Sunday, November 27, 2011

मैं और मेरी तन्हाई.....4


छब्बीस नवम्बर
राहत में है दिल, मौसम जुदाई का गुजार के,
आने ही वाले हैं फिर से दिन अब बहार के।
खुशी मनाओ, झूमो, नाचो, गाओ जोर से,
कट गए हैं देखो 'निर्मल', दिन सभी इंतजार के।

सत्ताईस नवम्बर
मायके पहुंच गई तुम 'निर्मल', छोड़ आज ससुराल,
उस घर से इस घर आने में देखो, बदल गई है चाल।
तुम सब से थी रौनक जहां, वहां आज उदासी छाई,
बच्चों के बिन पूछे कौन अब, दादा-दादी के हाल।

अठाईस नवम्बर
दोनों में है खुलापन खूब, नहीं है कोई राज,
पर तुम बिन सूना है, इस दिल का हर साज।
पता नहीं क्यों मूड मेरा, कर ना रहा शायरी,
सूझ नहीं रहा मुझे 'निर्मल',  लिखूं तुझे क्या आज।

उनतीस नवम्बर
तन्हाई की सब बातें देखो, अब पुरानी हो जाएगी,
दिन कटेंगे मस्ती में, हर शाम सुहानी हो जाएगी।
क्या खूब नजारा होगा, दो दिन के बाद 'निर्मल',
अपने मिलन की जब, एक नई कहानी बन जाएगी।

तीस नवम्बर
बातों-बातों में गुजरे, देखो दिन तन्हाई के,
यादों में खो जाएंगे, किस्से सभी जुदाई के।
अपने मिलन की खुशियों में तो निर्मल,
दिल झूम झूम के गाएगा, गीत अब पुरवाई के।


24 नवम्बर को  धर्मपत्नी ने भी  काउंटर मार दिया और मुझे लिखा कि....
अपना ही अंदाज लिए हम चले जमाने में,
अपने को बांध लिया पैमाने में
कट रही जिंदगी, हंसने-रो जाने में,
सुख-दुख बांट लिया हमने जाने-अनजाने में।

इसके जवाब में मैंने उसे लिखा....

गमों की बात ना करो फसाने में,
मस्त रहने के भी हैं रास्ते जमाने में।
हंसने से ही तो संवरती है जिंदगी 'निर्मल'
आजाद पंछी बनो, ना बांधों खुद को पैमाने में।

26 नवम्बर को धर्मपत्नी को भेजा गया मैसेज मैंने फेसबुक पर लगाया तो  पत्रकार साथी कुंअर अंकुर ने उस पर कमेंट किया कि...
दूर रहने से कोई दूर नहीं हुआ करते हैं,
दूर तो वो रहते हैं जो मजबूर हुआ करते हैं।

इसके जवाब में मैंने लिखा कि....

यह सच है जो मजबूर है, वो नजरों से दूर है,
जालिम जमाने का मगर यही तो दस्तूर है।
यह दुनिया बहुत छोटी है कुंअर साहब लेकिन
यहां फासले दिलों के नहीं, जगहों के जरूर है।

क्रमशः........

मैं और मेरी तन्हाई-3

अठारह नवम्बर
दिलासाओं के सहारे आजकल बहल रहा यह दिल,
इंतजार में तो एक पल गुजारना भी है मुश्किल।
पर किसी ने सच ही तो कहा है 'निर्मल'
हौसला रखने वालों को ही तो मिलती है मंजिल।

उन्नीस नवम्बर
ज्यादा बीत गए, दिन कम रहे अब शेष,
मिलन का वो दिन, होगा कितना विशेष।
सोच-सोच के मन में मेरे फूट रहे हैं लड्‌डू,
तन्हाई के दिन छोड़ जाएंगे अब अपने अवशेष।

बीस नवम्बर
मिलने को दिल अब हो चहा है बेकरार,
पर दस दिन बाद ही आएगा इसको करार।
क्या खूबसूरत वो दिन होगा 'निर्मल' जब
आंखों से आंखों की बातें होंगी हजार।

इक्कीस नवम्बर
कभी तो आंखों में कोई सपना आता ही होगा,
कभी तो सपने में कोई अपना आता ही होगा।
माना थक कर सौ जाती हो तुम अक्सर 'निर्मल',
पर सांसों को मेरा नाम जपना आता ही होगा।

बाइस नवम्बर
सपनों की बात, उम्मीदों से संवरती है,
जैसे काली रात, चांदनी से निखरती है।
गुजर जाता है दिन तो जैसे-तैसे 'निर्मल'
पर तन्हाई की रात मुश्किल से गुजरती है।

तेईस नवम्बर
मिलन की रात बेहद रंगीन होती है,
पर यादों की बारात भी हसीन होती है।
बिन तुम्हारे इस सर्द मौसम में 'निर्मल'
प्यार की बात भी कितनी संगीन होती है।

चौबीस नवम्बर
दुनिया की महफिल में, क्या अपने क्या बेगाने,
सब रिश्तों के किरदार जो हमको हैं निभाने।
दो दिन की जिंदगी में लगता है प्यार थोड़ा,
गाओ खुशी के नगमे 'निर्मल' देखो सपने सुहाने।

पच्चीस नवम्बर
मिलने को दिल जब बेकरार होता है,
तब लम्हा प्यार का यादगार होता है।
गिले शिकवे करना है फितरत है सभी की,
कटे प्यार से 'निर्मल', सफर वो शानदार होता है।

क्रमशः........

मैं और मेरी तन्हाई...2

दस नवम्बर
दिल में मोहब्बत लेकिन दिमाग में तनाव है,
दोनों का मुझसे आजकल अजीब सा जुड़ाव है।
तालमेल बैठाने की तो आदत सी हो गई है 'निर्मल'
क्योंकि मुझे तुम दोनों से ही गहरा लगाव है।

ग्यारह नवम्बर
बड़ी मुश्किल से कटते हैं दिन इंतजार के,
रह-रह के याद आते हैं लम्हे वो प्यार के।
गिन-गिन के कट रहे हैं दिन जुदाई के,
मेरे नैना भी प्यासे हैं तुम्हारे दीदार के।

बारह नवम्बर
काम की फिक्र में आई ना तेरी याद,
इसलिए तो देरी से कर रहा फरियाद। 
दिवस दस बीते, बाकी हैं अब बीस,
फिर मेरी तन्हाई भी हो जाएगी आबाद।

तेरह नवम्बर
ना रहो उदास ना उदास करो मन को,
रो-रोकर ना कमजोर किया करो तन को।
खुशियों की बारात जल्द लौटेगी 'निर्मल'
हंसी की खिलखिलाहठ से महकाया करो आंगन को।

चौदह नवम्बर
करो सेवा बड़ों की, भले हो कोई त्रस्त,
कोई बोले कुछ करे, तुम रहो हमेशा मस्त।
जैसे बीते आधे दिन बाकी भी गुजर जाएंगे,
जीतो दन सभी का, मत करो हौसले पस्त।

पन्द्रह नवम्बर
छोटी बात पर ही देखो मचा है यह बवाल,
कैसे बताऊं तुमको 'निर्मल' कैसा है मेरा हाल।
पता नहीं क्या होगा आगे, रस्ता भी मालूम नहीं,
काम के बोझ और तन्हाई ने कर दिया बदहाल।

सोलह नवम्बर
मिली खुशी अपार मुझे, दूर हुआ तनाव,
प्रबंधन की नजरों में बढ़ा गया मेरा भाव।
सोच-सोचकर जिसको था, मन मेरा व्याकुल,
उसी काम के प्रति दिखा उनका गहरा लगाव।

सत्रह नवम्बर
यह जन्म-जन्म का नाता है,
कोई किस्मत वाल ही पाता है।
तुम जैसा साथी पाकर तो,
दिल प्यार के नगमे के गाता है।




क्रमशः........

मैं और मेरी तन्हाई....1

दो नवम्बर
तुम बिन यह रात अधूरी है,
नहीं हो दिल से दूर फिर भी दूरी है।
नहीं रह सकते हम जुदा होकर,
पर क्या करूं 'निर्मल' मजबूरी है।

तीन नवम्बर
मैं हूं और जालिम यह तन्हाई है,
होगा मिलन पर अभी तो जुदाई है।
नहीं हो दिल से कभी दूर लेकिन
इस बार याद कुछ ज्यादा आई है।

चार नवम्बर
कभी-कभी जुदाई में भी बढ़ता है प्यार,
सजा ही नहीं मजा भी देता है इंतजार।
दो दिन बीते बाकी भी यूं ही गुजर जाएंगे,
सुख-दुख ही तो हैं 'निर्मल' जीवन के आधार।

पांच नवम्बर
बिन पीए चढ़े वो सुरुर तुम हो,
हमदम मेरी आंखों का नूर तुम हो।
हर पल महसूस करता हूं पांस अपने,
आजकल दिल के करीब मगर नजरों से दूर तुम हो।

छह नवम्बर
जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रही,
तुम जब से हमसफर बनकर आई हो।
अकेले ही कट रही थी उम्र बेमजा,
तुम ही हो जो बहार बनकर छाई हो।

सात नवम्बर
यूं ही कट जाएगा यह यादों का सफर,
मिलेगी मंजिल चलते चलो इसी डगर।
बातें तो फोन रोज हो रही हैं आजकल,
चैन तब आएगा जब तुमको देखेगी नजर।

आठ नवम्बर
बच्चों को मत डांटा करो, यह तो हैं नादान,
माना तुमको करते हैं, बात-बात पर परेशान।
जीतो दिल सभी का बने अलग पहचान,
हंसते-हंसते हो जाएगी, हर मुश्किल आसान।

नौ नवम्बर
ख्याबों में तुम, विचारों में भी तुम ही हो,
नजर में तुम नजारों में भी तुम ही हो।
आंखों में तुम, इशारों में भी तुम ही हो,
एक दो ही नहीं, हजारों में भी तुम ही हो।


क्रमशः........

फिर जिंदा हुआ शौक...


कॉलेज लाइफ में मुझे शेरो-शायरी का शौक खूब रहा है। हालत यह थी कि बाहर कहीं पर भी जाता तो रास्ते में पढ़ने के लिए बुक स्टॉल से शेरो-शायरी की किताबें ही खरीदता। इसके अलावा समाचार-पत्रों में प्रकाशित गजलों एवं रुबाइयों की कतरन काट कर सहेज कर रख लेता। इन्हीं कतरनों को याद कर अपने सहपाठियों को सुना दिया करता और बदले में उनकी वाहवाही बटोर लेता। मेरे इसी शौक के चलते मुझे कॉलेज में सभी शायर कहने लगे थे। बीए फाइनल ईयर के छात्रों को जब विदाई दी जा रही थी तो प्रत्येक छात्र को एक टाइटल दिया गया था। मुझे भी कभी-कभी फिल्म के चर्चित गीत, मैं पल दो पल का शायर हूं... का टाइटल दिया गया। कॉलेज छूटने के साथ ही शेरो-शायरी का शौक धीरे-धीरे कम होता है। क्योंकि डिग्री हासिल करने के बाद नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया। करीब तीन साल मशक्कत करने के बाद भी जब कहीं सफलता नहीं मिली तो पत्रकारिता में भाग्य आजमाया। किस्मत से पत्रकारिता में प्रवेश की परीक्षा में पास हो गया। इतना ही नहीं परीक्षा के बाद लिए गए दोनों साक्षात्कार में सफलता हाथ लग गई। इसके बाद मेरा पत्रकारिता के क्षेत्र में आना तय हो गया। नया-नया काम था, इसलिए सीखने का जुनून कुछ ज्यादा ही था। रोजाना 15-16 घंटे तो काम करता ही। कभी-कभी तो 18-18, 20-20 घंटे भी काम किया। इस प्रकार पत्रकारिता में आने के बाद शेरो-शायरी का शौक लगभग छूट गया। करीब पांच साल बाद होली पर पत्रकाार साथियों को टाइटल देने का ख्याल आया, फिर क्या था, सभी पर तुकबंदी कर चार-चार लाइन लिख डाली। इसके बाद तो यह एक तरह की परम्परा सी बन गई। हर होली पर यही कहानी दोहराई जाने लगी। बाद में स्थानांतरण दूसरी जगह होने के कारण इस काम पर फिर विराम लग गया।
अभी दीपावली पर पत्नी एवं बच्चों के साथ गांव गया था। मां एवं पापा ने बताया कि आंखों से धुंधला दिखाई देता है। इस पर मैंने दोनों का नेत्र विशेषज्ञ के यहां चैकअप कराया। चिकित्सक ने बताया कि दोनों की आंखों का ऑपरेशन करना जरूरी है। अब धर्मसंकट खड़ा हो गया क्या किया जाए। आखिरकार धर्मपत्नी ने हिम्मत करके कहा कि वह एक माह के लिए गांव ही रुक जाएगी। मैंने भी उसके निर्णय पर हां भरकर मोहर लगा दी। अब मामला बच्चों की पढ़ाई पर अटका था कि आखिर एक माह तक बच्चे क्या करेंगे। इस पर धर्मपत्नी ने ही सुझाव दिया कि बच्चे अभी छोटी कक्षाओं में हैं, एक माह में कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा। मैं धर्मपत्नी की बात मानकर ड्‌यूटी पर अकेला ही चला आया। एक नवम्बर को घर से रवाना हुआ तथा दो नवम्बर को गंतव्य पर पहुंच गया। पहले ही दिन मैंने धर्मपत्नी को तुकबंदी करके चार लाइन की रुबाई लिखी। दूसरे दिन उसने रुबाई की प्रशंसा कर दी। फिर क्या था, बड़ाई सुनकर अंदर का शायर फिर जाग उठा और निर्णय किया कि हर रात को एक रुबाई बनाकर मोबाइल पर कम्पोज कर धर्मपत्नी को मैसेज करूंगा। यह सिलसिला चल पड़ा। दिन-प्रतिदिन तुकबंदी में सुधार आने लगा। पति-पत्नी के बीच बातें बेहद गोपनीय होती हैं लेकिन मैं इतनी अंतरंगता से भी बातें नहीं करता कि किसी को बताने में संकोच हो। तभी तो धर्मपत्नी को लिखी गई वे तमाम रुबाइयां मैं ब्लॉग के माध्यम से आप सभी से साझा कर रहा हूं। मेरा यह प्रयास आपको कैसा लगा, मुझे आपके कीमती सुझावों एवं प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।  हालांकि मेरा गांव पहुंचना दो दिसम्बर को प्रस्तावित है। मैं यहां से एक दिसम्बर को रवाना होऊंगा। मतलब साफ है दो नवम्बर से शुरू हुए सिलसिले पर एक दिसम्बर को विराम लग जाएगा, हालांकि धर्मपत्नी ने यह काम जारी रखने का सुझाव दिया है। खैर, अब तक लिखी गई सारी रुबाइयां सार्वजनिक कर रहा हूं।

क्रमश.........

Friday, November 25, 2011

स्टेशन ही नहीं रेल में भी हो कार्रवाई

टिप्पणी
अधिकारियों के सामने कर्मचारियों का काम करने का तरीका व रवैया कैसे बदलता है, इसका ताजा उदाहरण बिलासपुर रेलवे स्टेशन है। बीते तीन दिन में यहां दो घटनाएं हुईं हैं, जिनको आरपीएफ के जवानों ने रेलवे अधिकारियों की मौजूदगी में अंजाम दिया। मंगलवार को रेलवे स्टेशन पर दूध बिखेरा गया, वहीं गुरुवार को लोकल ट्रेन में गुटखा बेचने के आरोप में एक युवक को पिटाई कर दी गई। दोनों ही  घटनाओं के बाद रेलवे का स्पष्टीकरण भी आया। ऐसे में सवाल उठता है कि जब कार्रवाई वैध है तो फिर सफाई देने की जरूरत ही क्या है। दरअसल, जिन कर्मचारियों ने 'दबंगई' दिखाते हुए इन कार्रवाइयों को अंजाम दिया वे अधिकारियों को दिखाना चाह रहे थे कि वाकई वे काम करते हैं और जरा सी गफलत भी उनको बर्दाश्त नहीं होती। वे अपना काम ईमानदारी से साथ अंजाम देते हैं, जबकि हकीकत इससे विपरीत है। अगर आरपीएफ के जवान तत्परता एवं ईमानदारी से काम करते तो न तो इस प्रकार के निर्णय लेने की जरूरत पड़ती और ना ही व्यवस्था में खलल डालने वाली घटनाएं दरपेश आती। युवक से मारपीट के बाद आरपीएफ थाना प्रभारी की ओर से दिया गया बयान ही सारी कहानी बयां कर देता है। आरपीएफ थाना प्रभारी को कौन बताए कि प्रतिबंधित चीजें विक्रय करना न केवल रेलवे परिसर बल्कि रेल के डिब्बों में  भी प्रतिबंधित है। बिलासपुर से किसी भी दिशा में जाने वाली ट्रेन में बैठ जाएं आपको डिब्बों में गुटखे बेचने वाले मिल ही जाएंगे। भिखारियों एवं खाद्य सामग्री बेचने वालों की तो बात ही छोड़िए। एक के बाद एक की लाइन लगी रहती है। बेचारे यात्रियों के इनकी आवाज सुन-सुनकर कान पक जाते हैं।
क्या यह सब वैध है? लेकिन आरपीएफ के जवान उनको पकड़ना तो दूर रोकते या टोकते भी नहीं है। डिब्बों के अंदर ऊंची आवाज लगाकर गुटखा बेचना या भीख मांगना क्या व्यवस्था में व्यवधान नहीं है? लेकिन इनकी आवाज आरपीएफ के जवानों को सुनाई नहीं देती है। सुनता सब है, कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं होता। वे केवल अधिकारियों के सामने ही इस प्रकार की कार्रवाई कर यह साबित करना चाहते हैं कि वास्तव में वे अपनी ड्‌यूटी के प्रति सजग हैं। आरोप तो यहां तक लगते हैं कि यह काम आरपीएफ जवानों के संरक्षण में ही होता है। सुविधा शुल्क लेकर वे अपनी आंखें मूंद लेते हैं। 
बहरहाल, किसी का दूध बिखरने से या गुटखे बेचने से रोकने से व्यवस्था नहीं सुधरने वाली। जब तक आरपीएफ के जवान मुस्तैदी एवं ईमानदारी के साथ अपनी ड्‌यूटी नहीं करेंगे तब तक यात्रियों का रेलवे में आरामदायक एवं सुरक्षित सफर का सपना  बेमानी है। आजकल तो रेल में रात को सोते हुए यात्रियों का सामान भी गायब होने लगा है। आरपीएफ के जवानों की कार्यप्रणाली जानने के लिए अचानक किसी ट्रेन का निरीक्षण किया जा सकता है। दिन या रात में किन्ही दो स्टेशनों के बीच यात्रा भी की जा सकती है। सच सामने आते देर नहीं लगेगी। उम्मीद की जानी चाहिए रेलवे अधिकारी इस दिशा में कोई कदम उठाएंगे ताकि यात्री आरामदायक सफर निश्चिंत होकर कर सकें।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 25 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Friday, November 18, 2011

सड़क निर्माण में गुणवत्ता का हो ख्याल

टिप्पणी

माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद शहर में बन रही सड़कों में गुणवत्ता की अनदेखी की जा रही है। यह बात निगम के अधिकारी ही कह रहे हैं। इतना ही नहीं स्वयं महापौर भी गुणवत्ता की बात को लेकर विरोध जता चुकी हैं। इन सबके बावजूद सड़कें बनने का काम बदस्तूर जारी है। दिन तो दिन रात में भी सड़कें बन रही हैं। आलम देखिए कि निगम की ओर से सड़क बनाने में प्रयुक्त सामग्री का सैम्पल जांच के लिए भिजवाया गया है। निगम अधिकारियों का कहना है कि अगर जांच रिपोर्ट में अगर गड़बडी पाई गई तो संबंधित कंपनी को नोटिस जारी किया जाएगा। मतलब साफ है जब तक रिपोर्ट नहीं आती तब तक कंपनी सड़क बनाने का काम निर्बाध गति से जारी रखेगी। ऐसे में कई तरह के सवाल उठना लाजिमी है। मसलन, अगर जांच रिपोर्ट में गड़बड़ी पाई गई तो सैंपल लेने के बाद से लेकर जांच रिपोर्ट आने के बीच में जिन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है, उनका क्या होगा। गुणवत्ता को लेकर जब विरोध हो रहा है तो क्यों न पहले ही गुणवत्ता के मापदण्ड तय कर दिए जाते। आखिरकार सड़क निर्माण के लिए कोई तो पैमाना तो तय होगा ही। सड़कें निर्धारित पैमाने के अनुसार बन रही हैं या नहीं, क्या यह देखने की फुर्सत भी निगम अधिकारियों को नहीं है। जांच रिपोर्ट आने के इंतजार में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना  एक तरह से छूट देने के समान ही है।
इस मामले का दूसरा पहलू यह भी है कि निगम के ऊपर निर्धारित समय सीमा में सड़कें पूरी करवाने का न्यायालय का डंडा है, लिहाजा उसका भी एकसूत्री कार्यक्रम आनन-फानन में सड़कें तैयार करवाना ही है। निगम की जल्दबाजी को देखते हुए सड़कें संभवतः निर्धारित समय-सीमा बन जाएंगी लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि वे कितना चलेंगी।
बहरहाल, सड़कें आमजन के लिए ही हैं। अगर उनका निर्माण तय मापदण्डों से नहीं हो रहा है तो लोगों को विरोध करना चाहिए। जनप्रतिनिधियों को भी अपने क्षेत्रों में बनने वाली सड़कों पर नजर रखनी चाहिए। सिर्फ न्यायालय के आदेश के बाद आनन-फानन में सडक़ें बनवानें से आमजन को राहत मिलने वाली नहीं है। यह एक तरह से रस्म अदायगी ही है। ऐसा न हो कि जब तक सभी सड़कें बनकर तैयार हों, तब तब उनके टूटने का दौर भी शुरू हो जाए। सड़कें जल्दी बने यह सब चाहते हैं लेकिन गुणवत्ता की कीमत पर तो कतई नहीं है।


साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

...तो यह हालात नहीं होते

टिप्पणी

माननीय हाईकोर्ट ने जनहित से जुड़े एक मामले में गुरुवार को पुलिस अधीक्षक एवं जिला परिवहन अधिकारी को फटकार लगाई तथा कहा कि उनके विभाग का ध्यान जनहित पर न होकर सिर्फ वसूली पर है। दोनों अधिकारियों को शहर की बदहाल यातायात व्यवस्था के मामले में हाईकोर्ट ने तलब किया गया था। देखा जाए तो लोकसेवकों को फटकार का यह नया मामला नहीं है। इससे पहले बिलासपुर की बदहाल सड़कों पर भी न्यायालय ने कड़ी आपत्ति जताई थी। उसके बाद निगम अधिकारियों को शहर में सड़कों को दुरुस्त करने की समय सीमा तय कर  शपथ पत्र देना पड़ा। बदहाल यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के मामले में भी हाईकोर्ट ने समय सीमा बताने एवं शपथ पत्र पेश करने के आदेश दिए हैं।
उक्त दोनों मामलों से इतना तो तय है कि लोकसेवक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं कर रहे हैं। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि जो काम इनको करना चाहिए थे, समय रहते उन पर ध्यान नहीं दिया गया। मजबूरन लोगों को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। इन सबके पीछे जनप्रतिनिधियों की भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। शहर में टूटी सड़कों से संबंधित मामला ही देख लीजिए। 'बयानवीर' जनप्रतिनिधि दनादन आश्वासन का लॉलीपॉप ही देते रहे, लेकिन राहत का रास्ता न्यायालय की शरण में जाने के बाद ही नजर आया। इसी तरह शहर की यातायात व्यवस्था को बदहाल करने वाले कारणों में जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं। उनके किसी 'अपने' या  'नजदीकी' ने बेजा कब्जा कर रास्ता रोकने या नियम विरुद्ध कोई काम किया तो उनको संरक्षण देने का काम भी यही लोग करते हैं। अंततः लोकसेवकों एवं जनप्रतिनिधियों के इस गठजोड़ की परणिति बदहाल यातायात व्यवस्था व अधूरे कामों के रूप में ही सामने आती है।
बहरहाल 'बेलगाम' लोकसेवक एवं 'बयानवीर' जनप्रतिनिधि अपना काम ईमानदारी से करते, अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसे हालात ही नहीं बनते। आमजन की समस्याओं से मुंह मोड़ने वाले इन दोनों वर्गों से पूछा जाना चाहिए कि वे किस मुंह से खुद को जनप्रतिनिधि एवं लोकसेवक कहलाना पसंद करते हैं। आलम देखिए जनप्रतिनिधि हैं, लेकिन प्रतिनिधिनित्व किसका और किसके लिए कर रहे हैं, किसी से कुछ छिपा नहीं है। इसी तरह  लोकसेवक हैं  लेकिन सेवक किसके हैं और किसकी सेवा में जुटे हैं, सब जगजाहिर है।  विडम्बना देखिए दोनों वर्गों के पद के आगे जन/लोक जुड़ा है। इसके बावजूद दोनों वर्ग जन की बजाय आपस में एक दूसरे के इर्द-गिर्द ही दिखाई देते हैं।  आजादी के छह दशक बाद भी आमजन को मूलभूत सुविधाएं मयस्सर नहीं होना बेहद शर्मनाक है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18  नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Saturday, November 12, 2011

काश! आप बिलासपुर घूम लेते...

खुली पाती

आदरणीय, मुख्यमंत्री जी,
करीब छह माह के लम्बे समय के बाद आपका बिलासपुर आगमन का कार्यक्रम बना है। आप तखतपुर के अलावा बिलासपुर में भी दो कार्यक्रमों में भाग लेंगे। इस दौरान करीब 35 मिनट आपका छत्तीगसढ़ भवन में रुकना भी प्रस्तावित है। कितना अच्छा होता आप इस अवधि में शहर का भ्रमण कर लेते। इस बहाने आप 'बीमार' शहर की नब्ज भी पहचान लेते। क्योंकि जिस रास्ते से आप गुजरेंगे तथा जो आपको दिखाया जाएगा, आप उसी को सच मान लेंगे, जबकि हकीकत इससे अलग है। आपकी राह में आने वाली रुकावटें मसलन, सडक़ें चकाचक हो रही हैं। धूल हटा कर सफाई की जा रही है। गड्‌ढे ठीक किए जा रहे हैं। आवारा मवेशियों का तो कहीं नामोनिशान तक दिखाई नहीं दे रहा है। इनके अलावा उन तमाम समस्याओं का 'निराकरण' भी युद्धस्तर पर हो रहा है, जो आपकी राह में परेशानी पैदा कर सकती हैं। बिलासपुर में ऐसा अक्सर होता आया है। विशिष्ट लोगों की आवभगत कैसे होती है तथा सड़कों की दशा 'चमत्कारिक रूप से' रातोरात कैसे सुधरती है, इस बात का साक्षी यह शहर रहा है। आमजन की तो बिसात ही क्या? वह बेचारा रोता रहे, बिलखता रहे या आंदोलन करे, गांधीगिरी दिखाए, लेकिन उसकी पीड़ा पर गौर करना न तो आपके नुमाइंदों की फितरत में है और ना ही उनके पास फुर्सत है। पता नहीं किस काम में व्यस्त हैं। आपके मंत्री और अफसर तो माशाअल्लाह इतना बढ़-चढ़कर बोलते हैं कि उनको 'बयानवीर' की उपाधि से नवाजा जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। शहर में सड़कों की दशा सुधारने के लिए क्या-क्या बयान नहीं दिए। ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा। लेकिन हुआ कुछ नहीं। यह तो माननीय हाईकोर्ट की फटकार काम आई वरना आपके 'बयानवीर' तो यूं ही सब्जबाग दिखाते रहते।
सबसे हैरत की बात तो यह है कि आप जिस ओवरब्रिज का लोकार्पण करने आ रहे हैं, वह भी अपने आप में ऐतिहासिक है। एक दशक से ज्यादा समय से इस ब्रिज के बनने एवं बिगड़ने की कहानी चल रही है। हालात यह हैं कि ब्रिज अभी भी पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाया है। आनन-फानन में कमियों को रंगरोगन करके छिपाया जा रहा है। अगर इतनी जल्दी पहले दिखाई जाती तो लोगों को राहत मिलने में देर नहीं होती। जब दस साल से ज्यादा समय इसको बनने में लग गए  तो फिर इसे पूरी तरह से पूर्ण करवाकर ही लोकार्पण करवाना चाहिए था। इस प्रकार के कामों में भी प्रमुख भूमिका आपके 'बयानवीरों' की ही है। वैसे भी इस प्रकार कामों को पूर्ण करवाने से पहले उनका लोकार्पण करवाने या बीच में अधूरा छोड़ने की बिलासपुर में परंपरा रही है। खैर, सभी कार्यक्रमों में शिरकत करने के बाद जहां से आपका हेलीकॉप्टर रायपुर के लिए उड़ेगा, वह वही बस स्टैण्ड है, जिसका लोकार्पण आप इसी साल जनवरी माह  में कर चुके हैं। हाइटेक सुविधाओं से सुसज्जित यह बस स्टैण्ड भी शुरू होने के इंतजार में बदहाल हो रहा है। यह तो आपको भी पता ही है कि आधी-अधूरी तैयारियों  तथा  तमाम औपचारिकताओं को पूर्ण किए बिना लोकार्पित किए जाने वाले काम सस्ती लोकप्रियता हासिल करने से ज्यादा कुछ भी नहीं। इससे आमजन आहत ही ज्यादा होता है।
आप निजाम के मुखिया हैं। इस कारण आपकी व्यस्तता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है लेकिन अवाम की खैर-खबर लेना भी आपकी नैतिक जिम्मेदारी में आता है। आपका दौरा इतना भी थकाऊ या उबाऊ नहीं है कि बदहाल शहर की हकीकत जानने के लिए आपके पास समय ही न हो। चुनावों के समय भी तो आप दिन-रात एक कर देते हो, नहाने-धोने  तक की सुध नहीं रहती। ऐसे में इस बात की गुंजाइश तो लेशमात्र भी नहीं है कि आप इस प्रकार के कामों के अभ्यस्त नहीं हैं।  यकीन मानिए, आपके छोटे से फैसले से तथा केवल आधा एक-घंटा खर्च करने से इस शहर की तस्वीर बदल सकती है। लगे हाथ आपको पता भी चल जाएगा कि बेमिसाल एवं बेनजीर बिलासपुर को बदहाली के कगार पर पहुंचाने वाले कारण कौन से हैं। 'दूध का दूध' और 'पानी का पानी' होते देर नहीं लगेगी। पानी बहुत गुजर चुका है।आम आदमी हताश एवं निराश है। आपके  'बयानवीरों'  से उसने उम्मीद करना लगभग छोड़ दिया है। आप राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ डाक्टर भी हैं लिहाजा, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर लाइलाज मर्ज की ओर बढ़ रहे शहर की सुध लीजिए। यकीन मानिए इलाज में अब जरा सी देरी या लापरवाही किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। अगर आपने 'आज' बिलासपुर से मुंह फेरा तो त्रस्त लोग 'कल' आपसे भी मुंह मोड़ सकते हैं।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 12 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, November 10, 2011

औपचारिकता नहीं, कार्रवाई की जरूरत

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बेशक यातायात नियमों की पालना करवाना  यातायात पुलिस के रोजमर्रा के कामों में शामिल है, लेकिन बिलासपुर में यातायात पुलिस का अभियान कब शुरू होता है तथा कब खत्म होता है,  पता ही नहीं चलता। तभी तो यातायात नियमों की जितनी धज्जियां बिलासपुर में उड़ती दिखाई देती हैं, शायद की कहीं दूसरी जगह दिखाई दे। शहर के किसी भी हिस्से में चले जाएं, सभी जगह कमोबेश एक जैसे ही हालात मिलेंगे। जो जैसे जी में आया वाहन चला रहा है लेकिन किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है। मतलब साफ है किसी में भी कानून का भय नहीं है। हो भी कैसे? यातायात पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करने या यातायात नियमों की पालना करवाने की बजाय जबरिया वसूली करने के आरोप ज्यादा लगते हैं। लगातार होने वाली बड़ी दुर्घटनाओं से इन आरोपों को बल भी मिलता है। बुधवार सुबह हुआ हादसा भी इसी का नतीजा है। प्रतिबंधित इलाकों में भारी वाहनों का प्रवेश अब भी बिना किसी रोक टोक के बदस्तूर हो रहा है, जबकि पिछले माह 21 अक्टूबर को हुए सडक़ हादसे के बाद जिला प्रशासन ने सुरक्षा समिति की बैठक ब़ुलाई थी। इस बैठक में  भारी वाहनों के शहर से आवाजाही पर पूर्णतः प्रतिबंधित लगाकर इनको बार्इपास से बाहर निकालने का निर्णय लिया गया था। इस निर्णय की एक दिन भी पालना नहीं हुई। भले ही बचाव के लिए यातायात पुलिस के पास अपनी दलीलें हों, लेकिन शहर में जो कुछ हो रहा है,  वह यातायात पुलिस की उदासीनता का ही नतीजा है।
अगर यातायात पुलिस गंभीर होती तो शहर की सड़कों पर नाबालिग बच्चे बेखौफ दुपहिया दौड़ाते नजर नहीं आते। दुपहिया वाहनों पर तीन-तीन, चार-चार लोग बैठे दिखाई नहीं देते। यह पुलिस की उदासीनता एवं कर्तव्यविमुखता का ही परिणाम है कि वाहन चालक यातायात नियमों का सरेआम मखौल उड़ा रहे हैं। गति पर कोई नियंत्रण नहीं है। हेलमेट अनिवार्य करने की बात तो यातायात पुलिस के लिए दूर की कौड़ी है। यह  सही है कि यातायात नियमों की पालना करवाने से संबंधी अभियान की शुरुआत में जागरुकता विषयक कार्यक्रम करवाए जाते हैं। इसके बाद समझाइश दी जाती है और इन सब के बाद नियमों की कड़ाई से पालना करवाई जाती है। बिलासपुर की यातायात पुलिस  जागरुकता एवं समझाइश का काम तो जैसे-तैसे कर लेती है लेकिन कार्रवाई के नाम पर उसके हाथ हिचकिचा जाते हैं, जबकि मुख्य काम तो कार्रवाई का ही है। कार्रवाई में कड़ाई नहीं होगी तो फिर परिणाम भी आशा के अनुकूल नहीं आएंगे।
 बहरहाल, शहर में कई हादसे हो चुके हैं। इनकी फेहरिस्त लम्बी न हो तथा इन पर प्रभावी नियंत्रण हो, इसके लिए जरूरी है कि यातायात पुलिस अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी के साथ निभाएं। यातायात जागरुकता अभियान बाकायदा सुनियोजित एवं कारगर तरीके से चले। बिना किसी भेदभाव एवं राजनीतिक हस्तक्षेप के सभी दोषियों पर समान रूप से कार्रवाई हो। महज कागजी आंकड़ों को दुरुस्त करने के लिए चलाए जाने वाले अभियानों से किसी प्रकार की राहत की उम्मीद करना बेमानी है। क्योंकि इस प्रकार के कागजी अभियानों में कार्रवाई के नाम पर सिर्फ औपचारिकता ही निभाई जाती है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 10 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।