Wednesday, December 28, 2016

'कड़वा घूंट ' मेरी


घर का मामला
हाथी के दांत खाने व दिखाने के लिए अलग-अलग होते हैं। यह कहावत तो सब ने सुनी ही होगी। हाल में यह चरितार्थ भी हो गई। बात यह थी कि शहर में डीजे देर रात तक ना बजे इसके लिए पुलिस कप्तान ने निर्देश जारी किए हैं। इसी आदेश ने खाकी को धर्मसंकट में डाल दिया। पिछले दिनों एक थानाधिकारी के नजदीकी रिश्तेदार की शादी में डीजे रात दस बजे के बाद तक बजता रहा। खास बात यह रही कि उस वक्त मौके पर विभाग के कई आलाधिकारी भी मौजूद थे। एक खबरनवीस ने मौके की नजाकत को ताड़ते हुए थानाधिकारी के कान में धीरे से फुसफुसा ही दिया और घड़ी की तरफ ध्यान दिलाया कि ग्यारह बज चुके हैं। खबरनवीस की बात से थानाधिकारी के चेहरे की रंगत कुछ क्षण के लिए जरूर बदली लेकिन मामला घर का ही था, लिहाजा डीजे देर रात तक बजता रहा।
पद का मोह
राजनीति में पद का मोह भला किसे नहीं होता। बहुत कम होंगे जो बिना पद के काम करते हैं, बाकी तो पद पाने को लालायित ही रहते हैं। यहां तक कि इसको पाने के लिए कई तरह की जुगाड़ लगाने में भी गुरेज नहीं करते। ऐसे में पद से लगाव लाजिमी है। विशेषकर जो पूर्व में किसी पद पर रह चुके होते हैं उनसे यह मोह जल्दी से छूटता भी नहीं है। सतारूढ़ दल के ही एक पूर्व अध्यक्ष के साथ भी ऐसा ही संयोग जुड़ा हुआ है। इन महाशय ने अपने कार्यकाल के दौरान संभवत: थोक में लैटर पैड छपवा लिए। कार्यकाल छोटा रहा, इस कारण बच गए। खैर, वक्त बीता, कार्यकारिणी भी नई बन गई लेकिन अध्यक्ष महोदय लैटर पैड़ पुराने ही उपयोग कर रहे हैं। रेल बजट पर इन महाशय ने अपनी प्रतिक्रिया भी अखबार के द तरों में पुराने लैटर पैड़ पर ही भिजवाई लेकिन सावधानी से अपने पद के आगे बालपैन से पूर्व जरूर लिख दिया।
गले की हड्डी
कई बार नई सुविधा इसलिए गले की हड्डी बन जाती है क्योंकि उसमें सब कुछ नए सिरे से करना पड़ता है और बात जब मशीन की आती है तो सिरदर्दी बढऩी ही थी। मामला रसद विभाग का है और पॉस मशीनों के वितरण से जुडा है। इन मशीनों का वितरण तो कर दिया गया है लेकिन उनका उपयोग करने में विभाग एवं डीलर दोनों ही हाथ खींच रहे हैं। बताया जा रहा है कि मशीन के उपयोग के बाद वह सब नहीं होगा जो अब तक होता आया है। अब चर्चा जोरों पर है कि जब मशीन लगानी ही है तो फिर इनका वितरण क्यों किया गया। खैर, देरी का माजरा अब धीरे धीरे सब के समझ में आ रहा है। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि कृत्रिम देरी इसलिए पैदा की जा रही है ताकि परपंरागत तरीके का जितना हो सके फायदा लिया जा सके। कुछ भी हो लेकिन देरी अब सवाल खड़े कर रही है।
निर्देशों की हकीकतस रकारी निर्देशों में कितनी गंभीरता बरती जाती है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। विशेष कर साप्ताहिक बैठकों में जारी होने वाले निर्देश तो अक्सर कागजों में ही दफन हो जाते हैं। पिछले दिनों जिला प्रशासन की बैठक में ट्रेफिक लाइट को सुधारने के निर्देश जारी किए गए थे। बाकायदा इस काम के लिए दस दिन की समय सीमा भी दी गई थी। खैर, हालात यथावत हैं। जाहिर सी बात है कि निर्देशों की पालना नहीं हुई। खराब रोड लाइट अब भी मुंह चिढ़ा रही हैं। इधर लोग दबे स्वर में चर्चा कर रहे हैं कि जब मातहत अधिकारी ही अपने आला अधिकारियों को नहीं गांठ नहीं रहे तो फिर आमजन की तो बिसात ही क्या है। जागरूक लोग निर्देशों की खबरों की फोटो खींच कर मोबाइल से जिला प्रशासन के पास भेज रहे हैं लेकिन उधर से भी कोई हरकत दिखाई नहीं दे रही है। वैसे चर्चाओ में दम नजर आता है।
बातूनी
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 28 फरवरी 16 के अंक में प्रकाशित साप्ताहिक कॉलम।

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