Friday, June 10, 2011

समझदारी, पड़ गई भारी

कई बार जरूरत से ज्यादा बरती जाने वाले समझदारी भी भारी पड़ जाती है। सप्ताह भर पहले ही मैं एक घटना से दो चार हो चुका हूं। दो जून को दोपहर बाद मैं दिल्ली जाने के लिए बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर गाड़ी के इंतजार में खड़ा था। इतने में एक युवक दौड़ता हुआ आया और बोला भाईसाहब, दिल्ली जाने वाली ट्रेन कब आएगी। मैंने कहा कि मैं स्वयं भी उसी ट्रेन में जाऊंगा। इतना कहते ही वह वहीं  खड़ा हो गया और बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। हेमराज नामक इस शख्स ने  बताया कि वह कम्पनी के स्पेशल आपॅरेशन के चलते यहां आया था, वरना उसका काम काज तो जयपुर में ही चलता है। दादाजी का निधन होने के कारण वह वापस जयपुर लौट रहा है। हेमराज का गांव जयपुर जिले में शाहपुरा कस्बे के पास देवन है।
मेरे पास शयनयान श्रेणी का टिकट था जो कि कन्फर्म हो चुका था जबकि हेमराज के पास सामान्य डिब्बे का टिकट। बातों का सिलसिला शुरू होने के कारण हेमराज मुझसे खुल चुका था। जब तक गाड़ी स्टेशन पर आई हमने एक दूसरे से काफी बातें शेयर कर ली। मैं जब डिब्बे में चढ़ने लगा तो हेमराज बोला, भाईसाहब थोड़ी देर आपके पास बैठ जाऊं तो? मैंने कहा मुझे कोई आपत्ति नहीं है, आप शौक से बैठ जाओ लेकिन रात को अपना ठिकाना ढूंढ लेना। गाड़ी चलते ही हेमराज मेरी बगल में बैठ कर लम्बी-लम्बी डींगे हांकने लगा। बताने लगा कि वह रेलों में ऐसे ही यात्रा करता है और बाद में जुगाड़ से  सीट प्राप्त कर लेता हैं। वह बोला कि उसको कभी कोई दिक्कत नहीं आई, बस इस काम के लिए टीटी को कुछ सुविधा शुल्क जरूर दिया। मैं मन ही मन सोच रहा था कि यह अजीब शख्स है। मेरे से तो ऐसा काम कतई नहीं हो।
बिना टिकट यात्रा करने से मुझे कितना डर लगता है, इससे जुड़ी कुछ स्मृतियां मेरे जेहन में हैं। १९९९ में नवलगढ़ के पोदार कॉलेज में ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट का कोर्स करने के लिए मैं गांव के दो साथियों के साथ  नियमित रूप से अपडाउन करता था। हमारी कक्षाएं दोपहर से शुरू होती थीं, इस कारण रतनशहर से जयपुर जाने वाली रेल हमारी लिए उपयुक्त थी। मेरे दोनों साथी हमेशा बिना टिकट ही यात्रा करते थे, लेकिन मैं टिकट लेता था।  वे मुझे कहते कि डरो मत, कुछ नहीं होगा लेकिन मैं उनकी बातों को हमेशा अनसुना कर देता। बिना टिकट यात्रा करने के लिए मेरा दिल कभी गवाही नहीं देता था। इतना ही नहीं, मैं मेरे दोनों साथियों को भी टिकट लेने के लिए कहता लेकिन उन्होंने शायद ही मेरी बात को माना हो।
खैर, विषय हेमराज का चल रहा था। अतीत में जाने का मकसद इतना था कि जुगाड़ू प्रवृत्ति जो होती है वह बचपन से ही विकसित हो जाती है। शायद हेमराज भी मेरे गांव के उन दो युवकों की तरह ही रहा होगा। रफ्ता-रफ्ता वह बड़े जुगाड़ करना सीख गया होगा। मेरे जेहन में यह सवाल चल ही रहे थे कि अचानक डिब्बे में टीटी आ गया। मैंने हेमराज से कहा कि बात कर लो और अपनी सीट पक्की करो। हेमराज टीटी के पीछे हो लिया। थोड़ी देर में वापस आकर बोला कि टीटी ने इंतजार करने के लिए कहा है। गाड़ी अपनी रफ्तार पर दौड़ी जा रही थी और हेमराज अपनी काबिलियत के किस्से बड़े जोश के साथ सुना रहा था। संयोग से हमारे डिब्बे में जयपुर जिले का एक अन्य युवक मिल गया है। एक ही जिले के होने के कारण वे दोनों कुछ ज्यादा ही खुल गए।
थोड़ी देर बाद टीटी फिर आया तो मैंने हेमराज से कहा कि जाओ, शायद इस बार तुम्हारा काम हो जाएगा। मेरे कहते ही हेमराज जिस उत्साह के साथ उठकर गया था वापस लौटते समय वह उत्साह गायब था। चेहरे पर शिकन देख मैंने पूछ लिया, क्या बात हुई। बोला यार क्या बताऊं, टीटी ने मेरी टिकट देख ली। बस, सारा गुड़ गोबर हो गया। मैंने उत्सुकतावश पूछा क्यों? तो हेमराज बोला कि टीटी ने डिब्बा बदलने के लिए कहा है। मैंने कहा कि टीटी से थोड़ा गंभीरता के साथ बात करो शायद वह तुम्हारी मजबूरी समझ जाए। तीसरी बार हेमराज हिम्मत करके फिर टीटी के पास गया। करीब दस मिनट बाद वह माथे पर हाथ लगाए हुए लौटा। बिलकुल हताश, उदास एवं निराश। मैं उसके हावभाव देखकर समझ गया था कि कुछ न कुछ गड़बड़ तो जरूर हो गई है। थोड़ा टटोलने पर गरीबदास बनते हुए हेमराज बोला कि टीटी ने दो सौ रुपए तो सामान्य से शयनयान का टिकट बनाने के तथा ढाई सौ रुपए जुर्माना लगा दिया। कुल साढ़े चार सौ रुपए दे दिए लेकिन सीट फिर भी नहीं मिली। अपनत्व का भाव लाते हुए वह बोला यार, साढ़े चार सौ रुपए लग गए अब कम से आप बैठा तो लो। वह रात भर मेरी सीट पर बैठा रहा और टीटी को कोसता रहा। उसको जयपुर जल्दी पहुंचना था लिहाजा, वह आगरा में उतर गया। उतरते समय भी बड़बड़ाता हुआ ही निकला। मैं मन ही हेमराज पर मुस्कुरा रहा था तो खुद पर भी हंस रहा था। क्योंकि हम दोनों ने जो समझदारी बरती वह हम पर भारी पड़ चुकी थी। हेमराज की समझदारी तो आप पढ़ ही चुके हैं और मेरी इस संदर्भ में कि मैं बिलासपुर स्टेशन पर उससे इतनी आत्मीयता से मिला। हेमराज ने समझदारी की कीमत साढ़े चार सौ रुपए ज्यादा चुकाकर अदा की तो, मैंने टिकट होते हुए भी रात भर जागकर।