Friday, March 22, 2013

बिल, बयान और बवाल-2


बस यूं ही

एंटी रेप बिल अमल में आया तो फिल्मी गीतकारों को फिर नए अंदाज में सोचना पड़ेगा। नए सिरे से गीतों की रचना करनी पड़ेगी। कई कालजयी गीतों पर बेमानी होने का खतरा मंडराने लगेगा। गीतकार भविष्य में आंखों को केन्द्र में रखकर गीत लिखने से परहेज करने लगे तो कोई बड़ी बात नहीं। क्योंकि घूरने या ताकने के लिए बजाय किसी हथियार या साधन के सिर्फ और सिर्फ आंखों की ही जरूरत पड़ती है और किसी ने आंखों का महिमामंडन तो दूर आंखों से संबंधित गीत भी गुनगुनाए तो वह भी गुनाह ही माना जाएगा। गुनाह करने वाले की प्रशंसा करना भी तो एक तरह का सहयोग ही हुआ और गुनाह में सहयोग तो सीधा-सीधा अपराध की श्रेणी में ही आएगा। खैर, आंखों से जुड़े गीतों को याद करने बैठा तो फिर लम्बी सूची बन गई। आंख, नैन, निगाह, नजर आदि सभी इसी श्रेणी में तो आएंगे। सबसे पहले गीत याद आया 'आंखों ही आंखों में इशारा हो गया...बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया...' लेकिन अब आंखों में इशारा कैसे होगा। आंखें, आखों को देखने से ही डरेंगी, तो इशारा भला क्या खाक करेंगी। और जब इशारा ही नहीं होगा तो जीने के सहारे का तो सवाल ही नहीं उठता है। इसी कशमकश के बीच एक और गीत याद आया 'अंखियों को रहने दे अंखियों के आसपास, दूर से दिल की बुझती रहे प्यास।' अब ऐसे माहौल और कानून के डर के आगे अंखियां, आंखों के पास कैसे रह सकती हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में प्यास भी फिर अधूरी ही रहेगी। 'सरबती तेरी आंखों की गहराई में मैं डूब जाता हूं...' अब ऐसा कहना तो बड़ा ही संगीन अपराध होगा। जहां देखना तक गुनाह है, वहां डूबना तो उससे भी बड़ा अपराध हो जाएगा। लिहाजा डूबने की तो अब कल्पना करना ही बेकार है। 'ये रेशमी जुल्फे, ये सरबती आंखें, इन्हे देखकर जी रहे हैं सभी...' लेकिन अब ऐसा कहने वाले और जीने वालों की संख्या कितनी रह जाएगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। 'तुझे देखें मेरी आंखें, इसमें क्या मेरी खता है..' वाकई कभी ऐसा करना खता नहीं था लेकिन अब हो जाएगा और किसी ने दिल के हाथों मजबूर होकर यह खता कर भी दी तो उसकी खैर नहीं होगी। सोचनीय विषय तो यह है कि किसी को देखने को खता न मानने वाले ने भूल से भी यह गीत गुनागुनाया तो मान लिया जाएगा कि उसके ख्याल 'नेक' नहीं हैं। 'नैन लड़ जैहें तो मनवा मा कसक होय ब करी... ' लेकिन अब नैन लडऩे की संभावना पर लगभग पूर्ण विराम लग जाएगा तो फिर मन में न तो कसक होगी और ना ही प्रेम का पटाखा छूटेगा। दिल की बात अब दिल में रहेगी। और किसी ने 'चोरी-चोरी तेरे संग अखिंया मिलाई रे..' की तर्ज पर आंख मिला भी ली तो वह गंभीर परिणाम भुगतने के लिए खुद को तैयार रखे। एक और गीत है ना.. 'आंखों के रस्ते, तू हंसते-हंसते दिल में समाने लगा है..।' लेकिन आंखों के रास्ते पर अब बैरियर लग चुका है, लिहाजा आंखों के सहारे दिल की तरफ जाने का रास्ता अब बंद ही समझो । और किसी ने इस रास्ते पर चलने की सोची तो फिर 'सवारी अपने सामान की रक्षा स्वयं करे...' के जुमले को दिमाग में रखना होगा। 'अंखियों के झरोखे से तूने देखा जो सांवरे...' कल्पना कीजिए, बेचारा सांवरा क्या अब ऐसा कर पाएगा। वह तो आंखों के झरोखे से तो दूर सीधी आंखों से देखने से तौबा करता दिखाई देगा।
ऐसी विषम परिस्थितियों एवं प्रतिकूल माहौल में आंखों का अतिश्योक्ति वर्णन या कई तरह की उपमाओं का दौर खत्म हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे देश में विभिन्न मतों का समर्थन करने और उनको मानने वाले लोग रहते हैं लेकिन आंखों के साथ यह सुखद संयोग जुड़ा है कि उसको समर्थन ही मिला है। गीत चाहे कैसा भी हो, भले ही वह आंखों की बड़ाई करें, आलोचना करें, उलाहना दें या फिर कोई उपमा दें। ऐसा है तभी तो जो आंखें जीने का सहारा बनती हैं, वही आंखें जुल्मी भी बन जाती हैं। ठीक आंखों का तारा होना और आंखों की किरकरी होना की तर्ज पर। यकीन ना हो तो देखिए..। 'जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करे जीने के लिए...' यहां आखों में जीवन नजर आता है वो जीने के लिए मजबूर करती नजर आती हैं लेकिन दूसरे ही पल 'ओ गौरी तेरी नैना हैं जादू भरे, हम पे छुप-छुप जुल्म करे' वह जुल्म पर उतारू हो जाती हैं। कितना विरोधाभास है फिर भी कोई विरोध नहीं है, आलोचना नहीं है। लेकिन अब ऐसे गीत लिखे जाएंगे तो विरोध की आशंका बलवती हो उठेगी। क्योंकि विरोध ही नहीं हुआ तो लोग ऐसे गीतों से प्रेरणा लेंगे और वास्तविक जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। इतिहास गवाह है। ऐसा होता आया है। देश में प्यार पनपाने में फिल्मों का बड़ा योगदान रहा है और अब भी मौजूं हैं। जब आंखों को इस देश में इतना मान-सम्मान मिला है। आंखों पर लिखे गए गीतों को गुणग्राहकों व कद्रदानों ने दिल से लगाया है तो फिर इस एंटी रेप बिल के बहाने आंखों को खलनायक बनाने का सवाल तो गलत ही हुआ ना। सभी भेड़ चाल में हां-हां में मिलाए जा रहे हैं। कोई आंखों का समर्थन कर रहा है तो उसका विरोध किया जा रहा है। वैसे यह देश विविधता से भरा है। यहां खुली आंखों के ही नहीं बल्कि बंद आंखों के मुरीद भी मिल जाएंगे। ऐसा है तभी तो 'ये तेरी आंखें झुकी -झुकी , ये तेरा चेहरा खिला-खिला, बड़ी किस्मत वाला है वो प्यार तेरा जैसा मिला' जैसे गीतों की रचना हुई। मौजूदा हाल में ऐसे गीतों में ही बचाव की आंशिक गुंजाइश नजर आती है, क्योंकि यहां कशीदे खुली आंखों के नहीं बल्कि झुकी हुई आंखों की शान में गढ़े और पढ़े जा रहे हैं। लेकिन जब कोई पलटवार करते हुए यह गाने लगे कि 'तुम्हारी नजरों में हमने देखा, अजब सी चाहत झलक रही है, ना देखो ऐसे झुका के पलकें हमारी नियत बहक रही है..।' अब इसका इलाज क्या होगा। यहां तो झुकी हुए पलकें देखकर ही नियत डोल रही है। ऐसे में तो फिर भगवान ही मालिक है। ......  


क्रमश: ..

बिल, बयान और बवाल-1


बस यूं ही

अस्सी के दशक में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली का एक चर्र्चित गीत हम सभी ने सुना ही होगा। गीत के बोल थे 'सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन...' इसी गीत का एक अंतरा है, जिसके बोल हैं 'कोई हसीना कदम, पहले बढ़ाती नहीं, मजबूर दिल से ना हो, तो पास आती नहीं..' इसके ठीक अगले अंतरे के भाव भी कमोबेश ऐसे ही हैं 'तू जो हां कहे तो बन जाए बात भी, हो तेरा इशारा तो चल दूं मैं साथ भी..' दोनों ही अंतरों के भावार्थ देखें तो मतलब साफ है कि नायिका, नायक से यह अपेक्षा रखती है कि वही पहल करे और इशारा भी। ऐसा न कर पाने के लिए वह अपनी मजबूरी भी बयां करती हैं। प्रसिद्ध गीतकार हसरत जयपुरी की ओर से लिखे इस गीत के करीब 28 साल बाद जद यू नेता शरद यादव द्वारा दिया गया बयान भी इस गीत के बोलों के आसपास ही प्रतीत होता है। हाल ही में संसद में एंटी रेप बिल पर बहस के दौरान जद यू नेता यादव ने कहा था कि 'जब महिला से बात करनी होती है, तब पहल महिला नहीं करती है। पहल तो हमें ही करनी होती है। कोशिश तो हमें ही करनी पड़ती है। प्यार से बताना पड़ता है। यह पूरे देश का किस्सा है, हमने खुद अनुभव किया है। हम सब लोग उस दौर से गुजरे हैं, उसको ऐसे मत भूलो।' विडम्बना देखिए गीत सुपर-डुपर हिट रहा लेकिन बयान विवादित हो गया। बयान को लेकर चटखारे लिए जा रहे हैं, व्याख्याएं की जा रही हैं। बयान का विरोध एवं समर्थन करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं और उसी के हिसाब से शरद बाबू के बयान को परिभाषित किया जा रहा है। देशव्यापी बहस चल रही है। इतना ही नहीं बहस घूरने एवं पीछा करने की बात पर भी चल रही है।
यह बिल वैसे तो शुरू से ही विवादों एवं चर्चा में रहा है। पहले सम्बंधों की उम्र १६ करने को लेकर बहस छिड़ी तो अब घूरने एवं पीछा करने जैसी बातों के लिए। संसद में जिस दिन यह बिल पास हुआ, उसी दिन मन में सवाल था कि घूरने एवं पीछा करने के आरोपों की सच्चाई जानने का पैमाना क्या होगा। मैंने घूरना शब्द के बारे में गंभीरता से सोचा। शब्दकोश में इस शब्द के पर्यायवाची भी देखे। सार यही रहा कि देखना से ही घूरना शब्द बना है और उसी को ताकना भी कहते हैं। ताकना से तात्पर्य स्थिर दृष्टि से ध्यानपूर्वक देखना व कुदृष्टि डालना होता है। इसी तरह घूरना का मतलब आंखें गड़ाकर देखना, क्रोधभरी नजर से देखना या कामातुर होकर देखना होता है। इन्ही शब्दों से मिलता-जुलता एक और शब्द है, निहारना। इसके मायने हैं, निरखना या गौर से देखना। विडम्बना यह है कि यह सभी शब्द आपस में समानार्थी हैं लेकिन इनका प्रयोग परिस्थितियों के हिसाब से किया जाता है। देखना या निहारना शब्द इतने आपत्तिजनक नहीं हैं, जितने कि ताकना या घूरना। ताकना या घूरना शब्द भी जरूरी नहीं गलत मकसद के साथ ही जोड़े जाएं या प्रयोग किए जाएं। मसलन कोई संकट के समय में मदद के लिए किसी की तरफ उम्मीद भरी नजरों से ताकता है तो कोई किसी अपराधी को सजा मिलने या पकड़े जाने की स्थिति में विजयी मुद्रा के हिसाब से भी देखता है, तब उसका अंदाज कमोबेश घूरने जैसा ही होता है। खैर, विषय रोचक लगा है, इसलिए अपन ने इस पर लिखने का मानस तो पहले दिन ही बना लिया था। रात को कार्यालयीन काम पूर्ण होने के बाद घर गया और धर्मपत्नी से रूबरू होते हुए कहा कि देश में अब महिलाओं को घूरना या ताकना भी अपराध हो गया है। मेरा सवाल पूर्ण होने से पहले ही धर्मपत्नी का जवाब आया इसका सबूत क्या होगा। यकीन मानिए उसके पलटवार का मेरे पास कोई माकूल जवाब नहीं था। भले ही मेरे तर्कों को महिला विरोधी मान लिया जाए लेकिन देश में दहेज प्रताडऩा एवं अनाचार के ऐसे मामलों में फेहरिस्त बहुत लम्बी है, जो जांच के बाद झूठे पाए गए। दहेज प्रताडऩा में गवाह एवं अनाचार के मामलों में मेडिकल जांच मामले की सत्यता जांचने का आधार बनते हैं लेकिन घूरना या ताकना के प्रावधान में तो ऐसी कोई संभावना भी तो नजर नहीं आती है। जाहिर सी बात है ऐसे में इस प्रावधान के गलत उपयोग की आशंका अधिक होगी। मन में विचारों का द्वंद्व चलता रहा लेकिन धर्मपत्नी के सवाल का जवाब खोज नहीं पाया।
द्वंद्व को शब्दों में पिरोने का विचार तो शुरू से ही था लेकिन आज बिल के राज्य सभा में पास होने की खबर होने के बाद एक वेबसाइट देखी तो चौंक गया। इसमें बताया गया था कि इस एंटी रेप बिल से घूरकर देखने के अपराध को प्रावधान हटा दिया गया है। एक पल फिर रुक गया, सोचा जब विषय ही खत्म हो गया है तो फिर लिखना प्रासंगिक नहीं होगा। अचानक ख्याल आया कि वेबसाइट पर दी गई जानकारी गलत भी तो हो सकती है। बस फिर क्या था लगातार टीवी चैनलों एवं समाचार पत्रों की वेबसाइट खंगालने में जुट गया। करीब एक घंटे की माथापच्ची करने के बाद भी सफलता नहीं मिली। आखिरकार अपनी पीड़ा को लिखकर संबंधित चैनलों एवं बेवसाइट के लिंक के साथ फेसबुक पर चस्पा कर दिया। इसके बाद सर्वप्रथम रतनसिंह जी भाईसाहब का कमेंट आया। उन्होंने भी इसी विषय पर ज्ञान दर्पण डॉट कॉम में विस्तार से लिखने की जानकारी दी। मैंने तत्काल उनकी पोस्ट पोस्ट पढ़ी। उन्होंने इस प्रावधान के अमल में आने के बाद की संभावित परिस्थितियों का जो खाका खींचा वह न केवल चौंकाने वाला बल्कि सोचने पर मजबूर भी करता है। सटीक शब्दों में व्यंग्यात्मक शैली में लिखी उनकी पोस्ट इतनी पठनीय लगी है कि मैं एक सांस में नॉनस्टॉप पढ़ गया। पोस्ट पढऩे के बाद द्वंद्व फिर शुरू होना लाजिमी था। रहा सहा पोस्ट पर कमेंट लिखा, जिसमें इसी विषय पर लिखने का जिक्र भी कर दिया। खैर, ईमानदारी से कहूं मैंने भी व्यंग्यात्मक शैली में लिखने का मानस बनाया था। लेकिन मेरा अंदाज अलग होगा। 

क्रमश: ...