Tuesday, December 31, 2019

सब गोलमाल!

टिप्पणी
पड़ोसी जिले बीकानेर के सरे नथानिया स्थित नंदी गोशाला में हाल ही डेढ़ दर्जन गोवंश की मौत हो गई। गोवंश की मौत के बाद बीकानेर जिला कलक्टर ने गोशाला का निरीक्षण किया और गोवंश को ठंड से बचाव की पूरी व्यवस्था तत्काल करने की हिदायत दी। इतना ही नहीं पशुपालन विभाग के दल ने मौके पर जाकर गोवंश के मूत्र व रक्त के सैंपल लिए। इतना ही नहीं मृत गोवंश का पोस्टमार्टम भी किया गया और गोशाला में एक वेटरनरी डॉक्टर भी नियुक्त किया गया। इससे ठीक उल्टी तस्वीर श्रीगंगानगर की है। सुखाडि़या सर्किल स्थित श्री गोशाला में १७ गोवंश की मौत हो जाती है। इतना ही नहीं गोशाला संचालक इन सभी मृत गोवंश को चुपचाप ठिकाने लगा देते हैं। इन्हें दफनाया गया या नहर में बहाया गया यह जांच का विषय है। खैर, गोवंश की मौत पर किसी भी स्तर पर कोई हलचल नहीं होती। पशुपालन विभाग के अधिकारी तो गोशाला संचालकों की हां में हां मिलाने से आगे कुछ नहीं बोल रहे। मजबूरी में सो तरह के बहाने गिनाते हैं। गोवंश की मौत का कारण पशुपालन विभाग भी वो ही बताता है जो गोशाला संचालक बताते हैं। बिना पोस्टमार्टम के ही जांच हो गई। कारण बताया गया कि गोशाला में बीमार गोवंश को लाया गया था, जिसकी सर्दी की वजह से मौत हो गई। क्या वाकई गोशाला में बाहर घूमने वाली बीमार व निराश्रित गायों को लाया जाता है? यह जांच का विषय है। और गायें बीमार थी तो उन्हें गोशाला इलाज के लिए लाए या उनको अपने हाल पर छोडक़र मरने के लिए लाया गया। माना सर्दी बहुत तेज है लेकिन कमाल की बात तो यह भी है कि बाहर खुले में घूमने वाला गोवंश बदस्तूर घूम रहा है लेकिन गोशाला की गायों को सर्दी लग जाती है। गोवंश को सर्दी से बचाने के लिए क्या यहां कोई प्रबंध नहीं? खैर, गोवंश की मौत पर इतना तो तय है कि पशुपालन विभाग अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है। उसका गोशाला संचालकों की में हां में हां मिलाने से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस अंदाज में काम कर रहा है। इतना ही नहीं, जिला कलक्टर भी तो इस मामले में पूछने पर बताते हैं। बीकानेर कलक्टर की तरह खुद के स्वविवेक से क्या उन्हें कुछ नहीं सूझता? पशुपालन विभाग तो पहले से ही गोशाला को क्लीन चिट दे रहा है तो उसके खिलाफ कैसे जांच करेगा, समझा जा सकता है। मतलब सब कुछ ही गोलमाल नजर आता है। बहरहाल, गोवंश की मौत पर प्रशासनिक भूमिका सही नहीं रही, लेकिन एेसा भविष्य में न हो इसके लिए सबक जरूर लिया जा सकता है। देश में अक्सर धर्म, राजनीति, व वोटबैंक के केन्द्र में रहने वाला गोवंश श्रीगंगानगर में चुपचाप दम तोड़ रहा है तो दोष उन सबका भी है जो गाहे-बगाहे गायों के नाम पर प्रदर्शन करते हैं, गोवंश का हितैषी होने का दंभ भरते हैं। शहर की अवैध टॉलों से हरा चारा खरीदकर गायों को खिलाने वाले भी पता नहीं इन मौतों पर क्यों चुप हैं? यह चुप्पी वाकई खतरनाक है, न केवल गोवंश के लिए बल्कि शहर के लिए भी।
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 29 दिबंबर के अंक में प्रकाशित...

यह भेदभाव ही तो है!



टिप्पणी
कडक़ड़ाती सर्दी के बीच जब स्कूलों का समय बदल दिया गया है। असहाय लोगों के लिए रैन बसेरे शुरू कर दिए गए हैं। जगह-जगह स्वयंसेवी संगठनों की ओर से जरूरतमंदों को कंबल और ऊनी कपड़े वितरित किए जा रहे हैं। अलाव के लिए सूखी लकडि़यों की व्यवस्था की जा रही है। एेसे सर्द मौसम में नगर विकास न्यास अमले को अचानक अतिक्रमण हटाने की याद आ गई। घने कोहरे व शीतलहर के बीच खुले आसमान के तले जीवन-यापन करने वाले परिवारों को मंगलवार सुबह बेदखल कर दिया गया।
यह लोग मॉडल टाउन स्थित नगर विकास न्यास कार्यालय के आसपास खाली भूखंडों में लंबे समय से कब्जा करके रह रहे थे। एेसे प्रतिकूल मौसम में कार्रवाई के लिए यूआईटी प्रशासन निसंदेह बधाई का पात्र तो है ही। बड़ी बात तो यह है कि सुबह-सुबह बिना किसी रुकावट के पुलिस बल भी मिल गया। लंबे समय से स्थानीय लोगों की ओर से यह अतिक्रमण हटाने की मांग की जा रही थी। यूआईटी प्रशासन ने स्थानीय लोगों की बात को माना या अंदरखाने कोई दूसरी वजह या फिर कोई ऊपर दवाब था, यह अलग विषय है लेकिन कब्जा हटवाकर भूखंड खाली करवा लिए। खैर, देर आयद दुरुस्त आयद। फिर भी मानवीय संवेदना से परिपूर्ण लोगों को यह कार्रवाई अखर सकती है। मासूम बच्चों को सर्दी में बेदखल करने से उनका दिल पसीज सकता है। हो सकता है इन झुग्गी झौपडि़यों वाले के समर्थन में कोई रहनुमा ही खड़ा हो जाए। धरना-प्रदर्शन तक करवा दे। वैसे भी शहर में गरीबों के समर्थन में खड़े होने वाले व सहानुभूति जताने वालों की कमी नहीं है। यूआईटी के आसपास वैसे भी कब्जा कर बैठे लोगों की कहानी भी तो कुछ एेसी ही है। हैरानी की बात है कि यूआईटी ने अपने बगल के कब्जे और ठीक पीछे बंद की गई गली को भुलाकर या इनकी तरफ आंख मंूदकर यह अतिक्रमण हटाया। क्या यूआईटी के जिम्मेदार अफसर यह बता सकते हैं कि वो अपने आसपास काबिज लोगों का समाधान कब तक खोजेंगे?
जनहित में अतिक्रमण हटने चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन अतिक्रमण हटाने के तौर-तरीके सही न हो तो उनको विवादास्पद होते देर नहीं लगती। यूआईटी अधिकारियों को गरीब झुग्गी झौपड़ी वाले तो अखर गए लेकिन शिव चौक से अस्पताल तक सडक़ किनारे ट्रक खड़े करने वाले दिखाई क्यों नहीं देते? दिन भर सडक़ों पर सीमेंट, रेता व बजरी का कारोबार करने वाले नजर क्यों नहीं आते? अस्थायी बाजार को यूआईटी के अफसर क्यों नजरअंदाज कर देते हैं? सडक़ पर टेम्पो-ट्रैक्टर खड़े करने की इजाजत किसने दी? इतना ही नहीं यूआईटी के अधीन कॉलोनी आज भी मूलभूत सुविधाओं को तरस रही है। खुद यूआईटी कार्यालय के नाक के नीचे बना पार्क बदहाल है।
बहरहाल, यूआईटी के अधिकारी अतिक्रमण हटाने के प्रति समभाव रखते हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही शिव चौक से जिला अस्पताल तक सडक़ भी अतिक्रमण मुक्त होगी। सर्दी के मौसम में शुरू हुए अभियान में अब मौसम या पुलिस संबंधी कोई बाधा नहीं आएगी। यूआईटी कार्यालय के आसपास का इलाका भी अतिक्रमण मुक्त होगा। पीछे बंद की गई गली भी खुल जाएगी। और यह सब नहीं हुआ तो यह एक तरह का भेदभाव ही हुआ। साथ में यह भी तय मानिए कि अतिक्रमण करने वालों के सामने यूआईटी प्रशासन किसी न किसी तरह से नतमस्तक है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 25 दिसंबर के अंक में प्रकाशित  टिप्पणी..।

हादसों पर अंकुश कब

टिप्पणी.
शहर में एक हादसा फिर हो गया। सोमवार सुबह एक मोटरसाइकिल सवार युवक स्कूल बस की चपेट में आकर जान गंवा बैठा। वहीं 16 दिसम्बर की रात को पशु से टकराकर एक स्कूटी सवार युवती जान गंवा बैठी। हादसे रोज होते हैं लेकिन सप्ताहभर में हुए इन दो हादसों में कहीं न कहीं व्यवस्था का दोष है।
बेलगाम यातायात और आवारा पशु। इन दो समस्याओं के प्रति पता नहीं क्यों यहां के नेताओं और अफसरों ने आंखें मंूद रखी हैं। लगातार हादसों के बावजूद शासन-प्रशासन के पास इन दो समस्याओं का कोई ठोस समाधान नहीं है। हादसों के प्रति उनकी भूमिका से लगता नहीं कि हादसे उनको डराते या चौंकाते भी हैं। हां कागजी निर्देश और औपचारिकता वाले अभियान गाहे-बगाहे जरूर चलते हैं लेकिन गंभीरता से समस्याओं का समाधान नहीं खोजा जाता। निराश्रित पशुओं की समस्या को तो एक तरह से भुला ही दिया गया है। कार्यभार ग्रहण करते समय जिला कलक्टर ने जरूर थोड़ी बहुत गंभीरता दिखाई लेकिन अब मामला पूरी तरह से ठंडे बस्ते में हैं। जनप्रतिनिधि हादसों पर तात्कालिक प्रतिक्रियास्वरूप सहानुभूति जरूर जता आते हैं लेकिन वो भी ऐसे मामलों में अक्सर चुप ही रहते हैं। निराश्रित पशु तो शहर में घूम ही रहे हैं, रात में तो पालतू भैंसें भी विचरण करती दिखाई दे जाती हैं। कौन रोकेगा इनको? इनके मालिकों में किसी तरह का डर क्यों नहीं हैं? डर इसलिए नहीं है कि शासन-प्रशासन कोई हरकत ही नहीं करते। वरना किसी की क्या मजाल जो अपने मवेशियों को खुला छोडऩे की हिमाकत दिखाए। यह प्रशासनिक कमजोरी का ही परिणाम है कि पालतू पशु भी शहर में खुले घूमते हैं।
यातायात व्यवस्था तो दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही है। नासूर के रूप में तब्दील हो रही है। जिम्मेदार इस बदहाली को दूर करने के बजाय इसको बिगाडऩे में लगे हैं। चौक-चौराहों पर पसरे अतिक्रमणों को पता नहीं क्यों अभयदान दे रखा है। सडक़ रोककर कारोबार करने वालों का प्र्रशासन से पता नहीं कौनसा व कैसा रिश्ता है या गुप्त समझौता है जो इनको हटाया नहीं जा रहा। शिव चौक के पास तो सडक़ किनारे ही बाजार लगाने की अनुमति दे दी गई। यहां आधा बाजार तो सडक़ पर सजा है। हर रविवार को भी यहां सडक़ रोककर बाजार सजता है। क्यों नहीं रोका जा रहा इनको? क्यों नहीं होती इन पर कार्रवाई?
बहरहाल, अगर शहर के मौजूदा हालात में सुधार नहीं होता तो तय मानिए हादसे कम नहीं होंगे। जिम्मदारों, शासन-प्रशासन को अपनी भूमिका का निर्वहन ईमानदारी से करना चाहिए ताकि व्यवस्था में सुधार हो। आमतौर पर जनहित से जुड़े मामलों में चुप्पी साधने वाले शहर के जागरूक लोगों को भी जागना होगा। अगर सभी इस तरह नींद में गाफिल रहे तो सुधार नहीं होने वाला। जिस गति से शहर बढ़ रहा है। वाहनों की संख्या बढ़ रही है, उसको देखते हुए अब कमर कसने का वक्त आ गया है।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 24 दिसंबर के अंक में प्रकाशित

आयो राज लुगायां को

बस यूं ही
पंचायत चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। आरक्षण लॉटरी निकलने के बाद भावी प्रत्याशी सामने आने लगे हैं। रुठने-मनाने का दौर भी अंदरखाने चल रहा है। शह और मात की रणनीतियां बन रही है। हार-जीत के समीकरण तय हो रहे हैं। महिला उम्मीदवारों को लेकर तो कई तरह के चुटकुले और जुमले बन चुके हैं। सोशल मीडिया पर कविताओं व किस्सागोई की भरमार है। वैसे राज और वोट को लेकर महिलाओं पर राजस्थानी में फिल्में भी बनती रही हैं। बानगी के रूप में घर मं राज लुगायां को, बीनणी वोट देबा चाली आदि को गिना जा सकता है। पंचायत चुनाव को देखते हुए यह नाम फिर मौजूं हो चले हैं। पंचायत चुनाव के साथ महिलाओं का जिक्र इसीलिए भी क्योंकि कई पुरुषों ने पांच साल मैदान तैयार किया लेकिन आरक्षण ने उनकी उम्मीद पर पानी फेर दिया। उनके हसीन सपनों को दिनदहाडे तोड़ दिया। यह समस्या विशेषकर कुंवारे लोगों को ज्यादा भोगनी पड़ी है। क्योंकि जो शादीशुदा थे उन्होंने तो खुद का नंबर नहीं आया तो पत्नी का नाम चला दिया लेकिन कुंवारे तो कुंवारे ही ठहरे, आखिर किसका नाम चलाएं।
खैर, इन सबके बीच मेरी पंचायत केहरपुरा कलां में इस बार मुकाबला रोचक होने जा रहा है। रोचक इसलिए कि ग्राम पंचायत की कमान भी इस बार महिला के हाथ में होगी। मतलब सरपंच महिला होगी। इतना ही नहीं देश की राजनीति में भले ही महिलाओं की भागदारी 33 फीसदी भी न हो लेकिन मेरी पंचायत में यह आंकड़ा पचास फीसदी से भी ज्यादा जाएगा। मतलब सही मायनों में गांव की सरकार महिलाओं के हाथ होगी। अब घर मं राज लुगायां को की जगह पंचायत मं राज लुगाया को कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा। मतलब साफ है कि पंचायत में दो तिहाई के करीब महिला जनप्रतिनिधि बैठेंगी। केहरपुरा कलां ग्राम पंचायत में सरपंच के साथ 11 पंच भी निर्वाचित होंगे। अगर पंचों के आरक्षण पर नजर डाली जाए तो इनमें सात महिलाएं पंच बनेंगी। इनमें चार पंच सामान्य महिला, दो एससी महिला एवं एक ओबीसी महिला के लिए आरक्षित है। इस तरह से 11 से में सात महिलाएं पंच चुनी जाएंगी। इस तरह से पूरी पंचायत के 12 जनप्रतिनिधियों में आठ महिलाएं होगी। संभवत: ग्राम पंचायत के इतिहास में एेसा पहली बार होगा जब आठ महिलाओं के हाथ गांव के विकास की बागडोर होगी। और आयो राज लुगायां को, वाला जुमला भी चरितार्थ होगा। देखना यह भी रोचक होगा कि आखिर 12 महिलाओं के बीच चार पुरुषों की आवाज किस तरह से सुनी जाएगी।

मौसम जरा ठंड का है

मौसम जरा ठंड का है
झार के खंड-खंड का है
जनादेश की प्रतिक्रिया पर जैसे
रुख किसी उदंड का है।
हारे लगातार छठा प्रदेश 'माही'
फिर भी रंग घमंड का है।
जैसा भी है स्वीकार करो
फल जनता के दंड का है।