Monday, April 16, 2018

इक बंजारा गाए 26

 मेरा साप्ताहिक कॉलम......
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संत की पीड़ा
माना जाता है कि संत तो सबके भले की ही सोचते हैं। वे तो लोक कल्याण की बातें करते हैं। पिछले कुछ समय से उल्टा परिदृश्य सामने आ रहा है। संत के आगमन से लेकर ठहरने तक तमाम इंतजामात इतने लग्जरियस किए जाते हैं कि सुनकर व देखकर हैरानी होती है। संतों के स्वागत व उनके आयोजन पर हजारों-लाखों रुपए पानी की तरह बहा दिए जाते हैं। पिछले दिनों श्रीगंगानगर आए एक संत के स्वागत में भी खूब पलक पावड़े बिछाए गए लेकिन संत का मूड उखड़ा-उखड़ा सा नजर आया। यहां तक कि उनके कार्यक्रम का संचालन कर रहे हैं। शख्स को उन्होंने चुप करवा दिया। बताया गया है कि संत यहां तक बोल गए कि आज यहां दलाई लामा आते तो उनके स्वागत में कलक्टर, एसपी और मंत्री तक सब आते। संभवत: संत की पीड़ा कार्यक्रम में कम आई भीड़ और किसी प्रशासनिक अधिकारी के न पहुंचने को लेकर थी। इसके लिए दोषी किसको ठहराया जाए, लिहाजा गुस्सा बेचारे मंच संचालक पर उतरा। कार्यक्रम में मौजूद श्रोता संत का यह आचरण व अखड़ा मूड देखकर एक बार सोचने को मजबूर जरूर हुए कि आखिर यह माजरा क्या है। 
उलटफेर का किस्सा
उलटफेर कहां नहीं होता। फिल्मों से लेकर खेल मैदान तक। सियासत से लेकर आम आदमी के जीवन तक उलटफेर हो जाता है। कुछ ऐसा ही उलटफेर एक शख्स व उसकी संस्था के साथ हुआ बताते हैं। कला प्रेमी इस शख्स ने मुख्यमंत्री के जनसंवाद कार्यक्रम में प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह की याद में स्मारक बनाने की बात कही। बताते हैं कि यह मामला सीएम ने जिला प्रशासन को रेफर कर दिया। सीएम के निर्देशों की अनुपालना में प्रशासन ने बैठक भी बुलाई। उलटफेर का किस्सा यहीं से शुरू होता है। जनसंवाद में स्मारक की बात कहने वाले शख्स या उसकी संस्था के किसी सदस्य को इस बैठक में बुलाया तक नहीं गया। बैठक में भी कुछ खास लोगों को ही बुलाया गया। अब यह बात तो उस शख्स के भी समझ नहीं आ रही है कि प्रशासन ने यह उलटफेर क्यों व किसलिए किया। दबे स्वर में चर्चा इस बात की जरूर है कि प्रशासन की स्मारक बनाने में दिलचस्पी कम है। बताया जा रहा है कि प्रशासन की इच्छा तो यह है कि किसी तरह से इस मामले का पटाक्षेप हो जाए। स्मारक की जगह कोई स्टेच्यू ही लग जाए। देखते हैं आगे क्या होता है। 
स्वागत के बहाने
श्रीगंगानगर व बीकानेर दोनों पड़ोसी जिले हैं, लिहाजा दोनों में काफी समानताएं हैं। स्वागत करने की परम्परा भी इसी का ही हिस्सा है। सम्मान के मामले में श्रीगंगानगर दो कदम इसीलिए आगे हैं, क्योंकि यहां सम्मान की बाकायदा मार्केटि ंग भी होती है। खूब प्रचार-प्रसार होता है। इस बात का गली-गली डंका पीटा जाता है। वैसे स्वागत की इस परम्परा के पीछे मुख्य कारण खुद का प्रचार भी होता है। स्वागत के बहाने के कई लोग अपना नाम चमका लेते हैं। अखबारों की सुर्खियां बन जाते हैं। मतलब यह है जितना पसीना स्वागत वाले दिन नहीं बहाया जाता है, उससे कहीं ज्यादा दौड़ धूप तो पहले की जाती है ताकि नाम चर्चा में बना रहे। इस स्वागत में आर्थिक सहयोग करने वाले भी कम नहीं होते हैं। स्वागत के बहाने मोटा खर्चा करने तथा उससे पहले चंदा एकत्रित करने के भी कई उदाहरण सामने आते हैं। सहयोग करने वालों के नाम भी खूब प्रचारित किए जाते हैं। 
नेताजी का दर्द
नेताओं का मीडिया वालों से रिश्ता कुछ अलग व गहरा होता है। लेकिन रिश्ते में खटास उस वक्त पैदा होने लगती है कि जब मीडिया खरी-खरी पर उतर जाए। नेताओं की मनमाफिक कवरेज न हो। कुछ ऐसा ही हाल शहर के एक नेताजी का है। उनका दर्द है कि मीडिया हमेशा उनको लेकर नकारात्मक ही रहता है। कभी सकारात्मक खबर नहीं दिखाता। यह बात अलग है कि वह नकारात्मक खबरें नेताजी की न होकर उनसे संबंधित संस्था से होती है। पर नेताजी को कौन समझाए कि यह खबरें व्यवस्थागत खामियों पर केन्द्रित हैं जबकि वे उनको व्यक्तिगत ले रहे हैं। नेताजी के मन के किसी कोने में यह डर जरूर बैठा कि विभाग की नकारात्मक खबरें उनके सपने को पूरा करने में बाधक बन सकती हैं। बस यह सोच-सोच कर वे परेशान हैं। यह बात अलग है कि इन नेताजी ने जो-जो कथित काम करवाए हैं, उनका लाभ कम परेशानी ज्यादा हुई है। बात चाहे सीवरेज व पाइप लाइन बिछाने की हो, सड़कें टूटने की हो। नाले जाम होने की हो या फिर इंटरलॉकिंग के काम की हो। कुछ भी हो लेकिन नेताजी का दर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 12 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित

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