Monday, October 3, 2011

नई परम्परा का आगाज

टिप्पणी
लम्बी जद्‌दोजहद एवं कशमकश के बाद आखिरकार शहर में दूध के भाव तय हो गए हैं। इसी के साथ करीब सप्ताहभर से चल रहे दूध के दंगल का भी पटाक्षेप हो गया। दूध उत्पादक संघ व डेयरी व्यवसायियों के बीच सहमति के बाद अब आम उपभोक्ताओं को दूध 32 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से मिलेगा। नई दरें तय करने के मामले में दोनों पक्षों को ही झुकना पड़ा। अपनी-अपनी मांगों एवं शर्तों से समझौता करना पड़ा। वैसे भी इस प्रकार के मामलों में समझौते या सहमति की बुनियाद भी तभी संभव है, जब दोनों पक्ष बराबर झुकें। इधर प्रशासन ने देर आयद, दुरुस्त आयद वाली कहावत चरितार्थ करते हुए दूध के दाम तय करने में न केवल प्रमुख भूमिका निभाई बल्कि भविष्य के लिए नई इबारत भी लिख दी। नई बात यह है कि प्रशासन के हस्तक्षेप से बिलासपुर में पहली बार दूध के दाम तय हुए वो भी लिखित में, वरना अभी तक मनमर्जी से ही भाव बढ़ रहे थे। कोई रोकने या टोकने वाला नहीं था। प्रशासन की इस पहल से एक नई परम्परा का आगाज हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए इस परम्परा का लाभ उपभोक्ताओं को कालांतर में भी मिलता रहेगा। सबसे अहम बात यह भी रही कि आम उपभोक्ताओं से जुडे़ इस मामले में 'पत्रिका' ने शुरू से लेकर आखिर तक सजग प्रहरी की भूमिका निभाई। इसका नतीजा यह निकला कि शुरू में मूल्यवृद्धि का समर्थन करने वाला 'एक खास वर्ग' भी अंततः 'पत्रिका' के सुर में सुर मिलाता दिखाई दिया। जनप्रतिनिधि एवं स्वयंसेवी संगठनों ने तो इस मामले में अंत तक चुप्पी ही साधे रखी। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि गाहे-बगाहे मतदाताओं के दुख-दर्द में शामिल होने का दम भरने वालेकिसी भी दल के जनप्रतिनिधि ने इस मूल्यवृद्धि के विरोध में एक शब्द तक नहीं कहा। इस बात को उपभोक्ताओं ने महसूस भी किया होगा।
खैर, दूध की नई दरें तय होने से उपभोक्ताओं को कुछ तो राहत मिली ही है, मनमर्जी से कीमतें तय करने वालों को भी अपनी औकात का अंदाजा हो गया होगा। उनको यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई होगी कि सार्वजनिक हित के आगे और सारे हित गौण क्यों हैं। मांगें जबरिया मनवाने का उपक्रम करने वालों को इस बात का अंदाजा भी हो गया कि महापुरुषों की प्रतिमाओं का दूध से अभिषेक करने तथा अरपा नहीं में दूध प्रवाहित करना किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। यह दूध का अपमान है। इस प्रकार के उपक्रमों से ध्यान जरूर बंटाया जा सकता है लेकिन मागें मान ली जाएं यह जरूरी तो नहीं।
बहरहाल, दूध की कीमतें नए सिरे तय होने के बाद सवाल उसकी गुणवत्ता का है। प्रशासन ने गुणवत्ता के मामले में समझौता करने वालों के पर कुतरने की कोशिश तो जरूर की है लेकिन उसमें भी स्पष्ट दिशा-निर्देश और सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दूध की थोक में खरीदी के मामले  गुणवत्ता की बात कहने वाला प्रशासन, आम उपभोक्ताओं के मामले में भी गंभीरता से विचार करेगा। जिस गुणवत्ता का दूध थोक में खरीदा जा रहा है, ठीक वैसा ही आम उपभोक्ता तक भी पहुंचे, तभी  जिला प्रशासन की इस पहल का सही अर्थों में लाभ मिलेगा। भले ही दूध की गुणवत्ता के लिए कोई अभियान ही क्यों न चलाना पड़े। वैसे भी कीमत का असर जेब पर पड़ता है लेकिन गुणवत्ता से खिलवाड़ तो सरासर स्वास्थ्य से खिलवाड़ है। तभी तो गुणवत्ता  मूल्यवृद्धि से भी बड़ा विषय है, इसलिए जितनी गंभीरता एवं तत्परता दरें तय करने में दिखाई गई, उतनी ही सजगता गुणवत्ता के मामले में भी दिखानी होगी। यह काम प्रशासन के लिए चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन असंभव तो बिलकुल नहीं।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के  03 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।