Monday, May 30, 2011

मेरा बचपन...७

मैं समझ रहा हूं और भली भांति जान भी रहा हूं कि यह कॉलम लम्बा होता जा रहा है लेकिन यादों को जब याद करने लगा तो सिलसिला थम ही नहीं रहा है। मुझे यह भी पता है कि एक अनजान व्यक्ति को इस कालम को पढ़ने में कतई दिलचस्पी नहीं होगी। होगी भी क्यों। इसे केवल वही व्यक्ति पढ़ेगा जो मेरा रिश्तेदार है या मेरा परिचित। आखिरकार पढ़ने में मजा भी उन्हीं लोगों को आएगा जो मुझे व्यक्तिशः जानते हैं। अभी तक मैं आप लोगों को अपने जन्म से लेकर १९९० तक की प्रमुख यादों से अवगत करा चुका हूं। बावजूद इसके मुझे लगता है कि एक बात और है जो आप सभी लोगों से शेयर करनी चाहिए हालांकि उसका हल्का सा जिक्र  मैं अपनी प्रोफाइल में कर चुका हूं। बचपन से मुझे दो चीजों का शोक लग गया था। टीवी देखने का और क्रिकेट खेलने का। वैसे मेरे गांव में टीवी १९८४ के आसपास आया।  वो भी केवल ऐसे लोगों के घर में लगा था जो बाहर नौकरी करते थे और छुटि्‌टयों में गांव आया करते थे। गांव के सारे बच्चे फिल्म देखने उस घर में जबरदस्ती घुस जाया करते थे। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि हमको घर से धक्के देकर निकाल दिया लेकिन हम ढीठ बने रहते। वैसे टीवी १९८१-८२ में पालम में मामाजी के यहां देख लिया था लेकिन वहां से आने के बाद गांव में कहां देखता। स्कूल के पास एक घर में शारजाह क्रिकेट कप को देखने के लिए टीवी लगाया गया। मैं स्कूल की आधी छुट्‌टी के दौरान टीवी देखने जाता। मन में डर भी रहता कि कहीं झिड़की मारकर बाहर नहीं निकाल दें लेकिन संयोग से क्रिकेट मैच के दौरान ऐसा नहीं हुआ। १९८७-८८ के आते-आते गांव में करीब दस-पन्द्रह घरों में टीवी हो गया था। लिहाजा, मेरे साथियों को अब कोई दिक्कत नहीं थी। हमारे पास विकल्प होता था कि वह मना करेगा तो दूसरे के घर चल देंगे। बचपन में देखे सीरियल, बुनियाद, इंतजार, निर्मला, जीवन रेखा, कहकशा, कमशमश आदि मुझे आज भी याद है। इसके बाद रामायण का दौर आया। उसको देखने के लिए तो एक तरह का जुनून सा सवार हो जाता था। टीवी देखते-देखते  मुझे फिल्मों का भी चस्का लग चुका था। ग्रामीण पृष्ठभूमि में किसी प्रकार के आयोजन में वीडियो दिखाने का प्रचलन उस वक्त कुछ ज्यादा ही था। वीसीआर को टीवी के साथ संलग्न कर फिल्म देखी जाती थी। गांव के आस-पड़ोस के करीब ५-६ किलोमीटर के इलाके में जब भी कोई वीडियो आता मैं चला जाता। यह अलग बात है कि मैं वहां जाते ही पहली फिल्म भी नहीं देख पाता और नींद के आगोश में समा जाता। सुबह होने के बाद मिट्‌टी से सने अपने शरीर को झाड़ कर चुपचाप घर आ जाता। इस काम के लिए मुझे घरवालों की कई बार डांट भी खानी पड़ी। क्रिकेट की कहानी तो किशोरावस्था में ज्यादा परवान चढ़ी हालांकि इसका बीजारोपण भी स्कूली जीवन में ही हो गया था। दसवीं पास करने से पहले तक पापाजी से अजमेर से दो-तीन बैट मंगवाकर तोड़ चुका था या यूं कहूं कि दोस्तों से तुड़वा चुका था। फिल्मों का जुनून ऐसा था कि मैं उनके नाम बाकायदा एक डायरी में लिखता था। वह डायरी घर पर आज भी सुरक्षित रखी हुर्इ है। आज न तो फिल्म देखने के लिए समय है और ना ही इच्छा होती है। बस बचपन की फिल्मों से जुड़ी यादों को जरूर याद कर लेता हूं। वैसे फिल्म देखने का सिलसिला १९९४ तक चला। इसके बाद शौक फिल्म की बजाय क्रिकेट की तरफ परिवर्तित हो गया, जो वर्तमान तक बरकरार है।

1 comment:

  1. टीवी ना दिखाने वालो को तो बचपन में हमने भी बहुत परेशान किया है |मोहले की बिजली की लाइन काट दिया करते थे | इस लिए लोग हमें स्पेशल जगह दे देते थे| ताकी वे सुकून से वीडियो या टीवी देख पाए |

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