Friday, November 30, 2012

...मिलग्यो... मिलग्यो



बस यूं ही

सूचना एवं प्रौद्योगि
की क्रांति के चलते आज मोबाइल फोन रोजमर्रा की जरूरत बन गया है। विशेषकर युवा वर्ग तो इसके बिना खुद को अधूरा पाता है। मेरी धर्मपत्नी का हाल भी कुछ ऐसा ही है। शुक्रवार रात पौने दस बजे अचानक मेरा मोबाइल बजा। उस वक्त मैं कार्यालय में अपने कक्ष से बाहर था। आकर चैक किया तो स्क्रीन पर नम्बर दिखाई दिए। अपनी आदत के अनुसार मैंने वापस कॉल किया तो चौंक गया। सामने से आवाज श्रीमती की थी। अजनबी नम्बर से श्रीमती का फोन देखकर मैं समझ तो गया था कि कहीं न कहीं गड़बड़ तो हो गई। खैर, जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ। सामने से धर्मपत्नी की बिलकुल घबराई हुई सी आवाज आई। मुझसे बोली मेरा फोन नहीं मिल रहा है। आप एक बार फोन पर घंटी करो, शायद बज जाए। मैंने तत्काल फोन काट कर श्रीमती के फोन पर डायल किया तो वह स्विच ऑफ बता रहा था। मैंने पलटकर फोन किया और श्रीमती को बताया कि आपका फोन तो बंद है। मेरा जवाब सुनकर श्रीमती एकदम निराश हो गई। बोली आज तो फोन गया। नीचे बैठी थी, बच्चों के साथ, शायद वहीं भूल गई और कोई ले गया। लम्बी सांस छोड़ते हुए वह फिर बोली, हाय राम उसने बंद भी कर लिया, मतलब चोरी हो गया मेरा फोन। पत्नी के जवाब पर मैं भी अवाक था और मन ही मन गुस्सा भी। मैंने उसको फोन पर हल्का सा डांट भी दिया कि ध्यान क्यों नहीं रखा। आपने लापरवाही की है, इसलिए उसका परिणाम भी भोगो। यह अलग बात है कि मेरे मन में भी उम्मीद थी कि शायद कहीं रखकर भूल गई होगी। उसकी भूलने की आदत है और अक्सर चीजें रखकर भूल जाती है। तभी तो मैंने उसको बताया कि घर में ढूंढ लो, शायद मिल जाएगा। मेरा इतना कहते ही फोन कट गया। यह भी हो सकता है कि श्रीमती ने मेरे को फोन करने से पहले मोबाइल की तलाश अपने स्तर पर की हो। उसने जिस फोन से मेरे को फोन किया उसी फोन से अपने नम्बर पर भी किया हो। किसी तरह का हल न निकलने पर ही उसने मेरे को फोन किया हो। दूसरा यह भी हो सकता है कि उसको राजस्थान वाले नम्बर याद ना हो क्योंकि उसका उपयोग यहां कम ही होता है। ऐसे में आखिरी विकल्प मैं ही था। मेरे पास श्रीमती के दोनों नम्बर सेव हैं।
मैं श्रीमती की पीड़ा भली भांति महसूस कर ही रहा था कि तत्काल अतीत जिंदा हो गया। पांच साल पहले झुंझुनू कार्यालय में मेरी टेबल पर रखा नया मोबाइल किसी ने बड़ी ही सावधानी के साथ पार कर दिया था। नया नया ही तो खरीदा था। बड़े ताने सुनने के बाद। पांच-छह साल तक तो नोकिया के 3310 मॉडल से ही काम चलाया। बेचारा कितना साथ निभाता खराब हो गया, तो जुगाड़ से चलाया। बैटरी खराब हुई तो वह भी बदल ली। एक दिन आफिस में बैटरी लॉ होने की समस्या ढूंढने के लिए खुद ही मैकेनिक बन गया। अचानक हाथ से छूटा और ऐसा टूटा कि फिर ठीक ही नहीं हुआ। दुकान पर गया नया मोबाइल लेने तो साथ वाले ने कहा कि भाईसाहब नोकिया 6300 खरीदो। एकदम लेटेस्ट मॉडल है। बहुत दिन हो गए पुराने मोबाइल के साथ। अब तो कुछ नया करो। यकीन मानिए मैं सस्ता मोबाइल ही लेने गया था और आज भी सस्ता मोबाइल ही इस्तेमाल करता हूं लेकिन साथी ने चांद पर चढ़ाकर जेब से 11 हजार रुपए ढीले करवा दिए। ज्यादा दिन भी नहीं हुए थे उसको खरीदे हुए। बहुत दुख हुआ जब चोरी हुआ। मैंने मोबाइल की गुमशुदगी की पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। इससे पहले घर आकर पैकेट देखकर ईएमईआई नम्बर नोट किए और पुलिस थाने जाकर निवेदन किया। लेकिन आज तक मोबाइल का पता नहीं लगा है।
मैं समझ गया था कि अगर चोरी हुआ तो अब मिलने से रहा। यकायक दिमाग में कई तरह के सवाल भी कौंध गए। फोन मल्टीमीडिया था और डबल सिम वाला। सिम भी दो लगी थी। एक छत्तीसगढ़ की तो दूसरी राजस्थान की। कितना सहेज कर रखती है धर्मपत्नी उसको। छह माह पहले मायके गई तब लिया था। अभी दीपावली पर गई तो राजस्थान के नम्बरों की एक सिम और डलवा ली। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मोबाइल में मेरी, बच्चों एवं श्रीमती की बहुत सारी फोटो भी थी। मन ही मन में दिलासा दिया कि खो गया तो खो गया लेकिन फोटो भी गई। बहुत सी यादें जुड़ी थी उनके साथ। फिर ख्याल आया अभी रिचार्ज भी करवाया था, पांच सौ रुपए का। शायद पुलिस में शिकायत करने से भले ही मोबाइल एवं फोटो ना मिले यह राशि तो मिल जाएगी। इस तरह दिमाग में कई सवालों का द्वंद्व और अधेड़बुन चल ही रही थी अचानक ख्याल आया कि क्यों ना एक बार राजस्थान वाले नम्बरों पर डायल किया जाए। फोन लगाया तो घंटी बज गई। जब तक श्रीमती ने फोन अटेंड नहीं किया। ऐसे में दिमाग में पहला विचार तो यह आया कि फोन बंद तो नहीं हैं। एक नम्बर पर तो घंटी जा रही है। दूसरे ही पल ख्याल आया कि यह राजस्थान का नम्बर है हो सकता है चोरी करने वाले ने मोबाइल से एक सिम निकाल ली हो। तीसरा विचार यह आया कि कहीं उसने राजस्थान वाली सिम दूसरे मोबाइल में तो नहीं डाल ली। मेरे दिमाग में यह विचार कौंध ही रहे थे कि अचानक घंटी बंद हो गई और सामने से आवाज आई... मिलग्यो... मिलग्यो...। मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही फोन कट गया। मतलब मैं समझ गया था कि श्रीमती की चिंता दूर हो गई थी और मोबाइल मिलने की खुशी में उसके मुंह से केवल दो ही शब्द निकल पाए।
आखिर में एक बात और जिसको मैंने बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है। आदमी हो या महिला जब वह बहुत अधिक गुस्से में होता तब और दूसरा जब वह बहुत अधिक खुश होता है तो उसके मुंह से स्थानीय भाषा ही निकलती है। श्रीमती के साथ भी वैसा ही हुआ है। वह अक्सर हिन्दी में ही बात करती है लेकिन मोबाइल मिलने की खुशी में हिन्दी भूलकर मारवाड़ी पर उतर आई। मैंने श्रीमती को दुबारा फोन लगाया तो दोनों ही नम्बरों पर नहीं लगा। शायद ज्यादा खुश हो गई या फिर सिम बंद होने के कारण तलाशने में जुट गई। कारण जो भी
हो घर जाने के बाद ही पता चलेगा। अभी तो इतना ही कह सकता हूं... वाह रे मोबाइल। तेरी भी अजीब माया है। न हो तो भी दिक्कत और हो तो भी। तेरी माया से कोई नहीं बच पाया।

Wednesday, November 28, 2012

का वर्षा जब कृषि सुखाने


प्रसंगवश 

 
अक्सर देखा गया है कि लोकप्रियता एवं वाहवाही बटोरने के चक्कर में प्रदेश की राज्य सरकार लोक लुभावन योजनाएं तो शुरू कर देती हैं, लेकिन उन योजनाओं के क्रियान्वयन में गंभीरता नहीं बरती जाती। प्रदेश में ऐसी योजनाओं की फेहरिस्त लम्बी हैं, जो तात्कालिक लाभ लेने के लिए जोरशोर से शुरू तो

कर दी गई, लेकिन वे जल्द ही अपने उद्देश्यों से भटकती नजर आई। बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के नाम पर शुरू की गई सरस्वती नि:शुल्क साइकिल वितरण योजना का हश्र भी कुछ ऐसा ही है। सबसे पहले 2004 में यह योजना अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की कक्षा नवमी में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए शुरू की गई थी। इसके बाद 2008 में इस योजना का लाभ गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की छात्राओं को भी दिया जाने लगा। इस योजना के प्रति छात्राओं ने खासा उत्साह दिखाया, लेकिन साइकिल को पाने की प्रक्रिया छात्राओं एवं उनके अभिभावकों का मनोबल तोडऩे का काम ज्यादा कर रही है। चयन से लेकर आवंटन तक की प्रकिया जटिल व लम्बी है। प्रवेश प्रक्रिया में ही एक-दो माह गुजर जाता है। इसके बाद चयनित छात्राओं की रिपोर्ट जिला शिक्षा अधिकारी के पास तथा वहां से पूरे जिले की रिपोर्ट मंत्रालय को भेजी जाती है। इस प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है और लगभग पूरा सत्र इंतजार में ही बीत जाता है। साइकिल देरी से मिलने की समस्या समूचे प्रदेश में है और सभी स्कूलों में हालात एक जैसे हैं। साइकिल लेने के प्रति छात्राओं की कितनी दिलचस्पी है, इस बात की पुष्टि साल दर साल आंकड़ों में होने वाली बढ़ोतरी ही बयां कर देती है। अविभाजित दुर्ग जिले में सत्र 2011-12 में साइकिल पाने वाली छात्राओं की संख्या 12091 थी। इसके बाद दुर्ग से अलग होकर बालोद एवं बेमेतरा जिले में अस्तित्व में आ गए। सत्र 2012-13 में तीनों जिलों से करीब 14501 छात्राओं को साइकिल मिलने का अनुमान है। बहरहाल, राज्य सरकार को इस योजना पर पुनर्विचार कर इसमें संशोधन करना चाहिए और ऐसी व्यवस्था हो कि छात्राओं को नवमी कक्षा में प्रवेश के दौरान ही साइकिल मिल जाए। ऐसा हो तभी इस योजना का फायदा है, वरना तो यह, 'का वर्षा जब कृषि सुखाने' वाली कहावत को ही चरितार्थ करती है। मामला बेटियों से जुड़ा है, लिहाजा राज्य सरकार को तत्काल सोचना चाहिए।




साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 28  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Monday, November 26, 2012

चुप्पी तोड़ो


टिप्पणी

रोज-रोज पैदल चल लम्बा सफर तय कर स्कूल जाने की मजबूरी और शोहदों से फब्तियां सुनने की लाचारी से आजिज आ चुकी नेहा ने आखिर समस्या की मूल जड़ पर ही चोट करने का फैसला किया। उसे भली-भांति मालूम था कि इन दोनों समस्याओं के पीछे प्रमुख कारण अतिक्रमण ही है। उसने हिम्मत जुटाई और सांसद द्वारा किए गए अतिक्रमण की शिकायत करके ही दम लिया। दुर्ग शहर की न्यू पुलिस कॉलोनी में रहने वाली कक्षा आठ की छात्रा नेहा ने वाकई साहसिक काम किया है। नेहा का यह काम अपने आप में बहुत बड़ा है। समाज के जागरूक लोगों को आईना दिखाकर उसने न केवल एक मिसाल कायम की है, बल्कि सुस्त समाज को जगाने की दिशा में एक अनूठी सीख भी दी है। नेहा ने यह साबित कर दिया है कि इच्छाशक्ति दृढ़ हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। निसंदेह नेहा ने सियासी भंवर में फंसे उदासीन शहर को झिाझाोड़ दिया है। नेहा का पत्र सोचने को मजबूर करता है और समाज की कड़वी हकीकत को भी बयां करता है। दरअसल, दुर्ग में लोगों की सहनशीलता इस कदर बढ़ गई है कि कोई मुंह खोलना ही नहीं चाहता। इसी वजह से जिम्मेदार व प्रभावशाली लोग जो चाहे वो करने की जुर्रत कर बैठते हैं। कभी-कभार किसी ने हिम्मत भी दिखाई तो पंगु प्रशासन से किसी तरह का सहयोग नहीं मिला। सांसद के अतिक्रमण की दबे स्वर में एक-दो लोगों ने पहले शिकायत की थी, लेकिन उनको अनुसना कर दिया गया। वैसे भी यह अतिक्रमण कोई रातोरात नहीं हुआ था। दो साल से अधिक समय हो गया था। ऐसे में इस बात की संभावना बेहद कम है कि शासन-प्रशासन को इसकी जानकारी न हो। और इससे भी गंभीर बात तो यह है कि गाहे-बगाहे अनूठे प्रदर्शन कर सस्ती लोकप्रियता पाने वाले भी इस मामले में अब तक खामोश ही रहे। उनको इस बात की जानकारी कैसे नहीं मिली यह भी किसी रहस्य से कम नहीं है।
वैसे भी शासन-प्रशासन के लिए इस अतिक्रमण को हटाना किसी चुनौती से कम नहीं है। शासन-प्रशासन को चाहिए कि वह नेहा की हिम्मत की दाद देते हुए अतिक्रमण के मामले में कार्रवाई करे। सुराज का मतलब भी तभी है। और इधर खुद को जनप्रतिनिधि कहलाने में गर्व महसूस करने वाली सांसद को भी महिला होने के नाते नेहा और उस जैसी कई लड़कियों की मजबूरी को समझना चाहिए। प्रशासन कोई कार्रवाई करे, इससे पहले सांसद को अपना अतिक्रमण हटा कर एक नजीर पेश करनी चाहिए।

 साभार - पत्रिका भिलाई के 26  नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित 

इन तालाबों पर कुछ तो तरस खाइए


हमें पर्यावरण की याद अक्सर तभी आती है जब बात खुद से जुड़ जाती है। हाल में मनाया गया छठ पर्व इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसके लिए बड़े पैमाने पर तालाबों की सफाई भी की गई थी। इतना ही नहीं सफाई को लेकर कुछ संगठनों की ओर से तो बड़े-बड़े दावे भी किए गए थे, लेकिन पर्यावरण एवं तालाब की चिंता करने वाले इन तथाकथित पर्यावरण प्रेमियों के दावों का दम छठ पूजा के दूसरे दिन ही निकल गया। दुर्ग व भिलाई के उन सभी तालाबों पर जहां छठ पूजा की गई थी, वहां यत्र तत्र सर्वत्र बिखरी पूजन सामग्री, फूलमालाएं एवं पॉलीथीन की थैलियां बदहाली की कहानी बयां कर रही हैं। दुर्ग-भिलाई जैसे शहरों में पर्यावरण को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना अपने आप में बड़ी चुनौती है, ऐसे में इन शहरों में तालाबों की दुर्दशा सोचनीय एवं चिंतनीय विषय है।  वैसे भी तालाब अकेले दुर्ग व भिलाई की ही नहीं, बल्कि समूचे छत्तीसगढ़ की पहचान हैं। इन तालाबों से अतीत की कई सुनहरी कहानियां व यादें जुड़ी हैं, लेकिन इनकी दुर्दशा को लेकर न तो निगम प्रशासन गंभीर है और ना ही आमजन। गणेश पूजन, नवरात्रि आदि आयोजन पर भी बड़े पैमाने पर तालाबों में प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है, लेकिन इसके बाद के हालात पर किसी को तरस नहीं आता है। अगले साल तक फिर अवसर विशेष आने पर ही इन तालाबों की याद आती है। दुर्ग-भिलाई में बीएसपी के टाउनशिप इलाके को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो दोनों निगमों में सफाई व्यवस्था के हालात कमोबेश एक जैसे ही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब टाउनशिप इलाके में पर्यावरण को लेकर जितने गंभीरता बरती जाती है, उतनी निगम क्षेत्रों में क्यों नहीं? निगम व शासन के स्कूलों में गठित इको क्लब भी महज कागजी ही साबित हो रहे हैं, जबकि बीएसपी के स्कूलों इको क्लब न केवल उल्लेखनीय काम कर रहे हैं, बल्कि लगातार पुरस्कार भी जीत रहे हैं। रविवार को पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाएगा। दोनों शहरों में निगमों की कार्यप्रणाली किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यहां के जागरूक, सेवाभावी एवं उत्साही लोग अगर प्रदूषित तालाबों की सुध लें एवं उनकी देखभाल का संकल्प कर लें तो निसंदेह वे पर्यावरण बचाने की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं।



साभार - पत्रिका भिलाई के 25 नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, November 10, 2012

'राजनीति' में पिस रही जनता


प्रसंगवश

प्रशासन एवं स्वास्थ्य विभाग की मशक्कत के बाद आखिरकार दुर्ग में डायरिया पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा चुका है। जिला कलक्टर ने भी सफाई व्यवस्था का जायजा लेने के लिए बाकायदा टीमें गठित की हैं। इसके बावजूद बदहाल व्यवस्था से परेशान लोगों का धैर्य जवाब दे रहा है। डायरिया प्रकरण

सामने आने के बाद अब तक दो बार प्रदर्शन हो चुके हैं। पहले डायरिया प्रभावित क्षेत्र की महिलाओं ने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के साथ निगम कार्यालय में प्रदर्शन किया। इसके बाद स्थानीय पार्षद के नेतृत्व में वार्डवासियों ने पंचायत मंत्री व स्थानीय विधायक हेमचंद यादव एवं महापौर डा. शिव कुमार के खिलाफ प्रदर्शन कर उनके पुतले फूंके। पीडि़त लोगों का आरोप तो यहां तक है कि डायरिया से मौत का जो आंकड़ा प्रशासन की ओर से बताया जा रहा है, वह हकीकत से दूर है। डायरिया प्रभावित स्थानों पर आज भी अव्यवस्था फैली हुई है। गौर करने की बात यह है कि दुर्ग के ऐसे हालात तब हैं जब निगम पर कब्जा भाजपा का है। वहां के विधायक भी भाजपा के हैं और राज्य सरकार में मंत्री हैं। इतना ही नहीं दुर्ग की सांसद भी भाजपा से संबंधित है। कहने का आशय यह है कि नीचे से लेकर ऊपर तक एक ही दल के लोग काबिज हैं, इसके बावजूद लोगों को बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसना पड़ रहा है। शासन-प्रशासन के आगे गिड़गिड़ाना पड़ रहा है। वैसे भी दुर्ग के हालात आज किसी से छिपे हुए नहीं है। जिला मुख्यालय होने के बावजूद दुर्ग विकास की मुख्यधारा से कटा हुआ है। जिला मुख्यालय के कई हिस्से तो गांवों से भी बदतर हैं और वहां के लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं। दुर्ग की बदहाल सफाई व्यवस्था के पीछे के कारणों में पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों का न होना तथा लगातार मानिटरिंग न होना तो है ही। इसके अलावा प्रमुख एवं अहम कारण जनप्रतिनिधियों का राजनीतिक द्वंद्व भी है। वर्चस्व की इस लड़ाई में आम लोग पिस रहे हैं। ऐसे में इस आशंका को बल मिलना स्वाभाविक है कि कंडरापारा में डायरिया फैलने के पीछे नेताओं के अहम की लड़ाई भी जिम्मेदार है।
बहरहाल, आम जन की इस तरह से उपेक्षा लम्बे समय तक बर्दाश्त से बाहर है। अगर वह चाहें तो अर्श से फर्श पर भी ला सकते हैं। इसलिए जनप्रतिनिधियों को अब राजनीति से ऊपर उठकर दुर्ग की चिंता करनी चाहिए। राजनीति बहुत हो चुकी है, शहर एवं लोग अब विकास चाहते हैं। जनप्रतिनिधियों को अपनों को उपकृत करने की मानसिकता से उबरना होगा, तभी दुर्ग का भला होगा वरना लोग यूं ही मरते रहेंगे और व्यवस्था को कोसते रहेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि वजूद की लड़ाई में उलझे राजनीतिज्ञों का दिल परेशान जनता के आर्तनाद से कुछ तो पिघलेगा।



साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 10  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित। 

Wednesday, November 7, 2012

ऐसा भी होता है


बस यूं ही...
 

सुबह बिस्तर से उठने के बाद लघुशंका के लिए बाथरूम में घुसा ही था कि मोबाइल की घंटी बज गई। वापस लौटा तब तक कॉल पूरी हो चुकी थी। मोबाइल देखा तो फोन झुंझुनू के परिचित का था। मैंने वापस फोन लगाया और फिर रोज की तरह बातों का सिलसिला लम्बा खींच गया। बातों ही बातों में एक ऐसी बात सामने आ गई, जिसको सुनकर मैं जोर-जोर से हंसने लगा। अब भी वह बात याद आ रही है तो हंसी छूट रही है। खैर
मुख्य बात पर लौटता हूं...। झुंझुनू के परिचित महेश से हालचाल पूछने के बाद मैंने पूछा और कोई खास समाचार है क्या? तो उसने बड़ी तल्लीनता एवं सहज भाव से एक घटनाक्रम के बारे में बिना कोई भूमिका बांधे विस्तार से बताना शुरू किया। शुरू में तो मुझे भी पता भी नहीं था कि महेश का यह घटनाक्रम क्लाइमेक्स पर पहुंचते-पहुंचते यू टर्न ले लेगा, क्योंकि उसने घटनाक्रम कुछ ऐसे ही अंदाज में शुरू किया था, आप भी देखिए.... बोला भाईसाहब मंगलवार रात को एक दोस्त के साथ पिलानी चला गया। वहां इन दिनों सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा है। हम दोनों सांस्कृतिक कार्यक्रम की उम्मीद लेकर ही गए थे लेकिन वहां जाने के बाद पता चला कि आज तो कवि सम्मेलन हो रहा है। चूंकि कार्यक्रम विद्यार्थियों के द्वारा ही आयोजित था, इसलिए सार्वजनिक नहीं था। हां बाहर का कोई व्यक्ति देखने जाए तो उसके लिए टिकट लेना अनिवार्य था। हमने भी चार सौ-चार सौ रुपए की दो टिकट ले ली और हॉल के अंदर चले गए। महेश ने बताया कि हॉल में घुसने से पहले उन्होंने पिलानी के अपने एक और परिचित को बुला लिया था। उसके आने के बाद तीनों हॉल के अंदर चले आए। जब तीनों हॉल में घुसे तो वहां खामोशी पसरी थी लेकिन अंदर का माहौल देखकर महेश हतप्रभ था। दर्शकों में सभी युवा थे। कई युगल तो दीन ओर दुनिया से बेखकर बिलकुल अपने ही अंदाज में मस्त थे। इसके बाद कवि सम्मेलन शुरू हुआ तो महेश और उसके साथी तीनों आपस में एक दूसरे का मुंह ताकने लगे जबकि दर्शक जोर-जोर से हंस रहे थे। तीनों यह तो समझ गए कि मंच पर कवि ने जरूर कोई चुटकुला सुनाया है, इसलिए दर्शक हंस रहे हैं। इसके बाद महेश एवं उसके पिलानी वाले दोस्त ने तय किया है कि भले ही कवि का सुनाया उनके समझ में आए या ना आए लेकिन दर्शक को देख कर वे भी उनके साथ-साथ हंसेंगे ताकि दूसरों के लगे कि वे भी कार्यक्रम का आंनद उठा रहे हैं। लेकिन बनावटी हंसी भला कब तक चलती। पांच-सात मिनट बाद महेश का धैर्य जवाब दे गया। वह अपने झुंझुनू वाले मित्र से बोला, आपको कुछ समझा में आ रहा है क्या? इस पर महेश के दोस्त ने हां कहने के अंदाज में सिर हिलाया। दोस्त का जवाब सुनकर महेश अपने पिलानी वाले दोस्त के साथ बाहर आ गया। थोड़ी देर बाहर लॉन में घूमता रहा। अचानक महेश की नजर अपने झुंझुनू वाले मित्र पर पड़ी। वह भी निराश भाव से हॉल बाहर आ गया था। इसके बाद दोनों ने पिलानी वाले दोस्त से अनुमति ली और झुंझुनू के लिए रवाना हो गए।
मैंने पूछा कि आपने चार सौ-चार सौ रुपए टिकट लिए इसके बावजूद इतनी जल्दी क्यों लौट आए? आप तो कवि सम्मेलनों के शौकीन हो। आपको तो पूरे कवि सम्मेलन का आंनद उठाना चाहिए था। मेरा इतना कहते ही महेश जोर से बोला. आनंद कहां से उठाते... कवि सम्मेलन अंग्रेजी में था और सारे कवि अपनी रचनाएं अंग्रेजी में ही सुना रहे थे। हमारे कुछ समझ में नहीं आया। बाकी दर्शक हमको मूर्ख ना समझ लें इसलिए हमको उनको देख कर उनके साथ ठहाके लगा रहे थे। मैंने कहा जब आप बाहर आए तो आपका झुंझुनू वाला मित्र क्यों नहीं आया तो महेश ने कहा कि उसने पहले बताया कि उसको अंग्रेजी समझ में आती है लेकिन हकीकत यह थी कि उसने जोश-जोश में अंग्रेजी की बात कह तो दी कि लेकिन उसका हाल भी हमारे जैसा ही था, इसलिए थोड़ी देर बाद वह भी बाहर चला आया। महेश के मुंह से समूचा घटनाक्रम सुनने के बाद मेरी हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वह बोला ठीक है भाईसाहब आपका सब कुछ बता दिया इसलिए आप हंस रहे हो। आप भी मजे ले लो, कोई बात नहीं। मैंने कहा कि बात तो मजे वाली ही है, इसलिए ले रहा हूं। जब मैंने उसको कहा कि इस घटनाक्रम पर मैं ब्लॉग लिखूंगा तो महेश यकायक सुरक्षात्मक अंदाज में आकर गिड़गिड़ाने लगा। बोला प्लीज भाईसाहब मैं आपसे निवेदन करता हूं आप ऐसा मत करना। मेरी इज्जत का कुछ तो ख्याल करो। मैंने कहा कि इज्जत का तो पूरा ख्याल है लेकिन मामला रोचक है, इसलिए मैं इस पर कुछ न कुछ तो लिखूंगा। उसने बार-बार निवेदन किया और मुझको ऐसा करने के लिए मना करता रहा। आखिरकार एक रास्ता मैंने ही निकाला और उसको कहा कि ठीक है मैं तेरी इज्जत का पूरा ख्याल रखूंगा। मैं ऐसा करता हूं कि तेरे नाम की जगह काल्पनिक नाम रख दूंगा। मेरे इस सुझाव पर वह सहमत हो गया। हालांकि उसने मेरे सुझाव पर भी सवाल उठाया और बोला कि आखिर परिचित लोग तो उसको काल्पनिक नाम से भी पहचान लेंगे। वैसे आप समझ गए होंगे मेरे परिचित का हकीकत में नाम दूसरा है। उससे वादा किया था, इसलिए महेश उसका काल्पनिक नाम है। खैर, यह वाकया याद आते ही चेहरे पर मुस्कान फैल जाती है। इसलिए नहीं कि चार-चार सौ रुपए देने के बाद भी वे कवि सम्मेलन का लाभ नहीं उठा सके, बल्कि इसलिए कि महेश अपने आप को बहुत ज्यादा स्मार्ट समझता है। बस यही सोच के हंस रहा हूं कि उसकी होशियारी यहां काम क्यों नहीं आई। हर काम ठोक बजाकर कहने की बात कहने वाले महेश ने टिकट लेते समय पूछ लिया होता तो शायद वह कवि सम्मेलन में कभी नहीं जाता। वैसे महेश के लिए यह टेंशन वाली बात इसलिए भी नहीं है क्योंकि टिकटों का भुगतान उसकी जेब से ना होकर उसके झुंझुनू वाले मित्र ने किया था। बात पैसे लगने का नहीं होकर महेश की समझदारी की थी और ज्यादा होशियारी ही उस पर भारी पड़ गई। मुझे उसकी होशियारी पर अब हंसी आ रही है। बहुत ज्ञान बांटता है वह। हर किसी को ही बेवजह और बेमतलब।

Monday, November 5, 2012

मच्छरों से लगाव


टिप्पणी
 

भिलाई एवं दुर्ग नगर निगमों का पर्यावरण व जीव प्रेम सबसे अलग, सबसे जुदा है। पर्यावरण एवं जीवों के प्रति प्रेम की ऐसी नजीर दूसरे निगमों में शायद ही देखने को मिले। अगर केवल मच्छरों की ही बात करें तो दोनों शहरों में उनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है। अगर ईमानदारी के साथ गहनता
से जांच की जाए तो दुर्ग व भिलाई में मच्छरों की कई तरह की प्रजातियां मिल जाएंगी। इन प्रजातियों को पनपाने का लगभग श्रेय दोनों निगमों को ही जाता है। संयोगवश कहें या बदकिस्मती कि भिलाई में डेंगू के दो तीन मामले सामने आ गए तो निगम के अमले को मच्छरों के खिलाफ बुझे मन से ही कार्रवाई करनी पड़ रही है, उनके संभावित ठिकानों पर पूरे लाव लश्कर के साथ दबिश दी जा रही है, वरना निगम की तरफ से तो मच्छरों के सौ खून माफ हैं। उधर दुर्ग में फैला तो डायरिया है, लेकिन किसी तरह का इल्जाम मच्छरों पर ना आ जाए, इसलिए एहतियातन दवा का छिड़काव किया जा रहा है, ताकि मच्छर दूसरे मोहल्ले में सुरक्षित जगह पर चले जाएं।
वैसे भी मच्छरों को लेकर लोग निगम प्रशासन को नाहक ही कोसते हैं। विरोध करने वालों को शायद पता नहीं है कि मच्छरों के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं बनती हैं। बजट आता है। अगर मच्छर ही नहीं होंगे तो बजट कैसे बनेगा। योजनाएं बनें, बजट पारित हो और उसमें सभी की बराबर की हिस्सेदारी हो, इसके लिए जरूरी है कि मच्छर पैदा हों। मच्छर होंगे तभी मलेरिया व डेंगू जैसे रोग फैलेंगे। उनको काबू में करने के लिए फिर लाखों-करोड़ों रुपए का बजट पारित होगा। मच्छररहित शहर की परिकल्पना इसलिए भी नहीं की जा सकती कि आखिर मच्छरों के उन्मूलन के लिए तय राशि फिर कौनसी मद में खर्च होगी। देश में लम्बे समय से यही परम्परा चल रही है। भला इसे तोडऩे का दुस्साहस कौन करे। इसको बंद करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही तो है। इतना ही नहीं मच्छरों को भगाने के नाम पर कई तरह के मॉस्किटो क्वाइल, स्प्रे , अगरबत्ती एवं और न जाने कितने ही उत्पाद बाजार में हैं। हजारों लोग जुड़े हुए हैं, इस कारोबार से। कइयों की रोजी-रोटी का तो साधन ही यही है। गौर फरमाइएगा, इतना होने के बाद भी मॉस्किटो क्वाइल, अगरबत्तियां एवं स्प्रे मच्छरों को मारते नहीं बल्कि भगाते हैं, क्योंकि जीव हत्या का पाप कोई अपने सिर नहीं लेना चाहता। और फिर मच्छर जंगल में जाकर करेंगे भी क्या? किसको काटेंगे वहां पर। सोचिए, निगम प्रशासन अगर इन पर कार्रवाई करेगा तो कितने जीवों की हत्या का पाप चढ़ेगा उस पर। इसलिए नफा-नुकसान, धर्म-कर्म, पाप-पुण्य का हिसाब-किताब लगाकर प्रशासनिक अमला चुप है। बेहतर है आप भी चुप ही रहें। जीव हत्या का संगीन आरोप लगवाने से अच्छा है कि आप भी जीव बचाने एवं पर्यावरण प्रेमी कहलवाने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाएं और मच्छरों के खिलाफ बोलने की गुस्ताखी तो कभी भूलकर भी ना करें। बेहतर है निगम के अधिकारियों की तरह आप भी दयालु बन जाओ, आखिर मच्छरों की रगों में भी तो इंसानी खून ही दौड़ रहा है।


 साभार - पत्रिका भिलाई के 05 नवम्बर 12 के अंक में प्रकाशित

Saturday, November 3, 2012

किस काम की जागरूकता


प्रसंगवश

 

कल्पना कीजिए कोई आपको समस्या बताए या किसी खतरे से अवगत कराए लेकिन उन पर पार पाने का कोई रास्ता ना सुझाए तो आप पर क्या बीतेगी? कुछ इसी तरह की परेशानी से इन दिनों दुर्ग-भिलाई के दूध उपभोक्ता गुजर रहे हैं। उनको समस्या तो बता दी गई है लेकिन उसका समाधान नहीं बताया गया, लिहाजा उपभोक्ता पशोपेश में हैं कि वे कहां जाएं और क्या करें। हाल ही में रायपुर सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ की टीम ने कामधेनू विश्वविद्यालय के छात्रों के सहयोग से दुर्ग-भिलाई के छह स्थानों पर घरों से दूध के सैम्पल एकत्रित कर उनकी जांच की तो परिणाम चौंकाने वाले निकले। सभी जगह 60 से 80 फीसदी तक दूध के सैम्पल मानकों पर खरे नहीं उतरे। जांच के आंकड़े यह साबित करने के पर्याप्त है कि दूध में बेखौफ धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है। जांच में यह भी सामने आया कि मिलावट के अधिकतर मामले पानी से संबंधित हैं, लेकिन जांचकर्ताओं ने आशंका भी जताई है कि दूध में जो पानी मिलाया जाता है वह दूषित होता है। दूषित पानी मिले दूध का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही साथ में यह कई गंभीर बीमारियों की वजह भी बनता है। गंभीर विषय तो यह है कि दूध में मिलावट के मामले लगातार सामने आने के बाद भी सिर्फ दुर्ग के बोरसी इलाके को छोड़कर दूध विक्रेताओं में किसी तरह का डर दिखाई नहीं दिया। दूध उसी अंदाज में बिकता रहा। करीब दस दिन तक चले इस अभियान से लोगों को भले ही कुछ हासिल या फायदा नहीं हुआ हो अलबत्ता उनमें हड़कम्प जरूर मच गया। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि बिना कोई रास्ता सुझाए या विकल्प बताए मिलावट के प्रति जागरूकता का ढिंढोरा पीटना कितना न्यायसंगत है? दुग्ध संघ द्वारा की गई सघन इस जांच के पीछे प्रयोजन क्या है? वैसे दूध में मिलावट के प्रति उपभोक्ताओं को जागरूक करना बड़ी बात है, लेकिन कितना अच्छा होता कि दुग्ध उत्पादक संघ इस जागरूकता के साथ-साथ उपभोक्ताओं को इस बात का यकीन भी दिलाता कि उनको अब खुला दूध खरीदने की मजबूरी से मुक्ति दिलाई जाएगी। उनको अब देवभोग का पैकेट वाला शुद्ध दूध मिलेगा। संघ के अधिकारियों को यह भी भली प्रकार से मालूम है कि दुर्ग एवं भिलाई में देवभोग दूध की आपूर्ति कुल मांग की दस फीसदी भी नहीं है। ऐसे में उपभोक्ताओं को जागरूक करने का फायदा भी तभी है जब उनको आवश्यकतानुसार दूध मिले। केवल जांच भर कर देने, उपभोक्ताओं में हड़कम्प मचाने और मांग के हिसाब से आपूर्ति न करने से संघ खुद सवालों में घेरे में है, क्योंकि मिलावट के डर से उपभोक्ता खुले दूध के बजाय पैकेट वाले दूध को ज्यादा प्राथमिकता देंगे। और जब देवभोग के दूध के पैकेट नहीं मिलेंगे तो जाहिर सी बात है कि उपभोक्ता मजबूरी और मिलावट के डर के चलते दूसरी कम्पनियों का पैकेट वाला दूध खरीदेंगे। बहरहाल, दूध में मिलावट की जांच करने का औचित्य तभी है जब उपभोक्ताओं को शुद्ध दूध वाजिब दाम पर आसानी से उपलब्ध हो जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। ऐसे में मजबूर उपभोक्ताओं के पास दो ही विकल्प हैं या तो वे पैकेट वाला महंगा दूध पीएं या फिर सस्ते के लालच में गुणवत्ता से समझाौता कर लें। दुग्ध संघ को इस मामले में गंभीरता से विचार करना चाहिए।

  साभार - पत्रिका छत्तीसगढ़ के 03  नवम्बर 12  के अंक में प्रकाशित।