Monday, July 22, 2013

दिमाग का दही हो गया


बस यूं ही

 
पिछले पन्द्रह दिन से बच्चे दो ही गीत ज्यादा गुनगुना रहे हैं। कभी वो भाग मिल्खा भाग का 'हवन करेंगे...' के बोल पर नाच रहे हैं तो कभी ये जवानी है दिवानी का 'बदतमीज दिल माने न...' को बड़े ही जोश व शिद्दत के साथ गा रहे हैं। अचानक गीत के बोल सुनकर मैं चौंक गया.., पहला ही सवाल जेहन में आया, भला दिल बदतमीज कैसे हो सकता है। बस तभी से दिल में हलचल मच गई। विषय कुछ रोचक व अलग हटकर लगा लिहाजा तभी तय कर लिया कि क्यों ना दिल को बदतमीज करार देने वाले इस गीत पर दिल से लिखा जाए। वैसे जितना प्रयोग दिल के साथ पर्दे की दुनिया पर हुआ है उतना तो शायद हकीकत में भी नहीं हुआ। शायद की कोई फिल्म हो जिसमे दिल का जिक्र ना हो। या तो फिल्म के शीर्षक में ही दिल मिल जाएगा और वहां नहीं मिला तो फिर किसी न किसी गाने के मुखड़े या अंतरे में दिल का उल्लेख मिलना तय मानिए। तभी तो दिल से लगायत गीत हो या फिल्म, रुपहले पर्दे के सबसे पसंदीदा विषय रहे हैं। सात-आठ दशकों से दिल पर लगातार लिखना कोई आसान नहीं है। ऐसे में गुण-दोष की बात करना तो वैसे भी बेमानी है। फिर भी कभी सिर आंखों पर बैठाया जाना वाला दिल जब बदतमीज हो गया तो इस दिशा में सोचा जाना भी तो जरूरी है। यह बात दीगर है कि बदतमीज दिल से दिल लगाने वालों की संख्या भी कम नहीं हैं। खैर, सबसे पहले मैंने इस गीत को बोलो को गौर से सुना, आप भी देखिए...

'पान में पुदीना देखा,
नाक का नगीना देखा,
चिकनी चमेली देखी,
चिकना कमीना देखा,
चांद ने चीटर हो चीट किया तो,
सारे तारे बोले गिल्ली गिल्ली अख्खा.....'

'मेरी बात, तेरी बात,
ज्यादा बातें, बुरी बात,
आलू-भात, पूरी भात,
मेरे पीछे किसी ने
रिपीट किया तो साला,
मैंने तेरे मुंह पे मारा मुक्का....'

'इस पे भूत कोई चढ़ा है,
ठहरना जाने ना,
अब क्या बुरा क्या भला है,
फर्क पहचाने ना...
जिद पकड़ के खड़ा है,
कमबख्त छोडऩा जाने ना....'

'बदतमीज दिल, बदतमीज दिल, बदतमीज दिल, माने ना...'
'ये जहान है सवाल है कमाल है जाने ना, जाने ना...'
'बदतमीज दिल, बदतमीज दिल, बदतमीज दिल माने ना...'

'हवा में हवाना देखा,
ढीमका फलाना देखा,
सींग का सिंघाड़ा खाके,
शेर का गुर्राना देखा,
पूरी दुनिया का गोल-गोल चक्कर ले के
मैंने दुनिया को मारा धक्का...'

'बॉलीवुड, हॉलीवुड,
वैरी-वैरी, जॉली गुड...
राई के पहाड़ पर तीन फूटा लिलीपुट
मेरे पीछे किसने रिपीट किया तो साला
मैंने तेरे मुंह पर मारा मुक्का...'

'अय्याशी के वन वे से खुद को
मोडऩा जाने ना..
कंबल बेवजह यह शरम का
ओढऩा जाने ना....
जिद पकड़ के खड़ा 
कमबख्त का
छोडऩा जाने ना...'

'बदतमीज दिल बदतमीज दिल बदतमीज दिल माने ना...'

यकीन मानिए गीत के बोलों में क्या संदेश छिपा है अपने तो समझ से बाहर है। सोच-सोच के दिमाग का दही जरूर हो गया लेकिन गीत समझ में नहीं आया। हां एक बात समझ में जरूर आ गई कि दिल जब बदतमीज ही है तो फिर उससे तमीज की बातें करने की उम्मीद भी तो नहीं की जा सकती है। बदतमीज तो बदतमीजी से ही बात करेगा ना...। जरूरी थोड़े ही बदतमीजी की बातें सभी के समझ में आए। अपने भी नहीं आई....।

एक जैसी समानता...


बस यूं ही

 
राजस्थान के उदयपुर शहर में फिल्मी अभिनेत्री पूजा भट्ट और पुलिस अधीक्षक हरिप्रसाद शर्मा के बीच हुए घटनाक्रम को न केवल स्थानीय समाचार पत्रों में काफी तरजीह मिली बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी इस मामले को खूब हवा दी गई। सभी जगह एक जैसी समानता दिखाई दी...। मतलब सभी का झुकाव पुलिस की बजाय फिल्म यूनिट की तरफ ज्यादा दिखाई दिया। वैसे भी कोई भी घटनाक्रम हो, अक्सर यह मान लिया जाता है कि पुलिस की भूमिका सही नहीं थी। इसकी एक प्रमुख वजह यह भी है कि आम आदमी की नजरों में पुलिस की छवि अच्छी नहीं है। लेकिन पुलिस अधीक्षक हरिप्रसाद शर्मा को लेकर जो आरोप सामने आए हैं, उसको लेकर मैं आश्चर्यचकित हूं। हरिप्रसाद शर्मा को मैंने करीब से देखा है। पांच साल पहले वे झुंझुनूं के पुलिस अधीक्षक हुआ करते थे। उस वक्त मैं भी झुंझुनूं में ही था। किसी बड़ी सभा, आंदोलन या धरना आदि में कवरेज के दौरान उनसे मुलाकात हो ही जाया करती थी। वैसे मेरा उनसे जो संबंध एक पत्रकार का एक पुलिस अधिकारी के साथ होता वैसा ही रहा है। मैंने उनमें बाकी पुलिस अधिकारियों से अलग जो चीज देखी वह यह थी कि वे कभी वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर अपने मातहतों को दिशा-निर्देश देने के बजाय मौके पर जाने पर विश्वास रखते थे। यही कारण था कि अल्प समय में ही उन्होंने जिले की जनता में जो छाप छोड़ी वैसी बहुत कम पुलिस अधिकारी छोड़ पाए थे। कितना भी बड़ा घटनाक्रम हो मैंने उनको कभी गुस्से में या तनाव में नहीं देखा। इससे ठीक उलट कई बार तनावपूर्ण हालात वाले स्थान पर जाकर उन्होंने माहौल को न केवल सामान्य कर दिया बल्कि गुस्से में नथुने फुलाने वालों को बाद में हंसी के ठहाके लगाते भी देखा। अपने मातहतों की बैठकों में भी उनका रोल अधिकारी की बजाय लीडर वाला ही रहा। उस दौरान के बड़े एवं चुनिंदा कार्यक्रमों में उनका बतौर अतिथि दिखाई देना भी यह दर्शाता था कि लोग उनको किस कदर पंसद करने लगे थे।
आज जब इस अधिकारी पर लगाए गए आरोप के बारे में पढ़ा तो यकीन नहीं हुआ। पांच साल पहले मिलनसार, हंसमुख और जीवट अधिकारी की छवि बनाने वाला शख्स पांच साल में इतना तो नहीं बदल सकता।

फेसबुक से कई नुकसान


बस यूं ही

 
आफिस से लौटकर बस कम्प्यूटर पर फेसबुक ऑन करने वाला ही था कि धर्मपत्नी एक समाचार पत्र का परिशिष्ठ उठा लाई और जोर-जोर से पढ़कर मेरे को सुनाने लगी, हालांकि धर्मपत्नी भी फेसबुक से जुड़ी हुई हैं फिर भी उसने बिना लाग लपेट के पढना शुरू किया। मैंने उसकी सारी बातों को गंभीरता से सुना और इसके बाद उस अखबार को ले लिया। सोचा आपसे भी साझा कर लूं। शीर्षक जैसा कि मैंने दे ही दिया है.. लिखा था फेसबुक से कई नुकसान। अब अंदर के लिखे पर जरा गौर फरमाएगा....।

आजकल फेसबुक का जमाना है.. सभी उम्र के लोग इसमें अपना कीमती वक्त बेकार करते नजर आते हैं। अगर आप भी फेसबुक पर अपना अकाउंट बनाए हुए हैं तो आप निश्चित रूप से नुकसान झेल रहे हैं। फेसबुक के नुकसान इस प्रकार हैं-
1. समय की बर्बादी- फेसबुक पर लॉगिंग करने के बाद आप यह भूल जाते हैं कि आपने फेसबुक पर लॉगिंग क्यों किया है और आप एक प्रोफाइल से दूसरे प्रोफाइल को देखने में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि आपको पता ही नहीं चलता कि आपने कितना समय बर्बाद कर दिया।
2. नम्बर ऑफ लाइक्स की चिंता- अगर आपने फेसबुक पर अपना कोई फोटो अपलोड किया है तो आपके दिमाग में हमेशा यह घूमता रहता है कि कितने लोगों ने इसे लाइक किया या कमेंट किया। अगर आपके किसी फ्रेंड ने आपके द्वारा अपलोड किए गए फोटो को लाइक नहीं किया तो आप व्यर्थ में दुखी हो जाते हैं।
3. प्राइवेसी का खतरा- फेसबुक पर आपके द्वारा अपलोड किए गए फोटो को कोई भी डाउनलोड कर सकता है और उसका गलत इस्तेमाल कर सकता है।
4. जेल जाने की संभावना- फेसबुक पर यदि आपने कुछ ऐसे कमेंट किए जिससे सरकार की या अन्य किसी लोगों की भावना को ठेस पहुंचे तो वह आप पर केस कर सकता है ओर आपको जेल जाना पड़ सकता है।
5. बहुत सारे फे्रंड-फे्रंड रिक्वेस्ट के जरिए बहुत से अवांछित लोग आपके सम्पर्क में आ जाते हैं और अगर उनको फे्रंड नहीं बनाया तो वे लोग दुश्मन बन जाते हैं।
6. गंदे फोटो या लिंक- कभी भी वायरस के कारण गंदे फोटो या लिंक बिना आपके जानकारी के आपके सारे फे्रंड के पास पहुंच जाती है, जिससे आपको शर्मसार होना पड़ सकता है।
अगर आप इन सभी मुसीबतों से छुटकारा पाना चाहते हैं तो आज ही अपना फेसबुक अकाउंट बद करें और मन में शांति प्राप्त करें।
बहरहाल, धर्मपत्नी ने यह सब कम्पोज करते हुए भी देखा। जिज्ञासावश पूछ लिया कि ऐसा क्यों कर रहो? मैंने कहा कि तुमने मेरे को सुनाया मैं सब को सुना रहा हूं और क्या? वो निरूतर हो गई कुछ नहीं बोली। पास से उठकर चुपचाप टीवी के सामने जा बैठी।

तार नहीं रहा...


बस यूं ही

कल शाम को एक सांध्य दैनिक के अंतिम पेज पर प्रकाशित एक व्यंग्य छाया चित्र देखकर खुद को मुस्कुराने से नहीं रोक पाया। उसका मजमून कुछ इस तरह से था..। मां, बापूजी का टेलीग्राम आया है........। तार नहीं रहा। सचमुच तार अब अतीत का हिस्सा बन गया है। करोड़ों रुपए के नुकसान को देखते हुए इस सेवा को बंद करना पड़ा। वैसे इस नुकसान की तरफ हम सब का ध्यान तभी गया,जब इस सेवा को बंद करना पड़ा। समाचार पत्रों की सुर्खियों में भी टेलीग्राम ही छाया था। यह भी संयोग ही था कि सभी ने टेलीग्राफ के उजले पक्ष पर ही फोकस कर आमजन की सहानुभूति बटारेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। खैर, नफा-नुकसान आदि बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक जमाना वो भी था जब ग्रामीण क्षेत्रों में तार की छवि अच्छी नहीं मानी जाती थी। और इस कालखण्ड का साक्षी मैं भी रहा हूं। बचपन की स्मृतियां आज भी ताजा हैं। देहात में महिलाएं जब आपस झगड़ती थी और लड़ाई उग्र रूप धारण कर लेती तब महिलाएं एक दूसरे को गाली के रूप यह कहती थी 'भगवान करे, तेरे तार आए।' यहां तार आने का मतलब किसी अशुभ समाचार से ही होता था। सेना में जाने का शगल जिले के लोगों में आजादी के पहले से ही रहा है और अब भी है। ऐसे में कोई अनहोनी या बुरी खबर होती तब तार ही आता था। क्योंकि लगभग हर घर से कोई न कोई सेना में अवश्य होता था। बहरहाल, यह सब बताने का मकसद यही था कि तार की छवि कैसी थी। इतना ही नहीं किसी सैनिक को अगर घर बुलाना होता, कोई मांगलिक कार्य या शादी की बात होती तो उसको सेना से छुट्टी आसानी से नहीं मिलती थी। ऐसे में किसी परिजन के बीमार होने का बहाना बनाकर तार करवाया जाता था ताकि नियत समय पर छुट्टी मिल जाए। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि छात्र जीवन में दो बार तार करवाने का अवसर मुझे भी मिला है और दोनों ही बार मूल कारण न लिखकर कभी मां तो कभी पिताजी की बीमारी का उल्लेख करना पड़ा ताकि छुट्टी जल्दी मिल जाए।
अब बात एक ऐसे तार की जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। 1997 में बीए करने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त हो गया। इसी चक्कर में लगातार दो साल एमए पूर्वाद्ध में फीस जमा करवाने के बाद भी परीक्षा नहीं दे पाया। एक बार आरपीएससी की पुलिस इंस्पेक्टर की भर्ती आ गई तो दूसरी बार सेना में एजुकेशन हवलदार की लिखित परीक्षा। किस्मत में शायद यह नौकरियां नहीं थी। परीक्षा में उत्तीर्ण तो हुआ लेकिन वरीयता सूची में न आने के कारण मेरा चयन नहीं हो पाया। सन 2000 में पंचायत चुनाव के दौरान गांव के एक साथी ने चुनाव लडऩे की इच्छा जताई। उस वक्त हम सब गांव के युवा एक नवयुवक मंडल के माध्यम से गांव में रचनात्मक कार्यों में जुटे हुए। थे। चुनाव मैदान में कूदने की बात पर मंडल के सभी सदस्य सहमत नहीं थी लेकिन बाद में किसी तरह से सभी मान गए। चूंकि मंडल में मेरे पास महासचिव की जिम्मेदारी थी, लिहाजा लिखने पढऩे के तमाम काम मैं ही सम्पादित करता था। ऐसे में मतदाताओं के नाम एक मार्मिक अपील करने का जिम्मा भी मेरे को ही दिया गया। मैंने अपील लिखी और उसके पम्पलेट मतदाताओं के बीच वितरित कर दिए गए। संयोग से उसी वक्त बड़े भाई साहब दिल्ली से गांव आए हुए थे। उन्होंने मेरा लिखा वह पम्पलेट देखा तो प्रभावित हुए और कहा कि तुम तो अच्छा लिखते हो। संयोग से उसी दिन के पेपर में एक पत्रकारिता संस्थान के बारे में लिखा था कि अगर आपकी आयु 25 साल से कम है। आप अविवाहित हैं और हिन्दी पर अच्छी पकड़ है तो आवेदन करें। भाईसाहब के कहने पर ही मैंने आधे अधूरे मन से इस संस्थान में अपना आवेदन भेज दिया।
आवेदन चयनित हो गया और जयपुर में लिखित परीक्षा के बाद साक्षात्कार हुआ। यहां भी सफलता हाथ लगी। इसके बाद पत्र आया कि आपको फाइनल साक्षात्कार के लिए भोपाल जाना है। 25 जुलाई 2000 को यह साक्षात्कार भोपाल में था। कुल 97 युवक-युवतियां साक्षात्कार के लिए पहुंचे थे। बारी-बारी से सबका नम्बर आया। कोई मुस्कुराते हुए बाहर आ रहा था तो कोई मुंह लटकाए हुए। आखिरकार मेरा भी नम्बर आया।
साक्षात्कार की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद 14 जनों को बताया गया कि आपका चयन हो गया है और एक अगस्त से आपकी कक्षाएं शुरू हो जाएंगी। चूंकि मेरे को किस तरह का कोई जवाब नहीं मिला था। वैसे जवाब न मिलना यह दर्शा रहा था कि मेरा चयन नहीं हुआ है। यकीन मानिए मैं रोया तो नहीं लेकिन बाकी कुछ नहीं बचा। बड़े ही उदास एवं निराश मन से मैं गांव लौटा। यकायक हुए घटनाक्रम से मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिरकार यह सब कैसे हो गया। गांव के साथियों ने दिलासा दी, फिर भी मैं सामान्य नहीं हो पाया। भोपाल से साक्षात्कार देकर लौटने के बाद 7 अगस्त को एक तार आया हुआ था। उसमें लिखा था कि आप का चयन पत्रकारिता संस्थान के लिए हो गया है आप प्रशिक्षण के लिए तत्काल भोपाल पहुंचें। मुझो यकीन नहीं हो रहा था कि किस्मत इस तरह से यू टर्न लेगी। इसके बाद 14 अगस्त को मैं भोपाल पहुंच गया और पत्रकारिता का प्रशिक्षण लिया। यकीन मानिए उस तार ने मुझे कितनी खुशी दी मैं ही जानता हूं। और आज पत्रकारिता में हूं तो काफी कुछ योगदान उस तार का भी है। इसलिए कह सकता हूं कि तार से जुड़े दोनों ही तरह के अनुभव मैंने देखे हैं लेकिन गांव में तार की जो छवि है उससे इतर छवि मेरे जेहन में है। भले ही तार व उससे जुड़ी जानकारी इतिहास बन गई हों लेकिन मैं इसे कभी भूल नहीं सकता, जिंदगी भर भी नहीं। यह मेरी मधुर स्मृतियों में ताउम्र जिंदा रहेगा।