Tuesday, May 8, 2018

तो क्या बगड़वासियों को जियो फ्री में मिलेगा?

बस यूं ही
मेरे स्कूली जीवन का शहर। मेरी किशोरावस्था से जवानी की दहलीज पर कदम रखने का शहर। गांव के बाद मेरी दूसरी पसंदीदा जगह। जीवन के आठ सुनहरे साल जहां बीते वो शहर। जी हां यह शहर है। बगड़। शिक्षा नगरी बगड़। झुंझुनूं जिला मुख्यालय से मात्र चौदह किमी की दूर पर आबाद बगड़ दो दिन से जबरदस्त चर्चा में हैं। यह चर्चा बगड़ में शिक्षा की अलख जगाने वाले सेठ पीरामल के पड़पौत्र आनंद पीरामल की है। आनंद की देश के सर्वाधिक धनवान मुकेश अंबानी की पुत्री ईशा अंबानी से शादी होने की खबरें आ रही हैं। यह शादी दिसंबर में प्रस्तावित हैं। बस इस खबर को लेकर बगड़वासी बेहद खुश हैं। पीरामल ट्रस्ट की ओर से संचालित संस्थाओं में तो बाकायदा मिठाई का वितरण भी हो गया है। बगड़ में आजादी से पहले सेठ पीरामल की आेर से प्राइमरी स्कूल के रूप में रोपा गया पौधा आज विशाल वट वृक्ष बना हुआ है। बड़े भाईसाहब केशरसिंह जी ने गोपीकृष्ण पीरामल शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय से बीएड की थी। बीच वाले भाईसाहब सत्यवीरसिंह जी ने भी पीरामल सीनियर सैकंडरी स्कूल से ही कक्षा नौ से बारहवीं तक की तालीम ली। मैंने भी 11वीं और बारहवीं की शिक्षा इसी स्कूल से प्राप्त की है। इतना ही नहीं बगड़ में जब कॉलेज में अध्ययनरत था तब कई कई बार पीरामल हवेली में भी ठहर चुका हूं। मौसाजी इस हवेली में बतौर केयर टेकर रह चुके हैं। इसके बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में आया तो पीरामल बालिका स्कूल में बतौर अतिथि भी शिरकत कर चुका। यह सब बताने का मकसद यह है सेठ पीरामल की दूरदर्शी सोच ने झुंझुनूं जिले को शिक्षा के मामले में अग्रणी करने में प्रमुख भूमिका निभाई। वह भी बिना किसी लाभ के। बीएल माहेश्वरी व रूंगटा भी कुछ एेसे ही नाम हैं। इन सेठों की बदौलत हम सब ने कम खर्च में संस्कार युक्त पढ़ाई की। आज के दौर में यह सब संभव नहीं लगता।
खैर, अब मूल विषय पर लौटता हूं। कल आनंद व ईशा की खबरें जैसे ही आई, सोशल मीडिया पर जुमले बनने लगे। लोग खुशियां मनाने लगे। एक दूसरे को बधाई देने लगे। सोशल मीडिया पर भी मेरे सर्वाधिक मित्र बगड़ से ही हैं, लिहाजा वहां की अपडेट खबर मिल ही जाती है। अब इस जुमले पर गौर फरमाएं ' अब यह अफवाह कौन फैला रहा है कि अंबानी बगड़वासियों को दहेज में जियो आजीवन फ्री देंगे।' बगड़ नगर पालिका के पूर्व चैयरमैन आदरणीय बड़े भाईसाहब राजेन्द्र जी शर्मा के फेसबुक वॉल पर लगी इस पोस्ट के नीचे रोचक कमेंट आने का दौर जारी है। एक खुशखबर ने वाकई बगड़वासियों को खुशी की वजह दे दी है। 33 वर्षीय आनंद की 27 वर्षीया ईशा से शादी के बाद बगड़ को क्या मिलेगा, क्या नहीं यह सब भविष्य की बातें हैं लेकिन खुशी तो खुशी है जनाब। आप भी हंस सकते हैं क्योंकि हंसी का कोई मोल नहीं होता। 

प्रताडऩा की पराकाष्ठा


टिप्पणी
यह हकीकत वाकई हैरान करने वाली है। मौके के हैरतअंगेज हालात तो रोंगटे तक खड़े कर देते हैं। यह बेरहमी की भयावह तस्वीर है। मासूमों की मजदूरी की यह तस्वीर डराती है, चौंकाती है, विचलित करती है और शर्मसार भी। यह अपनों की उपेक्षा तो है ही, अभावों की वजह भी लगती है। पापी पेट के लिए परिजनों ने कलेजे पर पत्थर रख मासूमों पर जिम्मेदारियों का बोझ तो लादा ही, कारखाने के कारिंदों ने इन कोमल कलियों से कठोर काम करवा कर इनके सपनों का कत्ल करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
यह यातनाओं के दुर्लभ उदाहरणों में से एक है। यह हैवानियत की हद है तो प्रताडऩा की पराकाष्ठा भी है। इसे अमानवीयता की अति भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। श्रीगंगानगर की एक चूड़ा फैक्ट्री से गुरुवार दोपहर को मुक्त करवाए गए 23 बाल श्रमिकों की दर्दनाक दशा देखकर हर कोई स्तब्ध है। सात से चौदह साल की उम्र तो पढऩे तथा खेलने खाने की उम्र होती है। दुनियादारी से दूर मौजमस्ती करने की उम्र। कमाई या पेट की चिंता से बेफिक्र रहने की उम्र। सपने देखने की उम्र। पंख फैलाने की उम्र।
अफसोसजनक बात यह है कि बच्चों के बचपन को बिसरा कर इनके अरमानों का गला घोंट दिया गया। उनके सपनों को तोड़ दिया गया। हमदर्दी, इंसानियत, संवेदनशीलता जैसे मानवीय गुण यहां गौण हो गए। दया की जगह एक तरह की 'दरिदंगी' ने ले ली। पत्थरदिल कारिंदों की यह करतूत अक्षम्य है। मासूमों पर मुसीबतों का पहाड़ लगातार टूटता रहा, लेकिन कारिंदों ने कभी भी रहमदिली नहीं दिखाई। इन कारिंदों ने कभी प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने या समझने की जहमत तक नहीं उठाई।
बहरहाल, मासूमों को कारखाने रूपी काल कोठरी में कैद करके रखना भी अपने में आप बड़ा सवाल है। बाल श्रमिकों को बंधक बनाना यह साबित करता है कि उनसे यह काम जबरन करवाया जा रहा था। खैर, मासूमों से की गई कठोर यातनाओं की भरपाई तभी संभव है जब इस समूचे प्रकरण की ईमानदार जांच हो और दोषियों को सजा मिले, ताकि इस तरह की विचलित करने वाली व हृदय विदारक घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 4 मई 18 के अंक में प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-29


खूबसूरत बहाना
नेता और अभिनेता दोनों में एक बात समान होती है। दोनों अभिनय बड़ी खूबसूरती से करते हैं। ऐसा अभिनय कि लोग हकीकत समझ बैठते हैं, तभी तो इनकी बातों में जल्दी आ जाते हैं, प्रभावित हो जाते हैं। अब देखिए न अपने परिषद वाले नेताजी वैसे तो चर्चा में बन रहते हैं। एक संभवत: प्रदेश के इकलौते नेता हैं, जो सर्वदलीय हैं। सभी दलों के समर्थन इनकी कुर्सी टिकी हुई है। नगर परिषद का विपक्ष भी कहा जाए तो कोइ अतिश्योक्ति नहीं होगी। अब गोल बाजार के एक होटल को सीज करने की कार्रवाई को भी बड़ा ही खूबसूरत बहाना बनाकर टाल दिया गया है। दलील दी गई कि शादी समारोहों का मौसम है। होटल पर कार्रवाई हुई तो जनता को परेशानी होगी। एक होटल से जनता को कैसी व कितनी परेशानी होगी यह बात लोगों के हजम नहीं हो रही। नेताजी की हमदर्दी होटल मालिक के प्रति है या जनता के यह राज भी शहरवासी जानने लगे हैं। बीच रास्ते में बस खराब हो जाए या कोई ट्रेन रद्द हो जाए तो क्या यात्री रुक जाएंगे? जिनको जाना है वो किसी दूसरे साधन से निकल लेंगे। पर नेताजी को अब कौन समझाए। सारे ही एक जैसे हैं।
खामोशी तो टूटी
दारू वाला महकमा लंबे समय से लंबी तान के सोया था। शराब ठेकेदार व उनके कारिंदे दोनों हाथों से सुराप्रेमियों को लुटने में लगे रहे। न दिन देख रहे थे न रात। ऊपर से धमकी-चमकी अलग। अब जो तलबगार है, उसको तो सब सहन करना ही पड़ता है। यहां तक कि खाकी के हाथ भी मंथली लेते रंगे गए। विभाग की सुस्ती व खाकी की शह के कारण शराब ठेकेदारों की मनमर्जी चरम पर पहुंच गई। मुंहमांगे दाम और ठेके खुलने व बंद होने का कोई समय ही नहीं। शिकायत करने वालों कहीं पर भी कर ले, कोई इन शराब ठेकेदारों का बाल बांका करने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाता। नफरी और स्टाफ की कमी का बहाना बनाकर अब तक कार्रवाई करने से बचते रहे आबकारी विभाग का अचानक हरकत में आना किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि विभाग को आनन-फानन में बोगस ग्राहक बनाने पड़े। विभाग ठेकेदारों की मनमर्जी से क्या वाकिफ नहीं हैं। जरूर कहीं न कहीं कोई शेर को सवा शेर मिला है। जिसके निर्देशों पर आबकारी विभाग ने यह हलचल दिखाई बाकी हकीकत तो जगजाहिर है ही।
न खाते बने न निगलते
गले की हड्डी बने जाने संबंधी मुहावरे से कौन परिचित नहीं हैं। गले में हड्डी अटक जाए तो न तो ठीक से खाते बने और न ही निगलते। शिव चौक से जिला अस्पताल बन रहा इंटरलॉकिंग का काम यूआईटी के लिए गले की हड्डी बन चुका है। पता नहीं ऐसी क्या जल्दबाजी थी या मजबूरी थी जिसके चलते यूआईटी ने इस टुकड़े का चयन किया। काम शुरू होने से पहले ही विरोध होना था। नजीता यह निकला कि इस काम की हवा तभी निकल गई। आवाश्सन की रेवडिय़ां बांटने के बाद काम फिर शुरू हुआ। काम की रफ्तार भले ही धीमी रहे हो लेकिन डिवाइडर बनाने तथा मिट्टी खुदाई का काम युद्धस्तर पर हुआ। पर अचानक वन विभाग ने ऐसा पेच फंसाया कि यूआईटी के पास अब बगलें झांकने और विकल्प खोजने के लिए अलावा कोई चारा नहीं हैं। वैसे भी लोगों को फायदा तो इस इंटरलॉकिंग बनने के बाद भी नहीं होने वाला। बहरहाल, उड़ती धूल व खोदी गई सड़कें परेशानी का सबब बन रहे हैं। इंटरलॉकिंग के बहाने नाम चमकाने वाले नेताजी भी मौजूदा हालात के आगे पस्त नजर आते हैं।
गिफ्ट का चक्कर
शादी समारोहों व मांगलिक कार्यों का सिलसिला वैसे तो साल भर चलता ही रहा है। इनके साथ ही उपहार आदि देने का काम भी होता है। लेकिन मौसम चुनावी हो तो उपहारों की संख्या बढ़ जाती है। ऐसे उपहार बिन बुलाए मेहमान देकर जाते हैं। सब जगह खुद नहीं पहुंच पाते लिहाजा समर्थकों के माध्यम से भी यह काम करवाया जाता है। हां उपहार पर संबंधित मेहमान की नाम की स्लिप जरूर चस्पा होती है। चुनावी फसल तैयार करने का वैसे तो यह तरीका काफी पुराना है लेकिन समय के साथ अब यह हाइटेक हो गया है। पहले तो शादी समाराहों आदि में लिफाफे से काम चल जाया करता था लेकिन अब लिफाफे की जगह महंगा गिफ्ट आ गया है। यह गिफ्ट मतदाताओं का मानस बदलने में कितने मददगार होंगे यह तो समय ही बताएगा लेकिन शादी वाले परिवारों में बिन बुलाए मेहमानों के गिफ्ट ने उनको सोचने पर मजबूर कर दिया है। धर्मसंकट तो वहां पर है जहां दावेदार कई हैं और सभी के गिफ्ट के पहुंच जाते हैं। धर्मसंकट यह है कि कल वह मतदाता की भूमिका में होगा तो कौनसे गिफ्ट का बदला ईमानदारी से चुका पाएगा।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 3 मई 18 के अंक में प्रकाशित 

कमर दर्द

लघु कथा
सुंदर नयननक्श की मां - बेटी बस में एक ही सीट पर बैठी थी। तभी बेटी उठी और आराम का कहकर सिंगल स्लीपर में सोने चली गई। अब मां के बगल वाली सीट खाली थी। खाली सीट देख काफी समय से खड़े एक बुजुर्ग के चेहरे पर चमक आ गई। वो फौरन सीट की तरफ लपके लेकिन निराशा ही हाथ लगी। वह महिला बोली, जी यह हमारी सीट है। हमने इसको बुक करवा रखा है। स्लीपर भी हमने ही बुक करवाया है। मेरी कमर में दर्द रहता है, इसीलिए बीच-बीच में जाकर आराम करती हूं। हालांकि यह सब कहा तब तक महिला स्लीपर में एक बार भी नहीं गई थी। अगले स्टॉप पर एक परिवार और चढ़ा। सीट पर बैठी महिला खिसकी और एक बालिका को अपनी बगल में बैठा लिया। बस अपनी रफ्तार से दौड़े जा रही थी। रात का एक बजने को था। लगभग सभी यात्री नींद में आगोश में समा चुके थे। अचानक परिचालक आया और बालिका को एक तरफ कर महिला के बगल में बैठ गया और फिर महिला व.परिचालक के बीच खुसर-पुसर होती रही। तीन घंटे बाद महिला सीट से उठी और बेटी स्लीपर से नीचे उतरीं। दोनों का मुकाम जो आ गया था। बस से नीचे उतरने के बाद महिला के चेहरे पर एक बड़ी मुस्कान थी और हाथ अभिवादन में हिल रहा था। बस चल पड़ी पर सवाल खड़ा रह गया, वो कमर दर्द? वो आराम?

सोच

लघुकथा
तेज रफ्तार दौड़ती रोडवेज बस के आगे दो युवकों ने अचानक हाथ किया तो बस के टायर चरमरा उठे। दोनों युवक बैठे और बस चल पड़ी। इसी के साथ दोनों का आपसी संवाद शुरू हुआ।
पहला युवक 'यार मैं उस माहौल से परेशान हो गया था। मकान चेंज न करता तो क्या करता।'
दूसरा युवक 'अरे एेसा क्या हो गया। कुछ दिन पहले तो आपने सब ठीक बताया था, अब अचानक कैसे?'
सवाल सुनकर पहला युवक थोड़ा सकपकाया, होठों पर जीभ फेरते हुए बोला ' आपको बताया था कि हम वहां सभी लड़के-लड़के ही रहते थे। फिर हमारे बीच एक महिला भी आकर रहने लगी।'
महिला का जिक्र आते ही दूसरा युवक थोड़ा संभलकर सीट पर बैठते हुए बोला ' फिर?'
'अरे फिर क्या, महिला मेरे कमरे में आती है। वैसे ही वह दूसरे लड़कों के कमरों में भी जाती। हमेशा बात करने का प्रयास करती है। खुद चलाकर बात करती हमेशा।'
दूसरे युवक की जिज्ञासा और बढ़ गई कंधे उचका कर उसने पूछा ' फिर? तूने कभी बात की क्या?'
'नहीं, वह शादीशुदा महिला है। उसके पन्द्रह साल का एक बच्चा भी है। तू तो समझता है कि महिला से कौन बात करें। हां, कोई लड़की हो तो फिर भी सोचा जा सकता है। '
दूसरे युवक ने भी हां में हां मिलाई ' हां लड़की हो तो सोचा जा सकता है। महिला से कौन बात करे।'
बस करीब चालीस किलोमीटर का सफर तय कर चुकी थी लेकिन दोनों युवकों की बात का विषय अभी बदला नहीं था। एक उत्सुकतावश सवाल पूछे जा रहा था तो दूसरा जवाब देकर ही आनंदित हो रहा था। दोनों युवकों की आगे की सीट पर बैठा मैं यह समूचा वार्तालाप सुनकर तथा महिला व लड़की को लेकर उनकी अलग अलग सोच पर हैरान था।

नमूनों की नौटंकी कब तक?

टिप्पणी
सात सुखों में से पहला सुख निरोगी काया को माना गया है, लेकिन श्रीगंगानगर में आकर यह बात बेमानी हो जाती है। इसकी बड़ी वजह है शासन- प्रशासन का लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न करा पाना। गंगनहर में पखवाड़े भर से ज्यादा समय से काले रंग का पानी का आ रहा है। विभिन्न संगठन व राजनीति दल लगातार प्रशासन को ज्ञापन देकर इस मामले में कारगर कार्रवाई की गुहार लगा रहे हैं। कुछ किसान संगठन तो मौका भी देख आए लेकिन जिला प्रशासन अभी जांच करवाने के आश्वासन से आगे नहीं बढ़ पाया है। ऐसा कोई पहली बार नहीं है, बल्कि ऐसा हर बार ही होता है। लोग शिकायत करतें हैं और प्रशासन आश्वासन का कहकर टरका देता है। ज्यादा से ज्यादा पानी के नमूने लेने की बात भी कह दी जाती है। बड़ी हैरत की बात है कि नमूनों में पानी दूषित साबित होने के बावजूद इसकी रोकथाम के लिए कोई ठोस या प्रभावी कदम नहीं उठाए जाते। विडम्बना यह है भी है कि पानी की कमी या दूषित पानी को लेकर श्रीगंगानगर जिले में हर साल आंदोलन होते हैं। बस फर्क इतना है कि सरकारें बदलने के साथ आंदोलन करने वालों के चेहरे बदल जाते हैं, लेकिन समस्या का स्थायी समाधान नहीं होता। दूषित पानी बेचना खुलेआम स्वास्थ्य से खिलवाड़ है। लोग जेब ढीली करके खुद के लिए बीमारियां व मौत खरीदें तो इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या होगी? तीन दशक से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद स्वच्छ पेयजल मुहैया न कर पाना शासन व प्रशासन दोनों को कटघरे में खड़ा करता है। बड़ा सवाल तो यह है कि कि बात आश्वासनों व नमूनों की जांच से आगे बढ़ी क्यों नहीं? नहरी पानी में दूषित या केमिकल पानी छोडऩा एक तरह का धीमा जहर है। कैंसर, पेट संबंधी व चर्म रोगियों की बढ़ती संख्या के पीछे के कारणों में दूषित पानी भी एक बड़ा कारण है।
बहरहाल, आश्वासन की रेवडिय़ों व नमूनों की नौटंकी से लोगों को शुद्ध पेयजल नहीं मिलने वाला। इन पर विराम लगाकर तुरंत प्रभाव से ठोस, कारगर व प्रभावी कार्रवाई होनी चाहिए। जो पानी को दूषित करता है, उस पर मुकदमे दर्ज हों, क्योंकि स्वास्थ्य से खिलवाड़ का सिलसिला अब थमना चाहिए। अगर शासन-प्रशासन की आंख अब भी नहीं खुली तो बीमारियों से पीडि़त मरीजों का आंकड़ा मौतों में तब्दील होते ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला।
-------------------------------------------------------------------------------------------------
राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 27 अप्रेल 18 के अंक में प्रकाशित