Monday, October 28, 2013

यह प्राइवेट बस वाले...


बस यूं ही

 
बचपन में देखी फिल्म शोले का गीत 'स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है... कोई हसीना जब रुठ जाती है तो...' वैसे तो कई बार सुना है लेकिन गीत की इस लाइन की गंभीरता उस दिन समझ में आई जब वास्तव में गाड़ी छूट गई। गाड़ी छूटने के बाद हुई दिक्कतों का उल्लेख तो कर ही चुका हूं लेकिन गाड़ी छूटने का वाकया भी बड़ा रोचक है। आठ अक्टूबर को दोपहर बाद 3.25 बजे दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से गोंडवाना एक्सप्रेस में मेरा कन्फर्म टिकट था। करीब इसी समय पर एक बार पहले राजधानी एक्सप्रेस से भिलाई जा चुका हूं, इसलिए इस बात से आश्वस्त था कि सुबह जल्दी चलकर आराम से स्टेशन पहुंच जाऊंगा। तैयार होकर सुबह गांव से बस पकड़कर नजदीकी बस स्टैण्ड बगड़ पहुंचा तब साढ़े सात बज चुके थे। पौने आठ बजे के करीब एक प्राइवेट बस आई, जिस पर राजस्थान राज्य पथ परिहवन निगम से अनुबंधित लिखा हुआ। उस पर लिखा था झुंझुनू से हरिद्वार वाया दिल्ली। अनुबंधित तथा दिल्ली व हरिद्वार लिखा देखकर मैं बस में यह सोचकर बैठ गया कि लम्बी दूरी की बस है, समय पर दिल्ली पहुंचा ही देगी। तसल्ली के लिए बस में बैठते वक्त परिचालक से पूछा तो उसने दोपहर डेढ़-दो बजे के बीच दिल्ली पहुंचने की बात कही। बस चल पड़ी। थोड़ी देर बाद परिचालक मेरे पास आया और किराया मांगा। मैंने किराया दिया तो बोला भाईसाहब बस हजरत निजामुद्दीन नहीं जाकर केवल धोलाकुआं तक जाएगी। मैं कुछ बोलता इससे पहले ही वह फिर बोला, धोलाकुआं से हजरत निजामुद्दीन के लिए काफी बसें हैं। आप उनमें चले जाना। खैर, उसकी बातों को सुनकर मैं चुप ही रहा। बस की रफ्तार एवं छोटे-छोटे गांव में उसके ठहराव को देखकर मन में आशंका घर कर चुकी थी लेकिन फिर भी मन ही मन खुद को दिलासा देता रहा कि अभी तो काफी समय बाकी बचा है। बगड़ से बस चिड़ावा पहुंची थी कि पीछे से हरियाणा रोडवेज की बस आई और तेजी के साथ निकल गई। यह वही बस थी, जिसमें पिछली बार दिल्ली गया था और निर्धारित समय से पहले ही पहुंच गया था। चूंकि किराया दे चुका था इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया। परिचालक भी उस वक्त पता नहीं कहां गायब हो गया था। आखिरकार साढ़े आठ बजे के करीब बस चिड़ावा से रवाना हुई। सिंघाना जाने के बाद फिर बस रोक दी गई। लम्बे-लम्बे ठहराव देखकर यकीन मानिए बहुत बुरा लग रहा था लेकिन कोई जोर भी नहीं चल रहा था। सिंघाना से नारनौल के बीच में भी उसने कई बार रोका। नारनौल पहुंचते-पहुंचते साढ़े दस बज चुके थे। नारनौल से बगड़ की दूरी करीब 70 किमी के लगभग है लेकिन वहां पहुंचने में उसने पौने तीन घंटे लगा दिए थे। नारनौल से रेवाड़ी की दूरी भी 60 किमी के करीब है लेकिन सड़क उपेक्षाकृत खराब है, लिहाजा बस उतनी रफ्तार से नहीं चल रही थी, जितनी चलनी चाहिए। और कम से कम ऐसे हालात में मेरे को तो लगती भी कैसे। इंतजार करते-करते अंतत: 12 बजे बस जैसे-तैसे रेवाड़ी बस स्टैण्ड पहुंची। करीब पन्द्रह मिनट बाद परिचालक आया और बोला, धारूहेड़ा, मानेसर व बिलासपुर की सवारी बस में ना बैठें। केवल दिल्ली और गुडग़ांव के यात्री बैठे रहें। इस घोषणा के बाद दो चार सवारी जो उक्त स्थानों की थी वे उतर गई। बस में कोल्डड्रींक बेचने वाले एक लड़के ने बताया कि रास्ते में बहुत बड़ा जाम लगा हुआ है कल शाम से ही..इस कारण बसें वाया पटौदी होकर दिल्ली जा रही हैं। उसकी बात सुनकर धड़कन और तेज हो गई। इसी दौरान परिचालक आया और बोला सभी लोग अपनी टिकट दिखाकर बाकी का पैसा वापस ले लें। बस दिल्ली नहीं जाएगी। रेवाड़ी तक का किराया काटकर उसने पैसे वापस किए तो गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। साढ़े बारह का समय हो गया था। दिल्ली के लिए कोई बस है क्या इस वक्त?, तो परिचालक ने बगल में खड़ी एक प्राइवेट बस की तरफ इशारा करते हुए कहा, इसमें बैठ जाओ, यह दिल्ली जाएगी। उस बस के परिचालक के पास गया तो उसने कहा कि वह तो गुडग़ांव के इफको चौक तक ही जाएगी।
उस वक्त तय नहीं कर पा रहा था कि आखिर क्या किया जाए। बड़े ही विकट एवं विचित्र हालात बन गए थे। लगभग बदहवाशी की हालत में दिल्ली भाईसाहब को फोन लगाकर उनको बताया् फिर गांव में पापाजी को सारा वृतांत फोन पर ही सुनाया। भिलाई कार्यालय में भी फोन लगाकर घटनाक्रम से अवगत करा दिया। बस स्टैण्ड पर मेरे अलावा चार पांच युवक और खड़े थे, सभी को दिल्ली जाना था। मैंने टैक्सी से चलने का प्रस्ताव रखा तो एक बार तो सभी तैयार हो गए। इसी बीच एक बोला, टैक्सी वाला तो 25 सौ रुपए लेगा। मैंने कहा कि सभी के हिस्से पांच-पांच सौ आएंगे। इतना सुनते ही सब के सब चुप। मेरे पास भी जेब में उस वक्त तीन सौ रुपए ही थे। एटीएम से पैसे निकालवाने का विकल्प थी नहीं था क्योंकि कार्ड भिलाई में ही छोड़ दिए थे। आते वक्त पापाजी पांच सौ रुपए दे रहे थे लेकिन वो भी मैंने जानबूझकर नहीं लिए। पापाजी को कहा कि रास्ते में जो खर्चा होगा उतने तो जेब में हैं, काम चल जाएगा। पापाजी ने बार-बार कहा कि ले लो लेकिन मैंने नहीं लिए, हालांकि मैं पांच सौ रुपए रख भी लेता तो मेरे पास आठ सौ रुपए का ही जुगाड़ हो पाता। वैसे भी 25 सौ और आठ सौ में दूर दूर तक कोई समानता भी नहीं थी। हम सभी एक दूसरे का मुंह ताक ही रहे थे कि एक बुजुर्ग व्यक्ति ने चुप्पी तोड़ते हुए मेरे से कहा कि आपकी ट्रेन कितने बजे की है। मैंने साढे तीन बजे का समय बताया तो वह बोला, हमारी टे्रेन तो साढ़े पांच बजे की है, हम तो आराम से घूम फिर के पहुंच जाएंगे। बुजुर्ग की बाद सुनते ही सारे युवक वहां से खिसक लिए। मैं अकेला ही रह गया। इसी बीच अचानक एक बस आई, उस पर लोग टूट पड़े। भारी बैग को लेकर मैं भी किसी तरह बस में सवार हुआ। लेकिन उसके रंग-ढंग देखकर समझते देर नहीं लगी यह तो लोकल बस है और घूम-फिर कर दिल्ली जाएगी। ऐसे में बस से उतर जाना ही उचित समझा। दिमाग ने सोचना लगभग बंद कर दिया था। फैसला ही नहीं कर पा रहा था कि आखिर क्या किया जाए। स्टैण्ड से बाहर मुख्य सड़क पर इस उम्मीद से आया कि शायद कोई कार या जीप दिल्ली के लिए मिल जाए लेकिन वहां पर भी निराशा ही हाथ लगी। आखिरकार मन ही मन में फैसला कर लिया कि अब दिल्ली नहीं जाऊंगा। अब सामने दो दिक्कतें थी। दिल्ली-भिलाई के बीच वाले टिकट को निरस्त करवाना तथा दूसरा फिर से किसी ट्रेन में कन्फर्म टिकट की व्यवस्था। भिलाई कार्यालय के एक साथी से लगातार सम्पर्क में था। वह सभी रेलों की जानकारी बता रहा था। आखिरकार जयपुर-नागपुर में जाने का फाइनल कर दिया गया। इसके बाद एक रिक्शे वाले के पास गया और स्टेशन चलने को कहा तो वह बोला भाईसाहब ट्रेन पकडऩी है तो कोई ऑटो पकड़ लो। दस रुपए लेगा जल्दी पहुंचा देगा। मैंने कहा कि ट्रेन नहीं पकडऩी टिकट रद्द करवानी है। इसके बाद स्टेशन पहुंचा, वहां लाइन में लगने के बाद टिकट रद्द करवाया। ट्रेन रवाना होने के चार घंटे के अंतराल में टिकट रद्द करवाने पर कुल किराये का पचास फीसदी कट जाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। टिकट रद्द करवाकर ऑटो पकड़कर वापस स्टैण्ड आया। थोड़े से इंतजार के बाद ही बस आ गई थी लेकिन उसमें काफी भीड़ थी। नारनौल तक खड़ा आया। नारनौल में जगह मिली तो कुछ आराम आया। करीब बारह घंटे की बेमतलब की यात्रा के बाद शाम सात बजे घर पहुंचा। यकीन मानिए इन बाहर घंटे में इतनी मानसिक वेदना झेली कि कुछ भी याद नहीं रहा। पानी सुबह घर से पीकर निकला था। वापसी में सिंघाना आकर बोतल खरीदकर पानी पीया। खाना तो जैसा मां ने दिया था वैसा का वैसा रह गया। ऐसे हालात में बजाय किसी को दोष देने के मैं खुद को ही कोस रहा था कि क्यूं प्राइवेट बस में सवार हुआ। अगर पांच मिनट इंतजार करने के बाद हरियाणा रोडवेज की वह बस पकड़ लेता तो शायद यह सब होता ही नहीं। वाकई स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो बड़ी पीड़ा होती है। अब यकीन तो आपको भी हो गया होगा। भगवान बचाए इन प्राइवेट बस वालों से।

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