Thursday, July 26, 2018

भावनाओं व कल्पनाओं का कॉकटेल

बस यूं ही 
यह सही है कि फिल्म अभिनेता संजय दत्त कभी मेरे पसंदीदा अभिनेताओं में शामिल नहीं रहे। और यह भी सही है कि हालिया प्रदर्शित फिल्म संजू भी शायद ही देखने जाता अगर बच्चे लगातार जिद न करते। खैर, रिलीज के पांचवें दिन यह फिल्म देख ही आया। फिल्म में कल्पनाओं व भावनाओं का इतना जबरदस्त कॉकटेल है कि दर्शकों को संजू से सहानुभूति फिल्म के शुरू से ही हो जाती है। मरणासन्न मां के सामने ड्रग्स का सेवन करने के बावजूद संजू दर्शकों को अखरता नहीं है। संजू अपने मित्र की गर्ल फ्रेंड से हमबिस्तर हो जाता है फिर भी दर्शकों को यह सब मजाकिया लगता है। संजू द्वारा तीन सौ से ज्यादा महिलाओं से संबंध की स्वीकारोक्ति पर भी थियेटर में हैरत नहीं होती उल्टे हंसी के ठहाके गूंजते हैं। एेसा इसलिए है क्योंकि हकीकत के साथ भावनाओं का घालमेल इस कदर किया है कि वो संजू नफरत का पात्र नहीं बनने नहीं देता। वैसे फिल्म देखने वालों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हो सकती है, होगी भी। संजय दत्त के समर्थकों के लिए यह फिल्म किसी धार्मिक ग्रंथ से कम नहीं है तो तटस्थ दर्शकों के लिए यह संजय दत्त के महिमामंडन से ज्यादा कुछ नहीं है। फिल्म को आप केवल मनोरंजन के दृष्टिकोण से देखेंगे तो आपका थियेटर जाना सफल है लेकिन अगर आप इसको संजय दत्त की रियल कहानी मानकर देखेंगे तो फिर सौ सवाल भी खड़े होंगे। यूं ही समझ लीजिए इस फिल्म को दिल से देखेंगे तो आपका भावनाओं के समन्दर में डूबना तय है और दिमाग से देखेंगे तो लगेगा कि फिल्म में काफी कुछ बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया है तथा काफी कुछ छूट भी गया है। इस तरह का विरोधाभास यकीनन दिमाग से देखने वालों को अखरेगा। चूंकि मैं खुद दिल की सुनने वाला हूं और स्वभाव से बेहद भावुक भी, लिहाजा फिल्म के इमोशनल सीन्स ने मेरी भी आंखें नम की, वह भी तीन चार बार। पहली बार तब जब बीमार मां नरगिस बेटे संजू के सिर पर हाथ फेरती है, उसे दुलारती है। मां का यह निश्छल प्रेम देखकर आंखों से आंसू बरबस बह निकले। दूसरी बार तब जब पिता सुनील दत्त की मौत के बाद संजू धन्यवाद पत्र पढ़ता है और तीसरी बार उस वक्त आंसू आए जब संजू दोस्ती पर अपनी बात कहते-कहते खुद रोने लगता है। पाश्र्व में बचता गीत तेरे जैसा यार कहां, कहां एेसा याराना तो दोस्ती के रिश्ते को और प्रगाढ़ बना देता है।
भावना व कल्पना के तड़के के बीच इस फिल्म के माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया गया है कि संजू आतंकवादी नहीं था, जैसा कि उसको प्रचारित किया गया। उसको जो सजा मिली तो वह केवल गैरकानूनी रूप से हथियार रखने के मामले में मिली। वरना उसने और कोई गुनाह नहीं किया। इस फिल्म में यह बताने का भी भरपूर प्रयास किया गया है कि मीडिया ने संजय दत्त को आतंकवादी बनाया लेकिन जब कोर्ट ने उसको इस मामले से बरी किया तो मीडिया ने आतंकवादी न मानने की बात को हैडिंग बनाने के बजाय सजा को हाइलाइट किया,जबकि सजा हथियार रखने के मामले में मिली थी। फिल्म के एक सीन में संजय दत्त के खिलाफ मीडिया रिपोर्टों से परेशान सुनील दत्त अखबार के दफ्तर भी जाते हैं तथा संपादक को प्रश्न खड़े वाली तथा अपुष्ट खबरें देने की बजाय कन्फर्म व पुष्ट खबर छापने की नसीहत देते हैं। संजय दत्त भी जेल में मीडिया पर खूब गरियाते हैं और सवाल खड़ा करते हैं। यहां तक कि एक बार तो वो अखबार को ही ड्रग्स की संज्ञा तक दे डालते हैं। बहरहाल, अगर आप मनोरंजन के दृष्टिकोण के साथ दिल से फिल्म देखने जा रहे हैं तो यह आपको यकीनन पसंद आएगी लेकिन आप इसे संजय दत्त की जीवनी के रूप में देखने जाएंगे तो हो सकता है आपको यह फिल्म काफी अतिश्योक्ति पूर्ण तो लगे ही काफी छूटा हुआ भी महसूस हो। फिल्म में कई द्विअर्थी संवाद मर्यादा को लांघते प्रतीत होते हैं, जो बच्चों के सामने आपको शर्मसार भी कर सकते हैं। लब्बोलुआब यह है कि यह कि यह संजय दत का एक तरह से सफाईनामा है। जो यह कहने का प्रयास करता है कि...
वक्त ने बुरा बना दिया वरना आदमी बुरा नहीं होता।
कुछ मजबूरियां रही होंगी वरना आदमी बेवफा नहीं होता।

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