Friday, December 21, 2012

जिम्मेदारी को समझें


टिप्पणी 

 
हमारी फितरत ही कुछ ऐसी है कि हमें केवल तात्कालिक हादसों पर ही गुस्सा आता है। कभी-कभी तो हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि तोडफ़ोड़ करने से भी नहीं चूकते। दिल्ली में मेडिकल छात्रा से हुए गैंगरेप का मामला भी कुछ इसी तरह का है। समूचे देश में सड़क से लेकर संसद तक बवाल मचा हुआ है। शर्मसार करने वाले इस वाकये की निंदा दुर्ग-भिलाई में भी हो रही है, लेकिन जैसा गुस्सा और आक्रोश देश के बाकी हिस्सों में दिखाई दिया वैसा यहां नहीं दिखा। और जो थोड़ा बहुत गुस्सा कहीं दिखा, वह भी तात्कालिक ही है। वैसे दुर्ग व भिलाई के लोग न केवल स्थानीय बल्कि देश-विदेश की गतिविधियों पर प्रतिक्रिया स्वरूप अजीबोगरीब प्रदर्शन कर ध्यान बंटाते रहते हैं, लेकिन गैंगरेप मामले में एक दो कागजी बयान एवं कैंडलमार्च को छोड़कर कुछ नहीं हुआ। क्या दोनों शहरों में ऐसे जागरूक लोग व संगठन नहीं हैं, जो इस अत्याचार के खिलाफ इतनी आवाज बुलंद करें कि उसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई दे और यहां भी कोई इस प्रकार का कृत्य करने की सपने में भी ना सोचे। बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं रहा है। तभी तो दोनों शहरों में बेटियों से अनाचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। दुर्ग जिले में इस साल अब तक अस्मत लुटने के छह दर्जन से अधिक मामले दर्ज हो चुके हैं जबकि छेड़छाड़ की घटनाएं तो डेढ़ सौ के पार हो गई। यह तो वे मामले हैं जो पुलिस के पास पहुंचे और दर्ज हुए। वरना बहुत से मामले कभी संस्कारों के नाम पर, कभी गरीबी के नाम पर तो, कभी सत्ता पक्ष के दबाव के चलते तो कभी मजबूरी के चलते दबा दिए जाते हैं। और फिर कोई विरोध भी नहीं जताता। आम लोगों की चुप्प्पी के साथ-साथ नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों का हाल भी एक जैसा ही है। कमोबेश यही हालात पुलिस की है। हाल ही में भाई-बहन के अपहरण के प्रयास में प्रयुक्त गाड़ी बिना नम्बर की थी और उसके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी थी। अपहर्ताओं में से एक ने नकाब भी बांध रखा था। गाडिय़ों तथा शीशों की जांच नियमित होती तो क्या ऐसे वाहन सड़कों पर नजर आते? अपहर्ताओं में एक नकाबपोश क्या नजर आया अब सड़क पर चलने वाला हर नकाबपोश ही पुलिस की नजरों में संदिग्ध हो गया है। इस मामले में पुलिस शुरू से ही गंभीर होती तो क्या आज ऐसे अभियान चलाने की जरूरत पड़ती? भिलाई की पहचान शिक्षानगरी के रूप में है। यहां बाहर से बड़ी संख्या में विद्यार्थी अध्ययन करने आते हैं। शहरवासियों व सामाजिक संगठनों की चुप्पी तथा पुलिस की उदासीनता से निसंदेह अपराधियों के हौसले बढ़ेंगे। फिर ऐसे माहौल में कोई यहां क्यों व किसलिए आएगा, समझा जा सकता है।
बहरहाल, हम सभी हादसों को जल्दी भूल जाने की बीमारी से ग्रसित हैं। इसलिए सबसे पहले याददाश्त दुरुस्त करने की जरूरत है। न केवल आम आदमी को बल्कि पुलिस और नारीवादी स्वयंसेवी संगठनों को भी। यकीन मानिए सभी ने अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी तो दुर्ग को 'दिल्ली' बनते देर नहीं लगेगी। बदकिस्मती से ऐसा हुआ तो शिक्षा के मामले में अव्वल शहर की शान पर ऐसा धब्बा लग जाएगा जो लाख चाहने के बाद भी मिट नहीं पाएगा।



साभार - पत्रिका भिलाई के 21 दिसम्बर 12 के अंक में प्रकाशित।