Tuesday, May 8, 2018

सोच

लघुकथा
तेज रफ्तार दौड़ती रोडवेज बस के आगे दो युवकों ने अचानक हाथ किया तो बस के टायर चरमरा उठे। दोनों युवक बैठे और बस चल पड़ी। इसी के साथ दोनों का आपसी संवाद शुरू हुआ।
पहला युवक 'यार मैं उस माहौल से परेशान हो गया था। मकान चेंज न करता तो क्या करता।'
दूसरा युवक 'अरे एेसा क्या हो गया। कुछ दिन पहले तो आपने सब ठीक बताया था, अब अचानक कैसे?'
सवाल सुनकर पहला युवक थोड़ा सकपकाया, होठों पर जीभ फेरते हुए बोला ' आपको बताया था कि हम वहां सभी लड़के-लड़के ही रहते थे। फिर हमारे बीच एक महिला भी आकर रहने लगी।'
महिला का जिक्र आते ही दूसरा युवक थोड़ा संभलकर सीट पर बैठते हुए बोला ' फिर?'
'अरे फिर क्या, महिला मेरे कमरे में आती है। वैसे ही वह दूसरे लड़कों के कमरों में भी जाती। हमेशा बात करने का प्रयास करती है। खुद चलाकर बात करती हमेशा।'
दूसरे युवक की जिज्ञासा और बढ़ गई कंधे उचका कर उसने पूछा ' फिर? तूने कभी बात की क्या?'
'नहीं, वह शादीशुदा महिला है। उसके पन्द्रह साल का एक बच्चा भी है। तू तो समझता है कि महिला से कौन बात करें। हां, कोई लड़की हो तो फिर भी सोचा जा सकता है। '
दूसरे युवक ने भी हां में हां मिलाई ' हां लड़की हो तो सोचा जा सकता है। महिला से कौन बात करे।'
बस करीब चालीस किलोमीटर का सफर तय कर चुकी थी लेकिन दोनों युवकों की बात का विषय अभी बदला नहीं था। एक उत्सुकतावश सवाल पूछे जा रहा था तो दूसरा जवाब देकर ही आनंदित हो रहा था। दोनों युवकों की आगे की सीट पर बैठा मैं यह समूचा वार्तालाप सुनकर तथा महिला व लड़की को लेकर उनकी अलग अलग सोच पर हैरान था।

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