Wednesday, August 31, 2011

कब टूटेगी कुंभकर्णी नींद

टिप्पणी
सरकारी विभाग दिशा निर्देश जारी करने में जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी उनके पालन करवाने में नहीं। बिलासपुर के एक स्कूल पर आकाशीय बिजली गिरने के बाद विभाग ने सभी शासकीय एवं अशासकीय स्कूलों में तडि़त चालक लगाने के निर्देश जारी किए थे। उदासीनता की इससे ज्यादा इंतहा और क्या होगी कि इन निर्देशों को जारी किए दस साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन स्कूलों में तड़ित चालक नहीं लग पाए हैं। इससे विभाग की कार्यकुशलता का भी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लगातार दस साल तक बारिश के मौसम में नौनिहाल मौत के साये में भयभीत होकर अध्ययन करते रहे लेकिन विभाग की कुंभकर्णी नींद नहीं टूटी। वैसे भी छत्तीसगढ़ राज्य में दूसरे राज्यों के मुकाबले आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएं ज्यादा होती हैं। बारिश के मौसम में तो अमूनन रोजाना ही कहीं न कहीं से बिजली गिरने तथा उससे जनहानि होने की खबरें आती रहती हैं। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो यहां पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण बादल गरजने तथा बिजली गिरने की घटनाएं ज्यादा होती हैं।
मामला गंभीर इसलिए भी है क्योंकि बिलासपुर जिले में 22 सौ प्राथमिक शिक्षा केन्द्र, छह सौ मिडिल स्कूल, सौ से ऊपर  हायर सैकण्डरी स्कूल तथा दो सौ के करीब हाई स्कूल हैं। इस प्रकार जिले में तीन हजार से ऊपर स्कूल हैं।  इनमें अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या तो हजारों में है। सन 2001 में बर्जेश स्कूल भवन पर आकाशीय बिजली गिरने तथा उसमें एक छात्रा के हताहत होने के बाद जिला शिक्षा विभाग ने सभी स्कूलों में तड़िल चालक लगाने के निर्देश जारी किए थे। साथ में निर्देशों के पालन न करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की बात भी कही गई थी। निर्देशों के बाद कई अशासकीय स्कूल संचालकों ने मामले की गंभीरता को देखते हुए अपने यहां तड़ित चालक लगवा लिए लेकिन शासकीय स्कूलों का मामला अटक गया। दस साल से अधिक समय गुजरने के बाद तड़ित चालक तो दूर एक भी व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है, हालांकि विभाग के आला अधिकारी इस बात को स्वीकर करते हैं कि इस मामले में लापरवाही बरती गई है।
बहरहाल, शिक्षा विभाग के अधिकारी इस मामले में नए सिरे से जानकारी जुटा कर कडे़ निर्देश जारी करने तथा व्यवस्था में जल्द सुधार करने की बात कह रहे हैं। विभाग अगर इस मामले में वाकई गंभीर है तो उसे निर्देश का पालन तत्काल करवाना चाहिए। निर्देश के पालन में आई रुकावटों को दूर करने की दिशा में भी काम होना चाहिए। साथ ही इतना लम्बा समय गुजरने के बाद भी निर्देश लागू क्यों नहीं हो पाए, इसके कारणों की पड़ताल करना भी जरूरी है। उम्मीद की जानी चाहिए शिक्षा विभाग नोटिस देने जैसी औपचारिकता से आगे बढ़कर मामले की गंभीरता को देखते एवं समझते हुए कार्रवाई करेगा।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 31 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित।

Tuesday, August 30, 2011

सद्‌भाव की सरिता

टिप्पणी
न्याय की नगरी बिलासपुर अपने आप में कई विशेषताओं को समेटे हुए है। शहर में विभिन्न संस्कृतियों का समागम तो है ही यहां का साम्प्रदायिक सद्‌भाव भी गजब का है। गंगा-जमुनी संस्कृति के संवाहक यहां के लोग इतने संजीदा एवं जिंदादिल हैं कि सम्प्रदाय विशेष की मानसिकता से ऊपर उठकर सामूहिक रूप से त्योहार मनाते हैं। तभी तो यहां के सद्‌भाव की अक्सर मिसाल दी जाती है। यह यहां के सद्‌भाव एवं कौमी एकता का ही कमाल है कि जो यहां एक बार आया तो फिर यहीं का होकर रह गया। वैसे तो बिलासपुर में साल भर विभिन्न राज्यों की संस्कृतियों के दर्शन वहां के स्थानीय पर्वों के रूप में होते रहते हैं, लेकिन इस बार एक सुखद संयोग भी जुड़ा है। संयोग यह है कि ईद व गणेश चतुर्थी  एक दूसरे केआगे-पीछे ही आ रहे हैं। वैसे माना जा रहा है कि 30 अगस्त को चांद दिखा तो ईद  31 अगस्त को और नहीं दिखा तो फिर एक सितम्बर को मनेगी। अगर ईद एक को हुई तो दोनों त्योहार एक ही दिन भी मनाए जा सकते हैं। ऐसे में शहर के साम्प्रदायिक सद्‌भाव में एक अध्याय और जुड़ जाएगा।
दोनों त्योहारों की अहमियत इसलिए भी है, क्योंकि इनमें न केवल दोनों संस्कृतियों के रंग मिलते हैं बल्कि 'राम' और 'रहमान' की सहभागिता भी बराबर रहती है। पुलिस लाइन में मनाया जान वाला गणेश उत्सव तो अपने आप में ही अनूठा है। सुनकर खुशी मिश्रित आश्चर्य होता है कि यहां कि गणेशोत्सव समिति में जमुनी तहजीब के डेढ़ दर्जन लोग सरंक्षक से लेकर कार्यकर्ता की भूमिका में है। शहर के अन्य कई गणेशोत्सव में इसी प्रकार की सहभागिता दिखाई देती है। खास बात यह है शहर में यह परम्परा लम्बे समय से चली आ रही है। इससे भी बड़ी बात तो यह है कि कई सियासी उलटफेर एवं साम्प्रदायिक झंझावत भी शहर की इस साझी विरासत का बाल तक बांका नहीं कर पाए। विषम परिस्थितियों में भी यहां के लोग एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े नजर आए। समय के साथ कदमताल करती शहर की यह साझा विरासत दिन दूनी रात चौगुनी और भी मजबूत व प्रगाढ़ हो रही है। सद्‌भाव व एकता का जज्बा यहां के जर्रे-जर्रे में है। शायद यहां के पानी की तासीर ही ऐसी है। तभी तो यहां इस प्रकार के सद्‌भाव की सरिता बहती है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 30 अगस्त11 के अंक में प्रकाशित।

Monday, August 29, 2011

अन्नागिरी और बिलासपुर

टिप्पणी
बारह दिन तक चली 'जनतंत्र की जंग' के बाद मिली 'जीत' का जश्न मनाने के लिए शायद इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका हो भी नहीं सकता था। यह एक तरह की 'खुशियों की बारात' थी, जिसमें शामिल हर आम और खास के चेहरे पर विजयी मुस्कान साफ-साफ जाहिर हो रही थी। खुशी के मारे हर 'बाराती' झूम रहा था, गा रहा था। उत्साह एवं उमंग से लबरेज उसके जोश में शर्म-संकोच की तो जैसे कोई गुंजाइश ही नहीं थी। 'आजादी की दूसरी लड़ाई' में संकल्प एवं साहस की 'फतह' के उपलक्ष्य में निकली यह 'बारात' न केवल अनूठी रही बल्कि कई अर्थों में अलग भी नजर आर्इ। इसमें हर वर्ग की भागीदारी रही। लोग इस 'बारात' में शामिल होते गए और समय के साथ बधाई दर बधाई की फेहरस्ति लम्बी होती गई। मिठाई बंटी। हवन हुए। इतना ही नहीं खुशी के गुलाल व उल्लास के अबीर के बीच हुई आतिशबाजी और गले मिलकर दी गई मुबारकबाद ने होली-दीवाली व ईद के माहौल को साकार कर दिया। तभी तो 'जनतंत्र की जीत' का यह उल्लास किसी उत्सव से कम नजर नहीं आया। तीनों त्योहारों की झलक के इस ऐतिहासिक संगम के साक्षी शहर के सैकड़ों लोग बने। इस आकर्षक नजारे के बीच हुई रिमझिम बारिश ने तो सोने पर सुहागे जैसा काम किया। ऐसा लगा मानो बारिश भी 'जनतंत्र की जंग' में शामिल 'दीवानों' का खैरमकदम करने को आतुर थी। तभी तो जश्न का यह दौर जैसे ही थमा आसमान से बादल भी छंट गए।
दरअसल, मामला 'आजादी की दूसरी लड़ाई' से बावस्ता था, लिहाजा, इसमें देशभक्ति के सभी रंग होना लाजिमी थे। 'आजादी के दीवाने' खुशी में झूमते-गाते इस कदर शंखनाद कर रहे थे गोया उनको मुंह मांगी मुराद मिल गई हो। कई आंदोलनों का गवाह रहा बिलासपुर का नेहरू चौक तो देशभक्ति की इस अद्‌भुत सरिता को देख धन्य हो गया।
बहरहाल, जनतंत्र के इस अनूठे अनुष्ठान की 'पूर्णाहुति' सुखद रही। यह बात दीगर है कि 'आजादी के दीवाने' लगातार बारह दिन तक अनुशासन की अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे लेकिन आखिरी एवं निर्णायक दिन उनके जोश के आगे अनुशासन कुछ बौना नजर आया और अन्ना के आह्वान की अवहेलना होती दिखाई दी। खैर, भ्रष्टाचार के विरोध में प्रज्वलित हुई उम्मीद की यह लौ कालांतर में प्रचंड अग्नि में तब्दील होकर 'अन्ना की अधूरी जीत' को पूरी जीत में परिवर्तित करने का मार्ग प्रशस्त करेगी। बिलासपुर जैसे शहर में तो इस लौ का निरंतर जलते रहना निहायत ही जरूरी है। यह काम चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन न्यायधानी में 'आजादी के दीवानों' का हौसला एवं जोश देखते हुए मुश्किल तो बिलकुल भी नहीं।
साभार  : पत्रिका बिलासपुर के 29 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित

अन्नागिरी के अनूठे व अनोखे अंदाज

बिलासपुर. जन लोकपाल के मुद्‌दे पर अनशन कर रहे हैं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन करने वालों का कारवां दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। वैसे तो गांधी टोपी तथा तिरंगा झण्डा इस आंदोलन की पहचान बन चुके हैं, लेकिन इनके अलावा और भी कई तरीके हैं, जो लोगों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच रहे हैं। बीते दस दिनों में आंदोलन के एक से बढक़र एक कई ऐसे अहिंसक तरीके सामने आए हैं, जो आज तक शायद ही किसी आंदोलन के हिस्से बने हैं। इन सभी तरीकों में एक खास बात यह भी है कि इनमें गंभीरता के साथ मनोरंजन का तड़का भी है। आंदोलन के संबंध में गढे गए नारों तथा वंदेमातरम व भारत माता के जयकारों ने न केवल लोगों में देशभक्ति की भावना भर दी है बल्कि उनको एकजुट करने में भी प्रमुख भूमिका निभाई है।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत जो देखने में आ रही है, वह है अनुशासन। धरनास्थल पर सुरक्षा के लिहाज से शायद ही कोई पुलिस वाला दिखाई देगा। कई तरह की गतिविधियों के बावजूद अनुशासन भी गजब का है। सभी लोग अनुशासित सिपाही की तरह अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन बखूबी कर रहे हैं। धरने से संबंधित तमाम व्यवस्थाओं की कमान युवाओं ने संभाल रखी है। धरनास्थल पर मौजूद लोगों को पानी पिलाने से लेकर यातायात बाधित न हो इसका भी विशेष ध्यान रखा जा रहा है। हर वर्ग का समर्थन तथा उनका विरोध करने का तरीका अलहदा होने के कारण भी यह आंदोलन अनूठा बन पड़ा है।  आंदोलन में किन्नरों से लेकर कुलियों तक की सहभागिता भी  अनोखी है।
ये हैं तरीके
धरना, अनशन, मोटरसाइकिल रैली, शांति मार्च, मशाल जुलूस, केडिंल मार्च, ऑटो रैली, पोस्टकार्ड अभियान, हस्ताक्षर अभियान, घण्टा रैली, काली पट्‌टी बांधकर काम, दीप प्रज्वलित करना, सद्‌बुद्धि यज्ञ, हवन, हनुमान चालीसा के पाठ, स्टीकर अभियान, पम्पलेट का वितरण, नाचते गाते जुलूस, भ्रष्टाचार की मटकी फोड़ना, भजन-कीर्तन, देशभक्ति गीत, चुटकुले, शेरो शायरी एवं कविता पाठ, मंदिरों में अन्ना की सलामती की दुआ, सांसदों के निवास पर प्रदर्शन, मानव श्रृंखला, शैक्षणिक बंद, नारेबाजी आदि।
साभार  : पत्रिका बिलासपुर के 26 अगस्त 11के अंक में प्रकाशित

Sunday, August 28, 2011

न्यायिक जांच हो

टिप्पणी
बिलासपुर बीएसएनएल महाप्रबंधक कार्यालय में लगे अग्निशमन यंत्र लम्बे समय से शोपीस बने हुए हैं। इन यंत्रों को रिफिल करने की निर्धारित अवधि को गुजरे पांच साल से ज्यादा समय हो चुका है। कार्यालय भवन में लगे फायर अलार्म की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। सुरक्षा के लिहाज से कार्यालय भवन में लगाए गए अन्य उपकरण भी देखरेख के अभाव में धूल फांक रहे हैं। ऐसे में कार्यालय में अगर आगजनी जैसी कोई अनहोनी हो जाए तो सुरक्षा फिर रामभरोसे ही है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीएसएनएल अधिकारी-कर्मचारी जब खुद के कार्यालय या यूं कहें कि खुद की सुरक्षा के प्रति ही गंभीर नहीं है तो उस कंपनी की सेवा फिर कैसी होगी। उसके उपभोक्ता किस हाल में होंगे। इतना समय गुजरने के बाद  उपकरणों के संबंध में ध्यान दिलाने पर बीएसएसएल के आला अधिकारियों के बयान बेहद ही हास्यास्पद हैं। बड़े अधिकारी यंत्रों के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने की कह रहे हैं तो उनके अधीनस्थ अधिकारी को अभी तक पूरी जानकारी ही नहीं है। वे जानकारी जुटाकर यंत्रों का नवीनीकरण करवाने की बोल रही हैं।
खैर, यंत्रों की उपेक्षा तथा अधिकारियों के बयान से इतना तो तय है कि कार्यालय की सुरक्षा को लेकर कोई भी गंभीर नहीं हैं। गनीमत तो यह है कि अब तक कोई अनहोनी नहीं हुई। दबे स्वर में तो यह भी सुनने को मिल रहा है कि बीएसएनल के आला अधिकारियों एवं कर्मचारियों में समन्वय तक नहीं है। जाहिर है जब समन्वय ही नहीं होगा तो फिर कामकाज की गति क्या होगी, सोचा जा सकता है। तीन मंजिला बीएसएनएल भवन में कर्मचारी बिना मुंह खोले, जान हथेली पर रखकर अगर काम रहे हैं तो, इसके पीछे के अंकगणित को भी आसानी से समझा जा सकता है। जरूर कहीं न कहीं कोई दबाव या डर है, जो कर्मचारियों को मुंह खोलने से रोक रहा है।
बहरहाल, पांच साल से अधिक समय से सुरक्षा संबंधी उपकरणों की उपेक्षा या अनदेखी सरासर लापरवाही की श्रेणी में आती है। ऐसा हो नहीं सकता कि अधिकारियों एवं कर्मचारियों को इस मामले की जानकारी नहीं हो। जिनके जिम्मे  इन सुरक्षा उपकरणों की सारसंभाल की जिम्मेदारी है, वे पांच साल से क्या  कर रहे थे। उम्मीद की जानी चाहिए बीएसएनएल प्रबंधन इस लापरवाही को दूर करने के लिए आवश्यक एवं कारगर कदम उठाएगा। बस शर्त इतनी है कि मामला गंभीर है, लिहाजा इसकी जांच में लेटलतीफी नहीं होनी चाहिए। जांच भी ऐसी-वैसी नहीं बल्कि न्यायिक हो, तभी दूध का दूध और पानी का पानी होगा।

साभार-पत्रिका बिलासपुर के 28 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित

Saturday, August 20, 2011

कायम रहे यह जज्बा

टिप्पणी
सियासत के भंवर में उलझे, विकास कार्यों में उपेक्षित तथा कदम-कदम पर भ्रष्टाचार का दंश झेलने वाले बिलासपुर में लम्बे समय से चुप्पी साधकर बैठे लोगों का सामाजिक कार्यकर्ता  अन्ना हजारे के समर्थन में सड़कों पर उतरना न केवल काबिलेगौर है बल्कि एक सुखद एहसास की तरह भी है। हजारे के बहाने से ही सही शहर के लोगों को एकजुट होने का मंच तो मिला है। शासन-प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों से नाउम्मीद हो चुके शहरवासियों की एकजुटता से अब कुछ तो उम्मीद बंधी है। यह कहना अभी जल्दबाजी है लेकिन उनकी इस एकजुटता में उज्ज्वल भविष्य का अक्स भी दिखाई देने लगा है। वैसे तो देशभर में अन्ना का समर्थन करने वालों की फेहरिस्त बेहद लम्बी है लेकिन बिलासपुर में इसके अर्थ दूसरे हैं। यहां के लोगों में आक्रोश है, लोग गुस्से में हैं, उनमें कुछ कर गुजरने का जज्बा है, तो मान लेना चाहिए कि इन सब के पीछे अन्ना के अलावा और भी कई ठोस कारण हैं। विकास की मुख्यधारा से कटकर बदहाली के कगार पर पहुंच चुके शहर का दर्द भी लोगों को लम्बे समय से अंदर ही अंदर कचोट रहा है। व्यवस्था के प्रति गुस्सा सभी के मन में है लेकिन वह बाहर आने का बहाना ढूंढ रहा था। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। अब हालत यह है कि शहर का हर आम से लेकर खास तक, जाति, धर्म एवं पार्टी से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा है। इसमें लेशमात्र भी राजनीति दिखाई नहीं दे रही है।
शहरवासियों के मौजूदा जोश, जुनून एवं जज्बे को देखकर कहीं से भी नहीं लगता है कि यह वही लोग हैं, जो कल तक खामोश थे। शहर के प्रति उनका क्या सरोकार है? जिम्मेदार नागरिक होने की वजह से वे शहर के लिए क्या कर सकते हैं? जैसी सामान्य बातों का अर्थ भी वे लगभग बिसरा चुके थे। तभी तो जिसके जैसे मन में आया, उसने शहर को बदहाली के कगार तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब ऐसा लगता है कि रेल जोनल कार्यालय के आंदोलन के बाद शांत, सुस्त एवं उदासीन बैठे लोग अन्ना के बहाने यकायक पुनर्जीवित हो उठे हैं। उनको जीने का मकसद मिल गया है। जाहिर है जनता जनार्दन की एकजुटता एवं जागरुकता से उन सब नेताओं एवं नौकरशाहों को अब अपना सिंहासन हिलता हुआ नजर आ रहा है, जो अब तक जनता की उदासीनता की फायदा उठाते आए हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि सिंहासन को खतरे में जान कर जनता व विकास से दूरी बनाए रखने वाले अब उनको गले भी लगा लें।
बहरहाल, बिलासपुर में भ्रष्टाचार की लड़ाई के मायने कई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए अन्ना के एक आह्वान पर एकजुट होने वाले न्यायधानी के लोग शहर के विकास में सियायत करने तथा शहर की उपेक्षा करने वालों के खिलाफ भी प्रभावी तरीके से आवाज बुलंद करेंगे। जरूरत है तो बस मौजूदा जज्बे को कायम रखने की।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 20 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित।

Sunday, August 14, 2011

काश! वक्त रुक जाता...

बिलासपुर. दोनों तरफ भावनाओं का समन्दर उमड़ने को आतुर था। आंखें एक दूसरे को देखने के लिए बेचैन एवं उतावली थीं। इंतजार की घड़ियां बस खत्म होने को थीं। कुछ पल की देरी भी बहुत अखर रही थी। एक-एक पल एक युग जैसा बीत रहा था। मन में कई तरह के सवाल, शंकाएं और जिज्ञासाएं थीं।
लेकिन यह क्या...? जब मिलन हुआ तो दोनों को कुछ नहीं सूझा। गला रुंध गया और होंठ कुछ कह ना पाए। एक दूसरे को अपलक निहारती आंखों में बस आंसुओं की अविरल धारा थी। दोनों तरफ टप-टप गिरते मोतियों से आंसुओं ने रिश्तों की मजबूती और प्रगाढ़ता पर मुहर लगा दी थी। आंसुओं की इस मुलाकात में जुबान एकदम खामोश थी। बस आंखें ही आंखों की भाषा समझ रही थी। दोनों को दिलासा देने वाला कोई तीसरा भी नहीं था। दोनों एक-दूजे के आंसू पौंछ रहे थे। आखिरकार जब आंसुओं का सिलसिला कुछ थमा तो होठ कुछ कहने को हिलने लगे। बातें पहाड़ सी लम्बी थी, बिलकुल अंतहीन। उनका कोई छोर दिखाई नहीं दे रहा था। बातों से बातें निकलने लगी। फिर क्या था, बस रफ्ता-रफ्ता भावनाओं ने रफ्तार पकड़ी तो फिर दोनों खुलकर बतियाए। मन के एक कोने में वापस बिछुड़ने की टीस भी थी, जो न चाहते हुएभी दोनों के चेहरों से जाहिर हो रही थी। दोनों के जिगर में एक दर्द भी छिपा था। गुनाह का पछतावा भी कहीं न कहीं मन को कचोट रहा था।
कहने को अभी काफी कुछ था लेकिन वक्त की पाबंदी थी। समय कब पंख लगाकर उड़ गया पता ही नहीं चला। लम्बे समय से जिस दिन का बेसब्री से इंतजार था, वह इतनी जल्दी गुजर जाएगा, इसका अफसोस भी था। मन-मस्तिष्क में सवाल फिर कौंधने लगे। वक्त इतनी जल्दी कैसे बीत गया? अभी तो बहुत कुछ था कहने-सुनने को? काश! यह वक्त रुक जाता। वक्त को अपने हिसाब से मोड़ना एवं रोकना दोनों चाहते थे कि लेकिन ऐसा हकीकत में संभव नहीं था। मिलन से ज्यादा गमगीन माहौल तो बिछोह का था। आंखों में आंसुओं का सैलाब फिर दिखाई देने लगा, लेकिन आंसुओं की कीमत समझने वाला कोई नहीं था। क्योंकि यह मुलाकात अनूठी जरूर थी लेकिन शर्तों में बंधी थी। वह गुनाहों की कीमत वसूल रही थी। भाई बहन के अटूट रिश्ते एवं पवित्र प्रेम का यह नजारा शनिवार को सेंट्रल जेल में फलीभूत हुआ। दूरदराज के इलाकों से चलकर जेल में सजा काट रहे भाइयों की कलाई पर स्नेह का धागा बांधने आई बहनों का उत्साह देखते ही बनता था। अपनों से मिलने की खुशी में बहनें सफर की थकान को भूल चुकी थी।
अक्सर खामोश रहने वाला जेल का माहौल भाई-बहन के मिलन के चलते किसी मेले से कम नहीं था। अंतर महज इतना था कि इस मेले में प्यार, स्नेह, पछतावा, प्रायश्चित, संवेदनाओं, भावनाओं और आंसुओं के अलावा और कुछ नहीं था। इतना होने के बावजूद दोनों यह सोचने को मजबूर थे कि अगर गुनाह ना किया होता तो क्यों आज मुलाकात के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ती? क्यों वक्त की पाबंदी होती? क्यों जेल की दीवारों के बीच मिलन होता? आखिर यह बंधन ही तो है, जो सब पर भारी पड़ता है। रिश्तों का बंधन...प्यार का बंधन... जन्मों का बंधन...।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 14 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित।

Wednesday, August 10, 2011

पर्यावरण प्रेमियो कुछ तो सोचो.....एक पेड़ की व्यथा

मैं एक पेड़ हूं, इमली का। लम्बे समय के रखरखाव एवं देखभाल के बाद मैं बड़ा हुआ। छत्तीसगढ़ भवन में होने के कारण मैं कई घटनाओं का साक्षी रहा हूं। कई नेताओं ने मेरी ठण्डी छांव में बैठ कर सियासत के दावपेंच सुलझाए हैं तो कई कई नौकरशाहों ने मेरी शीतल छांव में सुकून भी पाया है। इतना ही नहीं भरी गर्मी में अचानक बिजली गुल होने पर कइयों ने मेरी छांव में आकर कुछ देर के लिए चैन भी पाया है। खास जगह पर स्थित होने के कारण मैं सभी का चहेता रहा हूं। देखने में मैं आज भी भला चंगा लगता हूं लेकिन अंदर से खोखला हो चुका हूं। यह बात प्रशासन की सर्वे रिपोर्ट में साबित हो चुकी है। अभी पिछले दिनों की ही तो बात है नेहरू चौक पर एक पुराने पेड़ की शाखा अचानक टूट कर गिर गई। इससे एक व्यक्ति की मौत भी हो गई। पेड़ की शाखा टूटने के कारण तलाशे गए तो पाया गया कि पेड़ बेहद पुराना हो गया था। हादसे के बाद प्रशासन को याद आया कि शहर में तो बहुत सारे पेड़ पुराने हैं। फिर कोई बड़ा हादसा न हो इसके लिए तत्काल सर्वे की कार्रवाई की गई। सर्वे रिपोर्ट में बहुत सारे पेड़ जर्जर पाए गए। ऐसे में इन जर्जर पेड़ों को जनहित में काटने का निर्णय लिया गया। विशेष रूप से लिंक रोड पर मेरे दर्जनों साथी कई झंझावतों को झेलने के बाद अब जीवन के अंतिम पड़ाव में हैं। मेरे कई साथी पेड़ तो दम भी तोड़ चुके हैं लेकिन उनके सूखे तने आज भी खड़े हुए हैं।
प्रशासन इन जर्जर पेड़ों को काटने का निर्णय लेता, उससे पहले ही रातोरात कई तथाकथित पर्यावरण प्रेमी अचानक उठ खडे़ हुए। सभी एक स्वर में मांग करने लगे  कि लिंक रोड के पेड़ न काटे जाएं। मामले को राजनीतिक रंग देने का प्रयास भी किया गया। दबाव की रणनीति काम कर गई और प्रशासन ने मामले को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। तथाकथित पर्यावरण प्रेमी तो चाहते ही यही थे कि किसी न किसी तरह पेड़ काटने का मामला अटक जाए। खैर, मेरे पर्यावरण प्रेमियों के इस निर्णय से मुझे खुशी कम आश्चर्य ज्यादा हुआ। मैं सोचने लगा कि आखिरकार लिंक रोड में ऐसा क्या है, जो हर बार मामला उठने के बाद शांत हो जाता है। मेरे जेहन में बार-बार यही सवाल कौंधता रहा, क्या शहर में और कहीं पेड़ कटते ही नहीं हैं? बिलकुल कटते हैं और बार-बार कटते हैं लेकिन कोई पर्यावरण प्रेमी चिल्ल पौं तक नहीं करता। मुझे लगता है कि लिंक रोड पर मेरे जर्जर साथियों की ससम्मान अंतिम विदाई का विरोध करने वाले केवल दिखावे के ही पर्यावरण प्रेमी हैं। उनके इस पर्यावरण प्रेम के पीछे उनका खुद का स्वार्थ छिपा हुआ है। अगर लिंक रोड से जर्जर पेड़ कट जाएंगे तो यह मार्ग न केवल चौड़ा जाएगा बल्कि इन पेड़ों की ओट में अतिक्रमण करने वाले भी बेनकाब हो जाएंगे। पेड़ों की दुहाई देकर वे अपना अतिक्रमण कायम रखना चाहते हैं। वे लोग पेड़ों को बचाने के लिए बंगलौर, नागपुर की तर्ज पर काम करने की दलील देते हैं। उनको पता है यह सब हकीकत में संभव नहीं होगा और बेजा कब्जा यथावत रह जाएगा।
मेरे तथाकथित पर्यावरण प्रेमियों मैं आपके दोहरे चरित्र से हैरान भी हूं। अगर आपको वास्तव में पर्यावरण की चिंता है तो बताइए आपने अपने जीवन में कितने पौधे लगाए। कितने पौधों की रक्षा की? अरे इन सब को तो जाने दीजिए, आप तो यह बताइए कि कलेक्टोरेट में मेरे एक साथी को कल-परसों ससम्मान अंतिम विदाई दे दी गई क्योंकि प्रशासन के सर्वे में वह जर्जर पाया गया था, लेकिन अफसोस किसी ने चूं तक नहीं की। अब मेरी बारी है, क्योंकि सर्वे में मैं भी जर्जर पाया गया हूं, लिहाजा पहले मेरी शाखाओं को काटा जा रहा है। इसके बाद मुझे भी ससम्मान अंतिम विदाई दे जाएगी। अगर पर्यावरण प्रेमियों के दिल में वाकई पेड़ों के प्रति प्रेम होता तो वे यूं चुप नहीं रहते? लिंक रोड के पेड़ों की प्रति हमदर्दी दिखाने वाले इस मामले में खामोश क्यों रहे? कारण भी मुझे पता हैं, क्योंकि कलेक्टोरेट एवं छत्तीसगढ़ भवन के पेड़ों से किसी का हित नहीं जुड़ा है।
खैर, प्रकृति का नियम है कि जो आया है, उसे एक दिन जाना है। मैंने भी अपने दिन पूरे कर लिए, इसलिए मैं भी हंसते-हंसते हुए आपसे विदा हो रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे नाम पर राजनीति हो या मेरे विदा होने का विरोध हो। मैं जाते-जाते आप पर्यावरण प्रेमियों से यह करबद्ध निवेदन करता हूं कि हम जर्जर पेड़ों की आड़ में राजनीति न कीजिए। हम बहुत जी लिए अब ससम्मान अंतिम विदाई चाहते हैं। हमारी विदाई में अब रोड़े मत अटकाइए। हम नहीं चाहते हैं कि हमारे सिर पर किसी और हत्या का संगीन आरोप लगे, इसलिए सोचना और जनहित में निर्णय लेना। अगर आपने आज सोचने में देरी की तो आने वाली पीढ़ियां शायद ही आपको माफ करेंगी।

साभार-पत्रिका बिलासपुर के  10 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित