Wednesday, November 7, 2012

ऐसा भी होता है


बस यूं ही...
 

सुबह बिस्तर से उठने के बाद लघुशंका के लिए बाथरूम में घुसा ही था कि मोबाइल की घंटी बज गई। वापस लौटा तब तक कॉल पूरी हो चुकी थी। मोबाइल देखा तो फोन झुंझुनू के परिचित का था। मैंने वापस फोन लगाया और फिर रोज की तरह बातों का सिलसिला लम्बा खींच गया। बातों ही बातों में एक ऐसी बात सामने आ गई, जिसको सुनकर मैं जोर-जोर से हंसने लगा। अब भी वह बात याद आ रही है तो हंसी छूट रही है। खैर
मुख्य बात पर लौटता हूं...। झुंझुनू के परिचित महेश से हालचाल पूछने के बाद मैंने पूछा और कोई खास समाचार है क्या? तो उसने बड़ी तल्लीनता एवं सहज भाव से एक घटनाक्रम के बारे में बिना कोई भूमिका बांधे विस्तार से बताना शुरू किया। शुरू में तो मुझे भी पता भी नहीं था कि महेश का यह घटनाक्रम क्लाइमेक्स पर पहुंचते-पहुंचते यू टर्न ले लेगा, क्योंकि उसने घटनाक्रम कुछ ऐसे ही अंदाज में शुरू किया था, आप भी देखिए.... बोला भाईसाहब मंगलवार रात को एक दोस्त के साथ पिलानी चला गया। वहां इन दिनों सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा है। हम दोनों सांस्कृतिक कार्यक्रम की उम्मीद लेकर ही गए थे लेकिन वहां जाने के बाद पता चला कि आज तो कवि सम्मेलन हो रहा है। चूंकि कार्यक्रम विद्यार्थियों के द्वारा ही आयोजित था, इसलिए सार्वजनिक नहीं था। हां बाहर का कोई व्यक्ति देखने जाए तो उसके लिए टिकट लेना अनिवार्य था। हमने भी चार सौ-चार सौ रुपए की दो टिकट ले ली और हॉल के अंदर चले गए। महेश ने बताया कि हॉल में घुसने से पहले उन्होंने पिलानी के अपने एक और परिचित को बुला लिया था। उसके आने के बाद तीनों हॉल के अंदर चले आए। जब तीनों हॉल में घुसे तो वहां खामोशी पसरी थी लेकिन अंदर का माहौल देखकर महेश हतप्रभ था। दर्शकों में सभी युवा थे। कई युगल तो दीन ओर दुनिया से बेखकर बिलकुल अपने ही अंदाज में मस्त थे। इसके बाद कवि सम्मेलन शुरू हुआ तो महेश और उसके साथी तीनों आपस में एक दूसरे का मुंह ताकने लगे जबकि दर्शक जोर-जोर से हंस रहे थे। तीनों यह तो समझ गए कि मंच पर कवि ने जरूर कोई चुटकुला सुनाया है, इसलिए दर्शक हंस रहे हैं। इसके बाद महेश एवं उसके पिलानी वाले दोस्त ने तय किया है कि भले ही कवि का सुनाया उनके समझ में आए या ना आए लेकिन दर्शक को देख कर वे भी उनके साथ-साथ हंसेंगे ताकि दूसरों के लगे कि वे भी कार्यक्रम का आंनद उठा रहे हैं। लेकिन बनावटी हंसी भला कब तक चलती। पांच-सात मिनट बाद महेश का धैर्य जवाब दे गया। वह अपने झुंझुनू वाले मित्र से बोला, आपको कुछ समझा में आ रहा है क्या? इस पर महेश के दोस्त ने हां कहने के अंदाज में सिर हिलाया। दोस्त का जवाब सुनकर महेश अपने पिलानी वाले दोस्त के साथ बाहर आ गया। थोड़ी देर बाहर लॉन में घूमता रहा। अचानक महेश की नजर अपने झुंझुनू वाले मित्र पर पड़ी। वह भी निराश भाव से हॉल बाहर आ गया था। इसके बाद दोनों ने पिलानी वाले दोस्त से अनुमति ली और झुंझुनू के लिए रवाना हो गए।
मैंने पूछा कि आपने चार सौ-चार सौ रुपए टिकट लिए इसके बावजूद इतनी जल्दी क्यों लौट आए? आप तो कवि सम्मेलनों के शौकीन हो। आपको तो पूरे कवि सम्मेलन का आंनद उठाना चाहिए था। मेरा इतना कहते ही महेश जोर से बोला. आनंद कहां से उठाते... कवि सम्मेलन अंग्रेजी में था और सारे कवि अपनी रचनाएं अंग्रेजी में ही सुना रहे थे। हमारे कुछ समझ में नहीं आया। बाकी दर्शक हमको मूर्ख ना समझ लें इसलिए हमको उनको देख कर उनके साथ ठहाके लगा रहे थे। मैंने कहा जब आप बाहर आए तो आपका झुंझुनू वाला मित्र क्यों नहीं आया तो महेश ने कहा कि उसने पहले बताया कि उसको अंग्रेजी समझ में आती है लेकिन हकीकत यह थी कि उसने जोश-जोश में अंग्रेजी की बात कह तो दी कि लेकिन उसका हाल भी हमारे जैसा ही था, इसलिए थोड़ी देर बाद वह भी बाहर चला आया। महेश के मुंह से समूचा घटनाक्रम सुनने के बाद मेरी हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वह बोला ठीक है भाईसाहब आपका सब कुछ बता दिया इसलिए आप हंस रहे हो। आप भी मजे ले लो, कोई बात नहीं। मैंने कहा कि बात तो मजे वाली ही है, इसलिए ले रहा हूं। जब मैंने उसको कहा कि इस घटनाक्रम पर मैं ब्लॉग लिखूंगा तो महेश यकायक सुरक्षात्मक अंदाज में आकर गिड़गिड़ाने लगा। बोला प्लीज भाईसाहब मैं आपसे निवेदन करता हूं आप ऐसा मत करना। मेरी इज्जत का कुछ तो ख्याल करो। मैंने कहा कि इज्जत का तो पूरा ख्याल है लेकिन मामला रोचक है, इसलिए मैं इस पर कुछ न कुछ तो लिखूंगा। उसने बार-बार निवेदन किया और मुझको ऐसा करने के लिए मना करता रहा। आखिरकार एक रास्ता मैंने ही निकाला और उसको कहा कि ठीक है मैं तेरी इज्जत का पूरा ख्याल रखूंगा। मैं ऐसा करता हूं कि तेरे नाम की जगह काल्पनिक नाम रख दूंगा। मेरे इस सुझाव पर वह सहमत हो गया। हालांकि उसने मेरे सुझाव पर भी सवाल उठाया और बोला कि आखिर परिचित लोग तो उसको काल्पनिक नाम से भी पहचान लेंगे। वैसे आप समझ गए होंगे मेरे परिचित का हकीकत में नाम दूसरा है। उससे वादा किया था, इसलिए महेश उसका काल्पनिक नाम है। खैर, यह वाकया याद आते ही चेहरे पर मुस्कान फैल जाती है। इसलिए नहीं कि चार-चार सौ रुपए देने के बाद भी वे कवि सम्मेलन का लाभ नहीं उठा सके, बल्कि इसलिए कि महेश अपने आप को बहुत ज्यादा स्मार्ट समझता है। बस यही सोच के हंस रहा हूं कि उसकी होशियारी यहां काम क्यों नहीं आई। हर काम ठोक बजाकर कहने की बात कहने वाले महेश ने टिकट लेते समय पूछ लिया होता तो शायद वह कवि सम्मेलन में कभी नहीं जाता। वैसे महेश के लिए यह टेंशन वाली बात इसलिए भी नहीं है क्योंकि टिकटों का भुगतान उसकी जेब से ना होकर उसके झुंझुनू वाले मित्र ने किया था। बात पैसे लगने का नहीं होकर महेश की समझदारी की थी और ज्यादा होशियारी ही उस पर भारी पड़ गई। मुझे उसकी होशियारी पर अब हंसी आ रही है। बहुत ज्ञान बांटता है वह। हर किसी को ही बेवजह और बेमतलब।