Tuesday, June 14, 2011

इंतहा हो गई....

 मंगलवार दोपहर मतलब 14 जून को टीवी पर एक  चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी। बार-बार टीवी स्क्रीन पर डिस्पले हो रहा था। समाचार था, फिल्म भिंडी बाजार में दर्जी शब्द पर सेंसर ने कैंची चला दी है। किसी जाति विशेष को इंगित करने वाले शब्दों को सेंसर करने का यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले शाहरुख खान की फिल्म बिल्लू बारबर से भी बारबर शब्द हटाया गया था। वैसे फिल्मों से जाति विशेष को दर्शाने वाले शब्द हटाने का इतिहास बेहद पुराना है। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे बिना किसी आपत्ति के ही सेंसर ने अपने स्वविवेक से उस पर कैंची चला दी। वैसे भी फिल्मों में कौन सा नाम जाए और कौनसा नहीं इस पर सेंसर का कोई तय पैमाना नहीं है। फिल्मी इतिहास पर नजर डालें तो निर्माता निर्देशकों की सर्वाधिक पसंद एक दो जाति विशेष ही रही हैं। बार-बार इन्हीं जातियों के पात्रों को खलनायक की भूमिका में पेश किया जाता रहा है। आजादी से लेकर वर्तमान तक हजारों फिल्मों का निर्माण हो चुका है लेकिन अमूमन हर तीसरी या चौथी फिल्म में निर्माताओं को खलनायक की भूमिका के लिए  कुछ जाति विशेष के नाम ही सबसे मुफीद लगते है। जातियों के इस तरह के  प्रस्तुतिकरण को लेकर कई सामाजिक संगठनों ने विरोध भी जताया लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है। आजादी के बाद से ही फिल्म निर्माता जाति विशेष का खलनायक के रूप में जो चेहरा दिखाते हैं, उनके अत्याचार दिखाते हैं, इससे उनका जाति विशेष के खिलाफ पूर्वाग्रह ही ज्यादा झलकता है।
सोचनीय विषय तो यह है कि फिल्मों में ऐसी जातियों का गलत प्रस्तुतिकरण किया  जाता है, जिनके गौरव की गाथा इतिहास का प्रत्येक पन्ना बयां करता हैं। मैं स्वयं भी गलत का समर्थन नहीं करता है। जो गलत है उसका प्रस्तुतिकरण उसी अंदाज में होना चाहिए लेकिन आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था का युग है। इसमें वैसा कुछ होता भी नहीं जो आजादी से पूर्व होता था। मतलब सभी को बराबरी का अधिकार है। बावजूद इसके बार-बार जाति विशेष को खलनायक की भूमिका में ही दर्शाया जाता है। ऐसे मामलों में सेंसर बोर्ड भी चुप है।
बहरहाल, आजादी के छह दशक से ज्यादा समय से गुजरने के बाद भी हमारे फिल्म निर्माताओं को फिल्म कथानक के लिए कोई नया या मौलिक शब्द नहीं सूझे तो  उनको नई बोतल में पुरानी शराब परोसने का खेल बंद कर देना चाहिए। जनता आखिरकार कब वही एक-दो जातियों को बार-बार खलनायकों की भूमिका में सहन करेगी। बर्दाश्त करने की भी कोई सीमा होती है।