Tuesday, December 31, 2013

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-7

चार किलोमीटर चलने के बाद ऑटो वाले ने हमको मंदिर से करीब आधा किलोमीटर दूर उतार दिया। यहां से आगे भीड़ ज्यादा रहती है, इस कारण चौपहिया वाहनों का प्रवेश बंद है, हालांकि मंदिर के आगे से रास्ता है, जिस पर दुपहिया वाहन निकलते रहते हैं। ऑटो से उतरने के बाद हम दस कदम ही चले होंगे कि सफेद धोती बनने एक युवा पण्डा साथ-साथ चलने लगा। हम चुपचाप मंदिर की और बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों तरफ दुकानें सजी थी। अधिकतर पर तो शंख, पूजा सामग्री, फोटोज आदि ही रखे थे। महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की दुकानों की भी भरमार थी। चूंकि हमारी पहली प्राथमिकता मंदिर में जाकर दर्शन करना था, लिहाजा हम दुकानों पर बस सरसरी नजर भर मारते हुए ही चल रहे थे। रोशनी की चकाचौन्ध में ऐसा महसूस हो रहा था मानो दिन ही हो। पान की जुगाली करते-करते अचानक खामोशी तोड़ते हुए पण्डे ने पूछा.. पूजा करोगे..। पांच सौ रुपए में सभी पूजा करवा दूंगा। हम उसकी बात को अनसुना करते हुए बढ़े जा रहे थे। वह पांच सौ से पचास रुपए तक आ गया लेकिन हम चुप ही रहे। वह फिर भी पूछने से बाज नहीं आ रहा था।
आखिरकार कहना ही पड़ा कि हमको पूजा वूजा नहीं केवल दर्शन करने हैं और वो हम अकेले ही कर लेंगे। चलते-चलते हम मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंच चुके थे। मंदिर के आजू-बाजू में कई दुकानें खुली हैं, जूते व अन्य सामान रखने के लिए। पॉलिथीन की थैली में जूते डाल कर दुकान वाले को जमा करवाए। यह थैली दुकान वाला ही देता है। बदले में उसने एक टोकन थमा दिया। दुकान पर लिखी हिन्दी पढ़कर मैं मुस्कुराए बिना नहीं रह सका..। उस पर लिखा था 'जोता ष्टाण्ड'। वैसे पुरी में मैंने एक दो जगह और लिखा देखा तो यकीन हुआ कि यहां 'स' को 'ष' लिखा जाता है। रेलवे स्टेशन को भी ष्टेशन लिखा था।
खैर, जूते को जमा कराने के काम से फारिग होने के बाद प्रवेश द्वार की तरफ बढ़े। मुख्य दरवाजे के बार्इं और चार नल हैं, जो निरंतर बहते रहते हैं। श्रद्धालु यहां हाथ मुंह धोते हैं। कुछ कुल्ला वगैरह करने से भी नहीं चूकते। हाथ धोने एवं कुल्ले करने का यही पानी बगल में बहता है। श्रद्धालु इसी पानी से होकर ही मंदिर की तरफ बढ़ते हैं। इस बहाने पैर भी धुल जाते हैं। श्रद्धा और आस्था का सवाल है, वरना हाथों के धोने और कुल्ले के पानी में पैर कौन देना चाहेगा। प्रवेश द्वार पर सुरक्षाकर्मियों का मजमा सा लगा था। प्रवेश द्वार के ऊपर सूचना पट्ट टंगा है। जिस पर तीन भाषाओं में निर्देश लिखे हुए हैं। उडिय़ा, हिन्दी और अंग्रेजी में। सूचना पट्ट पर निर्देशों के साथ मोटे अक्षरों में लिखा है 'हिन्दु श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश कर सकते हें।' यह पढ़ते ही मुझे रेल में मिले प्रगतिशील किसानों की बातें फिर याद आ गई। उन्होंने कहा था कि मंदिर में विदेशी लोग नहीं जा सकते हैं। किसानों ने बताया था कि एक बार तो इंदिरा गांधी को भी मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया था। मुझे यहां भी हिन्दी की अहिन्दी होते देख तरस आया.. हिन्दू को हिन्दु व हैं को हें जो लिखा था..। .......................जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-6

 
वैसे पुरी का बीच साफ सुथरा है। दूर तलक देखने पर पानी नीले की बजाय हरे रंग का आभास देता है। लहरें उठती है तो पानी एकदम दूधिया नजर आता है, एकदम सफेद। अद्भुत नजारा होता है। जी करता है कि बस देखते ही रहो.. अपलक, बिना थके, बिना रुके, लेकिन इस बीच बच्चे कपड़े बदल कर आ चुके थे। इसके बाद हम सब टीले पर बनी एक चाय की दुकान पर जाकर बैठ गए..। चाय की चुस्कियों के साथ बंगाल की खाड़ी और उसमें उठने वाली लहरों को निहारने का आनंद ही कुछ और है। हां, एक बात और सागर में न केवल लहरों की आवाज का शोर है, बल्कि मछुआरों की नाव भी खूब आवाज करती हैं। बहुत पहले भोपाल के ताल में नौका विहार किया था, तब ऐसी नाव नहीं देखी थी। मतलब जनरेटर से चलने वाली। उस वक्त तो लगभग नावें चप्पू से ही चलती थी, लेकिन आजकल नाव के एक तरफ जनरेटर लगा दिया जाता है। उसके पीछे एक अगजेस्ट फेन लगाया जाता है, जो पानी के अंदर डूबा रहता है। पंखें के तेजी से घूमने से नाव अपने आप ही चलती है। वैसे यह एक तरह का जुगाड़ है। नाव जैसे ही किनारे पर आती है, जरनेटर के पंखें को घुमाकर अंदर कर लिया जाता है,क्योंकि उसके रेत में लगकर टूटने या खराब होने का भय रहता है। इस बीच चाय खत्म हो चुकी थी। लेकिन दोनों पैर गड्ढ़ा बनाने में लगे थे। ऊपर से सूखी दिखाई देने वाली मिट्टी हटाने के बाद नीचे गीली मिट्टी दिखाई देने लगी। एक जुनून सा सवार था कि जल्दी से पानी निकले। इस बीच एक सीप के घर्षण के पैर के अंगुली पर खरोंच भी आई लेकिन उसको नजरअंदाज करते हुए लगा रहा, इसी उम्मीद के साथ शायद पानी आ जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बच्चे एवं धर्मपत्नी जिद करने लगे थे, शाम को मंदिर जाना था। आखिरकार उनके आग्रह को स्वीकार कर गड्ढे से पानी निकालने के प्रयास पर विराम लगा दिया। शरीर पर चिपकी मिट्टी जैसे-जैसे सूख रही थी, वैसे-वैसे अपने आप झाड़ भी रही थी। होटल लौटने तक हल्का सा अंधेरा हो चुका था। होटल आने के बाद धर्मपत्नी बाथरूप में घुस गई थी लेकिन मैं यह सोच कर और यह देखने के लिए नहीं नहाया कि सागर के पानी से त्वचा फटती है या नहीं? मेरा सोचना सही साबित हुआ। ना तो किसी तरह की खुजली हुई और ना ही त्वचा फटी। खैर, देर शाम होटल से बाहर खड़े ऑटो वाले मंदिर तक जाने के लिए मोलभाव तय करने में जुट गया। होटल से मंदिर की यही कोई चार या पांच किलोमीटर की दूरी थी, ऑटोवाले ने 70 रुपए सिर्फ ले जाने के मांगे। राजू नाम था ऑटो वाले का। कह रहा था, साहब आते वक्त भी मैं भी आपको ले आऊंगा। आप दर्शन करने के बाद फोन कर देना। देखने में बिलकुल सीधा एवं भोला सा था राजू। उसकी सूरत भी कुछ ऐसी थी कि ना चाहते हुए भी उस पर यकीन करना पड़ा। इतना ही नहीं राजू से अगले दिन के बुकिंग भी फाइनल कर दी। यह शायद उसके व्यवहार का ही नतीजा था। खैर, हम सब ऑटो में बैठकर जगन्नाथ मंदिर के दर्शन के लिए रवाना हुए। ..... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-5

 
वैसे लहरों के बीच नहाना किसी खतरे से खाली नहीं है। समुद्र से लहर जैसे ही किनारे से टकराकर वापस लौटती है तो पैरों के नीचे से मिट्टी निकल जाती है और संतुलन बिगड़ जाता है। लहर आते वक्त भी एक धक्का सा लगता है लेकिन वापसी ज्यादा खतरनाक होती है। पैरों के नीचे से मिट्टी खिसकने से मुझे गांव के पास बहने वाली काटली नदी की याद आ गई। काटली अब तो इतिहास बन गई है। मुद्दत हो गई उसे आए हुए और शायद अब आएगी भी नहीं। काटली नदी में भी पानी के बहाव के कारण पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक जाती थी और संतुलन बिगड़ जाता था। इसके बाद आदमी ठीक से खड़ा नहीं रह पाता और गिर जाता। यकायक गिरने से खुद से नियंत्रण हट जाता और आदमी नदी में बहने लगता। बंगाल की खाड़ी का नजारा भी कुछ इसी तरह का था। बड़ा मुश्किल होता है तेज लहरों के बीच संतुलन साधना। बताया गया कि बंगाल की खाड़ी की लहरें ज्यादा तेज होती हैं और काफी ऊंचाई तक उठती हैं। बच्चों को गोद में लेकर करीब बीस फीट अंदर तक गया। इसके बाद धर्मपत्नी को भी लेकर गया। बच्चे तो बीच के किनारे पर नाम लिखने और मस्ती करने में ज्यादा रुचि दिखा रहे थे। वैसे इस नहाने के दौरान अगर आपने जेब वाली टी-शर्ट या निकर पहन रखा है तो उसका वजन दुगुना या तिगुना होना तय है। ऐसा भीगने से नहीं बल्कि समुद्र की मिट्टी उसमें भरने से होता है। इस मिट्टी की खासियत यह है कि यह गीली रहने तक ही चिपकी रहती है। सूखने के बाद झड़ जाती है। मिट्टी में शंख एवं सीप आदि भी बहकर खूब आते हैं। बच्चे और बड़े बीच के किनारे पर मिट्टी के घरोन्दे बनाने में जुटे थे। बड़ी संख्या में लोग यहां पर घरोन्दे बनाते हैं। इसके अलावा गड्ढ़ा भी खोदते हैं। थोड़ा सा गड्ढा खोदते ही अंदर पानी आ जाता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि पुरी का मौसम इन दिनों सम सा है। ज्यादा सर्दी नहीं है। सुबह-सुबह जरूर हल्की सी सर्दी महसूस होती है। कमरे के अंदर तो चद्दर तक ओढऩे की जरूरत नहीं पड़ती। सर्दी ना होने के कारण समुद्र में नहाने का आनंद दुगुना हो जाता है। सूर्यास्त होने को था लेकिन बच्चे नहाने और खेलने में इतने मगन थे कि बाहर निकलने का नाम तक नहीं ले रहे थे। कई बार आवाज लगाई लेकिन वे बाहर नहीं निकले। वैसे भी समुन्द्र की लहरों की आवाज भी बड़ी तेज होती है। लहरों के साथ ऊपर उठा पानी जब नीचे गिरता तो बड़ी तेज आवाज आती है। मानो कोई सांप गुस्से में फुंकार रहा हो। आखिरकार, बच्चों को हाथ पकड़ कर बाहर लाया। इसके बाद धर्मपत्नी उनको पास ही के एक हैडपम्प पर लेकर गई और उनको नहलाकर कपड़े बदले। बताया गया कि समुन्द्र के पानी में नहाने से त्वचा के फटने और खुजली होने की आशंका रहती है। कपड़ों के बारे में यही कहा जाता है कि समुन्द्र के पानी में भीगने के बाद उनको सामान्य पानी से जल्दी से निकाल लेना चाहिए, अन्यथा उनके कटने का अंदेशा रहता है।...............जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-4
 
नहाऊं या नहीं मैं इसी ऊहापोह में ही था कि धर्मपत्नी खुद को रोक नहीं पाई और चुपके से बच्चों के साथ जाकर नहाने लगी। मैंने कैमरा थामा और लगा फोटो खींचने। वैसे बीच पर बड़ी संख्या में फोटोग्राफर भी थे, जो आपको आकर्षक फोटो दिखाकर वैसी ही फोटो खींच देने का भरोसा दिलाते हैं। मेरे पास भी कई बार फोटोग्राफर आए लेकिन मैंने उनकी बात पर गौर नहीं किया। उन्होंने कोशिश भी बहुत की। कहने लगे, अरे सर, हमको लेने दीजिए ना.. देखिएगा कैसा मस्त एंगल आता है। आप हमारे जैसी फोटो नहीं खींच पाओगे। मैंने उनको साफ-साफ कह दिया कि जैसे भी आए मैं ही खींच लूंगा। वैसे बीच पर दो तरह के फोटोग्राफर मौजूद रहते हैं। एक वे जो खुद के कैमरे से फोटो खींच कर उसको डवलप करवा कर आपको देते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो केवल एंगल व लोकेशन के नाम पर बेवकूफ बनाते हैं। उन फोटोग्राफर के पास खुद कैमरा तो होता ही है लेकिन सस्ते के चक्कर में उन्होंने एक रास्ता निकाल रखा है, वे आपके कैमरे से ही आपकी फोटो खींच देंगे, लेकिन एक क्लिक करने के नाम पर ही पांच रुपए ले लेते हैं। बीच पर ऊंट वालों का धंधा भी जबरदस्त चलता है। सजे-धजे ऊंटो पर पर्यटकों को बैठाकर बीच के चक्कर लगवाए जाते हैं। ऊंट पर बैठाने और नीचे उतारने का तरीका परम्परागत नहीं है, क्योंकि उसमें समय लगता है। इस कारण ऊंट वाले एक सीढ़ी अपने साथ रखते हैं। उसी के माध्यम से पर्यटकों की ऊंट की पीठ पर बैठाया जाता है और नीचे उतारा जाता है। एक दो बार ऊंट वाला मेरे पास भी आया लेकिन मैंने उसको मना कर दिया। अकेला करता भी क्या..। ऊंट पर बैठकर.। बच्चे एवं धर्मपत्नी तो नहाने में और मस्ती करने में ही तल्लीन थे। बंगाल की खाड़ी की किनारे पर मछुआरों की सैकड़ों की संख्या में नाव खड़ी थी। लगभग इतनी ही नाव समुन्द्र के अंदर थी। पुरी में मछलियां पकडऩे का काम बड़े पैमाने पर होता है। टीले पर लगी चाय की दुकानों पर भी काफी भीड़ रहती है। विदेशी पर्यटक तो धूप में लेटे हुए थे। वहीं कुछ छतरी के नीचे कुर्सी लगाकर नजारा देख रहे थे। बीच-बीच में जाकर डूबकी लगा आते और फिर बैठ जाते। समुद्र की किनारे ही मोतियों एवं सीप की मालाएं बेचने वाले भी बड़ी संख्या में घूमते हैं। मोती-मूंगा आदि की अंगुठिया भी दिखाते हैं। मेरे पास भी कई आए लेकिन मैं माला, बाली, अंगूठी आदि पहनता ही नहीं हूं। शादी में ससुर जी ने जो सोने की अंगूठी और चेन दी थी तो वो भी धर्मपत्नी को दे चुका, शौक ही नहीं हैं। खैर, बीच का नजारा आपको बोर नहीं करता है। एक बार आप वहां गए तो फिर हटने को मन ही नहीं करता। ऐसा लगता है कि बस यहीं के होकर रह जाएं लेकिन वक्त ऐसा करने की इजाजत नहीं देता। खैर, सूर्यास्त होने को था। मैं भी ज्यादा देर तक खुद को रोक नहीं पाया और बच्चों के साथ नहाने लगा। खूब देर तक नहाते रहे। डूबकी लगाते वक्त पानी कई बार मुंह में गया। इतना कड़ा और खारा पानी है कि मुंह का जायका तक बिगाड़ देता है।..... जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-3

 
वह ऑटो वाला वहीं खड़ा रहा। जैसे ही हम लोग होटल के कमरे की तरफ बढ़े तो रिशेप्सन काउंटर पर बैठे युवक एवं ऑटो वाले के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया। यकीनन ऑटो वाला अपना कमीशन मांग रहा होगा। खैर, स्टेशन से होटल तक आने की कहानी साधारण सी है लेकिन यह सब बताने का मकसद इतना है कि पुरी में अगर होटल लेना है तो फिर मंदिर के आसपास ही ठीक रहता है। समुन्द्र किनारे जितने भी होटल हैं लगभग महंगे हैं। दूसरी बात ऑटो वालों से मोलभाव किया जाए और एक के भरोसे ना होकर दो तीन से पूछताछ की जाए तो संभव है जेब कम ढीली होगी। करीब 19 घंटे का ट्रेन का सफर और फिर एक-डेढ़ घंटे ऑटो में घूमने के बाद शरीर थकान से दोहरा हो रहा रहा था। सफर में वैसे भी नींद कम आती है, लिहाजा सोने की इच्छा हो रही थी। नहाने एवं शेव करने के बाद फटाफट खाना खाया और बेड पर पसर गया। बच्चे समुन्द्र जाने के लिए बेहद लालायित थे, इस कारण शोरगुल ज्यादा था। ऐसे में गहरी नींद तो नहीं आई लेकिन एक हल्की सी झपकी जरूर लग गई जो कि तरोताजा करने के लिए पर्याप्त थी। सामान्य दिनों में भी इसी प्रकार की झपकी ले ही लेता हूं। पांच-दस मिनट के लिए। व्यस्तता के बीच इतना ही तो वक्त मिल पाता है।
झपकी जैसे ही टूटी बच्चे एवं धर्मपत्नी भी तैयार हो चुके थे। बीच जाने के लिए बच्चे बेहद उत्साहित थे। खुशी से चहक रहे थे। होटल से बीच की दूरी से मुश्किल से चंद कदमों पर ही थी। होटल से बाहर निकलने की देर थी, बच्चे हाथ छुड़ा कर दौड़ पड़े। बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर पुरी में हजारों की संख्या में होटल बने हुए हैं। कुछ पर्यटक तो होटल के कमरों से ही बंगाल की खाड़ी का नजारा देखते हैं तो कुछ छत पर चढ़कर। वैसे समुन्द्र के बीच पर जाकर लहरों के बीच नहाने का आनंद तो सभी लेते ही हैं। बीच तक पहुंचने से पहले रेगिस्तान जैसी बालुई मिट्टी का टीला बना था। हालांकि इस मिट्टी के कण थोड़े मोटे होते हैं। बजरी की तरह। सूखी मिट्टी में पैर धंस रहे थे। ऐसे में चलने में अतिरक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ रही थी। टीले पर जैसे ही चढ़े सामने का विहंगम नजारा देख आंखें फटी की फटी रह गई। टीले ऊंचाई पर एक अलग ही दुनिया बसी थी और ढलान पर तो जैसे मेला लगा था। बच्चों से लेकर बड़ों तक सब एक ही रंग में रंगे थे। या यूं कहूं कि बड़े भी बच्चे बनकर लहरों के बीच अठखेलियां करने में मस्त थे। शर्म शंका से बिलकुल दूर.. जिसको जैसे अच्छा लग रहा था वह अपने अंदाज में वैसे ही नहा रहा था। बच्चे तो कपड़े उतारकर पानी में छलांग लगा चुके थे। इधर, मैं और धर्मपत्नी किनारे पर खड़े बच्चों की मस्ती को देखकर ही खुश हो रहे थे। वैसे जोहड़, नदी में बचपन में खूब नहाया हूं लेकिन बंगाल की खाड़ी को देखकर मन में हल्का सा डर लग रहा था। करीब दस-दस फीट तक ऊंची उठती लहरें मन में रोमांच भर रही थी लेकिन मैं पानी में घुसने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। ........ जारी है।

जग के नहीं, 'पैसों' के नाथ


पुरी से लौटकर-2

 
वैसे पुरी में आने वालों को ललचाने एवं प्रलोभन देने वालों में टूर एंड टे्रवल्स वाले भी कम नहीं हैं। पुरी रेलवे स्टेशन ऐसा है, जहां रेलवे लाइन का आखिरी छोर है। जितनी भी ट्रेन यहां आती हैं, वे यहीं से दुबारा चलती है। यूं समझिए कि पुरी एक ऐसा स्टेशन है, जहां रेल लाइन का द एंड हो जाता है। खैर, स्टेशन पर जैसे ही कोई गाड़ी पहुंचती है, वहां कुलियों के अलावा और बहुत सारे लोग, यात्रियों पर एक तरह से टूट पड़ते हैं। रुट चार्ट लिखा एक पर्चा पुरी पहुंचने वालों को थमा दिया जाता है। तरह-तरह की छूट का प्रलोभन देकर यात्रियों/ पर्यटकों को ललचाने की कवायद शुरू हो जाती है। हमारी पास भी एक युवा आया और तत्काल ऑटो में बैठने का आग्रह करने लगा। बोला, श्रीमान जी, ऑटो आपके लिए निशुल्क है। इसका कोई चार्ज नहीं लगेगा। आप ऑटो में बैठिए। हमने उससे कहा कि आपने अपने नम्बर दे दिए हैं, हम शाम को आपको फोन पर अपना रुट प्लान बता देंगे, अब आप जाओ। लेकिन वह युवक मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। करीब एक घंटे तक वह आग्रह करता रहा। आखिरकार हम उसके कहेनुसार ऑटो में बैठ गए। युवक ऑटो को सीधे ट्रेवल्स एजेंसी ले गया और बोला आप अपनी यात्रा का टिकट बुक करा लीजिए..। हमारा बॉस बहुत ही अच्छा आदमी है। आप एक बार उससे मिल लीजिए। हमने कहा कि पहले हमको होटल छोड़ दो, हम शाम को फोन करके आपको जो भी प्लान अच्छा लगेगा, बता देंगे। लेकिन वह युवक बार-बार एक ही रट लगाए हुए था। हमने ऑटो वाले से कहा कि.. यह फ्री-व्री का चक्कर छोड़ और हमको जगन्नाथ मंदिर एवं समुन्द्र के मध्य में कोई रियायती दर वाले होटल में छोड़ दे, लेकिन वह जबरन गलियों में इधर-उधर घूमाता रहा। कहने लगा कि यहां के पुलिस वाले सख्त हैं; कार्रवाई कर सकते हैं, इसलिए वह मुख्य रास्ते से न जाकर दूसरे रास्ते से होटल जा रहा है। उसने हमको तीन-चार होटल दिखाए, लेकिन कोई लोकेशन के हिसाब से नहीं जमा तो कोई व्यवस्था के हिसाब से। यहां बताता चलूं कि पुरी में ऑटो और होटल वालों के बीच भी कमीशन का खेल चलता है। कई होटल वालों ने तो अपने यहां ऑटो वालों को स्थायी रूप से रखा हुआ है, जो स्टेशन से सीधे उनको होटल तक ले आते हैं। होटल से अनुबंध रखने वाले ऑटो का किराया भी अलग है। सामान्य ऑटो से करीब 30 से 50 रुपए ज्यादा। हमारे ऑटो वाला भी लगभग उन्ही होटल में लेकर गया, जहां उसकी जान-पहचान थी। आखिरकार करीब एक घंटे पुरी की गलियों में इधर-उधर घूमाने के बाद वह एक होटल में लेकर गया। किराया 12 सौ रुपए प्रतिदिन। सामान्य कमरा..। डबल बैड। ऑटो वाले से किराया पूछा तो बोला, दो सौ रुपए दे दीजिए। बाद में उसको 150 रुपए दिए लेकिन... जारी है।

जग के नहीं 'पैसों' के नाथ

पुरी से लौटकर-1

नवम्बर माह में पुरी धाम की यात्रा का कार्यक्रम तय करने से लेकर 23 दिसम्बर को पुरी धाम रवाना होने और वहां पहुंचने तक बस इतनी ही जानकारी थी कि पुरी में जगन्नाथ जी का प्राचीन, ऐतिहासिक व भव्य मंदिर है और वह देश के चार धामों में से एक है। इसके अलावा वहां बंगाल की खाड़ी के किनारे बीच का विहंगम नजारा है, जहां पर्यटक मौज मस्ती एवं सैर सपाट के लिए आते हैं। वैसे भी रेल मार्ग से भिलाई से पुरी की दूरी करीब आठ सौ किलोमीटर है। पुरी रवाना होने से पहले वहां जा चुके कुछ साथियों ने अपने अनुभव के साथ-साथ वहां के प्रमुख स्थलों के बारे में बताया, लेकिन वहां की सबसे अहम बात बताना भूल गए। यह तो भला हो उन चार प्रगतिशील किसानों को जो पुरी जाते समय संयोग से मेरे ही डिब्बे में आकर बैठ गए थे। किसी प्रशिक्षण के चलते ये किसान कटक जा रहे थे। उनसे बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर देर तक चलता रहा। पुरी के बारे में कई बातें विस्तार से बताई, जो बाद में वाकई मददगार साबित हुई। मंदिर में दर्शन कैसे करने हैं? कहां ठहरना हैं? समुद्र कैसे जाना है? किस से बात करनी है और किससे नहीं. आदि-आदि..। खैर, प्रगतिशील किसानों का फीडबैक बहुत काम आया लेकिन किसी ने कहा है ना कि अक्ल बादाम खाने से नहीं भचीड़ (धक्के) खाने से आती है। अब तो मैं भी पुरी के बारे में काफी कुछ जान गया। होटल किराया, ऑटो किराया, भोजनालय, मंदिर दर्शन, रुट चार्ट आदि..। दो दिन के सफर और दो दिन वहां रुकने के बाद शुक्रवार दोपहर को मैं भिलाई लौट आया लेकिन पुरी की सूरत एवं सीरत से जुड़े कई संस्मरण ऐसे हैं, जो न केवल मेरे लिए बल्कि पुरी जाने वाले प्रत्येक पर्यटक/ यात्री के लिए न केवल रोचक बल्कि सच्चाई से पर्दा हटाकर वास्तविकता से रूबरू करवाने और आंख खोलने में बेहद कारगार साबित होंगे। वैसे तो संस्मरण का शीर्षक पढ़कर चौंकना लाजिमी है लेकिन यकीन मानिए पुरी से लौटने वाले कमोबेश हर पर्यटक/ यात्री के जेहन में यह बात जरूर रहती है कि पुरी के जगन्नाथ, जग के नाथ ना होकर पैसों के नाथ हैं। नगद नारायण भी कहें तो भी चलेगा। यहां पर भगवान और भक्त के बीच में पुजारी मतलब पण्डा नामक एक ऐसा शख्स है जो कथित रूप से सेतु का काम करता है लेकिन कदम-कदम पर इसकी कीमत वसूलता है। धर्म के नाम पर, अनहोनी के नाम पर.. कुछ अनिष्ट का भय दिखाकर..। और भी कई तरह की औपचारिकताएं...साथ में यह चेतावनी भी कि अगर ऐसा नहीं किया तो यात्रा का प्रयोजन सफल नहीं होगा..। और धर्मभीरु लोग.. चुपचाप किसी अनुशासित बच्चे की तरह पण्डों की हां में हां मिलाते हुए अपनी जेबें ढीली करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।.... जारी है।

Monday, December 16, 2013

सादगी और रणनीतिक कौशल के धनी ओला


स्मृति शेष

 
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झुंझुनू रेलवे स्टेशन पर ब्रॉडगेज रेलवे लाइन के कार्य की धीमी गति पर नाराजगी जताते हुए जब केन्द्रीय श्रम मंत्री शीशराम ओला ने कार्य में तेजी लाने के निर्देश दिए थे तो राजनीति हलकों में यह कयास लगाए जाने लगे थे कि ओला फिर से चुनाव लडेंग़े। ऐसा मानने एवं सोचने वाले गलत भी नहीं थे, क्योंकि ओला ने नब्बे के दशक से अब तक लोकसभा के लिए कुल पांच चुनाव लड़े और जीते भी..। हर बार इसी अपील पर कि 'यह उनका आखिरी चुनाव है।' तभी तो चुनाव के दौरान ओला के संसदीय क्षेत्र झुंझुनू में यह जुमला जन-जन की जुबान पर रहता कि 'ओला जी को जिंदा रखना है तो चुनाव जीताओ..।' खैर, उनकी यह मार्मिक अपील हमेशा ही इतनी कारगर रही कि विपक्ष को कोई तोड़ ही नहीं मिला। ओला इस बार भी जीते लेकिन मंत्री नहीं बने तब भी यह जुमला खूब जोर-शोर से उछला था। आखिरकार उनको लालबत्ती फिर नसीब हुई और वे मंत्री बनने में कामयाब रहे लेकिन इस बार की जीत और मंत्री पद ओला की उम्र बढ़ाने में सहायक साबित नहीं हुए। उम्र के 86 बसंत देखने के बाद लम्बी बीमारी से संघर्ष करते हुए ओला ने रविवार अलसुबह आखिरी सांस ली।
गांव से लेकर जिले और फिर प्रदेश में लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के बाद ओला ने केन्द्र में अपनी ताकत का एहसास करवाया। कांग्रेस में रहते हुए भी और कांग्रेस के बाहर रहकर भी। हालिया विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में हस्तक्षेप के चलते ओला चर्चाओं के केन्द्र में रहे लेकिन बीमारी की वजह से वे चुनाव प्रचार नहीं कर पाए। उनकी बीमारी को भी उनके प्रतिद्वंद्वी एक राजनीतिक स्टंट मान रहे थे। दबी जुबान में यह कहा जा रहा था कि ओला की बीमारी एक बहाना है और वे सहानुभूति बटोरकर वोट पाने के लिए यह सब कर रहे हैं लेकिन ओला इस बार सचमुच बीमार थे। वैसे ओला का चुनाव प्रचार गजब का ही रहता था। वे घर-घर या गांव-गांव जाकर प्रचार करने में विश्वास नहीं करते थे। खुद के चुनाव में तो बिलकुल भी नहीं। लोगों के प्रति उनका विश्वास इतना प्रबल था कि वे झुंझुनू में एक होटल में बैठे-बैठे ही चुनावी गतिविधियों पर नजर रखते थे। पिछले लोकसभा चुनाव में ओला मुश्किल से दो-तीन जगह गए थे। ओला दिन में ही खुद को होटल के कमरे में बंद कर लेते और उनका सहायक कमरे के बाहर ताला लगा देता। बाहर से जब कोई ओला से मिलने आता तो कह दिया जाता कि 'नेताजी तो बाहर गए हुए हैं।' और मिलने वाले विश्वास कर लौट भी जाते..।
यह सच है कि ओला ने जिले की राजनीति में अपने समकक्ष किसी को नहीं आने दिया..। ओला पर अक्सर चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों की खिलाफत कर अपने समर्थकों के लिए काम करने के आरोप लगते रहे लेकिन ओला इन सब आरोपों से बेफ्रिक ही रहे। तमाम विरोधों और आरोपों के बावजूद ओला ने हमेशा अपना वजूद कायम रखा। जिले में नहर लाने की ओला की घोषणा पर तो पता नहीं कितने ही चुटकुले बने लेकिन ओला इन सबसे आहत हुए बिना भी लगातार नहर लाने की टेर लगाए रहे। आखिरी वक्त तक।
उनकी सादगी और रणनीतिक कौशल के कायल तो उनके विरोधी भी रहे हैं। उनके सभी दलों से संबंध थे। झुंझुनू विधानसभा में हर बार यही चर्चा रहती आई है कि कांग्रेस के साथ-साथ दूसरे दलों के प्रत्याशियों का चयन भी ओला ही करवाते हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में भी यही चर्चा थी। खैर, ओला की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि उनका हर गांव से सीधा सम्पर्क रहता था। उनकी याददाश्त भी गजब की थी। भरी भीड़ में जब कोई खड़ा होकर अपना परिचय देता तो ओला झट से उसके गांव और पिता या दादा का नाम तक बता देते। उनकी यही अदा ग्रामीणों को लुभाती थी और उनके लोकप्रिय होने का राज भी थी। आम जनप्रतिनिधियों की तरह ओला ने कभी थाना स्तर की या तबादला करवाने की राजनीति नहीं की। उनकी छवि भी आक्रामक न होकर शांत एवं सादगी पसंद नेता ही रही।
बहरहाल, शिक्षा के मामले में अग्रणी झुंझुनू जिले के लोगों में राजनीतिक जागरुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि झुंझुनू जिले में शायद ही ऐसा गांव हो जहां दो चार 'शीशराम' ना हो..। उस दौर में पैदा हुए बच्चों के नाम ग्रामीणों ने शीशराम रख दिए थे। यह सब इसीलिए हुआ कि ओला ने साबित कर दिखाया कि एक साधारण परिवार का आदमी भी काफी कुछ कर सकता है। ओला ने ग्रामीणों में उम्मीद जगाई और उनका विश्वास भी जीता.। एक छोटे से गांव के एक साधारण से कृषक परिवार में पैदा होकर राजनीतिक के अर्श तक पहुंचने वाले लोग विरले ही होते हैं। ओला भी उनमें एक थे। जिले में ओला की रिक्तता को भरना मुश्किल भी है।

Saturday, December 7, 2013

दिल है कि मानता नहीं...


पोल अकाउंट

 
सब्र का सैलाब सीमाएं तोडऩे को आतुर हैं..। धैर्य भी धमाल मचाने पर आमादा है। चुनावी चौपालें तो अब चरम पर हैं। संशय व संदेह के बादल छंटने तथा विश्वास को यकीन में बदलने की इच्छाएं अब बलवती हो उठी है। आशंकाओं, अनुमानों, अटकलों एवं आकलनों की असलियत आखिरकार अब सामने आने ही वाली है। फैसला आने का फासला अब सिकुड़कर कुछ घंटों का ही रह गया है। धड़कनों की बढ़ती धक-धक भी किसी लोहार की धौकनी का आभास देने लगी है। निर्णायक घड़ी नजदीक देख आंखों में नींद का दूर तलक कोई नामोनिशान तक नहीं है, जैसे दिन व रात एक हो गए हों। बेचैनी और बेताबी का आलम इस कदर है कि दिलासाएं तक बेअसर हैं। हालात यह हो गए हैं कि अब हकीकत जानने के अलावा कुछ नहीं दिख रहा है। नजर अब केवल नतीजों पर हैं। परिणाम की प्रतीक्षा में पेशानी पर बल सबके हैं। उत्सुकता और इंतजार का आलम खेत से लेकर दफ्तर तक और हर आम से लेकर खास में दिख रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि ईवीएम में लम्बे समय से कैद किस्मत का ताला अब खुलने ही वाला है।
आठ दिसम्बर का दिन..। मेहनत के परिणाम का दिन.. पांच साल की तपस्या का प्रतिफल, जो बोया, उसको पाने का दिन..। किसी को फर्श से अर्श तक पहुंचा देगा तो किसी के सुनहरे सपनों का गला घोंट देगा। पता नहीं कितने ही दावों का दम निकलेगा और कितने ही अरमान दफन होंगे। न जाने कितने दिल टूटेंगे और जुड़ेंगे इस दिन..। किस्मत का सितारा जितनों का चमकेगा.. उससे कहीं ज्यादा का अस्त भी होगा। कहीं खुशियों की बारातें निकलेंगी तो कहीं गम के फसाने होंगे। कहीं जीत के जश्न मनेंगे तो कहीं हार के बहाने होंगे।
खैर, राजनीतिक महारथियों ने किसी न किसी तरीके से संभावित परिणाम की थाह जरूर ले ली है। सभी के पास जीत के दावे हैं। हार की बात तो न कोई करता और ना ही सुनना चाहता है। कई तो ऐसे भी हैं, जिनको वस्तुस्थिति का अंदाजा है, फिर भी झूठ पर झूम रहे हैं, गा रहे हैं। सभी का विश्वास, सच में तभी बदलेगा जब परिणाम सामने आएंगे। आखिर परिणाम ही तो वह चीज है, जो किसी को गुमनामी की गर्त में धकेलेंगे तो किसी को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाएंगे। जनता जर्नादन तो अपना फैसला कर ही चुकी है, बस अंतिम मुहर लगनी है, लेकिन दिल है कि मानता ही नहीं..। तभी तो दिमाग में विचारों का द्वंद्व है। आशंकाओं का आवेग भी उफन रहा है

शुक्रिया अदा करूं या..


बस यूं ही 

 
माताश्री लम्बे से उच्च रक्तचाप से पीडि़त हैं। इस रोग की पुष्टि झुंझुनूं के एक ख्यात चिकित्सक ने काफी पहले की थी। चिकित्सक की सलाह पर तथा रोग पर काबू पाने के लिए उस दिन के बाद माताश्री प्रतिदिन टेबलेट खाने लगीं। यह क्रम करीब सात साल से चल रहा है। पहले वे जो टेबलेट खाती थीं, वह ब्रांड बाजार में आना बंद हो गया तो चिकित्सकों की सलाह पर उसी सॉल्ट की दूसरी टेबलेट बता दी गई। पिछले सप्ताह माताश्री की तबीयत अचानक खराब हो गई तो गांव में हाल ही में खुले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में पदस्थ चिकित्सक को दिखाया तो उन्होंने कहा कि आप का रक्तचाप तो बेहद हाई है। चिकित्सक के ऐसा कहने पर माताश्री घबरा गईं। ऐसे में पिताजी उसको सुलताना के एक दूसरे चिकित्सक के पास लेकर गए तो उसने कहा कि सब ठीक है। ब्लड प्रेशर भी उतना ज्यादा नहीं है जितना बताया गया है। सुलताना के चिकित्सक के इस दिलासे के बाद माताश्री कुछ सामान्य हुई। आज दोपहर बाद पापा का फोन आया, हालांकि सुबह बात हो चुकी थी। मैंने फोन अटेंड किया तो बोले अपने गांव के डाक्टर की एक शिकायत है। मैंने पूछा क्या हो गया.. तो बोले, आज तेरी मां, गांव वाले डाक्टर के पास चेकअप कराने गई थी..तो डाक्टर ने बताया कि उसको ब्लेड प्रेशर नहीं है। पापाजी चकित थे कि सप्ताह भर पहले जो चिकित्सक ब्लड प्रेशर बेहद हाई बता रहा था वह सप्ताह भर बाद उसके खत्म होने की बात कैसे कह रहा है। पापाजी की बात सुनकर मैं भी आश्चर्य में डूब गया। आखिर सात साल की बीमारी खत्म कैसे हो गई जबकि झुंझुनूं के चिकित्सक ने तो यह कहा था कि यह टेबलेट आपको जिंदगी भर खानी पड़ेगी। समझ नहीं आ रहा है किस पर यकीन किया जाए..। गांव वाले चिकित्सक पर या झुंझुनूं वाले पर। झुंझुनू वाले चिकित्सक को कोसूं या गांव वाले चिकित्सक का शुक्रिया अदा करुं। जानकारी तो यह भी मिली है कि हाल ही में राज्य सरकार ने करीब 20 प्रकार के सॉल्ट की दवा ब्लड प्रेशर के मरीजों के लिए निशुल्क कर दी है। गांव वाले डाक्टर साहब माताश्री को दवा नहीं दे पा रहे हैं या दवा देने से डर रहे हैं यह तो वो ही जाने, फिलहाल तो मैं उनके नम्बर तलाश रहा हूं। जैसे ही मिलेंगे। बात जरूर करूंगा।

डरता हूं तो सिर्फ भगवान से..।


बस यूं ही

 
हाल ही में फेसबुक पर स्लोगन पढ़ा था, उसका मजमून कुछ तरह से था 'जो आपको जानते हैं, उनको बताने की जरूरत नहीं है और जो नहीं जानते उनको बताने से भी कोई फायदा नहीं है। खैर, क्या पता था यह स्लोगन मेरे पर ही चरितार्थ हो जाएगा। आज दोपहर बाद फेसबुक पर मैंने एक फोटो लगाई। मैं हमेशा फोटो का विवरण लिखता हूं लेकिन इस बार यह सोचकर कुछ नहीं लिखा कि देखते हैं फेसबुक के दोस्त क्या अनुमान लगाते हैं। और ऐसा हुआ भी। कई साथियों ने तो बिलकुल सटीक कमेंट लिखे लेकिन कई कमेंट ऐसे भी आए हैं, जिनको पढऩे के बाद इतनी हंसी आ रही है कि पेट में बल पड़ रहे हैं। वैसे तो फोटो पर लाइक एवं कमेंट करने वाले यह सब पढ़ ही चुके होंगे और हो सकता है मुस्कुराए भी हों, लेकिन सब का बारी-बारी से जवाब देना ही उचित रहेगा। संशय किसी भी सूरत में नहीं रहना चाहिए। पहले बात कमेंट्स की। सबसे पहले तौफिक डाबडी झुंझुनूं ने लिखा. डियर सर, वेरी फाइन विद..। उन्होंने सवाल छोड़ दिया। दूसरे नम्बर पर साथी मधुसूदन शर्मा ने लिखा जोड़ी नम्बर वन। ऐसा इसलिए लिखा क्योंकि वो हकीकत से वाकिफ हैं। तीसरे नम्बर पर साथी वीरप्रकाश झाझडिय़ा ने संतुलित कमेंट लिखकर किसी प्रकार की गुंजाइश नहीं छोड़ी.. उन्होंने लिखा नाइस। साथी अशोक शर्मा ने सर... सर... सर.. लिखा। उनके इस तरीके से ऐसा लगा मानो.. उनको यह फोटो अप्रत्याशित लगा हो। खैर, इसके बाद भिलाई के पत्रकार साथी शिवनाथ शुक्ला लिखते हैं.. सीताराम...निर्भर आकाश के पास में पूनम का चांद..। साहित्यिक भाषा में उन्होंने भी साबित कर दिया कि फोटो के ये दो किरदार कौन हैं। बीच में एक कमेंट साथी बलजीत पायल का भी आया था लेकिन वो बेहद मजाकिया था, उन्होंने उसको हटा लिया है। हालांकि लिखते समय उन्होंने लिख दिया था कि गुस्ताखी माफ हो। इसके बाद कैलाश राव ने लिखा .. आदर्श हसबैन्ड बल्कि आदर्श जोड़ी..। पत्रकार हैं, फोटो का मिजाज भांप गए। हकीकत से वाकिफ साथी भगवान सहाय यादव ने लिखा. भाईसाहब परफेक्ट जोड़ी..जियो हजारों साल..। प्यारेलाल चावला के लिए भी इस फोटो में नया कुछ नहीं था तभी तो लिखा.. वाह गुड, रब ने बना दी जोड़ी। कमोबेश ऐसा ही कमेंट्स नीरज शेखावत का रहा है.. रब ने बना दी जोड़ी.. क्योंकि उनके लिए भी कुछ अनजाना नहीं है। हंसमुख और मजाकिया स्वभाव के साथी संदीप शर्मा यहां भी नहीं चूके.. वे लिखते हैं.. राम लक्ष्मण सी जोड़ी बनी रहे..। अरे सॉरी राम-सीता सी। साथी गोपाल शर्मा से तो कुछ छिपा ही नहीं है। वे लिखते हैं.. भगवान इस जोड़ी को जमाने की सारी खुशियां दें। बड़े भाई हैं, इसलिए छोटा होने के नाते मेरा आशीर्वाद का हक तो बनता ही है। और उन्होंने दिया भी। चौंकाने वाला कमेंट्स आया.. झाला सर का। उन्होंने शायद फेसबुक पर मुझे देखा और कमेंट्स लिखा.. महेन्द्र जी, कहां हो.खैर बाद में मैंने फोन पर उनको सारी जानकारी दी। करीब पांच साल बाद उनसे आज फेसबुक के माध्यम से सम्पर्क हुआ। भिलाई के ही साथी अनूप कुमार ने लिखा मैड फोर इच अदर.. । साथी संजय प्रताप ने एक कमेंटस क्या लिखा इसके बाद तो इन्क्वायरी करने वालों में होड़ सी लग गई। सबसे पहले तो संजय प्रताप ने ही लिखा.. सर, हू इज सी, इफ सी इज यूवर लाइफ पार्टनर देन यू आर लकी, एंड नोट देन यू आर नो वेरी वैल..। इसी तरह का सवाल मटाना गांव के साथी महेन्द्र ने पूछा..। वे कहते हैं.. भाईसाहब यह कौन है। कु़छ ऐसा ही सवाल भाईसाहब राजेन्द्रसिंह ने किया। उन्होंने लिखा.. यू नोट गिव डिटेल, हू इज सी, भाई प्लीज गिव इंट्रोडेक्शन..। साथी सतीश अग्रवाल तो कमेंट़स के रूप में किसी पेज का ही प्रचार कर गए। पेज का नाम है, दोस्तों की दुनिया में हम हैं आपके साथ तो फिर करो लाइक..। साथी सुलेमान खान शायद उक्त कमेंट्स से असंतुष्ट नजर आए। वे कोफ्त में कहते हैं.. बड़े अजीब लोग हैं, इतना भी नहीं समझते..। उनका दर्द मैं समझ गया। इसके बाद भाई लक्ष्मीकांत ने लिखा .. रब ने बना दी जोडी..। भाई पत्रकार है अनुमान लगा लिया। और अभी-अभी साथी संजय सोनी ने लिखा है। वे कहते हैं, सदा खुश रहो.. हर खुशी हो तुम्हारे लिए..। बड़े भाई हैं.. ऐसा तो कहेंगे ही। खैर इन सबके अलावा पांच दर्जन लाइक भी आए हैं। सबसे पहले तो सभी का आभार। इस प्रकार स्नेह बनाए रखने के लिए। दूसरी बात यह है कि जो इतना कहने पर भी नहीं समझे तो बता देता हूं फोटो में मेरे साथ खड़ी महिला मेरी अद्र्धांगिनी निर्मल राठौड़ है। यहां किसी दूसरी की गुंजाइश ही नहीं है। कतई नहीं, बिलकुल नहीं..। सपने में भी नहीं। यकीन करो, यह मैं डर कर नहीं.. हकीकत बता रहा हूं। डरता हूं तो सिर्फ भगवान से।