Monday, November 26, 2012

चुप्पी तोड़ो


टिप्पणी

रोज-रोज पैदल चल लम्बा सफर तय कर स्कूल जाने की मजबूरी और शोहदों से फब्तियां सुनने की लाचारी से आजिज आ चुकी नेहा ने आखिर समस्या की मूल जड़ पर ही चोट करने का फैसला किया। उसे भली-भांति मालूम था कि इन दोनों समस्याओं के पीछे प्रमुख कारण अतिक्रमण ही है। उसने हिम्मत जुटाई और सांसद द्वारा किए गए अतिक्रमण की शिकायत करके ही दम लिया। दुर्ग शहर की न्यू पुलिस कॉलोनी में रहने वाली कक्षा आठ की छात्रा नेहा ने वाकई साहसिक काम किया है। नेहा का यह काम अपने आप में बहुत बड़ा है। समाज के जागरूक लोगों को आईना दिखाकर उसने न केवल एक मिसाल कायम की है, बल्कि सुस्त समाज को जगाने की दिशा में एक अनूठी सीख भी दी है। नेहा ने यह साबित कर दिया है कि इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। निसंदेह नेहा ने सियासी भंवर में फंसे उदासीन शहर को झिाझाोड़ दिया है। नेहा का पत्र सोचने को मजबूर करता है और समाज की कड़वी हकीकत को भी बयां करता है। दरअसल, दुर्ग में लोगों की सहनशीलता इस कदर बढ़ गई है कि कोई मुंह खोलना ही नहीं चाहता। इसी वजह से जिम्मेदार व प्रभावशाली लोग जो चाहे वो करने की जुर्रत कर बैठते हैं। कभी-कभार किसी ने हिम्मत भी दिखाई तो पंगु प्रशासन से किसी तरह का सहयोग नहीं मिला। सांसद के अतिक्रमण की दबे स्वर में एक-दो लोगों ने पहले शिकायत की थी, लेकिन उनको अनुसना कर दिया गया। वैसे भी यह अतिक्रमण कोई रातोरात नहीं हुआ था। दो साल से अधिक समय हो गया था। ऐसे में इस बात की संभावना बेहद कम है कि शासन-प्रशासन को इसकी जानकारी न हो। और इससे भी गंभीर बात तो यह है कि गाहे-बगाहे अनूठे प्रदर्शन कर सस्ती लोकप्रियता पाने वाले भी इस मामले में अब तक खामोश ही रहे। उनको इस बात की जानकारी कैसे नहीं मिली यह भी किसी रहस्य से कम नहीं है।
वैसे भी शासन-प्रशासन के लिए इस अतिक्रमण को हटाना किसी चुनौती से कम नहीं है। शासन-प्रशासन को चाहिए कि वह नेहा की हिम्मत की दाद देते हुए अतिक्रमण के मामले में कार्रवाई करे। सुराज का मतलब भी तभी है। और इधर खुद को जनप्रतिनिधि कहलाने में गर्व महसूस करने वाली सांसद को भी महिला होने के नाते नेहा और उस जैसी कई लड़कियों की मजबूरी को समझना चाहिए। प्रशासन कोई कार्रवाई करे, इससे पहले सांसद को अपना अतिक्रमण हटा कर एक नजीर पेश करनी चाहिए।

 साभार - पत्रिका भिलाई के 26  नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित 

इन तालाबों पर कुछ तो तरस खाइए


हमें पर्यावरण की याद अक्सर तभी आती है जब बात खुद से जुड़ जाती है। हाल में मनाया गया छठ पर्व इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसके लिए बड़े पैमाने पर तालाबों की सफाई भी की गई थी। इतना ही नहीं सफाई को लेकर कुछ संगठनों की ओर से तो बड़े-बड़े दावे भी किए गए थे, लेकिन पर्यावरण एवं तालाब की चिंता करने वाले इन तथाकथित पर्यावरण प्रेमियों के दावों का दम छठ पूजा के दूसरे दिन ही निकल गया। दुर्ग व भिलाई के उन सभी तालाबों पर जहां छठ पूजा की गई थी, वहां यत्र तत्र सर्वत्र बिखरी पूजन सामग्री, फूलमालाएं एवं पॉलीथीन की थैलियां बदहाली की कहानी बयां कर रही हैं। दुर्ग-भिलाई जैसे शहरों में पर्यावरण को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है, ऐसे में इन शहरों में तालाबों की दुर्दशा सोचनीय एवं चिंतनीय विषय है।  वैसे भी तालाब अकेले दुर्ग व भिलाई की ही नहीं, बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ की पहचान हैं। इन तालाबों से अतीत की कई सुनहरी कहानियां व यादें जुड़ी हैं, लेकिन इनकी दुर्दशा को लेकर न तो निगम प्रशासन गंभीर है और ना ही आमजन। गणेश पूजन, नवरात्रि आदि आयोजन पर भी बड़े पैमाने पर तालाबों में प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है, लेकिन इसके बाद के हालात पर किसी को तरस नहीं आता है। अगले साल तक फिर अवसर विशेष आने पर ही इन तालाबों की याद आती है। दुर्ग-भिलाई में बीएसपी के टाउनशिप इलाके को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो दोनों निगमों में सफाई व्यवस्था के हालात कमोबेश एक जैसे ही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब टाउनशिप इलाके में पर्यावरण को लेकर जितने गंभीरता बरती जाती है, उतनी निगम क्षेत्रों में क्यों नहीं? निगम व शासन के स्कूलों में गठित इको क्लब भी महज कागजी ही साबित हो रहे हैं, जबकि बीएसपी के स्कूलों इको क्लब न केवल उल्लेखनीय काम कर रहे हैं, बल्कि लगातार पुरस्कार भी जीत रहे हैं। रविवार को पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाएगा। दोनों शहरों में निगमों की कार्यप्रणाली किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यहां के जागरूक, सेवाभावी एवं उत्साही लोग अगर प्रदूषित तालाबों की सुध लें एवं उनकी देखभाल का संकल्प कर लें तो निसंदेह वे पर्यावरण बचाने की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं।



साभार - पत्रिका भिलाई के 25 नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।