Thursday, October 20, 2011

काहे के लोकसेवक


टिप्पणी
प्रशासन के निर्देशों के बावजूद बाजार फिर अतिक्रमण की चपेट में है। दीपोत्सव के चलते शहर की सड़कें और ज्यादा संकरी हो गई हैं। बीच सड़क पर पार्किंग हो रही है। सजावट के नाम सडक़ों पर टेंट लगाने का काम बेखौफ, बेधड़क और सरेआम हो रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। कुछ जगह तो हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि वाहन तो दूर पैदल निकलने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। दरअसल, यहां  तासीर ही ऐसी है।  प्रशासन तो बस बयान जारी करने तक ही सीमित हो गया है। कार्रवाई के नाम पर अफसरों के माथे पर बल पड़ जाते हैं।  पता नहीं किस बात की नौकरी कर रहे हैं और किसके लिए कर रहे हैं। काहे के लोकसेवक हैं। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर दिशा-निर्देश जारी हो जाते हैं। अधिकारी कभी बाजार में निकल कर देखें तो पता चलेगा कि आमजन को बाजार में सड़क पार करने में किस प्रकार की दुविधाओं एवं दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। अमूमन देखा गया है कि कुछ वर्ग विशेष के लोगों तथा वीआईपी को फायदा पहुंचाने के लिए आमजन के हितों की सरेआम बलि चढ़ा दी जाती है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी किसी के जन्मदिन के नाम पर। कभी किसी वीआईपी के आगमन के नाम पर तो कभी किसी बड़े आयोजन के बहाने, शहर में कुछ भी करो। किसी प्रकार की मनाही नहीं है। कोई रास्ता रोक रहा है तो कोई चंदे के नाम पर उगाही कर लेता है। मनमर्जी का खेल यहां खुलेआम चलता है।
भूल से कोई कानून की पालना करवाने की हिम्मत करता भी है तो ऐन-केन-प्रकारेण उसे चुप करवा दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि जिस जोश एवं उत्साह के साथ अभियान का आगाज होता है वह उसी अंदाज में अंजाम तक पहुंच ही नहीं पाता। मिलावटी मिठाई के खिलाफ चले अभियान का उदाहरण सबके सामने है। व्यापारियों के विरोध के बाद अभियान को रोक दिया गया। यहां सवाल उठाना लाजिमी है कि सिर्फ एक दिन में क्या अभियान का मकसद हल हो गया। प्रशासन के इस प्रकार के रवैये के कारण ही तो  अवैध कामों को बढ़ावा मिलता है। तभी तो बाजार में मिलावटी मिठाइयां बिकती हैं। कम तौल पर पेट्रोल मिलता है। घरेलू सिलेण्डरों का व्यावसायिक दुरुपयोग होता है। बिना बिल के बाजार में सोना बिकने आ जाता है। नकली मावे की खेप लगातार पहुंच जाती है। नेताओं के नाम के लेटरपैड से लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। यह चंद उदाहरण ही ऐसे हैं, जो यह बताने के लिए .पर्याप्त हैं कि प्रशासन कैसे व किस प्रकार की भूमिका निभा रहा है। यह सब क्यों व कैसे हो रहा है इस पर विचार करने का समय किसी के पास नहीं है। जनप्रतिनिधि तो इस प्रकार के मामले में कुछ बोलने की बजाय पर्दे के पीछे बैठकर तमाशा देखना ही ज्यादा पसंद करते हैं। उनको वोट बैंक खिसक जाने का खतरा जो रहता है।
बहरहाल, प्रशासन को अपनी भूमिका ईमानदारी से निभानी चाहिए। किसी प्रकार के दबाव या दखल को दरकिनार कर आम जन के हित से संबधित निर्णय तत्काल लेना चाहिए। प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों के रोज-रोज के बयानों से लोग अब तंग आ चुके हैं। बात काम की हो, विकास हो या किसी तरह की व्यवस्था बनाने की हो, ऐसे मामलों में अब तक शहरवासियों के हिस्से बयानबाजी ज्यादा आई है। उन पर अमल होता दिखाई नहीं देता। पानी बहुत गुजर चुका है। जरूरी है अब काम को, विकास को प्राथमिकता दी जाए। बदहाल व्यवस्था को सुधारने के लिए कोई निर्णायक पहल होनी चाहिए। बिना किसी लाग लपेट व राजनीति के। ईमानदारी के साथ।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 20 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।