Friday, December 14, 2012

ममता


बस यूं ही 
 
शुक्रवार सुबह आफिस गया तो वह कुतिया उसी अंदाज में पिल्ले के शव के पास बैठी थी लेकिन दोपहर को लौटा तो ना वह कुतिया दिखाई दी और ना ही उसके बच्चे का क्षत-विक्षत शव।  घर पहुंचा तो श्रीमती ने बताया कि आपके जाने के बाद सफाई वाला आया था, वह लेकर चला गया। मन ही मन खुद को दिलासा दिया कि चलो अच्छा हुआ। दो दिन से जो नजारा मेरी आंखों ने देखा, वह मेरे लिए असहनीय था।
दस-बारह दिन पहले ही की तो बात है, जब मोहल्ले में रहने वाली एक कुतिया ने पांच पिल्लों को जन्म दिया था। उसने अपने रहने का ठिकाना वहीं सामने एक सूखे नाले को बना लिया था। ऊपर से ढंका हुआ था, इसलिए रात को सर्दी से व दिन में तल्ख धूप से बचाव को जाता था। पिल्ले कुछ बड़े हुए और उन्होंने हलचल शुरू की तो नाले से बाहर आना शुरू हो गए। मोहल्ले के सभी बच्चों के लिए यह पिल्ले देखते-देखते मनोरंजन का साधन बन गए। सभी बच्चों को उनसे एक तरह का लगाव हो गया था। मैंने भी बचपन में काफी पिल्ले पाले थे। करीब दर्जनभर, लेकिन सभी एक-एक करके दूर हो गए। मैं खूब रोता था। मां  दिलासा देती थी। समझाती और कहती बेटा, तू कुत्ता पालना छोड़ दे। पता नहीं क्यों तू जो कुत्ता पालता है वह जिंदा नहीं रहता है। यकीन मानिए कुत्तों के वियोग में मैं रो-रोकर आंखें सूजा लेता था।
खैर, सब बताने का आशय है कि जीवों के प्रति प्रेम रखने का यह शगल मेरे दोनों बच्चों में
भी है। मोहल्ले के पिल्लों से उनको भी गहरा लगाव हो गया। रोजाना शाम को जाना और गोद में लेकर उनको सहलाना एक नियम सा बन गया। मंगलवार रात को घर पहुंचा तो श्रीमती ने बताया कि आज तो एक पिले को कोई वाहन कुचल गया। काफी देर तक शव सड़क पर ही पड़ा रहा। बाद में किसी ने वहां से फिंकवा दिया। श्रीमती ने कहा कि पिल्ले का शव देखकर कुतिया बार-बार उसके पास जा रही थी। वह न केवल उसको सूंघ रही बल्कि चाट भी रही थी। मन में अचानक अफसोस के भाव आए। लम्बी सांस छोड़ते हुए बिना कुछ कहे मैं कपड़े बदलने की तैयारी में जुट गया।
बुधवार को छोटे बेटे एकलव्य को लेकर लौट रहा था तो एक कार बगल से निकली। मेरी नजर कार पर ही टिकी थी कि एक पिल्ला दौड़ता हुआ कार के पास पहुंच गया। चालक की नजर शायद पर उस पर पड़ गई थी। उसने ब्रेक लगा दिए थे। इस दौरान मेरी आंखें अनहोनी की आशंका में यकायक बंद हो गई और मुंह से हल्की से आह भी निकली। मैं हल्के से बुदबुदाया, भगवान उसे बचा लो। आंखें खोली तो कार रुकी हुई थी लेकिन पिल्ला उसके नीचे घुस गया और काफी देर बाद निकल कर सड़क के दूसरे छोर पर चला गया। यह नजारा देखकर उस दिन यह आशंका घर कर गई थी कि कुतिया ने अपना आशियाना गलत जगह बना लिया है। पिल्ले अब बड़े होकर रोड पर जाने लगे हैं। सभी वाहन चालक तो एक जैसे होते नहीं है। आंख मूंदकर रफ्तार से चलते हैं। आदमी तक को नहीं देखते हैं, बेचारे पिल्ले कहां से दिखाई देंगे। मैं मन ही मन अनहोनी की आशंका में थोड़ा विचलित भी था। मेरी आशंका दूसरे दिन सही साबित हुई। गुरुवार दोपहर को मैं बड़े बेटे योगराज को बस स्टॉप से लेकर आया और जैसे ही घर की तरफ मुड़ा तो पिल्ले के शव को सड़क पर पड़े देखा। कुतिया पास खड़ी उसको चाट रही थी। बेजुबान जानवर की अपने बच्चे के प्रति ममता देखकर मैं भावुक हो उठा। योगराज पूछता रह गया पापा, क्या हो गया...। मैं बिना कुछ बोले ही ना की मुद्रा में गर्दन हिलाते हुए उसको घर ले आया।
इसके बाद फिर छोटे बेटे एकलव्य को लेने गया तो कुतिया वहीं बैठी थी। शाम चार बजे आफिस के लिए निकला तो भी वहीं बैठी थी। वाहनों की आवाजाही से पिल्ले का शव सड़क से चिपक चुका था। किसी ने सड़क से कुरचकर क्षत-विक्षत शव को साइड में कर दिया था। शव देखकर फिर हल्की सी आह निकली और मैं चुपचाप आफिस के लिए बढ़ गया। रात को 11 बजे लौटा तो कुतिया सर्दी में सिकुड़ी हुई नाले में बैठे शेष पिल्लों के पास जाने के बजाय उसी पिल्ले के शव के पास बैठी थी। घर जाकर श्रीमती को बताया कि देखो वह कुतिया दोपहर से उसी पिल्ले के पास बैठी हुई है। सचमुच वह नजारा देखकर मन बहुत दुखी हुआ। शुक्रवार सुबह का नजारा देखकर मैं चौंक गया था। कुतिया उसी स्थान पर उसी मुद्रा में बैठी थी। सर्दी से कांप भी रही थी। योगराज को स्कूल बस में बैठाने के बाद मैं घर लौटा और बिस्तर में दुबक गया लेकिन नींद उचट चुकी थी। लेटे-लेट मैं सोच रहा था। मेरे बार-बार जेहन में यही सवाल उमड़ रहे थे लेकिन मैं जवाब नहीं ढूंढ नहीं पा रहा था। सवाल यही कि औलाद का पालन-पोषण एवं परवरिश करते समय लोग अक्सर यही सोचते हैं कि यह बड़ा होकर बुढापे की लाठी बनेगा। दुख एवं संकट में सहारा देगा। मदद करेगा। बचपन से यही बात बड़े बुजुर्गों से भी सुनी है, लेकिन बेजुबानों को कौन से सहारे की जरूरत होती है। आदमी तो अपना दुख रोकर कम कर लेता है, किसी को बताकर बांट लेता है लेकिन बेजुबान क्या करें। इसी उधेड़बुन में सोचता रहा। नींद गायब हो गई थी। शुक्रवार दोपहर को आफिस से आने के बाद छोटे बेटे को लेकर आ रहा था तो दिमाग में ख्याल आया कि नाले में बैठे पिल्लों को तो देख लूं। देखा तो दो पिल्ले नींद में सुस्ता रहे थे। मैं फिर से सन्न रह गया। एक और कहां गया। देखा तो वह पड़ोसी के घर के आगे बैठा था। मैंने संतोष की लम्बी सांस छोड़ी और बेटे को लेकर घर में घुस गया। वाकई ममता तो ऐसी ही होती है। क्या इंसान और क्या जानवर।

अब तो कुछ कीजिए

 टिप्पणी 

फोरलेन पर गुरुवार को फिर एक और हादसा हो गया। एक महिला की मौत हो गई। साथ में दो युवतियां भी घायल हो गई। इस हादसे ने किसी की हंसती खेलती जिंदगी में कोहराम मचा दिया। जिंदगी भर उसको यह दर्द सालता रहेगा। लेकिन भिलाई की यातायात पुलिस के लिए तो यह रोजमर्रा की बात है। वह इस प्रकार के हादसों की अभ्यस्त हो चुकी है। उसको इस प्रकार के हादसे न तो डराते हैं और ना ही वह इनसे कोई सबक लेती है। भले ही लोग यातायात नियमों का मखौल उड़ाएं। अपनी मनमर्जी से वाहन चलाएं। रोज अकाल मौत के शिकार हों, लेकिन यातायात पुलिस को इससे कोई सरोकार नहीं है। यातायात पुलिस की यह कार्यप्रणाली न केवल चौंकाने वाली बल्कि चिंतनीय भी है। वह न तो हादसों से कोई सबक लेती है और ना ही कार्यप्रणाली में कोई सुधार होता है। लगातार हादसे होने के बाद भी यातायात पुलिस की नींद कभी टूटती ही नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि फोरलेन के अलावा दूसरी जगह यातायात पुलिसकर्मी नजर क्यों नहीं आते। पता नहीं
क्यों उनको शहर की अंदरूनी सड़कों पर यातायात नजर नहीं आता है। उनकी मुस्तैदी सिर्फ हाइवे पर ही दिखती है। और इस जरूरत से ज्यादा मुस्तैदी के कारण भी सबको पता हैं।
बहरहाल, हादसों से तनिक भी विचलित नहीं होने वालों पर पीडि़तों का रुदन असर डाल पाएगा। उनके जमीर को झाकझाोर पाएगा, इसमें संशय है। लम्बे समय से जड़ें जमाए बैठे पुलिसकर्मी एवं अधिकारी क्या जनहित में फैसले लेने ही हिम्मत जुटा पाएंगे। बेलगाम यातायात पर नकेल ना कसना यातायात पुलिस की नाकामी को ही उजागर करता है। और यह नाकामी तभी दूर को सकती है जब कारगर एवं प्रभावी कार्रवाई हो। हालात बद से बदतर होने को हैं और यातायात पुलिस को अब भी आंकड़ों को दुरुस्त करने तथा राजस्व बढ़ाने की कार्रवाई से ही फुरसत नहीं है। हर तरफ सुविधा शुल्क का ही शोर है। आखिर कब तक लोग यूं ही अकाल मौत मरते रहेंगे। बहुत हो चुका। कुछ तो तरस खाइए। अब तो कुछ कीजिए। ज्यादा कुछ नहीं तो खुद को यातायात पुलिसकर्मी की बजाय इंसान समझाने की हिम्मत जुटा लो। शायद उससे कुछ सद्बुद्धि आ जाए और शहर का भला हो जाए। यूं ही लोग अकाल मौत के शिकार तो नहीं होंगे।



 साभार : पत्रिका भिलाई के 14 दिसम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।