Wednesday, December 28, 2016

जोश व जज्बा जगाती है दंगल


बस यूं ही

फिल्म रिलीज होने के पांच दिन बाद आज सपरिवार दंगल देख आया। इसलिए अब फिल्म को लेकर टीका टिप्पणी करना बेमानी सा लगता है। क्योंकि पांच दिन बाद तो दर्शकों/पाठकांे के पास सारा निचोड़ आ चुका होता है। हां, कुछ अच्छा लगा वो जरूर सबसे साझा करूंगा। फिल्म का कथानक मेरे को पहले से ही पता था लेकिन इसको इस कदर खूबसूरती के साथ फिल्माया गया है यह देखने के बाद ही पता चला। हालांकि जीवन पर आधारित फिल्मों में मनोरंजन के लिए कल्पना का तड़का लगाया जाता रहा है। दंगल में भी कल्पना का तड़का है। मसलन, फाइनल मुकाबले में गीता के पिता महावीर फोगाट को एक कमरे में बंद दिखाना, फाइनल मुकाबले की खिलाड़ी का नाम बदलना, एकतरफा रहे मुकाबले को कड़ा दिखाना आदि आदि। दरअसल तड़का फिल्म की जरूरत भी होती है, अन्यथा दर्शक फिल्म पर उबाऊ होने का ठपा चस्पा करते देर नहीं लगाते। सोचिए वह फाइनल मुकाबला एकतरफा ही दिखा दिया जाता तो वह उतना आनंद व रोमांच नहीं दे पाता जितना कल्पना का तड़का लगाने के बाद देता है। 
खैर, बात मूल कथानक की करें तो वह हकीकत के नजदीक ही नजर आता है।
महावीरसिंह फोगाट उस राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं, जहां लिंगभेद की काली छाया, पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता तथा परम्पराएं हावी हैं। एेसी प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करना आसान नहीं होता। फोगाट अपनी लड़कियों को न केवल लड़कों जैसा लड़ाका बनाते हैं, बिलकुल उनके साथ दंगल में उतारने में भी नहीं हिचकते। वैसे हकीकत में यह काम महावीरसिंह करीब ढाई दशक पूर्व कर चुके हैं लेकिन फिल्म के माध्यम उनका काम पुराना नहीं लगता। आज भी परम्परावादी परिवारों में इस तरह की साहसिक फैसले नहीं लिए जाते। अपनी संतान को लायक बनाने का सपना तो कमोबेश हर मां बाप ही देखते हैं लेकिन जिस लगन, मेहनत, जीवटता व जुनून से महावीरसिंह मुकाम तक पहुंचते हैं वह वाकई काबिलेगौर है। 
आज दंगल बॉक्स आफिस पर धूम मचा रही है तो मान लेना चाहिए कि सकारात्मक कामों को भी वाहवाही मिलती है बशर्ते उनको दिखाने/ बताने का तरीका कुछ हटकर हो। दंगल मेरी नजर में अब तक देखी गई ऐसी इकलौती फिल्म है जो एक साथ कई विषयों की तरफ ध्यान बंटाती है। दंगल समाज को सकारात्मक संदेश देती है। हौसला देती है। मनोबल बढ़ाती है। उम्मीद जगाती है। यह परम्परावादी एवं दकियानूसी सोच पर करारी चोट भी करती है। यह लड़का-लड़की के भेद को मिटाती है। यह सामाजिक वर्जनाओं को अनसुना करती है। फोगाट की कहानी बताती है कि आदमी के हौसले के आगे सब कुछ बौना है। आदमी सोच ले तो क्या कुछ नहीं कर सकता। 
वैसे भी सच्ची कहानियां पसंद तो की ही जाती हैं वह दर्शक/श्रोता/पाठकों को अंदर तक प्रभावित भी करती है। यही कारण है कि गीता जब देश के लिए स्वर्ण पदक जीतती है तो आंखें सबकी नम होती है। मेरी आंखों से तो आंसू बह निकले। यकीन मानिए सिनेमा हॉल से बाहर निकलते तक मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे। भावनाओं से भरे यह पल ही तो आदमी के अंदर एक नई ऊर्जा पैदा करते हैं। जोश जगाते हैं। आगे बढऩे का जज्बा पैदा करते हैं। 
वैसे राजस्थान व हरियाणा के सीमावर्ती जिलों का आपस में रोटी बेटी का रिश्ता है। हालांकि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन मेरी जानकारी में है। गीता-बबीता का ननिहाल मेरे गृह जिले झुंझुनूं के बुहाना उपखंड के झारोड़ा गांव में हैं। निंसदेह बेटियों के आगे बढ़ाने में जितना योगदान महावीरसिंह का रहा है कमोबेश उतना ही उनकी पत्नी दयाकौर भी रहा है। बेटियों की सफलता में दयाकौर का त्याग भी छिपा है। देश व समाज को फिलहाल महावीरसिंह एवं दयाकौर जैसे किरदारों की ही जरूरत है। विशेषकर हरियाणा व मेरे गृह जिले में तो कहीं ज्यादा आवश्यकता है।

मनमर्जी का निर्माण

टिप्पणी

श्रीगंगानगर में इन दिनों एक सड़क का निर्माण कार्य चल रहा है। डामर को हटाकर उसकी जगह सीमेंट से यह सड़क बन रही है। लक्कड़ मंडी टी प्वाइंट से शिव चौक तक बन रही इस सड़क की दूरी बमुश्किल तीन किलोमीटर होगी। अगर दोनों तरफ की दूरी मिला दी जाए तो यह छह करीब किलोमीटर होगी। यह शहर की प्रमुख सड़क है और यातायात का दबाव इस पर सर्वाधिक रहता है। चौंकाने वाली बात यह है कि छह किलोमीटर का टुकड़ा बनते-बनते करीब चार माह हो चुके हैं लेकिन सड़क का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है। सोमवार को शिव चौक से सुखाडिय़ा सर्किल तक यातायात एक बार तो बंद ही कर दिया गया। एक तरफ तो सड़क बन रही है जबकि दूसरी साइड सड़क की खुदाई शुरू कर दी। इससे वाहन चालक गलियों में भटकते रहे।
खैर, सोमवार ही क्यों। बीते चार माह में क्या-क्या नहीं हुआ। कछुवा गति से हो रहे इस काम की हालात यह है कि इसने शहरवासियों को बस रुलाया ही नहीं बाकी कोई कसर नहीं छोड़ी। इस सड़क का निर्माण तो शुरू से ही चर्चाओं में रहा है। सड़क बनाने के तौर-तरीकों को देखा जाए तो जाहिर भी होता है कि इसका काम मनमर्जी एवं बिना कार्ययोजना के हो रहा है। जनता को परेशानी हो तो हो अपनी बला से। सड़क बनाने वाले उसी अंदाज में बना रहे हैं। निर्माण कार्य कभी कहीं से शुरू किया तो कभी कहीं से। बड़ी बात यह है कि संबंधित विभाग भी आंखें मूंदे चुपचाप यह सब देख रहा है। विभाग की यह चुप्पी शर्मनाक एवं संदिग्ध इसीलिए भी प्रतीत होती है, क्योंकि दो बार सड़क निर्माण सामग्री की गुणवत्ता को लेकर शिकायत तक हो चुकी है। ऐसा लगता है निर्माण एजेंसी को विभाग ने मनमर्जी से सड़क बनाने की खुली छूट दे रखी है। चार माह से लोग धूल फांक रहे हैं। शहर की अंदर की गलियों में धक्के खा रहे हैं। जाम में फंस रहे हैं, लेकिन सब के सब चुप। जन सरोकारों पर सबके मुंह पर ताला। अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि कोई कुछ नहीं बोल रहा। जो पीडि़त व प्रभावित है वह भले ही संबंधित निर्माण एजेंसी के कारिंदों के यहां गिड़गिड़ाए। गुहार लगाए लेकिन सब नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनता कौन है। वैसे तो सड़क निर्माण के लिए इस समय का चयन करना ही गलत था। बरसात के मौसम में सड़क के आसपास वाले दुकानदारों एवं लोगों ने कितनी पीड़ा भोगी है वो ही जानते हैं। त्योहारों व पर्व पर कितने ही दुकानदारों की ग्राहकी मारी गई उनसे बेहतर कौन जान सकता है। सड़क पर चलने वाला वाहन चालक या राहगीर ने कितनी धूल फांकी वो ही महसूस कर सकता है।
बहरहाल, जनता के लिए बनने वाले काम बिना वजह की देरी दर्द देने लगती है। जनहित से जुड़े कामों को प्राथमिकता से व तय सीमा समय से पूरा करने की कोशिश की जानी चाहिए। और हां विभाग द्वारा चुपी साधकर संबंधित एजेंसी की ढाल बनने या उसे अभयदान देने वाली बात जहां होती है वहां जनहित दरकिनार होता रहा है। संबंधित विभाग के लिए हमेशा जन हित सर्वोपरि होना चाहिए। विभाग को इस सड़क के काम से सबब लेना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की हिमाकत कोई दूसरी एजेंसी तो नहीं करे।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 15 नवम्बर 16 प्रकाशित...

...तो भयावह होंगे हालात

 टिप्पणी

 दो चार दिन पहले देश के विभिन्न हिस्सों में छाया स्मॉग तो सभी को याद ही होगा। किस तरह दिन भर धुआं सा छाया रहा। आंखों में जलन थी तो सांस तक आसानी से नहीं ले पा रहे थे लोग। इस स्मॉग से निपटने पर अच्छा खासा चिंतन मंथन भी शुरू हुआ। स्मॉग किस स्तर तक है इसको बाकायदा मापा भी गया। हालात इस कदर बिगड़े कि आठ नवंबर को राजस्थान राज्य प्रदूषण नियत्रंण मंडल ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के निर्देशों की पालना में अलवर व भरतपुर जिलों में एक सप्ताह तक सभी स्टोन क्रेशर व ईंट भट्ठों के संचालन पर रोक लगा दी। इसी तरह दस नवम्बर को प्राधिकरण ने ही दिल्ली में थर्मल पावर प्लांट को अस्थायी रूप से बंद कर दिया। एक महत्वपूर्ण आदेश भी गुरुवार को दिया गया जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण पर केन्द्र को फटकार लगाते हुए कहा कि केन्द्र सरकार इस बात का इंतजार कर रही है कि लोग सड़कों पर प्रदूषण की वजह से मरें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्वच्छ सांस लेना लोगों का मौलिक हक है।
ऐसे में सवाल उठता है कि स्वच्छ सांस लेने की बात क्या दिल्ली के लोगों तक ही सीमित है? प्रदूषण से स्वास्थ्य को सर्वाधिक खतरा उन्हीं को होता है? श्रीगंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिले के लोगों के जान की कीमत ही नहीं? बड़ी बात तो यह है कि श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ में प्रदूषण मापने का कोई पैमाना ही नहीं है जबकि दोनों जिलों में धूल, धुंध एवं धुआं कदम-कदम पर है। ईंट भ_ों की संख्या दोनों जिलों में बड़ी संख्या में हैं। दुपहिया एवं चौपहिया वाहनों की संख्या भी यहां दूसरे जिलों की अपेक्षा ज्यादा है। हनुमानगढ़-श्रीगंगानगर जिले में चावल की खेती खूब होती है। खेतों में पराली जलाने का प्रचलन इधर भी है। श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय की ही बात करें तो सड़कों पर उडऩे वाली धूल ही इतनी है कि भले चंगे आदमी को अस्पताल जाने को मजबूर कर देती है।
बहरहाल, स्मॉग को देखते हुए श्रीगंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिले में प्रदूषण का स्तर चिंता बढाने वाला है। जिम्मेदारों को इस दिशा में अविलंब पहल करनी चाहिए वरना हालात भयावह होते देर नहीं लगेगी। आम आदमी के स्वास्थ्य से जुड़े इस मामले में जागरूक लोगों को भी आगे आना चाहिए। जब अतिक्रमण जैसी समस्या के लिए यहां के जागरूक लोग अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं, प्रशासन को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं, तो जीवन से जुड़े इस मसले पर चुप्पी क्यों? प्रदूषण से बचाव की बात तो बाद की है पहले इसके स्तर को मापने की बाद तो करें। इसके लिए कोई ठोस एवं कारगर प्रयास तो हों।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 12 नवम्बर 16 प्रकाशित ....

ऐसी भी क्या जल्दी थी....


बचपन से एक कहावत सुनता आया हूं 'बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय, काम बिगाड़े आपणो जग में होय हंसाय...' अगर आप समझ रहे हैं तो ठीक हैं वरना समझा देता हूं कि यह बात देश में पांच सौ एवं हजार के नोट बंद करने के संदर्भ में हैं। मैं नोटो पर रोक लगाने का स्वागत व समर्थन करता हूं लेकिन जिस तरह आनन-फानन में बिना किसी कार्ययोजना के इसे लागू किया गया और इसके जो साइड इफेक्ट्स सामने आ रहे हैं, उनकी कुछ बानगी देखिए....
-रेल के अग्रिम आरक्षण पर रोक लगाई।
-हवाई यात्रा की अग्रिम बुक पर रोक लगाई।
-राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल नाके मुफ्त किए।
-स्टेट हाइवे भी टोल से मुक्त किए।
-पुराने नोट चलाने की अवधि बढ़ाई।
-एटीएम पर नए नोट अभी नहीं निकलेंगे।
यह चंद उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि यह फैसला कितनी जल्दबाजी में लिया गया था। जल्दबाजी को लेकर तर्क दिया जा सकता है कि मौका दिया जाता तो कालेधन को सफेद कर लिया जाता। हो सकता है ऐसा हो जाता, लेकिन ठोस कार्ययोजना बना कर कुछ छूट दी जा सकती थी। यथा-
-शादी वाले परिवार को पांच-से दस लाख रुपए हाथोहाथ बदलवाने की सुविधा दी जाती।
- बीमार, बुजुर्ग, दिव्यांग आदि के लिए अलग से काउंटर बनते।
- अनपढ़ एवं पहली बार बैंक जाने वाले के लिए किसी तरह की हेल्प डेस्क बनाई जाती।
-सोना खरीदने पर भी रोक तभी लगाई जा सकती थी।
-काला धन खपाने की जितनी गलियां थीं उनको पहले बंद किया जाता।
-नया नोट बड़ा है, क्यों ना उसकी साइज उतनी ही रख ली जाती, ताकि एटीएम सुविधा में विलंब ना होता।
- सभी का समय खराब न हो इसके लिए बेहतर था कि उपभोक्ताओं को सीरिज की घोषणा कर भुगतान किया जाता। मतलब अमुक नंबर से अमुक नंबर तक का भुगतान फलां तारीख को इतने बजे होगा।
-आपात एवं तत्काल राहत वालों के लिए अलग से काउंटर होता जो कुछ औपचारिकता पूरी करने के बाद उनको राहत देता।
-स्कूलों आदि में भी नकली नोट की जांच की मशीन लगाकर नोट बदलने के काउंटर लगाए जा सकते थे।
-सौ, पचास, बीस व दस के नोट बाजार में मौजूद कुल राशि का बीस प्रतिशत भी नहीं है, जबकि पांच सौ एवं हजार के 80 फीसदी से ज्यादा हैं। ऐसे में छोटे नोटों की किल्लत स्वभाविक है। दो हजार के साथ पांच सौ एवं हजार के नोट भी जारी होते। बड़ा नोट होने से उसके भुनाने की समस्या बरकरार है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि यह निर्णय महत्वपूर्ण और देश हित में है लेकिन बेहद जल्दबाजी एवं हड़बड़ाहट में उठाया गया कदम है। निर्णय लागू होने के बाद पैदा होने वाली परिस्थितियों पर या तो ध्यान नहीं दिया गया या फिर जानबूझकर उनको नजरअंदाज किया गया है। जब सरकार ने इतने बड़े प्रोजेक्ट पर काम किया, तो लगे हाथ उसके साइड इफेक्ट्स/ समस्याओं पर भी काम होना चाहिए था। उनका हल भी खोज लेना चाहिए था। लोग तर्क दे रहे हैं जवान सीमा पर खड़े हैं, आप खड़े नहीं हो सकते क्या? देश हित में फैसला है सहयोग नहीं कर सकते क्या? इतना बड़ा काम है थोड़ी बहुत असुविधा सहन नहीं कर सकते क्या? और भी न जाने क्या-क्या? बिलकुल खड़े हो सकते हैं। सहयोग कर सकते हैं। असुविधा भी झेल सकते हैं लेकिन कब तक। कहना बड़ा आसान है लेकिन जिस पर बीत रही है वो ही जानता है.....। शिकायत फकत इतनी है कि यह सब कार्ययोजना बनाकर पूर्णत सोच विचार किया जा सकता था। भले यह सब गोपनीय ही होता। खैर....बहारों का मौसम है आनंद लीजिए।

तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय-जय

एक टीवी चैनल पर कथित देश विरोधी कवरेज दिखाने के आरोप में नौ नवंबर को प्रस्तावित कार्रवाई स्थगित कर दी गई है। कार्रवाई स्थगित करने के कारगर कारण तो सरकार या उसके नुमाइंदे ही बता सकते हैं लेकिन जो बात सामने आ रही है वह यह है कि सरकार ने चौतरफा विरोध को देखते हुए यह काम किया है। जो भी हो चैनल बैन करने के निर्णय का विरोध दर्ज करवाने वाले आज खुश हैं। सोशल मीडिया के प्रमुख माध्यम फेसबुक व व्हाट्स एप पर ब्लेक की गई डिपी भी वापस रंगीन होने लगी है। पर लगता नहीं कि सरकार निर्णय स्थगित करने के वास्तविक कारणों का खुलासा करेगी लेकिन मेरे जेहन में कुछ सवाल जरूर खदबदा रहे हैं। यकीनन मेरे जैसे हालात कइयों के होंगे। मसलन, यह कार्रवाई का फरमान सुनाया ही क्यों गया? सुनाया गया तो इतना देरी से क्यों? जो मैसेज जाना था वह तो लाइव रिपोर्ट से जा चुका था। अब एक दिन बंद करने से उसकी भरपाई कैसे हो जाती?
खैर, जो भी कारण रहे इस फैसले को लेकर भी लोग दो भागों में बंटे नजर आए। किसी ने समर्थन में सुर मिलाए तो किसी ने फैसले की जोरदार खिलाफत की। अब फिर निर्णय स्थगित करने को भी दो तरीके से देखा जा रहा है। सुर में सुर मिलाने वालों की दलील हो सकती है कि सरकार का काम संबंधित चैनल को एहसास करवाना था और वह काम एेसा करने से हो गया। साथ ही इस बहाने एक संदेश भी सभी चैनलों को दे दिया गया। लगे हाथ सरकार ने यह भी जान लिया कि कौन उसके समर्थन में है और कौन नहीं। इधर बैन के विरोध करने वाले इसे जीत प्रचारित कर रहे हैं। कह रहे हैं कि सरकार ने देशव्यापी दबाव को देखते हुए अपने कदम वापस खींच लिए।
बहरहाल , मेरे को इस समूचे घटनाक्रम में दोनों ही पक्षों की जीत लग रही है। एक वो पक्ष है जो तात्कालिक रूप से अपनी बढ़त को जीत मान रहा है जबकि दूसरे पक्ष ने इसके दूरगामी फायदे को न केवल बखूबी पहचान लिया है बल्कि एक तीर से कई तरह के निशाने भी साथ लिए हैं। इसलिए इस मामले में किसी एक पक्ष को जीता व एक को हारा हुआ नहीं माना जा सकता है। ठीक तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। ना तुम जीते ना हम हारे की तर्ज पर। और हां दो धड़ों में विभक्त हुई इस लड़ाई में समर्थक अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करेंगे लेकिन जो ना इधर गए ना उधर गए और चुपचाप इस बड़े 'ड्रामे' को देख रहे थे उनका भरपूर मनोरंजन हो गया है। तटस्थ दर्शकों ने समर्थन व विरोध के विचारों एवं शब्दों की जुगाली का जी भर के लुत्फ उठाया है। हां समय खराब जरूर हुआ। खैर, जहां मनोरंजन हो वहां समय मायने भी नहीं रखता।

मुक्तक

दो दिन का अवकाश था। कल शाम को बैठे-बैठे कल्पना के घोड़े दौड़ाए तो यह पांच मुक्तक तैयार हो गए। आप भी देखिए...
1.
अजब दिन हैं कल-आज के, अजब हैं ये त्योहार।
कल श्रीराम का दिन था तो आज श्रीकृष्ण का वार। 
मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम हैं तो प्रेम पथिक कृष्ण मुरार। 
मिलजुल के रहो और प्रेम करो, है यही जीवन आधार।
2.
जैसे रिश्तों में एहसास जरूरी है।
जैसे जिंदा शरीर में सांस जरूरी है।
अक्सर सड़ जाता है ठहरा हुआ पानी दोस्तो।
आगे बढने के लिए हरदम प्रयास जरूरी है।
3.
रिश्ते डिजीटल हो गए क्या करें अब जोर।
धुआं और धमाके अब तो करते हैं बस शोर।
रिश्तों की बुनियाद हिली है, ना रहे वो लोग,
प्यार महोब्बत की बातें जो करते थे चहुंओर।
4.
मुंह देखकर ही निभाते, यहां सभी लोग दस्तूर।
अदला बदली के खेल में मिलती दाद भरपूर।
डिजीटल रिश्तों की बस तुम बात न पूछो दोस्तो
एक पल में जो लगते अपने, दूजे पल हो जाते दूर।
5.
कॉपी पेस्ट पर मिलता देखो यहां स्नेह अपार,
पर जो मौलिक होता यारो, करते सभी दरकिनार
इस वाहवाही के खेल में, बने ग्रुप अनेक
जो रखता है सोच बडी, वो ही करता नेक व्यवहार।

भूख


22th लघुकथा
झुग्गी-झोंपडि़यों में रहने वाले खानाबदोश परिवारों के बच्चों को त्योहारों का बड़ा बेसब्री से इंतजार रहता। विशेषकर दीपावली आते-आते तो इन बच्चों का उत्साह चरम पर पहुंच जाता। शहर की कई सामाजिक संस्थाएं उनके दर्द बांटने के बहाने आगे आती। कोई उनको कपड़े देता तो कोई सर्दी से बचाव के लिए कम्बल व रजाई आदि। कोई संस्था मिठाई बांटती तो कोई आतिशबाजी के लिए पटाखे व फूलझडि़यां। यह परंपरा शहर में बरसों से चली आ रही थी। यह सिलसिला दीपावली के तीन चार दिन पहले से ही शुरू हो जाता। संस्थाओं में मदद करने की होड़ सी लग जाती। जैसे ही कोई गाड़ी बस्ती में आकर रुकती बच्चों का उत्साह हिलोरें मारने लगता। एक दिन तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। चार पांच लग्जरी गाडि़यां आई। उन में से कोई पन्द्रह बीस युवा उतरे। सबसे पहले सभी ने संस्था का बैनर दीवार पर चिपकाया। इसके बाद सभी ने अपने-अपने मोबाइल निकाले और फोटो लेने में जुट गए। ललचाई आंखों से बच्चे यह सब देख रहे थे। फोटो सेशन होने के बाद बच्चों को कतार में बिठाया गया। मददगार संस्था के सदस्यों ने आतिशबाजी के पैकेट गाड़ी से निकाले और एक-एक पटाखा व दो-दो फूलझडि़या बारी-बारी से सबको देने लगे। साथ में फोटो लेने का क्रम दुगुनी गति से जारी था। मैं चुपचाप इस समूचे को घटनाक्रम को देख रहा था। मेरे को उन बच्चों व संस्था पदाधिकारियों में एक समानता नजर आई। बच्चों में कुछ पाने की तो देने वालों में प्रचार की।

शिक्षित एवं बुद्धिजीवी लोग फैला रहे जातिवाद


बस यूं ही
करीब सात साल पहले की बात है। आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं पर झुंझुनूं में चिकित्सकों का एक सेमिनार था। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात यह आई कि जहां साक्षरता दर ज्यादा है, वहां भ्रूण हत्या अधिक हो रही है। इस बात के लिए वक्ताओं ने बाकायदा झुंझुनूं और डूंगरपुर जिले के उदाहरण भी बताए। उनका कहना था कि झुंझुनूं में साक्षरता दर ज्यादा है लेकिन प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं की संख्या कम है। इससे ठीक उलट डूंगरपुर जैसे आदिवासी जिले में साक्षरता दर कम होने के बावजूद प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं का आंकड़ा ज्यादा है। इस तथ्य से यह साबित होता है कि पढ़े लिखे लोग वह घृणित काम ज्यादा करते हैं, जिसकी वजह से लिंगानुपात में अंतर आया। खैर, बात जातिवाद की हो रही थी। मैं दावे की साथ कह सकता हूं कि जिस तरह लिंगानुपात कम करने में शिक्षित वर्ग का हाथ रहा है, उसी तरह जातिवाद भी पढ़े लिखे एवं बुद्धिजीवी लोग ही ज्यादा फैला रहे हैं। जरूरी नहीं है कि जो जिस जाति से है उसी की हिमाकत करे। कुछ तो ऐसे भी हैं जो कथित जातिनिरपेक्ष होने का स्वांग भरते हैं लेकिन बड़ी ही होशियारी एवं कलाकारी से दूसरी जाति पर अवांछित टीका टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। सोशल मीडिया पर आजकल इस तरह के जाति निरपेक्ष लोगों की भरमार है। अफवाहों को हवा देने का प्रमुख केन्द्र भी इसी तरह के लोग हैं। यह जाति निरपेक्ष लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि जातिवादी बारूद पर बैठे राजस्थान में उनकी जातिवाद से संबंधित टिप्पणी आग में घी का काम करेगी, और कम से एक वर्ग तो उसका समर्थन करेगा ही। तभी तो सुनियोजित तरीके से जानबूझकर इस तरह का खेल खेला जाता है। 
यह फितरती लोग प्रमाणिक तथ्यों में पूर्वाग्रहों का तड़का लगाकर इस तरह का घालमेल कर देते हैं कि तटस्थ पाठक तो भ्रमित होता ही है, जातीय संतुलन पर भी खतरा मंडराने लगता है। मैं इस तरह की जातिवादी बातें करने वाले एवं सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर वैमनस्यता फैलाने वाले बुद्धिजीवी लोगों का हमेशा विरोधी रहा हूं और रहूंगा। हां तार्किक एवं तथ्यात्मक बातों का मैं हमेशा हिमायती रहा हूं। 
खैर, मेरी सोच एवं लेखन किसी समाज को ऊंचा या नीचा दिखाने का कभी नहीं रहा। जो है वो है। तड़का लगाकर सस्ती लोकप्रियता पाने या चर्चाओं में बने रहने का काम मेरे को नहीं आता। मेरी सोच समग्र इसीलिए है कि मैं एक ऐसे गांव का प्रतिनिधित्व करता हूं, जहां इस तरह की बातें नहीं होती। 
मेरा तो सवाल ही यह है कि जातिवाद का जहर है ही क्यों? यह फैला कौन रहा है? तथा इससे फायदा किसको है? मैं अपने पड़ोसी से जाति के नाम पर हमेशा लड़ता रहूं क्या यह समझदारी है? जातिवाद जैसा शब्द सियासत में जरूर प्रासंगिक हो सकता है लेकिन यह हमारी साझा विरासत को नुकसान पहुंचा रहा है। यह हमको बांट रहा है। टुकड़े टुकड़े कर रहा है। जातिगत व्यवस्था कहें या वर्ण व्यवस्था आजादी से पूर्व कभी रही होगी, वर्तमान में लोकतंत्र हैं, सब समान हैं। किसी तरह का कोई भेद नहीं है। हम आजादी से पूर्व के उदाहरणों को जिनको हमने प्रत्यक्ष न भोगा न देखा केवल सुना भर है, उनका हवाला देकर कब तक यह आग फैलाते रहेंगे। भाई-भाई को आपस में लड़ाते रहेंगे। जरूर यह जहर फैलाने वाले लोग किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित हैं और उनका मकसद यही है कि लोग टुकड़ों में बंटे रहे हैं ताकि उनकी बुद्धिमता का भ्रम बना रहे। कितना अच्छा हो यह बुद्धिजीवी लोग जातिवाद के जहर को कम करने के उपाय बताएं और हां अगर उपाय बताने में पेट में मरोड़ उठें तो कम से कम शांत तो रह सकते हैं। सामाजिक बैर भाव बढ़ाकर ही लोकप्रियता पाना ही जिनका मकसद है, तो लानत है ऐसे लोगों पर। देश को कमजोर करने वाली ताकतों का समर्थन करना देशभक्ति नहीं हो सकती।

धन, धान व धर्म की धरती


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टिप्पणी 
नि संदेह यह प्रदेश का सबसे समृद्ध व संपन्न जिलों में से एक है। इस सरसब्ज जिले में सद्भाव की सरिता बहती है तो आधुनिकता व पुरातन परम्पराओं का गजब समावेश भी है। यहां कई संस्कृतियों का संगम है तो सेवा करने का अनुकरणीय जज्बा भी। इतनी खूबियों एवं खासियतों को अपने अंदर समेटने के बावजूद राजनीतिक फलक पर अक्सर श्रीगंगानगर की उपेक्षा ही हुई है। इन सब बातों के अलावा श्रीगंगानगर के साथ एक अनूठा संयोग भी जुड़ा है। यह संयोग है 'ध' से विशेष लगाव। हिन्दी वर्णमाला का 19वां अक्षर यहां की संस्कृति में इतना रच बस गया है कि अब श्रीगंगानगर की पहचान ही इससे होने लगी है। इस जिले का धूप से इतना गहरा नाता है कि गर्मियों में तामपान 48 डिग्री से पार हो जाता है। कमोबेश इससे ठीक उलट सर्दियों में होता है जब तापमान शून्य से नीचे होता है और धुंध की वजह से सप्ताह भर तक सूर्यदेव के दर्शन तक नहीं होते। 'ध' से ही धूल है तो 'ध' से ही धुआं। कृषि में सिरमौर होने के कारण किसानों का धूल से ही वास्ता पड़ता है। पड़े भी कैसे नहीं आखिर धोरों की धरती को उन्होंने खून पसीना बहाकर सोना उगलने वाली भूमि जो बना दिया है। जिले में कहीं पहाड़ी न होने के कारण यहां ईंट भट्ठों का कारोबार बहुतायत में है। श्रीगंगानगर धान का कटोरा है तो धर्म की नगरी भी। यह धनकुबेरों का जिला है, तभी तो इसकी समूचे प्रदेश में अलग तरह की धाक है। धर्म-कर्म तो यहां के जर्रे-जर्रे में है। यहां के लोग इतने हरफनमौला है कि किसी न किसी विधा में धमाल करते रहते हैं। इन सबके बावजूद विडम्बना यह है कि आधुनिकता की चकाचौंध में धड़ाधड़ आगे बढ़ते श्रीगंगानगर की युवा पीढ़ी धीमे जहर (नशा) की गिरफ्त में आ रही है। इस धीमे जहर का धंधा यहां धड़ल्ले से फल-फूल रहा है। इससे भी चिंताजनक यह है कि सद्भाव व स्नेह की नींव पर खड़ी इस जिले रूपी इबारत में धोखे का कारोबार सेंध लगाकर इसे धराशायी करने का दुसाहस कर रहा है। इस धरती के लोगों का धीरज धीरे-धीरे जवाब दे रहा है। उसकी जगह अब गुस्सा घुसपैठ करने लगा है। आदमी का आदमी के प्रति विश्वास कम हो रहा है। गलतफहमी इस कदर घर कर चुकी है कि रिश्तों का कत्ल होते देर नहीं लगती। कई तरह के अपराध भी शांति की अग्रदूत रही इस धरा पर पैर पसार रहे हैं। बहरहाल, श्रीगंगानगर स्थापना दिवस के पुनीत मौके पर हम सबको इस बात का संकल्प जरूर लेना चाहिए कि जिले के गौरव व संस्कृति को नुकसान पहुंचाने वाले तमाम तरह के तत्वों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ेंगे। चाहे वो सामाजिक कुरीतियां हों या फिर सद्भाव को प्रभावित करने के कुत्सित प्रयास। नशे का कारोबार हो या एक दूसरे के प्रति कम होता विश्वास। स्थापना दिवस मनाने की सार्थकता भी तभी है जब हम यहां के सद्भाव व सेवाभाव को बनाए रखने के साथ साथ तमाम तरह की विकृतियों/ कुरीतियों के खिलाफ एकजुट होकर शपथ  लें।
26 अक्टूबर 16 के श्रीगंगानगर संस्करण में प्रकाशित ..

तू जीए हजारों साल, है मेरी आरजू....


आज धर्मपत्नी निर्मल का जन्मदिन है। मेरा जन्मदिन भी अक्टूबर माह में ही आता है। दोनों के जन्मदिन में केवल सात दिन का अंतर है। मतलब मेरा 18 तो उसका 25 अक्टूबर। जन्मदिन की शुभकामना तो वैसे रात को ऑफिस से घर पहुंचते ही दे दी थी लेकिन सुबह कुछ शरारत सूझी। मैंने कहा जिंदगी के ......बसंत पूरे करने पर बधाई। (महिलाएं अपनी सही उम्र बताती ही कहां हैं। भला मैं सही बोलकर यह गुस्ताखी कैसे कर सकता हूं।) बस इतना सुनते ही बोली, जन्मदिन की बधाई ठीक है, उम्र का जिक्र मत करो। मैंने कहा हकीकत से क्यों भाग रहे हो। जो है वो तो है ही। खैर, इस विषय पर हम दोनों के बीच देर तक हंसी ठिठोली चलती रही।
इससे ठीक एक दिन पहले छोटे बेटे एकलव्य ने सवाल पूछकर धर्मसंकट खड़ा कर दिया था। उसने कहा था, पापा आप व्हाट्सएप की डीपी में दादीसा-दादोसा की फोटो ही क्यों लगाते हो। मैंने कहा बेटे वो मेरे माताजी-पिताजी हैं और मैं उनसे सर्वाधिक प्रेम करता हूं। इतना सुनते ही उसने कहा पापा याद है ना कल मम्मी का जन्मदिन है। मैंने कहा तो? तो कुछ नहीं मम्मी ने आपके जन्मदिन पर अपने व्हाट्सएप की डिपी बदली थी और स्टे्टस भी, क्या आप भी ऐसा ही करोगे? बड़ी मासूमियत से पूछे गए इस गंभीर सवाल का जवाब मैंने कुछ नहीं दिया। हां जरा सा मुस्कुरा भर दिया। आज सुबह उठते ही सबसे पहले व्हाट्स एप की डीपी एवं स्टेट्स चेंज किया।
बस एक ही चीज बची थी फेसबुक। उस पर जन्मदिन की शुभकामनाएं या बधाई लिखने की बजाय कुछ नया करने का विचार आया। लिहाजा, पहले तो यह भूमिका लिखने का मानस बनाया। बहरहाल, जन्मदिन के मौके पर यह चंद पंक्तियां निर्मल को ही समर्पित हैं--।
घर की रौनक तुमसे निर्मल, तुम ही घर की शान,
मेरी खुशी की खातिर तुम, कर देती नींदें कुर्बान।
हर काम से बड़ी है सचमुच, घर की सारी जिम्मेदारी,
तुम मेरे साथ न होती, तो ना मिलती ऐसी पहचान।
जन्मदिन की बहुत सारी बधाई.... शुभकामनाएं......।

प्रतिमाओं की पुकार

 टिप्पणी 

भई वाह! यह तो कमाल ही हो गया! समझ नहीं आ रहा, हम इस हालात पर हंसे, हंगामा करें या किसी तरह की कोई शिकवा-शिकायत। हमें पहचानों शहरवासियों, हम कोई गैर नहीं बल्कि आपके शहर के प्रमुख चौक-चौराहों पर लगी वो प्रतिमाएं हंैं, जिनको आप लोगों ने लगभग बिसरा दिया है। हम में से कोई क्रांतिकारी है तो कोई शहीद। कोई संविधान निर्माता है तो कोई राष्ट्रपिता। कोई श्रीगंगानगर का संस्थापक है तो कोई राजनेता। आप लोगों ने अपनी जरूरतों के हिसाब से समय-समय पर हमारी प्रतिमाओं को चौक-चौराहों पर स्थापित तो करवा दिया लेकिन अब हमारी परवाह किसी को नहीं। जन्मदिवस या पुण्यतिथियों की बात छोड़ दें तो बता दीजिए आप हमें याद करते ही कब हो। हां, चुनाव का मौसम होता है तब तो नेताओं को हमारी बहुत याद आती है। हम सबके प्यारे हो जाते हैं। कोई हमारे काम पर तो कोई नाम पर चुनाव लड़ता है। कोई तो हमारी शहादत तक को भुनाने से नहीं चूकता। खूब सियासत होती है हमारे नाम पर। हमारे सहारे सियासी फायदे एवं नुकसान तक खोजे जाते हैं।
खैर, आप सब जानते हो यहां के सद्भाव की, समृद्धता की व सपंन्नता की बात-बात पर मिसालें दी जाती हैं। सच-सच बताना, कितनी खुशी होती है यह सब सुनकर। यकीनन छाती गर्व से चौड़ी हो जाती है। जब इस तरह की खासियत, इस तरह की आत्मीयता, इस तरह का अपनापन, इस तरह की इंसानियत, इस तरह का सेवाभाव यहां है तो फिर हमसे ही यह बेरुखी क्यों? यह उपेक्षा क्यों? यह भेदभाव क्यों? अरे आप ही तो हो जो सालासर या रामदेवरा जाने वाले पदयात्रियों की सेवा में दिन-रात एक कर देते हो। नर को नारायण मानकर उनकी सेवा करते हो। अटूट लंगर व छबीलें लगाते हो। इस तरह की सोच व जज्बा रखने वाले लोग हो तो फिर हमको इस तरह लावारिस मत बनाओ। हम भी आपके अपने ही हैं।
हां हम इतना जरूर जानते हैं कि सियासी लोगों ने हमारा बहुत फायदा उठाया है। अब भी उठाते हैं। यहां के जिम्मेदार अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि तो पता नहीं किस नींद में गाफिल हैं। दूरदर्शिता का अभाव कहें या उनकी आपस की नूराकुश्ती, इन लोगों ने तो शहर को बदहाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे अधिकारी व जनप्रतिनिधि हमारी सुध लेंगे भी क्या?
हमको उम्मीद की किरण केवल और केवल यहां के सेवाभावी लोगों व युवाओं में ही नजर आती है। आप लोगों में सेवा का जज्बा है। श्रीगंगानगर का स्थापना दिवस आने वाला है। आप सब इस पुनीत मौके पर यह संकल्प जरूर लें कि आप न केवल समय-समय पर प्रतिमाओं की खैर-खबर लेंगे बल्कि इनके मान-सम्मान का भी पूरा ख्याल रखेंगे। यकीन मानिए आप लोगों ने यह सब कर दिखाया तो श्रीगंगानगर की ख्याति में चार चांद लग जाएंगे।

राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 22 अक्टूबर 16 के अंक में प्रकाशित ...

ताकि सुकून से मने दीपोत्सव

 टिप्पणी

बदहाली के भंवर में फंसे शहर की तमाम व्यवस्थाएं भगवान भरोसे नजर आती हैं। बद से बदतर होने की तरफ बढ़ रहे हालात हकीकत में हतप्रभ करने वाले हैं। दीपावली के चलते दर ओ दीवारों को दमकाने का दौर भले ही चल रहा हो लेकिन शहर गंदगी और गर्त के आगोश में है। यही कारण रहा कि मंगलवार को कुछ युवाओं ने सोए हुए प्रशासन को जगाने की एक छोटी सी कोशिश की। 
नगर परिषद कार्यालय में मोमबत्तियां जलाकर इन युवाओं ने प्रशासन, नगर परिषद एवं पार्षदों की कार्यशैली के खिलाफ विरोध जताया। भले ही यह विरोध प्रतीकात्मक रहा हो लेकिन यह साबित करता है कि लोगों का धैर्य अब जवाब देने लगा है। शहर का आम आदमी दुखी है। वह अंदर ही अंदर सुलग रहा है। व्यवस्थाओं को कोस रहा है और मुखर होकर सडक़ पर आने लगा है।
वैसे भी शहर में ऐसी व्यवस्था नजर नहीं आती जिस पर संतोष किया जा सके। निराश्रित पशुओं का स्वच्छंद विचरण, श्वानों की बढ़ती फौज और गंदगी से बजबजाती नालियों में पनपते मच्छरों ने शहर व शहरवासियों की सेहत वैसे ही बिगाड़ रखी है। शहर की खूबसूरती से खिलवाड़ कर गंगानगर से गंदानगर होते शहर की फिक्र किसी को नहीं? सडक़ों पर उड़ती धूल, कचरे से अटी नालियां, कई जगह बंद पड़ी रोडलाइट, खराब हाइमास्ट, टूटी सडक़ें, क्षतिग्रस्त डिवाइडर, जगह-जगह पसरा अतिक्रमण, मनमर्जी की पार्किंग, बेतरतीब यातायात आदि यह बताते हैं कि व्यवस्थाएं यहां हांफ रही हैं तो प्रशासन पंगु जैसा हो चुका है। रही-सही कसर सियासी रस्साकशी ने पूरी कर दी। जनप्रतिनिधि और जिम्मेदार अधिकारी भी जनहित के जुड़े मसलों को दरकिनार कर खुद के अहं की तुष्टि करने में जुटे हैं।
बहरहाल, जनप्रतिनिधियों एवं जिम्मेदारों को इस सांकेतिक प्रदर्शन से अब जाग जाना जाहिए। शहरवासियों की दीपावली अच्छे से मने। शहर साफ सुथरा हो, अधूरे काम प्राथमिकता से जल्द पूरे हो, लगभग स्थायी बन चुकी समस्याओं के निराकरण के लिए ठोस एवं दूरगामी योजना बने। प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारी-कर्मचारी एवं जनप्रतिनिधि ऐसा कर पाए तो यकीन मानिए शहर सुकून के साथ दीपोत्सव मना पाएगा।

राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 20 अक्टूबर 16 के अंक में प्रकाशित....

देशभक्त......2



आखिर देशभक्त है कौन? यह सवाल मौजूदा दौर में बहुत मौजूं हो गया हैं। सरकार की आलोचना करने वाले देश भक्त हैं या सरकार का समर्थन करने वाले। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर विश्वास करने वालों को देशभक्त कहें या सेना की कार्रवाई के सबूत मांगने वालों को। युद्ध के समर्थक देशभक्त हैं या युद्ध न चाहने वाले। पाकिस्तानी कलाकारों के पक्ष में आवाज उठाने वाले देशभक्त हैं या उनका विरोध करने वाले। सचमुच इतना घालमेल हो गया है कि तय करना ही मुश्किल हो रहा है कि आखिरकार देशभक्त है कौन? मजे की बात देखिए देशभक्तों की यह फौज यकायक खड़ी हो गई है। तरह तरह के इन देशभक्तों के पास अपने अपने तर्क एवं दलीलें हैं। इतना ही नहीं आपने अपने समर्थन में भी कहीं कुछ कह दिया तो आपकी खैर नहीं। आपसे सहमत नहीं होने वाले देशभक्त आप पर इस तरह से टूट पडेंगे कि पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। विशेषकर सोशल मीडिया पर इस तरह की बहस चरम पर है। युद्धोन्माद की तो बस पूछिए ही मत। ऐसे में मेरे को फिर वही देशभक्ति वाला जुमला याद आ रहा है। वाकई इस नई तरह की देशभक्ति ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सोच सोच कर दिमाग का दही हुआ जा रहा है। क्योंकि यह देशभक्ति हौसला बढ़ाने वाली नहीं बल्कि चिंता की वजह बन रही है। विडम्बना देखिए देश एक, संविधान एक, लेकिन देशभक्ति अलग-अलग। अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग की तरह...।

देशभक्त...!


आक्रोश की आग अब मंद पड़ कर बड़ी तेजी से एेसे अंगारों में तब्दील हो रही है, जो बुझ कर राख होने वाली है। गुस्सा भी गंभीरता छोड़कर हास-परिहास पर उतर आया है। दिलों में दबा दर्द जुबान तक आकर ही रह गया। सब्र भी शांत होकर अपनी सीमाएं तोडऩे का साहस नहीं दिखा पा रहा। सुलह, समझौता व संधि जैसे शब्द फिर से सुकून देने लगे हैं। इन सबके साथ केन्द्र की कमजोरी को कोसने वाले यकायक बढ़ गए हैं। जुमलों एवं चुटकलों का तो सैलाब सा आ गया है। हास्य व व्यंग्य से लबरेज एेसे एेसे चुटकुले ईजाद हो गए हैं, जो किसी को गुदगुदाते हैं तो किसी को अंदर ही अंदर बहुत चुभते हैं। सोशल मीडिया व टीवी पर दस दिन से घमासान मचा है। खबरें व चुटकुले भी दो तरह के हैं और इसी के हिसाब से दो खेमे भी बन गए हैं। संयोग से दोनों ही देशभक्त खेमे हैं। सरकार की आलोचना करने वाले देशभक्त और सरकार का समर्थन करने वाले देशभक्त। देश में फिलवक्त इन दोनों देशभक्तों के बीच ही घमासान मचा है। तर्क-कुतर्क व आरोप-प्रत्यारोपों की बहस के बीच दोनों एक दूसरे को सही एवं गलत ठहराने पर आमादा हैं। खून का बदला खून व आर पार की लड़ाई की बात अब ' मैं सही तू गलत' में बदल चुकी है। दुश्मन को नेस्तनाबूद करने के लिए रोज नए सुझाव बन और खारिज हो रहे हैं।
खैर, मुझे मौजूदा हालात में सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है यह जुमला बेहद मौजूं लगता हैं.....
'दो व्यक्ति बात कर रहे हैं....
एक : अगर पाकिस्तान नहीं होता तो भी हम देशभक्त होते क्या?
दूसरा : यार अगर हम सच में देशभक्त होते तो ये पाकिस्तान ही नहीं होता.....'
दो लाइन के इस जुमले में मेरे को तो काफी कुछ छिपा नजर आता है। आप क्या सोचते हैं?

चिंता किसी को नहीं

 टिप्पणी 

विडम्बना देखिए, श्रीगंगानगर में स्थायी अतिक्रमण हटाने के लिए अपनाए जा रहे तरीकों पर विरोध होता है। शहर बंद कर प्रदर्शन किया जाता है। प्रशासन एवं सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी होती है। सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष को भी यह कार्रवाई अखरती है। जनविरोधी लगती है। और तो और नगर परिषद में बात-बात पर बहस करने वाले पार्षद भी गाइड लाइन के मामले में एकजुट हो जाते हैं। सभी एक स्वर में कहते हैं, जहां-जहां अतिक्रमण हटाए गए हैं, वहां फुटपाथ बनना चाहिए। इसके लिए बाकायदा प्रस्ताव तक तैयार हो जाता है।
लेकिन अतिक्रमण हटाने को लेकर प्रतिक्रिया स्वरूप हुई उक्त तमाम तरह की गतिविधियां यहां पर आकर थम जाती है जबकि यह मामला भी अतिक्रमण से ही जुड़ा है। यह अस्थायी अतिक्रमण है। इसकी मार से भी समूचा शहर प्रभावित है। प्रदर्शन करने वाले, शहर बंद करवाने वाले, शासन-प्रशासन को कोसने वाले, गाइडलाइन के नाम पर एकजुटता दिखाने वाले यहां चुप हैं। शहर के प्रमुख मार्गों, बाजारों, पार्कों, बस स्टैंण्ड, शैक्षणिक संस्थानों व तमाम सरकारी कार्यालयों के आगे रोजाना अस्थायी अतिक्रमण पसर जाता है। यह अस्थायी अतिक्रमण होता है वाहनों को बीच रास्ते पर खड़ा करने से। इस वजह से कई जगह तो रास्ता तक अवरुद्ध हो जाता है। शहरवासी इस अस्थायी अतिक्रमण की मार से रोजाना दो चार होते हैं लेकिन इस समस्या का कभी ईमानदारी से समाधान नहीं खोजा गया। दिन प्रतिदिन शहर बढ़ रहा है। जनसंख्या बढ़ रही है। वाहनों की संख्या में भी जबरदस्त इजाफा हो रहा है। विशेषकर चौपहिया वाहनों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है। ट्रेक्टर ट्रालियां, ऑटो रिक्शा भी बड़े बेतरतीब तरीके से खड़े होते हैं। कई जगह अघोषित स्टैंंड तक बन गए हैं। विशेषकर प्रमुख चौराहों पर तो हर तरफ स्टैण्ड ही स्टैण्ड है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई एक जानकारी में यह सामने भी आ चुका है कि शहर में पार्किंग के लिए कोई बड़ी जगह है ही नहीं। नगर परिषद के अनुसार शहर में पब्लिक पार्क के आसपास एरिया, पुराना राजकीय चिकित्सालय परिसर तथा चौधरी बल्लूराम गोदारा कॉलेज के उत्तरी दीवार के साथ-साथ रवीन्द्र पथ रोड ही पार्र्किंग स्थल हैं। अब गौर करने की बात यह है क्या यह तीनों स्थान पार्र्किंग के लिए मुफीद हैं?
खैर, शहर में पार्र्किंग को लेकर किसी तरह के नीति नियम नजर नहीं आते हैं। इस तरह के हालात में सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आखिरकार इस समस्या का समाधान होगा कैसे और करेगा कौन ? लंबे समय से आंखों पर पट्टी बांधे बैठे जिम्मेदारों को इस दिशा में अब सोचना होगा अन्यथा फुटपाथ की कल्पना तो छोडि़ए पैदल चलने के लिए सड़क तक नहीं बचेगी। गाहे-बगाहे शहर हितैषी का दावा करने वाले तथा साम्प्रदायिक सद्भाव की सरिता बहाने वालों को भी कोई सकारात्मक पहल करने होगी अन्यथा वेद जोशी जैसे जागरूक लोगों के पास कारगर हथियार के रूप में न्यायालय का दरवाजा खटखटाना ही अंतिम विकल्प बचता है।


राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 27 सितम्बर 16 के अंक में प्रकाशित...

काश, इस तरह का जज्बा सब में होता


बस यूं ही
'जीना तो है उसी का जिसने यह राज जाना, है काम आदमी का औरों के काम आना।' जीवन दर्शन से जुड़े इस फलसफे के साथ विरले लोग ही जीते हैं। बिलकुल सादगी एवं नम्रता के साथ। यह लोग चाहे कितने ही ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाएं, यह अपनी जड़ों से जुड़ाव रखते हैं। इनको अपने पद का किंचित मात्र भी अभिमान नहीं होता। यह लोग अपनी संस्कृति को कभी नहीं भूलते। ऐसे लोगों के लिए रिश्ते निभाना बहुत मायने रखता है। रिश्ता चाहे खून का हो या फिर धर्म का। दोनों ही रिश्तों को यह लोग बड़ी शिद्दत के साथ निभाते हैं। रिश्तों को जीवटता के साथ निभाने वाले ऐसे ही शख्स हैं मेरे गांव के श्री विद्याधर झाझडिय़ा। स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एवं जयपुर में बतौर मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। फिलहाल झुंझुनूं में पदस्थापित हैं। सेवानिवृत्ति में बामुश्किल एक साल से भी कम का समय बचा है। मेरे से काफी बड़े हैं, लिहाजा मंैं हमेशा इनको भाईसाहब कहता हूं। गांव के होने के नाते वैसे तो बचपन से ही जानता हूं, लेकिन इसके बाद लगातार संपर्क में रहा। सीकर औद्योगिक एरिया वाले एसबीबीजे में मेरा खाता था। जब भी बैंक जाता वे देखकर बड़े खुश होते और बिना चाय के कभी आने नहीं देते। बाद में उनका तबादला झुंझुनूं जिले के केड में हो गया। संयोग से मेरा भी तबादला झुंझुनूं हो गया। भाईसाहब ने बैंक के एक कार्यक्रम में मेरे को बतौर अतिथि आमंत्रित किया। मैं उनके आग्रह को टाल नहीं सका। 
खैर, समय बीतता गया और भाईसाहब झुंझुनूं आ गए। उसी शाखा में मेरा खाता था। जब भी बैंक जाता भाईसाहब अपना सारा काम छोड़कर मेरा काम पहले करते। इतना ही नहीं मेरे कार्यालय का काम भी वो प्राथमिकता से हल करते। भाईसाहब की व्यवहार की कुशलता हर कोई कायल हो गया। बैंक के झुंझुनूं में हुए कार्यक्रम में भी उन्होंने एक बार फिर मेरे को बुलाया। इस बीच भाईसाहब का तबादला झुंझुनूं से संभवत: अजमेर हो गया और मैं छत्तीसगढ़ चला गया। इसके बावजूद हमारा संपर्क बना रहा। छुट्टियों के दौरान गांव में मुलाकात भी हो जाती। यह सिलसिला चलता रहा। तबादला होने के बाद भाईसाहब वापस झुंझुनूं लौट आए और मैं राजस्थान। 
अभी दो दिन पहले ही गांव गया था। कल रविवार शाम को चिड़ावा बस स्टैंड पर श्रीगंगानगर की बस के इंतजार में था। अचानक भाईसाहब दिखाए दिए। मेरे पास से गुजरे मैंने राम रमी को तो अचानक खुशी से उछल पड़े। 'अरे महेन्द्र जी आप यहां कैसे?' मैंने उनको वजह बताई। फिर बगल की सीट पर वो बैठ गए, हम घंटों बतियाते रहे। अचानक उन्होंने कहा आपकी बस कितने बजे की है। मैंने नौ बजे बताया। उस वक्त साढ़े सात बजे थे। इतना सुनते ही बोले घर चलते हैं, पास ही हैं। अभी तो डेढ़ घंटा बाकी है। दरअसल, भाईसाहब ने चिड़ावा की चौधरी कॉलोनी में मकान बना लिया। बाकी दो भाइयों ने भी चिड़ावा में मकान बना रखे हैं। हम दोनों चहलकदमी करते हुए घर पहुंचे। वहां ताईजी ( भाईसाहब की माताजी) मिली। मैंने चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। इस बीच चाय आ गई थी। भाईसाहब ने कई बार भोजन का आग्रह किया लेकिन मैं गांव से भोजन कर के गया था, लिहाजा उनको मना करता रहा। इसके बाद भाईसाहब ने कहा कि चलो बड़े भाईसाहब रामकरण जी के घर चलते हैं। वहां पर चुपचाप भोजन तैयार हो गया। मैंने कई बार मना किया लेकिन सभी ने मनुहार कर जबरन एक चपाती तो खिला ही दी। वहां से रास्ते में रामनिवास भाईसाहब से थोड़ी देरी की मुलाकात की। हम पौने नौ बजे के करीब स्टैंड पर लौट गए। नौ बजे बस आई लेकिन उसके परिचालक ने कहा कि यह नहीं दूसरी जाएगी। तो हम रुक गए। इसके बाद साढ़े नौ बजे दूसरी बस आई। तब तक भाईसाहब वहंी रुके रहे। मेरे पास भारी सामान था। भाईसाहब ने सामान बस में रखवाने में मेरी बहुत मदद। अकेला मैं करता तो बहुत मुश्किल से कर पाता। बस रवाना हुई। भाईसाहब से हाथ हिलाकर मैंने भी विदा ली। बस मैं बैठते ही मैंने मोबाइल निकाला व्हाट्स एप पर 'भाईसाहब बहुत बहुत धन्यवाद। आभारी हूं आपका' लिखा और सेंड कर दिया। सुबह भाईसाहब का जवाबी मैसेज आया, लिखा था 'भाईसाहब यह मेरे सौभाग्य की बात है।' मैं मैसेज पढ़कर मंद ही मंद मुस्कुरा दिया। 
मैं यह सब लिख रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने मेरी मदद की, बल्कि इसलिए कि आजकल ऐसा भाईचारा व इंसानियत खत्म सी हो गई है। यह वह दौर है जब सगा भाई अपने भाई को देखकर प्रसन्न नहींं होता, वहां विद्याधर झाझडिय़ा जैसे शख्स मानवता की लौ जगाए हुए हैं। बिलकुल जातिवाद व किसी तरह के स्वार्थ से बिलकुल दूर। एकदम निष्कपट, निर्मल एवं वास्तविक जीवन मूल्यों को समझने वाले। मैं कायल हूं भाईसाहब आपके इस प्रेम भरे व्यहार से। आप स्वस्थ रहें, दीर्घायु हों, ताकि और लोग भी आपसे प्रेरणा लें, आपका अनुसरण करें।

बहस जारी रहे



कश्मीर के उरी में आतंकी हमले के बाद समूचे देश में देशभक्ति की बयार बह रही है। विशेषकर सोशल मीडिया पर हर दूसरी पोस्ट इस हमले की प्रतिक्रिया से संबंधित है। कोई कविता के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा है तो कोई कुछ लिखकर। लब्बोलुआब यह है कि देशभक्ति से ओतप्रोत जोश व जज्बे की जो धारा देशभर में बह रही है, उससे यह जाहिर हो रहा है कि देश एकजुटता के सूत्र में बंध गया है जबकि हकीकत में ऐसा है नहीं। चौंकाने वाली बात यह है कि सब अपने को देशभक्त साबित करने पर तुले हैं और सबके कारण दीगर हैं। मतलब एकजुट होते हुए भी एकजुटता दिखाई नहीं देती। मुख्य रूप से देशभक्ति पांच भागों में बंटी नजर आती है। हमले से लेकर अब तक जो बयानबाजी हुई है, जो जुमले गढ़े गए हैं, इससे यह बात जाहिर भी होती है। मैंने कल सुबह से लेकर आज शाम तक मैंने महसूस किया तो इस मसले पर मुख्य रूप से पांच तरह की विचारधारा चल रही हैं।
 1. युद्ध के पक्षधर 
यह वर्ग आतंकी हमले के बदले युद्ध चाहता है। इस वर्ग की दलील है कि लगातार हमले हो रहे हैं लेकिन उनका कारगर जवाब न देने के कारण दुश्मन का दुस्साहस बढ़ रहा है। दुश्मन छदम युद्ध के जरिये जान माल को नुकसान पहुंचा रहा है और हम केवल बयान-बैठकें कर इतिश्री कर लेते हैं। दुश्मन की नापाक करतूत माफी के काबिल नहीं है। दुश्मन को उसके किए की सजा जरूर मिलनी चाहिए। ऐसे लोगों में अधिकतर संवदेनशील, भावुक एवं जज्बाती ज्यादा हैं, जो खून का बदला खून से लेने के हिमायती हैं। 
2. शांति के हिमायती 
लगातार आतंकी हमले के बावजूद एक वर्ग ऐसा भी है जो युद्ध नहीं चाहता। इस वर्ग का मानना है कि युद्ध से इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। युद्ध पहले भी हुए हैं लेकिन पड़ोसी अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। यह वर्ग मानता है कि समस्या का हल बातचीत एवं कूटनीतिक रणनीति से संभव है। इसके जरिये हम दुश्मन को अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से अलग-थलग करने में सफल होंगे। इस वर्ग में कई बुद्धजीवी एवं पत्रकार शामिल हैं, जो युद्ध को मानवता के लिए खतरा भी मानते हैं। 
3. मोदी समर्थक 
 इस वर्ग में विशुद्ध रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थक एवं उनकी पार्टी के लोग शामिल हैं। यह लोग युद्ध की आलोचना तो कर रहे हैं लेकिन लगे हाथ पुराने मसलों को समानांतर रखकर विरोधियों को पटखनी देने के प्रयास में जुटे हैं। विशेषकर अहिष्णुता मसले पर पुरस्कार त्यागने वाले, कश्मीर घाटी में आतंकी की मौत पर संवेदना जताने वाले, याकूब मेनन की सही ठहहराने वालों के प्रति यह वर्ग आक्रामक है और इस बहाने सवाल भी पूछ रहा है कि कल तक यह सब करने वाले अब कहां हैं और चुप क्यों हैं। 
4. मोदी विरोधी 
इस हमले के बाद एक वर्ग ऐसा भी है जो प्रधानमंत्री के चुनाव से पूर्व दिए गए बयानों को ही व्यंग्य व तंज के रूप में पेश कर रहा है। विशेषकर मोदी के 56 इंच के सीने को लेकर कई तरह के जुमले ईजाद हो गए। दरअसल यह वर्ग मोदी विरोधी पार्टियों का है। सीमा पर लगातार हो रहे हमलों व केन्द्र के लचीले रूख ने इस वर्ग को आक्रामक और मुखर बना दिया है। इस वर्ग के व्यंग्य व तंज सोशल मीडिया पर बडे ही दिलचस्प अंदाज में पोस्ट किए किए जा रहे हैं और उसी अंदाज में शेयर भी हो रहे हैं। 
5. केवल देशभक्ति 
दरअसल, यह वो वर्ग है जो देशभक्त होने का दावा करता है लेकिन उक्त चारों विचारधाराओं से खुद को अलग भी साबित करता है। यह वर्ग न तो मोदी का विरोधी है और ना ही पक्षधर। बड़ी बात यह है कि यह न तो युद्ध की बात करता है ना ही शांति की। यह किसी वर्ग से भी बंधना नहीं चाहता। यह चारों विचाराधाराओं का आलोचक भी है और खुद को देशभक्त भी बताता है। देखा जाए तो इस वर्ग के पास हमले के बाद क्या किया जाना चाहिए इसको लेकर कोई विकल्प नहीं है। यह केवल देश भक्ति की बात करता है। 
बहरहाल, सोशल मीडिया पर अब जिस तरह की पोस्ट आती है, उसको उसी विचारधारा का पोषक मान लिया जाता है। राजनीतिक दलों व उनके समर्थकों में इस तरह की बातें ज्यादा हैं। इस मुद्दें के लेकर बाकायदा गरमागरम बहसें हो रही हैं। सब अपनी-अपनी दलीलें दे रहे हैं। यहां तक कि तर्क-कुतर्क एवं तमाम तरह के उदाहरणों का सहारा लिया जा रहा है। इस तरह की देशभक्ति पहली बार देखने को मिल रही है। युद्ध समर्थकों व शांति के हिमायती वर्ग भी अपने-अपने हिसाब से तर्क दे रहे हैं। इसमें शांति समर्थक युद्ध के हालात, इसके बाद के हालात का चित्रण कर इसकी भयावहता से अवगत करा रहे हैं जबकि युद्ध समर्थकों की दलील है कि दुश्मन बात से न पहले समझा है और ना ही अब समझेगा। खैर, इस हमले के बाद क्या होगा। इस बात का फैसला तो दिल्ली को करना है लेकिन इस मसले से बैठे बिठाए लोगों को बहस के लिए मुद्दा जरूर मिल गया है। इसलिए बहस जारी रहे।

आर या पार का मौसम



दिलों में दुबका दर्द अब जुबान तक आ गया है। सब्र अपनी सीमा तोडऩे को आतुर है, तो गुस्सा अब प्रचंड दावानल की तरह धधकने लगा है। वार्ताएं, समझौते व बैठकों जैसे शब्द अब न तो सुकून देते हैं और न ही कोई उम्मीद की किरण दिखाते हैं। यह तमाम शब्द अब किसी नश्तर की तरह चुभने लगे हैं। किसी तरह की सुलह या शर्त भी अब मंजूर नहीं है। कुछ रटे रटाए बयान एवं जुमले सुनकर भी लोगों के कान पक चुके हैं। समूचा देश आक्रोश की आग में उबल रहा है। बस जेहन में एक ही सवाल, आखिर कब तक हमारे जवान इस तरह सरहद पर अपना खून बहाते रहेंगे। वह घड़ी आखिर कब आएगी जब सरहद पर दुश्मन की नापाक करतूतों एवं कायरानों हरकतों पर कारगर अंकुश लग पाएगा। यह सवाल हर आम भारतीय के जेहन में लंबे समय से खदबदाता रहा है और हर आतंकी हमले के बाद यह सवाल निर्णायक एवं कारगर जवाब मांगता रहा है। आज भी ऐसा ही है। कश्मीर के उरी आर्मी बेस पर आतंकी हमला हो गया। धोखे से किए फिदायीन हमले में हमारे 17 जवान शहीद हो गए। सेना पर अब तक का यह सबसे बड़ा आतंकी हमला बताया जा रहा है। 
दरअसल, हर आतंकी हमले के बाद देशवासियों का गुस्सा चरम होता है। इसके साथ ही सियासी नफे नुकसान के समीकरण भी शुरू हो जाते हैं। कोई केन्द्र की कमजोरी को कोसता है तो कोई विदेश नीति पर सवाल उठाता है। केन्द्र की भूमिका से कई बार ऐसा जाहिर भी होता रहा है कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी व लाचारी है जो दुश्मन के नापाक इरादे नेस्तनाबूद करने की राह में रुकावट बन रही है। बड़ा सवाल यह भी है कि आजादी के बाद से लेेकर अब तक कश्मीर में पड़ोसी लगातार छदम युद्ध लड़ रहा है और हम केवल सुरक्षात्मक रुख अपनाने की कीमत चुकाते रहे हैं। बड़े स्तर पर जान माल के नुकसान के बावजूद हमारे जवान कश्मीर की विपरीत परिस्थितियों में सिवाय चौकीदार की भूमिका निभाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाते। अपवाद स्वरूप कभी कोई परिस्थिति बनी भी तो कथित मानवतावादी संगठन एवं पड़ोसी धर्म निभाने वाले गाहे-बगाहे आलोचना करने से नहीं चूकते। दिल्ली के एक विवि में जब आतंकी के समर्थन में नारे लगते हैं तो पड़ोसी धर्म निभाने वालों को यह सब बुरा नहीं लगता। देश विरोधी नारों का समर्थन करने वाले यह लोग आज 17 जवानों की शहादत पर पता नहीं कहां दुबके हैं। ऐसे लोग देशभक्त कतई नहीं हो सकते हैं। यह लोग आस्तीन के सांप हैं। 
 खैर, देशहित में अब एकजुटता बेहद जरूरी है। सियासी नफे नुकसान की बजाय देश सर्वोपरि होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को एकजुटता के साथ दुश्मन की नापाक हरकत का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। हमारी एकता, अखंडता व सुरक्षा पर आंख उठाने वालों को इसका जवाब भी उसी अंदाज में देना बनता है। जनता भी अब इन हमलों के जवाब मांगने लगी हैं। उसका धैर्य जवाब देने लगा है। बात अब केवल आर या पार तक आ पहुंची हैं। देखा जाए तो यह गुस्सा जायज है और यह गुस्सा अब शांत होने की ठोस वजह भी चाहता है। यह दौर जवानों की शहादत पर मातम मानने, सहानुभूति या सांत्वना जताने का नहीं है बल्कि बदला लेने का है। बिलकुल खून का बदला खून वाले अंदाज में। जिम्मेदारों का सोचना चाहिए। कुत्ते की दुम जब लाख जतन के बावजूद सीधी नहीं होती है तो उसका काट देना ही सबसे कारगर उपाय है। वैसे भी लातों के भूत भला बातों से कभी मानें भी हैं क्या? इधर सोशल मीडिया में भी देशवासियों का जबरदस्त गुस्सा जाहिर हो रहा है। केन्द्र पर तरह तरह के तंज कसे जा रहे हैं। बानगी देखिए.......
'कायरता का तेल चढ़ा है
लाचारी की बाती पर
दुश्मन नंगा नाच रहे हैं
भारत मां की छाती पर
दिल्ली वाले इन हमलों पर
दो आंसू रो देते हैं
कुत्ते चार मारने में
हम सत्रह शेर खो देते हैं।'

जबान संभाल के


बस यूं ही

मुझे कोई सोलह सितम्बर 16 की सबसे सर्चित खबर मतलब न्यूज ऑफ द डे पूछे तो मैं तत्काल दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जुबान लंबी होने तथा उसकी सर्जरी करने संंबंधी समाचार को प्राथमिकता दूंगा। यकीनन आज इस खबर ने देश-विदेश में खासी धूूम मचाई है। विशेषकर सोशल मीडिया में तो इस खबर पर जोरदार चटखारे लिए जा रहे हैं। कहीं चुटकले गढ़े जा रहे हैं तो कहीं जुबान से बावस्ता नाना प्रकार के जुमले ईजाद हो गए हैं। जुबान पर गुदगुदाने तथा चुटीले अंदाज वाले कार्टून तक बन गए हैं। विशेषकर मोदी समर्थकों में यह खबर जबरदस्त तरीके से वायरल हुई है और शेयर की जा रही है। कुछ जुमलों की बानगी देखिए- 'उन डाक्टरों को नोबल पुरस्कार मिलना चाहिए, जिन्होंने पता लगाया कि केजरीवाल की जुबान लंबी है।' 'कहावतों में दम है, जुबान लंबी हो जाए तो खींचनी पड़ती है।' लंबी जुबान और लंबा धागा अक्सर उलझ जाते हैं।' 'रिकवरी में समय लगेगा क्योंकि शुगर पेशेंट तथा मोदी मोदी करने के कारण मोदी नाम याद आते ही जीभ तलवे पे चिपक जाती है।' ' दो औरतें एक साथ चुपचाप बैठ सकती हैं लेकिन सरजी का चुप रहना नामुमकिन है।' 'चिकित्सकों को भी जनता के माध्यम से ही पता चला है कि भारत की इस महान विभूति की जीभ लंबी है।' 'सर्व विदित तथ्य उजागर हुआ है।' 'किसी ने सच ही कहा है कि जिसकी शर्ट शरीर से लंबी हो, जीभ मुंह से बड़ी हो, बातें से काम से बड़ी हो, और सोच औकात से बड़ी हो उस आदमी की हर तरह की सर्जरी करना जरूरी हो जाता है। शुरुआत हो चुकी है।'
 यह तो हुई जुमलों की बात। वैसे भी देश में इन दिनों जुमलों की ही बहार है। कभी कभी तो लगता है यह देश व सरकार जुमलों के सहारे ही चल रहे हैं। खैर, बात जुबान या जबान की करें तो हिन्दी व्याकरण में इससे संबंधित मुहावरे एवं लोकोक्तियों की फेहरस्ति बेहद लंबी है। मसलन, जबान देना। जबान चलना। जबान चलाना। जबान खोलना। जबान से फिरना। जबान बदलना। जबानी जमाखर्च। जबानी याद। जबान का कच्चा। जबान का पक्का। जबान का धनी।जबान लड़ाना। जबान खींचना। जबान बंद रखना। जबान पर लगाम न होना। जबान तेज चलना। जबान तालु के चिपकना आदि आदि। जबान से जुडे यह तमाम शब्द, मुहावरे आज सुपरहिट हैं और प्रासंगिक भी। आज हर कोई जबान की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करने में जुटा है। जिस तरह का उत्साह व्याख्या करने वालों का है उससे लगता यह जोश कुछ दिन इसी तरह बदस्तूर चलने वाला है।
 बहरहाल, सियासत में जबान फिसलने के उदाहरण भी कई हैं। कई मौके आए हैं जब अच्छे अच्छों की जुबान फिसली है। यह जबान ही है जो रिश्ते तोड़ देती है, लड़ाइयां तक करवा देती हैं। इतिहास गवाह है इसलिए जबान को बस में रखना भी बेहद जरूरी है। इसलिए अपुन तो दायरे में रहते हुए और जुबान को संभालकर रखते हैं। बिलकुल देव नागरानी की गजल की इन चंद पंक्तियों की तरह-
फिर जबां खोलिए साहब, पहले लफ्जों को तोलिए साहब।
अब न ख्याबों में डोलिए साहब, जागिए, खूब सो लिए साहब।

क्या यह भेदभाव नहीं?


पीड़ा 
रियो ओलंपिक में देश को रजत व कांस्य पदक दिलाने वाली पीवी सिंधू व साक्षी मलिक के नाम तो सभी को याद ही होंगे। पदक जीतने वाली इन दोनों खिलाडिय़ों के अलावा जिमनास्ट दीपा कर्माकर का नाम भी जेहन में होगा ही। जब इतना याद है तो यह भी स्मरण जरूर होगा कि रियो ओलंपिक गए दल में किसी भी पुरुष खिलाड़ी ने कोई पदक नहीं जीता। था। सभी जिस उत्साह से गए थे, उतने ही निराश मन से मुंह लटकाए वापस आ गए। स्वर्ण पदक की आस तो हर तरफ से अधूरी ही रह गई। खैर, रियो ओलपिंक जुड़ी यह तो मुख्य बातें थी। इसके अलावा भी बहुत कुछ हुआ था। जरा याद कीजिए, सोशल मीडिया से लेकर मीडिया व इलेक्ट्रोनिक मीडिया में किस तरह का माहौल तैयार किया गया। पदक की आस में खिलाडिय़ों को बांस पर इस कदर चढ़ा दिया गया था कि बेचारे उम्मीदों के बोझ से ही दब गए। कहने का मतलब यह है कि भारतीय खिलाडिय़ों के प्रदर्शन से पहले और प्रदर्शन के बाद जिस तरह चर्चा रही है वह अपने आप में अनूठी थी। पदक विजेताओं का देश में लौटने के बाद जिस गर्मजोशी से स्वागत हुआ वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। देश का मान बढ़ाने वाले खिलाडिय़ों का सम्मान इसी अंदाज में होना भी चाहिए। स्वागत के साथ-साथ पदक विजेता बेटियों के लिए इनामों की तो एक तरह से झडी ही लग गई थी। हर तरफ इनाम ही इनाम और कई तरह की घोषणाएं। इतनी घोषणाएं हुई कि सब को याद रखना हर किसी के बस की बात भी नहीं है। फिर भी कुछ मोटी घोषणाओं की बात करें तो रजत पदक जीतने वाली पीवी सिंधू के लिए आंध्र प्रदेश सरकार ने तीन करोड़ रुपए नकद के साथ मकान बनाने के लिए एक हजार स्क्वायर यार्ड जमीन तथा नंबर वन क्लास अफसर की नौकरी की घोषणा की। तेलंगाना सरकार ने भी सिंधू को एक करोड़ रुपए देने की घोषणा की। बैंडमिंटन एसोसिएशन ने पचास लाख रुपए देने की घोषणा की। ऑल इंडिया फुटबाल फैडरेशन ने पांच लाख की देने की बात कही। मध्य प्रदेश सरकार ने भी सिंधू को पचास लाख रुपए देने की घोषणा की। इसके अलावा देश भर की कई कम्पनियों, ज्वैलरी शोरूम व बिजनैस मैन आदि ने भी गिफ्ट व कैश की घोषणा की। क्रिकेट स्टार सचिन तेन्डुलकर ने बीएमडब्ल्यू कार दी। यह फेहरिस्त और भी लंबी है। 
इसी तरह कांस्य पदक जीतने वाली साक्षी मलिक को हरियाणा सरकार ने ढाई करोड़ एवं नौकरी देने का ऐलान किया। रेलवे ने साठ लाख रुपए देने की घोषणा की। इसके अलावा साक्षी को भी सचिन से बीएमडब्ल्यू मिली तथा कई तरह के गिफ्ट भी बतौर उपहार मिले। खैर, विजेता खिलाडिय़ों पर इनामोंं की यह बारिश इसलिए थी कि इन्होंने देश का मान बढ़ाया बल्कि इसलिए भी थी कि देश के बाकी खिलाड़ी भी इनसे प्रेरणा लें और भविष्य में इन जैसा चमकदार प्रदर्शन करें। खिलाडिय़ों का मनोबल बढ़ाने तथा उनमें जोश भरने के लिए इस तरह के इनाम जरूरी भी हैं। हो सकता है खिलाडिय़ों के सम्मान में संबंधित सरकारों के निहितार्थ छिपे हों लेकिन सभी ने मुक्त हस्त से खिलाडियों पर धनवर्षा की। देश के गौरव को चार चांद लगाने वाली इन खिलाडिया़ें पर इस तरह ही धन वर्षा किसी को अखरी भी नहीं। 
रियो ओलंपिक के पीछे-पीछे ही रियो पैरालंपिक आया। मतलब दिव्यांग खिलाडिय़ों का महाकुंभ। विडम्बना देखिए मीडिया में यह यह महाकुंभ उतना हाइलाइट नहीं हो पाया जितना पहले वाला था। अपवाद स्वरूप कुछ मीडिया घराने जरूर रहे जिन्होंने इस महाकुंभ को भी मान-सम्मान दिया बाकी तो यह आयोजन चुपचाप ही चल रहा था। और इस चुपके चुपके में ही देश के हिस्से में दो स्वर्ण सहित कुल पांच पदक आ गए। शुरुआत हाई जंप में मरियप्पन ने की। वो ही मरियप्प्पन जिसकी मां सब्जी बेचती बताई। खैर, मरियप्पन की इस स्वर्णिम खुशी को दोगुना किया शेखावाटी के लाडले देवेन्द्र झाझडिय़ा ने। देवेन्द्र ने न केवल स्वर्ण जीता बल्कि नया विश्व रिकॉर्ड भी बनाया। साथ ही भाला फेंकने में दो बार स्वर्ण जीतने वाले देश के पहले खिलाड़ी होने का गौरव भी हासिल किया। देवेन्द्र की स्वर्णिम खबर के साथ एक छोटी सी खबर यह भी कि राज्य सरकार ने उनकी इस उपलब्धि पर 75 लाख रुपए नकद देने की घोषणा की तथा सरकारी नौकरी देने पर विचार चल रहा है। इसके अलावा 25 बीघा नहरी मुरब्बा तथा जयपुर में भूखंड देने की खबरें भी सोशल मीडिया में वायरल हुई। इसके अलावा किसी तरह की कोई घोषणा देखने/सुनने को नहीं मिली। यह बेहद चौंकाने वाली बात थी। जिस देश में कुछ दिनों पूर्व इनामों की बारिश हो रही थी, वहां अब सूखा था। एकमात्र घोषणा 75 लाख एवं नौकरी के विचार पर आकर सिमट गई। 
अक्सर कहा जाता है कि इनाम का तो धन्यवाद ही बड़ा होता है लेकिन देवेन्द्र के मामले में इस बात के मायने बदल जाते हैं। देश-प्रदेश में देवेन्द्र के स्वर्णिम पदक की चमक को रजत एवं कांस्य से भी कमतर आंका गया। अफसोसजनक यह भी है कि यहां न तो कोई कंपनी आगे आई और न ही कोई बिजनैसमैन। ज्वेलरी शॉरूम वाले भी पता नहीं कहां दुबक गए। एक दिव्यांग खिलाड़ी, जिसने अपनी शारीरिक कमजोरी पर पार पाते हुए देश का नाम रोशन किया, उसके प्रति ऐसा करना भेदभाव नहीं तो क्या है? इस देश में दो हाथों वाले जिस काम करने को तरसते हैं उसे एक हाथ के देवेन्द्र ने बखूबी कर दिखाया। उसके हौसले, जज्बे व मेहनत को सलाम। बस जिम्मेदारों, जनप्रतिनिधियों से यही शिकायत व पीड़ा है कि वे इस तरह से पेश ना आए, वरना कल कौन देवेन्द्र आगे आएगा। निसंदेह इस तरह की घोषणाएं मनोबल बढ़ाने की नहीं वरन तोडऩे वाली होती है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि देवेन्द्र जैसे जीवट, जुझारू खिलाड़ी के लिए सरकार का इस तरह का रूखा रवैया कोई बाधा नहीं बनेगा। देवेन्द्र ने अपनी शारीरिक कमजोरी पर विजय पाई है तो जरूर उसमें वह जज्बा भी है जो उसे विजेताओं की श्रेणी में खड़ा करता है। एक खिलाड़ी की पहचान भी तो यही होती है। सलाम देवेन्द्र को। लख-लख बधाई भी ।

कभी-कभी दिन ऐसा भी होता है....


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कई बार चुपचाप ही 
गुजर जाता है दिन।
ना उम्मीद ना खुशी
ना गम ना हंसी
बस बीत जाता
है दिन।
सूखा सा लूखा सा
खुरदरा रूखा सा
फट से निकल जाता
है दिन।
अनमना सा अटपटा सा
अजनबी लुटा पिटा सा
हो जाता
है दिन।
न सूझता है ना दिखता है
बस मायूस मन कूढता है
ऐसा क्यों हो जाता
है दिन।
फिर दबे पांव
दस्तक दे जाती
काली स्याह रात
देखो बिना
हलचल ही
गुजर जाता
है दिन

मुक्तक -2

1
 रिश्ते निभाने की आदत मैं खास रखता हूं।
अजनबी शहर में अपनों की तलाश करता हूं,
यायावरों सा जीवन है, फिर भी चलते जाना,
शहर दर शहर जिंदा मैं यही आस रखता हूं।
2
परायों को अपना बनाने की फितरत है मेरी,
अजनबियों में पहचान बनाना आदत है मेरी।
पूछती होगी पैसे वालों को दुनिया दोस्तो,
फकत दोस्तों की दुआएं ही दौलत है मेरी।
3.
नाना रूप हैं उस छलिये के, भांति-भांति के नाम,
कोई कहे गोपाल उसे तो, कोई पुकारे घनश्याम।
कहीं परम सखा हैं वो, तो कहीं पर माखनचोर,
उस चितचोर की मधुर छवि, हरती कष्ट तमाम।
4.
देश की सियासत चलती है इनके काम पर बाबा
सरकारें बनती-बिगड़ती है इनके नाम पर बाबा,
बाबाओं की माया देश में, बाबाओं के हैं चर्चे,
सच बोलकर अपने सिर इल्जाम लगाऊं ना बाबा।

हंसने की वजह


बस यूं ही

मेरा मानना है कि प्रकृति की बनाई हर चीज अनुपम व बेजोड़ है। उसका किसी से कोई मुकाबला नहीं हो सकता। हंसना भी प्रकृति प्रदत है लेकिन कब हंसना है, क्यों हंसना है, किस पर हंसना है, यह कभी कभार हालात पर भी निर्भर करता है। वैसे तो हंसने की वजह कई हैं लेकिन आदमी की शारीरिक संरचना, कद, रंग, शक्ल आदि भी हंसने के बड़े कारण बन जाते हैं। मैंने देखा है कि अक्सर छोटे कद के, काले रंग के, ज्यादा मोटे या बिलकुल दुबले-पतले शख्स अक्सर हंसी के पात्र ज्यादा बनते हैं। यह बात दीगर है कि कुछ लोग हंसने को दिल पर लगा लेते हैं तो कुछ हंसी का जवाब हंसी में ही देते हैं। वास्तव में हंसी को हंसी में टालने वाले जिंदादिल होते हैं। एेसे शख्स निसंदेह सकारात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। कोई मजाक में कहे या व्यंग्य में लेकिन यह लोग बुरा नहीं मानते। हो सकता है मन में कुछ जरूर सोचें लेकिन सार्वजनिक रूप से उनका जवाब हमेशा हंसी वाला ही होता है। एेसे ही एक मित्र हैं। उम्र ज्यादा नहीं है लेकिन मोटापा हावी हो चला है। अक्सर मिलने पर वो यहीं पूछते हैं कि आप क्या करते हैं? आप की शारीरिक बनावट बिलकुल फिट लगती है। और मैं उनकी बातें सुनकर बस मुस्कुरा भर देता हूं। अभी कुछ दिन पहले उन्होंने फेसबुक पर साइकिल चलाने की फोटो पोस्ट की। मजाक करने की आदत अनुसार मैंने कमेंट्स किया लेकिन उन्होंने बिलकुल संयमित जवाब दिया। आज फिर उन्होंने बहुत सारी फोटो पोस्ट की तो मैंने फिर उसी अंदाज में कमेंट किया। अब देखिए उन्होंने पोस्ट पर जवाब देने की बजाय व्हाट्सएप पर मैसेज भेजा। चूंकि वो मेरे जवाब का काउंटर था। उनके मैसेज की एक-एक लाइन पढ़कर मैं खुद को हंसने से रोक नहीं पाया। उनका जवाब तो देखिए.....!
पतले लोग मोटे लोगो पर तंज तो यूँ कसते है मानो धरती की आधी समस्यायों के लिए हम ही जिम्मेदार है। भाई मेरे, तुमने पतले होकर क्या तीर मार लिया...कौन सा ओबामा तुम्हारे साथ बैठ कर तीन पत्ती खेलता है। आप ही बताइये किस क्षेत्र में मोटे लोग नहीं है... क्या हनी सिंह, नुसरत फ़तेह अली खान से अच्छा गायक है ??? क्या शिखर धवन , ङेविङ बून से अच्छा बल्लेबाज़ है??? क्या अनिल अम्बानी, मुकेश अम्बानी से ज्यादा अमीर है??? , क्या मिथुन दा, गणेश आचार्य से अच्छे डांसर है...बोलिये...??? क्या ओम पुरी , अमजद खान से अच्छे एक्टर है...बोलिये...???
अपने मोटापे पर शर्म नहीं, गर्व कीजिये...हमारे कारण ही बाबा रामदेव ने नाम कमाया है..., लोग मोटे ना होते तो वो योग किसे सिखाते...राजपाल यादव को??? हम जैसे मोटे लोगों के कारण ही कितने डॉक्टर व जिम वालों की रोज़ी रोटी चल रही है। माना हम तेज़ दौड़ नहीं सकते पर तेज़ दौड़ के हमें कौन सा काला धन लाना है। मोटापा आपको अच्छी व गहरी नींद देता है... बढ़ता मोटापा आपको हर महीने नए कपडे खरीदने का मौक़ा देता हैं। अत: मोटापा श्राप नहीं वरदान है, तोंद शर्म नहीं, ईश्वर का प्रसाद है। शर्माइये मत... गर्व से कहिये हम मोटे हैं।
वाकई इस तरह के जवाब बताते हैं कि आदमी कितना खुशमिजाज और जिंदादिल है। इसलिए प्रकृति ने आपको जैसा भी बनाया है, उसके प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए। और हां कोई मजाक करे तो जवाब भी उसी अंदाज में हो तो कितना अच्छा होगा। इस तरह के जवाब वाकई रिश्तों को और अधिक प्रगाढ़ बनाते हैं। आखिर हंसना ही तो जीवन है।

काश! यह घुड़की सच हो जाए

 टिप्पणी

'लापरवाही बर्दाश्त नहीं होगी।' यह घुड़की सरकारी बैठकों में अक्सर सुनाई दे जाती है। विशेषकर अधिकारी अपने मातहत कर्मचारियों को इस तरह की घुड़की देते रहते हैं। यह घुड़की कितना असर करती है तथा कौन इसे कितनी गंभीरता से लेता है, यह जगजाहिर है। हां, इतना अवश्य है कि तात्कालिक रूप से यह घुड़की वाहवाही दिलाने और सुर्खियों में बने रहने का सबब जरूर बन जाती है। कुछ इसी तरह की घुड़की कल प्रभारी मंत्री व प्रभारी सचिव जिले के अधिकारियों-कर्मचारियों दे गए। बदहाल शहर और मौजूदा सरकार का आधा कार्यकाल बीतने के बाद इस तरह की घुड़की से सवाल जरूर खड़े होते हैं। मसलन, ऐसी नौबत आई ही क्यों? और इस लापरवाही का जिम्मेदार कौन? वैसे भी सवाल कई हैं जो जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा करते हैं। ढाई साल में जो उल्लेखनीय काम नहीं कर पाए वो महज 15 दिन में शहर को चकाकक कर देंगे, असंभव तो नहीं है लेकिन मुश्किल जरूर लगता है। ऐसी बातें न केवल हकीकत से दूर नजर आती हैं बल्कि हास्यास्पद भी लगती हैं। बात अगर निर्धारित समय की जाए तो यहां ऐसा काम है ही कौनसा जो तय समय सीमा में पूरा होता है। तसल्लीबख्श होता है और गुणवत्ता से परिपूर्ण होता है।
आमजन की फिक्र है ही किसे? तभी तो श्रीगंगानगर के लोग भगवान भरोसे ही हैं। अफसर और जनप्रतिनिधि सब अपने-अपने जुगाड़ में लगे हैं। अफसर तो अतिक्रमण मामले में अपना पीछा छुड़ाने के तरीके खोजने में व्यस्त हैं तो जनप्रतिनिधि कुर्सी-कुर्सी के खेल में लगे हैं। कोई कुर्सी बचाने में जुटा है तो कोई कुर्सी खींचने में। तभी तो यहां के लोकसेवकों एवं जनप्रतिनिधियों का सर्व सुखाय की बजाय स्वांत सुखाय की अवधारणा पर ज्यादा जोर नजर आता है।
दरअसल, इन घुड़कियों का इतिहास व हश्र ही ऐसा होता रहा है कि इन पर सहसा विश्वास भी नहीं होता। ताजा घुड़की की बानगी देखिए। अब एपीओ नहीं सीधा निलंबन होगा। कोई बताए तो सही कि अब तक कितनों का हो चुका? शहर के विकास की रूपरेखा तय करने वाली नगर परिषद के आयुक्त का पद तो मजाक बना कर रख दिया है। सौ दिन में पांच आयुक्त बदल चुके हैं। यह बदलाव क्यों? और इससे शहर को क्या हासिल हुआ ?
खैर, टूटी सड़कें जल्द ठीक हों। सड़क निर्माण के बाद जो जगह बची है, वहां मिट्टी डालकर इंटरलोकिंग की जाए। सॉलिड वेस्ट प्लांट का काम निर्धारित समय में पूर्ण हो। तीनों एसटीपी बनकर तैयार हो जाएं। शहर धूलरहित हो। फुटपाथ, नालियों एवं सड़कों का निर्माण हो। शहर साफ सुथरा एवं पॉलिथीन मुक्त हो। ग्रीन गंगानगर का नारा सही अर्थों में सच साबित हो। ऐसा होना भी चाहिए। यह सब शहरवासियों का सपना
भी है। मौजूदा कार्यप्रणाली व तौर तरीकों को देखते हुए इस तरह के काम निर्धारित समय सीमा में हो जाना, यह एक तरह के सपने के सच होने जैसा ही है। उम्मीद तो यही की जा सकती है कि इस बार यह सपना सच हो। अगर यह सपना निर्धारित समय में पूरा हुआ तो किसी यकीन मानिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। बिलकुल जागती आंखों से सपने देखने जैसा। ऐसे में यही कहा जा सकता है, काश! यह घुड़की सच हो जाए।


राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 21 अगस्त 16 के अंक में प्रकाशित....

औपचारिकता किसलिए?

 टिप्पणी

आजादी का जश्न क्या औपचारिक रूप से मनाना चाहिए? जश्र से जुड़े कार्यक्रमों को क्या बीच में छोड़कर चले जाना चाहिए? इस तरह के गरिमामयी कार्यक्रम में क्या गंभीरता को नजर अंदाज कर देना चाहिए? क्या इसमें सुरक्षा की अनदेखी करना उचित है? क्या जश्ने आजादी के समारोह स्थल की सफाई की जरूरत नहीं? यकीनन इन पांचों सवाल का जवाब एक ही मतलब नहीं ही होगा। लेकिन श्रीगंगानगर के संदर्भ में देखा जाए तो इन पांचों सवालों का जवाब चौंकाता है, शर्मसार करता है, सोचने पर मजबूर करता है। महाराजा गंगासिंह स्टेडियम में आयोजित जिला स्तरीय स्वाधीनता समारोह में अधिकतर जनप्रतिनिधियों और पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों की भूमिका से तो यही जाहिर होता नजर आया।
निमंत्रण पत्र वितरण से लेकर कार्यक्रम के समापन तक औपचारिकता ही ज्यादा नजर आई। कार्यक्रम में आधे-अधूरे मन से आए जिले के अधिकतर जनप्रतिनिधि तो इतनी जल्दी में थे कि एक-एक कर लगभग सभी बीच में ही चले गए। उनके इस तरह आने-जाने से तो यही प्रतीत हुआ जैसे कि वे मुंह दिखाने या अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने ही आए थे। देश की आन, बान एवं शान से जुड़े पर्व के लिए जो जनप्रतिनिधि दो ढाई घंटे का समय नहीं निकाल सकते, उनके बारे में सोचा जा सकता है कि वह अपने क्षेत्र या देश के लिए किस तरह का एवं क्या काम करेंगे? अब जिन्होंने कार्यक्रम को पूरा समय दिया, उनकी बानगी देख लीजिए। बच्चों की देशभक्ति से ओतप्रोत प्रस्तुतियों पर उनका हौसला बढ़ाने के बजाय जिले के कई जिम्मेदार अधिकारी मोबाइल में खोए नजर आए। राष्ट्रीय पर्व से जरूरी उनके लिए मोबाइल हो गया था। जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मोबाइल प्रेम दर्शाया क्या वे अधिकारी अपने कार्यालयों में मोबाइल का मोह त्यागते होंगे? इसे आसानी से समझा जा सकता है। सुरक्षा के प्रति गंभीरता तो कहीं नजर ही नहीं आई। सीमावर्ती एवं संवदेनशील जिला होने के बावजूद समारोह में आने-जाने पर किसी तरह की कोई जांच या रोकटोक नहीं थी। लापरवाही इस कदर कि मैदान की न तो सफाई हुई और न ही वहां पर खड़ी दूब व घास तक की कटाई की गई। सिर्फ ट्रैक पर सफेद चूने से निशान बनाकर इतिश्री कर ली गई। इधर, सम्मानित होने वाले भी जनप्रतिनिधियों के नक्शे कदम पर चलते नजर आए। सम्मान पाने वालों में से अधिकतर प्रशस्ति पत्र पाकर चलते बने।
उन्हें देख एेसा लगा जैसे राष्ट्रीय पर्व से बड़ा उनके लिए सम्मान था और इसके लिए ही वे वहां आए थे। खैर, राष्ट्रीय पर्वों में इस तरह का परिदृश्य और रस्म अदायगी निसंदेह चिंताजनक है। इस तरह की औपचारिकताएं मनोबल तोड़ती हैं। हौसले पस्त करती हैं। राष्ट्रीय पर्वों के प्रति हमारा जुड़ाव होना चाहिए। इनको जोश और जज्बे के साथ मनाना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो फिर इस तरह की औपचारिकता भी किसलिए?
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 17 अगस्त के अंक में प्रकाशित....

सम्मान


मेरी 21वीं कहानी

तमाम प्रयासों के बावजूद शहर की सफाई व्यवस्था पटरी पर नहीं लौट रही थी। आए दिन समाचार पत्र शहर की बदहाली को बयां करते लेकिन सुधार होता दिखाई नहीं दे रहा था। आखिरकार अधिकारियों ने एक तरीका खोजा। सप्ताह में एक दिन जनप्रतिनिधियों व शहरवासियों को श्रमदान करने को कहा गया। लेकिन यह तरीका भी कारगर नहीं रहा। जिम्मेदार औपचारिकता निभा कर चलते बने। एक दिन आई तेज बारिश ने तो कोढ में खाज का काम किया। नालों की गंदगी सड़कों पर आ गई थी। तमाम तरह के उपाय फिर काम नहीं आए। अब तो जहां विरोध होता वहीं सफाई के काम को प्राथमिकता दी जाने लगी। जहां कोई नहीं बोलता वहां हाल बुरा था। इसी बीच स्वाधीनता दिवस आ गया। जिम्मेदार तैयारियों में व्यस्त हो गए। सफाई का काम उसी ढर्रे पर चलता रहा। अधिकारियों के बंगले व निवास जरूर चकाचक हो गए। स्वाधीनता दिवस के दिन तो शहर के अधिकतर हिस्से सफाई से वंचित रहे। यहां तक की समारोह स्थल पर खडी घास भी जिम्मेदारों की कार्यकुशलता की चुगली कर रही थी। जिला स्तरीय समारोह में उदघोषक ने सम्मानित होने वालों के नाम पुकारे। उनमें दो तीन नाम जब सफाई निरीक्षकों के आए तो मैं सन्न रह गया। सोच के भंवर में इतना डूबा कि बस इतना ही कह पाया, वाह रे सम्मान।

क्रिकेट : रहा भी ना जाए, सहा भी ना जाए


पता है कि मैं अब नियमित बिलकुल भी नहीं खेलता हूं। यह भी मालूम है कि कभी खेल लिया तो फिर चार पांच दिन तक शरीर का प्रत्येक हिस्सा दर्द करेगा। यह भी जानता हूं कि इस असहनीय दर्द को काबू में करने के लिए फिर दर्द निवारक टेबलेट की जरूरत पडेगी। इन सब से वाकिफ होने के बावजूद कभी कभार खुद को रोक नहीं पाता हूं। आज भी ऐसा ही हुआ। ऑफिस की इन हाउस क्रिकेट प्रतियोगिता थी। मैं लोभ संवरण नहीं कर पाया। सलामी बल्लेबाज के रूप में सात चौकों की मदद से 42 रन बनाए। सातवें ओवर में जब आउट हुआ तब टीम का स्कोर 75 रन पहुंच चुका था। आखिरकार हमारी टीम ने निर्धारित बारह ओवर में 107 रन बनाए। प्रतिस्पर्धी टीम ने भी बेहतर खेल दिखाया लेकिन पूरी टीम 84 रनों पर आलआउट हो गई। क्षेत्ररक्षण अपनी परंपरागत जगह (विकेट कीपिंग) करते हुए दो कैच लपके तो एक खिलाडी को स्टपिंग भी किया। मैच जब कांटे का बनता नजर आया तब गेंदबाज की भूमिका भी निभानी पडी। तीन ओवर की गेंदबाजी में मात्र आठ रन देकर दो विकेट हासिल किए। एक खिलाडी का कैच तो पोलोथ्रू में लपका। विकेटों का आंकडा और भी बेहतर होता अगर क्षेत्ररक्षकों ने तीन कैच ना टपकाए होते। खैर, जीत तो जीत होती और हमारी टीम ने जीत हासिल की। लंबे समय से नियमित क्रिकेट से दूर होने व तेज धूप के कारण खेलने में दिक्कत तो हुई लेकिन सब सहन कर लिया।

पानी की कहानी

 टिप्पणी.....

पानी पी-पीकर कोसना जैसे चर्चित मुहावरे के मायने श्रीगंगानगर में आकर बदल जाते हैं। यहां पानी पीकर नहीं बल्कि देखकर ही यह काम बखूबी कर लिया जाता है। बारिश का मौसम आते-आते यहां लोगों की सांसें अटकना शुरू हो जाती हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि यहां के जिम्मेदारों का पानी उतर चुका है। वे इतने चिकने घड़े हो चुके हैं कि कोई कुछ भी कहे। मुंह पर या पीठ पर लेकिन वो कभी पानी-पानी नहीं होते। यहां तक कि चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसे मुहावरे भी इनके लिए बेमानी हैं। जिम्मेदारों के इस तरह के रवैये के चलते यहां कभी-कभार पानी में आग तो लगती है लेकिन यह कभी मुकाम तक नहीं पहुंचती। अक्सर सियासत का दखल उम्मीदों पर पानी फेर देता है।
दरअसल, श्रीगंगानगर में पानी का खेल पुराना है। बात अगर बरसाती पानी की ही करें तो श्रीगंगानगर के हालात इतने भयावह हैं कि देखकर डर लगता है। लोगों का घर से निकलना मुहाल है। बरसात यहां सुकून नहीं देती बल्कि छीन लेती है। इस सीजन की दो बार की बारिश ने शहर का जो हाल किया है, वो किसी से छुपा नहीं है। सड़कों पर उफान मारता पानी का सैलाब पता नहीं कब क्या अनिष्ट कर दे। अनहोनी की आशंका में लोग सहमे हुए हैं। इस तरह की अग्निपरीक्षा शहरवासी हर साल देते हैं। उनके जेहन में रह-रहकर यही सवाल कौंधते हैं कि क्या यह पानी का खेल हर साल इसी तरह चलता रहेगा? क्या इस समस्या का कभी कोई समाधान भी होगा? या इसी तरह पानी से डरते और नुकसान झेलते रहेंगे?
खैर, पानी से निबटने के जो तात्कालिक प्रयास किए जाते हैं वो कारगर नजर नहीं आते। टैंकरों से कभी बरसात के पानी से नहीं निबटा जा सकता। सीवरेज एवं नालों का मिश्रित पानी पार्कों में डालने से वहां की आबोहवा दूषित हो रही है।
दरअसल, यहां के जिम्मेदारों को इस तरह के उपायों में हर साल खर्च होने वाले मोटे बजट तथा पेचवर्क की नौटंकी ही ज्यादा मुफीद लगती है। उनकी अतिरिक्त कमाई और कमीशन का रास्ता भी इन्हीं उपायों से होकर गुजरता है। खैर, शहर जिस अनुपात में बढ़ रहा है, उसको देखते हुए अब ठोस और दीर्घकालीन कार्ययोजना की दरकार है ताकि नासूर बन चुकी इस समस्या का इलाज हो। देर बहुत हो चुकी है, अब शहरवासियों को पानी में एेसा उबाल लाना चाहिए कि जिम्मेदार शहर हित में सोचने को मजबूर हो जाएं।

राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 9 अगस्त 16 के अंक में प्रकाशित....