Friday, July 13, 2012

अपनै आप नं दारासिंह समझै है के....

 रुस्तम-ए-हिन्द दारासिंह के निधन का समाचार गुरुवार सुबह ही मिल गया था। टीवी एवं सोशल साइट्‌स पर दिन भर दारासिंह के निधन तथा उनसे जड़े किस्सों एवं संस्मरणों पर आधारित खबरों का बोलबाला रहा। शुक्रवार सुबह प्रिट मीडिया में भी दारासिंह ही छाए हुए थे। अधिकतर समाचार पत्रों में उनके निधन के समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। कई समाचार-पत्रों में तो अतिरिक्त पेज भी दिए गए। वे इसके हकदार भी थे, क्योंकि दारासिंह का जुड़ाव देश के लगभग हर छोटे- बड़े शहरों से रहा। कुश्ती के कारण देश में वे कई जगह घूमे थे। लिहाजा, अलग-अलग जगह पर समाचार-पत्रों में उनके अलग-अलग संस्मरण प्रकाशित हुए हैं। किसी ने दारासिंह के पहलवानी के पक्ष को रेखांकित किया तो किसी ने उनके राजनीतिक जीवन को। सर्वाधिक फोकस उनके रामायण धारावाहिक में निभाए गए हनुमान के किरदार को किया गया। कई समाचार-पत्रों ने इनके इस किरदार को अपने शीर्षकों में भी शामिल किया है। मसलन, राम के हुए हनुमान, राम के पास पहुंचे  हमारे हनुमान, राम के पास गए हनुमान आदि। लब्बोलुआब यह है कि निधन के कवरेज में दारासिंह के मूल काम के बजाय उनके हनुमान के किरदार को ज्यादा प्राथमिकता दी गई। दारासिंह मूल रूप से पहलवान थे और अपनी इसी खूबी और मजबूत कद काठी की बदौलत ही वे फिल्मों में आए। संभवत उनकी शारीरिक बनावट को देखकर ही रामायण में हनुमान का किरदार मिला। हनुमान के किरदार निभाने के कारण ही उनका राज्यसभा जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस प्रकार दारासिंह ने पहलवानी के अलावा अभिनेता एवं राजनेता दोनों  ही किरदार बखूबी निभाए।
फिलहाल बहस का विषय यह है कि दारासिंह को पहलवान के रूप में ज्यादा प्रसिद्धि मिली या फिर हनुमान का किरदार निभाने से। प्रसिद्धि का पैमाना क्या रहा है, यह सब लोगों ने टीवी, सोशल साइट एवं समाचार पत्रों के अवलोकन से लगा लिया होगा। अधिकतर जगह यही लिखा गया है कि उनको प्रसिद्धि हनुमान के किरदार से ज्यादा मिली। कुछ हद तक तक यह बात सही भी होगी लेकिन मैं इससे पूर्णतया सहमत नहीं है। मेरा मानना है कि दारासिंह को लोग हनुमान से पहले पहलवान के रूप में ही जानते थे। पहलवान रहते हुए दारासिंह ने वह काम कर दिखाया था जो किसी परिचय का मोहताज नहीं था। वह भी ऐसे दौर में जब न तो सोशल साइट्‌स थी और ना ही अखबारों का  जोर। टीवी भी उस वक्त गिने-चुने घरों की शान हुआ करते थे। विशेषकर शेखावाटी में दारासिंह की पहलवानी से जुड़ी एक लोकोक्ति प्रचलन में है। बचपन से इसको सुनते आए हैं और अब भी सुन रहे हैं। रामायण धारावाहिक तो 1987 में आया लेकिन लोकोक्ति इससे काफी पहले से बोली एवं सुनी जा रही है। दारासिंह से संबंधित से यह लोकोक्ति उर्फ जुमला बचपन में न केवल सुना है बल्कि कई बार बोला है। आज भी गाहे-बगाहे इस प्रयोग कर ही लिया जाता है। यह जुमला है अपनै आप नं दारासिंह समझै है के....। शेखावाटी में यह जुमला उस वक्त प्रयोग किया जाता है तब दो पक्षों के बीच नोकझोंक होती है और बात कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा यह जुमला उस वक्त भी बोला जाता है जब कोई बच्चा शरारत करता है। कहने का अर्थ यह है दादागिरी दिखाने वाले को भी इस जुमले से पुकारा जाता है। शेखावाटी में इस जुमले का प्रयोग सिर्फ बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी करते हैं। हमारे गांव में तो एक युवक का नाम इसलिए दारासिंह रख दिया गया, क्योंकि उसने एक तेज धमाके वाले पटाखे को हाथ में ले लिया था। संयोग से वह पटाखा हाथ में लेने के बाद फट गया और वह युवक गांव के युवाओं की नजर में बहादुर मतलब दारासिंह हो गया। गांव में आज भी उस युवक को मूल नाम से कम और दारासिंह के नाम से ज्यादा जाना जाता है। 
कहने का मतलब यह है कि दारासिंह मूल रूप से पहलवान थे। उनकी पहचान उनकी ताकत थी। यह बात और है कि हनुमान के किरदार ने उनकी लोकप्रियता को और बढ़ाया। आज दारासिंह हमारे बीच में नहीं है। भले ही हम उनकी अलग-अलग कामों के लिए चर्चा करें लेकिन उनका सबसे मजबूत पक्ष अभिनेता या नेता न होकर  पहलवानी ही था। उनकी ताकत ही उनकी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण थी। 1947 से 1983 तक दारासिंह ने विभिन्न कुश्ती प्रतियोगिताओं में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने पांच सौ पहलवानों को धूल चटाई। दारासिंह आज हमारे बीच से चले गए हैं लेकिन उनसे संबंधित जुमला लोगों की जुबान पर है और रहेगा। रुस्तम-ए-हिन्द को मेरा शत-शत नमन।

दोहरा चरित्र !


टिप्पणी

विडम्बना देखिए कि भिलाई के शांतिनगर एवं मॉडल टाउन के लोग वैधता के लिए जनप्रतिनिधियों एवं निगम अधिकारियों के यहां लगातार चक्कर लगा रहे हैं लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। दोनों ही कॉलोनियों को वैधता तीन माह पहले दी जा चुकी है, लेकिन अभी तक विकास शुल्क निर्धारित नहीं किया गया है। नगर निगम की सामान्य सभा भले ही दो दिन चली हो लेकिन इस मसले पर कोई फैसला तो दूर चर्चा तक नहीं हुई। किसी ने बात कहने की कोशिश भी की तो हो हल्ला कर मामले को बहुमत के जोर पर दबा दिया गया। खैर, यह सामान्य सभा का एक पक्ष था। अब इसी सामान्य सभा का दूसरा पक्ष देखिए। वार्ड 24 में साप्ताहिक बाजार लगे या नहीं इस बात को लेकर मामला अदालत में विचाराधीन है। इसके बावजूद इसका प्रस्ताव सामान्य सभा में रखा गया। सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे की तर्ज पर इस प्रस्ताव पर मतदान करवाने की रस्म अदायगी भी गई ताकि भविष्य में किसी प्रकार के शिकवा-शिकायत की कोई गुंजाइश ही नहीं रहे। सदन में बहुमत कांग्रेस का है, चाहते तो प्रस्ताव वैसे ही पास हो जाता है लेकिन मतदान को आधार बनाकर यह संदेश दिया गया कि साप्ताहिक बाजार वार्ड 24 में ही लगना चाहिए। वैसे साप्ताहिक बाजार को लेकर प्रस्ताव पारित करने में जल्दबाजी दिखाना कई सवालों को जन्म देता है। आखिर ऐसी क्या वजह है कि अदालत के निर्णय का इंतजार किए बिना ही प्रस्ताव पारित कर दिया गया।
उक्त दोनों मामले यह साबित करते हैं कि जनहित से जुड़े मसलों  को लेकर हमारे जनप्रतिनिधि बिलकुल भी संजीदा नहीं है। ऐन-केन-प्रकारेण उनका ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि उनको अधिकाधिक निजी लाभ कैसे हासिल किया जाए। स्वाभाविक सी बात है, मामला जब निजी लाभ या व्यक्तिगत स्वार्थों से जुड़ा होगा तो हो-हल्ला होना भी लाजिमी है। जब इस प्रकार के विवादों से नाता रखने वाले प्रस्ताव पारित हुए तो जमीर की आवाज पर काम करने वाले कुछ जनप्रनिधियों के लिए यह सब सहन करना बर्दाश्त से बाहर हो गया। वे झगड़े पर उतारू हो गए। तोडफ़ोड़ करने लगे, लेकिन उनका ऐसा करना भी तो उचित नहीं है। लोकतंत्र में अपनी बात रखने के कई माध्यम हैं। लोकतांत्रिक एवं गांधीवादी तरीके से भी अपनी बात रखी जा सकती है। इस प्रकार के हथकंडे अपनाकर चर्चा में बना जा सकता है लेकिन लोकप्रिय नहीं। यह सब महज सस्ती लोकप्रियता हासिल करने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। कानून हाथ में लेकर हाथापाई करना, तोड़फोड़ करना, सरकारी सम्पति को नुकसान पहुंचाना, सदन का कीमती समय जाया करना किसी भी कीमत पर उचित नहीं हैं। सदन की अपनी मर्यादा है, अपनी गरिमा हैं। उसकी मर्यादा एवं गरिमा का ख्याल रखना जनप्रतिनिधियों का फर्ज है, लेकिन भिलाई नगर निगम में मर्यादा एवं गरिमा को तार-तार करना जनप्रतिनिधियों का एक सूत्री कार्यक्रम हो गया। वाहवाही लूटने के लिए हंगामा करने का रिवाज सा बन गया है। जनप्रतिनिधियों द्वारा नैतिक दायित्य का निर्वहन करना तो बिलकुल बेमानी हो गया है। शांतिपूर्वक चर्चा करना तो वे अपनी शान के खिलाफ समझने लगे हैं।
बहरहाल, जनप्रतिनिधियों को यह तय करना लेना चाहिए कि उनके लिए शहर का विकास सर्वोपरि है। इसमें किसी तरह का राजनीति करना या हंगामा खड़ा करना उचित नहीं है। तात्कालिक या निजी लाभ के लिए जनहित से जुड़े मुद्‌दों को नजरअंदाज करना न्यायसंगत नहीं है। शहरहित एवं जनहित में राजनीति का हस्तक्षेप ना तो ही बेहतर है। सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना भी सही नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए हमारे जनप्रतिनिधि पिछले सारे दुराग्रह व पूर्वाग्रह भुला कर विकास के मामलों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाएंगे। अगर ऐसा नहीं कर पाए तो सिर-आंखों पर बैठाने वाली जनता दूसरा रास्ता भी दिखा सकती है, इतिहास गवाह है। जनप्रतिनिधियों को उससे कुछ सबक या सीख जरूरी लेना चाहिए।

साभार : पत्रिका भिलाई के 13 जुलाई 12  के अंक में प्रकाशित।