Thursday, April 26, 2018

इक बंजारा गाए-28


सुनहरे सपने
सपने बेचना आसान होता नहीं होता और यह हर किसी के बस की बात भी नहीं है। यह बात दीगर है कि सपने सभी देखते हैं किसी के पूरे हो जाते हैं तो किसी के अधूरे रह जाते हैं। लेकिन श्रीगंगानगर में एक महाशय तो सपने दिखाने में जबरदस्त उस्ताद निकले। इनको सपनों का सौदागर कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सपनों के इस सौदागर ने सपनों के सहारे एक बार तो काठ की हांडी में किसी तरह दाल पका ली। पता नहीं तब क्या-क्या सपने दिखाए थे। किसी को कॉलेज के सपने तो दिखाए तो किसी को एग्रो फूड पार्क का सब्जबाग दिखाया। पर सपने सारे ही टूट गए। दुबार दाल पकाने का मौसम आया तो किसी तरह कॅालेज के सपने को फिर जिंदा किया गया। अब प्रशासन ने सपनों के सौदागर की हर शर्त मान ली। फिलहाल बैकफुट पर आए यह महाशय अब इस मामले में क्या रास्ता निकलते हैं ? हाल-फिलहाल के आसार से तो दाल पकती नजर नहीं आ रही।
याद की वजह
खाकी के भी ठाठ निराले हैं। कई उदाहरण तो ऐसे भी मिल जाएंगे जब कार्रवाई होनी चाहिए थी तब खाकी लंबी तान सोई थी। कुछ ही ऐसा मामला लोक परिवहन की बसों का है। बेकाबू रफ्तार पर कहीं कोई अंकुश नहीं था। तब भी जब पिछले दिनों एक ही नंबर की दो बसें दिखाई दी। न तो परिवहन विभाग जागा और न ही खाकी। विभागों की यह उदासीनता स्वयं स्फूर्त थी या जानबूझकर पैदा की गई ये दोनों पक्ष ही बेहतर जानते हैं, लेकिन इन बसों से हादसे बढऩे लगे तो खाकी के हाथ-पांव फूले। जन आंदोलनों को देखते हुए आखिरकार खाकी को कार्रवाई की याद आई। यह याद समय रहते आ जाती है तो यह बस वाले इतने निरकुंश नहीं होते। खाकी व परिवहन विभाग की कार्यशैली सही होती तो आज इस तरह की दौड़-धूप की जरूरत ही नहीं थी। इतना होने के बाद भी शहर की अंदरूनी यातायात व्यवस्था में अभी भी सुधार की काफी गुंजाइश है।
मनमर्जी का सौदा
मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है, क्या मेरे हक में वो फैसला देगा। प्रसिद्ध गायक जगजीत सिंह की गाई यह गजल इन दिनों शराब वाले विभाग पर सटीक बैठ रही है। वैसे भी विभाग को केवल टारगेट की चिंता है। शराब किस कीमत पर बिक रही है, कब बिक रही है, कैसे बिक रही है, इससे कोई मतलब नहीं है। एक तरह से विभाग ने ठेकेदारों व उनके कारिंदों को खुली छूट दे रखी है कि आप सुरा शौकीनों को जमकर लूटो। उनकी मनमर्जी से जेब काटो। आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इधर खाकी भी पिछले साल तक शराब ठेके पर कार्रवाई करती रही है लेकिन इस बार खाकी के दामन पर पर दाग लगे हैं। शराब ठेकेदारों से बंधी लेने के आरोप में पुलिस के कर्मचारियों भी धरे गए हैं। कार्रवाई करने वाले दोनों की विभाग आंख मूंद कर बैठे हैं। अब शराब ठेकेदार अपनी मर्जी से शराब की कीमत वसूल रहे हैं। पीडि़त व परेशान उपभोक्ता अपनी पीड़ा का रोना आखिर किसके आगे रोए।
मिट्टी में मिल रहे पैसे
कहते हैं जिम्मेदार जब कोई काम सोच लेते हैं तो उसे पूरा करके ही रहते हैं। यह अलग बात है उस काम का किसी को फायदा मिले या ना मिले। पर जिद है तो काम करना ही है। शिव चौक से जिला अस्पताल के बीच इंटरलॉकिंग के काम का प्रस्ताव जिसने भी तैयार किया है वह भी कुछ ऐसा ही है। यह काम क्यों व किसके लिए किया जा रहा है यह तो संबंधित विभाग, उसके कर्मचारी/ अधिकारी व नुमाइंदे ही बेहतर जानते हैं। फिलहाल इस काम को देखते हुए यह सरकारी पैसे को मिट्टी मिलाने से ज्यादा कुछ नजर आ रहा है। इस निर्माण कार्य की वजह से लोगों को जो परेशानी हो रही है उसका तो समाधान नजर ही नहीं आता। बिना मतलब काम और वह भी बेतरतीब तरीके से। बड़ी बात है कि जागरूक लोग इस काम को देखकर भी चुप हैं। गाहे-बगाहे धरना प्रदर्शन कर शहर हितैषी होने का दंभ भरने वालों को भी यह बिना मतलब का काम नजर नहीं आ रहा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 26 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित 

बिना राज के भी सजा है यहां 'पोपाबाई' का दरबार

श्रीगंगानगर. पोपा बाई का नाम सुनते ही चेहरे पर डेढ़ इंच मुस्कान तो जरूर दौड़ती है, लेकिन पोपाबाई कौन थी? के सवाल पर चेहरे की हवाईयां भी उड़ जाती हैं। 
विशेषकर सियायत में 'पोपाबाई का राज' नामक जुमला खूब चलता है। राजस्थान में तो गाहे-बगाहे इस जुमले का प्रयोग होता ही रहता है। खास तौर पर जहां अव्यवस्था हो, अराजकता हो या लगे कि कानून का राज नहीं है। मतलब जहां किसी तरह की कोई व्यवस्था नजर नहीं आए, उसको 'पोपाबाई का राज' कहा जाता है। इस जुमले को कमोबेश हर कोई चटखारे के साथ बोलता है। पोपा बाई कौन थी? कहां पैदा हुई? इसका राज कैसा था? इसका शासन कौन-से कालखंड में था? जैसे सवालों का संतोषजनक जवाब भले ही कहीं न मिले, लेकिन राजस्थान में एक जगह ऐसी भी है जहां पोपाबाई का छोटा सा मंदिर यानि की दरबार सजा है। यह जगह है श्रीगंगानगर जिले के सादुलशहर उपखंड का मुक्तिधाम। वैसे तो इस मुक्तिधाम में कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं लगी हैं, लेकिन पोपाबाई का दरबार चौंकाता है।
विधानसभा में भी छाया था 'पोपाबाई का राज'
27 जुलाई 2004 में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रासिंह ने विधानसभा में कहा था कि पोपाबाई का राज मुद्दा इस सदन में एक बार नहीं, अनेक बार उठाया गया है। मैं आपसे एक निवेदन करना चाहती हूं कि क्या दो सौ माननीय सदस्यों में से कोई सदस्य ऐसा है कि जो जानता है कि पोपाबाई कौन थी? इस बार पर खूब चर्चा चली। करीब एक दर्जन सदस्यों ने पोपाबाई के राज पर टिप्पणियां कर सदन को खूब हंसाया। सबसे आखिर में तत्कालीन शिक्षा मंत्री घनश्याम तिवाड़ी पर सदन लगातार हंसता रहा जब उन्होंने विधानससभा अध्यक्ष से मुखातिब होते हुए कहा कि आप पुरस्कार दें तो वो बताएंगे कि पोपाबाई कौन थीं? लेकिन सवाल फिर भी कायम रहा कि आखिर पोपाबाई कौन थीं?
कथाओं व कहानियोंं में पोपाबाई का जिक्र
बुजुर्गों के अनुसार कार्तिक माह में महिलाएं पोपाबाई की कथा सुनती हैं। संभवत: सादुलशहर में यह प्रतिमा उस कथा से प्रेरित होकर लगाई गई है। कथा में बताया गया है कि किस तरह पोपाबाई की मृत्य हो जाती है और फिर उसको किस तरह स्वर्ग का राज मिलता है। मृत्यु के बाद एक दंपती जब स्वर्ग पहुंचता है तो वहां का दरवाजा बंद मिलता है। तब धर्मराज प्रकट होते हैं और कहते हैं कि यहां 'पोपाबाई का राज' है। इसके बाद दंपती को मृत्युलोक जाकर सात दिन तक आठ खोपरा में राई भरकर ,पांच कपड़ा ऊपर रखकर कहानी सुनने और उद्यापन करने को कहते हैं। कथा के आखिर में, राज है पोपा बाई का, लेखा लेगी राई राई का। बोलो पोपा बाई की जय। कहा जाता है। वैसे पोपाबाई को पात्र मानकर कहानियां भी लिखी गई हैं।
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 25 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित    https://goo.gl/8yHVFs

राजनीति के रंग

बस यूं ही
राजनीति के रंग कई तरह के होते हैं। यह रंग हर किसी के जल्दी से समझ भी नहीं आते हैं। यहां कौन सगा है और कौन दगा देगा इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती। यहां संबंध भी स्थायी नहीं होते। तभी तो अवसरवादिता को राजनीति का प्रमुख अंग माना जाता है। राजस्थान की राजनीति इन दिनों जबरदस्त तरीके से गरमाई हुई है। वैसे तो किरोड़ीलाल मीणा की वापसी तथा उनको राज्यसभा की टिकट दिए जाने के साथ ही राजनीतिक गलियारों में यह कयास लगने शुरू हो गए थे कि केन्द्र ने अब राज्य की राजनीति में दखल देना शुरू कर दिया है। उसी वक्त से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाएं भी जोर पकडऩे लगी। नेतृत्व परिवर्तन तो नहीं हुआ लेकिन संगठन के मुखिया के अचानक त्यागपत्र ने सबको चौंका दिया। इससे बड़ी चौंकाने वाली बात थी जोधपुर सांसद व केन्द्रीय राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के प्रदेशाध्यक्ष बनने की चर्चा। सोशल मीडिया पर शेखावत का नाम बड़ी तेजी से वायरल हुआ। एक दो टीवी चैनल वालों ने भी उत्साह में उनका नाम बढा दिया। फिर क्या था, इसी के साथ शेखावत को बधाईदेने के संदेश भी वायरल होने लगे। बिना किसी अधिकारिक घोषणा या नियुक्ति के बधाई देने का यह अपने आप में अनूठा मामला था। मीडिया ने इस मामले को और अधिक चर्चा में ला दिया। मीडिया में नाम उछलना किसी रणनीति का हिस्सा था यह सिर्फ यह मीडिया की देन थी यह अलग विषय है लेकिन इसके बाद सोशल मीडिया पर दूसरी तरह की खबरें भी आने लगी। वैसे भी राजनीति में बड़े नेता कोई बात सीधे कहने से बचते रहते हैं। वे अपनी बात किसी समर्थक से कहलवाने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। राजनीति में फिलहाल हाशिये पर चल रहे तथा कभी भाजपा के कद्दावर नेता रहे देवीसिंह भाटी के बयान को भी उसी नजरिये से देखा जा रहा है। भाटी ने अर्जुनराम मेघवाल व गजेन्द्रसिंह शेखावत दोनों के नाम पर सवाल उठाए हैं। मीडिया में भाटी के हवाले से बताया गया है कि शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाने से जाट मतदाता नाराज हो जाएंगे तथा मेघवाल को बनाने से सौ वोट भी नहीं मिलेंगे। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भाटी ने यह बयान खुद ने दिया है या दिलवाया गया है यह कहने की जरूरत नहीं है। पिछले दिनों बीकानेर में हवाई सेवा के उद्घाटन के बाद जिंदाबाद व मुर्दाबाद के नारे लगे, तब साबित हो गया था कि राजनीति में अब तक राज्य नेतृत्व के खिलाफ गाहे-बगाहे मोर्चा खोलने वाले भाटी पलट कैसे गए। जाहिर सी बात है हार के बाद राजनीतिक वनवास भोग रहे भाटी को इस बहाने संबंध सुधारने का बेहतर मौका मिलता भी कैसे। खैर, भाटी के बयान से इतना तय है कि गजेन्द्र सिंह शेखावत या अर्जुनराम मेघवाल की राह भी उतनी आसान नहीं है।
प्रदेशाध्यक्ष बदले जाने के शोर के बीच बहस इस बात पर भी जरूरी है कि सता व संगठन में संबंध कैसे हो। राज्य में सता व संगठन के संबंधों को यह कहकर प्रचारित किया गया है कि संगठन ठीक से काम नहीं कर रहा था, वह सत्ता के प्रभाव में था। अगर यही बात केन्द्र के संदर्भ में करें तो क्या वहां संगठन सत्ता से अछूता है? या सत्ता के प्रभाव में नहीं है? यह राजनीति है। इसके रंग निराले हैं। इसमें जिसका सिक्का चल निकलता है उसके सौ खून भी माफ हो जाते हैं और जिसके दिन उल्टे शुरू हो जाते हैं वो चाहे कैसा भी कर ले कोई यकीन नहीं करता। मौजूदा हालात देखते हुए इतना तय है कि विधानसभा चुनाव तक राज्य की राजनीति और अधिक गरमाएगी। इंतजार करते रहें।

इक बंजारा गाए-27


राज की बात
श्रीगंगानगर में दो-तीन अधिकारी ऐसे हैं, जो घूम फिर किसी न किसी तरीके से वापस श्रीगंगानगर आ जाते हैं। उनका श्रीगंगानगर के प्रति प्रेम किसी रहस्य से कम नहीं है। यह अधिकारी श्रीगंगानगर से बाहर जाना नहीं चाहते या कोई बाहर का श्रीगंगानगर आना नहीं चाहता। कहानी तो जरूर है वरना कोई इतने लंबे समय तक और भी एक ही जिले में तथा विभिन्न पदों पर कौन टिकता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इन अधिकारियों का कभी श्रीगंगानगर से बाहर तबादला भी हुआ तो ये दो-तीन माह बाद किसी न किसी दूसरे विभाग में बदली करवाकर आ धमकते हैं। कुछ न कुछ तो है जरूर वरना घूम-फिर कर उसी जिले में नहंीं आते। यह अधिकारी लोकप्रिय कितने व कैसे हैं यह तो सब जानते हैं। हां, इससे यह साबित जरूर होता है कि इनकी ऊपर तक पहुंच जरूर है जिसके दम पर यह एक ही जगह पर टिके रहना चाहते हैं।
घर में नहीं दाने
घर में नहीं दाने अम्मी चली भुनाने, यह चर्चित कहावत इन दिनों यूआईटी पर सटीक बैठ रही है। पिछले सप्ताह पेश किए गए बजट को देखकर तो यही लगता है। बजट में कई तरह के हसीन सपने दिखाए गए हैं। इतने कि यूआईटी के पास इतना पैसा ही नहीं है। इससे भी बड़ी बात तो यह है कि पिछले बजट में जिस मद के लिए जितना बजट तय किया गया था वह खर्च ही नहीं हुआ। है ना कमाल की बात। शहर में विकास कार्य करने, नई कॉलोनियों विकसित करने तथा सौन्दर्यीकरण को बढ़ावा देने वाले विभाग की दूरदर्शिता का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है। हां, यूआईटी अधिकारियों को खुद के भवन की चिंता कुछ जरूरत से ज्यादा ही है तभी तो एक साल में उसी दीवार के दूसरी बार प्लास्टर हो गया और लगे हाथ कलर भी। जबकि यूआईटी की ठीक नाक के नीचे एक पार्क की हालत इतनी खराब है कि उसको पार्क कहते हुए भी हंसी आती है।
स्वागत का दौर
कहते हैं कि सम्मान हमेशा पात्र का करना चाहिए और निस्वार्थ भाव से करना चाहिए। इन दिनों जिला मुख्यालय पर इन दिनों किया गया सम्मान भी अच्छी खासी चर्चा में है। चर्चा का विषय है सम्मान के बहाने लोगों में देश प्रेम की भावना जगाना और फिर इस भावना को भुनाना। इतना ही नहीं जिसका सम्मान किया गया उसके सरनेम के आगे कोष्ठक में उसकी जाति का उल्लेख करने के पीछे भी कहीं न कहीं सियासी पेच नजर आता है। लंबे समय से सक्रिय राजनीति में वापसी के लिए वैसे तो एक नेताजी लंबे समय से इस तरह के उपक्रम कर रहे हैं लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे इस तरह की गतिविधियां बढ़ गई हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि जिसका सम्मान हुआ उसकी जिस अंदाज में अगुवानी की गई विदाई उससे ठीक उलटी थी। देखने की बात है कि यह सम्मान इन नेताजी के लिए कितना लाभदायक साबित होता है।
नई जगह तलाशी
श्रींगानगर की यातायात पुलिस के भी क्या कहने। जहां कार्रवाई की जरूरत है वहां तो इसके दर्शन कम ही होते हैं। अब जब से आजाद फाटक बंद हुआ है तब से पुलिस की कार्रवाई की एक स्थायी जगह ही बंद हो गई। विशेषकर टी प्वाइंट पर यातायात पुलिस के जवान नाका लगाते थे। फाटक की जगह दीवार बनने से अब टी प्वाइंट पर वाहनों का आवागमन कम हो गया है। आखिकर लंबी जददोजहद के बाद टी प्वाइंट जैसी जगह की तलाश ली गई है। यह जगह है शहर से बाहर साधुवाली स्थित सेना अस्पताल के पास है। ठीक वहीं जहां ओवरब्रिज का रास्ता जाकर मिलता है। यहां पेड़ों की ठंडी छांव के नीचे बाकायदा कार्रवाई को अंजाम दिया जाता है। अब खाकी को यह कौन समझाए उसका काम सिर्फ वसूली ही नहीं व्यवस्था बनाना भी है। शहर से बाहर कैसी व्यवस्था बन रही है, सब जान रहे हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 19 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित

Monday, April 16, 2018

इंसानी फितरत

बस यूं ही
किसी ने सच ही कहा है कि दुनिया में भले इंसानों के लिए जगह नहीं है। देखिए ना सांप अगर काटना छोड़ दे तो उसका क्या हश्र हो। लोग उसकी रस्सी न बना लें। इसी तरह सांड अगर मारना या मारने के लिए किसी को डराए नहीं तो लोग उसकी सवार न करने न लग जाएं। यह इंसानी फितरत है कि कमजोर को हमेशा दबाया जाता रहा है। सीधे पेड़ पर भी आरा सबसे पहले चलता है। कबीर जी भी कह कर गए कि दुनिया में जय जयकार हमेशा दुर्जन लोगों की होती है। यकीन नहीं है तो बताइए कि जो ग्रह नक्षत्र सही चल रहे होते हैं उनकी कभी आप पूजा करते हैं। नहीं करते ना। हां, जो ग्रह नक्षत्र उलटे चल रहे होते हैं, उनको सही करवाने के लिए कई तरह के जतन करने पड़ते हैं। पूजा हवन तक होते हैं। दान दक्षिणा तक दी जाती है। इसी तरह सीधा आदमी बगल से निकल जाए दुआ सलाम करने वाले बहुत कम होंगे लेकिन यही कोई प्रभावशाली आदमी हो तो फिर देखिए नजारा। किस तरह लोग उसके आगे पीछे दुम हिलाकर घूमते हैं। आजकल तो अपराधियों की मौत के बाद उनके समर्थन में हुजूम उमड़ता है। और कोई गरीब मर जाए तो जनाजे को कंधा देने वाले चार लोग तक नहीं आते। वाकई यह दुनिया गजब की है। इस दुनिया को समझना आसान नहीं है।
वैसे आदमी के बारे में काफी कुछ कहा भी गया है। यही कि आदमी आश्रय देने पर सिर पर चढ़ता है। उपदेश देने पर मुड़कर बैठता है। आदर करने पर खुशामद समझता है। उपकार करने पर अस्वीकार करता है। विश्वास करने पर हानि पहुंचता है। क्षमा करने पर दुर्बल समझता है और प्यार करने पर आघात करता है। इस तरह के चरित्र को उत्तम नहीं कहा जा सकता है। अगर इंसानियत व भाईचारे का दर्शन समझ में आ जाए तो सारे लफड़े ही खत्म मानो। होना यह चाहिए कि आश्रय देने पर उसका हमेशा एहसानमन्द होना चाहिए। कोई अच्छे कार्य के लिए कुछ उपदेश दे तो उसका पालन करना चाहिए। कोई सच्चे मन से आदर सत्कार करे तो उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखनी चाहिए। कोई हृदय से उपकार करे तो उसे सच्चे मन से ग्रहण करना चाहिए। विश्वास करने पर उसे कभी ठेस नहीं पहुंचाना चाहिए। अपनी गलती पर कोई हमें क्षमा करता है उसे दुर्बल नहीं समझना चाहिए बल्कि उसका एहसानमंद होना चाहिए। यदि कोई हमसे प्यार करे तो उसके प्यार एवं विश्वास को हमेशा बनाए रखना चाहिए।
मेरे को भी आज शुक्रवार को कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ। रुका नहीं गया तो जज्बातों को शब्द देने बैठ गया। क्या लिखा, कैसा लिखा यह सब आपके सामने हैं। यह सबक जिंदगी भर याद रहेगा। वाकई सीधा होना व किसी का निस्वार्थ भाव से सहयोग करना मौजूदा परिदृश्य में जोखिम भरा काम है। धन्यवाद तो दूर की बात है लोग पागल का तमगा जरूर चस्पा कर जाते हैं। बहरहाल देखने की बात यह है कि सीधे लोगों के दिन फिरते हैं या फिर यह दुर्लभ प्रजाति लुप्त हो जाएगी।

इस तरह जलते हैं हाथ

बस यूं ही
होम करते हाथ जले, यह कहावत लगभग हम सभी ने सुनी होगी। और जब सुनी होगी तो इस कहावत का अर्थ भी मालूम होगा। चलो किसी को मालूम नहीं है तो बता देता हूं। इसका अर्थ होता है भला करते हुए नुकसान हो जाना। कल मेरे साथ कुछ एेसा ही हुआ। दोपहर बाद की बात है। फेसबुक पर स्नेहीजन रतनसिंह जी चांपावत का एक मैसेज आया। मैसेज का मजमून कुछ इस तरह से था कि आजकल एफबी पर हैकर्स सक्रिय हैं। वो आपकी आईडी को हैक करके आपके नाम से आपके एफबी दोस्तों को कुछ आपत्तिजनक व अश्लील वीडियो भेज सकते हैं। अगर किसी के पास मेरे नाम से इस तरह का वीडियो आता है, तो यह वीडियो मेरे द्वारा भेजा हुआ नहीं होगा। इसके आगे लिखा था कि कृपया इस मैसेज को आप अपने तमाम एफबी दोस्तों को भेजिए। चूंकि रतनसिंहजी चांपावत एक सम्मानित नाम हैं और व्याख्याता हैं, लिहाजा उनकी बात का अनुसरण करते हुए मैंने मैसेंजर से अधिकतर एफबी फ्रेंड्स को भेज दिया। हालांकि मैसेंजर में फोन बुक वालों के नाम भी शो होते हैं, लिहाजा बहुत से एेसे लोगों के पास भी यह मैसेज सेंड हो गया जो एफबी फ्रेंड नहीं हैं।
इस मैसेज के बाद कई जनों ने मैसेंजर के माध्यम से ही इस मैसेज को लेकर कई तरह की पूछ परख की। कइयों ने अपनी शंकाएं व जिज्ञासाएं शांत की है। दोपहर से लेकर शाम तक तो मैं जिज्ञासाएं शांत करने में ही जुटा रहा। खैर, शाम होते होते- मैंने कुछ मित्रों को मैसेंजर से मैसेज भेजे लेकिन बार-बार अस्थायी रूप से ब्लॉक का मैसेज आ रहा था। मैंने यही सोचा कि मित्र लोग शायद बुरा मान गए ,क्षइसीलिए ब्लॉक कर दिया गया। हालांकि इस तरह की समस्या सभी के साथ नहीं थी, इसलिए शक और भी गहरा रहा था ऐसा हो क्यों रहा है। आज सुबह भी एक एफबी मित्र को मैसेज किया लेकिन जल्द ही नोट सेंट का मैसेज आ गया। दो तीन बार किया लेकिन बात बनी नहीं। आखिर उनके कमेंट के नीचे वो बात पूछनी जो मैं मैसेंजर में पूछना चाह रहा था। खैर, समस्या यथावत थी। शाम को आफिस के साथियों से चर्चा की तो सलाह दी गई कि लोगआउट कर लो। यह भी किया। पासवर्ड भी बदला लेकिन समस्या बनी रही। इसी बीच एफबी फ्रेंड लिस्ट में पहले से शामिल एक जने की और रिक्वेस्ट आई। मैं सोच रहा था कि यह तो पहले से मित्रता सूची में हैं, लिहाजा उनको मैसेंजर पर मैसेज किया कि दूसरी आईडी कैसे बनाई, लेकिन यहां भी मैसेज नोट सेंट आ रहा था। आखिर यह मर्ज समझ नहीं आ रहा था कि कुछ कुछ मित्रों के साथ ही एेसा क्यों हो रहा है। काफी पड़ताल के बाद सार यह निकला कि कल एक साथ हजारों मैसेज भेजे यह उसी का नतीजा है। मतलब सलाह देना भारी पड़ गया। यानि कि होम करते हाथ जला लिए। खैर, एक दो दिन में यह हालात सामान्य होंगे पर एक नया अनुभव जरूर हो गया। कहा भी कहा गया है कि अक्ल बादाम खाने से नहीं भचीड़ खाने से आती है। और यह मामला भी तो किसी भचीड़ से कम नहीं है।

इक बंजारा गाए 26

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संत की पीड़ा
माना जाता है कि संत तो सबके भले की ही सोचते हैं। वे तो लोक कल्याण की बातें करते हैं। पिछले कुछ समय से उल्टा परिदृश्य सामने आ रहा है। संत के आगमन से लेकर ठहरने तक तमाम इंतजामात इतने लग्जरियस किए जाते हैं कि सुनकर व देखकर हैरानी होती है। संतों के स्वागत व उनके आयोजन पर हजारों-लाखों रुपए पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। पिछले दिनों श्रीगंगानगर आए एक संत के स्वागत में भी खूब पलक पावड़े बिछाए गए लेकिन संत का मूड उखड़ा-उखड़ा सा नजर आया। यहां तक कि उनके कार्यक्रम का संचालन कर रहे हैं। शख्स को उन्होंने चुप करवा दिया। बताया गया है कि संत यहां तक बोल गए कि आज यहां दलाई लामा आते तो उनके स्वागत में कलक्टर, एसपी और मंत्री तक सब आते। संभवत: संत की पीड़ा कार्यक्रम में कम आई भीड़ और किसी प्रशासनिक अधिकारी के न पहुंचने को लेकर थी। इसके लिए दोषी किसको ठहराया जाए, लिहाजा गुस्सा बेचारे मंच संचालक पर उतरा। कार्यक्रम में मौजूद श्रोता संत का यह आचरण व अखड़ा मूड देखकर एक बार सोचने को मजबूर जरूर हुए कि आखिर यह माजरा क्या है। 
उलटफेर का किस्सा
उलटफेर कहां नहीं होता। फिल्मों से लेकर खेल मैदान तक। सियासत से लेकर आम आदमी के जीवन तक उलटफेर हो जाता है। कुछ ऐसा ही उलटफेर एक शख्स व उसकी संस्था के साथ हुआ बताते हैं। कला प्रेमी इस शख्स ने मुख्यमंत्री के जनसंवाद कार्यक्रम में प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह की याद में स्मारक बनाने की बात कही। बताते हैं कि यह मामला सीएम ने जिला प्रशासन को रेफर कर दिया। सीएम के निर्देशों की अनुपालना में प्रशासन ने बैठक भी बुलाई। उलटफेर का किस्सा यहीं से शुरू होता है। जनसंवाद में स्मारक की बात कहने वाले शख्स या उसकी संस्था के किसी सदस्य को इस बैठक में बुलाया तक नहीं गया। बैठक में भी कुछ खास लोगों को ही बुलाया गया। अब यह बात तो उस शख्स के भी समझ नहीं आ रही है कि प्रशासन ने यह उलटफेर क्यों व किसलिए किया। दबे स्वर में चर्चा इस बात की जरूर है कि प्रशासन की स्मारक बनाने में दिलचस्पी कम है। बताया जा रहा है कि प्रशासन की इच्छा तो यह है कि किसी तरह से इस मामले का पटाक्षेप हो जाए। स्मारक की जगह कोई स्टेच्यू ही लग जाए। देखते हैं आगे क्या होता है। 
स्वागत के बहाने
श्रीगंगानगर व बीकानेर दोनों पड़ोसी जिले हैं, लिहाजा दोनों में काफी समानताएं हैं। स्वागत करने की परम्परा भी इसी का ही हिस्सा है। सम्मान के मामले में श्रीगंगानगर दो कदम इसीलिए आगे हैं, क्योंकि यहां सम्मान की बाकायदा मार्केटि ंग भी होती है। खूब प्रचार-प्रसार होता है। इस बात का गली-गली डंका पीटा जाता है। वैसे स्वागत की इस परम्परा के पीछे मुख्य कारण खुद का प्रचार भी होता है। स्वागत के बहाने के कई लोग अपना नाम चमका लेते हैं। अखबारों की सुर्खियां बन जाते हैं। मतलब यह है जितना पसीना स्वागत वाले दिन नहीं बहाया जाता है, उससे कहीं ज्यादा दौड़ धूप तो पहले की जाती है ताकि नाम चर्चा में बना रहे। इस स्वागत में आर्थिक सहयोग करने वाले भी कम नहीं होते हैं। स्वागत के बहाने मोटा खर्चा करने तथा उससे पहले चंदा एकत्रित करने के भी कई उदाहरण सामने आते हैं। सहयोग करने वालों के नाम भी खूब प्रचारित किए जाते हैं। 
नेताजी का दर्द
नेताओं का मीडिया वालों से रिश्ता कुछ अलग व गहरा होता है। लेकिन रिश्ते में खटास उस वक्त पैदा होने लगती है कि जब मीडिया खरी-खरी पर उतर जाए। नेताओं की मनमाफिक कवरेज न हो। कुछ ऐसा ही हाल शहर के एक नेताजी का है। उनका दर्द है कि मीडिया हमेशा उनको लेकर नकारात्मक ही रहता है। कभी सकारात्मक खबर नहीं दिखाता। यह बात अलग है कि वह नकारात्मक खबरें नेताजी की न होकर उनसे संबंधित संस्था से होती है। पर नेताजी को कौन समझाए कि यह खबरें व्यवस्थागत खामियों पर केन्द्रित हैं जबकि वे उनको व्यक्तिगत ले रहे हैं। नेताजी के मन के किसी कोने में यह डर जरूर बैठा कि विभाग की नकारात्मक खबरें उनके सपने को पूरा करने में बाधक बन सकती हैं। बस यह सोच-सोच कर वे परेशान हैं। यह बात अलग है कि इन नेताजी ने जो-जो कथित काम करवाए हैं, उनका लाभ कम परेशानी ज्यादा हुई है। बात चाहे सीवरेज व पाइप लाइन बिछाने की हो, सड़कें टूटने की हो। नाले जाम होने की हो या फिर इंटरलॉकिंग के काम की हो। कुछ भी हो लेकिन नेताजी का दर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 12 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित

इस काम का लाभ किसे

टिप्पणी
शिव चौक से जिला अस्पताल तक इंटरलॉकिंग काम चल रहा है। कथित रूप से यह सौन्दर्यीकरण का हिस्सा है। निर्माण कार्य शुरू होने पर दावे किए गए थे कि यह पूरा हो जाएगा तो जयपुर व चंडीगढ़ की तरह दिखाई देगा, लेकिन दावों की हवा 'सौन्दर्यीकरण' पूरा होने से पहले ही निकल रही है। इस काम को देख कर मन में सहज ही एक सवाल उठता है कि यह काम किसके लिए हो रहा है? क्यों हो रहा है? तथा इसका लाभ किसे मिलेगा? क्या सोचकर इस छोटे से टुकड़े का चयन किया गया? इससे अच्छा तो इस मार्ग को अतिक्रमण मुक्त करवा दिया जाता। इससे यहां से गुजरने वालों के लिए बहुत बड़ी राहत होती, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस काम से जिम्मेदारों को हासिल क्या होता? विकास पर स्वार्थ हावी है। खैर, कछुआ गति से काम जारी है। इंटरलॉकिंग के नाम पर सड़क चौड़ी हो रही है, लेकिन हकीकत में हो उलटा रहा है। वर्तमान में इस छोटे से टुकड़े की बड़ी समस्या अतिक्रमण है। सड़क पर खुलेआम रेता बजरी का कारोबार होता है। दिन भर रेता बजरी के ट्रक और टै्रक्टर से रास्ता बाधित होता है। कई बार तो लंबा जाम तक लग जाता है। यह काम क्यों हो रहा है? किसका संरक्षण है इस काम के पीछे? क्यों जिम्मेदार यहां आंख मूंद लेते हैं? क्यों चंद लोगों के कारोबार के आगे लाखों लोगों को परेशान किया जा रहा है? अतिक्रमण करने वाले इन चंद लोगों से इतने स्नेह की आखिर वजह क्या है? इन सब सवालों को दरकिनार कर फिलहाल सौन्दर्यीकरण के नाम पर जमकर पैसा बहाया जा रहा है। एक ऐसे काम के लिए जिसका संभावित अंजाम शीशे की तरह साफ दिखाई दे रहा है। अतिक्रमण करने वालों को जिस विभाग ने शह दे रखी है वह कल इंटरलॉकिंग होने के बाद उनको हटा देगा, यह किसी भी सूरत में संभव नहीं लगता। खास बात देखिए, जहां इंटरलॉकिंग हो गई है, वहां फिर से वाहन खड़े होने लगे हैं। कई पेड़ व खंभे भी इस इंटरलॉकिंग की जद में आ रहे हैं लेकिन उनको हटाया नहीं जा रहा है। यही पेड़ व पोल तो अतिक्रमण का प्रमुख आधार बनते हैं। जहां इंटरलॉकिंग हो गई है वहां बेरोकटोक वाहन खड़े होने लगे हैं। इससे जाहिर हो रहा है कि इस सड़क पर जो कारोबार चल रहा है, वह उसी अंदाज में चलता रहेगा। बिना अतिक्रमण हटाए इंटरलॉकिंग करना एक तरह से पैसे की बर्बादी है। कथित रूप से इंटरलॉकिंग की गई जगह फुटपाथ के काम आएगी। दुपहिया वाहन चालक व पैदल राहगीर इस फुटपाथ का उपयोग करेंगे, लेकिन कब्जे काबिज रहने की सूरत में फुटपाथ का उपयोगी होना संदेहास्पद है। सड़क और फुटपाथ के बीच में एक छोटी सी दीवार खड़ी करके क्षेत्राधिकार तय किया जा रहा है, इससे हाइवे और भी सिकुड़ गया है। बड़ा सवाल यह भी है कि फुटपाथ पर जब वाहन खड़े होंगे, रेता व बजरी का कारोबार होगा तो दुपहिया वाहन व पैदल राहगीर कहां से निकलेंगे? जाहिर सी बात है वो वहीं से गुजरेंगे, जहां से अब गुजर रहे हैं। तो फिर यह इंटरलॉकिंग किसके लिए है और क्यों है? इतना ही नहीं अमानक सामग्री से बिना अभियंता की देखरेख में हो रहे काम की गति भी बेहद धीमी है। निर्माण कार्य के चलते यहां रोज जाम लगने लगा है। इधर पैदल राहगीर सिवाय धूल फांकने और व्यवस्था को कोसने के अलावा कुछ कर नहीं पा रहा है। जिम्मेदारों को इस तरह के काम तो कतई नहीं करने चाहिए जहां आमजन को लाभ भी न मिले और सरकारी राशि भी खर्च हो जाए। उन्हें यह बात हमेशा जेहन में रखनी चाहिए कि चंद लोगों के लाभ के लिए इस तरह आमजन की अनदेखी करना कभी-कभी भारी भी पड़ जाता है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 7 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित 

इक बंजारा गाए..25


कमाल की कार्रवाई
वैसे तो सभी विभाग समय-समय पर अपने हिसाब से कार्रवाई करते रहते हैं। यह कार्रवाइयां उनकी ड्यूटी का हिस्सा जो होती हैं। फिर भी पुलिस की कार्रवाई अक्सर सुर्खियों में रहती है। भले ही वह पुलिस करे या यातायात पुलिस, पर चर्चा जरूर होती है। अब श्रीगंगानगर यातायात पुलिस को ही ले लीजिए। शहर में पार्र्किंग की जगह तो आपको शायद ही कहीं दिखाई दे। यहां तक दुपहिया व चौपहिया भी सड़कों पर ही खड़े होते हैं। यह तो गनीमत है कि श्रीगंगानगर के रास्ते चौड़े व सीधे हैं, इस कारण यातायात बाधित नहीं होता। पार्र्किंग की जगह के अभाव में वाहनों को हर कहीं खड़ा कर दिया जाता है। जाहिर सी बात है कि जगह ही नहीं है तो फिर वाहन कहीं तो खड़ा करना ही पड़ेगा लेकिन यातायात पुलिस को इससे कोई मतलब नहीं। उसकी क्रेन निकलती है तो ज्यादा गाज चौपहिया वाहनों पर गिरती है। बाजार में कोई परिवार के साथ आया शख्स दुकान में खरीदारी कर रहा होता है, पीछे से यातायात पुलिस की क्रेन उसकी गाड़ी को वहां से उठा लेती है। यह अलग बात है कि इतनी कार्रवाई करने, इतना राजस्व वसूलने के बावजूद यातायात पुलिस किराये की क्रेन पर निर्भर है। सुना है इससे क्रेन वालों वालों का धंधा भी अच्छा खासा चल रहा है।
किसको क्या मिला
राजनीति के रंग निराले हैं। न तो यह हर किसी के जल्दी से समझ में आती है न ही यह सभी को रास आती है। यह बात दीगर है कि राजनीति को लेकर मन में लड्डू सबके फूटते हैं। राजनीति की एबीसीडी सीखने वाले तो मौकों की तलाश में रहते हैं कि कब मौका मिले और कब हाथ दिखाएं। राजनीति की राह पर प्रवेश करने वालों की नजर सामाजिक आंदोलन या प्रदर्शन पर ज्यादा टिकी होती है। उनका प्रयास रहता है येन-केन-प्रकारेण इन संगठनों के हमदर्द बनकर सहानुभूति कैसी बटोरी जाए। हालांकि इन नवेले नेताओं में कुछ ऐसे भी हैं जिनकी कार्यप्रणाली देखकर बड़े नेता भी दंग रह जाएं। यह अंदर से कुछ और बाहर से कुछ नजर आते हैं। पिछले दिनों एक बड़े में प्रदर्शन में शहर के एक युवा नेताजी सार्वजनिक रूप से तो चुप थे लेकिन अंदरखाने सोशल मीडिया पर मैसेज वायरल कर वाहवाही बटोरने से गुरेज नहीं कर रहे थे। इतना ही नहीं एक नए-नए नेताजी तो बाकायदा सार्वजनिक रूप से मंच पर दिखाई दिए जबकि उनके मिलते-जुलते संगठन प्रदेश में इस आंदोलन में कहीं चुप तो कहीं विरोध में नजर आए। अब राजनीति का यह गिरगिटिया रंग हर किसी के जल्दी से समझ नहीं आया और न ही कोई इसे तत्काल भांप पाता है।
दोनों हाथ में लड्डू
एक बहुत चर्चित शेर है, बनाने वाले तूने कमी न की, किसको क्या मिला मुद्दर की बात है। बाजार में जैसी चर्चाएं हैं, उन पर यकीन कर लिया जाए तो यह शेर आजकल उन किसान नेताओं पर सटीक बैठ रहा है जिन्होंने पिछले दिनों सीएम के आगमन के दौरान समझौता कर लिया। सीएम के दौरे के समय के विभिन्न विचारधाराओं के किसान नेता एकजुट नजर आए। या यूं कहे कि सतारूढ़ दल को छोड़कर बाकी सभी दलों से जुड़े किसान नेता एक मंच पर थे। इस एकता को देखकर लगा कि वाकई श्रीगंगानगर के किसानों के लिए संघर्ष करने वाले एक नहीं कई हैं। सीएम के दौरे के कारण शासन-प्रशासन वैसे ही बैकफुट पर था। इनका एकसूत्री उद्देश्य यही थी कि किसी तरह किसान नेताओं को शांत कर लिया जाए ताकि सीएम का दौरा शांतिपूर्वक निबट जाए। कई दौर की वार्ताएं हुई आखिर कथित रूप से समझौता हो गया। यह बात किसान नेताओं व सरकार के नेताओं के बीच की थी। अब आम किसान को तो यह भी नहीं पता कि समझौता किन मांगों को लेकर हुआ और समझौते में क्या है। सीएम चली गई लेकिन समझौते को लेकर किसान खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। वह बताने की स्थिति में नहीं है कि उसको क्या मिला।
धर्म का सहारा
श्रीगंगानगर में धर्म के प्रचार-प्रसार का काम कुछ ज्यादा ही है। यहां तक कि गाहे-बगाहे बड़े-बड़े आयोजन होते ही रहते हैं। कार्यकम इतने बड़े व तड़क-भड़क वाले होते हैं कि पैसा भी खुलकर खर्च किया जाता है। यहां तक कि कई संगठनों में तो इस बात की होड़ सी लग जाती है कि वह अपने कार्यक्रम को इक्कीस साबित कैसे करें। धर्म के प्रचार की इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में अक्सर नियमों की अवहेलना होती रहती है। धर्म का मामला समझ शासन-प्रशासन भी आंख मूंद लेता है। आयोजन के प्रचार-प्रचार के लिए शहर के गले, चौराहे व नुक्कड आदि को पोस्टर व होर्डिंग्स से रंग दिया जाता है। शायद ही ऐसा कोई सप्ताह बीतता होगा जब शहर के प्रमुख चौक बदरंग न होते हों। आजकल इन संगठनों ने बिना किसी रोक टोक व आपत्ति के प्रचार का एक और रास्ता और खोज लिया है। वो इन कार्यक्रमों में जानबूझकर खबरनवीसों को जोडऩे लगे हैं। उनको जिम्मेदारी देने लगे हैं। इससे संगठनों को दोहरा फायदा होने लगा है। प्रचार का प्रचार ऊपर से शहर बदरंग करने की बात कहने वालों का मुंह भी चुप। वाकई धर्म के साथ खुद का प्रचार करना कोई इन संगठनों से सीखे।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 5 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित 

राष्ट्रपिता बदहाली के भंवर में

पीड़ा
अभी कुछ दिन पहले गांव गया था तो जिला मुख्यालय से होकर गुजरा। शहर के हृदय स्थल गांधी चौक में एक बड़ा सा बधाई संदेश देख कर चौंका। बड़े से साइनबोर्ड पर झुंझुनूं के सभापति को बड़ा सा फोटो लगा था। साथ में गणतंत्र दिवस पर सम्मानित होने के उपलक्ष्य में बधाईसंदेश था। बड़ा ही आकर्षक होर्डिंग्स। जगह एेसी कि अनायास ही सबकी नजर उस पर पड़ जाए। विडम्बना देखिए इसी होर्डिंग्स के ठीक बगल में गांधी चौक में लगी राष्ट्रपिता की प्रतिमा अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही हैं। इस पार्क में स्वच्छ भारत मिशन की धज्जियां तो सरेआम उड़ रही हैं। इससे भी बड़ी बात है कि गांधीजी की लाठी टूटी हुई है। इस लाठी का बजट इतना सा है कि किसी वार्ड का सामान्य पार्षद भी इसकी मरम्मत करवा सकता है लेकिन धन्ना सेठों के नगर झुंझुनूं में गांधी जी एक अदद लाठी को तरस रहे हैं। इससे भी बड़ी खेदजनक बात यह है कि इनकी इस लाठी को जुगाड़ के सहारे जोड़ दिया गया है। कुछ जागरूक लोगों ने इस टूटी लाठी की तरफ से ध्यान दिलाने का प्रयास भी किया लेकिन जनप्रतिनिधियों को खुद के प्रचार से फुरसत मिले तब गांधीजी को संभाले। झुंझुनूं का गांधी पार्क वैसे कई एेतिहासिक सभाओं का साक्षी रहा है। शहर के बीचोबीच होने के कारण झुंझुनूं आने वाले लोग इस पार्क में सुस्ता लेते हैं लेकिन पार्क का रखरखाव भी उस स्तर का नहीं है कि यहां बैठकर सुकून महसूस हो या खुशी का एहसास हो। वैसे गांधी पार्क पचास साल से भी अधिक पुराना है। पार्क का शिलान्यास हुए भी पचास साल से ज्यादा समय बीत गया लेकिन कभी किसी ने न तो पार्क की सुध ली और न ही गांधी जी की। बहरहाल, देखने की बात यह है कि दोनों ही राजनीतिक दलों के प्रिय गांधीजी की इस दशा तथा उनकी टूटी लाठी पर किसको तरस आता है। मेरी दिली ख्वाहिश तो यह है कि यह काम कोई भामाशाह ही कर दे ताकि जनप्रतिनिधियों को बेहतर ढंग से आइना दिखाया जा सके क्योंकि यह पार्क भी एक भामाशाह की ही बदौलत है। देखते हैं, इस सार्थक पहल के लिए कौन आगे आता है।