Saturday, March 10, 2018

हम दूध के जले हैं साहिब, शंका तो करेंगे ही

बस यूं ही
समाज के युवाओं की दशा व दिशा को लेकर कौन चिंतित नहीं होगा भला। होना भी चाहिए। आखिर कोई तो इस काम का बीड़ा उठाए। समाज का उत्थान करने तथा उसका हित करने के नाम पर वैसे तो कई संगठन बने हैं। कुछ असमय दम तोड़ गए तो कुछ चल भी रहे हैं। समाज का हित व उत्थान कैसा व कितना हुआ यह सबके सामने हैं। उन सामाजिक संगठनों ने किस तरह का काम किया? उनका मकसद क्या था? क्या वे इसमें सफल हुए या नहीं? इस तरह के हालात में क्या और संगठनों की जरूरत है? जैसे ज्वलंत सवालों पर चर्चा से पहले एक महत्वपूर्ण बात का जिक्र जरूरी है। दो रोज पहले ही समाज के कुछ चुनिंदा व जागरूक लोग, जिनमें अधिकतर सामाजिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं। कुछ मीडिया जगत के साथी भी थे। इन लोगों ने अपने-अपने विचार साझा किए। वक्ताओं ने विशेषकर समाज के युवाओं की भूमिका पर चिंता जाहिर करते हुए इसमें सुधार कैसे हो इस पर गहरा मंथन किया। सामूहिक चर्चा के बाद इस प्रकार के कार्यक्रम प्रदेश भर में करने का निर्णय किया गया। इन बैठकों के माध्यम से युवाओं को कॅरियर मार्गदर्शन के लिए सेमिनार व स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने का तय हुआ। इसके अलावा सरकारी स्किल डवलमेंट जैसे रोजगारोन्मुखी अवसरों की तरफ मोडऩे की बात भी कही गई। इन सबके अलावा सबसे बड़ी वह समझाइश होगी, जो इस मुहिम का मुख्य मकसद है। वह समझाइश है गैर जरूरी मुद्दों पर समाज के युवाओं को सड़क पर उतारने वालों को रोकना। इसी के साथ एक बात यह भी आई कि गलत को गलत कहने की जो आदत छूट गई है, उसको बदला जाए और हर गलत बात का कठोरता से प्रतिवाद किया जाए।
वैसे यह सब काम जितने कहने में आसान है, उतने हकीकत में है नहीं। बहुत मुश्किल व चुनौतीपूर्ण काम है यह। 
खैर, यह तो हुई नई मुहिम की बात। वैसे समाज के युवाओं के लिए कॅरियर मार्गदर्शन संबंधी सेमिनार पूर्व में होती रही हैं अभी भी कई जगह चल रही हैं। ऐसे में और सेमिनार होना निसंदेह फायदेमंद ही होगा, ऐसी उम्मीद करनी चाहिए। स्वरोजगार व कुरीति उन्मूलन की बातें तो तीस साल से लगातार सुन रहा हूं। हमेशा मुद्दा वही रहा लेकिन समय-समय पर मंच व कहने वाले बदलते गए। इन सब के बीच मुझे एक सवाल लगातार परेशान किए हुए है। वह सवाल है कि समाज के युवाओं को सड़क पर उतारने वाले वो कौन लोग हैं? क्या वो कोई विदेशी ताकतें हैं या किसी दूसरे समाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं?  आखिर वो भी तो समाज हितैषी बनकर ही अस्तित्व में आए थे। उनको समाज से इतना स्नेह मिला कि वो इतने बड़े हो गए कि बाद में टुकड़े-टुकड़े हो गए। एक ही नाम पर चार संगठन संचालित हो रहे हैं प्रदेश में और सब के अलग-अलग मुखिया हैं। इन मुखियाओं ने खुद का कद बड़ा करने के लिए खूब शक्ति प्रदर्शन किए। एक दूसरे को नीचा दिखाने में भी किसी ने कसर नहीं छोड़ी। समझदार व जागरूक लोग तब चुप्पी साधकर यह सब होते देख रहे थे। एक गैंगस्टर व फिल्म के बहाने तो शक्ति प्रदर्शन चरम तक पहुंच गया। मेरी नजर में दोनों ही मसले न्यायसंगत न तब थे न अब है। विशेष रूप से विरोध करने का तरीका तो कतई लोकतांत्रिक नहीं था। इतना कुछ होने के बावजूद इनका नाम समाज के समर्थन के बलबूते ही चमका। समझदार व शिक्षित लोगों तक को भी इनके समर्थन में गरियाते देखा। कई तो आज भी गरिया रहे हैं। इसमें कोई दोराय नहीं समाज हमेशा भावनाओं में बहा है। तत्काल विश्वास करने की आदत हमेशा भारी पड़ती रही है। और समय-समय पर समाज ने इसकी कीमत भी चुकाई है।
बड़ी विडम्बना यह भी है कि समाज की जाजम से राजनीति शुरू करने वाले जब मुकाम पा गए तो फिर समाज को भूल गए। तब वह सर्वसमाज के नेता बन गए। इसीलिए इस तरह के सामाजिक प्रकल्पों में राजनीति न घुसे तो ही अच्छा है। किसी राजनीतिक दल से जुड़ा व्यक्ति या राजनीति में भाग्य आजमाने वाला इन सामाजिक प्रकल्पों से जुड़ता है तो अतीत के जख्म हरे होने लगते हैं। आशंका बलवती होने लगती है। दूध का जला का आदमी छाछ फूंक-फूंक कर पीता है।  जल्दी से यकीन होता भी नहीं है।
बहरहाल, यह मुहिम अच्छी पहल है। बशर्ते यह बिना किसी स्वार्थ, हित व राजनीति के संचालित हो। कोई प्रभाव या दवाब इस पर कारगर न हो। भगवान न करे अगर यहां भी राजनीति घुसी तो फिर फूंकने के लिए छाछ भी नहीं बचेगी। कहा भी कहा गया है विष दे विश्वास न दे अर्थात विश्वासघात करने से अच्छा है जहर ही दे दिया जाए। सही को सही कहना भी भी आदत है और मैंने भी उसी परिपाटी का निर्वहन  किया है।

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