Friday, August 31, 2018

इक बंजारा गाए-43


सदस्यता से हलचल
राजनीति में पाला बदलने की रीत पुरानी है। वैसे यह काम अक्सर मौका देखकर किया जाता है। विशेषकर चुनावी मौसम में पाला बदलने या किसी पार्टी से जुडऩे संबंधी मामले ज्यादा सामने आते हैं। बदलाव के इस दौर से श्रीगंगानगर भी अछूता नहीं है। अब तक पर्दे के पीछे खेलते आए एक शख्स ने अब खुले में राजनीति करने का मानस बना लिया है। उन्होंने दामन भी विपक्षी दल का थामा है। बताते हैं कि पैसे की इस शख्स के पास कोई कमी नहंीं हैं। वैसे नए नवेले शख्स का पार्टी का दामन थामना पार्टी के स्थानीय पुराने नेताओं को रास कम ही आ रहा है। तभी तो टिकट की उम्मीद में प्रयासरत नेताओं में इस नई इंट्री से हलचल मची है।
औपचारिकता हावी
छात्रसंघ चुनाव में शहर को बदरंग करने वालों के प्रति प्रशासन का रवैया कड़ा न होकर केवल औपचारिकता वाला ही दिखाई दे रहा है। संबंधित कॉलेज वाले तो छात्रों की इस कारस्तानी को हमेशा ही नजरअंदाज करते आए हैं। प्रशासन ने भी कभी कार्रवाई नहीं की। इससे भी बड़ी बात यह है कि जनप्रतिनिधि भी इस बदरंगता के खिलाफ सामने नहीं आ रहे हैं। आए भी तो कैसे? शहर को बदरंग करने वालों में कहीं न कहीं इन जनप्रतिनिधियों के हित भी जुड़े हुए हैं। अब जिनके हित जुड़े हुए हैं, वह कानून की पालना किस मुंह से करवाए। लोकलाज कहिए या कानून का डर, लिहाजा कार्रवाई हो रही है लेकिन रस्म ही निभाई जा रही है।
घुड़की बेअसर
श्रीगंगानगर में शराब न केवल देर रात तक बिकती है बल्कि निर्धारित मूल्य से ज्यादा बिकती है और खुलेआम बिकती है। पिछले सप्ताह जब पुलिस कप्तान ने साफ तौर पर चेताया कि अब निर्धारित समय के बाद शराब दुकानें नहीं खुलेंगी तो लगा उनकी चेतावनी असरदार रहेगी। एक दो दिन असर रहा भी लेकिन इसके बाद शराब विक्रेताओं ने अपने-अपने रास्ते फिर खोज लिए। शराब फिर उसी पुराने ढर्रे पर बिकने की जानकारी मिली है। यह तो पुलिस की जांच का विषय है उसकी चेतावनी को इतनी गंभीरता से क्यों नहीं लिया जा रहा। वैसे सच्चाई पुलिस से छिपी भी नहीं हैं। कभी भी औचक छापेमारी कर वास्तविकता का पता लगाया जा सकता है।
टिकट का जुगाड़
चुनाव में हार-जीत तो जनता के मूड पर निर्भर होती है लेकिन टिकट का बड़ा योगदान होता है। टिकट किसको दी जाए और क्यों दी जाए, राजनीतिक दलों के लिए यह बात सबसे जरूरी होती है। खैर, टिकट की दौड़धूप के लिए सभी अपने-अपने घोड़े दौड़ा रहे हैं। सब खुद को इक्कीस साबित करने की कवायद में जुटे हैं। खास बात यह है कि अपनी बात कहने के लिए प्रेस कान्फ्रेंस तक आयोजित होने लगी हैं। पिछले दिनों तो एक ही पार्टी की दो प्रेस वार्ताएं वो भी एक ही दिन और एक ही समय पर थी। फर्क सिर्फ इतना था कि एक को पार्टी के जिलाध्यक्ष ने संबोधित किया तो दूसरी को उसी पार्टी के अनुसांगिक संगठन के जिलाध्यक्ष ने। पिछले दिनों एक धरने को लेकर भी दोनों के बीच अदावत देखी गई थी।
पार्टी की दूरी
सतारुढ़ दल के पार्टी के जिला संगठन के एक पदाधिकारी इन दिनों अच्छे खासे सक्रिय हैं। इनका एकमात्र ध्येय है किसी तरह से पार्टी का टिकट मिल जाए। इसके लिए न केवल तमाम कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं बल्कि जनता के बीच जाकर खुद का सक्रिय साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे। पिछले दिनों भाईचारे के नाम पर बुलाया गया इनका सम्मेलन भी खासी चर्चा में रहा। वैसे इस सम्मेलन में उतना फायदा मिला भी नहीं, जितना सोचा गया था। नेताजी के समाज के लोगों ने समानांतर बयान जारी सम्मेलन पर सवाल उठा दिए। वैसे पार्टी का कोई बड़ा पदाधिकारी भी नेताजी के इस समेलन में नहीं आया। मतलब पार्टी ने सम्मेलन से दूरी बनाए रखी।
अध्यक्षी के लिए
चुनाव के समय समाजों की पूछ परख बढ़ जाती है। विशेषकर समाज विशेष के अध्यक्षों को मान-मनोव्वल खूब की जाती है। यही कारण है समाज का अध्यक्ष बनने के लिए खूब मेहनत करनी पड़ती है। समाज बंधुओं का ध्यान रखना पड़ता है। पिछले दिनों एक समाज के चुनाव में प्रतिस्पर्धा इस कदर बढ़ी कि समाज बंधुओं की बल्ले-बल्ले हो गई। इतना ही नहीं समाज बंधुओं के लिए अध्यक्षी के दावेदारों ने खाने के लिए अलग-अलग होटल तक बुक किए भी किए। भोजन के लिए पर्ची का सिस्टम तक अपनाया गया। अब यह बात जरूर चर्चा का विषय है कि यह खर्चा अध्यक्षी के दावेदारों ने किया कि पर्दे के पीछे फाइनेंसर कोई और था।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 30 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित

कमजोर प्रशासन!

टिप्पणी
छात्रसंघ चुनाव के मद्देनजर छात्र नेताओं के बीच चल रहे होर्डिंग्स वार के कारण शहर के चौक-चौराहे बदरंग हो चुके हैं। बड़ी बात यह है शहर को बदरंग होने से बचाने की जिनकी जिम्मेदारी है, वो न केवल चुप्पी साधे बैठे हैं बल्कि आंखें भी मंंूद रखी हैं। इससे भी गंभीर बात यह है कि जिला स्थायी लोक अदालत ने दो दिन पहले ही शहर के सौन्दर्य को बिगाड़ रहे अवैध होर्डिंग्स हटाने के संबंध में जो आदेश जारी किया था, उस पर भी कोई हलचल नहीं हुई। इससे साफ जाहिर है कि श्रीगंगानगर नगर परिषद व यूआईटी अधिकारियों तथा जनप्रतिनिधियों की इस काम में कतई रुचि नहीं है। नियम विरुद्ध काम करने वालों के खिलाफ चुप्पी साध लेना एक तरह की प्रशासनिक कमजोरी है। यह एक तरह की खुली छूट है, जो कानून तोडऩे वालों का संरक्षण करती है, जबकि प्रदेश में दूसरे स्थानों पर शहर को बदरंग करने वालों पर बकायदा कार्रवाई हो रही है, वहां के जनप्रतिनिधि भी शहर को बदरंग होने से बचाने के लिए प्रयासरत हैं, लेकिन श्रीगंगानगर में तो हालात कुएं में भांग जैसे हैं। जयपुर का ही उदाहरण है। वहां शहर को बदंरग करने के आरोप में निगम प्रशासन ने 16 छात्र नेताओं पर न केवल एफआईआर दर्ज करवाई बल्कि कुलपति से मुलाकात कर इन छात्र नेताओं को चुनाव के लिए अयोग्य घोषित करने की भी मांग की। इतना ही नहीं है जयपुर के महापौर ने उच्च शिक्षा मंत्री को पत्र भेजकर लिंगदोह कमेटी की पालना न करने वाले छात्र नेताओं को चुनाव के लिए अयोग्य घोषित करने की मांग की है। साथ ही शहर को बदरंग होने से बचाने का आग्रह भी किया है। इधर, श्रीगंगानगर में नगर परिषद व यूआईटी के अधिकारी तो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। नगर परिषद व यूआईटी के मुखियाओं का ‘गूंगापन’ भी इसकी बड़ी वजह है। शहर के इस हालात पर उनको तरस क्यों नहीं आता? आए भी कैसे ? चौक चौराहों पर खुद के फोटो लगे पोस्टर/ बैनर लगवाने के मामले में ये मुखिया भी पीछे नहीं रहते। कमोबेश ऐसे ही हालात जिले के ग्रामीण क्षेत्रों के हैं। खैर, कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ जब तक कठोर कार्रवाई नहीं होगी, तब तक शहर इसी तरह बदरंग होता रहेगा। यह प्रशासिनक कमजोरी का ही नतीजा है कि शहर के चौक-चौराहों को बपौती समझकर बदरंग करने वालों के हौसले बुलंद हैं। साल भर वो अपनी मनमर्जी से शहर को बदरंग करते रहते हैं लेकिन जिम्मेदारों ने कभी कार्रवाई नहीं की। उम्मीद की जानी चाहिए प्रशासन व जनप्रतिनिधि इस बदरंगता को दूर करने के लिए कारगर कदम उठाएंगे। साथ ही कड़ी कार्रवाई से ही कानून तोडऩे वालों के मन में भय होगा, अन्यथा नोटिस रूपी गीदड़ भभकियों से बात नहीं बनने वाली।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 26 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित 

अंदरखाने

लघुकथा
एक सामाजिक सम्मेलन में मंचासीन अतिथि एक दूसरे के हाथों में हाथ डालते हुए खडे़ हुए और हाथों को लहराते हुए संकल्प लिया। सभी ने एक स्वर में कहा हम समाज में जागरुकता लाएंगे। सामाजिक कुरातियों को दूर रहेंगे। दहेज प्रथा आज की सबसे बड़ी ज्वलंत समस्या है। अतिथियों ने दहेज न लेने व न देने के संकल्प उपस्थित लोगों से भी करवाया । सम्मेलन के बाद सभी अतिथि जब मंच से नीचे उतरने लगे तो भीड़ में शामिल एक शख्स उम्मीद भरी नजरों से मुख्य अतिथि से मुखाबित हुआ। हाथ जोड़ कर बोला हुकुम, मेरी बिटिया के लिए आपके लड़के का हाथ मांगता हूं। मेरा सामथ्र्य इतना ही नहीं कि मैं दहेज में मोटा सामान दे सकूं। आज आपने मंच से संकल्प दिलाया तो मुझे आपसे बेहतर कोई नजर नहीं आया। मुख्य अतिथि ने आंखें तरेरी और शख्स का हाथ पकड़कर एक तरफ ले जाकर कान में फुसफुसाए। मंच की बात पर मंच पर आ गई हो गई। अंदरखाने सब चलता है। आई बात समझ में.. हाथ जोड़े खड़ा वह शख्स जवाब सुनकर बिलकुल अवाक था।

पतली गली

लघुकथा 
अरे बाबोसा, पड़ोस के गांव में लड़का फौज में है, उसके टीके में पांच लाख और कार आई है। अपना बेटा तो अफसर है..अफसर, सोच लो कितने की डिमांड की जाए। तभी दूसरे युवक ने बात काटते हुए कहा अरे नहीं, नहीं काकोसा हुकुम काम तो अपनी कमाई से चलेगा। टीका लेने से कौन सी जिंदगी कट जाएगी, इसलिए अपने को दहेज बिलकुल भी नहीं लेना। बिना दहेज की शादी से समाज में अच्छा संदेश भी जाएगा। ठाकुर साहब असमंजस में थे कि किस की बात पर यकीन किया जाए। माथे की त्योरियां चढाते हुए बोले, अपने बबलू का रिश्ता फाइनल हो चुका है। दहेज में पांच लाख टीका और पांच लाख की गाड़ी की बात भी तय हो चुकी है। अब फैसला पलट नहीं सकते। कोई रास्ता बताओ कि काम भी हो जाए और समाज में संदेश भी चला जाए। अचानक तीसरा युवक उठा और ठाकुर साहब के कान में कुछ फुसफुसाया। ठाकुर साहब के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। आखिरकार शादी का दिन आ गया। बारात लड़की वालों के यहां पहुंची। सहेले पर लड़की के पिता ने 11 लाख की कार की चाबी सौंप दी। साथ ही थाली में पांच लाख रुपए भी दिए, लेकिन ठाकुर साहब ने पैसे यह कहते हुए वापस कर.दिए कि टीका लेना हमारी शान के खिलाफ है। हम दहेज लेने के पक्षधर नहीं। खैर, अगले दिन अखबारों में इसी शादी के चर्चे थे। शीर्षक था दूल्हे ने टीके के पांच लाख लौटाकर समाज में अनुकरणीय उदाहरण पेश किया। और इधर ठाकुर साहब कार को गिफ्ट बताकर मूंछ को ताव दे रहे थे।

पचास साल के युवा

बस यूं ही
सुधीर भाईजी। गांव में इनको हर युवा इसी नाम से पुकारता है। एक बार मैंने भाईसाहब कहा था तो टोक दिया और बोले भाईजी ही ठीक है। सुधीर भाईजी पेशे से अध्यापक होने के साथ-साथ न केवल खेल प्रेमी हैं बल्कि युवाओं जैसी ऊर्जा व फुर्ती भी रखते हैं। पचास साल के होने के बावजूद इनकी स्टेमना गजब की है। इनका परिवार पहले कोलकाता रहता था। छुट्टियों में यह लोग जब गांव आते थे तो क्रिकेट खेलते थे। इनको देखकर ही क्रिकेट के प्रति मोह पैदा हुआ। मैदान से बाहर बैठकर उनको खेलते देखता था। स्थायी रूप से गांव आने के बाद सुधीर भाईजी का क्रिकेट नियमित हो गया। आसपास के गांवों में जब भी क्रिकेट प्रतियोगिता होती सुधीर भाईजी का नाम सबसे पहले होता। सुधीर भाईजी सलामी बल्लेबाज की भूमिका में उतरते। धीरे-धीरे मैं भी अच्छा खेलने लगा। फिर तो सुधीर भाईजी के साथ ही खेलना होने लगा। हमने लंबे समय तक केहरपुरा कलां की क्रिकेट टीम की सलामी जोड़ी की भूमिका निभाई। गांव के खेल मैदान पर हम काफी समय तक साथ-साथ खेले हैं। वैसे सुधीर भाईजी को गांव के साथी सचिन भी कहते थे। यह भी एक संयोग है कि सुधीर भाईजी पहले कीपिंग भी करते थे। बाद में यह जिम्मेदारी मैंने संभाली। पत्रकारिता में आने के बाद मेरा क्रिकेट छूट गया लेकिन सुधीर भाईजी की पोस्टिंग नजदीकी गांवों में होने के कारण उनको खेल जारी रखने में दिक्कत नहीं हुई। फिलहाल गांव में वॉलीबाल पर जोर ज्यादा है। इस खेल में भी सुधीर भाईजी की फुर्ती देखने लायक होती है।
हाल ही में गांव के खेल मैदान को समतल किया गया है। इस पर ट्रेक बनाया जाना प्रस्तावित है। पिछले सप्ताह स्वाधीनता दिवस पर गांव गया था। ट्रेक निर्माण के सिलसिले में सरपंच प्रदीप झाझडि़या व युवा नेता बबूल चौधरी युवाओं के साथ मैदान पर पहुंचे थे। मैं भी खेल मैदान गया था। वहां सुधीर भाईजी के साथ एक फोटो ली। उसी मैदान की जहां हम साथ-साथ खूब खेले हैं। तेज धूप और दोपहर होने के कारण हम पसीने से लथपथ थे। हमको देखकर भाई राजेश भी पास आ गया। कहने लगा कि मैं भी तो आपकी टीम का हिस्सा रहा हूं। राजेश सेना की नौकरी से सेनानिवृत्त हो चुका है। उस वक्त राजेश का थ्रो बड़ा गजब का हुआ करता था। वह थ्रो इतनी तेजी से फेंकता कि मैदान के एक छोर से दूसरे छोर तक गेंद हवा में ही पहुंचा देता था। एेसा करना हर किसी के बस ही की बात नहीं होती है। बहरहाल, खुशी की बात यह है कि सुधीर भाईजी न केवल खुद खेलते हैं बल्कि खेलने वालों को प्रोत्साहित भी करते हैं। उनका यह जज्बा कायम रहे।

इक बंजारा गाए-43


फिर गफलत
यूआईटी के कामों में अक्सर कोई न कोई पंगा आता ही रहता है। शायद ही ऐसा कोई काम होगा, जो शांतिपूर्वक सिरे चढ़ा हो। ताजा मामला सुखडिय़ा सर्किल पर लगाए गए तिरंगे झंडे का है। श्रेय लेने के लिए झंडे को जल्दबाजी में लगा तो दिया लेकिन उसको उतारने या आधा झुकाने के विकल्प पर विचार नहीं किया गया। स्वाधीनता दिवस के दूसरे ही दिन पूर्व प्रधानमंत्री के निधन पर राजकीय शोक घोषित किया गया तो झंडा आधा झुकाने के बजाय पूरा ही उतार लिया गया। बताया जा रहा है कि तिरंगे झंडे को झुकाने की व्यवस्था नहीं है, लिहाजा उसे पूरा ही उतारा गया। देखते हैं अधूरा काम पूरा कब तक पूरा होता है लेकिन जल्दबाजी में हुई गफलत ने एक बार तो पंगा डाल ही दिया।
आदेश से आफत 
अक्सर काम करने की नसीहत दी जाती है। आराम को हराम तक की संज्ञा दे दी गई है। फिर भी कई बार कामों को रोकना पड़ता है। कारण चाहे कुछ भी हों। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के कारण राजकीय शोक के साथ कुछ राज्यों में अवकाश की घोषणा भी की गई, लेकिन इस अवकाश को ग्रामीण विकास के जिला स्तरीय कार्यालय ने गंभीरता से नहीं लिया। बताया जाता है कि यह विभाग रविवार को भी अक्सर खुला रहता है। शायद इसी कारण राजकीय अवकाश के दौरान भी इसको खुला रखने के निर्देश दे दिए गए। मामला तूल पकड़ गया तो जिम्मेदारों को इसका अहसास हुआ। आखिर कार्यालय आए कार्मिक श्रद्धांजलि अर्पित कर लौट गए।
बीमार जनप्रतिनिधि
रंगीन कुर्सियों के मामले में इन दिनों गांवों की सरकार में जबरदस्त हलचल मची हुई है। मामला अभी विचाराधीन है लेकिन जनप्रतिनिधियों में अच्छी खासी चर्चा का विषय बना हुआ है। विशेषकर रंगीन कुर्सी लगाने वाली पंचायतों के मुखियों में इसी बात का भय है कि अब आगे क्या होगा। जब तक जांच मुक्कमल नहीं हो जाती है, यह भय बना ही रहेगा। वैसे भय चीज ही ऐसी होती है, भले चंगों को भी बीमार बना देता है। सुनने में आ रहा है कि जांच के भय के चलते कई जनप्रतिनिधि बीमार हो गए हैं। कुछ जनप्रतिनिधि तो जिला मुख्यालय के अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ ले रहे बताए। यह अनजाना भय तभी दूर होगा जब जांच में दूध का दूध और पानी का पानी होगा।
मार्केटिंग का जमाना
नेकी कर और दरिया में डाल वाली कहावत कभी प्रासंगिक रही होगी, मौजूदा दौर में इस कहावत के मायने बदल गए हैं। अब तो तिल का ताड़ बनाने या थोड़ा करके ज्यादा गिनाने व बताने का जमाना है। श्रीगंगानगर शहर भी इस बदलाव से अछूता नहीं हैं। यहां भी कुछ इस तरह की संस्थाएं हैं, जो कथित समाजसेवा के नाम पर असहाय लोगों की मदद करती हैं। यह बात दीगर है कि इनकी मदद की तरीका बिलकुल प्रचार वाला ही होता है। मतलब किसी को भोजन भी कराया जाता है तो बकायदा उसका ढोल पीटा जाता है। कुछ संस्थाएं तो ऐसी हैं, जो सामान किसी दूसरे से लेती हैं और श्रेय खुद ले उड़ती हैं। इतना ही नहीं दूसरों के दान पर खुद का लेबल लगाकर सम्मानित होने का रिवाज भी इन दिनों प्रचनल में है।
पूछ-परख का दौर
चुनाव का मौसम होता ही ऐसा है। पता नहीं क्या क्या जतन करने पड़ते हैं। मतदाताओं की पूछ-परख तो अचानक से बढ़ जाती है। उनके दुख-दर्द में भागीदार बनने की होड़ सी लग जाती है। इतना ही नहीं मतदाताओं को रिझाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती। चुनाव की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आएगी मतदाताओं की मांग व नखरे भी बढ़ते जाएंगे। फिलहाल शहर में खाने-पिलाने का दौर शुरू हो चुका है। कई तो चुनाव लडऩे के लिए इतने अधीर हैं कि शक्ति प्रदर्शन तक करने लगे हैं। यहां तक कि मतदाताओं को होटल में ठहराने में भी गुरेज नहीं कर रहे। टिकट मिले या न मिले यह अलग बात है कि पर कुछ नेता तो चुनाव लडऩे का पूरा मानस बना चुके हैं। इस बहाने हाथ खोलकर खर्चा भी कर रहे हैं।
समय-समय की बात
एक पूर्व मंत्री के खासमखास इन दिनों संकट हैं और पूर्व मंत्री चाहकर भी इनकी कोई मदद नहीं कर पा रहे। वैसे भी पूर्व मंत्री में अब पहले वाली बात नहीं रही। दरअसल, मंत्रीजी के खासमखास पहले किसी होटल को लेकर मुसीबत में फंसे थे। वह मामला अभी पूरी तरह से निपटा भी नहीं कि अब एक पीजी की ऊंचाई अधिक होने की शिकायत हो चुकी है। वैसे यह पीजी पूर्व मंत्रीजी के खासमखास के भाई का बताया जा रहा है। समय-समय की बात है, कभी मंत्रीजी के एक फोन पर ही काम हो जाया करते थे लेकिन आज उनके नजदीकी व खास लोग संकट में हैं और कुछ भी नहीं कर पा रहे। फिलहाल पीजी में रहने वाली लड़कियों को ढाल बनाकर बचाव का प्रयास कितना कारगर रहता है यह देखने की बात है।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर के 23 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित। 

सरहद की चौकसी में शामिल हैं ‘पाकिस्तानी’ श्वान

हिन्दुमलकोट क्षेत्र में है श्वानों की जोड़ी
श्रीगंगानगर. इंसानी फितरत भले ही सरहदों के भेद को माने लेकिन जानवरों के लिए सरहद की पाबंदी कोई मायने नहीं रखती है। इतना ही नहीं जानवर इंसानों की तरह भेदभाव या दुश्मनी की बातें भी नहीं जानते। तभी तो दो ‘पाकिस्तानी’ श्वान न केवल वफादारी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं बल्कि सीमा सुरक्षा बल के जवानों के साथ सरहद पर मुस्तैदी से चौकन्ना भी रहते हैं। इन ‘पाकिस्तानी’ श्वानों की सरंचना सामान्य श्वानों के मुकाबले कमजोर है फिर भी सामान्य श्वान इनके आगे दुम दबाकर भागने पर मजबूर हो जाते हैं।
श्रीगंगानगर से लगी भारत पाक अंतराष्ट्रीय सीमा पर आबाद हिन्दुमलकोट में दो ‘पाकिस्तानी’ श्वान सीमा सुरक्षा बल के जवानों से बेहद घुलमिल गए हैं।इन श्वानों की कहानी भी बड़ी रोचक है। सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने बताया कि कुछ समय पहले पाकिस्तान से तारबंदी पार कर एक मादा श्वान भारतीय सीमा में प्रवेश कर गई। उस वक्त मादा गर्भवती थी और यहां आने के बाद उसने तीन पिल्लों को जन्म दिया। पिल्लों के जन्म देने के बाद मादा श्वान की मौत हो गई। इसके बाद सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने इन पिल्लों को पाला। बाद में एक पिल्ले की भी मौत हो गई। शेष रहे दो पिल्ले अब जवान हो चुके हैं। जवानों ने बताया कि यह काले रंग के दोनों श्वान बेहद खुंखार हैं। रात भर चौकसी में न केवल उनके साथ देते हैं बल्कि हल्की सी आहट पर भी सचेत भी कर देते हैं। दोनों श्वान उनकी रात को जंगली जीव-जंतुओं से भी रक्षा करते हैं।
सांपों से भी करते हैं रक्षा
अब दोनों श्वान साल भर के हो गए हैं। देशी नस्ल के यह श्वान नाटे कद के हैं। लेकिन तेज तर्रार इतने कि सीमा चौकी क्षेत्र में किसी जानवर के घुसने पर उसे बाहर निकाल कर ही दम लेते हैं। इन दिनों इनका ठिकाना हिन्दुमलकोट का पुराना स्टेशन है जहां स्टेशन के पुराने भवन के जीर्णोद्धार का काम चल रहा है। वहां तैनात सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने बताया कि दोनों श्वान रात-भर इधर-उधर घूमते हुए पहरेदारी करते हैं। कई बार तो इन्होंने रात के समय जहरीले सांपों तक का मुकाबला कर जवानों को सचेत किया है। घूमते हुए यह तारबंदी तक भी चले जाते हैं। लेकिन उसे पार करने की बजाय वापस आ जाते हैं।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 22 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित

सावन सूखा बीत रहा

सावन सूखा बीत रहा
उमस रही सताय
चैन किस दिन आएगा
कोई तो दियो बताय
सावन नहींं मनभावन
दो बर रहयो नहाय
चैन किस दिन आएगा
कोई तो दियो बताय
सावन की इस गर्मी में
कछु नही सुहाय
चैन किस दिन आएगा
कोई तो दियो बताय
सावन सूखा देखकर
मन नहीं हरषाय
चैन किस दिन आएगा
कोई तो दियो बताय
सावन भी जेठ का
एहसास रहा दिलाय
चैन किस दिन आएगा
कोई तो दियो बताय
सावन की सुहानी यादें
मन रहा बिसराय
चैन किस दिन आएगा
कोई तो दियो बताय

बदहाल सौर ऊर्जा संयंत्र

प्रसंगवश
सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने तथा बिजली की बचत करने के मकसद से प्रदेश के ग्राम पंचायत मुख्यालयों व पंचायत समितियों के अटल सेवा केन्द्रों पर लगाए गए सौर ऊर्जा संयंत्र दम तोडऩे लगे हैं। अकेले श्रीगंगानगर जिले में ही पचास फीसदी के करीब संयंत्र उपयोग में नहीं आ रहे हैं। कमोबेश प्रदेश के दूसरे स्थानों पर भी हालात कोई खास संतोष-जनक नहीं कहे जा सकते।
उल्लेखनीय है कि ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर संयंत्र लगाने में करीब दो लाख रुपए जबकि अटल सेवा केन्द्रों पर दस लाख रुपए खर्च हुए थे। इस तरह श्रीगंगानगर जिले के 336 ग्राम पंचायत मुख्यालयों व नौ अटल सेवा केन्द्रों पर साढ़े सात करोड़ से भी ज्यादा की राशि खर्च की गई थी। श्रीगंगानगर जैसे हालात कमोबेश प्रदेश के सभी जिलों में हैं। पूरे प्रदेश के परिपे्रक्ष्य में देखें तो मामला और चौंकाता है। प्रदेश में करीब तीन सौ पंचायत समितियां व दस हजार के करीब ग्राम पंचायतें हैं। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि सभी जगह संयंत्र लगाने में कितनी राशि खर्च हुई। विडम्बना यह है कि जिस मकसद से संयंत्र स्थापित किए गए थे, वह पूरा ही नहीं हो रहा है। संयंत्रों को ठीक करने की उम्मीद की कोई किरण भी नजर नहीं आती है। इन संयंत्रों का भविष्य क्या होगा? इनका रखरखाव कैसे किया जाएगा तथा खराब होने की स्थिति में इनको ठीक कौन करेगा व कैसे करेगा, इसको लेकर भी कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश दिखाई नहीं देते। इन संयंत्रों का रखरखाव करने वाली कंपनी का अनुबंध भी पांच साल तक ही था। वह भी पूरा हो चुका है। सौर ऊर्जा संयंत्रों की सुध न लेना एक तरह से सरकारी राशि का दुरुपयोग जैसा ही है। जिम्मेदारों के अव्यावहारिक व अदूरदर्शिता भरे फैसले के कारण न तो सरकारी राशि का सदुपयोग हुआ और ना ही सौर ऊर्जा से ग्राम पंचायत मुख्यालय रोशन हुए। ऐसे हालात में बिजली बचत की बात तो बिल्कुल ही बेमानी ही हो गई। ऐसे में सौर ऊर्जा संयंत्रों की कहानी एक तरह से 'माया मिली न राम' वाले मुहावरे को ही चरितार्थ कर रही है। सरकार को इस समूचे प्रकरण की न केवल जांच करवानी चाहिए बल्कि इससे सबक भी लेना चाहिए ताकि भविष्य में तात्कालिक वाहवाही के बजाय ठोस काम हों और सरकारी राशि का सदुपयोग हो। तभी आमजन सरकारी योजनाओं से लाभान्वित हो सकेगा।
एक तरफ सरकार वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा देने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर सौर ऊर्जा संयंत्रों की यह बदहाली है। बहरहाल, सरकार को खराब संयंत्रों को ठीक करने का कोई रास्ता खोजना चाहिए। इनका रखरखाव किस तरह से किया जाए ताकि इनका लाभ लंबे समय तक मिल सके। अन्यथा ये संयंत्र केवल अतीत की कहानी बन कर रह जाएंगे
 
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18 अगस्त 18 को राजस्थान पत्रिका के राजस्थान के तमाम संस्करणों में संपादकीय पेज पर प्रकाशित 

एकजुटता का पाठ पढ़ा गए वाजपेयी

अलविदा अटल : स्मृति शेष 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भले ही पंचतत्व में विलीन हो गए हों, देशवासियों को भावनात्मक रूप से वे एकसूत्र पिरो गए। उनके विचार, उनके सिद्धांत तथा राजनीति में दिए गए उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। उनके निधन पर शायद ही एेसा कोई होगा जिसने राजनीति के इस पुरोधा को श्रद्धांजलि न दी हो। पक्ष- विपक्ष सभी ने इस चिंतक-विचारक को दिल से श्रद्धा सुमन अर्पित किए। समूचे देश में वाजपेयी के लिए संवेदनाओं का जो सैलाब उमड़ा वह साबित करता है कि देशवासियों के मन में उनके प्रति कितनी श्रद्धा थी। एेसा होना भी था, क्योंकि वाजपेयी के लिए भी देश सर्वोपरि था। सक्रिय राजनीति में वह जब तक रहे देश की उन्नति व उत्थान के लिए कार्य करते रहे। वाजपेयी न केवल भाजपा का उदारवादी चेहरा थे बल्कि वे करिश्माई नेता भी थे। उनमें श्रोताओं को बांधने की अद्भुत कला थी। यही कारण था, उनको सुनने जन सैलाब उमड़ता था। उनके बोलने का अंदाज श्रोताओं को प्रभावित करता था। उनके चेहरे की भाव भंगिमाएं तथा रुक-रुक कर बोलने की शैली लुभाती थी। वे अपने भाषणों में श्रोताओं को हंसाते थे, गुदगुदाते थे तथा सोचने पर मजबूर भी करते थे। तेरह दिन की उनकी पहली सरकार जब गिरी थी, तो संसद में दिया गया उनका भाषण कालजयी हो गया। आज भी सोशल मीडिया पर वाजपेयी के उसी भाषण को न केवल सुना जा रहा है बल्कि पसंद भी किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर वाजपेयी को जिस अंदाज में श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है, वह अपने आप में अनूठी है। कोई उनको उन्हीं की कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि दे रहा था तो कोई अपने संस्मरण में उनको याद कर रहा है। वाजपेयी प्रखर वक्ता होने के साथ-साथ कवि भी थे। उनकी कालजयी कविताएं आज जन-जन की जुबान पर है। वाजपेयी रिश्ते निभाने के लिए जाने जाते हैं, विशेषकर अपने दोस्तों के लिए वो हमेशा तैयार रहते थे। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी तथा भैरोंसिंह शेखावत तीनों में गहरी दोस्ती रही। इनकी दोस्ती मिसाल मानी जाती रही है। परहित अर्पित तीन-मन के दर्शन में विश्वास करने वाले वाजपेयी ने पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के नारे जय जवान, जय किसान को आगे बढ़ाते हुए इसमें जय विज्ञान भी जोड़ा। इतना ही नहीं पोकरण में परमाणु बम परीक्षण कर समूचे विश्व को हतप्रभ कर दिया। वाजपेयी पड़ोसी मुल्कों से रिश्ते मधुर रखने के हिमायती थे। इसके लिए उन्होंने कई बार प्रयास किए। उन्होंने पाकिस्तान की बस से यात्रा भी की। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को शिखर सम्मलेन के लिए आमंत्रित किया। इतना ही नहीं वाजपेयी की स्वर्णिम चतुर्भुज योजना तथा प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना सभी की जुबां पर है। राजस्थान से उनका गहरा नाता रहा। शायद ही एेसा कोई बड़ा शहर रहा होगा जहां वाजपेयी न आए हों। राजस्थान के कमोबेश हर शहर से वाजपेयी की यादें जुड़ी हैं। यही हाल देश के अन्य स्थानों का है। यही कारण है उनके निधन के बाद देश के कोने कोने से जन सैलाब उमड़ा। हर कोई अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन करने तथा श्रद्धांजलि अर्पित करने को उत्सुक था। अंतिम यात्रा के दौरान सड़क के दोनों तरफ खड़ा हुजूम यह साबित कर रहा था कि वाजपेयी सच्चे अर्थों में जननेता थे। राजनीति के मौजूदा दौर में वाजपेयी जैसा चेहरा नजर नहीं आता। उदारवादी होने के साथ-साथ वे सर्वधर्म में विश्वास करने वाले नेता थे। वे एेसे नेता थे जिनके विपक्षी दलों से भी मधुर संबंध रहे। वाजपेयी की लोकप्रियता इसी से साबित होती है कि उन्होंने देश के विभिन्न लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और जीता। भारतीय संसद को दिया गया उनका 52 साल का एेतिहासिक योगदान आने वाली पीढि़यों का मार्गदर्शन करता रहेगा।

हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर में 18 अगस्त के 18 के अंक में विज्ञापन परिशिष्ट में प्रकाशित

अटल जी : न भूतो न भविष्यति

स्मृति शेष 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे। उनके निधन के बाद संवेदनाओं का सैलाब, भावनाओं का भूचाल तथा श्रद्धांजलि का सिलसिला इस कदर है कि शायद ही पहले कभी ऐसा देखा गया हो। नेताओं को जी भर के गरियाने वाले इस दौर में शायद ही कोई नेता एेसा लोकप्रिय हुआ होगा, जिसके लिए आज समूचा देश गमगीन है। अपने दिवंगत नेता को सारा देश दल विशेष की राजनीति से ऊपर उठकर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दे रहा है। सोशल मीडिया पर कमोबेश आज हर पोस्ट अटलजी के नाम है। सचमुच देश ने आज एक प्रखर वक्ता व करिश्माई नेता खो दिया। उदारवादी चेहरा, चिंतक, राजनीति का चमकता चेहरा हमारे बीच से हमेशा हमेशा के लिए चला गया है। यह बात दीगर है कि राजनीतिक परिदृश्य से गायब होने बाद अटलजी सुर्खियों में रहे तो मौत की अफवाहों के कारण। साल में तीन चार बार तो उनकी मौत की खबर वायरल हो ही जाती लेकिन अपनी ही कविता मौत से ठन गई की तरह अटल मौत की अफवाहों के सामने अटल रहे, लेकिन इस बार इस जंग में जिंदगी हार गई और मौत जीत गई। 
उनके निधन की खबर से मन विचलित है। राजनीतिक पत्र-पत्रिकाओं को शुरू से पढऩे के कारण राजनीतिक समझ जल्द विकसित हो गई थी। यही कारण था राजनीति में रुचि बढऩे लगी। वाजपेयी की विद्वता, आंखें मूंदकर व सिर हिलाकर बोलने का अंदाज इतना लुभाता था कि मैं कब उनका फैन बना पता ही नहीं चला। टीवी रेडि़यों पर उनके कई भाषण सुने हैं लेकिन दो बार उनको साक्षात सुनने का मौका भी मिला है। सीकर के आईटीआई मैदान में अटलजी की सभा थी। तारीख व सन को लेकर थोड़ा असमंजस है, कि यह 1989 की बात है या फिर 1993 की। खैर, अटल जी को सुनने की उत्सुकता कई दिनों से थी। सभा की जानकारी तो मिल गई थी पर सुनने कैसे जाऊं, यही दुविधा में मन में घर किए हुए थी। आखिर पता चला कि पड़ोसी कस्बे सुलताना से सीकर के लिए बस जाएगी। मैं गांव से सुलताना चला गया और बस में बैठ गया। सीकर में जहां अटलजी की सभा थी, उससे काफी दूर ही वाहनों की पार्किंग दी गई थी, लिहाजा बस से उतर कर पैदल ही सभास्थल की ओर रवाना हुआ। इतनी भीड़ पहली बार देखी थी। भीड़ में धक्के खाता हुआ आखिर मैं भी सभा स्थल पहुंच गया। मैं जिनके साथ गया था, उनको किसी को नहीं जानता था। घर वालों को भी बिना बताए ही निकला था। सभा खत्म हुई तब तक शाम को चुकी थी। मैं भीड़ में धक्के खाता सुलताना की बस को तलाश रहा था। संयोग से बस मिल गई लेकिन तब तक वह अंदर से फुल हो गई थी। अकेला बस की छत पर बैठा। सीकर से उदयपुरवाटी होते हुए रात को बस सुलताना पहुंची। वहां से पैदल गांव आया तब तक रात के दो बज चुके थे। इस बात को लेकर जितनी डांट पड़ी उसका तो कहना क्या लेकिन अटल जी को साक्षात सुनने की हसरत जरूर पूरी कर ली। इसके बाद अटलजी, झुंझुनूं के सेठ मोतीलाल कॉलेज स्टेडियम में विधानसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी के समर्थन में चुनावी सभा को संबोधित करने आए थे, तब उनको सुना। यह शायद 1998 की बात है और तब भाजपा की टिकट पर चुनाव मोहम्मद गुल ने लड़ा था।
बहरहाल, लंबे समय से बीमारी से जूझते हुए अटल आज अनंत में समा गए, लेकिन देश के प्रति उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। वो सबको साथ लेकर चलने वाले नेता थे। दलगत विचारधारों के अलावा व्यक्तिगत जीवन में शायद ही कोई अटल जी का विरोधी होगा। पड़ोसी देश पाक से रिश्ते मधुर बनाने के लिए अटल जी ने हमेशा प्रयास किए। खैर, अटल जी जैसा नेता मुझे अतीत या वर्तमान दौर में कोई नजर नहीं आता है। राजनीति के पुरोधा अटल जी को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि। वो एक राजनेता के साथ साथ कवि और पत्रकार.भी थे। उनके विराट व्यक्तित्व के लिए इतना ही कहा जा सकता है कि ...
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा...

सेहत से खिलवाड़

प्रसंगवश 
श्रीगंगानगर के राजकीय जिला चिकित्सालय में 'भामाशाह स्वास्थ्य योजना' में अनियमितता का मामला सामने आने के बाद स्वास्थ्य व चिकित्सा विभाग में प्रदेश स्तर तक हड़कंप मचा हुआ है। मामले की गंभीरता को देखते हुए विभाग ने इसकी जांच भी शुरू कर दी है। यह मामला पिछले डेढ़ साल में 'भामाशाह स्वास्थ्य योजना' के तहत राजकीय जिला चिकित्सालय में आने वाले मरीजों से संबंधित है। अभी तक की जांच में सामने आया है कि जिला अस्पताल में भर्ती तो 42 सौ मरीज हुए, लेकिन 28 सौ रोगियों को प्राइवेट अस्पताल या नर्सिंग होम भेज दिया गया। इन मरीजों को यह कहते हुए निजी अस्पतालों में भेजा गया कि आपको ऑपरेशन के लिए तीन माह का इंतजार करना पड़ेगा। इस प्रकरण में अभी पांच चिकित्सकों की भूमिका संदिग्ध मानी गई है। अब मरीजों से जाकर पूछा जाएगा कि उनको प्राइवेट अस्पतालों में भेजने के पीछे इन चिकित्सकों की मंशा क्या थी?
खैर, बात अकेली भामाशाह स्वास्थ्य योजना में वेटिंग की ही नहीं है। वेटिंग का यह 'खेल' अधिकतर जांच व ऑपरेशन में बदस्तूर चल रहा है। दो-दो, तीन-तीन माह की आगामी तारीख देकर मरीजों को टरकाया जा रहा है। वेटिंग लंबी होने की प्रमुख वजह स्टाफ की कमी या मरीजों की अधिकता को बनाया जाता है, लेकिन सच कुछ और ही है। वेटिंग का यह 'खेल दरअसल, कमीशन से जुड़ा है। यह तो सभी जानते हैं कि ऑपरेशन या जांच करवाकर तत्काल राहत पाने की उम्मीद रखने वाला मरीज किसी भी सूरत में लंबा इंतजार नहीं कर सकता। एेसे में वह प्राइवेट अस्पतालों की ओर रुख करता है। गंभीर बात यह है कि वेटिंग का सुनियोजित 'खेल' प्रदेश के कमोबेश हर सरकारी अस्पताल में देखने को मिल जाएगा। सस्ते व सहज-सुलभ इलाज की उम्मीद में सरकारी अस्पताल आने वाले मरीजों के साथ यह धोखा नहीं तो और क्या है? भामाशाह स्वास्थ्य योजना के तहत मरीजों को मुफ्त इलाज का ढिंढेरा पीटने वाली सरकार को यह सब नजर क्यों नहीं आता? ऐसे हालात कोरे भामाशाह कार्ड धारकों के लिए ही बन रहे हों ऐसा नहीं है। सरकारी अस्पतलों में मरीज इसीलिए जाने से घबराता है कि उसका ऑपरेशन हुआ तो समय पर नंबर आ पाएगा या नहीं। समय-समय पर मरीजों के परिजनों और डॉक्टरों के बीच कहासुनी व मारपीट की घटनाओं का बड़ा कारण मरीजों की अनदेखी के रूप में भी सामने आता है। सरकार को को तत्काल इस वेटिंग रूपी 'खेल' को बंद कर जिम्मेदारों पर नकेल कसनी चाहिए। वरना कमीशनखोरी की दीमक सरकार की 'भामाशाह' जैसी अहम योजना को दिन-ब-दिन खोखली करती जाएगी।

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राजस्थान पत्रिका के 11 अगस्त 18 को राजस्थान के तमाम संस्करणों में संपादकीय पेज पर प्रकाशित

जल्दबाजी का नतीजा

टिप्पणी
सुरक्षा व सुविधाओं पर सवाल तब भी उठे थे, और आज भी यथावत हैं। व्यवस्थाओं में खामियों के जुमले तब भी बने जो अब चरम पर पहुंच गए हैं। अनिष्ट की आशंकाओं के बादल तो पहले दिन ही मंडरा गए थे, जब एक सांड अचानक हवाई पट्टी पर आ गया था। हवाई सेवा शुरू करने में बरती गई जल्दबाजी पर तंज तब भी कसे गए थे, जो अब मजाक में तब्दील हो चुके हैं। यह सब इतना आनन-फानन व जल्दबाजी में हुआ कि एक माह के भीतर इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच शुरू हुई हवाई सेवा ने लोगों को खुशी तो दी लेकिन लालगढ़ हवाई पट्टी के हालात देखकर ऐसा कोई नहीं था, जिसने प्रसन्नता जताई। पहले दिन जयपुर से उडकऱ विमान जब लालगढ़ की हवाई पट्टी पर उतरा तो उसे देखने जनसैलाब उमड़ा लेकिन सुविधाओं व सुरक्षा के नाम जो थोड़ा बहुत पहले दिन दिखाई दिया वह दूसरे दिन सिरे से गायब था। खैर, हवाई सेवा चालू तो हुई लेकिन हवाई पट्टी जाने व आने वाले यात्रियों के लिए या बिजली या पानी तक की व्यवस्था नहीं है। हवाई पट्टी के चारों तरफ चारदीवारी भी नहीं है। हवाई सेवा की बुकिंग वैसे तो ऑनलाइन होती है फिर भी सीट खाली रहने की स्थिति में एक युवक टिकट काटता है। यह सब ठीक उसी तर्ज पर होता है जैसे किसी देहाती इलाके में खुले में खड़े होकर बस परिचालक यात्रियों को टिकट थमाता है। गंभीर विषय तो यह है कि हवाई पट्टी के नजदीक सैनिक छावनी होने के बावजूद यात्रियों की जांच-पड़ताल तक की कोई व्यवस्था नहीं है। स्थायी एंबुलेंस व चिकित्सकों की टीम जैसा भी यहां कुछ नहीं है। बड़े विमान उतरने के लिए यह हवाई पट्टी वैसे भी अनुकूल नहीं है। इसके विस्तार के लिए भूमि अधिग्रहण का मामला भी राज्य सरकार के पास विचाराधीन है।
बहरहाल, संतोष करने की बात यह है कि इस हादसे में कोई जनहानि नहीं हुई लेकिन इसकी वजह से कितनों की सांसें एकबारगी के लिए थमी, उसका कोई अंदाजा नहीं है। माना हवाई सेवा मौजूदा समय की जरूरत है लेकिन सुविधाओं और सुरक्षा को दरकिनार कर मानव जीवन को खतरे में डालने वाली सेवा किस काम की। हवाई पट्टी के हालात देखते हुए यह कहना उचित होगा कि हवाई सेवा आधी अधूरी तैयारियों के साथ जल्दबाजी में शुरू की गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस मामले में गंभीरता से विचार करेगी तथा जो खामियां व कमियां हैं, उनका तुरंत निराकरण करवाएगी ताकि हवाई यात्रा करने वालों के जेहन में किसी तरह की आशंका पैदा ही न हो।


राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 09 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित । 

इक बंजारा गाए-42


सडक़ में भेद
यूआईटी के हाल ही करवाए गए कई कामों पर अंगुली उठी है। चाहे वो सूरतगढ़ मार्ग पर सर्विस रोड का मामला हो या फिर सदर थाने के पास बीच सडक़ में चौक बनाने की बात हो। कुछ इसी तरह की चर्चाएं शक्ति मार्ग पर बनी नई रोड को लेकर भी हो रही हैं। एक तो सडक़ बनाने का काम बहुत देरी से हुआ। दूसरा यह है कि इस सडक़ को कहीं पर तो वाल-टू-वाल बना दिया गया तो कहीं दोनों साइड में एक-एक, दो-दो फीट जगह छोड़ दी गई है। सडक़ बनाने में किस तरह के मापदंड अपनाए गए यह लोगों की समझ से बाहर हो रहा है।
सडक़ की लड़ाई
परिषद व यूआईटी प्रमुखों के बीच खुद को इक्कीस साबित करने की अंदरखाने की होड़ तो कभी की चल रही है। कभी कभार यह बाहर भी आ जाती है। बात यहां तक पहुंच जाती है तो दोनों एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से भी नहीं चूकते। बड़ी और गंभीर बात तो यह है कि दोनों ही एक दूसरे पर शहर का विकास न करवाने का आरोप चस्पा करते हैं। वैसे शहर के हालात देखते हुए दोनों की बातों में ही दम नजर आता है। इस अहम की लड़ाई में जनता बेचारी उसी तरह पिस रही है, जैसे अनाज के साथ अक्सर घुन पिस जाता है। देखते हैं इस नूराकुश्ती का अंजाम क्या होता है।
कॉलेज का सपना
प्रदेश में नए मेडिकल कॉलेज भले ही शुरू हो गए हों लेकिन श्रीगंगानगर में यह मामला अभी लटका हुआ ही है। इतने लंबे इंतजार के बाद अब लोग न केवल सवाल उठाने लगे हैं बल्कि सोशल मीडिया पर भी अपनी पीड़ा व्यक्त करने लगे हैं। कोई दानदाता को कठघरे में खड़ा करता है तो कोई सरकार को। वैसे सोशल मीडिया में श्रीगंगानगर मेडिकल कॉलेज के नाम एक पेज भी बन गया है। खैर, श्रीगंगानगर में मेडिकल कॉलेज भले ही अस्तित्व में न आए लेकिन सोशल मीडिया का यह पेज, दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है, वाले शेर को चरितार्थ जरूर कर रहा है।
चुनाव की तैयारी
विधानसभा चुनाव के अब ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। चुनाव लडऩे के इच्छुकों में कोई समर्थकों से चर्चा कर रणनीति बना रहा है तो कोई कम समय का बहाना बनाकर सहानुभूति की लहर पर सवार होना चाहता है। विधायकी का सपना पालने वाले एक नेताजी का हाल भी इन दिनों ऐसा ही है। आजकल उनके कार्यालय में भीड़ भी जुटने लगी हैं। मंत्रणाएं होती हैं। कोई काम की आस में जाता है तो नेताजी मना नहीं कर रहे हैं, बस अफसोस जता रहे हैं कि कार्यकाल छोटा रहा, वरना पता नहीं क्या-क्या करता। खैर, जो किया जैसा किया वह भी किसी से छिपा नहीं है।
दुकानें बंद
कहते हैं खूंटा मजबूत हो तो बछड़ा उछल सकता है। मतलब पीठ पर हाथ होता है तो कोई कुछ भी कर सकता है। सट्टे की दुकान चलाने वालों का हाल भी कुछ ऐसा ही है। इनका खूंटा इतना मजबूत था कि सब कुछ बेरोकेटोक खुलेआम चलता था। लेकिन पिछले एक सप्ताह से खूंटा कमजोर हुआ तो दुकानें के शटर भी गिर गए। खाकी में बदलाव के बाद सट्टे के खूंटे को हवालात की हवा खिलाई गई तो कइयों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। लोगों की दिलचस्पी अब इसमें है कि खूंटा उखाड़ा ही जाएगा या उखाडऩे की धमकी से ही काम चलाया जाएगा।
हवाई सेवा
श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच पिछले माह शुरू हुई हवाई सेवा पहले दिन से मजाक बनी हुई है। शुरुआत में इस सुरक्षा व सुविधाओं को लेकर खूब जुमले बने। किसी को और न सूझा तो विमान के एक इंजन पर ही चुटकी ले ली। मंगलवार को विमान दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद तो चुटकुलों की बाढ़ सी आई हुई है। यहां तक एक एप के माध्यम से पंजाबी व मारवाड़ी में वीडियो तक बन गए हैं, जिसमें हवाई सेवा के बजाय बस में जाने का जिक्र है। दीवार व पेड़ के तने पर अटके विमान के फोटो के साथ चुटकुले सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 09 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित
 

Saturday, August 4, 2018

चिराग तले अंधेरा

टिप्पणी 
श्रीगंगानगर से कोच्चुवेली के लिए सुपर फास्ट ट्रेन का उद्घाटन मंगलवार को हुआ। दरअसल, यह ट्रेन पहले बीकानेर से चलती थी, अब इसका फेरा बढ़ाकर श्रीगंगानगर से कर दिया गया है। इसी माह 11 अगस्त को श्रीगंगानगर से नांदेड़ के लिए भी नई ट्रेन का उद्घाटन होगा। कुछ दिन पहले बीकानेर-बिलासपुर ट्रेन की शुरूआत हो चुकी है। इससे पहले श्रीगंगानगर से तिरुचिरपल्ली के बीच भी हमसफर ट्रेन चली थी। इस तरह से कुछ समय के अंतराल में लंबी दूरी की चार ट्रेन श्रीगंगानगर को मिल चुकी हैं और सभी साप्ताहिक हैं। इसके अलावा श्रीगंगानगर से कुछ पैंसेजर ट्रेनों का संचालन भी शुरू हुआ। इतना कुछ करने के बावजूद रेलवे चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है।
आज भी श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ के लोग एक ऐसी ट्रेन की इच्छा रखते हैं जो रोजाना जयपुर कम समय में पहुंचा सके। वर्तमान में इन दोनों जिलों के यात्रियों के लिए कोटा-श्रीगंगानगर इंटरसिटी एक्सप्रेस है, जो बीकानेर, नागौर आदि स्थानों से होकर जयपुर पहुंचती है। इस ट्रेन की सबसे बड़ी समस्या समय की है। हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच चलने वाली निजी बसों के मुकाबले इस ट्रेन में चार-पांच घंटे ज्यादा लगते हैं। समय की बचत मानिए या मजबूरी कि यात्री ज्यादा किराया देकर प्राइवेट बसों में सफर करते हैं। रेलवे चाहे तो इन यात्रियों की परेशानी का काफी हद तक समाधान कर सकता है। श्रीगंगानगर से सीकर तक रेलवे ट्रेक बन चुका है और वहां रेलों का संचालन भी होता है। अगर रेलवे सीकर तक सीधी रेल सेवा शुरू करता है तो दोनों जिले के यात्रियों को बड़ा फायदा होगा। इस संबंध में प्रस्ताव भी पारित है लेकिन पता नहीं है, ऐसी क्या वजह है कि रेलवे ने इस तरफ आंखें मूंद रखी हैं। सीकर से जयपुर के बीच आमान परिवर्तन का काम भी बेहद धीमा है। यह भी अपने आप में जांच का विषय है। यह भी सही है कि श्रीगंगानगर जिले में जो रेल सेवाएं नई शुरू हुई हैं, उनमें जनहित के बजाय रेलवे का हित ज्यादा जुड़ा है। वाशिंग लाइन इसकी बड़ी वजह है। समय के साथ लंबी दूरी की रेल सेवा भी जरूरी है लेकिन इसका यह मतलब तो कतई नहीं कि राज्य के भीतर सफर करने वालों को कुछ नहीं मिले। कम दूरी के यात्रियों की परेशानी को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए रेलवे व जनप्रतिनितिधि इस ओर भी ध्यान देंगे, क्योंकि इंतजार बहुत लंबा हो चला है।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 02 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित.

इक बंजारा गाए-41


जनप्रतिनिधियों में हडक़ंप
इन दिनों गांवों की सरकारों में जोरदार हलचल मची हुई है। कहीं बिना अनुमति के रंगीन कुर्सियां खरीदने का मामला चर्चा में तो है कहीं पर स्ट्रीट लाइट खरीद में गड़बड़ी की बातें चर्चा में हैं। यह मामले सामने आने के बाद इस तरह का काम करने वाले जनप्रतिनिधियों में हडक़म्प मचना लाजिमी है। वैसे इस तरह की अनियमिताएं जिला परिषद में नेतृत्व परिवर्तन के बाद ज्यादा दिखाई दे रही हैं। इतना ही नहीं है, अब तो बकायदा पुराने वाले नेतृत्व व मौजूदा नेतृत्व के बीच तुलना भी होने लगी है। फिर भी कुछ तो है जो नए नेतृत्व को अलग खड़ा करता है। देखने की बात यह है कि पंचायत राज में आगे और क्या उजागर होता है।
भूमिका पर सवाल
इन दिनों लालगढ़ पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। बताया जा रहा है कि मामला एक दुर्घटना कारित करने वाली कार में शराब मिलने से जुड़ा है। चर्चा यहां तक है कि जिस कार में शराब मिली, उसका आबकारी के तरफ से कोई परमिट नहीं था। शराब की बोतलें आजकल आ नहीं रही, लेकिन उसमें बोतलें मिली। इसके अलावा शराब निकालकर दूसरे गाड़ी में डालने संबंधी बातें भी सुनने में आ रही हैं। वैसे बताया जा रहा है कि इस दिन थाने के मुखिया अपने ही एक अधीनस्थ के खिलाफ थाने से बाहर किसी कार्रवाई में जुटे थे। मान भी लें कि अगर उनको इस कार्रवाई में कहीं कोई चूक नजर आई या आएगी तो फिर सवाल यह उठता है कि वह शराब कहां से आई ?
जल्दबाजी का नतीजा
कहते हैं कि जल्दबाजी में अक्सर नुकसान का अंदेशा बना रहा है। तभी तो ठंडी करके खाने की सलाह दी जाती है। पदमपुर टिन शैड हादसे की सूचना देने में भी कुछ खबरनवीसों ने जरूरत से ज्यादा ही जल्दबाजी दिखाई। उससे कहीं ज्यादा जल्दबाजी जनप्रतिनिधियों ने संवेदना व्यक्त करने में दिखा दी। यह बात अलग है कि बाद में किसी ने अपने संवेदना संदेश डिलीट किए तो किसी ने संशोधित संदेश प्रसारित करवा दिए। बहरहाल, खबरनवीसों की इस जल्दबाजी ने पुलिस व प्रशासन की अच्छी खासी मशक्कत करवा दी। अब जल्दबाजी दिखाने वाले को पहचान की जा रही हैं। देखते हैं गाज कहां व किस पर गिरती है।
बदलाव का असर
खाकी में नेतृत्व परिवर्तन आ असर बाकी जगह भले ही दिखाई न दे लेकिन कहीं कहीं पर इसकी आंशिक झलक दिखाई देने लगी है। विशेषकर ज्ञापन देने/ लेने के फोटो में यकायक कमी आई है। वैसे ज्ञापन देने वालों की यह दिली इच्छा होती है कि अधिकारी को ज्ञापन देते समय की उनकी फोटो समाचार पत्रों में प्रकाशित हो लेकिन अब नई व्यवस्था के तहत फोटो पर एक तरह से पाबंदी लगा दी गई है। कार्यालय में फोटोग्राफरों का प्रवेश वर्जित कर दिया बताया। इतना ही नहीं थाने के मुखिया भी आजकल कप्तान का हवाला देकर खबरनवीसों को बाइट व या बयान देने से कतराने लगे हैं। वैसे खाकी के लिए सख्ती व अनुशासन बेहद जरूरी हैं। देखते हैं खाकी बदलाव को कितने दिन बरकरार रखती है।
तबादलों का राज
चुनावी मौसम में अधिकारियों के तबादले होना आम बात हो चली है। इन दिनों खूब अधिकारी इधर से उधर हो रहे हैं। इस बदलाव से श्रीगंगानगर जिला भी अछूता नहीं रहा। यहां के कई अधिकारी भी इस बदलाव की जद में आए हैं। वैसे इन तबादले के पीछे दबे स्वर में और भी कारण गिनाए जा रहे हैं। कोई अधिकारी लंबे समय से यहां कुंडली मारे बैठा था तो किसी को अपने से सीनियर अधिकारी से तालमेल नहीं बैठा पाने का खमियाजा भुगतना पड़ा। कुछ को किसी हादसे की सजा मिली तो किसी को बेहतर काम न करने के कारण बदल दिया गया। फिर भी तबादलों के पीछे के राज चुनावी मौसम के आगे गौण हो गए।
समर्थकों की मौज
नेताओं के पास समर्थकों की फौज तो होती ही है। नेता समर्थकों का ख्याल रखता है तो समर्थक अपने नेता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। ऐसा की कुछ नजारा मंगलवार को नई टे्रन के उद्घाटन के समय का है। उद्घाटन समारोह में नेताओं के साथ बड़ी संख्या में उनके समर्थक भी आए। जैसे ही ट्रेन रवाना हुई, समर्थक भी उसमें सवार हो गए। अब नेताजी के समर्थक हैं, लिहाजा कौन पूछ परख करे। बताते हैं कि अधिकतर समर्थकों ने बिना टिकट के ही सुपर फास्ट ट्रेन में बैठने का आनंद लिया। अपना काम धंधा छोडकऱ, इतनी गर्मी में आने वाले कुछ तो हासिल करते ही। सो उन्होंने भरपाई रेल यात्रा से कर ली।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 02 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित..

जोर आजमाइश के इस खेल में लगती है जान की बाजी

श्रीगंगानगर. यह खेल जोर आजमाइश का है। इसमें जान भी दांव पर लगानी पड़ती है। रोमांच व खतरों से भरे इस खेल का नाम भी अजीब सा है। जी, हां इसका नाम है टोचन प्रतियोगिता। श्रीगंगानगर जिले के पदमपुर कस्बे में टिन शैड हादसे के बाद टोचन प्रतियोगिता अचानक से चर्चा में आ गई है। इसको जानने व समझने के लिए लोग बड़ी संख्या में गूगल तक की मदद ले रहे हैं। दरअसल, स्टील, जूट या प्लास्टिक की रस्सी की मदद से एक खराब वाहन को दूसरे वाहन से बांध कर खींचकर ले जाया जाता है, उसे टोचन कहते हैं। वैसे सही शब्द टो-चेन या टोइंग चेन है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है। टो यानी खींचना चेन यानी धातु की रस्सी। यह शब्द आदत में इतना आया कि टो-चेन को कब टोचन कहा जाने लगा पता ही नहीं चला। इस प्रक्रिया में खराब व सही दोनों ही गाड़ी एक ही दिशा में चलती हैं लेकिन टोचन प्रतियोगिता का फंडा अलग है। इसका नाम भले ही टोचन है लेकिन इसमें वाहन एक दूसरे को विपरीत दिशा में खींचते हैं और यह केवल ट्रैक्टरों के बीच होती हैं। यह एक तरह से रस्साकशी प्रतियोगिता का ही परिष्कृत रूप है। ट्रैक्टर के पीछे ट्रॉली के लिए जो हुक होता है, उसमें एक रॉड के माध्यम से दो ट्रैक्टरों को आपस में जोड़ दिया जाता है। दोनों को सेंट्रल प्वाइंट पर खड़ा किया जाता है। इसके बाद दोनों विपरीत दिशा में एक दूसरे को खींचते हैं। यह एक तरह से चालक की दक्षता की परीक्षा होती है, जो इसमें सफल होता है, बाजी उसी की होती है। 
हो सकता है हादसा
ट्रैक्टरों की जोर आजमाइश के दौरान कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है। ट्रैक्टर जब एक आपस में एक दूसरे को विपरीत दिशा में खींचते हैं तो उनके आगे का हिस्सा हवा में उठ जाता है। कई बार टै्रक्टर इतना ऊंचा उठ जाता है कि औंधा पलट भी जाता है। पंजाब में तो इकलौते ट्रैक्टरों की स्टंट प्रतियोगिता भी होती है, जिसमें आगे के दो टायर हवा में उठ जाते हैं और पीछे के दोनों पहियों पर ही ट्रैक्टर को गोल चक्कर कटाया जाता है। पंजाब में टोचन पर गाने तक भी लिखे गए हैं। इन दिनों वहां मोटरसाइकिल की टोचन प्रतियोगिता भी खूब प्रचलन में है।
इनाम का लालच
पंजाब व हरियाणा के देहाती इलाकों में इस तरह की टोचन प्रतियोगिता खूब होती हैं। टोचन प्रतियोगिता में आकर्षक इनाम रखे जाते हैं। इसी इनाम के लालच में ट्रैक्टर मालिक अपनी जान की बाजी लगाने से नहीं हिचकिचाता। ट्रैक्टर का नुकसान होने का अंदेशा भी रहता है। प्रतियोगिता अगर सडक़ पर है तो टायर का घिसना तय है। वैसे मैदानी इलाकों में भी यह भी प्रतियोगिता होती है। आयोजक ट्रैक्टर चालकों से प्रतियोगिता का प्रवेश शुल्क लेते हैं। साथ ही कुछ शर्तें भी रखते हैं। पंजाब व हरियाणा से सटे होने के कारण श्रीगंगानगर जिले में भी इस तरह के स्टंट वाले खेल पसंद किए जाते हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 01 अगस्त 18 के अंक में प्रकाशित

सबक लेने की जरूरत

टिप्पणी
रसूखदारों का साथ व सान्निध्य हो तो फिर कानून किस तरह कठपुतली बनता है, यह पदमपुर हादसे ने साबित कर दिया। जोखिम भरी और सशुल्क प्रतियोगिता, वह भी बिना किसी अनुमति के करवाने के पीछे भी कहीं न कहीं यही कारण रहे हैं। यह तो गनीमत रही कि हादसे में कोई बड़ी जनहानि नहीं हुई, लेकिन प्रशासनिक लापरवाही एवं उदासीनता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? हां, इस हादसे से जुड़े कई सवाल जरूर हैं, जो पुलिस व प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हैं। ट्रैक्टरों की रस्साकशी प्रतियोगिता का नाम ही अपने आप में अजूबा है। इस तरह की प्रतियोगिता का नाम सुनकर चौंकना लाजिमी है।
संभवत: यही कारण रहा कि इस स्टंट प्रतियोगिता को देखने हजारों लोग जुटे। इतना बड़ा आयोजन गुपचुप तरीके से हो जाना तथा पुलिस व प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं हो, यह बात किसी के गले नहीं उतरती। दरअसल, आजकल एक परिपाटी बन गई है कि किसी कार्यक्रम के लिए अगर पुलिस व प्रशासन की अनुमति नहीं मिलती है तो उसके लिए गली तलाश ली गई है। बचाव के लिए या बेरोक-टोक आयोजन करवाने के लिए रसूखदारों को इसमें शामिल कर लिया जाता है। इसके बाद कुछ करने की जरूरत भी नहीं रह जाती। कड़वी हकीकत यह भी है कि रसूखदारों की सिफारिश पर लगाए गए अधिकारियों में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह उनको ही चुनौती दे या उनके किसी गैरकानूनी काम में जानबूझकर टांग अड़ाए। पदमपुर में भी ऐसा ही हुआ। प्रतियोगिता तय हो गई। पंफलेट्स तक बंट गए। अतिथि व आयोजकों के फोटो लगे पोस्टर आदि छप गए। इसलिए ‘यह सब गुपचुप हुआ’ कहना कतई संभव नहीं है। आयोजकों को भी पैसे बटोरने की ही चिंता ज्यादा रही। प्रत्येक प्रतिभागी से एक हजार रुपए लिए गए, लेकिन प्रतियोगिता देखने उमड़े लोगों के बैठने की माकूल व्यवस्था नहीं की गई। चूंकि यह एक तरह की स्टंट प्रतियोगिता थी, फिर भी सुरक्षा तक के कोई प्रबंध नहीं थे। बैठने के स्थान के अभाव में ही दर्शक टिन शेड पर चढ़ गए। मौके पर मौजूद इक्का-दुक्का पुलिसकर्मी भी मूकदर्शक बनकर औपचारिकता निभाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सके।
बहरहाल, मामले की जांच के आदेश दे दिए गए हैं, लेकिन इस हादसे के जिम्मेदार कई हैं। जांच केवल जांच तक सीमित नहीं रहे। जांच का परिणाम निकले और प्रतियोगिता के आयोजकों व हादसे के जिम्मेदारों के खिलाफ उचित कार्रवाई हो ताकि नियम-कायदों को ताक पर रख कर इस तरह का काम करने वाले कुछ सबक ले सके। पुलिस व प्रशासन को भी किसी रसूखदार का नाम सुनकर आंख मूंदने की बजाय कानून के हिसाब से काम करना चाहिए। अगर पुलिस व प्रशासन रसूखदारों के दबाव या प्रभाव में आकर इसी तरह काम करते रहे तो फिर जान जोखिम में डालने वालों को रोकेगा कौन?
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 30 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित

चंडीगढ़ यात्रा-15


संस्मरण
हम पार्क का भ्रमण पूरा कर चुके थे। बस पार्क से निकलने ही वाले थे। खैर, एक बात जो छूट गई है, उसका जिक्र नहीं करूंगा तो यह संस्मरण बेमानी होगा। हो सकता मेरी बात सुनकर आप आश्चचर्य से उछल पड़ें या दांतों तले अंगुली दबा लें। बात यह है कि रोज गार्डन में एक दिल का पेड़ भी है। इतना ही नहीं उसकी टहनियों पर असंख्य दिल लटके हुए हैं और जब हवा चलती है तो यह पेड़ बड़ी ही कर्णप्रिय आवाज निकालता है। जितनी तेज हवा, उतनी ही तेज आवाज। लाल रंग के कई दिल देखकर मैं चौंक गया और झट से इस पेड़ के नीचे चला गया। सरसरी नजर से देखने पर तो मैं तय नहीं कर पाया कि यह किसका पेड़ है। नजदीक जाकर गौर से देखा तो यह कृत्रिम पेड़ था। पुष्टि के लिए भतीजे और भानजे से हां भी भरवाई। फिर इस पेड़ के दो चार फोटो भी लिए। सरियों को मोड़कर पेड़ की शाखाएं बना दी गई और उनमें असंख्य विंड चाइम लटके हुए थे। इनके साथ ही लोहे की चपटे आकार में दिलनुमा पत्तियां बनाकर उन पर लाल रंग किया हुआ था। यह सब इतनी कलाकारी के साथ किया हुआ है देखने वाला एकबारगी तो धोखा खा ही जाता है। बड़ी बात यह भी कि इस कृत्रिम पेड़.पर परिंदों ने घोसला भी बना लिया था। वैसे बताता चलूं कि कि विंड चाइम का फेंगसुई व वास्तु में खासा महत्व है। माना जाता है कि विंड चाइम में बहुत सकारात्मक ऊर्जा होती है, जो घर में उन्नति और समृद्धि लाती है, हालांकि पार्क में विंड चाइम लगाने के पीछे क्या मकसद रहा यह तो मुझे पता नहीं चला। हो सकता है यहां भी सकारात्मक ऊर्जा वाले फंडे को अपनाकर ही इसको लगाया गया हो। विंड चाइम का इन दिनों प्रचलन वैसे भी कुछ ज्यादा ही है। लोग घरों के अलावा दुकानों में भी इसको लगाने लगे हैं। विंड चाइम की भी एक अलग दुनिया है, मलसन, गुडलक के लिए अलग, समृद्धि व स्वास्थ्य के लिए अलग। विंड चाइम में कितनी राड लगाएं, कौन सी धातु की लगाएं तथा इसकी दिशा क्या हो, यह भी पूरा ध्यान रखा जाता है। खैर, यह अलग विषय है। हम पार्क से बाहर निकले, फिर नीबू पानी पीया लेकिन उसने नमक कुछ ज्यादा ही डाल दिया, लिहाजा स्वाद बेमजा हो गया। इसके बाद हम कार की तरफ बढे।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-14

संस्मरण
वैसे मुझे एक बात खटकी। पार्क का नाम है, जाहिर हुसैन रोज गार्डन लेकिन बोर्ड आदि में भी पूर्व राष्ट्रपति के नाम का कहीं पर भी उल्लेख दिखाई नहीं देता। सब लोग शोर्ट नाम रोज गार्डन की कहते हैं। इस पार्क की स्थापना 1967 में हुई थी तथा इसका नामकरण चंडीगढ़ के पहले कमिश्नर डा. एमएस रंधावा ने किया था। पार्क में लगे फूलों को लेकर वैसे जगह जगह सूचना पट्ट पर चेतावनी दी गई है कि फूल ना तोड़ें। फूल तोडऩे पर पांच सौ रुपए जुर्माना की चेतावनी लिखे बोर्ड भी जहां तहां टंगे हैं। पार्क में कई जगह कचरा पात्र भी रखे हुए हैं। और भी कई तरह की नसीहतें हैं, जो बोर्ड पर लिखी गई हैं। पार्क वैसे तो साल.भर.खुलता है लेकिन सर्दी गर्मी के दौरान.मामूली सा परिवर्तन किया जाता है। एक अप्रेल से 30 सितम्बर तक पार्क का समय सुबह पांच से रात दस बजे तक रहता है जबकि सर्दियों में मतलब एक अक्टूबर से 31 मार्च तक सुबह छह से रात दस बजे तक रहता है। घूमते घूमते एक बात और पता चली कि आप फुटपाथ पर जूते पहन कर चल सकते हो लेकिन पार्क के अंदर किसी गुलाब के पास जाना है तो नंगे पांव जाना पड़ेगा, हालांकि मैं जूतों में ही एक दो गुलाब के पौधों के पास गया लेकिन भानजे के अलावा किसी ने नहीं टोका। हो सकता है, उस वक्त मुझ पर किसी की नजर न हो। बच्चों के लिए पार्क के एक कोने में झूले आदि भी लगे हैं लेकिन उस वक्त वहां सन्नाटा पसरा था। वैसे गर्मियों में भी चहल-पहल शाम के वक्त ज्यादा होती है। पार्क में लगे रंगीन फव्वारे तो यहां के खास आकर्षण हैं। पार्क में घूमने वाला इनके पास जाकर फोटो जरूर खिंचवाता है। एक तरह से फव्वारे सेल्फी प्वाइंट बने हुए हैं। हमने दूर से ही इनको देखो पास नहीं गए। बहुत दूर थे। चलते-चलते हम थक गए थे, ऊपर से मौसम भी एेसा ही था। बताया गया कि पार्क के रखरखाव के लिए यहां पचास के करीब माली कार्यरत हैं। फरवरी माह के आखिर में यहां तीन दिवसीय रोग फेस्टिवल आयोजित होता है, इसमें देश-विदेश के सैलानी शामिल होते हैं। चंडीगढ़ का रोज फेस्टिवल अच्छा खासा लोकप्रिय है।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-13

संस्मरण
रॉक गार्डन से अब हम रोज गार्डन के लिए रवाना हो लिए थे। रोज गार्डन भी रॉक गार्डन से दूर नहीं है। कार की एसी में थोड़ी सी राहत मिली। बाहर धूप और उमस अपने चरम पर थी। करीब पांच-सात मिनट ही चले होंगे कि रोज गार्डन आ गया। यहां पार्किंग कोई शुल्क नहीं है। सुखना झील की तरह यहां भी कोई ज्यादा चहल पहल नहीं थी। भीड़ का पता पार्किंग में लगी गाड़ियों से हो जाता है। खैर, हम तीनों पार्क की तरफ बढ़े। प्रवेश द्वार पर दो तीन बोर्ड व संकेतांक दिखाई दिए तो मैंने तत्काल मोबाइल से क्लिक कर लिए। मुझे पक्का यकीन था, जरूर इसमें पार्क से संबंधित जानकारी है, जो बाद में लिखने के दौरान संदर्भ के रूप में भी काम आएगी। पार्क में प्रवेश करते ही दोनों तरफ काफी लंबे पेड़ों की कतार श है। एेसे पेड़ पहाड़ी क्षेत्रों में ज्यादा होते हैं। यहां भी मेरे मोबाइल का कैमरा चालू था। थोड़ा आगे बढ़े तो हरियाली से आच्छादित एक स्टैंड मिला। यहां बैंच लगी हैं, और यहां आने वाले ठंडी छांव में बैठकर सुस्ताते हैं। हम यहां बिना रुके ही सीधे आगे बढ़ते गए। रास्ते में रंग-बिरंगे गुलाब दिखाई देते तो उनको भी मोबाइल में कैद कर रहा था। वैसे रोज गार्डन आने का यह समय उपयुक्त नहीं है, क्योंकि गुलाब के फूलों पर शबाब सर्दियों में ही आता है, इसलिए सर्दियों में रोज गार्डन की रंगत देखने लायक होती है। हां इस बात से जरूर दिल को तसल्ली दी जा सकती है कि रोज गार्डन देख लिया लेकिन इसमें सर्दी के आनंद वाली बात नहीं है। गर्मी में तो औपचारिकता सी ही पूरी होती है। चलते-चलते गला फिर सूख गया था। पास ही एक वाटर कूलर लगा था। वहां से बोतल भर हमने प्यास बुझाई और फिर चल पड़े। यह पार्क कोई छोटा मोटा पार्क नहीं है। यह न केवल भारत बल्कि एशिया का सबसे बड़ा पार्क है। बोर्ड पर लिखी जानकारी के अनुसार यह पार्क 40.25 एकड़ में फैला है। इसमें गुलाबों की 825 प्रजातियां हैं। इस पार्क में कुल 32 हजार पांच सौ के करीब पौधे हैं। पार्क में घूमने के लिए फुटपाथ बना हुआ है। हम चले जा रहे थे। पेड़ कुछ कम हैं लेकिन उनकी छांव में युगल बैठे थे। कोई दुनिया से बेखबर तो कोई अठखेलियों में मगन ...।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-12

संस्मरण
हम लोग रॉक गार्डन काफी कुछ घूम चुके थे लेकिन अब भी जो बचा था वो वह भी अजूबा संसार था। टाइल्स, चूडियों व कंचों से न जाने कितनी तरह की कलाकृतियां बनाई गई है यहां। कितना समय लगा होगा इन सबको बनाने में। कहीं महिलाएं तो कहीं पुरुष। कहीं जंगली जानवर तो कहीं परिंदे। वह भी कोई एक दो दिन नहीं बल्कि काफी संख्या में। मैं समझ नहीं पा रहा था किसको कैमरे में कैद करूं और किसको छोडूं। धूप व उसम के बावजूद मैं लगातार फोटो खिंचने में लगा था। घूमावदार रास्तों के बीच हम आगे से आगे बढ़े जा रहे थे। पता नहीं था कि कितना देख चुके और कितना बाकी है। भानजा कुलदीप व भतीजा सिद्धार्थ यहां पूर्व में आ चुके, लिहाजा उनको रास्ता मालूम था, वरना मैं तो इस भूल भुलैया में दिनभर भटकता ही रहता। चूंकि हम जल्दी में थे इसलिए तमाम फोटो जल्दबाजी में ही खींचे। कोई एंगल वगैरह नहीं देखा गया। बिलकुल फ्लैट फोटो। हालांकि फोटोग्राफी का शौक भी है। मैं अक्सर फोटो व खबरों में हमेशा नया करने या अलग एंगल तलाशता रहता हूं लेकिन यहां मुझे समझौता करना पड़ा। तेज कदमों से चलना भी जारी था और क्लिक दर क्लिक भी किए जा रहा था। पसीने से टोपी, टीर्शट व जींस भीग चुके थे। मुझे मोबाइल की बैटरी की चिंता थी, हालांकि पावर बैंक था लेकिन वह घर रह गया था। इन कलाकृतियों के बीच एक यकायक नजर एक आदमी की कलाकृति पर पड़ी, जिसके एक हाथ में बीयर की बोतल व दूसरे में कप पकड़ाया गया था। चूंकि चंडीगढ़ खाने-पीने के शौकीनों का शहर है, इसलिए नेकचंद के जेहन में भी कहीं न कहीं यह बात जरूर रही होगी। खैर, इस नजारे को भी मैंने क्लिक किया। अब हम अंतिम चरण में थे। रॉक गार्डन की सैर पूर्ण होने को थी। करीब डेढ़ से दो घंटे में लगभग भागते हुए हमने रॉक गार्डन को देखा। तसल्ली से देखते तो शायद एक दिन भी कम पड़ता।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-11

संस्मरण
थोड़ी सी ओर जानकारी जुटाई तो पता चला कि उस वक्त चीफ़ एडमिनिस्ट्रेटर डॉ. एमएस रंधावा ने नेकचंद की इस कल्पना को रॉक गार्डन का नाम दिया था। करीब 40 एकड़ में बने इस गार्डन का उदघाटन 1976 में किया गया। यह गार्डन तीन चरणों में बनकर तैयार हुआ बताते हैं। पहले चरण में वह काम हुआ जो नेकचंद से गुपचुप तरीके से किया था। दूसरा चरण 1983 में खत्म हुआ। इसके तहत गार्डन में झरना, छोटा सा थियेटर, बगीचा जैसी कई चीज़ें शामिल थीं। इनके साथ ही कंक्रीट पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर पांच हजार के करीब छोटी-बड़ी कलाकृतियां बनाई गई थी। तीसरे चरण के तहत भी कई बड़े काम हुए। इनमें मेहराबों की सूची शामिल थी। इन मेहराबों पर झूले लगाए गए हैं। इन सब के साथ-साथ मूर्तियों प्रदर्शन के लिए एक मंडप, मछलीघर और ओपन सिंच थियेटर भी बनाया गया। एक मोटे अनुमान के अनुसार यहां रोजाना पांच हजार के करीब पर्यटक आते हैं। गार्डन में झरनों, रंग बिरंगी मछलियों और जलकुंड के अलावा ओपन एयर थियेटर भी है.
बिना किसी प्रशिक्षण और अकेले दम पर एक पूरा गार्डन बनाकर नेकचंद ने आउट साइडर आर्ट नाम के कॉन्सेप्ट को ख्याति दिलाई। इसका अर्थ होता है खुद से सीखी गई कला, जहां इंसान के पास किसी तरह की ट्रेनिंग नहीं होती और न ही मेनस्ट्रीम आर्ट की दुनिया से कोई वास्ता होता है। टूटे-फूटे सामान और मलबे से एकत्रित की गई सामग्री से रॉक गार्डन जैसी अदभुत व हैरतअंगेज़ रचना के लिए केंद्र सरकार ने 1984 में नेकचंद को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया था। 11 जून, 2015 कैंसर की बीमारी चलते नेकचंद ने आखिरी सांसें ली। इस गार्डन में एक फोटो दीर्घा भी है , जिसमें रॉक गार्डन के ही फोटो लगाए गए हैं। इस दीर्घा में आप समूचे गार्डन के फोटो देख सकते हैँ। अलग-अलग एंगल से लिए गए फोटो पर्यटकों का ध्यान खीचंते हैं। इस दीर्घा में नेकचंद के फोटो तथा उनसे संबंधित इतिहास लगा है। इसी दीर्घा के सामने आेपन थियेटर है, जहां कला संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम होते रहते हैं। रंग बिरंगी मछलियां भी पर्यटकों को लुभाती हैं। कई तरह के शीशे तथा उनमें बनने वाली उल्टी, सीधी, चपटी आकृति देखने वालों को स्वयं गुदगुदाती हैं। इसके अलावा मेहराबों पर लटकते झूले तो दिन भर आबाद रहते हैं। विशेषकर युगलों को इन झूलों पर बैठे या झूलते हुए देखा जा सकता था। रॉक गार्डन के झरने तो एक तरह से सेल्फी स्पॉट बने गए हैं। वैसे फोटो के मामले में महिलाएं कोई कंजूसी नहीं करती हैं। शायद यही कारण है कि रॉक गार्डन में अधिकतर जगह मैंने पुरुष को ही मोबाइल से फोटो खींचते देखा, वह भी महिलाओं की। खैर, सेल्फी का लोभ संवरण मैं भी नहीं कर पाया। एक सेल्फी लेता तो एक फोटो किसी कलाकृति की।
- क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-10

संस्मरण
कला दीर्घा से निकलने हम एक दुकान पर गए। भतीजे ने पूछा कोल्ड ड्रिंक लेंगे या सादा पानी। मैंने सादे पानी के लिए बोल दिया। गला तर करने के बाद एक पेड़ की छांव में सुस्ताने लगे। गर्मी से हलकान काफी लोग वहां पेड़ों की छांव में बैठे थे। इसी दौरान मैं सोचने लगा कि आदमी की मेहनत और कल्पना सब साकार होती है तो क्या से क्या बना देती है। सच में यकीन नहीं होता यह सब देखकर। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता वाली लोकोक्ति मुझे यहां बेमानी नजर आ रही थी। बताते हैं कि जब चंडीगढ़ का नक्शा बना था, उसमें रॉक गार्डन नहीं था। मैंने कहीं पढ़ा कि चंडीगढ़ बसाने के लिए जो जगह अधिग्रहित की गई तब उसकी जद में कुछ गांव व ढाणियां भी आ गए। उनको अन्यत्र शिफ्ट किया गया था, लेकिन उनके मकानों के अवशेष व मलबा वहीं रह गए। तब समस्या यह खड़ी हो गई कि इतने मलबे और कचरे का निस्तारण कहां किया जाए। एेसे में इसको कैपिटोल काम्प्लेक्स स्थित स्टोर में जमा किया जाने लगा। उस वक्त पीडब्ल्यूडी में कार्यरत श्री नेकचंद सैनी के पास इस स्टोर की जिम्मेदारी थी। बताते हैं कि मलबा ज्यादा होने लगा तो टेकचंद ने इसका निस्तारण कैसे व कहां हो इसकी कल्पना की। वो टाइल्स व वाशबेसिन के टुकड़ों को देखकर कल्पना के घोड़े दौडऩे लगते। कहते हैं कि धीरे-धीरे नेकचंद की कल्पना ने मूर्तरूप में लेना शुरू किया। वो दिन में स्टोर में काम करते और रात को कल्पनाओं में रंग भरते। इनका यह काम अनवरत जारी रहा। बताता चलूं कि नेकचंद सैनी का जन्म 15 दिसंबर 1924 को शिकारगढ तहसील के एक गांव में हुआ था। यह गांव अब पाकिस्तान में है। उनका परिवार सब्जियां उगाकर घर का खर्च चलाता था. भारत-पाक विभाजन के बाद नेकचंद भारतीय पंजाब के एक छोटे शहर में रहने लगे। यहां उनको रोड इंस्पेक्टर की नौकरी मिल गई। इसके बाद उनका तबादला चंडीगढ़ हो गया। चंडीगढ़ के निर्माण के वक्त 1951 में नेकचंद को सड़क निरीक्षक के पद पर रखा गया। नेकचंद ड्यूटी के बाद अपनी साइकिल उठाते और खाली कराए गए गांवों या कबाड़ स्टोर से टूटा फूटा सामान उठा लाते। वो अपने काम को इतनी सावधानी से निपटा रहे थे कि सरकारी अधिकारियों को इस बात की भनक 1975 में लगी। तब तक नेकचंद चार एकड़ जगह पर कलाकृतियां बना चुके थे। सरकार ने इस अवैध निर्माण को तोड़ने या हटाने की कोशिश तो लोग नेक चंद के समर्थन में खड़े हो गए। आखिरकार लेंडस्केप एडवायजऱी कमेटी ने इस गार्डन को बनाने की अनुमति दे दी। इस तरह रॉक गार्डन चंडीगढ़ की न केवल पहचान बना बल्कि देश के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में भी शुमार हो गया।
क्रमश: