Thursday, July 26, 2012

शहादत को मिले सम्मान

टिप्पणी

यकीन मानिए अगर यह किसी फिल्मी कलाकार का कार्यक्रम होता तो लोग इतनी बड़ी संख्या में जुटते कि भिलाई का हुडको मैदान छोटा दिखाई देने लगता। अगर यह किसी पार्टी विशेष के बड़े नेता की सभा होती तो अकेली गाड़ियों का लवाजमा ही इतना हो जाता कि शहर की यातायात व्यवस्था लड़खड़ा जाती। अगर यह किसी हीरोइन या नृत्यांगना का कार्यक्रम होता तो भूख-प्यास की चिंता छोड़कर लोग सुबह से अपनी जगह सुनिश्चित करने का प्रयास करते दिखाई देते। अफसोस की बात यह है कि कार्यक्रम किसी फिल्मी कलाकार, किसी नेता या किसी नृत्यांगना का ना होकर एक शहीद की पुण्यतिथि का था। तभी तो छत्तीसगढ़ के एकमात्र करगिल शहीद कौशल यादव के स्मारक स्थल पर श्रद्धासुमन अर्पित करने जुटे लोगों की उपस्थिति वाकई सोचनीय थी। श्रद्धांजलि देने आए गिने-चुने लोगों को देखकर समझा जा सकता है कि आखिर छत्तीसगढ़ के युवाओं की सशस्त्र सेनाओं में भागीदारी कम क्यों है। श्रद्धांजलि सभा के लिए लगाए गए टैंट की अधिकतर कुर्सियां खाली पड़ी थी। समय निकाल कर पहुंचे चुनिंदा लोग भी इतनी जल्दी में थे कि वे सिर्फ मुंह दिखाई करके लौट गए।गनीमत रही कि दो चार स्कूलों के विद्यार्थियों ने राष्ट्रधर्म निभाते हुए स्मारक स्थल पर न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराई बल्कि शहीद को भावभीनी श्रद्धांजलि भी अर्पित की। कहने को महापौर एवं भिलार्इ नगर  विधायक ने भी स्मारक स्थल पर श्रद्धासुमन अर्पित किए लेकिन दोनों ने मंच पर साथ-साथ बैठने से परहेज किया। विधायक अपनी रस्म अदायगी कर पहले की निकल लिए जबकि महापौर तय समय पर पहुंची। वैशाली नगर विधायक तो दोपहर बाद श्रद्धाजलि अर्पित करके आए। इधर, देश की सुरक्षा एवं अस्मिता की दुहाई देने तथा देश के लिए मर-मिटने के दावे करने वाले दल भाजपा के छुटभैये नेताओं के अलावा नामचीन नामों की उपस्थिति न के बराबर थी। शर्मनाक बात तो यह भी थी कि कार्यक्रम में प्रशासनिक स्तर पर कोई अधिकारी या कर्मचारी नहीं पहुंचा। मरणोपंरात वीर चक्र से नवाजे गए शहीद कौशल यादव के प्रति ऐसा व्यवहार निहायत ही गैर जिम्मेदाराना एवं देशभक्ति के जज्बे को ठेस पहुंचाने वाला है।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ प्रदेश के युवाओं की भागीदारी सशस्त्र सेनाओं में बेहद कम है। इसका यह तो कतई मतलब नहीं है कि यहां के युवाओं में देशभक्ति का जज्बा नहीं है। दरअसल यहां के युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने तथा उनको राष्ट्र सेवा की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास ही बहुत कम हुए हैं। यहां के युवाओं को शायद ही ऐसा माहौल मिला हो, जिसके दम पर उन्होंने देश सेवा करने का सपना पाला हो। लोगों में देश के प्रति जोश, जज्बा एवं जुनून बरकरार है, बस शर्त इतनी सी है कि उनकी इस भावना को समय-समय पर जगाया जाए। हाल ही में प्रदेश में हुई वायुसेना भर्ती इसका जीता जागता उदाहरण है। भर्ती के प्रति माहौल बनाया गया तो युवाओं को जुटने में भी देर नहीं लगी। फिर भी तेरह साल पहले शहीद के अंतिम संस्कार के दौरान हजारों की संख्या में जुटने वालों की संख्या बुधवार को दहाई तक सिमटना बेहद सोचनीय विषय है। इसके पीछे कहीं न कहीं सरकारी एवं प्रशासनिक उदासीनता ही  जिम्मेदार है। शहीद की पुण्यतिथि किसी उत्सव से कम नहीं होती है। उसकी शहादत को पूरा-पूरा सम्मान मिलना चाहिए ताकि युवा पीढ़ी के दिल में देशप्रेम का जज्बा पैदा हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में अकेले कौशल यादव ही नहीं बल्कि प्रदेश के अन्य शहीदों के प्रति ऐसा रुखा व्यवहार न हो तथा उनकी पुण्यतिथि महज रस्मी कार्यक्रम ना बने, तभी शहीदों की चिताओं पर हर वर्ष मेले लगने का स्लोगन चरितार्थ हो पाएगा।

साभार - पत्रिका भिलाई के 26  जुलाई 12  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, July 14, 2012

तबादले पर उठते सवाल

प्रसंगवश
 
आखिकार वही हुआ, जिसका अंदेशा था। जिला शिक्षा अधिकारी बीएल कुर्रे का तबादला हो गया। नई जिम्मेदारी के तहत उनको धमतरी डाइट का प्राचार्य बनाया गया है। वैसे कुर्रे के तबादले के कयास उसी दिन से लगने शुरू हो गए थे, जिस दिन उन्होंने भिलाई के दो बड़े स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई की थी। यह ऐसी कार्रवाई थी,जो न केवल अनूठी थी बल्कि ऐतिहासिक भी रही। निजी स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई कर बड़े पैमाने पर जुर्माना लगाने का छत्तीसगढ़ प्रदेश का संभवतः यह इकलौता एवं पहला मामला था। आमजन ने इस कार्रवाई का तहेदिल से स्वागत भी किया था। इस कार्रवाई के बाद अभिभावकों में यह उम्मीद जगी थी कि आखिकार उनकी पीड़ा को समझने वाला कोई अधिकारी तो है। तभी तो प्रदेश के बाकी जिलों में भी इसी तर्ज पर कार्रवाई की मांग उठने लगी थी। खैर, कुर्रे की इस कार्रवाई का भले ही अभिभावकों एवं आम लोगों ने स्वागत किया हो लेकिन नियमों का पालन न करने वाले तथा राजनीतिक पहुंच रखने वाले कतिपय शिक्षण संस्थानों की आंखों की किरकिरी भी वे उसी दिन से बन गए थे। उनको भय सताने लगा था कि अगर कुर्रे कुछ समय और रह गए तो अगला नम्बर कहीं उन्हीं का न जाए। कहा भी जा रहा है कि दो बड़े स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई से उत्साहित कुर्रे करीब दर्जन भर स्कूलों के खिलाफ तैयारी में थे, लेकिन इससे पहले उनका तबादला हो गया। कुर्रे के तबादले के पीछे तरह-तरह की चर्चाएं सुनने को मिल रही हैं लेकिन सबसे अहम कारण यही माना जा रहा है कि निजी स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई करना उनको भारी पड़ गया।
बहरहाल, अगर कुर्रे के तबादले के पीछे राजनीतिक कारण हैं तो यह किसी योग्य एवं ईमानदारी अधिकारी के लिए शुभ संकेत नहीं है। ऐसे माहौल एवं दबाव में भला कोई कैसे तटस्थ रहकर निष्पक्षता के साथ काम कर पाएगा। ईमानदारी के साथ काम करने की सजा अगर तबादला ही है तो फिर योग्य अधिकारियों एवं पारदर्शी काम की उम्मीद करना भी बेमानी है। कुर्रे के तबादले से तो इस बात को बल मिलता है कि राज्य सरकार भी गड़बड़ी करने वाले निजी स्कूलों के न केवल दबाव में है अपितु उनकी हां में हां भी मिला रही है। और अगर तबादला सामान्य प्रक्रिया है तो नए शिक्षा अधिकारी से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे कुर्रे के अधूरे कार्यों को अंजाम तक पहुंचाएंगे। 

साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 14 जुलाई 12  के अंक में प्रकाशित।


Friday, July 13, 2012

अपनै आप नं दारासिंह समझै है के....

 रुस्तम-ए-हिन्द दारासिंह के निधन का समाचार गुरुवार सुबह ही मिल गया था। टीवी एवं सोशल साइट्‌स पर दिन भर दारासिंह के निधन तथा उनसे जड़े किस्सों एवं संस्मरणों पर आधारित खबरों का बोलबाला रहा। शुक्रवार सुबह प्रिट मीडिया में भी दारासिंह ही छाए हुए थे। अधिकतर समाचार पत्रों में उनके निधन के समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। कई समाचार-पत्रों में तो अतिरिक्त पेज भी दिए गए। वे इसके हकदार भी थे, क्योंकि दारासिंह का जुड़ाव देश के लगभग हर छोटे- बड़े शहरों से रहा। कुश्ती के कारण देश में वे कई जगह घूमे थे। लिहाजा, अलग-अलग जगह पर समाचार-पत्रों में उनके अलग-अलग संस्मरण प्रकाशित हुए हैं। किसी ने दारासिंह के पहलवानी के पक्ष को रेखांकित किया तो किसी ने उनके राजनीतिक जीवन को। सर्वाधिक फोकस उनके रामायण धारावाहिक में निभाए गए हनुमान के किरदार को किया गया। कई समाचार-पत्रों ने इनके इस किरदार को अपने शीर्षकों में भी शामिल किया है। मसलन, राम के हुए हनुमान, राम के पास पहुंचे  हमारे हनुमान, राम के पास गए हनुमान आदि। लब्बोलुआब यह है कि निधन के कवरेज में दारासिंह के मूल काम के बजाय उनके हनुमान के किरदार को ज्यादा प्राथमिकता दी गई। दारासिंह मूल रूप से पहलवान थे और अपनी इसी खूबी और मजबूत कद काठी की बदौलत ही वे फिल्मों में आए। संभवत उनकी शारीरिक बनावट को देखकर ही रामायण में हनुमान का किरदार मिला। हनुमान के किरदार निभाने के कारण ही उनका राज्यसभा जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस प्रकार दारासिंह ने पहलवानी के अलावा अभिनेता एवं राजनेता दोनों  ही किरदार बखूबी निभाए।
फिलहाल बहस का विषय यह है कि दारासिंह को पहलवान के रूप में ज्यादा प्रसिद्धि मिली या फिर हनुमान का किरदार निभाने से। प्रसिद्धि का पैमाना क्या रहा है, यह सब लोगों ने टीवी, सोशल साइट एवं समाचार पत्रों के अवलोकन से लगा लिया होगा। अधिकतर जगह यही लिखा गया है कि उनको प्रसिद्धि हनुमान के किरदार से ज्यादा मिली। कुछ हद तक तक यह बात सही भी होगी लेकिन मैं इससे पूर्णतया सहमत नहीं है। मेरा मानना है कि दारासिंह को लोग हनुमान से पहले पहलवान के रूप में ही जानते थे। पहलवान रहते हुए दारासिंह ने वह काम कर दिखाया था जो किसी परिचय का मोहताज नहीं था। वह भी ऐसे दौर में जब न तो सोशल साइट्‌स थी और ना ही अखबारों का  जोर। टीवी भी उस वक्त गिने-चुने घरों की शान हुआ करते थे। विशेषकर शेखावाटी में दारासिंह की पहलवानी से जुड़ी एक लोकोक्ति प्रचलन में है। बचपन से इसको सुनते आए हैं और अब भी सुन रहे हैं। रामायण धारावाहिक तो 1987 में आया लेकिन लोकोक्ति इससे काफी पहले से बोली एवं सुनी जा रही है। दारासिंह से संबंधित से यह लोकोक्ति उर्फ जुमला बचपन में न केवल सुना है बल्कि कई बार बोला है। आज भी गाहे-बगाहे इस प्रयोग कर ही लिया जाता है। यह जुमला है अपनै आप नं दारासिंह समझै है के....। शेखावाटी में यह जुमला उस वक्त प्रयोग किया जाता है तब दो पक्षों के बीच नोकझोंक होती है और बात कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा यह जुमला उस वक्त भी बोला जाता है जब कोई बच्चा शरारत करता है। कहने का अर्थ यह है दादागिरी दिखाने वाले को भी इस जुमले से पुकारा जाता है। शेखावाटी में इस जुमले का प्रयोग सिर्फ बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी करते हैं। हमारे गांव में तो एक युवक का नाम इसलिए दारासिंह रख दिया गया, क्योंकि उसने एक तेज धमाके वाले पटाखे को हाथ में ले लिया था। संयोग से वह पटाखा हाथ में लेने के बाद फट गया और वह युवक गांव के युवाओं की नजर में बहादुर मतलब दारासिंह हो गया। गांव में आज भी उस युवक को मूल नाम से कम और दारासिंह के नाम से ज्यादा जाना जाता है। 
कहने का मतलब यह है कि दारासिंह मूल रूप से पहलवान थे। उनकी पहचान उनकी ताकत थी। यह बात और है कि हनुमान के किरदार ने उनकी लोकप्रियता को और बढ़ाया। आज दारासिंह हमारे बीच में नहीं है। भले ही हम उनकी अलग-अलग कामों के लिए चर्चा करें लेकिन उनका सबसे मजबूत पक्ष अभिनेता या नेता न होकर  पहलवानी ही था। उनकी ताकत ही उनकी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण थी। 1947 से 1983 तक दारासिंह ने विभिन्न कुश्ती प्रतियोगिताओं में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने पांच सौ पहलवानों को धूल चटाई। दारासिंह आज हमारे बीच से चले गए हैं लेकिन उनसे संबंधित जुमला लोगों की जुबान पर है और रहेगा। रुस्तम-ए-हिन्द को मेरा शत-शत नमन।

दोहरा चरित्र !


टिप्पणी

विडम्बना देखिए कि भिलाई के शांतिनगर एवं मॉडल टाउन के लोग वैधता के लिए जनप्रतिनिधियों एवं निगम अधिकारियों के यहां लगातार चक्कर लगा रहे हैं लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। दोनों ही कॉलोनियों को वैधता तीन माह पहले दी जा चुकी है, लेकिन अभी तक विकास शुल्क निर्धारित नहीं किया गया है। नगर निगम की सामान्य सभा भले ही दो दिन चली हो लेकिन इस मसले पर कोई फैसला तो दूर चर्चा तक नहीं हुई। किसी ने बात कहने की कोशिश भी की तो हो हल्ला कर मामले को बहुमत के जोर पर दबा दिया गया। खैर, यह सामान्य सभा का एक पक्ष था। अब इसी सामान्य सभा का दूसरा पक्ष देखिए। वार्ड 24 में साप्ताहिक बाजार लगे या नहीं इस बात को लेकर मामला अदालत में विचाराधीन है। इसके बावजूद इसका प्रस्ताव सामान्य सभा में रखा गया। सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे की तर्ज पर इस प्रस्ताव पर मतदान करवाने की रस्म अदायगी भी गई ताकि भविष्य में किसी प्रकार के शिकवा-शिकायत की कोई गुंजाइश ही नहीं रहे। सदन में बहुमत कांग्रेस का है, चाहते तो प्रस्ताव वैसे ही पास हो जाता है लेकिन मतदान को आधार बनाकर यह संदेश दिया गया कि साप्ताहिक बाजार वार्ड 24 में ही लगना चाहिए। वैसे साप्ताहिक बाजार को लेकर प्रस्ताव पारित करने में जल्दबाजी दिखाना कई सवालों को जन्म देता है। आखिर ऐसी क्या वजह है कि अदालत के निर्णय का इंतजार किए बिना ही प्रस्ताव पारित कर दिया गया।
उक्त दोनों मामले यह साबित करते हैं कि जनहित से जुड़े मसलों  को लेकर हमारे जनप्रतिनिधि बिलकुल भी संजीदा नहीं है। ऐन-केन-प्रकारेण उनका ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि उनको अधिकाधिक निजी लाभ कैसे हासिल किया जाए। स्वाभाविक सी बात है, मामला जब निजी लाभ या व्यक्तिगत स्वार्थों से जुड़ा होगा तो हो-हल्ला होना भी लाजिमी है। जब इस प्रकार के विवादों से नाता रखने वाले प्रस्ताव पारित हुए तो जमीर की आवाज पर काम करने वाले कुछ जनप्रनिधियों के लिए यह सब सहन करना बर्दाश्त से बाहर हो गया। वे झगड़े पर उतारू हो गए। तोडफ़ोड़ करने लगे, लेकिन उनका ऐसा करना भी तो उचित नहीं है। लोकतंत्र में अपनी बात रखने के कई माध्यम हैं। लोकतांत्रिक एवं गांधीवादी तरीके से भी अपनी बात रखी जा सकती है। इस प्रकार के हथकंडे अपनाकर चर्चा में बना जा सकता है लेकिन लोकप्रिय नहीं। यह सब महज सस्ती लोकप्रियता हासिल करने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। कानून हाथ में लेकर हाथापाई करना, तोड़फोड़ करना, सरकारी सम्पति को नुकसान पहुंचाना, सदन का कीमती समय जाया करना किसी भी कीमत पर उचित नहीं हैं। सदन की अपनी मर्यादा है, अपनी गरिमा हैं। उसकी मर्यादा एवं गरिमा का ख्याल रखना जनप्रतिनिधियों का फर्ज है, लेकिन भिलाई नगर निगम में मर्यादा एवं गरिमा को तार-तार करना जनप्रतिनिधियों का एक सूत्री कार्यक्रम हो गया। वाहवाही लूटने के लिए हंगामा करने का रिवाज सा बन गया है। जनप्रतिनिधियों द्वारा नैतिक दायित्य का निर्वहन करना तो बिलकुल बेमानी हो गया है। शांतिपूर्वक चर्चा करना तो वे अपनी शान के खिलाफ समझने लगे हैं।
बहरहाल, जनप्रतिनिधियों को यह तय करना लेना चाहिए कि उनके लिए शहर का विकास सर्वोपरि है। इसमें किसी तरह का राजनीति करना या हंगामा खड़ा करना उचित नहीं है। तात्कालिक या निजी लाभ के लिए जनहित से जुड़े मुद्‌दों को नजरअंदाज करना न्यायसंगत नहीं है। शहरहित एवं जनहित में राजनीति का हस्तक्षेप ना तो ही बेहतर है। सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना भी सही नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए हमारे जनप्रतिनिधि पिछले सारे दुराग्रह व पूर्वाग्रह भुला कर विकास के मामलों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाएंगे। अगर ऐसा नहीं कर पाए तो सिर-आंखों पर बैठाने वाली जनता दूसरा रास्ता भी दिखा सकती है, इतिहास गवाह है। जनप्रतिनिधियों को उससे कुछ सबक या सीख जरूरी लेना चाहिए।

साभार : पत्रिका भिलाई के 13 जुलाई 12  के अंक में प्रकाशित।

Friday, July 6, 2012

शुक्रिया... साथियो...

.बिलासपुर से आने के बाद...

मेहंदी रंग लाती है सूख जाने के बाद, और महोब्बत रंग लाती है दूर जाने के बाद। हो सकता है यह शेर आपने भी कहीं पढ़ा या लिखा हुआ देखा हो। मैंने तो यह शेर कई बार पढ़ा है। बचपन से लेकर कॉलेज लाइफ तक। यहां तक कि बसों के अंदर भी यह शेर कई जगह लिखा हुआ दिखाई दे जाता है। नब्बे के दशक में स्टीकर का दौर भी खूब चला। शेरो-शायरी के शौकीन उस वक्त इन स्टीकरों को खूब खरीदते थे। कोई किताब पर चिपकाता तो कोई साइकिल पर। मतलब यह था कि इन स्टीकर का क्रेज खूब था। दूर जाने की बात से ही शेर याद आ गया। बिलासपुर से तबादले की बात सुनकर सिर्फ अकेला रणधीर ही नहीं बल्कि कई साथी थे जो, उदास हो गए। कोई मेरे तबादले से खुश हुआ होगा मुझे नहीं लगता।
जिस दिन से मेरे तबादले की सूचना आई तो किसी ने फोन करके तो किसी ने एसएमस के माध्यम से हैरानी जताई। वैसे बिलासपुर में मेरे सहयोगियों के अपनेपन पर मुझे कभी कोई शक नहीं हुआ। लेकिन उनके दिल में मेरे प्रति कितनी जगह है, यह उनसे बिछड़ने के बाद ही पता चला। तबादले की सूचना के बाद मैसेज मिलने का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। फेसबुक पर भी जब मैंने बिलासपुर से विदाई कार्यक्रम का फोटो लगाया तो कई साथियों ने नई जगह जाने की शुभकामनाएं प्रेषित की। बिलासपुर के साथियों के अलावा शहर के एक-दो शुभचिंतकों ने भी मैसेज के माध्यम से अपनी बात कही। मेरे तबादले के आदेश 22 जून को ही आ गए थे। इस दिन मेरी शादी की आठवीं वर्षगांठ भी थी। आदेश की सूचना धीरे-धीरे सब जगह फैल गई।
सबसे पहले 23 जून को सीवी रमन विश्वविद्यालय के कुलसचिव श्री शैलेष पाण्डेय जी ने मैसेज किया कि ... सर, हम सब से प्यार और मोहमाया लगाव बढ़ाके आप दूर क्यों जा रहे हैं। अभी तो यह अच्छी शुरूआत हो रही थी। आपने जरा भी नहीं सोचा कि आपके अच्छे दोस्तों का क्या होगा। या हमसे नाराज होकर जा रहे हैं आप, आपके जाने की बात सुनकर अच्छा नहीं लगा सच में।
इसके बाद 26 जून को सिटी डेस्क पर कार्यरत छिंदवाड़ा के श्री प्रभाशंकर गिरी ने मैसेज किया....मिस यू सर। आपने बहुत कुछ सिखाया है जो पूरी लाइफ काम आएगा। थैंक्यू सर। मैसेज का सिलसिला थमा नहीं था। इसी दिन शाम को शहर के उत्साही एवं जागरूक युवा श्री पिनाल उपवेजा ने मैसेज किया....सर आपको, आपकी फेयरवेल की बधाई और बहुत शुभकामनाएं, नई यूनिट के लिए। आपका बिलासपुर के लिए किया गया कार्य हमेशा प्रशंसनीय और प्रेरणास्त्रोत रहेगा। इसी दिन कार्यालय में एक सादे समारोह में विदाई कार्यक्रम का आयोजन भी किया था। तबादले की बात सुनकर झुंझुनूं कार्यालय से पत्रिका के साथी श्री भगवान सहाय यादव ने भी बेस्ट ऑफ लक का मैसेज किया।
28 जून को बिलासपुर से भिलाई रवाना होने के दौरान मैंने एक मैसेज कम्पोज किया, उसमें लिखा कि.... एक साल के दौरान बिलासपुर में आप लोगों का जो सहयोग मिला, मैं उसका आभारी रहूंगा। यह मैसेज लिखकर मैंने कई लोगों को सेंड किया।इसके बाद रेलवे के पीआरओ श्री संतोष कुमार ने रिप्लाई देते हुए लिखा... आपका हर समय तहे दिल से स्वागत है और हमारा सहयोग हर समय रहेगा। इसके बाद पत्रकार साथी यशवंत गोहिल ने जवाबी मेसेज दिया कि...आपका स्नेहिल भावना के लिए आभार। आप सतत प्रगति के पथ पर बढ़ते रहे अशेष शुभकामनाएं। एक अन्य साथी योगेश्वर शर्मा जो कुछ समय के लिए पत्रिका बिलासपुर में मेरे साथ रहे, ने भी मैसेज का जवाब मैसेज से दिया। उन्होंने लिखा....दूरियां बढ़ने से रिश्ते नहीं मिटा करते। अपनो से बिछड़ के प्यार और भी गहरा हो जाता है। आपके सानिध्य में जो सीखने को मिला वह मेरे जीवन की बड़ी उपलब्धि है। मेरा विश्वास है कि आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा। इसके अलावा कई लोगों ने फोन के माध्यम से नई जगह की शुभकामना दी लेकिन इतनी जल्दी बिलासपुर छोड़ने के लिए अफसोस भी जाहिर किया।
इसके बाद तीन जुलाई को मैं भिलाई आ गया लेकिन बीच-बीच में मैसेज मिलते रहे। सीवी रमन के कुलसचिव पाण्डेय जी ने फिर मैसेज किया कि... खुदा की इबादत में वो एक दुआ हमारी होगी, जिसमें मांगी हर खुशी आपकी होगी। जब भी कोई दस्तक सुनाई दे दिल से, समझो वो प्यारी सी आहट हमारी होगी।
मेरा भतीजा सिद्धार्थ दिल्ली रहता है। वह हाल ही में गांव जाकर आया था। वहां पापा एवं मां ने मेरे तबादले पर चिंता जताई लेकिन भतीजे ने गांव से दिल्ली लौटने के बाद पांच जुलाई को मैसेज भेजा... आई विश के आप भिलाई में और नाम रोशन करेंगे। दादोसा (मेरे पापा) कह रहे थे कि हीरे को कहीं भी भेज दो वो तो चमकेगा ही.....। प्राउड ऑफ यू....।
छह जुलाई को बिलासपुर के साथी श्री नरेश भगोरिया जो मूलतः इटारसी के रहने वाले हैं और पत्रकारिता में मेरे से भी ज्यादा समय से सक्रिय हैं, ने ब्लॉग पर जब रणधीर से संबंधित लेख पढ़ा तो वे भी भावुक हो और उन्होंने भी अपनी भावनाएं मैसेज के माध्यम से मुझे प्रेषित की। उन्होंने लिखा...सर, निश्चित रूप से आपका साथ हम सब के लिए ताउम्र याद रहेगा। ऐसा माहौल तो कभी नहीं मिलेगा। और बहुत सी बातें हैं जो लिखी नहीं जाएंगी पर दिल में हमेशा रहेगी। बस इतना ही कहूंगा.... सेल्यूट टू यू बॉस....।
सच में एक साल में कितना जुड़ गया था मैं। इस बात का एहसास मुझे आज हो रहा है। अपने लोगों एवं अपने प्रदेश से बाहर मुझे बिलासपुर में सहयोगियों एवं शहरवासियों का जो सहयोग मिला मैं उसका आभारी हूं और रहूंगा। साथियों एवं शुभचिंतकों ने मुझमें जो विश्वास दिखाया, मुझे जो सहयोग एवं स्नेह दिया वह मेरी लिए किसी पूंजी से कम नहीं। मैं उसे ताउम्र सहेज कर रखूंगा। यह रिश्ता अब टूटेगा नहीं। सचमुच महोब्बत दूर जाने के बाद ही रंग लाती है। बचपन से सुनते आए इस शेर का मर्म अब समझ में आया। शुक्रिया.... साथियों...।

जिंदगी के सफर में...


बिलासपुर से आने के बाद...

जिंदगी के सफर में वैसे तो ताउम्र कई लोग मिलते हैं, बिछडुते हैं और यह सिलसिला बदस्तूर चलता रहता है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, जो याद रह जाते हैं। याद रहने की वजह है कुछ लोगों से आत्मिक लगाव या जुड़ाव। सर्विस के दौरान भी ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाते हैं, जब साथ-साथ काम करने से आपस में एक स्नेह की भावना जुड़ जाती है। एक रिश्ता बन जाता है। यहां एक ऐसा ही उदाहरण है, जिसे मैं शायद ही भुला पाऊंगा। ......
पिछले साल की ही तो बात है, मेरे पास भोपाल से किसी परिचित ने फोन किया था। और कहा कि भाईसाहब एक रिज्यूम भिजवा रहा हूं। मेरा परिचित है। आपके यहां कोई वैकेन्सी हो तो प्लीज रख लेना। दूसरे दिन मुझे मेल के माध्यम से बायोडाटा मिल गया। युवक बिहार के आरां जिले से था। भोपाल में ही एक न्यूज पेपर में कार्यरत था। बायोडाटा में उसके फोन नम्बर देखकर मैंने तत्काल उसको अपने पास बुलवा लिया। जब इस संबंध में मैंने अपने सीनियर को अवगत कराया तो उन्होंने पूछा  कौन है, कैसा है, काम जानता है या नहीं  आपने बिना जाने ही कैसे बुलवा लिया। मैंने कहा कि परिचित ने बताया है, इस आधार पर बुलवाया है। काम का जानकार तो होगा ही। थोड़ा कम जानता होगा, तो मैं सीखा दूंगा। मेरी बात पर सीनियर आश्वस्त हो गए। खैर वह युवक मेरे कहे अनुसार निर्धारित दिन मेरे पास पहुंच गया और बोला सर मैं रणधीर। भोपाल से आया हूं। एकदम दुबला-पतला, गौरा सा युवक। एक बार देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि यह युवक पत्रकारिता में है भी या नहीं। साक्षात्कार की औपचारिकता कर मैंने उसे ज्वाइन करने के लिए कह दिया। काम की शुरुआत में वह कुछ धीमा जरूर था लेकिन उसमें छिपी प्रतिभा रफ्ता-रफ्ता निखरने लगी। एक साल बाद तो हालत यह हो गई कि काम में रणधीर सबका चहेता बन गया। मुझे इस बात की खुशी थी कि मेरा चयन गलत साबित नहीं हुआ। करीब साल भर मेरे साथ काम करने से रणधीर मेरे से इतना घुलमुल गया कि मुझे बॉस कम अपना अभिभावक ज्यादा समझने लगा। अपने दुख-दर्द मुझसे साझा करने लगा। रणधीर भावुक प्रवृत्ति का है। एकदम उदास हो जाना। काम में गलती होने पर एकदम से उदास एवं निराश होकर बैठ जाना। मैं हमेशा उसको प्रोत्साहित करता, कहता यह सब पार्ट ऑफ जॉब है। काम करोगे तो गलती भी होगी। गलती काम करने वाले से ही होती है। शायद मेरी बात के मर्म को रणधीर ने अच्छी तरह से जान लिया था। तभी तो वह मेरा विश्वासपात्र बन गया। एकदम सपर्पित होकर काम करना, काम करते-करते उसमें ही डूब जाना, उसके जीवन का हिस्सा बन गया। अपनी इस खूबी का शायद खुद रणधीर को भी पता नहीं चला।
वक्त अपनी रफ्तार से दौड़ा चला जा रहा था। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। एक दिन रणधीर बदहवाश
सा मेरे कक्ष में आया और बोला सर, पिताजी को कैंसर हो गया है, मुझे गांव जाना पड़ेगा। मैंने भी संकट की घड़ी में अभिभावक की तरह रणधीर को ढांढस बंधाया और तत्काल घर जाने की अनुमति दे दी। होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था। घर जाने के करीब 15 दिन बाद रणधीर ने मुझे फोन पर दुखद समाचार सुनाया। वह बोला सर, पिताजी नहीं रहे। सुनकर मैं अवाक रह गया। फोन पर उसको क्या कहता। ज्यादा कुछ न कहकर बस इतना ही कह पाया कि सारे जरूरी काम निपटा लो।
करीब एक माह बाद रणधीर गांव से लौटा। चेहरे पर परेशानी देखकर मैंने हौसला बढ़ाया और कहा कि यह सब एक दिन होना ही था। यह जिंदगी की कड़वी हकीकत है। खैर, रणधीर ने पिताजी की मौत के गम को कभी अपने काम पर हावी नहीं होने दिया और उसी उत्साह एवं अंदाज में उसने काम शुरू कर दिया। कम उम्र में पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद होने वाली पीड़ा को बखूबी समझा जा सकता है लेकिन इस मामले में रणधीर ने बड़ी हिम्मत दिखाई दिया। उसने अपनी पीड़ा को जैसे अंदर ही अंदर समेट लिया हो। कार्यालय में मैंने उसको कभी उदास नहीं देखा। उसी जिंदादिली के साथ वह काम करने लगा।
अचानक एक और खबर से रणधीर टूट गया। मेरा तबादला हो गया, यह सुनकर वह उदास हो गया। बोला सर, हम अब काम नहीं करेंगे। आप जा रहे हैं तो हम भी बिहार चले जाएंगे। मैंने उसको बताया कि नौकरी में यह सब चलता रहता है। काम तो करना ही है कहीं भी कर लो। दिलासा देने के बाद रणधीर कुछ शांत हुआ। पांच जुलाई शाम को कम्प्यूटर पर बैठा था। नेट चालू किया तो देखा कि रणधीर ऑनलाइन है। दोनों के बीच नेट पर चेटिंग का सिलसिला एक बार शुरू क्या हुआ फिर खत्म होने का नाम ही नहीं लिया। दोनों के बीच हुई बातचीत को मैंने हुबहू मेल आईडी में सेव कर लिया। हमारे बीच का वार्तालाप तो देखिए....
मैं- क्या चल रहा है?
रणधीर-सर अब तो काम करने की इच्छा ही नहीं हो रही है। बाकी बस बढ़िया हैं सर। बिलासपुर कब आ रहे हैं।
मैं-क्यों ऐसा क्या हो गया है।
रणधीर-कुछ नहीं सर, आप चले गए तो अब क्या है।
मैं-काम करने की इच्छा क्यों नहीं हो रही? मैं क्या करता था। जो आप करते थे, वही अब कर रहे हो।
रणधीर-नहीं सर।
मैं-क्यों अब काम नहीं हो रहा क्या?
रणधीर- नहीं सर, कर रहा हूं, बट सर पहले जैसी बात नहीं है। अब तो सर ऑफिस आने की इच्छा भी नहीं होती है।
मैं-काम तो वही है, मैं ही बदला हूं।
रणधीर- जब आप बदल गए तो काम करने की इच्छा भी बदल ही जाएगी सर।
मैं-सोचो, कोई जन्मभर का साथ थोड़े ही निभाता है। अपना साथ इतना ही था, अब काम में मन लगाओ।
रणधीर- बट सर, कुछ लोग होते हैं, जिनकी याद कभी नहीं जाती।
मैं-याद करने से कौन रोक रहा है।
रणधीर- नहीं सर, बट सर अच्छा नहीं लग रहा है। ऐसा लगता है कि जॉब कर रहे हैं। आप थे तो घर जैसा लगता था सर।
मैं- कुछ दिन की बात है, फिर सब ठीक हो जाएगा।
रणधीर- नहीं होता है, सर। जो बात आपके साथ थी, वो अब कहां मिलने वाली है सर।
मैं-वक्त सब ठीक कर देगा। उम्मीद रखो। जो हुआ अच्छा हुआ और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा।
रणधीर- वो तो आपका आशीर्वाद जब तक रहेगा तब तक अच्छा ही रहेगा सर।
मैं-मैं कहीं भी रहूं। मेरा आशीर्वाद रहेगा आपके साथ। काम तो करना ही पड़ेगा, जिंदगी पड़ी है सामने।
रणधीर- जी सर, बट सर, आपकी याद बहुत आती है सर।
मैं-जी लगाकर काम करो। कोई दिक्कत हो तो मुझे याद कर लेना। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
रणधीर- जी सर।
मेरे पास काम आ गया और चेटिंग का सिलसिला थम गया। बिलासपुर से भिलाई आए हुए आज तीसरा दिन ही था। मैं सोच रहा था कि पिताजी के देहांत से जरा सा भी विचलित न दिखाई देने वाला रणधीर मेरे तबादले से यकायक कितना भावुक हो गया। शायद मेरी उपस्थिति उसको संबल प्रदान करती थी। मेरे आने के बाद वह खुद को अकेला समझने लगा। खैर, रणधीर को मैंने कर्मचारी ना समझ कर हमेशा छोटे भाई की तरह समझा। 23 की उम्र में ही घर से बाहर आ गया वह। बिलासपुर में कौन था उसका। बस स्नेह व अपनेपन से उससे बतिया लेता तो उसको लगता कि कोई अपना तो है। रणधीर को मैं भुला नहीं पाऊंगा कभी। सच में। जवानी में ही पहाड़ सी जिम्मेदारियों का बोझ ढोने वाले रणधीर के लिए मेरे पास असीम शुभकामनाएं हैं। वह आगे बढ़े और प्रगति करे।