Tuesday, October 30, 2012

बड़ा ईमान



बस यूं ही...

सुबह नहाने के बाद जैसे ही जींस पहनी तो एकदम से सन्न रह गया। जेब से पर्स गायब था। माह का अंतिम दौर होने के कारण पर्स में पैसे तो ज्यादा नहीं थे लेकिन उसमें दो एटीएम जरूर थे। एक स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर का तो दूसरा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का। एक दो और जरूरी कागजात भी थे। मैं बिलकुल अवाक था, कुछ सूझ नहीं रहा था कि अब क्या किया जाए। मन के कोने में एक हल्की सी उम्मीद जरूर 
थी कि शायद पर्स आफिस में मिल जाए। इस उम्मीद की सबसे बड़ी वजह तो यह थी कि कई बार पर्स आफिस में गिर भी चुका है, लेकिन हाथोहाथ संभाल लेने के कारण किसी प्रकार की परेशानी नहीं हुई। बस इसीलिए थोड़ी सा आशा बची थी। मन व्याकुल था और आफिस पहुंचने से पहले ही हकीकत जानने का उत्सुक भी। फिर सोचा अभी तो साढ़े नौ बजे हैं। कार्यालय सहायक, सफाईकर्मी एवं सुरक्षा गार्ड के अलावा अभी कौन होगा वहां। किससे पूछूं कि वह मेरे कक्ष में जाकर देखे.. कहीं पर्स तो नहीं पड़ा है। इसी कशमकश में तैयार हो रहा था। अचानक सुरक्षा गार्ड का ख्याल आया। अरे उसके नम्बर तो मेरे पास हैं, क्यों ना उसको ही पूछ लूं। फोन लगाया तो नहीं लगा...बेचैन मन को चैन कहां था, लिहाजा पांच-छह बार लगाया, नहीं लगा तो फिर सब्र की लम्बी सांस खींचकर तैयार होने लगा। तैयार होकर सीढिय़ों से नीचे उतर रहा था तो नजर नीचे इस उम्मीद से निहार थी कि शायद पर्स कहीं दिख जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरवाजे से बाहर उस स्थान को भी दो-तीन बार देखा कि शायद मोटरसाइकिल से उतरते वक्त कहीं गिर गया हो लेकिन सब बेकार। आखिर तेज कदमों से कार्यालय की ओर से रवाना हो गया। रास्ते में कई तरह के विचार जेहन में आ जा रहे थे। सोच रहा था, अगर पर्स नहीं मिला तो एटीएम कहां से बनवाऊंगा। बैंक खाते की बुक एवं चैक बुक का अभी तक कोई पता नहीं मिल पाया। पता नहीं स्थानांतरण के दौरान पैकिंग करते समय किस जगह उनको रख दिया। अब एकमात्र एटीएम ही तो सहारा था, जिसके माध्यम से पैसे निकलवा रहा था। अब एटीएम नहीं है तो फिर बैंक जाना पड़ेगा। बैंक भी तो बिलासपुर का है। मन ही मन में तय किया कि किसी दिन फुर्सत से समय निकाल कर बिलासपुर जाऊंगा और खाते की बुक एवं एटीएम के लिए नए सिरे से कवायद करूंगा। दूसरे ही पल फिर नया ख्याल आया कि अपने किसी साथी को कहकर भी तो यह काम करवा सकता हूं, लेकिन फिर सवाल कौंधा कि इस काम के लिए शायद स्वयं को उपस्थित होना होगा। विचारों की इसी उधेड़बुन में मैं कब आफिस पहुंचा एहसास ही नहीं हुआ। आफिस घुसते ही सबसे पहले गार्ड ने नमस्कार किया तो मैंने बताया कि शायद मेरा पर्स रात को कार्यालय में गिर रहा है। इतना कहते ही वह मेरे पीछे-पीछे हो लिया और बोला, साहब शायद आपके केबिन में गिरा गया हो. । आप काका. से पूछ लें। वह आपके केबिन में ही सफाई कर रहा है। मैं तेजी से सीढिय़ां चढ़कर अपने केबिन की तरफ आया, तभी काका एकदम से उठा और रोजाना की तरह सावधान होकर उसने मुझे सेल्युट मारा। करीब पचास-पचपन उम्र के काका का पूरा नाम मोहन सागर है और वह आफिस में साफ-सफाई का काम देखता है। मेरी चेहरे की परेशानी को काका भांप चुका था। बिना पूछे ही तत्काल दौड़कर आया बोला, साब.. आप का पर्स आपकी कुर्सी पर गिरा था। तोलिये के नीचे था दिखाई नहीं दिया। तोलिया उठाया तो नीचे गिर गया। उसे आपकी टेबिल की दराज में रख दिया है, साब। इतना सुनते ही मैंने एक लम्बी सांस छोड़ी और तत्काल दराज की तरफ लपका। काका ने सुरक्षा के लिए दराज के ताला लगा दिया लेकिन चाबी दराज में लगी हुई छोड़ दी थी। मैंने तत्काल चाबी घुमाकर दराज खोला और पर्स देखकर चेहरे पर चमक लौट आई। तब तक काका सफाई का काम छोड़कर मेरे पास केबिन में आ चुका था। बोला साब, पर्स संभाल लो। मैं मन ही मन मुस्कुराया। सोच रहा था कि अब पर्स संभालने की जरूरत ही कहां है। अगर गायब होता तो पूरा ही पर्स हो जाता है। मुझे काका की ईमानदारी ने बेहद प्रभावित किया और मैंने तत्काल उसे सौ रुपए बतौर इनाम देना चाहा तो वह थोड़ा सा हिचकिचाया। मैंने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा कि काका मेरी ओर से तो पूरा पर्स ही गायब हो चुका था। आप की वजह से ही मुझे मिला है। मैं खुशी से आपको दे रहा हूं आप रख लो। इतना कहने के बाद काका ने सौ का नोट रख लिया।
बहुत भारी तनाव से मुक्त होने के बाद मेरी खुशी का ठिकाना न था। और इसी खुशी में मैं फिर सोचने लगा... और अतीत की यादों में खो गया। कुछ इसी तरह का मामला तो करीब पांच साल पहले भी हो चुका है, जब कार्यालय के दो हजार रुपए मैं आफिस में अपने टेबिल के दराज में रखकर भूल आया था। इतना ही नहीं दराज के चाबी लगाना तो दूर उसको दराज में लटकता हुआ ही छोड़कर आ गया था। कुछ अनहोनी की आशंका रात को ही हो गई थी और दूसरे दिन हुआ भी वैसा। सुबह आफिस पहुंचा था दराज से चाबी गायब थी। तलाश की तो वह बगल की ट्रे में डाली मिल गई थी। बदहवाश हालात में मैंने तत्काल दराज खोला तो रुपए कम दिखाई दिए। गिनने लगा तो सौ-सौ के नौ नोट गायब थे। आफिस में सबसे पूछा लेकिन सभी ने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। अचानक विचार आया कि सुबह पांच बजे सफाई वाला आता है। कहीं उसी ने तो ऐसा नहीं कर दिया। शक को बल तब और ज्यादा मिल गया जब उसने उस दिन के बाद आफिस आना बंद कर दिया। खैर, वह पैसे मैंने अपने खाते से जमा किए।
संयोग देखिए दोनों ही घटनाएं आफिस में हुई लेकिन दोनों में अंतर कितना है। मैं इसी सोच में डूबा था। मेरी यह बात बहुत अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि क्यों सभी लोग एक जैसे नहीं होते और क्यों सभी को एक जैसा नहीं समझना चाहिए। वाकई काका की ईमानदारी ने मेरा सीना चौड़ा कर दिया। इसलिए नहीं कि उसने मेरा पर्स लौटा दिया बल्कि इसलिए कि एक अदना सा कर्मचारी होने के बाद भी उसका ईमान कितना बड़ा है। बहुत बड़ा। सलाम उसकी ईमानदारी को।

Saturday, October 27, 2012

जनहित की अनदेखी


प्रसंगवश
सड़कों की खराब दशा को लेकर अभी पखवाड़े भर पूर्व दुर्ग शहर में कांग्रेस पदाधिकारियों ने पीडब्ल्यूडी कार्यालय के समक्ष भैंस के आगे बीन बजाई थी। विरोध जताने के इस अनूठे प्रदर्शन ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा जरूर लेकिन, आमजन से जुड़ी यह समस्या आज भी निराकरण की बाट जोह रही है। आमजन से ही जुड़ी ट्रैफिक सिग्नल समस्या को हल करवाने के लिए अब दुर्ग शहर के वकीलों ने कमर कसी है। वकील गांधीगीरी करते हुए एक नवम्बर को राज्योत्सव के दिन चंदा मांगेंगे और एकत्रित राशि जिला प्रशासन को सौंपेंगे। वकीलों का कहना है कि दुर्ग के पटेल चौक पर 20 साल पहले ट्रैफिक सिग्नल लगाया गया था। इसके माध्यम से यातायात को संचालित किया जाता रहा। वर्तमान में स्वचालित सिग्नल लगा होने के बाद भी चौक चौराहों पर ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिए यातायात पुलिसकर्मियों को मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे में यह सिग्नल अनुपयोगी है। यातायात सुचारू हो, चौक-चौराहों पर डिजीटल ट्रैफिक सिग्नल लगे, इसलिए चंदा एकत्रित किया जा रहा है। काबिलेगौर है कि ट्रैफिक सिग्नल की मांग को लेकर गांधीगीरी पर उतरे वकील इससे पहले शहर में सड़कों के गड्ढ़े, धूल, गंदगी और अव्यवस्थित यातायात को लेकर धरना प्रदर्शन कर चुके हैं लेकिन उनके आंदोलन का कोई नतीजा नहीं निकला। दुर्ग जिले के प्रति सरकार के अब तक के मौजूदा रुख से लगता नहीं है कि वह वकीलों की गांधीगीरी पर भी कोई दरियादिली दिखाएगी।
वैसे भी सियासी दावपेंचों में उलझे दुर्ग शहर में समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त है। तभी तो इनके निराकरण के लिए आंदोलन करना या विरोध दर्ज करवाना एक परम्परा सी बन गई है। शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षिक करने के लिए यहां विरोध के नित नए तरीके भी आजमाए जाते हैं। इसके बावजूद शासन-प्रशासन की आंखें नहीं खुलती हैं। विडम्बना तो यह है कि सरकार एवं उसके नुमाइंदे बड़ी-बड़ी योजनाओं का भूमिपूजन करके वाहवाही बटोरने से गुरेज नहीं करते लेकिन बुनियादी सुविधाओं के सुधार की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। एक बात और। कोई किसी भी तरह से आंदोलन कर ले राज्य सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगती। शासन-प्रशासन का रवैया भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही हो गया है। बहरहाल, वकीलों के पास मांग मनवाने के लिए दूसरा रास्ता भी है। पटरी से उतरी बदहाल व्यवस्था हो चाहे व्यवस्था में दोष, वकील अगर चाहें तो इसको कानून के माध्यम से भी ठीक करवा सकते हैं। कानून का सहारा लेकर समस्या का निराकरण करवाना भी तो गांधीगीरी की श्रेणी में ही आता है। ऐसे में अदालत का दरवाजा खटखटाने से गुरेज नहीं करना चाहिए। देश-प्रदेश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब शासन-प्रशासन से नाउम्मीद हो चुके लोगों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और उनको वहां न्याय मिला। इसलिए धरना-प्रदर्शन एवं गांधीगीरी की भाषा का जहां कोई अर्थ न हो, वहां कानून का सहारा लेने में ही भलाई है। वकीलों से बेहतर यह काम भला और दूसरा वर्ग कौन जान सकता है।



 साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 27 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Friday, October 26, 2012

जोर जबरदस्ती का खेल


प्रसंगवश 

 
कोरबा जिले की कटघोरा तहसील के ग्राम पंचर में पावर ग्रिड की ओर से हाइटेंशन लाइन बिछाई जा रही है। इस काम के चलते खेतों में खड़ी धान की फसल को नुकसान हो रहा है। तार बिछाने के काम से धान की बालियां टूट कर गिर रही हैं। बिना किसी अधिग्रहण के हो रहे इस काम को एक तरह से जोर जबरदस्ती ही मा

ना जाएगा। अपनी मेहनत के मोतियों को आंखों के सामने बिखरते देख किसानों का खून के आंसू रोना और आक्रोशित होना स्वाभाविक है। किसानों ने अपनी पीड़ा प्रशासन तक पहुंचाई है। इधर, राजस्व अधिकारी नुकसान का आकलन करने के बाद मुआवजा प्रकरण तैयार होने की बात कह रहे हैं, लेकिन हालात ऐसे लगते नहीं हैं कि किसानों को यहां आसानी से इंसाफ मिल जाएगा। स्वयं किसान ही यह बात कह रहे हैं कि प्रति किसान को 20 से 25 हजार रुपए के करीब नुकसान हुआ है लेकिन मुआवजा बेहद कम तैयार किया जा रहा है। यह एक तरह से ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। वास्तविक नुकसान और उसके बदले दिए जाने वाले मुआवजे में जमीन आसमान का अंतर ही किसानों के आक्रोश की वजह बन रहा है। सवाल उठता है कि ऐसे हालात पैदा होने ही क्यों दिए जा रहे हैं। आखिर ऐसी क्या जल्दबाजी है कि किसानों की जमीन का अधिग्रहण किए बिना ही युद्धस्तर पर टावर लगाने व लाइन बिछाने का निर्णय कर लिया। अगर यही काम समय रहते कर लिया जाता तो न फसल बर्बाद होती और ना ही किसान आक्रोशित होते। इससे तो यही जाहिर होता है कि नियम कानून सब बड़ों के लिए ही है। सरकार कुछ भी कर ले, उसको कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है। चूंकि पावर ग्रिड का काम अभी शुरुआती दौर में है और इसकी जद में आने वाले गांव एवं किसानों की संख्या भी इक्का-दुक्का ही है, लेकिन भविष्य में यह काम इसी तर्ज पर आगे बढ़ा तो किसानों को एकजुट होने में देर नहीं लगेगी। इसलिए सरकार को तत्काल किसानों का दर्द समझाना चाहिए और जिनका जितना नुकसान हो रहा है उनको उतना मुआवजा मिलना चाहिए। अगर सरकार यह काम नहीं कर सकती तो उसको किसानों की हमदर्द होने का दंभ भरने का राग अलापना भी बंद कर देना चाहिए।
 
 साभार- पत्रिका छत्तीसगढ़ के 26 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Wednesday, October 24, 2012

काश! हर दिन नवमी हो जाए...


( एक बच्ची का खुला पत्र )




 टिप्प्पणी

मंगलवार का दिन मेरे लिए ऐतिहासिक रहा। दिन भर खूब पूछ-परख हुई। घरों से लगातार निमंत्रण आते रहे। दुर्ग के सती चौरा माता मंदिर के पास कन्याओं के सामूहिक भोज का नजारा तो मेरे लिए अविस्मरणीय है। दो हजार से अधिक मेरी बहनें लाल चुनरी ओढ़े ऐसी लग रही थी मानो मैया साक्षात अवतरित हो आई हों। सामूहिक भोज से पूर्व शक्ति स्वरूपा मेरी बहनों का जगह-जगह स्वागत हुआ। गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकली। मंदिर परिसर पहुंचने के बाद हुआ स्वागत तो अपने आप में अनूठा रहा। पुरुष प्रधान मानसिकता रखने वाले समाज का यह श्रद्धा-भाव देखकर मैं गदगद् हूं।
लेकिन क्या करूं, मैं जानती हूं मेरी यह खुशी स्थायी नहीं है। साल भर में नवमी जैसे एक-दो आयोजन ही ऐसे आते हैं, जब हमारी इतनी पूछ-परख एवं आवभगत होती है। वरना हमारी हालत किसी से छिपी नहीं है। कौन परवाह करता है हमारी? कदम-कदम पर चुनौतियां हैं। और इन सब के पीछे जो कारण छिपा है वह है पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता। लिंग भेद की काली छाया से तो समूचा देश ही अछूता नहीं है। छत्तीसगढ़ का हाल भी ठीक नहीं है। गर्भ में ही गला घोंट देने तथा लड़का-लड़की में भेद करने के उदाहरण यहां भी हर जगह मिल जाएंगे। तभी तो पूरे प्रदेश में लिंगानुपात गड़बड़ाया हुआ है। महिला सशक्तिकरण की बातें करने वालों से कोई पूछे जरा कि प्रदेश में प्रति हजार पुरुषों के पीछे हमारा अनुपात 991 क्यों है? दुर्ग जिले में तो यह और भी कम है। यहां प्रति हजार पुरुषों के पीछे 988 महिलाएं ही हैं। लिंगानुपात में अंतर के अलावा महिलाओं की हालत भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती। मेरी बहनों पर अनाचार एवं शोषण का रिकार्ड शर्मसार करने वाला है। प्रदेश में महिलाओं पर अत्याचार से जुड़े आंकड़े तो निसंदेह चौंकाने वाले हैं। बलात्कार, अपहरण, दहेज हत्या, पति से प्रताडऩा, लड़कियों की तस्करी व दहेज प्रताडऩा के सन 2010 में 4146 मामले पंजीबद्ध हुए थे। 2011 में ये मामले बढ़कर 4219 हो गए। इसके अलावा बहुत से मामले तो ऐसे भी हैं, जो पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते। बहुत दुख एवं आश्चर्य होता है यह सब जानकर। जिस देश में एक से बढ़कर एक विदुषी महिलाएं पैदा हुईं। नारियों की जहां पूजा होती है, वहां देवताओं के निवास का फलसफा भी तो मेरे देश ने दिया है। वैसे भी देखा जाए तो किस मामले में कम हैं मेरी बहनें। आखिर कौनसा ऐसा काम है जो मेरी बहनें नहीं कर सकती? धरती से लेकर आकाश, घर से लेकर संसद, खेल से लेकर कला, सभी जगह मेरी बहनें अपनी दमदार उपस्थिति दे रही हैं। इतना कुछ होने के बाद भी यह दोहरा व्यवहार क्यों?  क्यों एक-दो दिन मान-मनुहार करने के बाद हमको हमारे हाल पर छोड़ दिया जाता है? क्यों मेरी बहनों को दया का पात्र बना दिया जाता है? आखिर ऐसा क्या गुनाह कर दिया हमने? समाज में हमारा भी तो बराबर योगदान है। हम भी तो सम्मान से जीना चाहती हैं। इसलिए एक-आध दिन पूछ परख कर साल भर आंखें मूंदने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी। हर दिन को ही नवमी मान लें तो बहुत सारी समस्याओं का निराकरण स्वत: ही हो जाएगा। काश! हर दिन नवमी हो जाता।


 साभार- पत्रिका भिलाई के 24 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित


Saturday, October 20, 2012

निरीक्षण की औपचारिकता


प्रसंगवश
बिलासपुर रेलवे जोन के अधिकारियों ने गुरुवार को दुर्ग रेलवे स्टेशन का निरीक्षण किया। इससे पहले बुधवार को रायपुर रेलवे मंडल के अधिकारियों ने भी स्टेशन का जायजा लिया था। रायपुर रेलवे मंडल के अधिकारियों के दुर्ग आने की सूचना सम्बंधित ठेकेदार को मिल गई थी, इस कारण अव्यवस्थाओं पर परदा डालने का प्रबंध कर दिया गया। एक नम्बर प्लेटफार्म को तो तुरत-फुरत चकाचक कर दिया गया। दुर्ग स्टेशन पहुंचे रायपुर के अधिकारियों ने जायजे के दौरान प्रसाधन कक्ष के फ्लोर टाइल्स, वेंटिलेशन खिड़की और वाश बेसिन का संधारण करने के निर्देश दिए। इसके अलावा स्लीपर एवं एसी डारमेट्री टीटीई कक्ष का निरीक्षण कर चादर एवं कंबल नियमित बदलने तथा सफाई व्यवस्था सुचारू रखने के लिए भी कहा। अधिकारियों ने स्टेशन परिसर में चल रहे निर्माण कार्यों की धीमी गति पर भी नाराजगी जताई। वैसे, रायपुर की टीम ने निरीक्षण में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई भी नहीं। उनका मकसद तो यही था कि बिलासपुर से आने वाली टीम को कोई बड़ी अव्यवस्था ना मिल जाए, इसलिए क्यों ना उसको समय रहते ही दूर कर लिया जाए। लिहाजा, सम्बंधितों को दिशा-निर्देश जारी कर अधिकारी रायपुर लौट गए। गुरुवार को पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार बिलासपुर जोन के अधिकारी दुर्ग स्टेशन पहुंंचे तो जरूर, लेकिन उनके दौरे में गंभीरता कम ही दिखाई दी। इन अधिकारियों ने भी वही कुछ देखा या दिखाया गया जो रायपुर के अधिकारी एक दिन पूर्व देख चुके थे। अधिकारियों ने पूरे स्टेशन परिसर का निरीक्षण करना भी उचित नहीं समझाा। अधिकारियों के आगमन को देखते हुए जिन अव्यवस्थाओं के दुरुस्त होने की उम्मीद बंधी थी, वे वैसे की वैसे मुंह बाए खड़ी रही। हाल ही में चर्चा में आए पार्सल विभाग की तरफ तो अधिकारियों ने देखना तक उचित नहीं समझाा। पार्किंग एवं पेयजल व्यवस्था की भी यही कहानी रही। वैसे निरीक्षण का मतलब सिर्फ औपचारिकता निभाना ही नहीं है। इसका उद्देश्य मौके की वास्तविकता से अवगत होना तो है ही। व्यवस्थाओं में किसी तरह की गड़बड़ी न हो, स्टेशन पर आने वाले यात्रियों को किसी तरह की असुविधा का सामना ना करने पड़े आदि तमाम बातों का ध्यान रखना भी जरूरी है। निरीक्षण की सार्थकता भी तभी ही है। सिर्फ कागजी आंकड़े दुरुस्त करने या महज रस्म अदायगी करने से अव्यवस्थाएं दूर नहीं होने वाली। इसके लिए पहली प्राथमिकता तो यही है कि रेलवे के अधिकारी कामकाज के अपने परम्परागत ढर्रे में बदलाव लाएं। यात्री भार देखते हुए दुर्ग का स्टेशन रायपुर-बिलासपुर के समकक्ष ही है। इतना ही नहीं, दुर्ग स्टेशन को मॉडल स्टेशन का दर्जा भी दिया गया लेकिन सिर्फ मॉडल स्टेशन का झाुनझाुना देकर इतिश्री कर ली गई। भिलाई स्टील प्लांट के रेलवे के विस्तारीकरण में योगदान को नकारा नहीं जा सकता। इसके बावजूद सुविधाओं में विस्तार न करके रेलवे एक तरह से दुर्ग-भिलाई के यात्रियों के साथ नाइंसाफी ही कर रहा है। अगर दुर्ग को मॉडल स्टेशन का दर्जा मिला है, तो फिर सुविधाएं भी उसी हिसाब से मिलनी चाहिए। रेलवे का दुर्ग-भिलाई से सौतेला व्यवहार समझा से परे है।
 साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 20 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Sunday, October 14, 2012

उद्‌देश्य से ना भटके अभियान

टिप्पणी

 
सुप्रीम कोर्ट की ओर से वाहनों के शीशों पर लगाई जाने वाली काली फिल्म हटाने के लिए अगस्त माह में जारी किए गए आदेशों की याद जिला पुलिस को अब आ रही है। आदेशों की अनुपालना में पुलिस ने शनिवार को वाहनों के शीशों पर काली फिल्म लगाने वाले विक्रेताओं के साथ बैठक की और प्रतिबंधित फिल्म विक्रय न करन

े की हिदायत दी। बढ़ती आपराधिक गतिविधियों के मद्देनजर वाहनों के शीशों पर काली फिल्म हटाने की मांग लम्बे समय से उठ रही थी, लेकिन यातायात पुलिस ने इस विषय पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। कभी ज्यादा दबाव आया तो औपचारिकता के नाम पर एक-दो दिन कार्रवाई जरूर की गई, वरना वाहन यूं ही बेखौफ दौड़ते रहे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पुलिस, यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों में किसी प्रकार का डर पैदा नहीं कर पाई। पुलिस अधिकारी खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जुर्माना लगाने के बावजूद लोग वाहनों के शीशों पर काली फिल्म लगवा रहे हैं। मतलब साफ है कि वाहन चालक जुर्माना देकर भी कानून तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। यातायात नियमों की पालना करवाने में अगर शुरू से ही गंभीरता बरती जाती तथा कड़ी कार्रवाई होती तो इस प्रकार फिल्म विक्रेताओं के साथ न तो बैठक करने की जरूरत पड़ती और ना ही कानून हाथ में लेने वालों का हौसला बढ़ता। शीशों पर काली फिल्म हटाने के लिए पुलिस पहले भी कई बार अभियान चला चुकी है, लेकिन उन अभियानों का हश्र सबके सामने है। वैसे भी भिलाई में यातायात व्यवस्था को दुस्त-दुरुस्त करने के लिए कई तरह के अभियान चलाए गए हैं, लेकिन शायद ही कोई अभियान होगा, जिसका व्यापक असर दिखाई दिया हो। यातायात पुलिस भले ही अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए आंकड़ें प्रस्तुत कर दे, लेकिन हकीकत इससे अलग है। बात भिलाई में दुपहिया वाहन चालकों द्वारा हेलमेट न लगाने लगाने की हो या फिर नाबालिग वाहन चालकों की। कहने को पुलिस इन सबके खिलाफ भी अभियान चला चुकी है, लेकिन सड़क पर इक्का-दुक्का वाहन चालकों के अलावा किसी के सिर पर हेलमेट दिखाई नहीं देता है। सैकड़ों की संख्या में स्कूली बच्चे दोपहिया वाहनों पर फर्राटे भरते नजर आते हैं। इतना ही नहीं वाहनों के कागजात जांचने की याद भी यातायात पुलिस को अवसर विशेष या त्योहारों के नजदीक ही ज्यादा आती है। इधर, दुर्ग-भिलाई के बीच चलने वाले ऑटो चालक जो चाहे वो कर रहे हैं। वे क्षमता से अधिक सवारियां बैठा रहे हैं। मनमर्जी से रूट तय कर रहे हैं। वे यहां-वहां रुककर यातायात नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। आधे घंटे में तय होने वाले सफर में एक-एक, डेढ़-डेढ़ घंटे का समय लगा रहे हैं, लेकिन यह सब पुलिस को दिखाई नहीं दे रहा है। इस मामले में पुलिस की भूमिका से तो ऐसा लगता है कि जैसे कि ऑटो का संचालन वह स्वयं करवा रही हो।
बहरहाल, यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ईजाद किया जाने वाला कोई भी अभियान बुरा नहीं होता है। उसका सफल या असफल होना पुलिस की कार्यशैली पर निर्भर करता है। वाहनों के शीशों पर काली फिल्में उतारने का अभियान भी ईमानदारी से चले, उसकी कड़ाई से पालना हो और कार्रवाई में किसी तरह का भेदभाव न हो। तभी इसके तत्कालिक एवं दूरगामी फायदे होंगे। अभियानों की सार्थकता भी तभी है, वरना अतीत इस बात का गवाह है कि बिना कार्य योजना एवं गंभीरता के चलाए जाने वाले अभियानों से सिर्फ कागजी आकंड़े ही दुरुस्त होते हैं, व्यवस्था में सुधार नहीं होता।
 
साभार - भिलाई पत्रिका के 14 अक्टूबर 12  के अंक में प्रकाशित।
 
 

Saturday, October 13, 2012

जांच के नाम पर लीपापोती

प्रसंगवश 

अविभाजित दुर्ग जिले के सुदूर ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग की व्यवस्था बेहद ही लचर एवं बदहाल स्थिति में है। इन स्थानों पर विभाग की लापरवाही एवं कारगुजारियों के किस्से अक्सर उजागर होते रहते हैं। बालोद नेत्रकांड तथा इसके बाद डौंडीलोहारा में रिकॉर्ड नसबंदी ऑपरेशन के मामले अभी चर्चा में ही हैं कि कुछ इसी तरह का एक और प्रकरण सामने आया है। बेमेतरा जिले के अमोरा गांव में शिवनाथ नदी पर बने पुल के नीचे ग्रामीणों को दवाइयों का बड़ा जखीरा मिला। इस मामले का पर्दाफाश पानी से उठी दवा की गंध के कारण हुआ। ग्रामीणों ने गंध की वजह टटोली तो बोरों में भरे दवा के पैकेट दिखाई दिए। पानी में बहाए गए दवाओं के पैकेट पर जो जानकारी लिखी गई है, उसके मुताबिक यह दवा बाजार में बिक्री के लिए नहीं थी और यह अवधिपार भी नहीं है। इसको सन्‌ 2013 व 2014 तक उपयोग किया जा सकता था। पैकेट्‌स को देखते हुए इनको यहां डाले भी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। जाहिर
सी बात है कि जिम्मेदारों ने इस दवा को पात्र व्यक्तियों को वितरित करने के बजाय पानी में बहाना बेहतर समझा। खैर, इस तरह से नदी के पास दवा मिलना तो अपने में अजूबा है ही। दवा मिलने के बाद स्वास्थ्य विभाग की भूमिका उससे भी बड़ा अजूबा है। अधिकारियों का रवैया तो निहायत ही गैर -जिम्मेदाराना रहा। शुरुआत में तो उन्होंने दवा मिलने की बात को सिरे से ही नकार दिया। अधिकारियों के बयानों की बानगी भी ऐसी थी कि लोगों ने आश्चर्य से दांतों तले अंगुली दबा ली। सीएमएचओ एवं बीएमओ दोनों के ही बयान न केवल विरोधाभासी थे, बल्कि सच से भी कोसों दूर दिखाई दिए। सीएमएचओ ने नदी के पास मिली दवा को नष्ट करवाने की बात कही, तो बीएमओ तो उनसे चार कदम आगे निकले। उनका कहना था कि वहां ऐसा कुछ मिला ही नहीं है। इस तरह बिना सोचे समझे बयान देना तथा गलती स्वीकारने या जांच का आश्वासन देने के बजाय सरासर झूठ बोलना बेशर्मी की हद है। स्वास्थ्य जैसे संवदेनशील विषय पर लगातार लापरवाही उजागर हो रही है, लेकिन सरकारी एवं प्रशासनिक स्तर पर कोई हलचल दिखाई नहीं दे रही हैं। गंभीर एवं विचारनीय विषय तो यह है कि सरकार एवं उसके नुमाइंदे तो हमेशा की तरह इस मामले में भी नींद में गाफिल हैं। दवा मिलना तथा इसके बाद गलत बयानबाजी के बावजूद मामले को बेहद हल्के से लेना यह साबित कर रहा है कि सरकार को स्वास्थ्य से कोई सरोकार नहीं है। जब इस तरह से सरेआम सफेद झूठ बोलने वालों के हाथों में स्वास्थ्य सेवा की डोर हो तो सोचा जा सकता है कि लोग किस हाल में जी रहे हैं। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा से जुड़ी गफलतों को देखकर इतना तो तय है कि जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर गलत बयानबाजी करने वालों को शासन का कोई डर नहीं है। पीड़ितों को राहत देने तथा दोषियों पर कार्रवाई के नाम पर राज्य सरकार एवं उसके प्रतिनिधि महज मूकदर्शक की भूमिका ही निभा रहे हैं। सरकार की भूमिका से तो ऐसा लग भी रहा है कि यह सब उसके संरक्षण में ही चल रहा है। जैसे कि सरकार ने कुछ भी करने की अघोषित छूट दे रखी हो।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 13  अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, October 6, 2012

पोस्टर प्रेम का नया शगल


प्रसंगवश

छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के कार्यकर्ताओं ने गुरुवार को भिलाई के छावनी थाने के समक्ष विरोध प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इजहार किया। कार्यकर्ताओं में इस बात को लेकर आक्रोश था कि शहर में लगाए गए मंच के पोस्टरों को किसी ने बिना वजह के फाड़ दिया। मंच कार्यकर्ताओं ने पोस्टर फाड़ने वालों के खिलाफ जुर्म दर्ज करने की मांग को लेकर थानाधिकारी को ज्ञापन भी दिया। पोस्टर से संबंधित कमोबेश ऐसा ही एक वाकया पखवाड़े भर पूर्व भी हो चुका है। उस वक्त भिलाई महापौर के जन्मदिन की बधाई से संबंधित पोस्टरों पर कालिख पोत दी गई थी। इस मामले की भी पुलिस थाने में शिकायत की गई थी। पोस्टरों से संबंधित उक्त दोनों घटनाओं से यह तो जाहिर है ऐसा करने वाला यकीनन पूर्वाग्रह से तो ग्रसित था ही उसकी मानसिकता भी निहायत ओछी थी। हो सकता है यह सब करने के पीछे तात्कालिक गुस्से को शांत करना रहा हो लेकिन यह एक तरह की कायराना हरकत ही है। अगर किसी को कुछ शिकायत है भी तो वह इस प्रकार का कृत्य क
रने से दूर नहीं हो जाती। फिलहाल, दोनों ही मामले पुलिस के पास विचाराधीन हैं लेकिन इतना तो तय है कि इन प्रकरणों का मूल कारण सियासी अदावत ही है। वैसे पोस्टर लगाने का शगल बड़ी तेजी के साथ पनपा है। अकेले भिलाई ही नहीं समूचे प्रदेश में यह अब फैशन में तब्दील हो चुका है। छुटभैयों के लिए यह प्रचार करने का सबसे कारगर तरीका है तो उनके आकाओं के लिए किसी शक्ति प्रदर्शन से कम नहीं। पोस्टर लगाने के लिए वे अक्सर अवसरों को तलाशते रहते हैं। कभी त्योहारों के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय पर्व के नाम पर। सारे नियम-कायदे भी यहीं से तार-तार होना शुरू हो जाते हैं। सोचनीय विषय तो यह है कि जिम्मेदार लोग अपने समर्थकों के इस प्रेम को बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेते। उनकी भूमिका से तो ऐसा लगता है, जैसे उनके इशारे पर ही यह सब होता है। संभवतः इसी चक्कर में इन पोस्टरों को हटाने की हिमाकत प्रशासनिक अमला भी नहीं कर पाता है। तभी तो अवसर बीत जाने के बाद अप्रसांगिक होते हुए भी पोस्टर टंगे रहते हैं। न तो निगम प्रशासन उनको हटवाने की जहमत उठाता है और न ही लगाने वालों को इनकी याद आती है। कोई रोकने या टोकने वाला भी नहीं है। मनमर्जी का यह खेल यूं ही बदस्तूर चलता रहता है। बहरहाल, पोस्टर फाड़ने या उन पर कालिख पोतने का विरोध करने वालों के पास अपना तर्क हो सकता है, लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि इन पोस्टरों के सहारे कुछ हद तक सस्ती लोकप्रियता जरूर हासिल की जा सकती है लेकिन जनता का दिल नहीं जीता जा सकता है। इस नए शगल से सिवाय पैसे की बर्बादी के कुछ हासिल नहीं है। शहर बदरंग होता है वह अलग। इस दिशा में गंभीरता से सोचने एवं उस पर विचार करने की जरूरत है।
 
साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 06 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, October 2, 2012

बस एक दिन याद आता हूं मैं...

बापू बोले


गौर से देखिए मेरी प्रतिमा को। याद कीजिए भिलाई के जलेबी चौक पर कितने जोश-खरोश एवं मान-सम्मान के साथ मुझे प्रतिष्ठापित किया गया था। मेरी याद को चिरस्थायी रखने के लिए पता नहीं क्या-क्या संकल्प भी आप लोगों ने उस दिन लिया था। मैं खुश था आप लोगों का उत्साह एवं जोश देखकर। लेकिन मेरा यह सोचना गलत था। कुछ ही समय में आप लोग सब कुछ भूल गए। कड़वी हकीकत यह है कि आप लोगों को जरूरत के समय ही मेरी याद आती है। अक्सर चुनाव में कई नेता तो मेरे नाम के सहारे ही चुनावी नैया पार लगाने की कवायद में जुट जाते हैं। उस वक्त पार्टी, आदर्श, सिद्धांत आदि गौण हो जाते हैं। चुनाव की बात छोड़ भी दूं तो आप लोगों को साल में दो बार ही मेरी याद आती है। शहीद दिवस 30 जनवरी को तथा दो अक्टूबर को मेरी जयंती पर। कई जगह तो लोग उक्त दोनों तिथियां भी भूल जाते हैं। भूलना एक अलग बात है लेकिन दुखद विषय यह है कि मेरा राजनीतिकरण कर दिया गया है। एक दल के लोग अवसर विशेष पर गाजे-बाजे के साथ आते हैं लेकिन बाकी दल के लोग पता नहीं क्यों एवं क्या सोच कर मेरी प्रतिमा पर श्रद्धा के दो फूल चढ़ाने में भी शर्म-शंका करते हैं। खैर, ऐसे हालात के लिए दोष आपका नहीं समय का है। मौजूदा दौर में मानवीय मूल्य गौण हो गए हैं। व्यक्तिगत सोच के चलते लोग स्वार्थी हो गए हैं। अपने घर-परिवार वालों से भी ठीक से पेश नहीं आते हैं। फिर मैं क्या लगता हूं उनका। मेरा कौनसा खून का रिश्ता है उनसे। यह तो उनकी मर्जी पर निर्भर करता है कि चाहें तो याद करें चाहें तो नहीं। अब दुर्ग में भी मेरी प्रतिमा साल भर से उपेक्षित पड़ी थी। ऐसा भी नहीं कि मैं किसी कोने में लगा था। बिलकुल हिन्दी भवन के सामने मेरी प्रतिमा लगी है। साल भर मेरी प्रतिमा यहां अपनी बदहाली पर आंसू बहाती र। मेरी प्रतिमा पर लगा चश्मा और एक चरण पादुका कब गायब हुई किसी को खबर तक नहीं हुई। दो अक्टूबर आया तो मेरी याद आई। किसी ने देखा तो सोचा बड़ा मुफीद मौका है क्यों न भुना लिया जाए। बस ठान ली साफ-सफाई करने की। अचानक मेरे प्रति प्रेम उमड़ पड़ा। मैं मन ही मन अपने सपूतों की समझदारी पर मुस्कुरा रहा था। जयंती से एक दिन पहले ही उनको अपने कर्तव्य का बोध हो गया था। आखिरकार मेरी प्रतिमा की सफाई हुई। लम्बे समय से प्रतिमा पर जमी धूल को हटाया गया। इतना ही नहीं मुझे नया चश्मा भी पहनाया गया और चरण पादुका भी। मंगलवार को भी जयंती के उपलक्ष्य में कई आयोजन-प्रयोजन होंगे। वैसे भी चुनावी समय नजदीक है, ऐसे में दूसरे दल के लोग भी आकर श्रद्धा-सुमन चढ़ा जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देखा जाए तो साल भर अपनी बदहाली पर आंसू बहाने वाली मेरी प्रतिमा ही इकलौती नहीं है। शहर में और भी कई महापुरुषों की प्रतिमाएं चौक-चौराहों पर लगी हैं, जिनकी याद भी अवसर विशेष पर ही आती है। मैं आपसे ज्यादा नहीं मांगता, आप मेरी जयंती पर यह संकल्प लें कि न केवल मेरी प्रतिमा बल्कि दुर्ग-भिलाई में जितने भी महापुरुषों की प्रतिमाएं लगी हैं, उनकी सार-संभाल एवं नियमित सफाई का जिम्मा उठाएं। अगर आप लोग ऐसा कर पाए तो निसंदेह यह मेरे साथ बाकी महापुरुषों के लिए बहुत बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

साभार : पत्रिका भिलाइ के 02 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।