही थी, जितनी चलनी चाहिए। और कम से कम ऐसे हालात में मेरे को तो लगती भी कैसे। इंतजार करते-करते अंतत: 12 बजे बस जैसे-तैसे रेवाड़ी बस स्टैण्ड पहुंची। करीब पन्द्रह मिनट बाद परिचालक आया और बोला, धारूहेड़ा, मानेसर व बिलासपुर की सवारी बस में ना बैठें। केवल दिल्ली और गुडग़ांव के यात्री बैठे रहें। इस घोषणा के बाद दो चार सवारी जो उक्त स्थानों की थी वे उतर गई। बस में कोल्डड्रींक बेचने वाले एक लड़के ने बताया कि रास्ते में बहुत बड़ा जाम लगा हुआ है कल शाम से ही..इस कारण बसें वाया पटौदी होकर दिल्ली जा रही हैं। उसकी बात सुनकर धड़कन और तेज हो गई। इसी दौरान परिचालक आया और बोला सभी लोग अपनी टिकट दिखाकर बाकी का पैसा वापस ले लें। बस दिल्ली नहीं जाएगी। रेवाड़ी तक का किराया काटकर उसने पैसे वापस किए तो गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। साढ़े बारह का समय हो गया था। दिल्ली के लिए कोई बस है क्या इस वक्त?, तो परिचालक ने बगल में खड़ी एक प्राइवेट बस की तरफ इशारा करते हुए कहा, इसमें बैठ जाओ, यह दिल्ली जाएगी। उस बस के परिचालक के पास गया तो उसने कहा कि वह तो गुडग़ांव के इफको चौक तक ही जाएगी।
उस वक्त तय नहीं कर पा रहा था कि आखिर क्या किया जाए। बड़े ही विकट एवं विचित्र हालात बन गए थे। लगभग बदहवाशी की हालत में दिल्ली भाईसाहब को फोन लगाकर उनको बताया् फिर गांव में पापाजी को सारा वृतांत फोन पर ही सुनाया। भिलाई कार्यालय में भी फोन लगाकर घटनाक्रम से अवगत करा दिया। बस स्टैण्ड पर मेरे अलावा चार पांच युवक और खड़े थे, सभी को दिल्ली जाना था। मैंने टैक्सी से चलने का प्रस्ताव रखा तो एक बार तो सभी तैयार हो गए। इसी बीच एक बोला, टैक्सी वाला तो 25 सौ रुपए लेगा। मैंने कहा कि सभी के हिस्से पांच-पांच सौ आएंगे। इतना सुनते ही सब के सब चुप। मेरे पास भी जेब में उस वक्त तीन सौ रुपए ही थे। एटीएम से पैसे निकालवाने का विकल्प थी नहीं था क्योंकि कार्ड भिलाई में ही छोड़ दिए थे। आते वक्त पापाजी पांच सौ रुपए दे रहे थे लेकिन वो भी मैंने जानबूझकर नहीं लिए। पापाजी को कहा कि रास्ते में जो खर्चा होगा उतने तो जेब में हैं, काम चल जाएगा। पापाजी ने बार-बार कहा कि ले लो लेकिन मैंने नहीं लिए, हालांकि मैं पांच सौ रुपए रख भी लेता तो मेरे पास आठ सौ रुपए का ही जुगाड़ हो पाता। वैसे भी 25 सौ और आठ सौ में दूर दूर तक कोई समानता भी नहीं थी। हम सभी एक दूसरे का मुंह ताक ही रहे थे कि एक बुजुर्ग व्यक्ति ने चुप्पी तोड़ते हुए मेरे से कहा कि आपकी ट्रेन कितने बजे की है। मैंने साढे तीन बजे का समय बताया तो वह बोला, हमारी टे्रेन तो साढ़े पांच बजे की है, हम तो आराम से घूम फिर के पहुंच जाएंगे। बुजुर्ग की बाद सुनते ही सारे युवक वहां से खिसक लिए। मैं अकेला ही रह गया। इसी बीच अचानक एक बस आई, उस पर लोग टूट पड़े। भारी बैग को लेकर मैं भी किसी तरह बस में सवार हुआ। लेकिन उसके रंग-ढंग देखकर समझते देर नहीं लगी यह तो लोकल बस है और घूम-फिर कर दिल्ली जाएगी। ऐसे में बस से उतर जाना ही उचित समझा। दिमाग ने सोचना लगभग बंद कर दिया था। फैसला ही नहीं कर पा रहा था कि आखिर क्या किया जाए। स्टैण्ड से बाहर मुख्य सड़क पर इस उम्मीद से आया कि शायद कोई कार या जीप दिल्ली के लिए मिल जाए लेकिन वहां पर भी निराशा ही हाथ लगी। आखिरकार मन ही मन में फैसला कर लिया कि अब दिल्ली नहीं जाऊंगा। अब सामने दो दिक्कतें थी। दिल्ली-भिलाई के बीच वाले टिकट को निरस्त करवाना तथा दूसरा फिर से किसी ट्रेन में कन्फर्म टिकट की व्यवस्था। भिलाई कार्यालय के एक साथी से लगातार सम्पर्क में था। वह सभी रेलों की जानकारी बता रहा था। आखिरकार जयपुर-नागपुर में जाने का फाइनल कर दिया गया। इसके बाद एक रिक्शे वाले के पास गया और स्टेशन चलने को कहा तो वह बोला भाईसाहब ट्रेन पकडऩी है तो कोई ऑटो पकड़ लो। दस रुपए लेगा जल्दी पहुंचा देगा। मैंने कहा कि ट्रेन नहीं पकडऩी टिकट रद्द करवानी है। इसके बाद स्टेशन पहुंचा, वहां लाइन में लगने के बाद टिकट रद्द करवाया। ट्रेन रवाना होने के चार घंटे के अंतराल में टिकट रद्द करवाने पर कुल किराये का पचास फीसदी कट जाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। टिकट रद्द करवाकर ऑटो पकड़कर वापस स्टैण्ड आया। थोड़े से इंतजार के बाद ही बस आ गई थी लेकिन उसमें काफी भीड़ थी। नारनौल तक खड़ा आया। नारनौल में जगह मिली तो कुछ आराम आया। करीब बारह घंटे की बेमतलब की यात्रा के बाद शाम सात बजे घर पहुंचा। यकीन मानिए इन बाहर घंटे में इतनी मानसिक वेदना झेली कि कुछ भी याद नहीं रहा। पानी सुबह घर से पीकर निकला था। वापसी में सिंघाना आकर बोतल खरीदकर पानी पीया। खाना तो जैसा मां ने दिया था वैसा का वैसा रह गया। ऐसे हालात में बजाय किसी को दोष देने के मैं खुद को ही कोस रहा था कि क्यूं प्राइवेट बस में सवार हुआ। अगर पांच मिनट इंतजार करने के बाद हरियाणा रोडवेज की वह बस पकड़ लेता तो शायद यह सब होता ही नहीं। वाकई स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो बड़ी पीड़ा होती है। अब यकीन तो आपको भी हो गया होगा। भगवान बचाए इन प्राइवेट बस वालों से।

वो 45 घंटे


बस यूं ही

 
बेहद ही थकाऊ व उबाऊ और अब तक की सबसे लम्बी यात्रा के बाद आखिरकार रविवार अलसुबह करीब पांच बजे मैं भिलाई पहुंचा। गांव (केहरपुरा कलां, राजस्थान) से भिलाई (छत्तीसगढ़) तक पहुंचने में वैसे तो 28 से 30 घंटे तक का समय लगता है लेकिन इस बार सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए। आठ अक्टूबर को भिलाई वापसी का कार्यक्रम (ट्रेन छूट जाने के कारण ) ऐसा गड़बड़ाया कि पटरी पर बड़ी मुश्किल से आया। किसी न किसी तरीके से और जितनी जल्दी हो सके भिलाई पहुंचना जरूरी था। तत्काल दिल्ली से भिलाई तक के बीच चलने वाली तमाम ट्रेन की जानकारी जुटाई गई मगर सभी में वेटिंग दिखाई दे रहा था। जयपुर से भिलाई के बीच चलने वाले रेलों की हालात भी कमोबेश ऐसी ही थी। वैकल्पिक हल के रूप में तय किया गया कि अगर कोई सीधी ट्रेन नहीं है तो क्यों न टुकड़ों में जाया जाए। बस यहीं से निर्धारित समय से ज्यादा समय खर्च होने की बुनियाद रख दी गई थी। जयपुर से नागपुर के बीच चलने वाली एक ट्रेन में उम्मीद की कुछ किरण दिखाई दी। लिहाजा, इसी ट्रेन की टिकट 8 अक्टूबर को ही बुक करा दी गई। आरएसी में 42 नम्बर मिला था। संतोष इस बात का था कि चलो बैठने का स्थान तो पक्का है। मन में विश्वास भी था कि आरएसी टिकट कन्फर्म हो जाएगी। कन्फर्म को लेकर उत्सुकता इतनी ज्यादा थी कि करीब चार दर्जन मैसेज 139 पर कर-करके अपडेट जानता रहा। 11 अक्टूबर को सुबह आठ बजे घर से रवाना होते वक्त भी मैसेज किया लेकिन उसमें 18 नम्बर पर आरएसी दिखा रहा था। जयपुर के लिए सीधी बस पकडऩे के लिए झुंझुनू बस डिपो जाने की बजाय बगड़ तिराहे पर ही उतर गया। पांच मिनट बाद ही राजस्थान रोडवेज की बस आई लेकिन भीड़ इतनी कि तिल रखने की भी जगह नहीं थी। बस की हालत देखकर मैं पीछे हट गया। गनीमत रही कि पीछे-पीछे एक प्राइवेट बस भी थी। भीड़ तो उसमें भी थी लेकिन खड़े होने लायक जगह थी। मैं उसमें सवार हो गया। झुंझुनू आने के बाद सभी यात्रियों को एक दूसरी बस में बैठने के लिए कहा गया। बस की सभी सीटें भरी हुई थीं, इतना जरूर था कि बस स्लीपर थी इस कारण इन पर भी यात्रियों की बैठाया गया था। सिंगल स्लीपर में दो तो डबल में चार यात्री बैठे थे। हिम्मत करके मैं भी डबल वाले स्लीपर में चढ़ गया, वह भी सबसे आखिर में। सीकर आते-आते बस लगभग खाली हो चुकी थी। ऊपर बैठे कई यात्री अब नीचे की सीटों पर आ गए थे। सीकर से निकलते ही अचानक तेज बारिश का दौर शुरू हो गया। हर तरफ पानी ही पानी। बस के अंदर भी काफी पानी हो गया था। कई जगह से पानी टपकने लगा था। रही सही कसर एक शीशे ने पूरी कर दी। शीशे को पेचकस से बंद करने के प्रयास में परिचालक से पूरा शीशा ही टूट गया। अब तो बारिश की बौछारें तेज हवा के साथ बस के अंदर तक आने लगी थी। पर्दे को शीशे की जगह लगाने का प्रयास किया लेकिन वह भी गीला होकर उडऩे लगा। तेज हवा और फुहारों से शरीर में सिहरन होने लगी थी। खुली खिड़की की जद में मैं ही जो आ रहा था। आखिकार दोपहर के करीब दो बजे बस जयपुर पहुंची। यहां बारिश कुछ हल्की थी। बूंदाबांदी के बीच तत्काल रिक्शे से जयपुर रेलवे स्टेशन पहुंचा। तब तक बारिश कुछ तेज हो गई थी। भीगते हुए ही स्टेशन परिसर में प्रवेश किया। ढाई बज चुके थे। टिकट कन्फर्म को लेकर अभी भी ऊहोपाह की स्थिति थी। दो तीन बार दो मैसेज का जवाब नहीं आया। एक दो बार फेलियर का मैसेज भी आया। आखिरकार साढ़े तीन बजे चार्ट बना और टिकट कन्फर्म का मैसेज आया तो यकीन मानिए एक तरह का बोझ सा हट गया था। ट्रेन तो दो घंटे पहले ही प्लेटफार्म पर पहुंच गई थी और मैं भी। लेकिन चार बजे के करीब जब आरक्षण चार्ट ट्रेन पर लगाया गया तो शायद ही कोई यात्री होगा जिसका टिकट कन्फर्म ना हो। इसकी प्रमुख वजह यह थी कि यह ट्रेन अभी नई नई ही चली है। ऐसा लगा कि यात्रियों को इसके बारे में जानकारी कम है। आखिरकार निर्धारित समय शाम 4.30 बजे यह ट्रेन जयपुर से रवाना हुई। इसका रुट कुछ अलग था। यह वाया सवाइमाधोपुर होकर कोटा जाने की बजाय अजमेर, भीलवाड़ा, चित्तोड़ होते हुए कोटा आई। दिन भर मध्यप्रदेश में दौडऩे के बाद दूसरे दिन शाम सात बजे यह ट्रेन नागपुर पहुंची। नागपुर से भिलाई का आरक्षण पहले ही करवा लिया था। भिलाई के लिए ट्रेन रात 11.35 पर थी। ऐसे में मेरे पास चार घंटे से ज्यादा समय था। पूछताछ की शायद कोई बस मिल जाए तो और भी जल्दी भिलाई पहुंच जाऊं। जल्दी पहुंचने की उत्सुकता इतनी थी कि ट्रेन का तत्काल में लिया टिकट भी रद्द करवाना तय कर लिया था। ऑटो लेकर नागपुर के बस स्टैण्ड तक हो आया लेकिन वहां उस वक्त ऐसी कोई बस ना थी जो ट्रेन से पहले भिलाई छोड़ दे। आखिकार वापस स्टेशन आ गया। यहां जूते निकाल कर आराम से बैठ गया। थोड़ी ही देर में पास में एक सज्जन आकर बैठ गए। अपने मोबाइल में कुछ टाइप करने में व्यस्त थे। अचानक मेरे से पूछ बैठे भाईसाहब घड़ी में एएम और पीएम का क्या मतलब होता है। मैं उनके सवाल पर थोड़ा सा हंसा और फिर उनको बताया। इसके बाद तो बातों सिलसिला ही चल पड़ा। वो सज्जन मूलत: जमशेदपुर (टाटानगर, झारखण्ड) के रहने वाले थे। अपने शहर जा रहे थे। बताया कि नागपुर के एक होटल में मास्टर सेफ हैं और अब यहां से इस्तीफा दे दिया है, झारखण्ड से लौटने के बाद रायपुर के किसी होटल में पदभार ग्रहण करना है।
बातचीत के इस दौर में दो घंटे बीत गए। अचानक हावड़ा-हटिया जाने वाली ट्रेन आई तो वो बोले इसी में निकल जाता हूं। जब तक दस सवा दस हो गए थे। स्टेशन पर भीड़ बढऩे लगी थी। श्रीमती के बीच में दो तीन फोन आ गए, वह बोली, आप रात को नागपुर में रुक जाओ, तूफान आने वाला है। मैं उसकी सलाह पर थोड़ा मुस्कुराया और उससे कहा कि अब इससे ज्यादा परेशानी और क्या होगी, जो होगा देखा जाएगा। खैर, निर्धारित समय से थोड़ा विलम्ब से ट्रेन स्टेशन पर आई। आखिरकार सुबह साढ़े चार बजे के करीब मैं दुर्ग रेलवे स्टेशन उतरा। घर पहुंचते-पहुंचते पांच बज चुके थे। समय की गणना करने लगा तो दो दिन और लगभग दो रात तो सफर में ही बीत गए थे। एक नया रिकार्ड बन गया था, 45 घंटे तक लगातार यात्रा करने का। यकीनन यात्रा बेहद तकलीफदेह एवं थकाने वाली रही लेकिन अपने साथ कई तरह के अनुभव छोड़ गई।