Thursday, March 29, 2018

इक बंजारा गाए-24

पत्रकार वार्ताओं की हकीकत
श्रीगंगानगर में पत्रकार वार्ताओं का प्रचलन अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इनकी तिथि कभी भी तय हो सकती है। देर रात समाचार पत्रों में फोन या मैसेज के माध्यम से पत्रकार वार्ता की सूचना तक दे जाती है। इतना ही नहीं, इससे बड़ी बात तो यह है कि आजकल पत्रकार वार्ताओं के लिए बाकायदा प्रायोजक मिलने लगे हैं। यह संबंधित पक्ष व पत्रकारों के बीच बिचौलिये की भूमिका निभाते हैं। पत्रकारों को सूचना देने से लेकर कवरेज तक की गारंटी इन बिचौलियों द्वारा कथित रूप से दी जाती है। इस काम में हिसाब-किताब क्या रहता है, यह तो संबंधित पक्ष व प्रायोजक ही जानें लेकिन यह काम आजकल चरम पर है। खास बात यह है कि हर दूसरी या तीसरी पत्रकार वार्ता का प्रायोजक एक ही चेहरा मिलता है। हद तो कल परसों हो गई जबकि एक पुलिस एनकाउंटर में मारे गए एक गैंगस्टर के परिजनों की प्रेस वार्ता तक करवा दी गई। यह बात अलग है कि एनकाउंटर करने वाली पुलिस भी पंजाब की और गैंगस्टर भी पंजाब का। यहां पत्रकार वार्ता करने का सबब समझ ही नहीं आया। पता नहीं पत्रकार वार्ता करवाने वाले प्रायोजक ने गैंगस्टर के परिजनों को क्या सब्जबाग दिखाए।
भावनाओं का तड़का
किसी तरह का काम करवाना हो तो भावनाएं सबसे कारगर माध्यम मानी जाती हैं। जहां भावनाओं का तड़का लग जाता है, वहां कुछ होने की उम्मीद बंध जाती है। कुछ इसी तरह की सोच श्रीगंगानगर में भाजपा के लोगों की है। मुख्यमंत्री के दौरे को लेकर आमजन में जो संदेश प्रचारित किए जा रहे हैं, इनमें भावनाओं को शामिल किया जा रहा है। सोशल मीडिया के माध्यम से जो मैसेज भेजे जा रहे हैं, उनमें एक भावनात्मक अपील है। गुरुवार को मिनी सचिवालय का शिलान्यास कार्यक्रम प्रस्तावित है। इसी संदर्भ में यह मैसेज वायरल किए जा रहे हैं। मैसेज है, जिस प्रकार हमारे संस्कारों में सुबह का भूला शाम को घर आ जाए उसको भूला नहीं कहते। वही काम श्रीगंगानगर की जनता के लिए प्रदेश की मुख्यमंत्री का है। चलो चार साल बाद ही सही, उन्होंने श्रीगंगानगर की जनता को याद तो किया। अब हमें सब भुलाकर एकता का परिचय देते हुए कार्यक्रम में शामिल होना है। अब यह भावनात्मक अपील कितनी कारगर साबित होगी। कितने लोग इस अपील का मानकर कार्यक्रम में आएंगे यह तो कल पता चलेगा। फिलहाल भावनाओं का यह तड़का राजनीतिक गलियारों में जबरदस्त चर्चा का विषय बना हुआ है।
दूरी का सबब
कहते हैं कि चुनाव के समय दूरियां अक्सर नजदीकियों में तब्दील हो जाती हैं। विशेषकर राजनीतिक दल समाचार पत्रों के दफ्तरों व जनता के बीच अपने मुखबिर छोड़कर वास्तविक फीडबैक लेते रहते हैं। ऐसा लंबे समय से हो रहा है लेकिन इस बार इस परंपरागत तरीके में बदलाव देखा जा रहा है। मुख्यमंत्री के श्रीगंगानगर दौरे से पहले जनता की नब्ज भांपने के लिए जो तरीका अपनाया गया, वह तो यही कहता है। फीडबैक लेने में इतनी सावधानी बरती गई कि मीडिया को कानोकान खबर तक न हो। पहले दिन शहर के पार्षदों से जब फीडबैक लिया गया तो मीडिया का प्रवेश वर्जित रखा गया। इसी तरह दूसरे दिन जब किसानों से बात हुई तब भी खबरनवीसों को बाहर भेज दिया गया। मीडिया से इस तरह की दूरी से साफ जाहिर होता है कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा अनुभव रहा है, जिसने इस तरह की दूरी बनाने को मजबूर किया है। शायद राजनीतिक नुमाइंदों को ऐसा लगता होगा कि मीडिया की मौजदूगी में वे सब नहीं कह सकते हैं जो ऑफ द रिकॉर्ड होता है। फिर भी कोई न कोई डर तो है ही जो ऐसा करने को मजबूर कर रहा है।
धर्म का सहारा
राजनीति में धर्म की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। धर्म ने कइयों की डूबती नैया पार लगाई है। वैसे भी जब सियासत में जब सारे तौर तरीकों कारगर नहीं रहते तब धर्म ही ऐसा मसला है जो कुछ सफलता दिला सकता है। कुछ ऐसा ही शहर के एक नेताजी के साथ हो रहा है। लंबे समय से राजनीतिक हाशिये पर चल रहे इन नेताजी की कुछ दिन पहले ही अपने पुराने दल में वापसी हुई है। वापसी तो हो गई लेकिन तात्कालिक रूप से नेताजी ऐसा कोई काम नहीं कर पाए जो जनता की नजरों में उनको छवि को चमका सके। हालांकि उनका मीडिया मैनेजमेंट गजब का है लेकिन वह भी क्या करे जब करने को कुछ हो नहीं। खैर, लंबे समय से किसी मौके की ताक में बैठे नेताजी को राम का सहारा मिल गया। इस बहाने उन्होंने अपना शक्ति प्रदर्शन भी कर लिया। कहने वाले भले ही रामनवमी के परंपरागत कार्यक्रम को हाइजैक करने का आरोप लगाएं लेकिन नेताजी ने अपना काम बखूबी कर लिया। वैसे इन नेताजी के बारे में कहा तो यह भी जाता है कि यह खुद तो नहीं जीत सकते लेकिन जिसके साथ लग जाते हैं, उसकी राह जरूर आसान कर देते हैं। देखने की बात है नेताजी का आशीर्वाद इस बार किसके साथ रहता है और किसकी राह आसान होती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 29 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित 

जर्जर होती पुरखों की शान

पीड़ा
मैंने पड़ दादाजी तो क्या दादाजी को भी नहीं देखा। जब पैदा हुआ उससे चार पांच साल पहले ही दादाजी का निधन हो चुका था। पड़दाजाजी तो उससे पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे। लेकिन पड़दादाजी का नाम व उनकी ख्याति मैंने खूब सुनी है। सूरसिंह नाम था पड़ दादोसा का। उस वक्त अंग्रेजों की फौज में थे। पैसे वाले थे। चांदी के काफी सिक्के थे उनके पास। दादीजी बताती थी कि दिवाली पर पूजन के दौरान एक पूरी परात चांदी के सिक्कों से भर जाती थी। एक सोने का मोटा डोरा भी था जो शादी के समय दूल्हे को पहनाया जाता है। चर्चा तो यहां तक भी सुनी है कि पड़दादाजी की बही में आसपास के कई गांवों के लोगों के नाम लिखे थे, जो उनसे उधार लेते थे। पड़दादाजी के दो पुत्र हुए। बड़े अर्जुन सिंह व छोटे किशनसिंह। दोनों ही पुत्र स्वाभिमानी थे, लिहाजा पिता के विचारों से तालमेल कम ही बैठा। बड़े भाई व मेरे दादोसा अर्जुन सिंह ने जीवन भर खेती की जबकि किशनसिंह डूंडलोद ठिकाने में तहसीलदार थे। बताते हैं कि उन्होंने लोगों को खूब जमीनें बांटी लेकिन खुद के लिए कुछ नहीं रखा। पड़दादाजी ने आज से करीब सौ साल पहले एक हवेली बनाई थी। इस तरह की हवेलियां गांव में गिनी-चुनी ही हैं। इसी हवेली में मेरा जन्म हुआ। लेकिन इसके बाद हम नोहरे में आकर रहने लगे। हवेली का भाइयों में बंटवारा हुआ तो पिताजी के हिस्से में एक चौबारा आया जबकि एक कमरा दादीजी के नाम का रखा गया। चूंकि दादीजी हमारे पास थी, लिहाजा वह कमरा भी एक तरह से हमारे ही हिस्से में आ गया। धीरे-धीरे सभी भाइयों ने अपने-अपने नोहरों में पक्के मकान बना लिए तो हवेली सूनी हो गई। वैसे गांव की अधिकतर हवेलियों का हश्र एेसा ही है। मेरे बचपन की बहुत सी यादें इस हवेली से जुड़ी हैं। गर्मियों की छुट्टियों में हम बच्चे लोग हवेली में खूब खेलते। धमाल मचाते। दरवाजे के गेट खोल देते ताकि हवा लगती रहे। तब गांव में बिजली आने का समय व घंटे निर्धारित थे। तब हवेली एकदम साफ सुथरी और चकाचक थी।
धीरे-धीरे इसकी सारसंभाल कम होती गई। नौकरी के चक्कर में जो गांव से निकला फिर उसने घर की तरफ रुख नहीं किया। हमारे परिवार के अधिकतर लोग बाहर ही बस गए। दादाजी के पांच बेटों में चार का निधन हो चुका है। उन चारों बेटों के लगभग सभी पुत्र बाहर बस चुके हैं। उनके नए घरों पर भी ताला लटका है। देख रेख व बिना आदमियों के हवेली वीरान हो गई। अब यह पशुओं के लिए चारा डालने, आवारा पशु व कुत्तों की शरणगाह बन गई। देखरेख के अभाव में जीर्ण-शीर्ण हो चुकी है। अभी गांव गया तो उसकी दुर्दशा देखकर सच में रोना आ गया। आंखों के सामने पुरखों की शान को जमींदोज होता देख रहा हूं।

इस बदलाव का लाभ किसे?

टिप्पणी
लंबे समय बाद श्रीगंगानगर की कायापलट हो रही है। यह है तो 'क्षणिक', लेकिन एकबारगी तो सुकून देने वाली है। कहीं रास्तों से मलबा हट रहा है तो कहीं कूड़ा-कचरा भी साफ किया जा रहा है। सड़कों पर धूल न दिखे न उड़े, इसके लिए भी पूरी कवायद की जा रही है। कहीं डिवाइडरों पर रंग रोगन हो रहा है तो कहीं प्लास्टर किया जा रहा है। कुछ चौक चौराहों पर भी सजावट की गई है। यहां तक कि बदहाल कई सड़कों के दिन भी बदल गए हैं। लंबे समय से टूटी-फूटी सड़कें यकायक सुधर गई हैं। शहर को साफ दिखाने व सजाने में किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी जा रही है। यह सारी दौड़ धूप इसीलिए हो रही है, क्योंकि आज लंबे समय बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीगंगानगर शहर में आ रही हैं। इस कारण प्रशासनिक अमले ने पूरी ताकत झौंक रखी है। दिन रात एक कर दिया है। पूरा जोर इसी बात पर है मुख्यमंत्री शहर को जैसा देखना चाहती हैं, सब कुछ वैसा ही दिखाई दे। कहीं किसी तरह की कमी नजर न आए। इस तरह की दौड़ धूप अक्सर किसी अधिकारी या बड़े मंत्री के आगमन पर होती रहती है। इस बार ज्यादा इसीलिए है, क्योंकि प्रदेश की मुखिया खुद आ रही हैं, लिहाजा साफ-सफाई व सजावट के तौर तरीकों में भी अंतर साफ देखा जा सकता है। लेकिन यह अस्थायी बदलाव कुछ स्थान विशेष तक ही सीमित है। सारा जोर केवल उन्हीं स्थानों पर है, जहां से मुख्यमंत्री का कारवां गुजरना प्रस्तावित है। जहां-जहां से वो गुजरेंगी, वहां सब कुछ चकाचक किया जा रहा है। इन कामों की गुणवत्ता की दो दिन बाद भले ही खिल्ली उड़े, लेकिन फौरी तौर पर तो यह कारगर ही है, साथ ही काम निकालने का नायाब नुस्खा भी है। 'जंगल में मंगल' करने की इस पूरी कवायद में निर्माण अधिकारियों सहित ठेकेदारों की भी पौ-बारह पच्चीस हो गई है। पानी की तरह सरकारी धन बहाया जा रहा है। अधिकतर निर्माण/मरम्मत कार्य बिना टेंडर जारी किए यानि पेट्टी वर्क के जरिए करवाएं जा रहे हैं, लिहाजा गुणवत्ता की परवाह ना करते हुए निकायों के मुखियाओं ने अपने खासमखास ठेकेदारों को काम बांट दिए हैं। विडम्बना देखिए जिन चौक चौराहों को सजाया गया है, उनको ही बधाई संदेश लगे होर्डिंग्स, बैनर व झंडों आदि से बदरंग कर दिया गया है। बाकी शहर उसी अंदाज में जी रहा है। इन स्थानों पर मुख्यमंत्री के पगफेरे का कोई असर दिखाई नहीं देता। 
बहरहाल, इस तरह की कवायद अगर महीने में एक बार भी हो जाए तो शहर की सूरत बदलते देर नहीं लगेगी। वैसे भी आनन-फानन में तात्कालिक रूप से किया जाने वाला बदलाव व काम स्थायी व दीर्घकाल तक कहां रह पाता है? कितना अच्छा होता यही काम गुणवत्ता के साथ स्थायी होता तो आमजन लाभान्वित तो होता ही, लगे हाथ सरकारी धन का सदुपयोग भी हो जाता। काश, ऐसा हो पाता।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 28 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित  

इस सोच व प्रबंधन को सलाम

बस यूं ही
शेयर की गई पोस्ट मैंने सितम्बर 2016 में लिखी थी। तब से लेकर आज तक दो मोटे बदलाव हुए हैं। पहला तो यह है कि स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर जो कि अब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया हो गई की झुंझुनूं शाखा में बतौर मुख्य प्रबंधक कार्यरत बड़े भाईसाहब श्री विद्याधरजी झाझड़िया अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं। दूसरा बदलाव यह है कि कल 25 मार्च को उनके लाडले डा. जोगेन्द्र झाझड़िया की शादी थी। शादी का कार्ड जरिये व्हाटसएप मेरे पास नौ मार्च को ही पहुंच गया था। कार्ड मिलते ही मैंने बहुत-बहुत बधाई लिखकर भेजा तो उनका मैसेज आया कि भाईसाहब आपको शादी समारोह में जरूर पहुंचना है। यह मेरा विनम्र निवेदन है। मैंने शादी में आने का वादा किया। इस बीच जयपुर की आफिस की मीटिंग होने के कारण मैं 23 मार्च को प्रीतिभोज जिसको गांव में मेळ कहते हैं, में शामिल नहीं हो पाया। अगले दिन 24 मार्च को भाईसाहब के कुएं पर बालाजी के छोटे से मंदिर में मृूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम था। हालांकि गांव में बुलावे के माध्यम से सबको निमंत्रण सुबह ही दे दिया गया था लेकिन मैं दोपहर पौने एक बजे के करीब गांव पहुंचा। मुझे किसी दूसरे माध्यम से सूचना मिली तो मैं भी भाईसाहब के घर धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने रवाना हो गया। वहां गांव के मौजिज लोग बैठे थे। महिलाएं भजन कीर्तन में तल्लीन थी। सबसे खास बात इस उपलक्ष्य में आयोजित हवन में सभी ग्रामीणों की ओर से आहूति डालना। यहां सभी समाजों के लोग समान रूप से अपनी भागीदारी निभा रहे थे। सच में यह नजारा देखकर दिल को सुकून मिला। जिस जातिवाद को लेकर समूचे देश में हाय तौबा मची है। लोग एक दूसरे की जान की दुश्मन बने हैं, वहां इस तरह का माहौल सच में खुशी देता है। इसके साथ परिवार के हर सदस्य का प्रत्येक ग्रामीण से मुलाकात व अटेंड करना। यह प्रबंधन भी वाकई काबिलेगौर था। प्रसाद के रूप में गुड़ लेकर वहां से रवाना हो ही रहा था कि शाम के भोजन के लिए बाकायदा प्यार भरी मनुहार कर दी गई थी। शाम को मैं घर पर ही था कि अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई, देखा तो विद्याधर जी भाईसाहब ही थे। खास बात देखिए भाईसाहब मेरे से कम से 20 साल बड़े हैं, इसके बावजूद मेरे को महेन्द्रजी भाईसाहब ही कहते हैं। कहने लगे चलो कार लेकर आया हूं, शाम का भोजन वहीं करना है। मैंने कहा भाईसाहब आप चलो मैं आ ही रहा हूं। करीब साढ़े आठ बजे जब उनके घर की तरफ रवाना हुए तो भाईसाहब फिर कार लेकर रास्ते में मिल गए, कहने लगे आपको लेने आया हूं। तब मैं भतीजे के साथ बाइक पर था। हम उनके आगे और वो पीछे-पीछे। हम घर तक पहुंचे तब तक सारे लोग भोजन कर चुके थे जबकि अभी पौने नौ ही बजे थे। गांव में भोजन का काम शाम होते ही शुरू हो जाता है, इसलिए यह एक तरह से लेट ही था। सिर्फ चार पांच लोग रिश्तेदार व मित्र आदि बचे थे जो भोजन कर रहे थे। हम सब भोजन के बाद हथाई करने बैठे। विद्याधरजी भाईसाहब के बड़े भाई साहब हनुमानसिंह जी के जानकार भी मिले। जोधपुर में डाक्टर। बेटा भी डाक्टर। पूरा परिवार ही शादी में आया। करीब दस बजे वहां से मैंने घर आने की अनुमति मांगी। तब परिवार के सभी सदस्य मौजूद थे। मैं इस सम्मान से बेहद अभिभूत था। सुबह दस बजे के करीब बारात का बुलावा आ गया था। समय दिया गया दोपहर बाद तीन बजे। मैं निर्धारित समय पर तय स्थान पर पहुंच गया लेकिन अभी वक्त था। मैं वापस भाईसाहब के घर की तरफ आने लगा तो रास्ते में निकासी मिल गई। आगे डीजे पर झूमने वाले, फिर महिलाएं और आखिर में बग्घी पर सवार दूल्हा। दो सफेद घोड़े इस बग्घी में जुटे थे। यह बग्घी भी संभवत: गांव में पहली बार ही आई थी। पीछे- पीछे गाड़ियों का सिलसिला। आखिरी कार में हनुमानसिंह जी भाईसाहब उतरे और एक साफा मेरे सिर पर रख दिया। कहने लगे गांव में कोई बांधने वाला नहीं है। जोधपुर से 21 साफे बंधवाकर लाए। गाड़ी में एक साथ इतने ही आए। मैंने साफा सिर्फ खुद की शादी में ही पहना था, यह दूसरा मौका था। गुलाबी गोल साफा पहनकर सबसे पहले खुद की सेल्फी ली और तत्काल एफबी पर अपलोड कर दी। वृतांत लंबा हो रहा है लेकिन यहां मकसद किसी तरह की बड़ाई का न होकर इतना बताना है कि बड़ी बारात होने के बावजूद एक-एक आदमी को आत्मीयता से इस तरह अटेंड करने तथा नम्रता के साथ सम्मान देने की कला मौजूदा दौर में बहुत कम या न के बराबर ही दिखाई देती है। विद्याधर जी भाईसाहब को कई बार देखा है। वो मेरा हाथ पकड़कर परिचय करवाकर बहुत खुश होते हैं। यह उनकी अच्छी आदत है। यहां भी अपने रिश्तेदारों व मित्रों से उन्होंने मेरा परिचय करवाया। परिचय के लिए संबोधन वो ही चिर परिचित अंदाज में कि यह महेन्द्र जी भाईसाहब हैं। फलां, फलां हैं। खैर, गाड़ी में भी जब पीछे बैठने लगा तो हाथ पकड़कर बोले नहीं आगे बैठो। मैंने कहा आज तो हम आपके नेतृत्व में हैं, आप आगे बैठो, लेकिन कहां माने, बोले दोनों ही बैठ जाते हैं और फिर दोनों ही बैठे। 
गांव से बारात रवाना हुई। रास्ते में घोड़ीवारा गांव में बालाजी के धोक लगाने के मकसद से रुके तो वहां विदेशियों के एक दल ने दूल्हे को घेर लिया। खूब फोटो लिए। संभवत: राजस्थानी शादी और दूल्हे के परिधान इन विदेशियों को पसंद आ गए थे। आखिरकार बारात बलारां गांव पहुंची। यहां भी नाच गान- खूब हुआ। विद्याधर जी भाईसाहब यहां भी परिचय करवाकर खुश थे। पहले अपने समधी जी से करवाया। फिर सुपुत्र के साढू जी से करवाया। आशीर्वाद समारोह में परिवार के सदस्यों के साथ हाथ पकड़कर स्टेज पर लेकर गए। बीच में रामकरण जी भाईसाहब हालचाल पूछ जाते तो कभी रामनिवास जी भाईसाहब आकर संभाल जाते....। यही बात रोहिताश्व भाईसाहब की थी। सच में प्रेम से रची पगी मनुहार देखकर मैं कायल हो गया। खास बात यह है कि दुल्हन भी डॉक्टर ही है। और सबसे अच्छी अनुकरणीय बात बिना दहेज की शादी। बिलकुल दुल्हन ही दहेज है कि तर्ज पर। सच में सीखना हो तो इस परिवार की सोच, प्रबंधन व लगाव से काफी कुछ सीखा जा सकता है। विशेषकर संबंधों को निभाने की कला का कोई जवाब नहीं। इस खूबी को मेरा सलाम। इस उम्मीद के साथ कि भलाई की हमेशा मार्केटिंग करनी चाहिए ताकि दूसरे लोग भी इससे प्रेरणा लें। कुछ सीख सकें।

यह चहचहाट बड़ा सुकून देती है..

यह मेरा घर है। कभी यहां दिनभर इंसानी आवाजें आती थी लेकिन अब यहां पर सन्नाटा पसरा है..। करीब चार साल से घर का यही हाल है। बीच बीच में कभी कभार यह सन्नाटा टूटता रहता है लेकिन अधिकांश समय ताला ही लगा रहता है। हां इस सन्नाटे को तोड़ता है परिंदों का कलरव। घर के बगल में नोहरे में दर्जनों पेड़ अपने आप ही लग चुके हैं कि यह सघन वन का छोटा सा रूप लगता है। शीशम, शहतूत, खेजड़ी, पीपल, झाड़ी, रोहिड़ा, आम और भी न जाने कितनी ही तरह की वनस्पतियां। यह सब अपने आप ही उगे हैं। वैसे इनको लगाने में सबसे बड़ा योगदान इन परिंदों का ही रहा है। इनकी बीटों में आए बीजों से ही यह संभव हुआ। अब यह पौधे बडे़ पेड़ों में तब्दील हो रहे हैं, लिहाजा मोर, तोते, कबूतर, चिडिया, मैना आदि न जाने कितने ही परिंदों ने यहा स्थायी डेरा बना लिया है। घर में सर्वाधिक शोर तो चिड़िया कि चहचहाहट का है। सुबह से शाम तक यह चहचहाहट बदस्तूर जारी रहती है। चिड़िया को गौरैया भी कहते हैं लेकिन इस नाम से मैं बहुत दिनों बाद परिचित हुआ। गांव में आज भी गौरैया के बारे में पूछ लिया जाए तो शायद ही कोई बता पाए लेकिन चिड़िया के नाम से सब जान जाएंगे। ग्रामीण परिवेश में नर को चिड़ा तथा मादा को च़िडी कहते हैं। वैसे सामान्य नाम चिड़िया ही बोलते हैं।  घर में हर तरफ चिड़िया ही चिड़िया है। घर को अभी चिड़ियाघर का नाम दे दूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जहां जहां तक इन चिड़ियाओं की पहुंच है, वहां इनका ही दखल है। हां इंसानी उपस्थिति इनको बेहद अखरती है। इनके एकाधिकार को चुनौती लगती है। घर में चिड़िया का एक घौसला तो गार्डर के ऊपर बना रखा है। पता नहीं कैसे व.किसके सहारे अटका है, क्योंकि गार्डर पर घौसला टिक नहीं पाता है फिर भी चिड़ियाएं हिम्मत नहीं हारती। गार्डर के दूसरी तरफ दीवार होने के कारण संभवत: यह घौसला अटका हुआ रह गया और चिड़िया ने इसमें अंडे दे दिए। अब इस घौसले में चिड़िया के बच्चों की चहचहाट भी खूब शोर मचाती है। दिन भर चिड़िया चुग्गा लाती है और अपने बच्चों की चोंच में डालती है। शीशम की नवकोंपल व बर्गर आदि को तोड़ कर वह अपने बच्चों का निवाला बनाती है। भले ही समूचे विश्व में गौरैया की घटती संख्या एक चिंता का विषय बनी हुई है लेकिन मेरे घर व नोहरे में चिड़ियाओं की संख्या व इनका कलरव सुनकर सुकून मिलता है। मोबाइल के की-पैड पर लिखना मेरे लिए बड़ा मुश्किल काम है क्योंकि जो काम लैबटॉप पर मात्र दस मिनट का होता है उसे मोबाइल पर करने में आधा घंटे से ज्यादा समय लगता है। कंपोज करते करते बड़ी कोफ्त होती है। खैर, मामला सुकून का हो और खुद के आंगन का हो तो फिर हर तरह की तकलीफ झेलना स्वीकार है। आज इन चिड़ियाओं की चहचहाहट व इनकी मस्ती को मैंने मोबाइल के कैमरे में भी कैद किया..। आप भी देखें चिड़ियाएं किस तरह धमाल मचाती है। खेलती हैं, फूदकती हैं और मस्ती करती हैं।

इक बंजारा गाए-23

काम में फर्क का राज
'बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला', यह चर्चित शेर शिव चौक से जिला अस्पताल तक बन रही इंटरलॉकिंग पर सटीक बैठ रहा है। इस मार्ग को लेकर पता नहीं क्या-क्या प्रचारित किया गया था। चंडीचढ़-जयपुर तक से तुलना कर दी गई। सौन्दर्यीकरण के नाम पर और भी पता नहीं क्या-क्या प्रचारित किया गया। इसी प्रचार के बहाने के इस काम का शिलान्यास भी हो गया। दो दिन तो युद्धस्तर के बाद काम शुरू हुआ, इसके बाद अचानक से काम बंद होकर शुरू हुआ तो लोग खुद को ठगा सा महसूस करने लगे। इंटरलॉकिंग के काम को जयपुर-चंडीगढ़ की तर्ज पर प्रचारित करने की बात लोगों को हजम नहीं हो रही है। इससे बड़ी चर्चा तो एक की काम के लागत मूल्य में अंतर को लेकर हो रही है। कुछ दिनों पहले शहर में टी प्वाइंट से लेकर बीरबल चौक तक भी इंटरलॉकिंग का ही काम हुआ था, लेकिन उसकी लागत और इसकी लागत में कथित अंतर से जानकारों के कान खड़े कर दिए हैं। खैर, दूध का दूध पानी का पानी होना ही चाहिए। 
नैतिकता ताक पर 
जनप्रतिनिधियों से उम्मीद की जाती है कि वो ऐसा उदाहरण पेश करें कि जनता उनकी वाहवाही करे। जनता उनसे कुछ सीखें। लेकिन श्रीगंगानगर के कई जनप्रतिनिधि उदाहरण पेश करने की बजाय कानून की अवहेलना करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। बार-बार कहने व अखबार में समाचार प्रकाशित होने के बाद बावजूद इन जनप्रतिनिधियों की सेहत पर कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं देता। विशेषकर शहर को बदरंग करने में शहर के कई जनप्रतिनिधियों में होड़ सी मची है। शहर के सौन्दर्य को पलीता लगाने में यह जनप्रतिनिधि कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। विशेषकर विक्रम नवसंवत्सर के उपलक्ष्य में शहर के चौक-चौराहों को होर्र्डिग्स व बैनर से पाट दिया गया है। यह तो जनप्रतिनिधियों के विवेक पर निर्भर करता हैं कि वह गलत का अनुसरण न करे लेकिन बार-बार उसी काम की पुनरावृत्ति से लगता है उन्होंने नैतिकता को ताक पर रख दिया है। विभाग में जनप्रतिनिधियों की इस कारस्तानी के आगे खुद को असहाय महसूस पाते हैं। देखना है जनप्रतिनियों को नैतिकता की याद कब आती है। 
पहुंच का फायदा
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो पहुंच का फायदा नहीं उठाते। विशेषकर राजनीति में तो लाभ लेने और देने का काम खूब होता है। कई बार तो यह भी नहीं देखा जाता है कि पहुंच के दम पर फायदा पहुंचाने के खेल में कुछ अनर्थ तो नहीं हो रहा है। यहां तो पात्र लोगों को अपात्र तक बनाने में भी गुरेज नहींं किया जाता। ऐसा ही मामला एक सीमावर्ती कस्बे का है, जहां एक साधन संपन्न परिवार के मुखिया ने अपात्र होते हुए भी सरकारी सहायता लेने से परहेज नहीं किया। मामला उठा तो थाने तक पहुंचा। अब तो इस परिवार के संपन्नता की सारी कहानियां ही सामने आ रही हैं। मसलन, जमीन भी है। गाड़ी वगैरह भी है। बड़ी हैरान की बात है कि सरकारी योजनाओं का लाभ पात्र लोगों को मिलता नहीं है लेकिन अपात्र लोग पहुंच के दम पर इस तरह आंखों में धूल झोंकने का काम सरेआम कर लेते हैं। दबे स्वर में बात तो यह भी उठ रही है कि सरकारी योजनाओं में चर्चित यह परिवार कथित रूप से एक मंत्रीजी के खासमखास हैं। बहरहाल, पुलिस की मामले की जांच कर रही है, देखने की बात है कि आगे क्या होता है। 
अपने ही खोल रहे पोल
हिन्दी में कहावत है, खग जाने खग की भाषा। इसको यूं भी कह सकते हैं कि नजदीकी लोग सारे भेद जानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमपेशा लोग एक दूसरे की खूबी और खामी जानते हैं। यह अलग बात है कि कोई खूबी की चर्चा करता है तो कोई खामी गिना देता है। समय-समय की बात है और समय-समय का फेर भी। अक्सर चर्चाओं में रहने वाले एक वकील साहब ने इस बार कुछ खास करने का बीड़ा उठाया है। यह बात दीगर है कि सोशल मीडिया पर वो कुछ न कुछ लिखकर वायरल करते रहते हैं। काफी दिनों से वो अपनी जमात के खिलाफ भी लिख रहे हैं। अब सोशल मीडिया तक सीमित रहे वकील साहब अचानक से मुखर हो गए और उन्होंने विशेष उन साथियों के बारे में लिखना शुरू किया जिनका बाकायदा रजिस्ट्रेशन तो है लेकिन वो नियमित प्रेेक्टिस नहीं करते। इस बीच उन्होंने एक पूर्व मंत्री के पुत्र के खिलाफ तो पत्र लिखकर उनकी नियमित प्रेक्टिस न करने की तक की शिकायत कर डाली। इस तरह के खतरों से खेलना वकील साहब की आदत रही है भले ही अंजाम कुछ भी हो। देखते हैं, यहां क्या होता है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 22 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित

सपने तो सपने होते हैं

बस यूं ही
प्यार और युद्ध में सब जायज है, इस जुमले में अब अगर सियासत शब्द भी जोड़ दिया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी। आजकल सियासत मतलब चुनाव भी किसी युद्ध से कम नहीं होते और इस चुनावी युद्ध में फतह के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं। राजस्थान विधानसभा चुनाव की घोषणा होने में अभी वक्त है, लेकिन राजनीतिक धरातल पर जाजम बिछाने का काम शुरू हो चुका है। राजनीति के संभावित खिलाड़ी पूरे दम-खम के साथ मैदान में कूदे हुए हैं। टिकट किसको मिलेगी, किसकी कटेगी, कौन बागी होगा। कौन किसके समर्थन में बैठेगा तो कौन केवल वोट काटने के लिए खड़ा होगा यह सभी भविष्य की बातें हैं लेकिन इन सब से दूर चुनावी चेहरे अभी से हार जीत की संभावना टटोलने में लग गए हैं। इसी कड़ी में बुधवार को एक ऑनलाइन सर्वे बड़ी तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। यह सर्वे झुंझुनूं विधानसभा से संबंधित हैं और इसमें बारह प्रत्याशी हैं जबकि एक विकल्प नोटा का छोड़ा हुआ है। सर्वे के बारह प्रत्याशियों में ज्यादा लोग भाजपा के ही हैं। इससे जाहिर होता है यह सर्वे करवाने वालों में जरूर कोई सतारुढ़ दल का ही आदमी है। यह सर्वे को देखकर दिल तो बहलाया जा सकता है, खुशफहमी पाली जा सकती है लेकिन यह हकीकत से कोसों दूर हैं। दूर इसीलिए क्योंकि यह सर्वे ऑनलाइन है और इसमें एेसी कोई शर्त नहीं है कि इसमें केवल झुंझुनूं विधानसभा के ही मतदाता भाग ले सकते हैं। दूसरी बात यह है कि ऑनलाइन सर्वे हो या फेसबुक पेज के लाइक्स, यह काम भी आजकल प्रायोजित तरीके से खूब होने लगे हैं। पैस फेंककर लाइक्स पाने के कई उदाहरण सामने आ चुके हैं। इन दो बातों से इतर सबसे बड़ी बात यह है कि इस विधानसभा के सभी मतदाता क्या सोशल मीडिया से जुड़े हैं? क्या सभी के पास एंड्रोयड फोन हैं? खैर, यह बात सही है कि मोबाइल आज हर घर में दस्तक दे चुका है लेकिन सभी के पास आज भी नहीं है। हां आज का युवा जरूर मोबाइल फ्रेंडली है। देखते हैं सोशल मीडिया का सर्वे हकीकत में कितना खरा उतरता है। बहरहाल, यह चुनावी सर्वे सोशल मीडिया यूजर के लिए किसी खेल से कम नहीं हैं। हां कुछ अति उत्साही इसको हकीकत मानकर फूले नहीं समा रहे हैं। जैसे-जैसे समय बीतेगा कोई बड़ी बात नहीं इस तरह के सर्वे और विधानसभाओं में भी होने लगे। खैर सपने तो सपने ही होते हैं। यह हसीन भी होते हैं और डरावने भी।

सीकर-चूरू मार्ग की सुध भी जरूरी

टिप्पणी
रेलवे ने श्रीगंगानगर से सादुलपुर जाने वाले रेलगाड़ी का संचालन रविवार से बंद कर दिया है। श्रीगंगानगर से सादुलपुर जाने वाले यात्रियों को अब यह ट्रेन हनुमानगढ़ से पकडऩी होगी। यह ट्रेन श्रीगंगानगर से शाम पौने सात बजे रवाना होती थी, जो अब हनुमानगढ़ से शाम सात बजे चलेगी। श्रीगंगानगर से हनुमानगढ़ के बीच इस ट्रेन का संचालन बंद करने का मकसद यह है कि इस मार्ग पर एक घंटे के अंतराल में दो ट्रेन थीं। अब श्रीगंगानगर से सादुलपुर जाने वाले यात्रियों को हनुमानगढ़ तक कोटा एक्सप्रेस में यात्रा करनी होगी। इसके बाद हनुमानगढ़ से वो सादुलपुर के लिए ट्रेन पकड़ सकते हैं। इस बदलाव का सबसे बड़ा फायदा समय का होगा। श्रीगंगानगर से चलकर यह ट्रेन सादुलपुर रात डेढ पहुंचती थी। अब हनुमानगढ़ से चलकर यह सवा ग्यारह बजे सादुलपुर पहुंच जाएगी। इसी तरह, सादुलपुर से हनुमानगढ़ आने के समय में बदलाव का फायदा भी नि:संदेह दैनिक यात्रियों को भी मिलेगा। यह रेल पहले भी चलती थी लेकिन इस बदलाव से लोगों को फायदा ज्यादा होगा।
इस बदलाव के बाद रेलवे को अब चूरू व सीकर मार्ग की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। सादुलपुर से चूरू तक का ट्रेक कभी का ही चालू है। इसके अलावा चूरू व सीकर के बीच में भी रेल का संचालन काफी समय से शुरू हो चुका है। जयपुर से श्रीगंगानगर तक पहले यह ट्रैक मीटर गेज था। अब सीकर-जयपुर के बीच गेज परिवर्तन का काम जारी है। इसके बाद श्रीगंगानगर से जयपुर तक ब्रॉडग्रेज ट्रेक बन जाएगा। गेज परिवर्तन के कारण श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच चलने वाली ट्रेन लंबे समय से बंद है। इस ट्रेन के अभाव में श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ के यात्रियों को मजबूरी में या तो बसों में यात्रा करनी पड़ती है या फिर वाया बीकानेर होकर जाने वाली ट्रेन पकडऩी पड़ती है। बस में किराया ज्यादा लगता है तो वाया बीकानेर में समय की बर्बादी होती है। पर मजबूरी में यह दोनों बातें सहन की जा रही हैं। श्रीगंगानगर से चूरू-सीकर तक रेल संचालन में देरी को लेकर आरोप तक लगते रहे हैं कि बस ऑपरेटर्स के दवाब में रेलवे जानबूझ इस मार्ग पर रेल संचालन में विलंब कर रहा है।
बहरहाल, रेलवे को श्रीगंगानगर से सीकर वाया चूरू-सादुलपुर बिना देरी किए रेल का संचालन शुरू करना चाहिए। इस मार्ग पर रेल संबंधी प्रस्ताव भेजा हुआ भी है। यह प्रस्ताव जितना जल्दी स्वीकृति हो जाए और इस मार्ग के लिए रैक मिल जाए तो शेखावाटी क्षेत्र के साथ-साथ हनुमानगढ़ व श्रीगंगानगर के लोग लाभान्वित होंगे। रेलवे को जनहित को ध्यान में रखते हुए इस काम को प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। श्रीगंगानगर से जयपुर के बीच रेल संचालन में अभी वक्त है लेकिन सीकर तक जुडऩे से भी बड़ी राहत मिलेगी।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 19 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित

आप न जावै सासरे

बस यूं ही
कल नई दिल्ली में विधायकों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने चालीस से ज्यादा उम्र के कलक्टर को पिछड़े जिलों के विकास में बाधक बताया। प्रधानमंत्री का बयान आज कई समाचार पत्रों की सुर्खी भी बना है। यह बात क्यों कही गई? इसके मायने क्या हैं? यह तो प्रधानमंत्री ही जानें लेकिन इससे एक नई बहस जरूर खड़ी हो गई है। यही फार्मूला अगर नेताओं के संदर्भ में हो तो आधी से ज्यादा संसद खाली हो जाएगी। आईएएस/ आईपीएस तो फिर भी सेवानिवृत्त होते हैं लेकिन नेताआंे के रिटायरमेंट की कोई उम्र ही नहीं होती। विडम्बना देखिए प्रधानमंत्री चालीस पार के अफसरों को विकास में बाधा मान रहे हैं लेकिन सियासत में चालीस की उम्र कच्ची मानी जाती है। यहां तक कि राजनीति में चालीस साल का नेता युवा कहलाता है। राजनीति में साठ साल की आयु तो नेताओं की युवावस्था मानी जाती रही है।
बात जब युवाओं को मौका देने की, उनको आगे बढ़ाने की हो तो फिर राजनीति इससे अछूती क्यों? यह बहस राजनीति पर भी होनी चाहिए। नेताओं की उम्र भी तो तय हो। लेकिन इस विषय पर कोई बात नहीं करता। विशेषकर नेता नामक प्रजाति तो इस आयु वाले फैक्टर को भूल से भी जुबान तक नहीं लाती। ताउम्र तक सांसद या विधायक बने ही हसरत जिंदा रहती है। भले ही हाथ -पैर काम न करें। ठीक से बोल भी न पाएं लेकिन यह इच्छा सदाबहार रहती है।
आंकड़ों पर गौर करें तो आजादी से लेकर आज तक सांसदों की औसत आयु बढ़ ही रही है। पहली लोकसभा 1952 में सांसदों की औसत आयु 46.5 साल थी जो कि सोलहवीं लोकसभा (2014) में 56 साल हो गई। यह बात दीगर है कि 1952 में सांसदों की संख्या 489 थी जबकि वर्तमान में इनकी संख्या 545 है। यह भी एक तथ्य है कि बुजुर्गोँ के मामले में सोलहवीं लोकसभा दूसरी सबसे बुजुर्ग लोकसभा है। पहले नंबर पर पन्द्रहवीं लोकसभा आती है।
यह भी विडम्बना है कि युवाओं को देश की ताकत और देश का भविष्य बताया जाता है, इसके बावजूद युवाओं को नेता बनाने के प्रयास कम होते हैं। सोलहवीं लोकसभा में 543 सांसदों में से 253 सांसद ऐसे हैं, जिनकी उम्र 55 साल से ज्यादा है. प्रतिशत के हिसाब से यह कऱीब 47 फीसदी के आसपास है. इसी तरह 15वीं लोकसभा में 55 साल से अधिक उम्र के सांसदों की संख्या 43 प्रतिशत थी। इससे यह साबित होता है कि आम कर्मचारी व अफसर के सेवानिवृत्त होने की उम्र में नेताओं का कॅरियर परवान पर होता है। पचास फीसदी के करीब 55 साल से ऊपर होना यह दर्शाता है।
खैर, प्रधानमंत्री को कलक्टर की उम्र विकास में बाधक लगी तो लगे हाथ नेताओं की उम्र का फैसला भी हो ही जाना चाहिए। नहीं तो यह आप न जावै सासरै औरन की सीख देत.. वाली कहावत से ज्यादा कुछ नहीं है।

Saturday, March 10, 2018

हम दूध के जले हैं साहिब, शंका तो करेंगे ही

बस यूं ही
समाज के युवाओं की दशा व दिशा को लेकर कौन चिंतित नहीं होगा भला। होना भी चाहिए। आखिर कोई तो इस काम का बीड़ा उठाए। समाज का उत्थान करने तथा उसका हित करने के नाम पर वैसे तो कई संगठन बने हैं। कुछ असमय दम तोड़ गए तो कुछ चल भी रहे हैं। समाज का हित व उत्थान कैसा व कितना हुआ यह सबके सामने हैं। उन सामाजिक संगठनों ने किस तरह का काम किया? उनका मकसद क्या था? क्या वे इसमें सफल हुए या नहीं? इस तरह के हालात में क्या और संगठनों की जरूरत है? जैसे ज्वलंत सवालों पर चर्चा से पहले एक महत्वपूर्ण बात का जिक्र जरूरी है। दो रोज पहले ही समाज के कुछ चुनिंदा व जागरूक लोग, जिनमें अधिकतर सामाजिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं। कुछ मीडिया जगत के साथी भी थे। इन लोगों ने अपने-अपने विचार साझा किए। वक्ताओं ने विशेषकर समाज के युवाओं की भूमिका पर चिंता जाहिर करते हुए इसमें सुधार कैसे हो इस पर गहरा मंथन किया। सामूहिक चर्चा के बाद इस प्रकार के कार्यक्रम प्रदेश भर में करने का निर्णय किया गया। इन बैठकों के माध्यम से युवाओं को कॅरियर मार्गदर्शन के लिए सेमिनार व स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने का तय हुआ। इसके अलावा सरकारी स्किल डवलमेंट जैसे रोजगारोन्मुखी अवसरों की तरफ मोडऩे की बात भी कही गई। इन सबके अलावा सबसे बड़ी वह समझाइश होगी, जो इस मुहिम का मुख्य मकसद है। वह समझाइश है गैर जरूरी मुद्दों पर समाज के युवाओं को सड़क पर उतारने वालों को रोकना। इसी के साथ एक बात यह भी आई कि गलत को गलत कहने की जो आदत छूट गई है, उसको बदला जाए और हर गलत बात का कठोरता से प्रतिवाद किया जाए।
वैसे यह सब काम जितने कहने में आसान है, उतने हकीकत में है नहीं। बहुत मुश्किल व चुनौतीपूर्ण काम है यह। 
खैर, यह तो हुई नई मुहिम की बात। वैसे समाज के युवाओं के लिए कॅरियर मार्गदर्शन संबंधी सेमिनार पूर्व में होती रही हैं अभी भी कई जगह चल रही हैं। ऐसे में और सेमिनार होना निसंदेह फायदेमंद ही होगा, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। स्वरोजगार व कुरीति उन्मूलन की बातें तो तीस साल से लगातार सुन रहा हूं। हमेशा मुद्दा वही रहा लेकिन समय-समय पर मंच व कहने वाले बदलते गए। इन सब के बीच मुझे एक सवाल लगातार परेशान किए हुए है। वह सवाल है कि समाज के युवाओं को सड़क पर उतारने वाले वो कौन लोग हैं? क्या वो कोई विदेशी ताकतें हैं या किसी दूसरे समाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं?  आखिर वो भी तो समाज हितैषी बनकर ही अस्तित्व में आए थे। उनको समाज से इतना स्नेह मिला कि वो इतने बड़े हो गए कि बाद में टुकड़े-टुकड़े हो गए। एक ही नाम पर चार संगठन संचालित हो रहे हैं प्रदेश में और सब के अलग-अलग मुखिया हैं। इन मुखियाओं ने खुद का कद बड़ा करने के लिए खूब शक्ति प्रदर्शन किए। एक दूसरे को नीचा दिखाने में भी किसी ने कसर नहीं छोड़ी। समझदार व जागरूक लोग तब चुप्पी साधकर यह सब होते देख रहे थे। एक गैंगस्टर व फिल्म के बहाने तो शक्ति प्रदर्शन चरम तक पहुंच गया। मेरी नजर में दोनों ही मसले न्यायसंगत न तब थे न अब है। विशेष रूप से विरोध करने का तरीका तो कतई लोकतांत्रिक नहीं था। इतना कुछ होने के बावजूद इनका नाम समाज के समर्थन के बलबूते ही चमका। समझदार व शिक्षित लोगों तक को भी इनके समर्थन में गरियाते देखा। कई तो आज भी गरिया रहे हैं। इसमें कोई दोराय नहीं समाज हमेशा भावनाओं में बहा है। तत्काल विश्वास करने की आदत हमेशा भारी पड़ती रही है। और समय-समय पर समाज ने इसकी कीमत भी चुकाई है।
बड़ी विडम्बना यह भी है कि समाज की जाजम से राजनीति शुरू करने वाले जब मुकाम पा गए तो फिर समाज को भूल गए। तब वह सर्वसमाज के नेता बन गए। इसीलिए इस तरह के सामाजिक प्रकल्पों में राजनीति न घुसे तो ही अच्छा है। किसी राजनीतिक दल से जुड़ा व्यक्ति या राजनीति में भाग्य आजमाने वाला इन सामाजिक प्रकल्पों से जुड़ता है तो अतीत के जख्म हरे होने लगते हैं। आशंका बलवती होने लगती है। दूध का जला का आदमी छाछ फूंक-फूंक कर पीता है।  जल्दी से यकीन होता भी नहीं है।
बहरहाल, यह मुहिम अच्छी पहल है। बशर्ते यह बिना किसी स्वार्थ, हित व राजनीति के संचालित हो। कोई प्रभाव या दवाब इस पर कारगर न हो। भगवान न करे अगर यहां भी राजनीति घुसी तो फिर फूंकने के लिए छाछ भी नहीं बचेगी। कहा भी कहा गया है विष दे विश्वास न दे अर्थात विश्वासघात करने से अच्छा है जहर ही दे दिया जाए। सही को सही कहना भी भी आदत है और मैंने भी उसी परिपाटी का निर्वहन  किया है।

इक बंजारा गाए-22

नमकीन के पैकेट
सट्टे की दुकानों पर पिछले दिनों छिटपुट कार्रवाई करने के बाद खाकी इन दिनों खामोश है। इतना समय बीतने के बाद इस कारोबार से जुड़े लोग फिर उसी अंदाज में लौट आए हैं। हां इस बार कुछ अलग तरह की तैयारी जरूर करके आए हैं। कहने का आशय यह है कि पहले इन सट्टे की दुकानों पर एक टेबिल-कुर्सी के अलावा कोई सामान नहीं होता था। ऐसे में इस तरह की दुकानें जल्द ही शक के दायरे में आ जाती थी। बताते हैं कि किसी खाकी के व्यक्ति ने इन्हें एक सुझाव दिया है, जिससे दुकानें सट्टे की न लगकर हकीकत की दुकानें लगें। अब इन सट्टे की दुकानों पर नमकीन व चिप्स के पैकेट टंगे हुए दिखाई दे जाएंगे। यह अलग बात यह है कि इन पैकेट को न तो कोई खरीदता है और न ही यह लोग उसको बेचते हैं। बस जनता में इस बात का वहम बना रहे कि वाकई यह किसी गैरकानूनी काम की नहीं वरन हकीकत की दुकान है। फिलहाल यह आइडिया लगभग सभी ने सट्टे के दुकानदारों ने कॉपी कर रखा है।
विवाद के मायने
राजनीति के कई रंग होते हैं। शतरंज की बिसात की तरह इसमें भी शह और मात का खेल चलता रहता है। बात चाहे दो दलों की हो या फिर एक ही दल की लेकिन सभी की आपस में बने यह जरूरी नहीं होता है। हाल ही विवादों में रहे एक दल के धरने का पटाक्षेप तो किसी तरह से हो गया। विवाद का निबटारा जरूरी भी हो गया था, क्योंकि पार्टी के मुखिया का पड़ोसी जिले में दौरा था। ऐसे में पार्टी के अंदरूनी विवाद की खबर मुखिया की भौंहें तन सकती थी, लिहाजा किसी न किसी तरह से दोनों पक्षों को राजी कर लिया गया। क्योंकि जिस तरह अपने-अपने नेताओं के समर्थन में समाज के लोग लामबंद हो रहे थे, उससे पार्टी की चिंता बढ़ाना स्वाभाविक भी था। खैर, ताजा मामला है कि छोटी सी बात पर शुरू हुआ यह विवाद निबटा जरूर है लेकिन अब इसका श्रेय लेने का खेल शुरू हो गया है। हालांकि इस श्रेय का जनता में कोई लाभ मिलने से रहा, लेकिन पार्टी में जरूर पीठ थपथपाई जा सकती है। फिर भी श्रेय की जंग जारी है।
मुहरों का मिलना
श्रीगंगानगर के जिला कलक्ट्रेट में करीब दो माह पूर्व न्याय शाखा से मुहरें गायब होना काफी चर्चा में रहा था। जिस अंदाज में यह मुहरें गायब हुई थीं, उससे यह तो जाहिर हो गया था कि जरूर यह अंदरूनी लड़ाई है और इस काम को किसी विभाग के आदमी ने ही अंजाम दिया है। मामला पुलिस तक पहुंचा। जांच भी शुरू हुई। इसके बाद मामला एक तरह से ठंडा पड़ गया। मंगलवार को इस मामले में अचानक से मोड़ आया जब डेढ़ दर्जन मुहरों में से करीब दस मुहरें स्टोर में मिल गई। मुहरें गायब होने के बाद जिस अंदाज में मिली हैं, उससे शक की सुई और भी गहरा गई है। मुहरों को देखकर प्रतीत भी होता है कि इनको यहां फेंका गया है। खैर, अब चोर का पकड़ा जाना ज्यादा जरूरी हो गया है। उसने न केवल मौका देखकर इन मुहरों को इधर-उधर किया बल्कि मौका पाकर यहां फेंक भी गया। देखने की बात है कि पुलिस चोर तक कब पहुंचती है या पहुंच ही नहीं पाती है।
गाड़ी का गम
अपनी जेब से अगर एक रुपया भी कहीं गिर जाए तो एकबार तो उसका भी गम होता है लेकिन बात जब लाखों की हो तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ ऐसा ही हाल शहर में एक ब्लड बैंक चलाने वाले महाशय के साथ हो गया। लाखों रुपए की इनकी लग्जरी गाड़ी कोई धोखे से ले गया। मामला पुलिस तक पहुंचा है और पुलिस जांच में जुटी है। लोग बताते हैं कि किसी समय में ये महाशय एक छोटी सी प्राइवेट लैब पर नौकरी करते थे। वहां से पता नहीं कौनसे गुर सीखकर यह लाखों तक पहुंच गए। इसलिए गाड़ी जाने का दर्द तो होगा ही। वैसे जानकार बताते हैं कि खून के धंधे में भी मुनाफा कम नहीं होता है। शिविरों के माध्यम से आने वाले खून का लेखा जोखा कौन लेता है? ब्लड बैंक के खून के बदले खून भी लिया जाता है और पैसा भी। खैर, यह तो हुई जानकारों की बात, बहरहाल, गाड़ी वाले महाशय जी जरूर चिंता में डूबे हैं। बस किसी तरह से उनकी गाड़ी का पता लग जाए।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 8 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित

हुसैनीवाला के कारण चर्चा में आया आसफवाला

भौगोलिक बदलाव के कारण पाक के पास आया फाजिल्का
श्रीगंगानगर. फाजिल्का जिले का आसफवाला गांव भारत-पाक के बीच 1971 में हुए युद्ध मेंं शहीद सैनिकों के याद में बने स्मारक स्थल के लिए ना जाता है। लेकिन एक सवाल यहां आने वालों के मन में जरूर कौंधता है कि शहीद स्मारक आसफवाला में ही क्यों बना? इस सवाल का जवाब आसफवाला स्मारक के संबंध में प्रकाशित एक ब्रॉशर में मिलता है। ब्रॉशर में दी गई जानकारी के अनुसार देश के विभाजन के समय क्रांतिकारी भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव का हुसैनीवाला स्थित समाधि स्थल पाकिस्तान क्षेत्र में रह गया था। भारतवासियों की हुसैनीवाला को भारतीय क्षेत्र में जोडऩे की प्रबल इच्छा बन रही। इसी के दृष्टिगत 20वीं सदी के छठे दशक में भारत-पाक की सरकारों के बीच क्षेत्रीय हस्तांतरण के लिए स्वर्णसिंह-शेख समझौता हुआ। इस समझौते के तहत हुसैनीवाला क्षेत्र तो फिरोजपुर के साथ मिला दिया गया लेकिन इसके बदले में फाजिल्का के निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्र व सुलेमानकी हैड पाकिस्तान को दे दिए गए। इस भौगोलिक बदलाव के कारण अंतरराष्ट्रीय सीमा फाजिल्का के बिलकुल पास आ गई। इतना ही नहीं फाजिल्का सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्र तीन ओर से पाकिस्तान से घिर गए। इसका सैन्य दृष्टिकोण से पाकिस्तान को फायदा हुआ। पाकिस्तान ने 1965 व 1971 के युद्ध के दौरान इस क्षेत्र पर कब्जा करने दुस्साहस किया। लेकिन भारतीय सैनिकों के साहस के आगे उसकी एक नहीं चली। लेकिन इस भीषण युद्ध में काफी सैनिक शहीद हुए। इसी कारण आसफवाला में यह युद्ध स्मारक है। जानकार युद्ध में इतने शहीद होने के पीछे भौगोलिक बदलाव को बड़ा कारण मानते हैं। ब्रॉशर में तो यहां तक कहा गया है कि हुसैनीवाला का स्मारक लेने की एवज में देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ा और कालांतर में आसफवाला में एक ओर स्मारक का निर्माण हुआ तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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पत्रिका डॉट कॉम पर 07 मार्च 18 को प्रकाशित 

शहीदों की याद में यहां हर साल लगता है मेला

मैराथन दौड़ होती है प्रमुख आकर्षण का केन्द्र
श्रीगंगानगर. शहीदों की मजार पर लगेंगे हर वर्ष मेले, वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा। कविता की पंक्तियां आसफवाला में बन युद्ध स्मारक तथा वहां पर हर साल लगने वाले शहीदी मेले पर सटीक बैठती है। भारत-पाक के बीच 1971 में हुए युद्ध में फाजिल्का सेक्टर में शहीद सैनिकों की याद में बनाए गए इस स्मारक का अनावरण 1972 में हुआ था। तब से हर साल यहां वीर सैनिकों की याद में शहीदी मेला तथा विजय दिवस कार्यक्रम जोश व उत्साह के साथ मनाया जाता है। चार दशक से अधिक समय से यहां देशभक्ति से ओतप्रोत तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। खास बात यह है कि फाजिल्का के जिला बनने क बाद स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवसों पर राजकीय कार्यक्रमों में ध्वजारोहण करने के लिए आने वाले पहले आसफवाला के स्मारक पर आकर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। इसके बाद ही सकरकारी कार्यक्रमों में शामिल होते हैं। शहीदी मेले तथा विजय दिवस पर यहां वरिष्ठ राजनेता, सैन्य अधिकारी, वरिष्ठ उच्च प्रशासिनक अधिकारी, सैनिक, गणमान्य लोग, शहीदों के परिजन तथा बड़ी संख्या में आम जन आते हैं। पिछले कुछ साल से वार्षिक विजल दिवस पर विद्यार्थियों की मैराथन दौड़ यहां खास आकर्षण और प्रेरणा का स्त्रोत बन चुकी है।
स्मारक परिसर में में निर्मित कम्युनिटी सेंटर में भारतीय सेना के अमोघ डिवीजन तथा शहीदों की समाधि कमेटी ने सीमावर्ती ग्रामीण लड़कियों के लिए एक कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर भी स्थापित किया है। इसका शुभारंभ 25 जुलाई 2012 को किया गया था। यह कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर ग्रामीण लड़कियेां के लिए उपयोगी साबित हो रही है। इसमें लड़कियों को कम्प्यूटर की मौलिक शिक्षा तथा ज्ञान नि:शुल्क दिया जा रहा है। पांच एकड़ के इस युद्ध स्मारक में प्राइमरी स्कूल व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी संचालित हो रहा है। खास बात तो यह है कि स्मारक प्रांगण में हरे-भरे पेड़ों तथा आकर्षक फूलों वाले सुंदर मैदान हैं। शहीद दृगपाल सिंह स्मृति पार्क में दर्शनीय स्थल हैं। विजय दिवस व शहीदी मेले से संबंधित कार्यक्रम इसी पार्क में होते हैं।

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पत्रिका डॉट कॉम पर 06 मार्च 18 को प्रकाशित 

यहां शहादत के किस्से जगाते हैं देशभक्ति का जज्बा

प्रेरक संग्रहालय में लगी हैं सभी शहीदों की तस्वीरें
श्रीगंगानगर. शहीदों की याद में आसफवाला बनाए गए युद्ध स्मारक (समाधि स्थल) के साथ-साथ और भी कई स्थान ऐसे हैं जो देशभक्ति का जज्बा जगाते हैं। युद्ध स्मारक में बना प्रेरक संग्रहालय इसका जीता जागता उदाहरण है। शहीदों की समाधि कमेटी का इस संग्रहालय को विकसित करने का सपना था। यह सपना था कि संग्रहालय को देखने वाले लोग शहीदों के बारे में जान सकें। उनकी शहादत के किस्से सुन सकें। कमेटी का यह सपना अब साकार होता दिखाई दे रहा है, क्योंकि संग्रहालय में जाने वालों को सारी जानकारी खुद-ब-खुद मिल जाती है। उनको किसी गाइड की जरूरत नहीं पड़ती। संग्रहालय में 1971 में भारत-पाक के बीच हुए युद्ध में फाजिल्का सेक्टर में शहीद होने वाले तमाम शहीदों के चित्र लगाए गए हैं। चित्रों के नीचे शहीदों से संबंधित विवरण भी दिया गया है। इतना ही नहीं युद्ध का विवरण तथा संग्रहालय से संबंधित जानकारी भी दीवारों पर चस्पा की गई। दुश्मन से युद्ध में जीते हुए टैंक, हथियार आदि के फोटो भी यहां लगे हैं। खास बात यह है कि यहां एक टेपरिकार्डर भी लगा रखा है जिस पर दिन भर शहादत के किस्से गूंजते हैं। यह किस्से यहां आने वालों के मन में देशभक्ति का जज्बा का जागते हैें। इस संग्रहालय की खास बात यह है कि यहां चार शहीदों की प्रतिमाएं भी लगी हैं। यहां आने वाले दर्शक इन प्रतिमाओं के समक्ष श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। चार प्रतिमाओं में दो 15 राजपूत रेजीमेंंट के जवानों की तथा 4 जाट रेजीमेंट के जवानों की है। 15 राजपूत रेजीमेंट के शहीद लांस नायक दृगपाल सिंह व मेजर ललित मोहन भाटिया तथा 4 जाट के मेजर नारायणसिंह व लांस हवलदार गंगाधर की प्रतिमा लगी हैं। दृगपाल को भारत सरकार की ओर से मरणोपरांत महावीर चक्र तथा भाटिया को वीर चक्र प्रदान किया गया था। इसी प्रकार मेजर नारायणसिंह व व गंगाधर को भी मरणोपंरात वीर चक्र प्रदान किया गया था। स्मारक स्थल पर बनाए गए स्मृति स्मारकों पर भी शहीदों के नामों का उल्लेख किया गया है। फाजिल्का सेक्टर में युद्ध में शामिल रेजीमेंट्स के अलग-अलग स्मृति स्मारक हैं, जिन पर सभी के नामों का विवरण दिया गया है। दर्शक इन पर भी श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

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पत्रिका डॉट कॉम पर 05 मार्च 18 को प्रकाशित 

जिम्मेदारी

लघुकथा
मैं सुबह आफिस के लिए घर से निकला ही था कि सामने सड़क पर कबाड़ के बोरों से भरे रिक्शे को गुजरते देखा। रिक्शे में बोरों के ऊपर दस-ग्यारह साल की मैले कुचेले व फटे कपड़ों में एक बालिका बैठी थी। रिक्शा चला रहे बालक का हाल भी कमोबेश बालिका जैसा ही था, हालांकि उम्र में वह उससे छोटा लग रहा था। वजन ज्यादा होने के कारण रिक्शे का संतुलन बिगड़ रहा था। वह सड़क पर लहराता हुआ चल रहा था। बालक बड़ी मुश्किल से खड़े हो होकर पैडल मार रहा था। उसकी हालात देखकर अनायास ही मेरे से निकला, अरे बेटे, तुमने तो सामान ज्यादा भर लिया। मेरी बात सुनकर बालक ने लंबी सांस छोड़ी और हल्का सा मुस्कुरा भर दिया, लेकिन रिक्शे पर बैठी वह बालिका बड़ी ही मासूमियत के साथ बोली, क्या करें अंकल मजबूरी है। उसका जवाब सुनकर मैं अवाक था। इतनी छोटी सी उम्र में उसने मजबूरी की परिभाषा समझ ली थी। जिम्मेदारी के बोझ ने उसका बचपन छिनकर असमय हीे समझदार जो बना दिया था।

पंजाब के सर्वश्रेष्ठ युद्ध स्मारकों में से है आसफवाला स्मारक

पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेलसिंह ने किया था अनावरण 
श्रीगंगानगर. फाजिल्का जिले का आसफवाला वार मैमोरियल पंजाब के सर्वश्रेष्ठ 50 स्मारकों में शामिल है। इस स्मारक की शुरुआत छोटे से स्तर पर हुई लेकिन कालांतर में इसका विकास व विस्तार होता गया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में शहीद सैनिकों की सामूहिक अन्त्येष्टि के बाद फाजिल्का के लागों ने शहादत को चिर स्थायी बनाने के लिए यह स्मारक बनाने का निर्णय किया। इसके लिए वार मैमोरियल कमेटी का गठन किया गया। शुरुआत में 4 जाट रेजीमेंट के 82 जवानों की स्मृति में लगभग आधा एकड़ भूमि में शहीद के अंतिम संस्कार स्थल पर स्मारण निर्माण किया गया। इसमें क्षेत्रवासियों ने खूब सहयोग किया। पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह जो कि उस वक्त पंजाब के मुख्यमंत्री थे, ने इस स्मारक का 22 सितम्बर 1972 को अनावरण किया था। इसके बाद 1991 में स्मारक का दायरा विस्तृत करने का निर्णय किया गया। इसी के तहत 15 राजपूत व 3 असम रेजीमेंट के स्मृति स्तम्भ स्मारक परिसर में स्थापित किए गए। इसके बाद सीमा सुरक्षा बल तथा होमगार्ड के जवानों जिन्होंने इस युद्ध में शहादत दी थी कि स्मृति स्तंभ भी समाधि प्रांगण में बनाए गए। यही कारण रहा कि स्मारक अब पांच एकड़ भूमि के बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। आसफवाला स्मारक के विकास, सौंदर्यकरण तथा रखरखाव का कार्य शहीदों की समाधि कमेटी, भारतीय सेना व प्रशासन के संयुक्त प्रयास से हो रहा है। 2011 में यहां आए इनफैंटरी ब्रिगेड के तत्कालीन ब्रिगेडियर अरुल डेनिस ने इस स्मारक की प्रशंसा करते हुए कहा था कि पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण में आसफवाला का स्मारक श्रेष्ठ है। फिलहाल क्षेत्रवासियों की भावना है कि आसफवाला के स्मारक को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में मान्यता दी जाए।
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पत्रिका डॉट कॉम पर 03 मार्च 18 को प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-21

📌कमाल की एकजुटता
श्रीगंगानगर को अक्सर खामोश शहर कहा जाता है। यहां के लोग कभी विरोध जताने की पहल नहीं करते। इसी एकजुटता की कमी के कारण शहर बदहाल है। परंतु कोई मौका हो तो नेता कभी नहीं चूकते। शहर के जनप्रतिनिधियों का इस मामले में कोई जवाब नहीं है। वैचारिक मतभेद व अलग-अलग पार्टी होने के बावजूद उनकी आपस की समझ इतनी गजब की है वे जब चाहें एक जाजम पर बैठ जाते हैं। यह अलग बात है कि इस गजब की एकजुटता में फायदा जनता का न होकर जनप्रतिनिधियों का ही ज्यादा होता है। नगर परिषद तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां तो सर्वदलीय सरकार है। पक्ष-विपक्ष यहां सब एक हैं। इसी तरह एक युवक की मौत की संदिग्ध के बाद सभी दल एक साथ हो गए हैं। जनप्रतिनिधियों की इस एकजुटता पर लोग दबे स्वर में चुटकी लेने से भी नहंी चूक रहे। लोगों का कहना है कि काश बैठकों में लडऩे वाले तथा जनहित पर चुप्पी साधने वाले जनप्रतिनिधि इस तरह की एकजुटता कभी शहर के लिए भी दिखाएं तो कोई बात बने।
📌विशुद्ध राजनीति
मटका चौक स्कूल में प्रधानाचार्य व पीटीआई को एपीओ करने के बाद बुधवार को अचानक फिर से नया मोड़ आने से लगता है कि प्रकरण में कोई है, जो छात्राओं की आड़ लेकर पर्दे के पीछे खेल रहा है। छात्राओं का मोहरा बनाकर विभाग पर भरपूर दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इससे यह तो जाहिर हो गया है कि इस मामले में राजनीति हो रही है और इस राजनीति की आड़ में भोली भाली छात्राओं को आगे किया जा रहा है। मार्च का माह वैसे भी महत्वपूर्ण होता है, लेकिन विवाद से नाता रखने वालों को इस बात की परवाह ही कहां है। गुरु का यह काम तो कतई नहीं होता है कि वह शिष्यों के भविष्य से खिलवाड़ करे। गुरु तो शिष्यों का भविष्य बनाता है न कि अपने हित के लिए उनको आगे करे। इस मामले में अभिभावकों को चुप्पी तोडऩी चाहिए। उनको तह तक जाना चाहिए कि आखिर छात्राओं के इस आक्रोश की वजह कोई दूसरी तो नहीं?
📌पैरवी की वजह
शहर के जनप्रतिनिधि अक्सर सस्ती लोकप्रियता के रास्ते खोजते रहते हैं। वह जायज है या नहीं, इससे उनको कोई सरोकार नहीं होता। बस किसी न किसी बहाने चर्चा में बने रहना चाहते हैं। अब शिव चौक से जिला अस्पताल के बीच सड़क सौन्दर्यीकरण का मामला ही देख लीजिए। यूआईटी इस छोटे से टुकड़े पर लाखों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन जिस उद्देश्य से कर रही है, वह अगर पूरा ही नहीं हो तो फिर इतना खर्चा करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। इस सड़क को न केवल चौड़ा करना प्रस्तावित है बल्कि जाली भी लगाई जानी है। जाली की बात से उन व्यापारियों की भौंहें तन गई हैं, जो बीच सड़क पर अतिक्रमण करके व्यापार कर रहे हैं। दबाव बनाने के लिए सभी व्यापारी एकजुट हुए और प्रस्तावित जाली लगाने का विरोध जताना शुरू किया। संकट में फंसे व्यापारियों की सहानुभूति बटोरने का इससे मुफीद मौका और होता भी क्या। लिहाजा शहर के एक नेताजी इनके समर्थन में कूद पड़े। देखना है अब ऊंट किस करवट बैठता है।
📌आश्वासनों की झड़ी
नेताओं के पास देने के लिए कुछ न कुछ होता ही है। भले ही वह आश्वासन ही क्यों न हो। छोटे से लेकर बड़े नेता सब अपनी हैसियत व योग्यता के हिसाब से आश्वासनों की रेवडिय़ा बांटते हैं। जो जनता को आश्वासन देकर प्रभावित कर ले वही पारंगत नेता माना जाता है। अब शहर में एक युवक की मौत के बाद हुई सभा में नेताओं ने जो-जो आश्वासन दिए उनका तो बस कहना ही क्या। ऐसे ही एक नेताजी जो सतारूढ़ पार्टी के हैं। इस बार विधानसभा चुनाव के लिए जीभ लपलपा रहे हैं। प्रेस नोट आदि भिजवाने के लिए दो चार चेले चपाटे भी पाल लिए हैं। इन नेताजी को आजकल जहां भी भीड़ दिखाई देती है, निसंकोच चले जाते हैं। भले ही उनकी पार्टी उस भीड़़ से दूरी ही बनाए। वैसे यह नेताजी कुछ खबरनवीसों के भी खास बने हुए हैं। तभी तो कल धानमंडी में मजदूरों की सभा के बाद इन नेताजी के प्रेस नोट जारी हो गए। समय के साथ नेताजी आश्वासन देना भी सीख गए हैं, जैसे कि उन्होंने कल दिए। गनीमत रही है चौतरफा दबाव से कार्रवाई हो गई और नेताजी की बात रह गई। वरना तो पोल खुलनी तय थी।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 01 मार्च 18 के अंक में प्रकाशित..