छब्बीस नवम्बर
राहत में है दिल, मौसम जुदाई का गुजार के,
आने ही वाले हैं फिर से दिन अब बहार के।
खुशी मनाओ, झूमो, नाचो, गाओ जोर से,
कट गए हैं देखो 'निर्मल', दिन सभी इंतजार के।
सत्ताईस नवम्बर
मायके पहुंच गई तुम 'निर्मल', छोड़ आज ससुराल,
उस घर से इस घर आने में देखो, बदल गई है चाल।
तुम सब से थी रौनक जहां, वहां आज उदासी छाई,
बच्चों के बिन पूछे कौन अब, दादा-दादी के हाल।
अठाईस नवम्बर
दोनों में है खुलापन खूब, नहीं है कोई राज,
पर तुम बिन सूना है, इस दिल का हर साज।
पता नहीं क्यों मूड मेरा, कर ना रहा शायरी,
सूझ नहीं रहा मुझे 'निर्मल', लिखूं तुझे क्या आज।
उनतीस नवम्बर
तन्हाई की सब बातें देखो, अब पुरानी हो जाएगी,
दिन कटेंगे मस्ती में, हर शाम सुहानी हो जाएगी।
क्या खूब नजारा होगा, दो दिन के बाद 'निर्मल',
अपने मिलन की जब, एक नई कहानी बन जाएगी।
तीस नवम्बर
बातों-बातों में गुजरे, देखो दिन तन्हाई के,
यादों में खो जाएंगे, किस्से सभी जुदाई के।
अपने मिलन की खुशियों में तो निर्मल,
दिल झूम झूम के गाएगा, गीत अब पुरवाई के।
24 नवम्बर को धर्मपत्नी ने भी काउंटर मार दिया और मुझे लिखा कि....
अपना ही अंदाज लिए हम चले जमाने में,
अपने को बांध लिया पैमाने में
कट रही जिंदगी, हंसने-रो जाने में,
सुख-दुख बांट लिया हमने जाने-अनजाने में।
इसके जवाब में मैंने उसे लिखा....
गमों की बात ना करो फसाने में,
मस्त रहने के भी हैं रास्ते जमाने में।
हंसने से ही तो संवरती है जिंदगी 'निर्मल'
आजाद पंछी बनो, ना बांधों खुद को पैमाने में।
26 नवम्बर को धर्मपत्नी को भेजा गया मैसेज मैंने फेसबुक पर लगाया तो पत्रकार साथी कुंअर अंकुर ने उस पर कमेंट किया कि...
दूर रहने से कोई दूर नहीं हुआ करते हैं,
दूर तो वो रहते हैं जो मजबूर हुआ करते हैं।
इसके जवाब में मैंने लिखा कि....
यह सच है जो मजबूर है, वो नजरों से दूर है,
जालिम जमाने का मगर यही तो दस्तूर है।
यह दुनिया बहुत छोटी है कुंअर साहब लेकिन
यहां फासले दिलों के नहीं, जगहों के जरूर है।
क्रमशः........