Friday, December 23, 2011

आज के युवा और अभिभावक

ब्लॉग लिखने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं तकनीक एवं संचार क्रांति का विरोधी कतई नहीं हूं बशर्ते उसका उपयोग देशहित में हो, लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा बहुत कम हो रहा है।  सूचना एवं तकनीक ने जितनी तरक्की है उसके उतने ही साइड इफेक्ट्‌स भी देखने को मिल रहे हैं। विशेषकर आजकल की युवा पीढ़ी तो सूचना तकनीक के मामले में इतनी एडवांस और उसमें इतनी खो चुकी है उसे न अभिभावकों की खबर है और न ही खुद का होश रहता है। विशेषकर देश में जब से मोबाइल क्रांति का सूत्रपात हुआ है तब से समाज में कई तरह की विकृतियां भी आ गई हैं। यह सही है कि संचार क्रांति से दुनिया बेहद छोटी हो गई है और आम आदमी, भले ही वह खेत में बैठा हो, सात समुन्दर पार बतिया सकता है।  लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में संचार क्रांति के सूत्रपात से समाज का तानाबुना प्रभावित होना लगा है। कई जगह तो इस संचार क्रांति की अति इतनी हो गई कि इस छोटे से खिलौने पर प्रतिबंध लगाने जैसी बात भी उठनी लगी है। देश के कई हिस्सों में विभिन्न समाजों में मोबाइल का प्रचलन बिलकुल प्रतिबंधित कर दिया गया है। कई अन्य समाजों में भी इस प्रकार प्रतिबंध लगाने की मांग उठ रही है। इसके अलावा पाश्चात्य संस्कृति में रचे-बसे परिधानों पर प्रतिबंध लगाने का बातें भी गाहे-बगाहे उठती रही हैं। एक दो ऐसी ही सामाजिक बैठकों का मैं साक्षी रहा हूं जब वक्ताओं ने सार्वजनिक मंच से इस बात को बड़ी बेबाकी के साथ कहा कि समाजोत्थान के लिए जरूरी है कि बच्चो को मोबाइल नहीं दिया जाए। लाड-प्यार के चलते अभिभावक उनको यह छोटा सा खिलौना थमा तो देते हैं लेकिन उसके दूरगामी परिणामों से अनजान होते है। अभिभावकों की आंख भी उस वक्त खुलती है जब पानी काफी बह चुका होता है।
खैर, इस विषय ही इतनी लम्बी चौड़ी भूमिका बांधने से पहले यह भी बताता चलूं कि मैं यह ब्लॉग अपने अति प्रिय भतीजे के कहने पर ही लिख रहा हूं जो कि स्वयं इस मोबाइल क्रांति के मोहपाश में बंधा हुआ है। मजे की बात यह है कि वह हाल ही में 18  साल का हुआ है लेकिन मोबाइल का उपयोग पिछले दो-तीन साल से कर रहा है। मतलब साफ है कि इस दौरान वह मोबाइल से संबंधित कमोबेश हर प्रकार की तकनीक में महारत हासिल कर चुका है। विशेषकर मोबाइल पर इंटरनेट चलाने या कुछ डाउनलोड करने का काम तो वह पलक झपकते ही कर लेता है। पेशेगत मजबूरियों के चलते मैं पिछले नौ साल से मोबाइल रख रहा हूं लेकिन यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि भतीजे के मुकाबले मैं मोबाइल पर अन्य तकनीकों का लाभ उठाने में बीस ही हूं। मोबाइल पर  इंटरनेट कैसे चलता है, गीतों या फिल्मों को डाउनलोड कैसे किया जाता है, सच मानिए मुझे अभी तक इसकी जानकारी नहीं है। इंटरनेट पर सर्च करके मौजूदा युवा पीढ़ी ऐसे-ऐसे अनछुए एवं अनजाने विषयों को भी छू रही है, जिनके बारे में उनके अभिभावकों ने देखना तो दूर सपने में भी कल्पना नहीं होगी। फिर अपनी बात पर लौटता हूं लेकिन यह आभास निरंतर हो रहा है कि मोबाइल की चकाचौंध में चुंधियाए युवा मेरे बारे में गलत धारणा ही बनाएंगे। खैर, सत्य हमेशा कड़वा होता है और उसे सहन करने की क्षमता भी बहुत कम लोगों में होती है।
मैं शुरुआत में ही कह चुका हूं कि मैं तकनीक एवं संचार क्रांति का विरोधी नहीं लेकिन  जो तकनीक हमें नैतिकता से, संस्कारों से, रिश्ते-नातों एवं अपनों से दूर करे, वह किस काम की। हो सकता है कोई मेरे विचारों से सहमत नहीं हो लेकिन मेरा मानना है और मैंने इसे महसूस भी किया है कि संचार क्रांति जितना जोड़ने का काम करती है उससे कहीं ज्यादा तोड़ने काम भी करती है। आज की युवा पीढ़ी मोबाइल पर इतनी मशगूल दिखाई देती है गोया इसके अलावा कोई दूसरा काम ही नहीं है। विशेषकर मोबाइल पर एसएमएस भेजने का सिलसिला तो इतना आम हो चला है कि इससे सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती है। एकांतवादी होकर आज की युवा पीढ़ी मोबाइल के माध्यम से ऐसे-ऐसे गुल खिला देती है जिनके चलते उनके अभिभावकों को बाद में शर्मसार होना पड़ता था। देखा जाए तो हमारे देश में संचार क्रांति अचानक आ गई और लोगों ने इस कदर प्रेम दिया कि यह अब गले की फांस बनती नजर आती है। संस्कारों में बंधे हमारे देश ने इस तकनीक को आत्मसात तो कर लिया लेकिन गलती यह हुई कि इसका उपयोग करने में उसने अति कर दी। और जैसा कि सर्वविदित है कि अति सभी जगह वर्जित है।
सूचना एवं तकनीक के इस दौर में अभिभावक दो राहे पर खड़े हैं। बच्चों की जरूरतों को पूरा न करें तो मुश्किल और करें तो भी दिक्कत। मेरी मां मुझे बाल्यकाल एवं किशोरावस्था में अक्सर बाहर जाने से टोकती थी। वह कहती थी कि बेटा काली हांडी के पास बैठोगे तो कालस, मतलब काला रंग लगेगा। मां के कहने का आशय यही था कि बदनाम लोगों के साथ संगत करोगे या उठोगे-बैठोगे तो तुम पर भी बदनामी का ठपा लगेगा। लिहाजा घर में ही रहते, लेकिन अब बदनाम अर्थात बिगड़ने के लिए बाहर जाने की जरूरत ही कहां रह गई है। बच्चा घर पर बैठे-बैठे भी वह सब जान रहा है जो कि वह बाहर जाने पर नहीं जान पाता।
बहरहाल, मोबाइल से प्रेम करने वाली या यूं कहूं कि मोबाइल बुखार की गिरफ्त में आ चुकी युवा पीढ़ी संस्कार भूल चुकी है। संस्कारों के अभाव के कारण सहनशक्ति भी नहीं है। अभिभावकों द्वारा टोकने पर आने वाला गुस्सा इसी का नतीजा है। चूंकि मैं यह लेख भतीजे के आग्रह पर लिख रहा हूं इसलिए उसके साथ-साथ उसके दोस्तों एवं तमाम युवा पीढ़ी से यह निवेदन जरूर है कि नैतिकता का पालन करें तथा अभिभावकों के साथ संवादहीनता जैसी परिस्थितियां कतई पैदा न होने दें। अक्सर देखा गया है कि अभिभावकों के व्यस्तता के चलते बच्चा उनसे निरंतर संवाद स्थापित नहीं कर पाता और रफ्ता-रफ्ता एकांतवादी हो जाता है। और इसी एकांतवाद में उसे आनंद की अनुभूति होने लगती है। इसी आनंद के चक्कर में वह अपनों से दूर हो जाता है और फिर मोबाइल पर ही निर्भर होकर रह जाता है। जब तक अभिभावक उसको संभालते है, तब तक वह उनसे काफी दूर जा चुका होता है। बस अपनी ही धुन में मगन। ऐसे हालात अभिभावकों के लिए बड़े ही विकट होते हैं। चूंकि बच्चा नासमझ होता है लिहाजा इस प्रकार की परिस्थितियों के लिए अभिभावक ज्यादा जिम्मेदार होते हैं। मोबाइल दिलाकर वे अपने आप को जिम्मेदारी से मुक्त मानते लेते हैं जबकि मेरा मानना है कि अगर मोबाइल देना ज्यादा ही जरूरी है तो उस पर निगरानी रखना उससे कहीं जरूरी है।
आखिर में भतीजे के साथ उन सभी जान-पहचान के युवाओं से यह छोटी सी अपील की इस छोटे से खिलौने का  सदुपयोग ही करें। अगर इसके कारण आज समाज से कट रहे हैं, अपनों से दूर हो रहे हैं, संस्कार भूल रहे हैं, तो यह बेहद खतरनाक है। मेरी बात पर एक बार सोचिएगा जरूर।


Friday, December 16, 2011

मुश्किल तो कुछ भी नहीं बशर्ते...

टिप्पणी
बिलासपुर की बदहाल यातायात व्यवस्था पर माननीय हाईकोर्ट ने गुरुवार को फिर से फटकार लगाई है और व्यवस्था में सुधार के लिए यातायात पुलिस एवं आरटीओ को करीब डेढ़ माह का समय दिया है। दोनों विभागों को इससे पहले भी करीब एक माह की समय-सीमा दी गई थी, लेकिन व्यवस्था में सुधार दिखाई नहीं दिया। दोनों विभागों ने माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद चार-पांच दिन जरूर तत्परता दिखाई लेकिन इसके बाद कार्रवाई का तरीका फिर पुराने ढर्रे पर लौट आया। इस बार वैसी गफलत न हो तथा दोनों विभाग बिना औपचारिकता निभाए ईमानदारी से अपना काम करे, इसके लिए माननीय हाईकोर्ट ने वकीलों की पांच सदस्यीय कमेटी भी गठित की है। यह कमेटी न केवल दोनों विभागों की गतिविधियों पर निगरानी रखेगी बल्कि यातायात व्यवस्था में सुधार के लिए अपने सुझाव भी देगी।
कहने को पुलिस एवं आरटीओ ने अपने पक्ष में  समाचार पत्रों की कतरन एवं चालानों के आंकड़ों की फेहरिस्त को पेश किया, लेकिन माननीय हाईकोर्ट ने इन तर्कों को खारिज करते हुए फिर कहा कि अफसरों का ध्यान अब भी समस्या से निपटने के उपाय खोजने की बजाय वसूली पर ही ज्यादा है। देखा जाए तो यह बात सही भी है, कार्रवाई के नाम पर वसूला गया जुर्माना इसका प्रमाण है। वैसे भी माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद पुलिस एवं आरटीओ विभाग ने जिस अंदाज में कार्रवाई को अंजाम दिया, उसमें बड़े वाहनों के मुकाबले दुपहिया वाहनों पर कार्रवाई ज्यादा की गई। नतीजा यह रहा है कि शहर की यातायात व्यवस्था में कोई खास सुधार दिखाई नहीं दिया।
दरअसल, शहर की यातायात व्यवस्था सुधार में बाधक जो कारण बताएं जाते हैं, उनमें कई तो व्यवस्थागत व मानवजनित ही हैं। अक्सर देखा गया है कि वीआईपी आगमन के दौरान न केवल यातायात पुलिसकर्मी चाक चौबंद नजर आते हैं बल्कि व्यवस्था में सुधार दिखाई देता है। वाहनों की गति भी निर्धारित हो जाती है। सड़कों से आवारा पशु गायब हो जाते हैं। अक्सर एक दूसरे के क्षेत्राधिकार का मामला बताकर जिम्मेदारी टालने वाले यातायात पुलिस एवं आरटीओ विभाग में बेहतर तालमेल दिखाई देने लगता है। शहर में जगह-जगह होने वाली पार्किंग दिखाई नहीं देती। यातायात नियमों की कड़ाई से पालना होने लगती है। उस दिन कोई सिफारिश या राजनीति हस्तक्षेप भी काम नहीं करता है। इतना ही नहीं बिना भेदभाव के लगभग सभी पर समान रूप से कार्रवाई को अंजाम दिया जाता है।
बहरहाल, यातायात पुलिस एवं आरटीओ के लिए व्यवस्था बनाना तथा बदहाल व्यवस्था को पटरी पर लाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। किसी वीआईपी के आगमन पर जब शहर में व्यवस्था सुधर सकती है तो सामान्य दिनों भी इसमें सुधार हो सकता है। इसके लिए कहीं बाहर जाने आवश्यकता नहीं है। जरूरत बस दृढ इच्छा शक्ति के साथ दवाबमुक्त होकर ईमानदारी से काम करने की है। दोनों विभाग अगर तालमेल एवं समन्वय रखकर ऐसा कर पाए तो व्यवस्था में काफी कुछ सुधार संभव है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 16  दिसम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।