Thursday, July 26, 2018

चंडीगढ़ यात्रा-9

संस्मरण 
इस ऊहापोह के बीच आखिर एक दीर्घा दिखाई दी। अंदर गए तो वह वातानुकूलित थी, इालांकि इस गैलरी के अंदर अंधेरा था। यहां कपड़ों के माध्यम से बनाई गई कलाकृतियों से भारत के ग्रामीण जीवन को दर्शाया गया है। यह दीर्घा एक गुफा जैसी है। इसमें घूमते जाओ, आगे से आगे आड़ा तिरछ़ा रास्ता निकल ही आता है। हालांकि कलाकृतियों के पास लाइट लगी है लिहाजा वो ही हाइलाइट होती है, बाकी जगह हल्का सा प्रकाश रहता है। यह पूरी दीर्घा वातानुकूलित है लिहाजा, यहां आकर गर्मी से कुछ राहत मिली। इस गैलरी के प्रवेश द्वार पर जरूर एक महिला केयर टेकर के रूप में बैठी मिली बाकी कहीं एेसा दिखाई नहीं दिखाई नहीं। अंदर का नजारा वाकई अदभुत व रोमांचकारी था। दीर्घा में ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण है । रंग बिरंगे पतंग, चरखा, पशुपालन, चक्की, चूल्हा, शादी, विदाई, हथाई, डोली, चौपाल, झूले आदि सब कुछ दिखाई देता है। कुछ जगह टाइल्स भी लगी हैं बाकी जगह दीवार पर गोबर से पुताई की गई है। ठीक वैसी ही जैसी गांवों में कच्ची दीवारों पर की जाती है। एक जगह तो गोबर के उपले ( कंडे) थापते हुए एक महिला दिखाई गई है। कपड़े से बनाए गए दीर्घा के महिला पुरुष रोशनी में हकीकत के नजदीक लगते हैं। इस समूची दीर्घा में राजस्थान, हरियाणा व पंजाब की संस्कृति के जीवंत दर्शन होते हैं। एक जगह प्रवेश द्वार पर खड़ा साधु तथा उसको देखती महिला तो सच देखने जैसा ही लगता है। मेरी भतीजे सिद्धार्थ से इस पर बात भी हो रही थी कि आखिर यह है क्या? और इनके माध्यम से क्या संदेश दिया जा रहा है। वैसे बाकी जगह तो पर्यटक अपने आप देख लेता है लेकिन यहां बनाए गए चित्रों के पीछे कहानी को बताने के लिए यह गाइड जरूर होना चाहिए। विशेषकर शहरी या बाहर से आने वाले पर्यटकों के लिए यह नई बात है। दीवारों पर मांडणे, कच्चे मकान, छप्पर, कुएं से पानी भरती महिलाएं, साधु महात्माओं की बैठक, भैंस, बकरियां इन सबको देखकर एक जीता जागता गांव आंखों के सामने होता है। अधिकतर कलाकृतियां कपड़े से बनाई गई हैं। चूंकि यहां वातावतरण में ठंडक थी, इसलिए दीर्घा को बड़ी तल्लीनता व धैर्य के साथ देखा। मैंने भी यहां मोबाइल से फोटो लेने की बजाय वीडियो बनाना ही बेहतर समझा और इस पोस्ट के साथ वीडियो ही पोस्ट कर रहा हूं ताकि दीर्घा के नजारे को आप स्वयं अपनी आंखों से साक्षात निहार सकें।
क्रमश:

सब कुछ राम भरोसे

टिप्पणी
सीवरेज के लिए सडक़ें तोड़ी रही हैं। बारिश का मौसम है, फिर भी खुदाई हो रही है। यह जानते हुए भी कि बारिश में जमीन धंसेगी, फिर भी काम बदस्तूर जारी है। तोड़ी गई सडक़ें भी दो-दो माह से जस की तस पड़ी हैं। प्रयोग के नाम पर उन्हें बार-बार तोड़ा जरूर जा रहा है। इधर, सामान्य बारिश से ही सडक़ें छलनी हो गई हैं। उनमें बड़े-बड़े गड्ढे हैं। उनको ठीक करने के नाम पर मकानों का मलबा डाला जा रहा है, जो गड्ढों से भी ज्यादा परेशानी पैदा कर रहा है, क्योंकि इसको जमाया नहीं जा रहा है। बारिश के पानी की निकासी नहीं होती, इसलिए वह पानी शहर के पार्कों व मैदानों में छोड़ा जाता है। पार्क तालाब बन चुके हैं। मैदान भी लबालब हैं। जिम्मेदारों को यही कारगर व सस्ता समाधान नजर आता है। सफाई व्यवस्था चौपट है। शहर का कोई भी कोना चकाचक नजर नहीं आता। कहीं-कहीं तो गंदगी से उठती दुर्गन्ध वातावरण को प्रदूषित कर रही है। अधूरे काम कछुआ गति से हो रहे हैं। कहीं शिलान्यास हो गया तो कहीं उद्घाटन, लेकिन जनता को काम पूर्ण होने का इंतजार है।
कमोबेश यही हाल कानून व्यवस्था का है। दूरदराज ग्रामीण क्षेत्रों की बात छोडि़ए, जिला मुख्यालय पर सरेआम वाहन उठ रहे हैं। राह चलते लोगों से मारपीट हो रही है। अवैध शराब देर रात या यूं कहिए सारी रात बिकती है। सट्टे की दुकानें गली-गली में खुली हैं। वाहन सडक़ों पर बेतरतीब खड़े हैं। प्राइवेट बसें पुलिस अधिकारियों के आवास के सामने सडक़ घेरकर सवारियां बैठाती हैं। पार्र्किंग की व्यवस्था कहीं नहीं हैं, फिर भी पार्र्किंग के नाम पर चालान जरूर कटते हैं।
नेताओं व नेतृत्व की तो पूछो ही मत। गिनाने के लिए सब के पास अपनी-अपनी मजबूरियां जरूर हैं, लेकिन जनहित या विकास के लिए कोई एजेंडा दिखाई नहीं देता। नासूर होती समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। दूरदर्शिता का तो नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। इन सबको को देखकर सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर यह शहर किसके भरोसे चल रहा है? कामों पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हैं। सब कुछ मनमर्जी से हो रहा है। सब जगह जन गौण है, उपेक्षित है, तो फिर शहर कौन चला रहा है? कैसे चला रहा है और किसके लिए चला रहा है? व्यवस्था नाम की कोई चिडिय़ा कहीं नजर नहीं आ रही है। आखिर कब तक यह शहर रामभरोसे चलता रहेगा? जिम्मेदार जाग नहीं रहे हैं, लेकिन अब जनता को चेत जाना चाहिए। यह शहर जनता का है, जनता से ही बना है। जनता को नजरअंदाज करने वाला चाहे शासन हो.. प्रशासन हो... नेता हो या फिर नेतृत्व, इनके समझ में तभी आएगी जब जनता जागेगी और शहर हित की बात करेगी

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 26 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-40

आशीर्वाद की होड़
श्रीगंगानगर में चल रहे किन्नरों के सम्मेलन में मंगलवार को सामूहिक प्रीतिभोज का आयोजन किया गया था। इस बहाने राजनीति में रुचि रखने वाले आशीर्वाद पाने के लिए इस सम्मेलन में पहुंचे। चुनावी माहौल है, लिहाजा भीड़ ज्यादा होना लाजिमी था। बात यहीं तक सीमित नहीं रही, समारोह में सिर्फ एक दल विशेष के लोगों की भागीदारी ही ज्यादा रही। अन्य दल का कोई नामलेवा ही नहीं था। अब ऐसा क्यों हुआ? यह तो इस सम्मेलन की मध्यस्थता या बुलावे की जिम्मेदारी संभालने वाला ही बता सकता है। खैर, देखने की बात यह है कि किन्नरों का आशीर्वाद कालांतर में क्या रंग दिखाता है? 
ऐसे उखड़ा मिजाज
यह मामला भी किन्नरों के सामूहिक भोज व आशीर्वाद से ही जुड़ा है। इस सम्मेलन में छुटभैये नेता तो पहुंचे ही, राजनीति में रुचि रखने वाली सतारूढ़ दल की इक्का दुक्का महिलाएं भी इस बहाने पहुंची कि क्या पता किन्नरों के आशीर्वाद से किस्मत का ताला खुल जाए। खैर, यहां तक सब ठीक रहा है, लेकिन जो सुनने में आ रहा है वह बेहद हास्यास्पद है। बताते हैं कि एक व्यापारी ने आशीर्वाद लेने के लिए सम्मेलन में पहुंची एक महिला के ही पैर पकड़ लिए। जब व्यापारी को हकीकत बताई तो उसने माफी भी मांगी बताई, लेकिन मैडम का मूड ऐसा उखड़ा कि वह बिना प्रीतिभोज किए ही लौट आई। इधर, इस वाकये को सुनने वालों के हंस-हंस कर पेट में बल पड़ रहे हैं। 
पानी की गुहार
जिले के पुलिस कप्तान ने मंगलवार को ही कमान संभाली है। इस उपलक्ष्य में वे शाम को शहर के खबरनवीसों से मुखातिब थे। उनसे कई तरह के सवालात किए गए। मसलन, शहर की कानून व्यवस्था, निर्धारित समय के बाद भी अवैध शराब की बिक्री, सट्टे की दुकानों का खुलेआम संचालन, तस्करी, नशा आदि आदि। इसके अलावा भी अन्य कई मसलों पर चर्चा हुई। खैर, यहां तलक तो सब ठीक था, लेकिन अजीब स्थिति तो तब पैदा हो गई जब पुलिस कप्तान से शहर में पानी निकासी के बारे में ही सवाल कर लिया गया। हद तो तब हो गई जब पुलिस कप्तान से पाकिस्तान में चुनाव पर श्रीगंगानगर पुलिस की तैयारी का ही प्रश्न दाग दिया गया। 
खबरनवीसों का जमावड़ा
पुलिस कप्तान प्रेस से रूबरू हो तो भला कौन मिलना नहीं चाहेगा? वह भी तब जब मामला नया-नया हो। इस बहाने परिचय भी तो हो जाता है। इसी कारण मंगलवार शाम को पुलिस कप्तान की पीसी (प्रेस कान्फ्रेस) में छह दर्जन से ज्यादा खबरनवीसों का जमावड़ा हो गया। इनमें कई तो ऐसे भी पहुंच गए जिनका किसी समाचार पत्र से कोई वास्ता ही नहीं है। इन कथित खबरनवीसों को देखकर बाकी खबरनवीस हैरान थे, लेकिन मौके की नजाकत देखकर मन मसोस कर रह गए। वैसे यह कथित खबरनवीस मौसमी ही हैं, इनका मकसद खबर लिखने की बजाय मेल मिलाप व परिचय बढ़ाना ही ज्यादा होता है। 
स्वागत के बहाने
श्रीगंगानगर के कतिपय संगठन व उनके पदाधिकारी को जिले में आने वाले अधिकारियों का स्वागत करने की आदत लगी हुई है। दरअसल, स्वागत या अभिनंदन तो किसी उपलब्धि पर किया जाना अच्छा लगता है, लेकिन इन लोगों का असली मकसद स्वागत के बहाने मेल मिलाप व परिचय करना ही ज्यादा होता है। बताते हैं नए कप्तान का स्वागत करने भी कुछ कतिपय सगंठनों के लोग पहुंचे। काफी इंतजार के बाद भी जब मुलाकात का अवसर नहीं मिला तो इन लोगों के अरमानों पर पानी फिरना लाजिमी था। लिहाजा स्वागत के लिए लेकर गए बुके, मालाएं आदि किसी काम नहीं आई। देखना है मुलाकात का मौका फिर कभी नसीब हो पाता है या नहीं? 
सफाई की हकीकत
शहर की बदहाल सफाई व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जिले के हाकिम ने पांच अफसरों का एक पैनल बनाया था। इन अफसरों को शहर के अलग-अलग हिस्सों की जिम्मेदारी दी गई थी। इसके बाद इन अफसरों को रोजाना अपने-अपने इलाकों की प्रगति रिपोर्ट देनी थी। अब अफसर अपने इलाके में कितनी बार गए? तथा प्रतिदिन की रिपोर्ट बनी या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन शहर की सफाई व्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आया। अब यह समझ से परे है कि जब हकीकत में काम नहीं होता है तो फिर इस तरह के पैनल बनाने की जरूरत ही क्या है?
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 26 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित।

चंडीगढ़ यात्रा-8

संस्मरण
बीच में व्यस्तता के कारण संस्मरण का क्रम टूट गया। एक बार संस्मरण टूटने के बाद फिर वैसे बात नहीं रहती है। खैर, बात चंडीगढ़ के रॉक गार्डन की हो रही थी। यहां भी पार्किंग के लिए व्यवस्था है। प्रवेश टिकट के माध्यम से है। हम तीनों ने टिकट ली और प्रवेश कर गए एक एेसी दुनिया में जिसको जितनी बार भी देखो कम ही लगती है। यहां सचमुच पत्थर गीत गाते हुए प्रतीत होते हैं। कबाड़, रॉ मैटेरीयल, सीमेंट, टाइल्स, चूडि़यां और भी न जाने क्या-क्या। इनको देखकर कभी आह तो कभी वाह बरबस मुंह से निकलती रहती है। हमने एक नसीहत को नजरअंदाज करने का खमियाजा जरूर भोगा। कहा गया है रॉक गार्डन को देखना है तो सर्दी के मौसम में आना चाहिए। गर्मी का मौसम इसको देखने के लिए कतई सही नहीं है। नसीहत नहीं मानने का असर यह होता है पसीने से आपके कपड़े पानी-पानी हो जाते हैं। इतनी गर्मी और जबरदस्त उमस है इस गार्डन के पत्थरों व तंग रास्तों में। हालांकि यहां पानी की नहर है तो दो तीन जगह झरने भी बनाए गए जो किसी प्राकृतिक नजारे का आभास देते हैं, लेकिन गर्मी के मौसम में वह उमस बढ़ाता है। पत्थरों से गर्म भाप निकलती प्रतीत होती है। चूंकि इस कला को देखने का एक अलग ही आनंद है, लिहाजा गर्मी व उमस अपने आप ही गौण हो जाती है। रॉक गार्डन किसी भूल भूलैया की तरह ही है। पता ही नहीं कौनसा रास्ता किधर मुड़कर किधर खुल जाता है। हां जगह-जगह दरवाजे जरूर बने हैं, जो आपको समय-समय पर सतर्क करते हैं, मतलब दरवाजों से निकलना है तो सिर को नीचे करना ही पड़ेगा। अगर आप अपनी ही धुन में चलते गए तो सिर फूटना तय मानिए। हालांकि भतीजा व भानजा दोनों मेरे से आगे थे और दरवाजा आने पर ध्यान रखना, ध्यान रखना कहकर मुझे सतर्क कर रहे थे। वैसे कहीं सिर टकराया भी नहीं। करीब एक से डेढ़ घंटे तक इधर से उधर सांप सीढ़ी तरह घूमते रहने के बावजूद ईमानदारी से कहूं तो दिल भरा नहीं था लेकिन हिम्मत जवाब दे रही थी। गर्मी ने बुरी तरह से बेचैन कर दिया था। अब तो बस एक ही इच्छा हो रही थी कि किसी ठंडी छांव में बैठकर सुस्ता लिया जाए।
क्रमश :

चंडीगढ़ यात्रा- 7

संस्मरण
भानजे ने सुखना झील के ठीक विपरीत दिशा में सड़क किनारे पार्र्किंग में गाड़ी खड़ी करके रसीद कटाई और हम तीनों सड़क पार सुखना की तरफ बढ़े। उस वक्त तेज धूप व उमस जबरदस्त थी। इस कारण झील के किनारे पर चहल-पहल बेहद कम थी। पेड़ों के नीचे बैठे लोग जरूर सुस्ता रहे थे। सन्नाटा सा छाया था। पेड़ों के झुरमुटों में दुबके कोवों की कांव कांव जरूर इस सन्नाटे में खलल डाल रही थी। फुड जोन व झूलों पर जरूर बच्चे व महिलाएं कुछ खाने व खेलने में मगन थे। हम झील की तरफ बढ़े। इसके किनारे दो साइड में लम्बा फुटपाथ बना है, जहां सुबह-शाम लोग घूमने भी आते हैं। दोपहर की वजह से यह पूरा फुटपाथ सूना पड़ा था। दरअसल, यह झील प्राकृतिक न होकर कृत्रिम है। यह हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बनी हुई है। झील का क्षेत्र करीब तीन किलोमीटर है। इसकी औसत गहराई आठ व अधिकतम सोलह फुट के करीब है। इस झील का निर्माण 1958 में किया गया था। वर्तमान में यह चंडीगढ़ का प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। पहले इस झील में एशियन रोइंग चैंपियनशिप भी होती थी। एशिया के सबसे लंबे रोइंग और याटिंग चैनल के रूप में भी यह झील प्रसिद्ध है। यह झील स्कीइंग, सर्फिंग और स्कलिंग जैसी अन्य वाटर स्पोट्र्स गतिविधियों के लिए भी लोकप्रिय है। ठंड के दौरान यहां विदेशी प्रवासी पक्षियां भी बड़ी संख्या में आते हैं।
हम तीनों झील के किनारे चहलकदमी कर थे लेकिन धूप में हमारा बुरा हाल कर रखा था। इधर झील में मात्र दो या तीन नाव ही चल रही थी, बाकी किनारे पर टायरों से बंधी पर्यटकों के इंतजार में थी। इतनी तेज धूप में भला कौन बोटिंग करे। बोटिंग भी अधिकतर पैडल वाली ही दिखाई दी, लिहाजा गर्मी में श्रम का पसीना बहाना हर किसी के बस की बात नहीं। झील का पानी भी मेरे को उतना साफ नहीं लगा, जितना बाकी झीलों का होता है। यह बिलकुल बरसाती पानी की तरह मटमैला ही नजर आया। घूमते-घूमते हम नावों की तरफ आए। लगभग सारी एक जैसी पैडल वाली ही थी। एक बड़ी नाव थी, जिस पर करीब बीस लोग बैठने की क्षमता थी। इसको ऊपर छत भी थी। शायद इसका नाम शिकारा था, यहां एक व्यक्ति का किराया चार सौ रुपए लिखा था। बोटिंग करने की इच्छा तेज धूप व गर्मी की वजह से वैसे ही नहीं थी, ऊपर से इतना किराया देखकर माथा ठनका। हमने यहां यादगार के लिए दो चार फोटो जरूर खींची और वापस मुड़ लिए। वैसे भी मूड बहुत कुछ मौसम पर निर्भर करता है। मौसम अनुकूल हो तो सब अच्छा और सुकूनदायक लगता है लेकिन मौसम की तल्खी मिजाज को गर्म कर देती है। यह सुखना पर प्रत्यक्ष महसूस हुआ। खैर, यहां से हमारा अगला स्थान रॉक गार्डन था। रॉक गार्डन का काफी नाम सुना था..। चंडीगढ के साथ रॉक गार्डन नाम इस तरह जुड़ गया है दोनों एक दूसरे की पहचान बन गए हैं।
क्रमश:

इक बंजारा गाए-39

मेरे साप्ताहिक कॉलम की अगली कड़ी। इस बार भी छह रंग।
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इंजन का खौफ
श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच हवाई सेवा तो शुरू हो गई लेकिन इसके साथ हवाई पट्टी पर सुविधाओं का अभाव भी प्रमुख रूप से समाचार पत्रों की सुर्खियां बना। अब और नहीं तो कुछ लोग हवाई जहाज को लेकर ही टीका टिप्पणी व चटखारे लेने लगे हैं। कई तो इस बात से चुटकी लेने से नहीं चूक रहे कि हवाई जहाज में इंजन एक ही है। अब कमजोर दिल वाले इस बात से ही खौफजदा हैं। खुदा न खास्ता कल को इंजन में कोई दिक्कत आ जाए तो फिर विकल्प क्या है। भगवान न करे कभी एेसा हो लेकिन मानव स्वभाव है, एक बार डर बैठ जाता है, वह जल्दी से निकलता भी तो नहीं है।
टिकट मिल गई
कहते हैं जीवन में जो काम पहली बार होता है, उसकी खुशी कुछ अलग ही होती है और लंबे समय तक याद रहता है। अब हवाई सेवा में पहली बार यात्रा करने वालों के अनुभव भी कुछ एेसे ही हैं। हो सकता है इन लोगों ने पहले हवाई यात्रा की हो लेकिन यहां बात जयपुर से श्रीगंगानगर के लिए पहली बार हवाई यात्रा करने वालों की भी हो रही है। यात्रा करने वालों में जिला भाजपा के एक पदाधिकारी का पुत्र भी शामिल था, अब कहने वाले हवाई टिकट को चुनावी टिकट से जोड़ रहे हैं और यहां तक कह रहे हैं कि यह टिकट तो सीएम ने दी है। अब यह सब चर्चा और कयास हैं, कयासों का क्या?
जुमलों का दौर
हवाई सेवा शुरू होने के बाद बधाई देने वालों के साथ चुटकले व जुमले बनाने वाले भी कम नहीं है। जुमले भी कोई सीधे नहीं बल्कि व्यंग्यात्मक शैली में बनाए जा रहे हैं। कई एेसे भी जो हवाई जहाज के साथ अपनी सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे हैं। अब जुमलों में हवाई पट्टी की सुरक्षा की जमकर खिल्ली उड़ाई जा रही है कि यहां कोई रोकटोक नहीं है। एेसी सुविधा भला और कहां मिलेगी। इतना नहीं हवाई पट्टी को किसी बस स्टैंड जैसा ही बताया जा रहा है। वैसे हकीकत है भी एेसी ही। देखते हैं सुविधाओं का विस्तार कब होता है।
समय की कीमत
समय को लेकर पता नहीं क्या-क्या कहा गया है। समय बड़ा बलवान, समय को खराब किया तो समय आपको खराब कर देगा। समय किसी का सगा नहीं होता आदि-आदि। इनके सबसे बावजूद सरकारी विभागों में समय की पालना कितनी होती है तथा यहां बैठने वालों के लिए समय कितना मायने रखता है, यह सब जगजाहिर है। वाहनों वाले विभाग में बैठने वालों को भी इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। समय की पालना न करने वालों की शिकायत करने पर यहां उल्टे नसीहत मिलती है और कहा जाता है कि समय की पालना करने से कौनसा देश सुधर जाएगा। अब एेसे नासमझों को कौन समझाए।
शिलान्यास के बाद
शक्ति मार्ग पर इन दिनों यूआईटी सड़क बनवा रही है। वैसे शिलान्यास तो चार जुलाई को होना था लेकिन बारिश ने कार्यक्रम पर पानी फेर दिया। दुबारा कार्यक्रम तय होने में भी कम से दस दिन लग गए। तब तक यहां से आवागमन करने वाले ठोकरें खाते रहे और जिम्मेदारों को कोसते रहे। शिलान्यास के बाद भी पत्थर वैसे ही पड़े हैं। दो दिन से मजूदर यहां काम पर लगे हैं। एक तरफ नाली निर्माण भी चल रहा है। विकास वाले विभाग को अब कौन समझाए कि नाली पहले बननी चाहिए या सड़क। नाली बननी थी तो सड़क का काम पहले आधा अधूरा क्यों छोड़ा। खैर, विभाग की इस दूरदर्शिता के चर्चे आम है, क्योंकि जनहित को दुविधा में काम करवाने का यूआईटी का इतिहास पुराना है।
बीच का रास्ता
चाहे कैसी भी परिस्थिति हो या विवाद अक्सर बीच का रास्ता निकालने का प्रयास किया जाता है। अब सरकारी की प्रमुख योजनाओं की ही बात कर लें। इनमें श्रीगंगानगर का स्थान न तो ऊपर में है और न ही सबसे नीचे। मतलब बीच में है। एेसी स्थिति न तो खराब कही जा सकती है और न ही अच्छी लेकिन यह बचाव का बड़ा माध्यम जरूर है। प्रथम आने वाले को सफलता बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण काम होता है तो नीचे वाले को ऊपर आने में जोर आता है। हां इतना जरूर है कि बीच के रास्ते वालों को नुकसान नहीं है तो कोई फायदा भी नहीं होता
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 19 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित। 

चंडीगढ़ यात्रा- 6

संस्मरण
हम गूगल रूट के माध्यम से सुखना की तरफ बढ़े जा रहे थे। मोबाइल कार में पीछे बैठे सिद्धार्थ के पास था। वह बताता जा रहा था , उसी हिसाब से कुलदीप कार चलाता जा रहा था। एक घूमचक्कर पर कुलदीप सीधे जाने लगा तो सिद्धार्थ अचानक से चिल्लाया अरे इधर नहीं लेफ्ट चलो। एेसे में कुलदीप ने गाड़ी मोड़ दी और पीछे आ रही एक कार टकराते-टकराते बची। इसके बाद वह कार वाला हमें आेवरटेक करके आगे बढ़ा अपनी कार हमारी कार के आगे आड़ी लगा दी। हमने भी कार रोक दी। देखा तो वह पुलिस का जवान था। उसके चेहरे से गुस्सा साफ जाहिर हो रहा था। चूंकि हम गलती में थी, इसीलिए चुपचाप बैठे थे। वह तमतमाता हुआ आया और बोला, इसको भींत में दे मार....चलाणी नहीं आती क्या? इतना कहकर आंखें तरेरता हुआ वह अपनी कार की तरफ चला गया। हम तीनों की फिर हंसी फूट पड़ी। बार- बार भींत में दे मार का डॉयलोग कानों में गूंज रहा था। अभी सुखना झील के आसपास थे। अचानक एक सजा संवरा ऊंट दिखाई दिया। मैंने कार में बैठे-बैठे ही मैंने उसे क्लिक कर लिया। वैसे चंडीगढ़ जैसे आधुनिक शहर में रेगिस्तान के जहाज का मिलना किसी अजूबे से कम नहीं था। वैसे मैंने ऊंट को जगन्नाथ पुरी में भी देखा था, जहां समुद्र के किनारे पर्यटक ऊंट की सवारी करते हैं। जिस अंदाज में ऊंट को सजाया गया था, उससे साफ जाहिर था कि वह यहां आने वालों पर्यटकों के लिए ही किया गया था। खैर, मैं चंडीगढ़ के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी करने में जुटा था। दरअसल, मोहाली पंजाब का हिस्सा है और पंचकूला हरियाणा का लेकिन दोनों चंडीगढ़ में ही मिल चुके हैं। इसलिए कब मोहाली शुरू होता है और कब चंडीगढ़ आसानी से पता भी नहीं चल पाता है। इस कारण इसको ट्राइसिटी भी कहा जाता है। एक खास बात और जो चंडीगढ़ को बाकी शहरों से अलग करती है। यहां किसी भी गोलचक्कर या पार्क में आपको किसी महापुरुष या नेता की मूर्ति दिखाई नहीं देगी। इतना ही नहीं होर्डिंग्स व बैनर आदि भी न के बराबर हैं। आधुनिक शहर होने के बावजूद इस शहर के साथ एक अंधविश्वास भी जुड़ा हुआ है। आपको चंडीगढ़ व पंचकूलों के सेक्टरों में सेक्टर 13 नहीं मिलेगा। माना जाता है कि तेरह का अंक शुभ नहीं होता है। वैसे तेरह के अंक को लेकर पांच साल मैंने एक बड़ा सा लेख भी लिखा था, खैर, कथित अपशकुनी तेरह में अब चंडीगढ़ का नाम भी जुड़ गया है। चंडीगढ़ का नामकरण एक चंडी मंदिर से हुआ है। इतना ही नहीं चंडीगढ़ के साथ एक उपलब्धि यह भी जुड़ी है। इसको भारत का प्रथम स्मोकिंग फ्री शहर घोषित किया गया था। यह घोषणा 15 जुलाई 2007 में हुई थी, हालांकि अब हालात एेसे नहीं हैं। मैं अभी चंडीगढ़ में खोया हुआ था कि भानजे ने अचानक कार को ब्रेक लगाए। शायद हमारा पहला स्थान मतलब सुखना झील आ चुकी थी।
क्रमश: .....

चंडीगढ़ यात्रा-5

संस्मरण
भतीजे व भानजे के साथ कार में बैठते ही तय हो गया था पहले सुखना झील, फिर रॉक गार्डन तथा बाद में रोज गार्डन देखा जाएगा। घर से निकले तब बादल छंट चुके थे और तीखी धूप निकली हुई थी। चंडीगढ़ को नजदीक से देखने की उत्सुकता बढती जा रही थी। वैसे सन 2000 में भोपाल में पत्रकारिता के प्रशिक्षण के बाद मुझे चंडीगढ़ भेजा जा रहा था लेकिन तब मैंने मना कर दिया था। आखिरकार 18 साल बाद चंडीगढ़ जाने का मौका आ ही गया। चंडीगढ़ इतना खूबसूरत शहर है कि इसको लेकर खूब गीत भी लिखे गए हैं। बताते हैं पंजाबी में चंडीगढ़ में खूब गाने हैं। वैसे पंजाब का शायद ही कोई शहर होगा जिस पर गीत न लिखे गए हों। गानों की बात चली तो सबसे पहले एक हरियाणवी गीत याद आता है। तेरी कोठी मैं बणवा दूं, चंडीगढ़ शहर में छोरी... इसी गीत के बाद दूसरा गीत आया, बदली-बदली लागै, इब के खावण लागी, तेरे चढग्या रंग कसूता के चंडीगढ़ जावण लागी.. इन दोनों गीतों ने जबरदस्त धूप मचा रखी है। शायद ही कोई शादी समारोह होगा जहां डीजे पर इन गीतों को न सुना जाता हो। एक पंजाबी गीत भी इन दिनों खूब प्रचलन में हैं। इसमें भी चंडीगढ़ का जिक्र होता है। गाने के बोल हैं तैनू काला चश्मा जचता एे..। खैर, अब बात थोड़ी चंडीगढ़ शहर की कर ली जाए। वास्तुकला व डिजाइन के लिए चंडीगढ़ को समूची दुनिया में जाना जाता है। चंडीगढ़ योजनाबद्ध तरीके से बसाया गया भारत का पहला शहर है। यह भारत का सबसे आधुनिक व सफाई वाला शहर माना जाता है। अपनी सुंदरता व हरियाला के कारण चड़ीगढ़ को सिटी ब्यूटीफल भी कहा जाता है। चंडीगढ़ केन्द्र शासित प्रदेश भी है तथा पंजाब व हरियाणा की राजधानी है। इस कारण यहां नौकरीपेशा लोग खूब रहते हैं। यही कारण है कि चंडीगढ़ को पेंशनधारियों का घर या पेंशनभोगियों का स्वर्ग भी कहा जाता है। चंडीगढ़ के बारे में मैंने जितनी भी जानकारी जुटाई वह अपने आप में रोचक व रुचिकर लगी। मसलन, चंडीगढ़ को प्रसिद्ध फ्रांसीसी वास्तुकार ली कोर्बुजिए ने डिजाइन किया था। कोर्बुजिए ने चंडीगढ़ की अवधारणा मानव शहीर की तरह की है। इसमें सेक्टर कैपिटल काम्प्लेक्स एक हैड की तरह है तो सिटी सेंटर, सेक्टर 17 दिल। फेफड़ों के लिए खुले स्थान और हरियाली के लिए 7v तो मस्तिष्क के लिए शैक्षणिक संस्थानों के लिए जगह दी।
क्रमश: .....

चंडीगढ़ यात्रा-4

संस्मरण
जैसे ही बस ने लुधियाना को पार किया मैं फिर लेट गया लेकिन नींद नहीं आ रही थी। बस अपनी रफ्तार से दौड़े जा रही थी। मैं बीच-बीच में उठकर बाहर देख रहा था। पांच बजे के करीब भानजे का फोन आ गया लेकिन मैं उसको बताने की स्थिति में नहीं था कि कहां पहुंचा। बस का पर्दा हटाकर देखा तो बाहर बारिश हो रही थी। बादलों से आच्छादित आसमान और मनोहरी हरियाली देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाया और मोबाइल निकालकर एफबी लाइव कर दिया। लंबे पेड़, हरियाली तो कभी ऊंची-ऊंची इमारतें। चावलों की खेत में भरा पानी। यह सब नजारे एफबी पर कैद होते गए। ऊंची इमारतों से आभास तो गया था कि बस चंडीगढ़ के आसपास उसकी सीमा में प्रवेश कर चुकी है। आखिरकार साढ़े पांच बजे के करीब बस मोहाली के एक पेट्रोल पंप पर रुकी और परिचालक ने संभवत: पहली बार आवाज लगाई। उसने कहां आखिरी स्टॉपेज आ चुका है सभी सवारियां उतर जाएं। दरअसल यह पेट्रोल पंप मोहाली के 43 नंबर बस स्टैंड के ठीक बगल में है। बस से उतरते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। सब मुझे उम्मीद भरी नजरों से देख रहे थे लेकिन मैं सबको चीरता हुआ सड़क किनारे आकर खड़ा हो गया। भानजे का फोन आ गया लेकिन वह बस स्टैंड के आसपास ही घूम रहा था। आखिर एक स्थानीय आदमी से बात करवाकर सही लोकेशन बताई तब वह वहां पहुंचा। आखिरकर बस स्टैंड से हम घर के लिए रवाना हुए। सुबह के छह बजने को थे, लिहाजा सड़कों पर यातायात बेहद कम था। एकदम चौड़ी और खाली सड़कें तथा उनके किनारों पर लगे कतारबद्ध पेड़ वाकई यह साबित कर रहे थे चंडीगढ़ को नियोजित शहर क्यों कहा जाता है। सड़कें भी एकदम चकाचक। बिलकुल साफ। कहीं कोई गंदगी नहीं। चौराहों पर कोई होर्डिंग्स या बैनर आदि का नामोनिशान तक नहीं। प्रत्येक चौराहे पर बड़े-बड़े सूचना पट्ट जरूर लगे हैं, जिन पर सेक्टर के नंबर और उनकी लोकेशन बताई गई है। चंडीगढ़ एक तरह से सेक्टरों का ही शहर है। यहां संकेतांकों पर किसी मोहल्ले या बस्ती का नाम दिखाई नहीं देता। दूसरी बात यह कि सड़कों के आसपास कोई मकान, बस्ती या दुकान आदि दिखाई नहीं देती। एेसा लगता है किसी सघन जंगल से गुजर रहे हों। हरियाली मुझे सदा ही लुभाती रही है, लिहाजा यह सब देखकर मैं बेहद उत्साहित था। साथ-साथ यह सब नजारे मैं एफबी लाइव के माध्यम से कैद भी कर रहा था। करीब पन्द्रह मिनट के सफर के बाद मैं भानजे के क्वार्टर पर था। नित्य कर्म से निवृत हुआ तब तक भतीजा सिद्धार्थ भी आ चुका था। हम तीनों ने नाश्ता किया और फिर निकल पड़े नियोजित शहर चंडीगढ़ को साक्षात देखने।
क्रमश:

चंडीगढ़ यात्रा-3

संस्मरण
बस स्टैंड से रवाना हो गई लेकिन मुझे चैन नहीं था। अपनी पीड़ा किसके समक्ष जाहिर करूं, बस बार-बार यही सोचता रहा। ट्रेवल्स एजेंसी के मालिक का पता किया। नाम तो बता दिया गया लेकिन मोबाइल नंबर नहीं मिले। बहुत प्रयास किया तो यह जानकारी में आया कि मालिक ट्रेवल्स एजेंसी खुद नहीं देखते। कोई तीसरी या चौथी पार्टी है जो यह काम देखती है। जानकारी यह भी सुनने में आई कि ट्रेवल्स एजेंसी के मालिक की जमीन पर आरटीओ कार्यालय बना हुआ है। खैर, मुझे जब और कोई रास्ता नहीं सूझा तो पुलिस के एक अधिकारी को फोन लगाया। चूंकि मैं गुस्से में था और आवेश में एजेंसी व आरटीओ के बारे में बोलता गया। मैंने कहा कि मैं कोई फ्री यात्रा नहीं करता, लेकिन सरकारी विभागों को यह एजेंसी वाले हर तरह से ऑब्लाइज्ड करते हैं। न केवल यात्रा फ्री करवाते हैं, बिलकुल सीट भी वीआईपी और रास्ते में बाराती जैसी आवभगत और करते हैं। मैं कहे जा रहा था और पुलिस अधिकारी सुने जा रहे थे। मैंने यहां तक कहा कि शाम को कमोबेश हर ट्रेवल्स एजेंसी की बसें बीच सड़क पर खड़ी रहती हैं। यातायात जाम रहता है। सड़कें संकरी हो जाती हैं, लेकिन न पुलिस बोलती है न कोई और। क्योंकि सबके मुंह बंद हैं। सब एहसानों से दबे हैं। कोई पैसे से तो कोई सेवा से। खैर, अपनी भड़ास मैं निकाल चुका था, पुलिस अधिकारी सिर्फ चैक करवाते हैं, दिखवाते हैं, समझा देंगे के अलावा और कुछ नहीं कह पा रहे थे। इस बातचीत में बस श्रीगंगानगर की सरहद से पार निकलकर लालगढ़ जाटान तक पहुंच चुकी थी।
खैर, इसके बाद दोस्तों से भी इसी घटनाक्रम को शेयर किया तो सभी ने मूड सही रखने और आराम से यात्रा करने की सलाह दी। रास्ते में बस एक जगह रोकी गई, वह कोई पेट्रोल पंप था। वैसे पता नहीं बस किस रुट से होकर जा रही थी लेकिन रास्ता खराब था। मैं अंदर स्लीपर में लेटा लेटा अपने आप ही इधर-इधर हो रहा था। बस में रात का सफर अक्सर किया है लेकिन इस तरह के असुविधा पहली बार हुई। संभवत: रास्ता सही नहीं होने के कारण एेसा हो रहा था। बाहर अंधेरा होने के कारण पता नहीं चल पा रहा था कि आखिर कौनसी जगह है। आखिरकार कई देर ताकने के बाद रोशनी दिखाई दी तो लगा कि कोई शहर आया है। संकेतांक व दुकानों के बाहर के बोर्ड पंजाबी में लिखे होने के कारण मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह शहर कौनसा है। आखिरकार एक जगह अंग्रेजी में लुधियाना लिखा देखा। लुधियाना से चंडीगढ़ करीब एक सौ पांच किलोमीटर पड़ता है।
क्रमश :

चंडीगढ़ यात्रा-2

संस्मरण
काउंटर पर बैठे युवक का रुखा सा जवाब सुनकर मेरा माथा ठनका। ऑनलाइन टिकट और उसके बताए अनुसार में पूरे पौन घंटे का अंतर था। मैं थोड़ा तल्ख होते हुए उससे फिर रूबरू हुआ और कहा कि यह आप लोगों का कोई तरीका नहीं है। बस जब रवाना हो तभी का टाइम देना चाहिए। यह तो समय पर पहुंचने वालों के साथ सरासर नाइंसाफी है। मेरी बात सुनकर वह युवक मंद-मंद मुस्कुराया और बोला, सवारियां समय पर नहीं आती हैं, उनके इंतजार में बस रोकनी पड़ती हैं क्या करें? लेकिन उसके जवाब से मुझे संतुष्टि नहीं मिली है। मैंने फिर पूछा और जो समय पर आ गया, उसके लिए यह सजा क्यों? आपको जब बस पौने दस ही चलानी है तो ऑनलाइन में टाइम भी पौने दस का ही दो ताकि किसी को असुविधा न हो। और कम से कम मेरे जैसे समय के पाबंद लोगों को परेशानी न हो। लेकिन मेरी बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। कहने लगा यह तो ऑनलाइन वालों की गलती है। हमने थोड़े ही आपको टिकट दी है। इस बार जवाब सुनकर मुझे भी गुस्सा आ गया, मैंने कहा ऑनलाइन वाले क्या अपनी मर्जी से समय डालते हैं। आप लोगों ने उनसे करार किया होगा, तभी समय बताया होगा। अब उसके पास कोई जवाब नहीं था, मुझे यह बात बेहद नागवार गुजरी। मैंने प्राइवेट बस एसोसिएशन के एक पदाधिकारी से बात की। उसका भी यही कहना था कि वो उनको समझा देगा,क्ष आप नाराज न हो। मुझे लगा यह भी कोई संतोषप्रद जवाब नहीं है। इसके बाद मैंने जिला परिवहन कार्यालय के किसी हेतराम से बात की। यह सज्जन तो और भी बड़े वाले निकले। मैंने जब उनको सारा वृतांत सुनाया तो उल्टे मेरे हो ही नसीहत देने लगे। कहने लगे इंडिया में क्या सारे लोग समय के पाबंद हैं और आपके अकेले के सुधरने के कौनसा इंडिया सुधर जाएगा। सच में मुझे अधिकारी के इस तरह के जवाब से बेहद गुस्सा आया। इसके बाद अधिकारी ने कहा कि आप काउंटर पर बैठे युवक से बात करवाओ, तो मैंने कहा कि आपको सब पता है। बात करनी है तो आप कीजिए, मैं अपने फोन से न आज करवाऊं न कल करवाऊं। खैर, इस सारे घटनाक्रम के बीच 9.20 हो चुके थे। कतार में खड़ी तीन मेें से दो बसें रवाना हो चुकी थी। मैं भी सीट पर जाकर बैठ गया। सीट पर बैठे -बैठे 9.25 पर खुद का एक वीडियो भी बनाया। मैं वीडियो बनाकर रुका ही था कि एक युवक मेरे पास आया और कहने लगा महेन्द्र शेखावत आप ही हैं क्या? कृपया आप डबल स्लीपर में आ जाइए। मैंने कहा क्यों, मेरा टिकट सिंगल स्लीपर का है, डबल में क्यों आ जाऊं? मेरे को यहां कोई परेशानी नहीं है? और मेरा स्लीपर भी यही है। दूसरी बात मेरी बहस सीट को लेकर नहीं है समय को लेकर है। मेरी बात सुनकर युवक ने अपनी बात पलटी और कहने लगा भाईसाहब हमारी बस का समय सवा नौ बजे का है। इतना तो ऊपर नीचे हो ही जाता है। इतना कहकर वह नीचे चला गया। बगल में डबल स्लीपर में अधेड़ दंपती सोया था। वहां से पुरुष की आवाज आई भाईसाहब हमने भी ऑनलाइन बुकिंग करवाई थी। हम भी नौ बजे के बैठे हैं। खैर, ठीक 9.34 पर बस रवाना हुई।
क्रमश: .....

चंडीगढ़ यात्रा-1

संस्मरण 
चंडीगढ़ के लिए भतीजा सिद्धार्थ कई बार आग्रह कर चुका था। भानजा कुलदीप भी इसी शहर में पदस्थापित है। आखिरकार काफी हां ना, हां ना के बाद चंडीगढ़ जाने का फैसला कर ही लिया गया। ऊहापोह इस बात की थी कि ट्रेन में जाया जाए या बस में। चूंकि अवकाश एक दिन था और एक साप्ताहिक अवकाश। इस तरह दो दिन थे। ट्रेन मेरे टाइम टेबल के हिसाब से मैच नहीं हो रही थी। आखिर तय हुआ कि शुक्रवार रात को बस से चंडीगढ़ रवानगी और रविवार शाम को वहां से बस से वापसी होगी। टिकट की बुकिंग ऑनलाइन की गई थी। श्रीगंगानगर से चंडीगढ़ के लिए राजप्रीत ट्रेवल्स की बस में सीट बुक हुई तो वापसी में टांटिया ट्रेवल्स की। दोनों ट्रेवल्स एजेंसी श्रीगंगानगर की हैं। दोनों बसों का किराया भी समान है और दोनों ही गंतव्य स्थल पहुंचाने में एक जैसा समय लगाती हैं। इन सब के बावजूद दोनों ट्रेवल्स में दिन रात का अंतर है। यह अंतर है सेवा का, व्यवहार का और समय की पालना का। ऑनलाइन टिकट में राजप्रीत का रिपोर्टिंग व डिपार्चर टाइम नौ बजे का दिया हुआ था मतलब दोनों एक साथ, जबकि टांटियां में रिपोटिंग टाइम 7.25 तथा डिपार्चर टाइम 7.40 का। टांटिया ट्रेवल्स की बस निर्धारित समय 7.40 पर चंडीगढ़ से श्रीगंगानगर के लिए रवाना हो गई, लेकिन राजप्रीत ट्रेवल्स के साथ एेसा नहीं था। यह बस अपने निर्धारित समय से काफी देर बाद श्रीगंगानगर से चंडीगढ़ के लिए रवाना हुई। टांटियां में सभी यात्रियों को सीट पर बैठते ही ठंडे पानी की एक-एक बोतल दे दी गई जबकि राजप्रीत में एेसा कुछ नहीं था। टांटिया ट्रेवल्स का परिचालक जब भी कोई स्टैंड आता है आवाज लगाता लेकिन राजप्रीत में एेसा नहीं था।
बस ट्रेवल्स से अपनी बात इसीलिए शुरू की ,क्योंकि इन दोनों में से एक ट्रेवल्स के बुकिंग काउंटर पर बैठे स्टाफ का व्यवहार इतना रुखा और अखड़ था, जिसने मेरा मूड ऑफ किया। मैं बस रवानगी के निर्धारित समय नौ बजे से पांच मिनट पहले राजप्रीत के काउंटर पर पहुंच गया था। काउंटर पर उस वक्त काफी भीड़ थी तथा तीन बसें आगे पीछे कतार में खड़ी थीं। मैंने काउंटर पर जाकर चंडीगढ़ की बस के बारे में जानकारी ली तो बताया गया कि बस पौने दस बजे के करीब चलेगी।
क्रमश:.....

इक बंजारा गाए-38


सभा की जिम्मेदारी
पीएम की जयपुर की सभा शांतिपूर्व निबट गई तथा सभा में जाने वाले भी सकुशल लौट आए। सभा से जुड़ी बातें अब किस्सों के रूप में दर्ज हो चुकी हैं। इन किस्सों के चर्चे कभी-कभार सुनने को मिल जाते हैं। श्रीगंगानगर से सतारूढ़ दल के एक जिला पदाधिकारी तथा टिकट के इच्छुक नेताजी ने भी सभा को लेकर खूब मेहनत की, लेकिन इनका योगदान सिर्फ श्रीगंगानगर विधानसभा के लोगों तक ही सीमित रहा। वैसे भी नेताजी को दूसरी विधानसभा के लोगों से मतलब भी क्या था। देखते हैं नेताजी की यह मेहनत कालांतर में क्या रंग दिखाती है।
विधायक की सक्रियता
पिछले सप्ताह श्रीगंगानगर के कई रास्ते बरसाती पानी से लबालब हुए। लोग घरों में ही कैद होकर रह गए। गंभीर बात तो यह थी कि किसी भी जन प्रतिनिधि ने संकट में फंसे लोगों के न तो हालचाल पूछे और न ही बदहाल शहर का जायजा लिया। इससे ठीक उलट एक मामला जरूर सामने आया। पीएम की सभा में जाने के लिए रवानगी के वक्त लड़कियों ने भोजन न मिलने की बात कही तो स्थानीय विधायक ने तत्काल भोजन की व्यवस्था भी करवाई। काश, ऐसी सक्रियता व संवेदनशीलता श्रीगंगानगर की समस्याओं के प्रति भी दिखाई देती तो बात की कुछ और होती।
सुरक्षा में सेंध
हिस्ट्रीशीटर की सरेआम हत्या के बाद खाकी ने जिस अंदाज में सक्रियता दिखाई उससे लगने लगा था अब तो कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता। जिस तरह वाहनों की चैंकिंग हुई, शहर में प्रवेश करने वाले रास्तों पर स्टॉपर लगाए गए, शहर के तमाम होस्टल व पीजी खंगाले गए। उससे उम्मीद बंधी थी कि खाकी की इस तत्परता के चलते शायद अपराध कुछ कम हो जाए, लेकिन मोरजंड खारी के बस स्टैंड से एटीएम लूटकर ले जाने की जो वारदात हुई है, उससे लगता नहीं है कि अपराधियों में खाकी का कोई भय है। भय होता तो भला सुरक्षा में सेंध थोड़े ही लगती।
जल्दबाजी का नतीजा
लंबे इंतजार के बाद श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच हवाई सेवा शुरू हो गई। इसका श्रेय लेने के लिए शहर व जिले के कई प्रमुख नेता मौके पर जुटे भी और राज्य सरकार की उपलब्धियां गिनाई, लेकिन बात अगर सुरक्षा व सुविधाओं की जाए तो लगता है हवाई सेवा आधी अधूरी तैयारी के साथ शुरू कर दी गई है। आलम यह है हवाई पट्टी पर न तो पीने के पानी की व्यवस्था है और न ही हवा आदि की। इतना ही नहीं हवाई जहाज के लिए टिकट काटने वाले की स्थिति से बेहतर तो कहीं प्राइवेट बसों के टिकट काउंटर हैं। कहीं यह सब जल्दबाजी व श्रेय बटोरने का नतीजा तो नहीं?
बेपटरी व्यवस्था
विद्युत वितरण निगम ने हाल ही में निर्बाध गति से बिजली आपूर्ति देने का दावा किया था। विशेषकर श्रीगंगानगर में जिस अंदाज में ट्रांसफार्मर लगे हैं, उससे यकीन भी हुआ कि अब कट नहंी लगेंगे, लेकिन दावों की हवा निकलते देर नहीं लगी। वैसे प्रतिकूल मौसम में बिजली गुल होना तो एक सामान्य सी बात है और यह व्यवहार में आ चुकी है लेकिन सामान्य दिनों में जिस तरह कट लग रहे हैं, इससे जाहिर हो रहा है व्यवस्था में आशातीत सुधार अभी हुआ नहीं है। वैसे भी जब तक सुधार पूरी तरह से न हो तब तक दावा करना भी चाहिए। पता नहीं बेपटरी व्यवस्था कब पटरी पर लौटे?
बेचारा लैंडलाइन
जब से मोबाइल फोन आए हैं बेचारे लैंडलाइन फोन की तो कद्र ही घट गई है। वैसे सरकारी कार्यालयों में अफसरों व कर्मचारियों ने खुद अपने लिए तो मोबाइल ले लिए, लेकिन ऑफिस के लिए अभी भी लैंडलाइन फोन में अस्तित्व में हैं। वैसे अधिकतर सरकारी कार्यालयों में लैंडलाइन फोन उपेक्षित ही हैं और उनकी तरफ ध्यान भी कम ही जाता है। कुछ ऐसा ही हश्र राजस्थान रोडवेज के पूछताछ काउंटर के लैंडलाइन फोन का है। यात्री को पूछताछ करनी है तो संबंधित के मोबाइल पर लगाओ या व्यक्तिश: मिलकर आओ। लैंडलाइन फोन कोई अटेंड करे तब ना।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 12 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित

मगरमच्छ समझा वह कछुआ निकला


श्रीगंगानगर. शहर की तीन पुली पर अक्सर बच्चे नहाते रहते हैं, लेकिन गुरुवार को नजारा बदला हुआ था। नहर के चारों तरफ तमाशबीन खड़े थे तथा तीन युवक नहर के पानी के अंदर कुछ तलाश रहे थे। वहां मौजूद लोग एक दूसरे सेे पूछ रहे थे क्या हुआ? अंदर क्या है? लेकिन जितने मुंह उतनी ही बात। कोई मगरमच्छ बता रहा तो कोई बड़ी मछली, लेकिन पानी के अंदर क्या है? यह किसी को पता नहीं चल रहा था। कुछ तो ऐसे भी जिन्होंने इस मामले को मजाक समझकर सिरे से ही खारिज कर दिया। इस बीच पानी के नीचे इस अनजाने जीव को पकडऩे की कवायद जारी थी। इस मशक्कत के दौरान एक युवक पैर का अंगूठा जख्मी हो गया। पानी के अंदर जो जीव था उसने उसे काट खाया। इसके बाद एक दूसरे युवक के दोनों हाथ थी जख्मी हो गए। दोनों हाथों से खून बहने लगा, लेकिन वो पानी के अंदर डटे रहे। बाहर खड़े लोगों ने कपड़े व बोरी आदि उनको दिए ताकि युवक अपना बचाव कर सके। आखिरकार अढा़ई घंटे की मशक्कत के बाद यह जीव बाहर निकला तो लोगों की सांस में सांस आई। यह काफी बड़ा व वजनी कछुआ था। पकडऩे के दौरान अपने बचाव के प्रयास में उसने युवकों को काट खाया था। उसके नाखून भी काफी बड़े थे। संभवत: उसके नाखून भी युवकों को लगे हैं। कछुआ बाहर निकलने के बाद किसी ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने मौके पर पहुंच वन विभाग को सूचित किया। बाद में उसे शिवपुर हैड में छोड़ दिया बताया।
फोटो लेने की होड़
पांच छह जनों की मदद से जैसे ही कछुए को बाहर निकाला गया, उसको देखने काफी लोग जमा हो गए। मोबाइल से कछुवे को कैमरे में कैद करने की तो जैसे होड़ ही लग गई। बाद में कछुए को नहर से थोड़ा दूर सड़क पर ले जा गया। कछुए को बाहर निकालने वाले श्यामलाल ने बताया कि तीन पुली में बच्चे रोज ही नहाते हैं। काफी दिन से पानी के अंदर कुछ है, यह डर उनमें बैठा हुआ था, इसलिए आज इसको निकालने की सोची। विदित रहे कि पहले तीन पुली में मगरमच्छ होने की सूचना ही थी, लेकिन बाद में यह सूचना सही नहीं निकली।
कछुए के बारे में रोचक तथ्य
-भारत के पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु का एक रूप कछुआ भी है। भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण कर क्षीरसागर के समुद्र मंथन के समय मंदरमंद्रांचल पर्वत को अपने कवच पर थामा था। धार्मिक रूप से कछुआ सौभाग्यशाली माना जाता है। इसलिए कछुए की पूजा भी होती है। ज्योतिष के अनुसार कछुए का चित्र या कछुआ रखने से कई सारी परेशानियां ठीक हो जाती हैं और लाभ हो सकते हैं।
- इनमें नर और मादा की पहचान करना मुश्किल होता है। नर कछुए मादा से थोड़े लंबे होते हैं और इनकी पूंछ भी मादा से लंबी होती है। खास बात यह है कि कछुवे जहरीले नहीं होते। इनके मुंह में दांत नहीं होते।ैं।
-कछुओं के बच्चे अंडों से होते हैं। एक मादा कछुआ एक बार में 30 तक अंडे देती है। इन अंडों से 90 से 120 दिनों में बच्चे बाहर निकलते हैं।
-कुछ कछुओं की उम्र 150 साल या उससे अधिक भी होती है। 'हैरियट' नाम के एक कछुए की मौत 2006 में ऑस्ट्रेलिया के एक चिडिय़ाघर में हुई थी। बताया गया है जब उसकी मौत हुई उस समय उसकी उम्र करीब 175 साल थी। अभी धरती पर सबसे अधिक उम्र का प्राणी 'जोनाथन' नाम का कछुआ है। आज इसकी उम्र 187 साल है और अभी भी यह बिल्कुल स्वस्थ है। इसकी लंबाई 45 इंच और ऊंचाई दो फीट है।
-कछुए का कवच इनके शरीर का ही हिस्सा होता है। यह इसकी पसलियों से विकसित होता है। बिना मारे कछुओं को उसके कवच से अलग नहीं किया जा सकता। इसके कवच को बंदूक की गोली, मगरमच्छ और कुत्ते भी नुकसान नहीं पहुंचा सकते। यह 60 प्रकार की हड्डियों से मिलकर बना होता है। कछुए का कवच तोडऩे के लिए कछुए के वजन से 200 गुना अधिक वजन और बहुत अधिक प्रेशर चाहिए।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 06 जुलाई 18 के अंक में  प्रकाशित

स्थायी समाधान कब

प्रसंगवश
प्रदेश के श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले सरसब्ज हैं तथा कृषि उत्पादन में अव्वल हैं तो इसकी एकमात्र वजह नहरी पानी की उपलब्धता ही है। नहरी पानी यहां के लिए सब कुछ है। या यों कहना चाहिए कि नहर यहां के लिए जीवन रेखा है। जाहिर सी बात है जब जब नहरों में पानी की कमी होती है, तब-तब सिंचाई का संकट खड़ा हो जाता है। हालात यहां तक पहुंच जाते हैं कि धरतीपुत्र को अपने खेत छोड़कर सड़कों पर आना पड़ता है। विडम्बना देखिए साल में शायद ही एेसा कोई माह होता होगा जब इन दोनों जिलों में पानी के लिए प्रदर्शन नहीं होता हो। यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है। इंदिरा गांधी नहर में लगातार पानी कम आ रहा है। घड़साना व रावला क्षेत्र में तो किसानों को साढ़े तीन माह बाद खेती के लिए पानी मिला है। इस कारण इस क्षेत्र में नरमा कपास की नाममात्र की बुवाई हो पाई। पानी की कमी के कारण इस क्षेत्र के किसान गुस्से में है। घड़साना वो ही इलाका है, जहां बारह-तेरह साल पहले आठ किसानों को पानी के लिए जान देनी पड़ी थी। पानी की कहानी इस इलाके में कमोबेश आज भी वैसी ही है। इंदिरा गांधी नहर के अलावा गंगनहर का गणित भी पिछले दो साल से तो पूरी तरह से गड़बड़ाया हुआ है। इस नहर से जुड़े किसान भी लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं। यह भी एक तथ्य है कि किसानों के आंदोलन के आगे सरकार झुकती आई है। जब-जब विरोध हुआ तब-तब किसानों को सिंचाई के लिए पानी मिला भी है। लेकिन इन इलाकों में जैसे हालात बन रहे हैं उससे लगता है कि पानी के लिए प्रदर्शन किसानों की नियति बन चुका है। दोनों जिलों में नहर आए काफी समय हो गया, लेकिन पानी की उपलब्धता लगातार कम होता जा रही है। वैसे किसानों को उनके हक का पूरा पानी मिले तथा उचित समय पर मिले तो निसंदेह इसका फायदा किसानों और खेती दोनों को होगा। हर बार किसानों को आंदोलन का सहारा ही क्यों लेना पड़े जिम्मेदारों को अब इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए ताकि किसान की पैदावार बढ़े।
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राजस्थान पत्रिका के राजस्थान के तमाम संस्करणों में 02 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-37


सम्मान की चाह
सम्मान की चाह किसे नहीं होती। आदमी सम्मान के लिए लालायित रहता है और पाने के प्रयास भी खूब करता है। हाल ही श्रीगंगानगर के एक ट्रस्ट को राष्ट्रीय स्तर का सम्मान मिला है। सम्मान लेने बाकायदा दो बंदे दिल्ली पहुंचे भी लेकिन सम्मान तो उसी को मिलना था, जिसका नाम था। खैर, ट्रस्ट मुखिया जी को यह सब कैसे बर्दाश्त होता। लिहाजा होर्डिंग्स में खुद का फोटो तथा बाद में अभिनंदन करवाकर संतुलन बनाने का प्रयास तो किया लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हासिल न करने का मलाल तो रहेगा ही। यह एक ऐसी टीस है जो रह-रहकर सालती रहेगी।
जिम्मेदारी का बोझ
पीएम की जयपुर में होने वाली सभा ने कई कर्मचारियों की रातों की नींद व दिन का चैन गायब कर रखा है। विशेषकर उन कर्मचारियों के समक्ष ज्यादा दुविधा है, जिनको जिम्मेदारी मिली है। इन कर्मचारियों को चिंता जयपुर जाने की नहीं है, बल्कि उस खर्चे की है जो उनको खुद की जेब से भरना पड़ सकता है। उनको उम्मीद की कोई किरण भी नजर नहीं आ रही है कि यह खर्चा उनको वापस कहां से मिलेगा। इस दुविधा के चलते बहुत से कर्मचारी तो जिम्मेदारी लेने से बचने की कोशिश में जुटे हैं, लेकिन लगता नहीं उनका इस तरह पीछा छूट जाएगा।
दिहाड़ी का संकट
यह मामला भी पीएम की सभा से संबंधित है। जयपुर के लिए बसें अधिग्रहित की जा रही हैं। बस वाले भी राजी-राजी बसें दे रहे हैं। मजबूरी है, इसलिए मना भी करेंगे तो बात बनेगी नहीं। फिलहाल बस वालों की दो दिन की दिहाड़ी तो मारी ही जाएगी। तेल का खर्चा भी पल्ले से देना पड़ सकता है। बसें चलानी हैं, लिहाजा शासन-प्रशासन से तालमेल तो रखना ही पड़ेगा। कल को अधिकारी पता नहीं किसी तरह की कोई कमी बताकर बस को सीज कर दें और कितना नुकसान हो जाए, बस इसी चिंता को जेहन में रखकर बस वाले फिलहाल बुझे मन से लेकिन बनावटी मुस्कान से हां कर रहे हैं।
सारी खुदाई एक तरफ
'सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ' वाली कहावत इन दिनों परिषद के मुखिया और उप मुखिया पर सटीक बैठ रही है। परिवार के लोगों को उपकृत करने के कारण आजकल वे ठेकेदार थोड़े कड़की में चल रहे हैं जो कभी इन दोनों मुखियाओं के खासमखास हुआ करते थे। स्वाभाविक सी बात है कोई कितना भी खासमखास हो लेकिन बात जब पत्नी के भाई की आएगी तो फिर प्राथमिकता उसी को मिलना तय है। फिलहाल पुराने ठेकेदार इस संकट से पार पाने की जुगत भिड़ा तो रहे हैं लेकिन उनको सफलता मिलेगी, लगता नहीं है।
खाकी की जांच
श्रीगंगानगर में एक हिस्ट्रीशीटर की सरेआम हत्या के बाद हरकत में आई खाकी ने अधिकतर आरोपी पकडऩे में सफलता तो हासिल की है लेकिन मुख्य आरोपी अभी भी पकड़ से दूर है। इतना ही नहीं खाकी की जांच पर भी कुछ चटखारे लिए जा रहे हैं। मसलन, खाकी की जांच शूट किसने किया तथा कैसे किया इस पर बात तो चल रही है लेकिन अभी वह यह नहीं बता पाई है कि यह हत्या किसके कहने पर हुई। मतलब इस हत्या का सूत्रधार कौन हैं। जब आरोपी पकड़ में हैं तो इस बात का खुलासा करने में देर किस बात की।
सर्किल का मोह
सदर थाने व चहल चौक के बीच यूआईटी ने एक चौक बनवाया है। यहां ठीक से जगह नहीं है लेकिन धक्के से एक गोल सर्किल बनाकर उसका बाकायदा नामकरण भी कर दिया। नाम दिया गया है बेटी गौरव सर्किल। यह सर्किल बना तो दिया गया है लेकिन यातायात के दृष्टिकोण से बिल्कुल भी सही नहीं है। पहले वाला कुछ बड़ा बन गया तो यूआईटी ने तोड़ दिया और दुबारा बना तो किसी वाहन की टक्कर से वह टूट गया। सर्किल के नाम पर मलबे का ढेर जरूर पड़ा है। पता नहीं यूआईटी को यहां सर्किल बनाने का ख्याल कैसे आया। सर्किल से मोह के प्रति कोई कारण या राज तो जरूर है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 05 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित 

भावनाओं व कल्पनाओं का कॉकटेल

बस यूं ही 
यह सही है कि फिल्म अभिनेता संजय दत्त कभी मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में शामिल नहीं रहे। और यह भी सही है कि हालिया प्रदर्शित फिल्म संजू भी शायद ही देखने जाता अगर बच्चे लगातार जिद न करते। खैर, रिलीज के पांचवें दिन यह फिल्म देख ही आया। फिल्म में कल्पनाओं व भावनाओं का इतना जबरदस्त कॉकटेल है कि दर्शकों को संजू से सहानुभूति फिल्म के शुरू से ही हो जाती है। मरणासन्न मां के सामने ड्रग्स का सेवन करने के बावजूद संजू दर्शकों को अखरता नहीं है। संजू अपने मित्र की गर्ल फ्रेंड से हमबिस्तर हो जाता है फिर भी दर्शकों को यह सब मजाकिया लगता है। संजू द्वारा तीन सौ से ज्यादा महिलाओं से संबंध की स्वीकारोक्ति पर भी थियेटर में हैरत नहीं होती उल्टे हंसी के ठहाके गूंजते हैं। एेसा इसलिए है क्योंकि हकीकत के साथ भावनाओं का घालमेल इस कदर किया है कि वो संजू नफरत का पात्र नहीं बनने नहीं देता। वैसे फिल्म देखने वालों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हो सकती है, होगी भी। संजय दत्त के समर्थकों के लिए यह फिल्म किसी धार्मिक ग्रंथ से कम नहीं है तो तटस्थ दर्शकों के लिए यह संजय दत्त के महिमामंडन से ज्यादा कुछ नहीं है। फिल्म को आप केवल मनोरंजन के दृष्टिकोण से देखेंगे तो आपका थियेटर जाना सफल है लेकिन अगर आप इसको संजय दत्त की रियल कहानी मानकर देखेंगे तो फिर सौ सवाल भी खड़े होंगे। यूं ही समझ लीजिए इस फिल्म को दिल से देखेंगे तो आपका भावनाओं के समन्दर में डूबना तय है और दिमाग से देखेंगे तो लगेगा कि फिल्म में काफी कुछ बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया है तथा काफी कुछ छूट भी गया है। इस तरह का विरोधाभास यकीनन दिमाग से देखने वालों को अखरेगा। चूंकि मैं खुद दिल की सुनने वाला हूं और स्वभाव से बेहद भावुक भी, लिहाजा फिल्म के इमोशनल सीन्स ने मेरी भी आंखें नम की, वह भी तीन चार बार। पहली बार तब जब बीमार मां नरगिस बेटे संजू के सिर पर हाथ फेरती है, उसे दुलारती है। मां का यह निश्छल प्रेम देखकर आंखों से आंसू बरबस बह निकले। दूसरी बार तब जब पिता सुनील दत्त की मौत के बाद संजू धन्यवाद पत्र पढ़ता है और तीसरी बार उस वक्त आंसू आए जब संजू दोस्ती पर अपनी बात कहते-कहते खुद रोने लगता है। पाश्र्व में बचता गीत तेरे जैसा यार कहां, कहां एेसा याराना तो दोस्ती के रिश्ते को और प्रगाढ़ बना देता है।
भावना व कल्पना के तड़के के बीच इस फिल्म के माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया गया है कि संजू आतंकवादी नहीं था, जैसा कि उसको प्रचारित किया गया। उसको जो सजा मिली तो वह केवल गैरकानूनी रूप से हथियार रखने के मामले में मिली। वरना उसने और कोई गुनाह नहीं किया। इस फिल्म में यह बताने का भी भरपूर प्रयास किया गया है कि मीडिया ने संजय दत्त को आतंकवादी बनाया लेकिन जब कोर्ट ने उसको इस मामले से बरी किया तो मीडिया ने आतंकवादी न मानने की बात को हैडिंग बनाने के बजाय सजा को हाइलाइट किया,जबकि सजा हथियार रखने के मामले में मिली थी। फिल्म के एक सीन में संजय दत्त के खिलाफ मीडिया रिपोर्टों से परेशान सुनील दत्त अखबार के दफ्तर भी जाते हैं तथा संपादक को प्रश्न खड़े वाली तथा अपुष्ट खबरें देने की बजाय कन्फर्म व पुष्ट खबर छापने की नसीहत देते हैं। संजय दत्त भी जेल में मीडिया पर खूब गरियाते हैं और सवाल खड़ा करते हैं। यहां तक कि एक बार तो वो अखबार को ही ड्रग्स की संज्ञा तक दे डालते हैं। बहरहाल, अगर आप मनोरंजन के दृष्टिकोण के साथ दिल से फिल्म देखने जा रहे हैं तो यह आपको यकीनन पसंद आएगी लेकिन आप इसे संजय दत्त की जीवनी के रूप में देखने जाएंगे तो हो सकता है आपको यह फिल्म काफी अतिश्योक्ति पूर्ण तो लगे ही काफी छूटा हुआ भी महसूस हो। फिल्म में कई द्विअर्थी संवाद मर्यादा को लांघते प्रतीत होते हैं, जो बच्चों के सामने आपको शर्मसार भी कर सकते हैं। लब्बोलुआब यह है कि यह कि यह संजय दत का एक तरह से सफाईनामा है। जो यह कहने का प्रयास करता है कि...
वक्त ने बुरा बना दिया वरना आदमी बुरा नहीं होता।
कुछ मजबूरियां रही होंगी वरना आदमी बेवफा नहीं होता।

यह स्थायी समाधान नहीं

टिप्पणी 
शहर की लाइलाज बीमारी बनती जा रही पार्र्किंग समस्या से निबटने के लिए यातायात पुलिस ने एक रिपोर्ट तैयार की है। बताया जा रहा है कि यातायात सलाहकार समिति की बैठक में यह मामला उठने के बाद यातायात पुलिस ने यह रिपोर्ट बनाकर प्रशासन को सौंपी है। इसमें दो स्थान पार्र्किंग के लिए चिन्हित किए जाने का उल्लेख भी है। यह स्थान बल्लूराम गोदारा राजकीय गल्र्स कॉलेज के पास ढलवां फुटपाथ तथा जेल के पीछे सड़क के किनारे की जगह को पार्र्किंग के उपयोग किए जाने की बात कही गई है। खास बात यह है कि इन दोनों ही स्थानों पर वाहन पार्र्किंग हो रही है। यह जगह भी नाममात्र की है और यहां सौ वाहन भी खड़े नहीं हो सकते हैं। खैर, खुशी इस बात की जताई जा सकती है कि बिना हेलमेट चालान काटने में व्यस्त यातायात पुलिस को बदहाल व बेपटरी यातायात की याद तो आई, लेकिन दो स्थान चिन्हित करना न तो समस्या का स्थायी समाधान है और न ही इनसे किसी तरह की राहत मिलने वाली है। यह एक तरह से ऊंट के मुंह में जीरे के समान भी नहीं है। दरअसल, जिला मुख्यालय पर समस्याओं की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन पार्किंग समस्या है ऐसी है, जिससे कमोबेश हर आदमी रोजाना रूबरू होता है।
दरअसल, शहर में पार्र्किंग की समस्या को लेकर हर बार चर्चा होती है, प्रस्ताव बनते हैं, लेकिन समस्या जस की तस है। समस्या की मूल जड़ सभी विभागों का आपस में तालमेल न होना भी है। पब्लिक पार्क को अंडरग्राउंड पार्र्किंग के लिए चिन्हित किया गया। प्रस्ताव भी बना, लेकिन सब ठंडे बस्ते में चला गया। मटका चौक के पीछे सिविल लाइंस के जर्जर आवासों की जगह भी पार्र्किंग बनाने का प्रस्ताव तैयार हुआ, लेकिन वह भी सिरे नहीं चढ़ा। इसके अलावा पुराने सीएमएचओ आफिस में पार्र्किंग की बात चली, लेकिन वहां विभाग ने अपना भवन बना दिया तो बात आई गई हो गई। इससे जाहिर है होता है कि इस समस्या को लेकर कभी गंभीरता से प्रयास हुए ही नहीं। यातायात पुलिस ने भी जो दो स्थान चिन्हित किए हैं तो तय मानिए उसमें उसका ही हित ज्यादा नजर आता है। कल को वह इन दो स्थानों को आधार बनाकर सड़क या बाजार में खड़े वाहनों को जब्त करे तो कोई बड़ी बात नहीं है। वैसे गोल बाजार में तो ऐसा लंबे समय से हो भी रहा है। श्रीगंगानगर में ऐसा काम भी हो रहा है कि सड़क पर पार्र्किंग कर उसके नाम पर वसूली भी जा रही है। कलक्ट्रेट के पास सड़क तथा पब्लिक पार्क के आगे सड़क पर ही पार्र्किंग होती है और बाकायदा उसका ठेका होता है।
बहरहाल, जिम्मेदारों को पार्र्किंग समस्या का स्थायी समाधान खोजना चाहिए। केवल राजस्व वसूली या वाहन जब्त करना समस्या का समाधान नहीं है। जब शहर में जगह ही नहीं है तो वाहन कहां खड़े होंगे? श्रीगंगानगर संभवत: इकलौता शहर होगा जहां कमोबेश हर वाहन ही सड़क पर खड़ा होता है। वाहनों की संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है और जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि अब इस समस्या का ठोस व स्थायी समाधान हो।

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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 01 जुलाई 18 के अंक में प्रकाशित