Wednesday, June 27, 2012

शहरहित में जरूरी है एकजुटता


टिप्पणी

तीन साल से बिलासपुर के लोग सीवरेज से परेशान हैं, लेकिन कोई बोल तक नहीं रहा था। न कोई आंदोलन न कोई जनजागरण। पक्ष- विपक्ष की तरफ से भी कोई बयान नहीं आया। जो कुछ था वह अंदर ही अंदर सुलग रहा था। टिकरापारा में हुए हादसे ने आग में घी का काम किया और लोगों को एक जोरदार मुद्‌दा हाथ लग गया। रातोरात कई संगठन बन गए। आंदोलन का शंखनाद हो गया। मंत्री-मेयर के खिलाफ मोर्चे खुल गए। जनजागरण अभियान तक शुरू हो गए। वैसे देखा जाए तो बिलासपुर में यह काम बखूबी होता है। कोई भी हादसा या दुर्घटना होने के बाद उसके विरोध में आंदोलन करने के लिए कोई न कोई संगठन या कमेटी का जन्म जरूर हो जाता है। एसपी राहुल शर्मा के मामले में भी एक ऐसा ही संगठन पैदा हुआ था। सोशल साइट पर दिवंगत एसपी के समर्थन में एक मुहिम चली, लेकिन उसका हश्र क्या हुआ सब जानते हैं। ऐसा पहले भी कई मामलों में हुआ है, जब इन मौसमी संगठनों की बुनियाद रखने वालों ने तात्कालिक लाभ उठाते हुए बहती गंगा में हाथ धो लिए।
जनता का क्या, वह तो वैसे ही परेशानी के भंवर में फंसी है। वह भले-बुरे का अंतर न समझते हुए आंदोलन की मुहिम में शामिल हो जाती है। और जब तक उसको आंदोलन की वजह समझ में आती है तब तक सारा खेल हो चुका होता है। देखा जाए तो आंदोलनों को लेकर बिलासपुरवासियों के  अनुभव खराब ही रहे हैं, लिहाजा लोग आंदोलन में जुड़ने से डर रहे हैं। विश्वास उठा हुआ है उनका, क्योंकि अक्सर आंदोलनों के सूत्रधार दवाब बनाकर अपना हित साध लेते हैं, समझौता तक कर लेते हैं। और आंदोलन में समर्थन करने वालों के हाथ कुछ नहीं आता। दूध का जला छाछ को फूंक कर पीता है। यही बात बिलासपुर के लोगों पर लागू होती है। सीवरेज पर जनजागरण शुरू हुआ है, लेकिन जैसी परेशानी लोग झेल रहे हैं, उसके अनुरूप इस मुहिम से जुड़ नहीं पा रहे हैं।
वैसे जनता का आक्रोश को देखते हुए पक्ष-विपक्ष के लोगों को बैठे बिठाए मुद्‌दा मिल गया है। रोज एक से एक नायाब बयान जारी हो रहे हैं। समाचार पत्रों के माध्यम से संवेदनाएं व्यक्त हो रही हैं। जनता के बीच जाने तक ही हिम्मत नहीं हो रही है। जनप्रतिनिधि कहलाते हैं, लेकिन जन से ही डर रहे हैं। लोग गुस्से में हैं। पता नहीं क्या कर बैठें।  ऐसे में सवाल उठता है कि बयानों और आश्वासनों के माध्यम से जनता को आखिर कब तक बहलाया जाता रहेगा।
बहरहाल, सीवरेज के खिलाफ आंदोलन अच्छी शुरुआत है, बशर्ते इसका हश्र पिछले आंदोलनों जैसा न हो और इसमें किसी प्रकार की राजनीति न हो। बार-बार आंदोलनों की राजनीति से मार खाए लोग फिलहाल फूंक-फूंक कर कदम उठा रहे हैं। अगर वाकई आंदोलन के पीछे मतलब के बजाय सिर्फ और सिर्फ जनहित व शहरहित है तो लोगों को इस आंदोलन में साथ देना चाहिए।  भले ही समर्थन देने से पहले वे आंदोलन करने वालों की पृष्ठभूमि का पता लगा लें, ताकि बाद में ठगे जाने का अंदेशा ना रहे। मामला विकास से जुड़ा है, इसमें राजनीति न होकर केवल शहर हित की बात हो। सीवरेज के खिलाफ भले ही अलग-अलग विचारधारा के लोग हों लेकिन बिना किसी लागलपेट के शहरहित में एकमंच पर आने में संकोच नहीं करना चाहिए। शहरहित में एकजुटता जरूरी भी है तभी यहां के जनप्रतिनिधियों के बात अच्छी तरह से समझ में आएगी। आंदोलन के साथ-साथ सीवरेज की खामियों, अनियमितताओं और सीवरेज जनित हादसों के दोषियों के खिलाफ अगर सिलसिलेवार एफआईआर भी दर्ज हो तो इसमें किसी प्रकार कोताही नहीं बरती जानी चाहिए।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 27 जून 12 के अंक में प्रकाशित।

Monday, June 18, 2012

सीवरेज पर सियासत कब तक


टिप्पणी

शहर में बारिश से निपटने की तैयारी कैसी है, इस बात का अहसास उन लोगों को बखूबी हो गया होगा, जो रविवार को मामूली बूंदाबांदी से ही हलकान हो उठे। यकीनन इस बार की बारिश बिलासपुर पर बहुत भारी पड़ने वाली है। यह भविष्यवाणी नहीं बल्कि हकीकत है और इसकी झलक दिखाई देने भी लगी है। जरा सी बूंदाबांदी ने शहरवासियों को भावी खतरे से आगाह  कर दिया है। चिंतनीय विषय यह है कि मामूली बारिश ने ही लोगों का घरों से निकलना मुश्किल कर दिया है। भारी बरसात के दौरान क्या होगा, सोच कर आमजन भयभीत है। सीवरेज की खुदाई से उखड़ी सड़कों पर बिछाई गई मुरुम व मिट्‌टी बारिश की बूंदों से फिसल पट्‌टी में तब्दील हो गई हैं। जिधर देखो उधर कीचड़ ही कीचड़ है या सड़कों पर बने गड्‌ढ़ों में पानी भरा है। हालात इस कदर खराब हैं कि लोगों को निकलने के लिए ठीक से रास्ता तक नहीं मिल  पा रहा है। निगम भले ही दावों की दुहाई दे, इंतजामों की बात करें लेकिन दावे और इंतजाम कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। समूचा शहर बदइंतजामी का शिकार है। हर जगह सीवरेज के गड्‌ढ़े व उखड़ी सड़कें शहर की बदहाली को बयां कर रहे हैं। लोग कीचड़ से होकर गुजर रहे हैं। फिसल रहे हैं और व्यवस्था को कोस रहे हैं। खैर, हल्की बारिश ने खतरे की घंटी बजा दी है और यह भी बता दिया है कि निगम के दावों में दम कतई नहीं है। अगर आप निगम के दावों पर भरोसा कर भी रहे हैं तो यह आपके लिए जानलेवा साबित हो सकता है।
 देखा जाए तो बुनियादी सुविधाओं तक को तरसने वाले बिलासपुर में विकास कम सियायत ही ज्यादा हो रही है। शहर के नेताओं ने पता नहीं क्यों आंखों पर पट्‌टी बांध रखी है जो उनको शहर की दुर्दशा दिखाई नहीं देती है। कानों में भी पता नहीं क्या डाल रखा है जो लोगों की पीड़ा सुनाई नहीं देती है। शहर की समस्याओं के लिए आंदोलन की घोषणा करने वाले भी लगता है  अज्ञातवास पर चले गए हैं। शहरवासी संकट में हैं लेकिन अब उनका कोई बयान तक नहीं आ रहा है। कल परसों चक्काजाम की चेतावनी देने वाले, कलक्टर को ज्ञापन देने वाले यकायक खामोश हो गए तो वार्डों-वार्डों में धरना देने वाले भी पता नहीं अचानक कहां भूमिगत हो गए हैं। इन घटनाक्रमों से इतना तो तय है कि शहर के नेता सिर्फ श्रेय लेने या सस्ती लोकप्रियता हासिल करने तक ही सीमित हैं, शहर की जनता से उनको कोई मतलब नहीं है। वैसे भी नेताओं के भरोसे रहकर आश्वासनों की रेवड़िया एवं वादों के लॉलीपाप के सिवाय कुछ हासिल नहीं होने वाला, क्योंकि शहर में विकास के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकने का काम ही ज्यादा हो रहा है। आमजन की चुप्पी का फायदा नेता लोग बखूबी उठा रहे हैं। यह लोग महज दिखावे के नाम पर एक दूसरे से खिलाफ लड़ रहे हैं, बयान जारी कर रहे  हैं लेकिन पर्दे के पीछे तालमेल भी उतना ही है। जनता को विकास के नाम पर बेवकूफ बनाना किसी नौटंकी से कम नहीं है।
बहरहाल, शहरवासियों ने सब्र भी खूब रखा और जनप्रतिनिधियों पर विश्वास भी उतना ही किया लेकिन अब सब्र जवाब देने लगा है और विश्वास उठ रहा है। एकजुटता के साथ जब तक आवाज नहीं उठेगी तब तक परेशानी का भंवर कम नहीं होगा। ज्यादा नहीं तो इस बात का संकल्प जरूर कर लिया जाए कि सीवरेज पर सियासत करने वालों को उचित समय आने पर मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। आखिरकार आश्वासन देने वालों और विकास के नाम पर सियायत करने वालों को आइना दिखाना भी तो जरूरी है।


साभार - पत्रिका बिलासपुर के 18  जून 12  के अंक में प्रकाशित।



Thursday, June 14, 2012

तेरी महफिल में मगर हम ना होंगे

स्मृति शेष
विडम्बना देखिए कभी 'मोहब्बत करने वाले कम ना होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम ना होंगे' जैसी गजल को अपनी आवाज देने वाले मेहदी हसन पर इस गजल के बोल ही मौजूं हो गए। वैसे उनकी रुमानी आवाज एवं गजलों के मुरीद लाखों हैं, लेकिन उनके इस दुनिया से रुखसत होने के बाद उनके प्रशंसकों की संख्या में और भी इजाफा हो गया है। बीमारी से लम्बे संघर्ष के बाद उन्होंने बुधवार दोपहर को अंतिम सांस ली। उनके इलाज के लिए राजस्थान सरकार ने भी पेशकश की थी लेकिन यह काम बहुत देरी से हुआ। चिकित्सकों ने नासाज तबीयत देखते हुए उनको बाहर जाने की इजाजत नहीं  दी। हकीकत में उस वक्त हसन ऐसी स्थिति में थे भी नहीं कि वे भारत आकर इलाज करवाते। वे 12  साल से फेफड़ों में संक्रमण से जूझते रहे, लेकिन उनके इलाज को लेकर शायद ही कोई पेशकश हुई हो। अब उनके जाने के बाद उनकी यादों को चिरस्थायी बनाने के जतन किए जा रहे हैं। उनके पैतृक गांव लूणा में उनकी प्रतिमा लगाने की बात भी कही जा रही है। यह भी एक संयोग ही है कि लूणा गांव की याद भी हसन के जाने के बाद ही आ रही है।
राजस्थान के झुंझुनूं जिला मुख्यालय से करीब 15  किलोमीटर की दूरी पर स्थित है लूणा गांव है। 18  जुलाई 1927  को इस गांव में पैदा होने के बाद हसन भारत-पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। हसन जैसे बड़े फनकार को पैदा करने का गौरव हासिल करने वाला लूणा गांव आज भी विकास की मुख्यधारा से कटा हुआ है। जिस गांव का नाम हसन ने समूची दुनिया में रोशन किया, उस गांव की कद्र सरकार ने कभी नहीं ली। लूणा गांव में पक्की सड़क भी इस वक्त बनी जब मेहदी हसन लूणा आए थे।  इतना ही नहीं उसी वक्त हसन ने अपने अपने दादा इमाम खान व मां अकमजान की मजारों की मरम्मत करवाई थी। गांव में उनके आगमन पर लड्‌डू भी बंटे थे। फिलहाल रखरखाव के अभाव में दोनों मजारें जीर्ण-शीर्ण हो चुकी हैं। गांव के स्कूल की बगल में बनी यह मजारें अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही हैं। इनकी खैर-खबर लेने वाला गांव में कोई नहीं है। दुखद विषय है कि हसन की वजह से प्रसिद्धि पाने वाले लूणा गांव में सरकार से और कोई बड़ा काम नहीं हुआ। उनको यादों को सहेजने या चिरस्थायी बनाने की पहल भी कभी नहीं हुई। अगर सरकार हसन के जीते जी लूणा के लिए कुछ कर पाती तो इस महान फनकार को कितनी खुशी मिलती कल्पना नहीं की जा सकती। एक तरफ सरकार की बेरुखी देखिए और दूसरी तरफ हसन का मातृभूमि के प्रति प्रेम। सन 1978  में वे एक कार्यक्रम के सिलसिले में जयपुर आए तो उन्होंने लूणा जाने की इच्छा जाहिर की। लूणा में प्रवेश करते हुए हसन इतने भावुक हो गए कि गाड़ी से उतर कर टीले की बलुई रेत में लौटने लगे। मातृभूमि से बिछुड़ने के गम में भाव विह्वल हसन को देख वहां मौजूद लोगों की आंखें भी नम हो गई थी।
बहरहाल, राज्य सरकार वाकई गंभीर है और इस फनकार के लिए कुछ करना चाहती है तो उसकी याद में कुछ ऐसा हो जिस पर आने वाली पीढ़ियां भी फख्र करें। लूणा की मिट्‌टी में पैदा होकर उसकी खुशबू दुनिया में फैलाने वाले हसन के लिए यही सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी। हसन की बीमारी में उनकी सलामती  के लिए दुआ एवं प्रार्थना करने वालों की तो दिली ख्वाहिश है कि लूणा में हसन की याद में संगीत अकादमी की स्थापना हो। वैसे मांग जायज भी है क्योंकि गंगा-जुमनी संस्कृति के संवाहक तथा साम्प्रदायिक सद्‌भाव की मिसाल झुंझुनूं से मुफीद जगह शायद ही हो। हसन के इलाज की पेशकश करने वाली राज्य सरकार अगर हसन की याद में लूणा में संगीत अकादमी की घोषणा करती है तो संगीत प्रेमियों से लिए इससे बड़ी सौगात और हो भी नहीं सकती।

नोट : फोटो कैप्शन- लूणा स्थित मेहदी हसन के परिजनों की मजार, जो रखरखाव के अभाव में जर्जर हो गई है। गांव में इनकी सारसंभाल करने वाला कोई नहीं है।



Thursday, June 7, 2012

मशीन खराब है...

बातचीत के दौरान अक्सर यह जुमला सुनने को मिल जाता है कि भगवान ने तो सिर्फ मनुष्य ही बनाया लेकिन मनुष्य ने न जाने कितने ही प्रयोग करके नई-नई तकनीकें ईजाद कर दी।  वैसे भी यह कहा गया है और माना भी गया है  कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जब-जब मनुष्य को किसी वस्तु की जरूरत महसूस हुई तो उसने उस दिशा में सोचा और फिर आवश्यकताओं की पूर्ति भी की। खैर, जिस संदर्भ में यह भूमिका बांधी गई है वह ज्यादा बड़ी तो नहीं है लेकिन इसके पीछे जो दिमाग लगा उसने वाकई सोचने पर मजबूर कर दिया। जी हां, बात रात को एटीएम पर तैनात रहने वाले चौकीदार की है। बिलासपुर की चिपचिपाहट भरी गर्मी के मौसम में रात भर खड़े होकर ड्‌यूटी देना बड़ा मुश्किल काम है, हालांकि कुछ एटीएम में चौकीदार के अंदर बैठने की व्यवस्था भी होती है। एसी के अंदर बैठने पर चौकीदार को न तो गर्मी लगती है और वह बैठे-बैठे झपकी भी ले लेता है। लेकिन यहां जिस चौकीदार एवं एटीएम का जिक्र है, उसकी कहानी कुछ अलहदा है। बिलासपुर के लिंक रोड पर स्थित एक एटीएम के अंदर चौकीदार के बैठने की व्यवस्था नहीं है, हालांकि अंदर काफी जगह है, उसमें चौकीदार बैठ ही नहीं बल्कि आराम से लेट भी सकता है। संबंधित बैंक प्रबंधन ने शायद सोचा होगा कि चौकीदार कहीं अंदर बैठ कर सो ना जाए लिहाजा, उसके लिए अंदर बैठने की कोई व्यवस्था रखी ही नहीं गई। लेकिन चौकीदार, बैंक प्रबंधन से दो कदम आगे निकला। चौकीदार ने जो तरीका खोजा उसके आगे बैंक प्रबंधन की सोच पानी भरते नजर आ रही है। चौकीदार ने आराम से सोने का एक अजीब सा तरीका खोज निकाला। उसने एक गत्ते पर सफेद कागज चिपका कर उस पर 'मशीन खराब है'  लिखा और एटीएम के दरवाजे पर टांग दिया। यह काम वह रोज रात को करने लगा। बाहर वह यह सूचना टांग देता और अंदर से आराम से खर्राटे भरता। शुरुआत में मैंने सोचा कि वाकई मशीन खराब हो गई होगी लेकिन सुबह जब एटीएम पर लोगों को पैसा निकालते देखा तो मेरे सारा माजरा समझ में आ गया। रातोरात मशीन ठीक होना संभव भी नहीं है। अब यह काम उस चौकीदार के लिए रोजमर्रा का हिस्सा बन चुका है, हालांकि दिन में बैंक खुलता है, ऐसे में यह काम संभव नहंी हैं। रात को कोई देखता नहीं है, लिहाजा तख्ती लटका दी जाती है। रात को कोई उपभोक्ता आता है तो दूर से ही तख्ती देखकर वापस चला जाता है। मैं रोज रात को इस एटीएम के आगे से गुजरता हूं और उसके अंदर सोए चौकीदार को देखता हूं तो मुस्कुराए बिना नहीं रहता। वैसे कुछ बैंक की तरफ से एटीएम के अंदर सीसी कैमरे भी लगवाए जाते हैं। अगर इस मामले में बैंक प्रबंधन सोच ले तो शायद चौकीदार भी कोई नया तरीका खोज  ले। बहरहाल, चौकीदार के इस तरीके से बैंक अनजान हैं और चौकीदार मजे से एटीएम के अंदर लगे एसी कीहवा में आराम से चैन की नींद सोकर अपनी ड्‌यूटी निभा रहा है।