Saturday, March 10, 2018

जिम्मेदारी

लघुकथा
मैं सुबह आफिस के लिए घर से निकला ही था कि सामने सड़क पर कबाड़ के बोरों से भरे रिक्शे को गुजरते देखा। रिक्शे में बोरों के ऊपर दस-ग्यारह साल की मैले कुचेले व फटे कपड़ों में एक बालिका बैठी थी। रिक्शा चला रहे बालक का हाल भी कमोबेश बालिका जैसा ही था, हालांकि उम्र में वह उससे छोटा लग रहा था। वजन ज्यादा होने के कारण रिक्शे का संतुलन बिगड़ रहा था। वह सड़क पर लहराता हुआ चल रहा था। बालक बड़ी मुश्किल से खड़े हो होकर पैडल मार रहा था। उसकी हालात देखकर अनायास ही मेरे से निकला, अरे बेटे, तुमने तो सामान ज्यादा भर लिया। मेरी बात सुनकर बालक ने लंबी सांस छोड़ी और हल्का सा मुस्कुरा भर दिया, लेकिन रिक्शे पर बैठी वह बालिका बड़ी ही मासूमियत के साथ बोली, क्या करें अंकल मजबूरी है। उसका जवाब सुनकर मैं अवाक था। इतनी छोटी सी उम्र में उसने मजबूरी की परिभाषा समझ ली थी। जिम्मेदारी के बोझ ने उसका बचपन छिनकर असमय हीे समझदार जो बना दिया था।

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