Monday, January 28, 2013

डोंगरगढ़ यात्रा



 बस यूं ही

दो सप्ताह पहले की बात है। दोपहर को घर पर बैठा था कि अचानक बिलासपुर से साथी नरेश भगोरिया का फोन आ गया। बोले, सर इस बार गणतंत्र दिवस पर क्या कर रहे हो। मैंने कहा कि यार, मैंने तो कुछ विचार नहीं किया है। आप बताओ क्या कर रहे हो? इस पर नरेश जी बोले, सर, डोंगरगढ़ चलते हैं। मैंने बिना देर किए या धर्मपत्नी से सलाह लिए, तत्काल हां कर दी। काफी दिनों से डोंगरगढ़ जाने की हसरत थी। ऐसे में नरेश जी ने डोंगरगढ़ की कह कर मेरे मन बात कह दी थी। आखिरकार गणतंत्र दिवस भी आया। और नरेश भगोरिया अपनी प्यारी सी बिटिया एवं श्रीमती के साथ बिलासपुर से रवाना हो गए। सभी की टिकट ऑनलाइन करवाई थी। हमको दुर्ग से बैठना था। निर्धारत समय पर मैं दोनों बच्चों एवं धर्मपत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया। दुर्ग से डोंगरगढ़ जाने में करीब एक घंटे का समय लगता है। डिब्बे में नरेश जी के साथ रणधीर को देख चौंक गया और पूछ लिया। अरे भाई आपका तो कहीं नाम ही नहीं था। अचानक यह सब कैसे हो गया। रणधीर, नरेशजी से मुखातिब होते हुए बोला, सर ने कहा इसलिए आ गया। रात को सो भी नहीं पाया। अलसभोर चार बजे के करीब तो आफिस से फ्री हुआ। फिर छह बजे के करीब रेलवे स्टेशन आ गया। बातों के इस सिलसिले में एक घंटा कब बीता पता ही नहीं चला और हम डोंगरगढ़ पहुंच गए। ट्रेन से नीचे उतर कर स्टेशन से बाहर आ गए। तभी नरेश जी को ख्याल आया बोले, सर वापसी की ट्रेन की जानकारी अभी कर लेते हैं। इसके बाद ही आगे का कार्यक्रम तय करेंगे। हमने पता किया तो दोपहर दो और ढाई के बीच दो ट्रेन थी। सोचा दो बजे तक फ्री नहीं हो पाएंगे, लिहाजा वापसी में बस से दुर्ग से आ जाएंगे। यहां से हम घर चले जाएंगे और नरेश जी बिलासपुर के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे। खैर, यह तय करने के बाद हम जैसे ही बाहर निकले एक ऑटो वाला आ गया। और बैठने का आग्रह करने लगा। बोला प्रति सवारी दस रुपए लूंगा, बैठो। हम बैठ गए। आखिरकार हम मंदिर के पास या यूं कहें कि पहाड़ी के पास पहुंच गए, क्योंकि मंदिर तो पहाड़ी पर है। मंदिर जाने से पहले तय हुआ कि पहले चाय पी ली जाए, इसके बाद दर्शनों के लिए रवाना होंगे। डोंगरगढ़ जैसे छोटे से कस्बे में एक साधारण से होटल में निहायत अदने से डिस्पोजल गिलास में एकदम फीकी चाय की कीमत दस रुपए चुकाकर मेरा चौंकना लाजिमी था। लेकिन यह क्षणिक ही था। मुझे यह अच्छी प्रकार से मालूम है कि अक्सर ऑटो, होटल संचालक एवं स्थानीय दुकानदार बोलचाल के आधार पर यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति स्थानीय नहीं हैं और इसी का फायदा गाहे-बगाहे उठा भी लेते हैं। मैं इस प्रकार की कई घटनाओं का साक्षी रहा हूं। विशेषकर ऐसे देहाती इलाकों में जहां लोग स्थानीय भाषा में बात करना जानते हैं, वे इस प्रकार की मुंहमांगी कीमत के शिकार नहीं होते लेकिन हमारे साथ यह दिक्कत थी हम में से कोई भी छत्तीसगढ़ से नहीं था। मैं राजस्थान से, नरेश जी मध्यप्रदेश तो रणधीर बिहार से। खैर, चाय पीकर हम जैसे ही होटल से निकले तो प्रसाद की अस्थायी दुकानों से आवाजें आने लगी। हर कोई लुभाने का जतन कर रहा था। हमने होटल के पास ही एक दुकान पर अपना सामान रखा और वहां से प्रसाद लिया। बदले में दुकान पर जूते आदि रखने का सुविधा भी निशुल्क मिल गई। खाना चूंकि घर से बनाकर ही ले गए थे, इसलिए तय किया गया, इसको मां के दर्शन करने के बाद पहाड़ी के ऊपर ग्रहण किया जाएगा। लिहाजा, खाना साथ में लेकर चल पड़े। तय हुआ कि रोप वे में जाएंगे और उसी में लौट आएंगे। टिकट काउंटर के बाहर दो तरह की कीमत लिखी थी। एक स्पेशल और एक साधारण। चूंकि रोप वे मेरे लिए पहला अनुभव था, इसलिए मैंने जिज्ञावावश नरेश जी की तरफ देखा तो वे बोले सर साधारण एवं स्पेशल में कोई खास फर्क नहीं है। ऐसा करते हैं अपन साधारण का टिकट ही लेते हैं। यह कहकर नरेश जी उत्साह के साथ काउंटर की ओर बढ़े और जल्द ही निराशा के साथ वापस लौट आए। मैंने पूछा तो बोले, सर वेटिंग चल रहा है। नम्बर आने में दो घंटे लगेंगे। मैंने कहा कोई नहीं पैदल ही चलते हैं दो घंटे कौन इंतजार करेगा। हालांकि मन में एक अजीब सा रोमांच भी था। कई दिनों बाद पहाड़ पर चढऩे का मौका जो मिल गया था। खाने का सामान मेरे पास ही था। मैंने कहा कि इसको अब तो नीचे रख देते हैं, वापसी में लौटकर खा लेंगे। क्यों बिना मतलब वजन ऊपर लेकर जाएं। लेकिन मेरी सलाह किसी ने नहीं मानी और खाने की टोकरी को ऊपर पहाड़ पर ले जाने का निर्णय हो गया। सीढिय़ा शुरू होते ही रणधीर ने काउंटर पर बैठे वृद्ध से पूछ लिया ... कि कितनी सीढ़ी है। जवाब आया 11 सौ। जवाब सुनकर रणधीर सकपकाया लेकिन बिना कुछ बोले चुपचाप सीढिय़ों की तरफ बढ़ गया। हम कुल आठ लोग थे। पांच बड़े और तीन बच्चे। नरेश जी की बिटिया छोटी है, इस कारण वह गोद में थी। हमारे दोनों सुपुत्रों को सीढिय़ों का खेल बेहद पसंद आया। और बिना मदद लिए वे भी चढऩे लगे। खाना और सामान जिस में रखा था वह टोकरी बार-बार एक दूसरे के हाथों में बदलती रही ताकि कोई थके नहीं। करीब सौ सीढिय़ा चढऩे के बाद पैरों की पिंडलियों में खिंचाव सा होने लगा और सांसें तेज हो गई। लगा कि अब और नहीं चढ़ा जाएगा। मेरी जैसी हालत लगभग सभी की थी।
पत्रकाािरता के क्षेत्र में होने तथा देर रात सोने के कारण शारीरिक श्रम कहां हो पाता है। समय ही नहीं है। मौसम भले ही सर्दी का हो लेकिन माथे से पसीना टपकने लगा था। रास्ते में मैंने फिर सुझाव दिया कि खाना आते समय खा लेंगे। यह टोकरी किसी दुकान में रख दो। आखिरकार इस बार मेरी सलाह सुन ली गई और एक दुकान में वह टोकरी रख दी गई। आखिर कुछ वजन तो कम हुआ। सांस फूलने की सबसे बड़ी वजह वे सीढिय़ां थी, जिनकी बनावट समान नहीं थी। कहीं बिलकुल आराम से कदम रखे जा रहे थे तो कहंी-कहीं सीढिय़ों के बीच एक से डेढ़ फीट का अंतराल था। सीढी भी ढलवा ना होकर एकदम खड़ी थी, इसलिए थकान ज्यादा एवं जल्दी हो रही थी। सीढिय़ां चढ़ते समय व्यक्ति बोरियत इसलिए महसूस नहीं करता क्योंकि पूरे रास्ते में सैकड़ों दुकानें हैं, जहां चाय-पानी के अलावा पूजन सामग्री की बिक्री होती है। वैसे बच्चों एवं महिलाओं से संबंधित साजो सामान भी इन दुकानों पर खूब सजा है। आखिरकार खरीदारी भी तो यही वर्ग ज्यादा करता है। आधे रास्ते के बाद एकलव्य ने हाथ खड़े कर दिए और मुंह लटकाने वाले अंदाज में बोला, पापा थक गया हूं। प्लीज गोद में ले लो। बच्चे को क्या दोष देता जब मैं खुद ही हाथ खड़े करने वाले अंदाज में था। भारी थकान के बाद भी एकलव्य को गोद में लेकर सीढिय़ां चढऩे लगा। इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं था। वैसे इस मामले में योगराज ने दिलेरी का काम किया। उसकी स्टेमिना वाकई गजब की है। वह दौड़कर सबसे आगे चला जाता और फिर नीचे आता। इस प्रकार से उसने तो हमसे दुगुनी सीढिय़ों को पार किया। रास्ते में नरेश जी कैमरे पर हाथ चला रहे थे लेकिन उस वक्त पहला मकसद तो किसी तरह मंदिर तक पहुंचना था। पता नहीं नरेश जी को किसने कह दिया था, वे बोले मंदिर के पट 12बजे बंद हो जाएंगे। यह सुनना तो और भी कष्टकारी था, क्योंकि मंजिल अभी दूर थी और घड़ी साढ़े ग्यारह बजा चुकी थी। सांसें अब और भी तेज होकर लोहार की धोकनी की तरह चलने लगी थी। बिलकुल हांफने वाले अंदाज में आ चुके थे हम। मैं कभी एकलव्य को गोद में लेता कभी नीचे उतारता। हां, एक दूसरे को देखकर और खुद जैसे ही हाल में पाकर हम सभी एक दूजे को मन ही मन में दिलासा दे रहे थे। आखिरकार बैठते-बैठते हम मंदिर के पास पहुंच चुके थे। यहां श्रद्धालुओं की संख्या कुछ ज्यादा इसलिए हो गई थी कि क्योंकि रोप वे से आने वाले भी आगे इसे रास्ते से कुछ सीढिय़ां चढ़ते हैं। मंजिल नजदीक देख जोश आया लेकिन पिंडलियां एवं जांघें ऐसा लग रहा था मानो जमकर पत्थर बन गई हैं। फिर भी जयकारे के साथ हम बढ़ते गए। मंदिर बामुश्किल दस मीटर की दूरी पर ही था कि अचानक रणधीर को चक्कर आ गया। उसको तत्काल एकांत में भेजकर लेटने का कहा। वह पूरी रात नहीं सोया।
दूसरे लगभग पूरे रास्ते में नरेश जी बिटिया उसी की गोद में रही, तीसरा वह सेहत के मामले में भी कुछ कमजोर है। सारे मेल मिल गए थे, लिहाजा ऐसा हो गया। पहाड़ की सबसे ऊँची चट्टान पर मां का मंदिर है। चट्टान को निर्माण करके कुछ बड़ा कर दिया गया है ताकि मंदिर परिसर में श्रद्धालु आसानी से परिक्रमा लगा सकें। दोनों बच्चों के हाथ थामे में मंदिर परिसर में लाइन में लगा था। थोड़ी से धक्का मुक्की हुई और दोनों बच्चे भीड़ में फंस गए तो मैंने योगराज को अपने आगे खड़ा किया जबकि एकलव्य को फिर गोद में लिया। दर्शन करने के बाद मन में सुकून से आया। चेहरे पर एक विजयी मुस्कान उभर आई थी। सभी ने दर्शन करने के बाद करीब आधा घंटे तक वहंी मंदिर के पास खाली जगह पर बैठकर आराम किया। वहां के वातावरण में इतनी शीतलता था कि अगर लेट जाते तो नींद आ जाती। यहां आराम करने के बाद खुद को  तरोजाता महसूस किया तो थोड़ा नीचे आए। इसी दौरान एक स्थान दिखा। वहां काफी युगल फोटो खिंचवा रहे थे। हम सब भी वहां गए। दूसरे तरफ नजर गई तो चौंक गया। उस तरफ एकदम खड़ा पहाड़ था। और ऐसा लग रहा था कि किसी ऊंचे भवन या टंकी पर चढ़ गए और सीधा धरती को देख रहे हों। इतनी ऊंचाई से देखना किसी रोमांच से कम नहीं था। चक्कर से आने लगे थे मुझे। मैंने दोनों बच्चों के हाथ कसकर पकड़ लिए। कुछ फोटो खिंचवाने के बाद हम यहां से लौट आए। यह स्थान इसलिए भी रोचक है क्योंकि यहां एक बड़ी चट्टान है, जो एक तरफ हवा में है। ऐसा लगता है कि अभी लुढ़क जाएगी लेकिन ऐसा है नहीं। जाते समय जो दर्द पिंडलियों एवं जांघों में हो रहा था वह अब पीठ में होने लगा था। संतुलन बनाए रखने के लिए खुद को टेढ़ा रखना जरूरी है वरना औंधे मुंह गिरने की आशंका रहती है। रास्ते में खिलौनों की दुकानें देख दोनों बच्चे मचल गए। पूछा तो बोले खिलौना दूरबीन लेंगे। वही दूरबीन जो सामान्य मेले में दस से बीस रुपए में मिल जाती है लेकिन आज यह पहाड़ पर बिक रही थी लिहाजा कीमत भी पहाड़ जैसी ही थी। सौ रुपए में दोनों बच्चों को दूरबीन दिलाई। दूरबीन पाकर उनकी खुशी का ठिकाना ना था। जैसे-जैसे सीढिय़ां कम हो रही थी, थकान बढ़ती जा रही थी। आखिरकार वह दुकान आ गई जहां खाना रखा था। वहीं एक गुमटी में बैठकर हम सब ने भोजन ग्रहण किया। इसके बाद धीरे-धीरे फिर सीढिय़ां उतरने लगे। करीब सवा दो बज चुके थे। दुकान पर आकर सामान संभाला जूते पहने और ऑटो में बैठ गए। मैंने ऑटो वाले से कहा कि अभी कोई ट्रेन तो है नहीं आप बस स्टैण्ड छोड़ दो। वह बोला साहब इस वक्त तो ट्रेन भी है आप कहें तो स्टेशन छोड़ दूं। मैंने मना किया और बस स्टैण्ड चलने को ही कहा। रास्ते में रेलवे फाटक बंद मिला, वह उतर पर फाटक वाले के पास गया और बोला अहमदाबाद-पुरी ट्रेन बिलासपुर जाती है ना। अंदर बैठे व्यक्ति ने भी उसके बात सुने बिना ही स्वीकृति में सिर हिला दिया। उसका सकारात्मक जवाब पाकर ऑटो चालक जोश में आ गया, बोला देखो भाईसाहब मैं कह रहा था ना कि ट्रेन है। मैंने नरेश जी को कहा कि एक बार ठीक से पड़ताल कर लो। पता नहीं नरेश जी ने किससे पूछा। आकर बोले हां सर ट्रेन है। स्टेशन ही चलते हैं। तत्काल ऑटो घुमाया गया और स्टेशन पहुंच गए। स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि ट्रेन बिलासपुर नहीं जाएगी, बल्कि रायपुर से ही पुरी के लिए दूसरे रास्ते पर चली जाएगी। आखिरकार तय हुआ कि दुर्ग तक इसी ट्रेन में चलेंगे। हम घर चले जाएंगे आप दुर्ग से बिलासपुर की टे्रेन पकड़ लेना। इस तरह शाम पांच बजे के करीब हम घर पहुंच गए और उधर नरेश जी रात नौ बजे के करीब पहुंचे। यकीन मानिए लम्बे समय बाद ऐसी नींद आई कि जिस करवट सोया सुबह खुद को उसी अंदाज में पाया। जागने के बाद करवट बदलने की सोची तो मुंह से हल्की से आह निकल गई। पूरा बदन दर्द कर रहा था। गनीमत रही कि दूसरे दिन रविवार था और इस दिन मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है। नरेश जी ने फोटो मेल कर दिए थे। आफिस नहीं जा पाया था लेकिन श्रीमती के मल्टीमीडिया मोबाइल पर मेल चैक करके फोटो देख लिए। आज सोमवार सुबह तक शरीर दर्द कर रहा था। शाम को हिम्मत करके आफिस आ गया। सोचा यादगार यात्रा की है तो कुछ कलम चला ली जाए। बस फिर क्या था, लिखने बैठा और लिखते ही गया...।

प्रदूषण की जद में डोंगरगढ़

मां बम्लेश्वरी के दर्शन, ऐतिहासिक तालाब, उसमें बोटिंग करते लोग, रोप वे का नजारा तथा पहाड़ से दिखाई देता विहंगम दृश्य। निसंदेह यह सब एक अलग अनुभव है डोंगरगढ़ जाने वालों के लिए। मेरे लिए भी यह सब बिलकुल नया था। जैसा सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया डोंगरगढ़ को। एक बात और अमूनन लोग किसी स्थान पर जाने से पहले उसके बारे में पूरी जानकारी जुटाते हैं लेकिन मेरे साथ इससे ठीक उलटा हुआ। मैंने केवल इतना सुना था कि डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी देवी का ऐतिहासिक मंदिर है और उसकी समूचे छत्तीसगढ़ में काफी मान्यता है। यह बात नवरात्र के दौरान मैं देख भी चुका था। फिर भी मंदिर का इतिहास, किस्से, कहानियों का मुझे  बिलकुल भी पता नहीं था। डोंगरगढ़ से लौटने के बाद जब नेट पर देखा तो काफी कुछ लिखा हुआ पाया डोंगरगढ़ के बारे में। काफी पुराना एवं बेहद समृद्ध इतिहास रहा है डोंगरगढ़ का। मैंने सोचा कि ऐसा क्या लिखा जाए जो किसी ने लिखा ना हो। हालांकि क्या लिखना है यह तो मैंने डोंगरगढ़ प्रवास के दौरान ही तय कर लिया था। फिर संदर्भ के लिए नेट का सहारा लिया तो पाया कि जो मैंने सोचा है वैसा कुछ भी नहीं लिखा है। डोंगरगढ़ में सर्वप्रथम जो बात खटकी वह यह कि सीढिय़ों के सहारे मंदिर तक जो दुकानें, होटल एवं भोजनालय बने हुए हैं, उन सब का कचरा पहाड़ पर ही फेंका जाता है। कुछेक स्थानों पर उसको जलाते हुए भी देखा गया लेकिन बहुत सी जगह कचरा बिखरा पड़ा है। उसको ना तो एकत्रित किया जाता है और ना ही उसका निस्तारण। बड़े पैमाने पर पहाड़ के अंदर ही कचरा डम्प हो रहा है। यह कचरा बड़े स्तर पर पर्यावरण प्रदूषण की वजह बन रहा है। दूसरी बात यह अखरी कि मंदिर परिसर में फोटो खींचना मना है का बोर्ड तो लगा रखा है लेकिन यह बोर्ड केवल दिखाने के लिए ही है। मंदिर परिसर में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसके हाथ में कैमरा या कैमरे वाला मोबाइल ना हो। कोई किसी को रोक ही नहीं रहा था। फोटोग्राफी का शौक तो ऐसा दिखाई दिया कि जगह-जगह कई युगल विभिन्न मुद्राओं में फोटो खींचवाते हुए दिखाई दिए। बड़ी सी चट्टान के पास बने स्पॉट पर तो युवाओं की भरमार थी। जान की परवाह किए बिना कोई कैसे तो कोई कैसे फोटो खिंचवा रहे थे। कइयों ने बतौर याददाश्त चट्टान पर अपना नाम लिखकर भी छोड़ रखा है। करीब चार घंटे के डोंगरगढ़ प्रवास के दौरान मुझे अधिकतर युवा ही दिखाए दिए। वह भी जोड़ो के रूप में। आखिरकार डोंगरगढ़ धार्मिक स्थली होने के साथ-साथ पर्यटन नगरी भी तो है। कुल मिलाकर लोग गंदगी न फैलाने का संकल्प लें और वहां के दुकानदार भी एक जगह कचरा एकत्रित करने की शपथ लें। यही समय की मांग भी है। वरना आने वाले समय में इस कचरे की वजह से डोंगरगढ़ के नैसर्गिक सौंन्दर्य पर ग्रहण लग जाए तो बड़ी बात नहीं है। बड़े पैमाने पर पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है यहां पर। दूसरा युवाओं में श्रद्धा का जो शगल पनपा है वह भी मर्यादा में तभी रह सकता है कि जब वहां पर सुरक्षा के कड़े प्रबंध हों। कहने को मंदिर परिसर में सीसी कैमरे जरूर लगे हैं लेकिन कैमरों की परवाह करता कौन है। मैंने सच लिखने का साहस किया है। कोई गलती हो तो मां बम्लेश्वरी माफ करें।
 बोलिए मां बम्लेश्वरी देवी की जय।

2 comments:

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