Tuesday, August 27, 2013

क्या आज हम शर्मिन्दा नहीं !

टिप्पणी

याद है दिल्ली में दरिंदगी की शिकार हुई 'दामिनी' के प्रति संवेदना जताने के लिए किस कदर होड़ मची थी हम सब में। कोई मोमबत्ती जला रहा था तो कोई जज्बाती स्लोगन लिख रहा था। हम सब अपने-अपने हिसाब से आरोपियों के खिलाफ आग उगल रहे थे। कोई उनके लिए उम्रकैद तो कोई फांसी तक मांग रहा था। और भी पता नहीं कितनी ही तरह की सजा देने की मांग भी उठी थी। इन सब के बीच पुलिस कार्रवाई पर भी कई तरह के सवाल उठाए गए थे। याद कीजिए, यह सब करने वाले भी तो आप और हम ही लोग थे। और आज न तो हम शर्मिन्दा हैं और ना ही शोकाकुल। संवेदनाओं का सैलाब भी लगता है सूख गया है। पीडि़ता की मदद के लिए कोई पहल तो दूर प्रार्थना तक नहीं हैं। बात-बात पर प्रतिक्रिया जाहिर करने और केंडल मार्च निकालने वाले तो पता नहीं कहां भूमिगत हो गए। कथित नारीवादी एवं स्वयंसेवी संगठनों की चुप्पी भी चौंकाने वाली है। मात्र नौ माह के बाद जागरूक एवं शिक्षित लोगों का व्यवहार इतना बदला हुआ सा क्यों है? पता नहीं, आज हम गुस्से से क्यों नहीं उबल रहे? क्या अब यह किसी की अस्मिता का सवाल नहीं रहा? क्या भिलाई की युवती किसी की बेटी या बहन नहीं? क्या भिलाई की 'दामिनी' का दर्द दिल्ली की 'दामिनी' जैसा नहीं? जब हम दिल्ली की 'दामिनी' का 'दर्द' महसूस कर सकते हैं तो अपनी 'दामिनी' के लिए क्यों नहीं? सवाल तो बहुत सारे हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि भिलाई के पावर हाउस रेलवे स्टेशन के पास दरिंदगी की शिकार हुई युवती के समर्थन में इक्का-दुक्का संगठनों को छोड़कर कोई कारगर व सार्थक आवाज उठती दिखाई नहीं दे रही। सब के सब चुप हैं। यह दोहरा चरित्र नहीं तो क्या है। और सरासर भेदभाव भी।
वैसे भी इस मामले में भेदभाव तो कदम-कदम पर दिखाई दे रहा है। पुलिस की जांच तो वैसे ही संदेह के घेरे में है। भिलाई-दुर्ग पुलिस के प्रति शक की सुई तो उसी वक्त घूम गई थी जब उसने सामूहिक अनाचार के आरोपियों को मात्र कुछ ही घंटों के भीतर पकडऩे का दावा तक कर दिया। और उसके बाद जो हुआ वह गले उतरने वाला तो कतई नहीं है। बिल्कुल अविश्वसनीय सा काम। बिना शिनाख्त परेड करवाए आरोपी पकड़ कर न्यायालय में पेश भी कर दिए लेकिन पुलिस उनके नाम बताने से पता नहीं क्यों एवं क्या सोच कर परहेज करती रही। इससे भी दुखद तो यह है कि दिल्ली के 'दामिनी' प्रकरण में पुलिस भूमिका पर सवाल उठानेवाले तथा उसको कोसने वाले लोग अब खामोश हैं। उनकी यह चुप्पी हर लिहाज से खतरनाक है। चाहे वह सामूहिक अनाचार को लेकर हो या पुलिस कार्रवाई पर।
जाहिर सी बात है हम सब की यह चुप्पी अनाचार के दरिंदों के साथ उन सभी का मनोबल भी बढ़ा रही है जो इस मामले को हल्के में ले रहे हैं या रफा-दफा करने के उपक्रम में जुटे हुए हैं। कवि अवतारसिंह पाश ने कहा भी है 'सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना, तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना।' वाकई मुर्दा शांति सबसे खतरनाक है। अगर आज हम चुप बैठे तो यकीन मानिए अगला नम्बर आप या हम में किसी का भी हो सकता है।
साभार - पत्रिका भिलाई के 27 अगस्त 13 के अंक में प्रकाशित। 

Monday, August 5, 2013

फिर भी अधूरी सौगात

(दुर्ग की कहानी, उसी की जुबानी)
 
टिप्पणी
 
मैं दुर्ग हूं, आपका दुर्ग। जरा पहचानिए मुझे आपका जिला दुर्ग। करीब सौ साल से भी अधिक पुराना समृद्ध इतिहास है मेरा। भले ही मेरी स्थापना गुलाम भारत में हुई लेकिन मैंने वो जमाना भी देखा जब यहां के लोगों की नस-नस में राष्ट्र प्रेम का रक्त प्रवाहित होता था। देश के नाम पर जान देने वाले लोग बातों के इतने धनी थे, कि प्राणों की बाजी तक लगा देते लेकिन अपने वचन (बात) पर अडिग रहते थे। उनकी कथनी और करनी में भेद तो कतई नहीं था। वे लोग अपनी नहीं बल्कि समूचे देश की चिंता करते थे। उस दौरान अपने नौनिहालों का जज्बा देखकर गर्व से मेरी छाती चौड़ी हो जाती थी। देश जब आजाद हुआ तो मैंने भी सपने देखे। पहला सपना तो यही कि मेरे नौनिहाल प्रगति करें और साथ में मेरा भी विकास करें। आजादी के करीब 26 साल तक मैं इंतजार करता रहा। इसके बाद राजनांदगांव को यह कहते हुए अलग कर दिया कि मेरा स्वरूप बड़ा है। राजनांदगांव को अलग से जिला बना दिया जाएगा तो विकास बेहतर होगा। इस तरह की दलील देकर और विकास का नाम लेकर मेरा विभाजन कर दिया गया...। मैं यही सोच कर चुप रहा कि मेरे नौनिहाल अपनी जुबान के पक्के हैं, आखिरकार कुछ तो करेंगे। लेकिन क्या हुआ.. मैं क्या बताऊं। आप सब जानते हैं, सब आपके सामने है। मेरे पहले विभाजन के करीब 25 साल बाद फिर राजनांदगांव को तोड़ दिया और एक और नया जिला कवर्धा, जो आजकल कबीरधाम बन गया है, बना दिया गया। समय के साथ जनप्रतिनिधि और नौनिहाल सपने दिखाते रहे कि लेकिन मैं उनकी नासमझी पर हमेशा खामोश ही रहा। हालात एवं वक्त के थपेड़े खाने के बाद मुझे इतना तो यकीन हो गया तो कि मेरे नौनिहाल जरूरत से ज्यादा समझादार हो गए हैं और मेरे टुकड़े करके मेरा विकास नहीं बल्कि खुद का ही उल्लू सीधा कर रहे हैं। अगर भिलाई के टाउनशिप को छोड़कर बाकी दुर्ग जिले की बात करें तो आज भी यहां के आम लोग बुनियादी सुविधाओं को तरस रहे हैं। बिजली, पानी एवं सड़क तक ठीक से मुहैया नहीं हो पाए हैं लोगों को। लेकिन फिर विकास के नाम पर पिछले साल मेरे टुकड़े कर दिए गए। मेरे हिस्से से अलग कर बालोद एवं बेमेतरा नए जिले बना दिए गए। इस तरह कभी सबसे बड़े जिले का गौरव हासिल करने के बाद मेरा क्षेत्रफल अब बेहद छोटा हो गया। बालोद एवं बेमेतरा लोग भी विकास के सब्जबाग को देखकर राजी हो गए लेकिन हकीकत क्या है वे खुद बेहतर जानते हैं। बिना कोई संसाधन जुटाए जनप्रतिनिधियों ने महज अपने फायदे के लिए मेरे टुकड़े कर दिए। मैं पूछता हूं जब टुकड़े करने के बाद भी विकास नहीं हो रहा है तो फिर कब होगा।
अब मुझे संभाग बनाने की बात कही जा रहा है। मेरे नौनिहाल इसके लिए भी लम्बे समय से प्रयास कर रहे थे। लेकिन जनप्रतिनिधियों की यह समझदारी अब मुझे बोलने पर मजबूर कर रही है। आखिर क्या वजह है कि संभाग बनाने का यह ख्याल ऐन चुनाव के वक्त ही जेहन में आया। मांग तो लम्बे समय से उठ रही थी। जाहिर सी बात है चुनाव नजदीक हैं और फायदा लेना है तो नियम कायदों को दरकिनार किया जा रहा है। मैं संभाग का दर्जा देने की घोषणा करने वालों से पूछता हूं कि पिछले दस साल से तो सत्ता की चाबी उनके ही हाथों में थी। जिम्मेदारी के पदों पर आप ही काबिज थे तो यह नेक ख्याल अब क्यों?। विकास, विकास, विकास.. मेरे कान पक चुके हैं यह शब्द सुनते-सुनते लेकिन विकास कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। बहुत हो चुकी सियासत। बहुल लाभ ले लिया गया मेरे नाम से। मेरे टुकड़े कर के। अब संभाग बनाने का फैसला तो लिया जा रहा है लेकिन वह भी बिना संसाधन के ही। आयुक्त दफ्तर के लिए भी जुगाड़ किया जा रहा है। सुना है हिन्दी भवन में संभाग कार्यालय होगा। जनप्रतिनिधियों, तुमको विकास के नाम पर टुकड़े करने तथा संभाग बनाने से होने वाले नफा-नुकसान का आकलन करना बखूबी आता है लेकिन आपसे करबद्ध अनुरोध है कि मेरे नाम पर अब राजनीति ना करें। बहुत हो चुका यह सब..। अब आप विकास कीजिए.. ताकि मेरा और निरीह जनता का कुछ तो भला हो सके।

साभार - पत्रिका भिलाई के 5 अगस्त 13 के अंक में प्रकाशित।