रुस्तम-ए-हिन्द
दारासिंह के निधन का समाचार गुरुवार सुबह ही मिल गया था। टीवी एवं सोशल
साइट्स पर दिन भर दारासिंह के निधन तथा उनसे जड़े किस्सों एवं संस्मरणों पर
आधारित खबरों का बोलबाला रहा। शुक्रवार सुबह प्रिट मीडिया में भी
दारासिंह ही छाए हुए थे। अधिकतर समाचार पत्रों में उनके निधन के समाचार को
प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। कई समाचार-पत्रों में तो अतिरिक्त पेज भी
दिए गए। वे इसके हकदार भी थे, क्योंकि दारासिंह का जुड़ाव देश के लगभग हर
छोटे- बड़े शहरों से रहा। कुश्ती के कारण देश में वे कई जगह घूमे थे। लिहाजा,
अलग-अलग जगह पर समाचार-पत्रों में उनके अलग-अलग संस्मरण प्रकाशित हुए हैं।
किसी ने दारासिंह के पहलवानी के पक्ष को रेखांकित किया तो किसी ने उनके
राजनीतिक जीवन को। सर्वाधिक फोकस उनके रामायण धारावाहिक में निभाए गए
हनुमान के किरदार को किया गया। कई समाचार-पत्रों ने इनके इस किरदार को
अपने शीर्षकों में भी शामिल किया है। मसलन, राम के हुए हनुमान, राम के पास पहुंचे हमारे हनुमान, राम के पास गए हनुमान आदि। लब्बोलुआब यह है कि
निधन के कवरेज में दारासिंह के मूल काम के बजाय उनके हनुमान के किरदार को ज्यादा प्राथमिकता
दी गई। दारासिंह मूल रूप से पहलवान थे और अपनी इसी खूबी और मजबूत कद काठी
की बदौलत ही वे फिल्मों में आए। संभवत उनकी शारीरिक बनावट को देखकर ही
रामायण में हनुमान का किरदार मिला। हनुमान के किरदार निभाने के कारण ही
उनका राज्यसभा जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस प्रकार दारासिंह ने पहलवानी
के अलावा अभिनेता एवं राजनेता दोनों ही
किरदार बखूबी निभाए।
फिलहाल बहस का विषय यह है कि दारासिंह को पहलवान के रूप में ज्यादा प्रसिद्धि मिली या फिर हनुमान का किरदार निभाने से। प्रसिद्धि का पैमाना क्या रहा है, यह सब लोगों ने टीवी, सोशल साइट एवं समाचार पत्रों के अवलोकन से लगा लिया होगा। अधिकतर जगह यही लिखा गया है कि उनको प्रसिद्धि हनुमान के किरदार से ज्यादा मिली। कुछ हद तक तक यह बात सही भी होगी लेकिन मैं इससे पूर्णतया सहमत नहीं है। मेरा मानना है कि दारासिंह को लोग हनुमान से पहले पहलवान के रूप में ही जानते थे। पहलवान रहते हुए दारासिंह ने वह काम कर दिखाया था जो किसी परिचय का मोहताज नहीं था। वह भी ऐसे दौर में जब न तो सोशल साइट्स थी और ना ही अखबारों का जोर। टीवी भी उस वक्त गिने-चुने घरों की शान हुआ करते थे। विशेषकर शेखावाटी में दारासिंह की पहलवानी से जुड़ी एक लोकोक्ति प्रचलन में है। बचपन से इसको सुनते आए हैं और अब भी सुन रहे हैं। रामायण धारावाहिक तो 1987 में आया लेकिन लोकोक्ति इससे काफी पहले से बोली एवं सुनी जा रही है। दारासिंह से संबंधित से यह लोकोक्ति उर्फ जुमला बचपन में न केवल सुना है बल्कि कई बार बोला है। आज भी गाहे-बगाहे इस प्रयोग कर ही लिया जाता है। यह जुमला है अपनै आप नं दारासिंह समझै है के....। शेखावाटी में यह जुमला उस वक्त प्रयोग किया जाता है तब दो पक्षों के बीच नोकझोंक होती है और बात कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा यह जुमला उस वक्त भी बोला जाता है जब कोई बच्चा शरारत करता है। कहने का अर्थ यह है दादागिरी दिखाने वाले को भी इस जुमले से पुकारा जाता है। शेखावाटी में इस जुमले का प्रयोग सिर्फ बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी करते हैं। हमारे गांव में तो एक युवक का नाम इसलिए दारासिंह रख दिया गया, क्योंकि उसने एक तेज धमाके वाले पटाखे को हाथ में ले लिया था। संयोग से वह पटाखा हाथ में लेने के बाद फट गया और वह युवक गांव के युवाओं की नजर में बहादुर मतलब दारासिंह हो गया। गांव में आज भी उस युवक को मूल नाम से कम और दारासिंह के नाम से ज्यादा जाना जाता है।
पहलवानी
फिलहाल बहस का विषय यह है कि दारासिंह को पहलवान के रूप में ज्यादा प्रसिद्धि मिली या फिर हनुमान का किरदार निभाने से। प्रसिद्धि का पैमाना क्या रहा है, यह सब लोगों ने टीवी, सोशल साइट एवं समाचार पत्रों के अवलोकन से लगा लिया होगा। अधिकतर जगह यही लिखा गया है कि उनको प्रसिद्धि हनुमान के किरदार से ज्यादा मिली। कुछ हद तक तक यह बात सही भी होगी लेकिन मैं इससे पूर्णतया सहमत नहीं है। मेरा मानना है कि दारासिंह को लोग हनुमान से पहले पहलवान के रूप में ही जानते थे। पहलवान रहते हुए दारासिंह ने वह काम कर दिखाया था जो किसी परिचय का मोहताज नहीं था। वह भी ऐसे दौर में जब न तो सोशल साइट्स थी और ना ही अखबारों का जोर। टीवी भी उस वक्त गिने-चुने घरों की शान हुआ करते थे। विशेषकर शेखावाटी में दारासिंह की पहलवानी से जुड़ी एक लोकोक्ति प्रचलन में है। बचपन से इसको सुनते आए हैं और अब भी सुन रहे हैं। रामायण धारावाहिक तो 1987 में आया लेकिन लोकोक्ति इससे काफी पहले से बोली एवं सुनी जा रही है। दारासिंह से संबंधित से यह लोकोक्ति उर्फ जुमला बचपन में न केवल सुना है बल्कि कई बार बोला है। आज भी गाहे-बगाहे इस प्रयोग कर ही लिया जाता है। यह जुमला है अपनै आप नं दारासिंह समझै है के....। शेखावाटी में यह जुमला उस वक्त प्रयोग किया जाता है तब दो पक्षों के बीच नोकझोंक होती है और बात कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा यह जुमला उस वक्त भी बोला जाता है जब कोई बच्चा शरारत करता है। कहने का अर्थ यह है दादागिरी दिखाने वाले को भी इस जुमले से पुकारा जाता है। शेखावाटी में इस जुमले का प्रयोग सिर्फ बच्चे ही नहीं बल्कि बड़े भी करते हैं। हमारे गांव में तो एक युवक का नाम इसलिए दारासिंह रख दिया गया, क्योंकि उसने एक तेज धमाके वाले पटाखे को हाथ में ले लिया था। संयोग से वह पटाखा हाथ में लेने के बाद फट गया और वह युवक गांव के युवाओं की नजर में बहादुर मतलब दारासिंह हो गया। गांव में आज भी उस युवक को मूल नाम से कम और दारासिंह के नाम से ज्यादा जाना जाता है।
पहलवानी
बात तो चोखी कही। दारा सिंग ताकत का पर्याय थे।
ReplyDeleteसदी के महानायक को विन्रम श्रद्धांजलि
शुक्रिया ललित जी।
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