Friday, February 24, 2012

चेतावनी से नहीं बनेगी बात

टिप्पणी

बिलासपुर की बदहाल यातायात व्यवस्था पर माननीय हाईकोर्टकी ओर से लगाई गई फटकार के बाद यातायात पुलिस एवं जिला परिवाहन अधिकारी इन दिनों हरकत में आए हुए हैं। यातायात पुलिस का जोर जहां वाहनों की जब्ती पर है, वहीं जिला परिवहन अधिकारी अभी भी कागजी घोड़े ही दौड़ा रहे हैं। कार्रवाई के नाम पर रोजाना प्रेस विज्ञप्ति जारी कर वाहन चालकों को चेतावनी पर चेतावनी दी जा रही है। चेतावनी का असर वाहन चालकों पर कितना हो रहा है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अगर चेतावनी के माध्यम से ही बदहाल यातायात व्यवस्था पटरी पर आ जाती तो बार-बार माननीय हाईकोर्ट से फटकार नहीं लगती। हालत यह हैकि  करीब तीन माह से ज्यादा समय से लगातार फटकार लग रही हैलेकिन यातायात व्यवस्था में सुधार दिखाईनहीं दे रहा है। तभी तो माननीय हाईकोर्ट ने मामले को गंभीरता से लिया और आरटीओ एवं यातायात डीएसपी को अवमानना नोटिस जारी करते हुए कहा हैकि दो हफ्ते में व्यवस्था सुधरनी चाहिए नहीं तो दोनों के खिलाफ अवमानना की कार्रवाईहोगी।
आलम देखिए कल तक हाथ पर हाथ धरे बैठे अधिकारियों को अब वह सब याद आ रहा है, जो रोजमर्रा की कार्रवाई की हिस्सा है। एक ही नम्बर की कईगाड़ियां शहर में दौड़ रही हैं। अधिकतर ऑटो रिक्शा का बिना परमिट के संचालन हो रहा है। कृषि कार्य में उपयोग किए जाने वाली ट्रैक्टर-ट्रालियां भी बेखौफ चल रही हैं। टाटा मैजिक वाहन शहर के अंदर न केवल आसानी से आ जा रहे हैं बल्कि सवारियां भी ढो रहे हैं। एक ही नम्बर के वाहन मिलने के मामले में कार्रवाई के नाम पर आरटीओ ने वाहन डीलरों को चेतावनी जारी कर औपचारिकता निभा दी। इतना ही नहीं बसों में किराया सूची लगाने की बात भी जागरूक लोग समय-समय पर उठाते रहे हैं लेकिन कार्रवाईनहीं हुई। अब परमिट क्रमांक, वैधता, मार्ग का नाम, समय सारिणी, फिटनेस प्रमाण पत्र की वैधता के लिए दिशा-निर्देश जारी हो रहे हैं। बसों में  किराया सूची चस्पा करने, शिकायत पुस्तिका रखने, बस स्टैण्ड पर अनावश्यक रूप से बसें खड़े ना करने, परमिट में दर्जसमय से आधे घंटे से पूर्व ही स्टैण्ड पर खड़ी करने तथा नो पार्किंग में बसें न खडी करने जैसी बातें भी अब याद आ रही हैं।
बहरहाल, यातायात व्यवस्था को पटरी पर लाने में जोर इसलिए भी आ रहा हैक्योंकि इस प्रकार के हालात पैदा होने के पीछे वाहन चालकों के साथ-साथ दोनों विभाग भी जिम्मेदार हैं। जितनी तत्परता अब दिखाईजा रही है, उतनी शुरू से दिखाई जाती तो यह हालात ही नहीं बनते। कानून तोड़ने वालों पर चेतावनी का असर इसलिए भी नहीं हो रहा है, क्योंकि बचाव के रास्ते भी इन विभागों के द्वारा ही तैयार किए गए हैं। इसीलिए तो विभागों की सरपरस्ती पाए लोग चेतावनी को महज गीदड़ भभकी ही मान रहे हैं। ऐसे लोग तभी लाइन पर आएंगे जब कार्रवाई का डंडा समान रूप से सख्ती के साथ चलेगा। चेतावनी देने तथा दिशा-निर्देश जारी करने का खेल बहुत हो चुका है। इनका हश्र भी सबने देखा है। अब चेतावनी से बात नहीं बनने वाली। मानननीय हाईकोर्टका आशय भी शायद यही है कि दोनों विभाग कार्रवाई के परम्परागत ढर्रे को तोड़ते हुए कुछ ऐतिहासिक काम करें, तभी कुछ हो सकता है। देखा यह गया हैकि शहर में समस्या के समाधान के लिए बैठकें तो खूब होती हैं। सुझाव लिए जाते हैं। कार्रवाई के नाम पर दिशा-निर्देश भी जारी हो जाते हैं लेकिन बात इससे आगे नहीं बढती। ऐसे कईउदाहरण हैं। मौजूदा हालात में यह जरूरी हो गया हैकि बात चेतावनी से आगे बढ़े। दोनों विभाग ऐसा कुछ कर पाए तो ही व्यवस्था में सुधार होगा।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 24 फरवरी 12  के अंक में प्रकाशित




Monday, February 20, 2012

आमजन की भी सुनिए...

हमारी पीड़ा

हम बिलासपुर के लोग इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। एक ऐसा अजीब सा दौर जहां हमारी पीड़ा सुनने वाला, हमारे आंसू पोंछने वाला दूर तलक कोई नजर नहीं आता। आम लोगों के लिए किसी के पास फुर्सत ही नहीं है। सांप छछूंदर जैसी हालत हो गई हमारी। ना खाते बन रहा है, ना निगलते। ना कहीं रो सकते हैं और ना ही खुलकर हंस सकते हैं। दोष किसको दें। हम अपने कर्मों की सजा ही तो भोग रहे हैं। हमने जो बोया उसका फल पा रहे हैं। यह हमारा और इस शहर का दुर्भाग्य हैकि यहां जनप्रतिनिधि और अधिकारी दोनों एक जैसे हैं। कोई काम करना ही नहीं चाहता। जनप्रतिनिधियों को तो हमसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया। जरूरत के समय तो पता नहीं कैसे-कैसे वादे कर रहे थे। सपने दिखा रहे थे। विकास की गंगा बहा रहे थे। और भी न जाने क्या-क्या सब्ज बाग दिखाए। हम सीधे एवं सहज लोग उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गए।  ऐसा हम हर बार करते हैं। लगातार परेशान होते रहते हैं। मन ही मन में व्यवस्था बदलने की सोचते हैं, लेकिन फैसले की घड़ी में हम गलती कर बैठते हैं। ऐसा हम लम्बे समय से करते आ रहे हैं। तभी तो हमारे जनप्रतिनिधियों की कार्यप्रणाली का असर हमारे अधिकारियों पर भी पड़ रहा है। या यूं कहे कि जनप्रतिनिधियों की आदतें अधिकारियों में भी घर कर गई हैं।
बिलासपुर आने वाले अधिकारियों को पता नहीं क्या हो जाता है। आमजन के काम, उनकी दिक्कतें उनको नजर ही नहीं आती हैं। पद का इतना गरुर है कि आंख खुलती ही नहीं है। एक अजीब सी नींद में गाफिल नजर आते हैं। खुद से कोई काम कभी सूझता ही नहीं है। हां, एक काम करना इनको बखूबी आता है, जिसमें इनको महारत हासिल हो गई है। जनप्रतिनिधियों के इशारे पर इधर-उधर करना या जोड़-तोड़ का समीकरण बैठाने का काम हंसते-हंसते करना यह लोग परम कर्तव्य समझते हैं। जनप्रतिनिधियों की जी हजूरी करना वे अपना परम सौभाग्य मानते हैं। ऐसा लगता है सेवक जनता के न होकर जनप्रतिनिधियों के हैं। जनप्रतिनिधि जो कहते हैं, अधिकारी वैसा ही करते  हैं। कठपुतली की तरह उनके इशारों पर नाचते हैं। अधिकारियों के भाग्य विधाता आजकल जनप्रतिनिधि ही बने हुए हैं लिहाजा, आम आदमी से उनको कोई सरोकार नहीं है। जनप्रतिनिधियों को खुश कैसे रखा जाए, अधिकारियों का दिन इसी उधेड़बुन में ही बीतता है।
बहरहाल, बिलासपुर के अधिकारी कैसे हैं तथा उनके काम करने का तरीका कैसा है, यह बात वे लोग बेहतर जानते हैं जिनका अधिकारियों से वास्ता पड़ चुका है। नर्मदानगर एवं गुरुनानक चौक का उदाहरण ही देख लें। नर्मदानगर में हमारे साथी कई दिनों से सामुदायिक भवन में देर रात बजने वाले डीजे, लाउडस्पीकरों एवं पटाखों से परेशान हैं। अपनी पीड़ा को लेकर यह लोग कहां-कहां तक नहीं गए, लेकिन अधिकारियों के कानों पर जूं तक नही रेंग रही। कमोबेश ऐसा ही मामला गुरुनानक चौक का है। यातायात को व्यवस्थित करने के लिए सिख समाज ने गुरुनानक देव के प्रतीक चिन्ह को चौराहे से हटाकर सडक़ किनारे स्थापित करने करने के लिए सहमति प्रदान की। चार साल पूर्व चौक को तोडक़र प्रतीक चिन्ह को सडक़ किनारे समारोहपूर्वक स्थापित किया गया। सहर्ष एवं शहर के हित में निर्णय लेने वाले सिख समाज के लोग इन दिनों अधिकारियों की उदासीनता से काफी आक्रोशित हैं। चौक बदहाल हो गया है। ऑटो स्टैण्ड में तब्दील हो चुका है। नर्मदानगर एवं गुरुनानक चौक जैसे मामले शहर में दर्जनों हैं। समस्याओं से त्रस्त लोग पुकार रहे हैं लेकिन जनप्रतिनिधि एवं अधिकारी उनको अनसुना कर रहे हैं। आलम यह हो गया है कि छोटी-छोटी बातों तक के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। बदहाल यातायात व्यवस्था हो, चाहे शहर की टूटी फूटी सडक़ें। अधिकारी तभी हरकत में आते हैं जब न्यायालय का डंडा चलता है। अंततः घूम फिर कर सवाल वही उठता है कि आम आदमी को बुनियादी सुविधाओं में सुधार के लिए न्यायालय की शरण में जाना पड़े तो फिर अधिकारियों को जनसेवक कहना कहां तक उचित है। हां इतना जरूर हैकि हमारे जनप्रतिनिधियों की तरह अधिकारी एक काम तो आसानी कर लेते हैं, वह है बयान देने का। जनप्रतिनिधि भाषणों के माध्यम  विकास की गंगा बहाते हैं तो अधिकारी बैठकों में दिशा-निर्देश जारी कर ऐसा समझते हैं मानो काम हो ही गया।
बहरहाल, बयानों के इस शोर में जनता की पुकार दब रही है। एक बार हाथ आया मौका गंवा देने की सजा उसे पांच साल भोगनी पड़ती है, क्योंकि बाद में उसके हाथ में कुछ बचता नहीं है। फिर भी इस प्रकार की उदासीनता लम्बे समय तक उचित नहीं है। जनता जनार्दन सिर-आंखों पर बैठाना जानती है तो नीचे उतारने में भी देर नहीं लगाती। देर है तो बस एकजुट होने की। अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों को समय रहते चेत जाना चाहिए। समय की नजाकत को भांप लेना चाहिए। 

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 20 फरवरी 12 के अंक में प्रकाशित।


Tuesday, February 14, 2012

इन धमाकों को सुनिए!

टिप्पणी 

श्रीमान, राहुल शर्मा
पुलिस अधीक्षक, बिलासपुर।

आपको बिलासपुर जिले का कार्यभार संभाले हुए एक माह से ज्यादा समय हो गया है। इस अवधि में आपको शहर की सूरत एवं सीरत का अंदाजा तो भली भांति हो गया होगा। वैसे भी किसी अधिकारी के लिए शहर को समझने के लिए एक माह का समय कम नहीं होता है। चूंकि आप नए हैं, सभी की नजरें भी आप पर ही हैं, इसलिए शहर को आपसे अपेक्षाएं भी ज्यादा हैं। अपेक्षा ज्यादा होने का मतलब यह तो कतई नहीं है कि आपसे पहले वाले अधिकारी काम के नहीं थे या उन्होंने काम नहीं किया। दरअसल यह आम धारणा बन गई है कि जब भी कोई नया अधिकारी आता है तो उससे उम्मीदें एवं अपेक्षाएं बढ़ जाती है। इसकी एक प्रमुख वजह नए व पुराने के बीच तुलना होना भी है। जब व्यवस्था एक  ही ढर्रे पर चलती है और उसमें रत्तीभर भी बदलाव दिखाई देता है तो उम्मीदें बढ़ना लाजिमी है। आपने पदभार संभालने के बाद जिस तरह कबाड़ियों के खिलाफ कार्रवाई की उससे लगा कि वाकई आप पटरी से उतरी व्यवस्था को सही करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। लेकिन जिस अंदाज में कार्रवाई का आगाज हुआ, वह अंजाम तक पहुंचने से पहले ही विवादों में घिर गई। खैर, इस प्रकार की कार्रवाई अक्सर नवागत अधिकारी करते आए हैं ताकि गलत काम करने वालों में कानून के प्रति खौफ हो। यह बात दीगर है कि आपने कार्रवाई का केन्द्र कबाड़ियों को बनाया।
आपको अवगत कराने की जरूरत नहीं है, फिर भी बता दें कि बिलासपुर शहर में मुख्य रूप से दो विचारधाराओं के लोग ही ज्यादा हैं। या यूं कहें कि दो विचारधाराओं के लोग दो वर्गों में बंटे हुए हैं। इनकी जीवनशैली में जमीन आसमान का अंतर है। तभी तो दोनों वर्गों के बीच लम्बी-चौड़ी खाई है। एक वर्ग सामान्य व आम लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जबकि दूसरा रसूखदारों एवं धनाढ्‌य लोगों से बावस्ता है। सारी कहानी इन दोनों वर्गों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। रसूखदार जहां पैसे एवं पहुंच के दम पर कुछ भी करा सकने का दावा करते हैं जबकि आम आदमी के पास सिवाय व्यवस्था को कोसने के दूसरा कोई चारा नहीं है। रसूखदारों से नजदीकियां बढ़ाने, उनके दुख-दर्द में शामिल होने तथा उनको कुछ भी करने की छूट देने जैसे आरोपों से आपका विभाग भी अछूता नहीं है। कई मौके तो ऐसे आए हैं जब आपके मातहतों ने मुंह देखकर कार्रवाई की है।
पुलिस में भर्ती होने के बाद प्रशिक्षण के दौरान संविधान के प्रति पूरी ईमानदारी एवं मेहनत से सेवा देने, कर्तव्य का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी के साथ करने, सभी धर्मा के प्रति समान भावना रखने, अपराध के लिए कोई भी रिश्तेदारी या जाति भावना दिल में न आने देने तथा मेहनत एवं लगन के दम पर देश एवं राष्ट्र धवज का नाम ऊंचा करने की शपथ लेने वाले आपके मातहत पता नहीं क्यों समय के साथ बदल जाते हैं। आम आदमी का दर्द उनको दर्द ही नजर नहीं आता है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। बीते एक माह में आप भी इससे वाकिफ हो गए होंगे। शहर में देर रात तक डीजे बजाना, तेज धमाकों के साथ आतिशबाजी करना और पटाखे फोड़ना आम हो गया है।  मौजूदा समय में रसूखदारों का यह शगल आम आदमी को इसलिए अखर रहा है, क्योंकि यह परीक्षा का समय है। प्राइमरी से लेकर माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं कॉलेज स्तर की परीक्षा सिर पर हैं। परीक्षाओं को देखते हुए जिला प्रशासन ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनुपालना में तेज ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक लगाने के आदेश जारी कर रखे हैं। ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक के आदेशों के बावजूद रात बारह-एक बजे तक शहर में तकरीबन रोजाना तेज आवाज में डीजे बजता है। पटाखे फूटते हैं, लेकिन आपके मातहतों को यह सुनाई नहीं देता है।
ऐसा लगता है, उन्होंने कानों में रुई डाल रखी है। डीजे एवं पटाखों के धमाके आपको सुनाई न देना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। ऐसा लगता है आपके बंगले एवं कार्यालय की दीवारें आवाज रोधी हैं। आप ही बताइए, अपनी खुशी के लिए दूसरों को परेशानी में डालना कहां तक उचित है। परीक्षा की तैयारी में व्यस्त कोई नौनिहाल हिम्मत जुटाकर आपको सूचना देता भी है तो उसकी बात को अनसुना नहीं करना चाहिए। वह एक उम्मीद के साथ  सूचना देता है लेकिन जब उसे निराशा  हाथ लगती है तो वह दुबारा क्यों फोन करेगा। इससे तो यह जाहिर होता है कि रसूखदारों को खुलेआम अपने रुतबे का प्रदर्शन करने की अघोषित छूट भी आपके विभाग ने ही दे रखी है।  वे कभी भी, कहीं भी कुछ भी करें। उनको रोकने या टोकने कोई नहीं जाता है।  तभी तो आम आदमी पुलिस के पास जाने में भी डरता है। व्यवस्था से त्रस्त बिलासपुर के आम आदमी को जब इन ध्वनि विस्तारक यंत्रों व देर रात होने वाले तेज धमाकों से ही मुक्ति नहीं मिल रही है तो फिर अपराधों पर नियंत्रण की बात करना बेमानी है। आप कुछ नया कर पाए तो बिलासपुर के लोग आपको लम्बे समय तक याद रखेंगे। भले ही वह आम जन में विश्वास कायम करना ही क्यों न हो।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 14 फरवरी 12 के अंक में प्रकाशित

Sunday, February 12, 2012

भाषण

सर्वप्रथम एक अच्छे एवं प्रासंगिक विषय का चयन करने के लिए डा. सीवी रमन विश्वविद्यालय को धन्यवाद। इस सेमीनार की परिकल्पना करने वालों को धन्यवाद और इस आयोजन में मुझे आमंत्रित करने के लिए भी धन्यवाद। 
अपनी बात शुरू करने से पहले एक रोचक जानकारी से आपको अवगत कराना चाहता हूं, हालांकि यह जानकारी भी सेमीनार की विषय वस्तु से ही संबंधित है, लेकिन बात शुरू वहीं से करता हूं। आपने बिट्‌स पिलानी का नाम तो सुना ही होगा। बताइए कितने लोग इसके बारे में जानते हैं.........? अब यह बताइए कि झुंझुनूं कहां पर है...? आप में से कम लोग ही यह जानते होंगे कि पिलानी एक छोटा सा कस्बा है और झुंझुनूं जिले के अधीन आता है। पिलानी इसलिए प्रसिद्ध हो गया क्योंकि उसने तकनीकी आधारित शिक्षा देने काम किया है। हालात यह है कि इस संस्थान में प्रवेश पाना कई युवाओं के लिए तो सपना ही रह जाता है। खैर, पिलानी और झुंझुनूं का जिक्र इसलिए किया है क्योंकि मैं स्वयं झुंझुनूं का रहने वाला हूं।  झुंझुनूं राजस्थान बेहद जागरुक जिला है। इसी जिले में मेरा गांव है। मेरा जिला साक्षरता के मामले में राजस्थान में अव्वल है। कमोबेश यही तस्वीर महिला शिक्षा की भी है।
जाहिर सी बात है कि लोग शिक्षित होंगे तो जागरुक होना भी लाजिमी है, लेकिन मेरा मानना है कि सिर्फ शिक्षित होने से ही जागरुकता नहीं आ सकती है। इसके लिए मानसिकता को भी बदलना होगा। इसके लिए भी मैं मेरे जिले का ही उदाहरण दूंगा क्योंकि यह सब मैंने न केवल प्रत्यक्ष देखा है बल्कि महसूस भी किया है। बात लम्बी एवं बड़ी जरूर है लेकिन मौका मिला है तो मैं कहने से नहीं चूकूंगा। स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद हमारे यहां बीएड करना एक परम्परा सी बन गई है। इसके अलावा युवाओं को दूसरा कोई रास्ता न दिखता है और न सूझता है। आलम देखिए, बड़े भाई ने अगर बीएड की तो छोटा भी बीएड ही कर रहा है। तभी तो अकेले झुंझुनूं जिले से जितने शिक्षक हैं, उतने राजस्थान के किसी भी जिले में नहीं हैं। आपको घर-घर में शिक्षक तथा बीएडधारी मिल जाएंगे। पति-पत्नी दोनों के शिक्षक होने या बीएडधारी होने के उदाहरण तो हजारों में हैं। आपको बता दूं कि मेरी धर्मपत्नी भी एमए बीएड है। मैंने भी बीए करने के बाद बीएड के लिए एक बार कोशिश की लेकिन भाग्य में कुछ और ही लिखा था। मेरे बड़े भाई भी शिक्षक हैं। एक भाभीजी ने भी बीएड की डिग्री हासिल कर रखी है। मतलब बीएड का जितना क्रेज युवाओं में है, उतना ही युवतियों में भी है। साथ में यह भी बता दूं कि बेरोजगार शिक्षकों के मामले में भी झुंझुनूं का पहला स्थान है। दरअसल बीएड करने के पीछे यह धारणा है कि सभी ऐसा कर रहे हैं मैं भी ऐसा कर लूं। इस भेड़चाल में शामिल मेरे जिले के युवाओं को कॅरियर के प्रति जागरुक एवं मार्गदर्शन देने वाला पथप्रदर्शक कोई नहीं है। यह एक छोटी सी तस्वीर है, जो बताती है कि मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं के पास कॅरियर बनाने के विकल्प किस प्रकार से सीमित हो जाते हैं।
मेरे जिले से ही एक दूसरा उदाहरण है सेना में जाने का। दसवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद युवा सेना में भर्ती होने के लिए लालायित रहते हैं और दौड़ धूप शुरू कर देते हैं। इसका प्रमुख कारण मेरे जिले में खेती फायदा का सौदा न होना है। आजीविका का मुख्य आधार नौकरी पेशा ही है। यही कारण की दसवीं के बाद सेना में जाने की परम्परा आजादी से पहले से ही चल रही है। तभी तो अकेले झुंझुनूं जिले से करीब 60 हजार युवा भारतीय सेना में कार्यरत हैं जबकि इतने ही सेनानिवृत्त्त हैं। मेरे पिताजी एवं उनके चारों भाइयों ने न केवल सेना में नौकरी की बल्कि 1962, 1965 व 1971 के युद्धों में भी भाग लिया है। मेरे बड़े भाई भी भारतीय वायुसेना में कार्यरत हैं। मैं स्वयं भी दो बार सेना में भर्ती होने के लिए कोशिश कर चुका हूं लेकिन वहां भी किस्मत ने साथ नहीं दिया।
माफ कीजिएगा, मैं अपनी बात को लम्बी खींच रहा हूं लेकिन सेना और शिक्षक का उदाहरण देने की पीछे ही आज के सेमीनार की विषय वस्तु छिपी हुई है। लब्बोलुआब यह है कि  शिक्षित होने के बाद भी मानसिकता सरकारी नौकरी हासिल करने की रहती है। यही कारण है कि अधिकतर शैक्षणिक संस्थान अकादमिक शिक्षा देने तक ही सीमित हैं।  इसी वजह से अधिकतर गांवों में शिक्षित बेरोजगारों की लम्बी फौज मिल जाएगी। बेरोजगारी के पीछे प्रमुख कारण यही है कि उन्होंने रोजगार विषयक शिक्षा ग्रहण नहीं की।
मैंने आपको जो तस्वीर दिखाई है वह आज से पांच साल पहले तक ही है, हालांकि इसमे आमूलचूल परिवर्तन तो अभी भी नहीं हुआ लेकिन बदलाव की बयार बहनी शुरू हो गई है। आरक्षण की मार तथा कड़ी प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सरकारी नौकरियां अब सीमित हो गई हैं। ऐसे में रोजगारपरक शिक्षा की महत्ता काफी बढ़ गई है।
तभी तो अकेले मेरे जिले में ही तीन निजी विश्वविद्यालय पिछले पांच साल में खुले हैं जबकि दो निकट भविष्य में खुलने वाले हैं। इन सभी विवि का ध्यान अकादमिक शिक्षा के बजाय रोजगारपरक पढ़ाई एवं कोर्सेज पर ही केन्द्रित है।  पिछले पांच साल से मैंने देखा है कि आईआईटी में अकेले झुंझुनूं से 15 से 20  छात्रों का चयन प्रति वर्ष हो रहा है। ऐसे परम्परागत जिले में इस प्रकार लीक से हटकर काम कर उसमें सफलता पाना अपने आप में बड़ी बात है।
खैर, मौजूदा समय में व्यवसायिक शिक्षा निहायत जरूरी है लेकिन इसके लिए कुछ चुनौतियां भी हैं, मसलन, जागरुकता का अभाव, परम्परागत ढर्रे का असर, सरकारी नौकरी के प्रति मोह, सरकारी प्राइवेट में भेद, प्रचार-प्रसार का अभाव, विवाह में सरकारी नौकरी वालों को प्राथमिकता, अकादमिक शिक्षा का अंधानुकरण, सस्ती शिक्षा का लालच, मार्गदर्शन का अभाव आदि प्रमुख है।
सरकारी नौकरी तथा उसके रुआब से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन प्राइवेट क्षेत्र में आज ने केवल काफी संभावनाएं हैं,बल्कि पैसा एवं प्रतिष्ठा दोनों हैं। सरकारी नौकरी का मोह छोड़कर व्यवसायिक शिक्षा ग्रहण करने वालों के लिए मैं राजस्थान में बेहद प्रचलित दोहे का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा,  जिसमें कहा गया है कि, लीक लीक घोड़ा चले, लीक ही चले कपूत, लीक छोड़ तीन चले, शायर, सिंह, सपूत। कहने का तात्पर्य है जो लीक से हटकर चलते हैं, वे इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाते हैं।
व्यावसायिक एवं रोजगारपरक शिक्षा आज जरूरी है और समय की मांग भी है लेकिन भारत में इस दिशा में देरी से सोचा गया वरना आज तस्वीर ही दूसरी होती है। जितना गंभीरता अब दिखाई जा रही है उतनी पहले बरती जाती तो शायद हमारे देश की प्रतिभाएं दूसरे देशों में पलायन करने की बजाय यहीं रुकती। इससे देश को फायदा भी मिलता। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि 15 से 25 आयु समूह के युवाओं में आज भी भारतीय सामान्य विवि के कार्यक्रमों में दाखिल लेते हैं जबकि यूरोप में 80 फीसदी तथा मलेशिया, कोरिया व ताइवान जैसी पूर्वी एशियाई देशों में 60 प्रतिशत युवा व्यवसायिक शिक्षा को प्राथमिकता देते हैं। तभी तो बाजार में दिखाई देने वाले लगभग हर उत्पाद में चीन के सामान की धमक दिखाई देती है।
चीन का भारतीय बाजार पर कब्जे करने के अंकगणित को भी हमें समझना होगा।  भारत में जहां 51 सौ औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान तथा 1745 पोलिटेक्नीक कॉलेज हैं, वहीं चीन में इनकी संख्या लाखों में है। भले ही व्यावसायिक प्रशिक्षण में फिल्म, टेलीविजन, सूचना प्रौद्योगिकी के मामले भारत आगे है लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 18 से 25 आयु वर्ग के तीन सौ लाख युवा बेरोजगार हैं जबकि46 लाख रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत हैं।
सरकारी सेवाओं में घटते अवसरों तथा निजी क्षेत्र में व्यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत सरकार की ओर से  2008-09 में एनएसडीएल.... नेशनल  स्कील डवलपमेंट कोरपोरेशन की स्थापना की गई। इसका उद्‌देश्य 2022 तक करीब 50  करोड़ लोगों को विभिन्न प्रकार के कौशलों से अवगत श्रमिकों की श्रेणी में लाने तथा जो कुशल वर्ग में आते हैं, उनकी कुशलता में और इजाफा करने के लक्ष्य में करीब 30 प्रतिशत तक का महत्वपूर्ण योगदान करने का है जो कि मुख्यतया निजी क्षेत्र से आएगा। एनएसडीएल वित्त मंत्रालय के अधीन है तथा  यह बगैर लाभ के काम करती है। इसकी मूल पूंजी 10 करोड़ हैं। इसमें 49 प्रतिशत शेयर सरकार के पास जबकि 51  फीसदी निजी क्षेत्र के हाथों में है। इस संस्था से देश में कौशलता को सुधारने में काफी मदद मिलेगी। प्राइवेट सेक्टर में भरपूर संभावनाओं के वाले बीस क्षेत्र हैं। इनमें दस औद्योगिक तथा दस सेवा क्षेत्र हैं। औद्योगिक क्षेत्र में वाहन तथा उनके पुर्जों से जुड़े उद्योग, इलेक्ट्रोनिक्स, कपड़ा तथा वस्त्र उद्योग, चमड़ा तथा चमड़े की सामग्र से जुड़े उद्योग, रसायन तथा औषधि उद्योग, जवाहरात तथा कीमती पत्थर उद्योग, गृह तथा ढांचागत निर्माण उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, हस्तकरघा तथा हस्तशिल्प उद्योग और गृह निर्माण व गृह सज्जा की वस्तुओं का उद्योग शामिल है। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र में सूचना तकनीक व साफ्टवेयर सेवा, सूचना तकनीक पर आधारित सेवा जैसी बीपीओ, पर्यटन तथा होटल उद्योग, यातायात, सामान का वहन व पैकेजिंग, सुनियोजित खुदा व्यापार, रियल इस्टेट सेवा, मीडिया, मनोरंजन, ब्रोडकास्टिंग, एनिमेशन तथा लेखन से जुड़ी सेवा, स्वास्थ सेवा, बैंकिंग बीमा तथा वित्तीय सेवा और शिक्षण-कौशल विकास के क्षेत्र शामिल हैं।
बहरहाल, आपको पता दूं कि मैं खुद भी उस क्षेत्र में हूं जो सेवा क्षेत्र में आता है। मीडिया में भी वर्तमान में रोजगार की काफी संभावनाएं हैं। यहां सिर्फ लेखन ही नहीं बल्कि कई सेक्टर हैं जहां कॅरियर बनाया जा सकता है। आखिर में फिर पुरानी बात पर लौटता हूं कि आज से १२ साल पहले मैं जब इस क्षेत्र में आया  था तो मेरे गांव के लोगों को पता ही नहीं था कि मीडिया क्या है। मैं जब भी गांव जाता वे जिज्ञासावश पूछ लेते, अखबार में आप क्या करते हो? कहीं आप अखबार बांटने का काम तो नहीं करते? आदि-आदि।  यह सब बातें मैँ इसलिए शेयर कर रहा हूं क्योंकि लोगों का इस क्षेत्र की जानकारी ही नहीं थी। आज भी हालात बदलते नहीं है, लेकिन मैंने सरकारी का मोह को त्यागा तथा शिक्षक या सैनिक बनने की किवदंती को न केवल तोड़ा बल्कि यह भी साबित कर दिखाया है देश सेवा सिर्फ सेना में जाने से ही नहीं बल्कि पत्रकारिता के माध्यय से भी की जा सकती है। मैंने लीक को छोड़ा,  परम्परा को तोड़ा तो उसका फायदा भी मिला। मैं मेरे युवाओं साथियों की तरह बीएड कर भी लेता तो उनकी तरह आज बेरोजगारों की भीड़ में ही शामिल होता या फिर किसी निजी शिक्षण संस्थान में डेढ़-दो हजार की मासिक पगार पर नौकरी कर रहा होता। मैंने परम्परा तोड़ने का साहस दिखाया। मैंने कुछ नया करने का खतरा मोल लिया तो उसका प्रतिफल भी मुझे मिला। आज आलम यह है कि गांव जाता हूं तो कई युवा पत्रकारिता के क्षेत्र में आने को उत्सुक दिखाई देते हैं तथा मुझसे इस फील्ड में आने के तरीकों के बारे में चर्चा करते हैं।
्रसेमीनार में भाग लेने वाले युवा साथियों से इतना ही कहना चाहूंगा कि वे जिस भी क्षेत्र में जाएं पूर्ण लगन एवं निष्ठा के साथ कार्यकर महारत हासिल करें। खुद को किसी भी मामले में कमत्तर नहीं आंके। आत्मविश्वास को किसी भी सूरत में कम नहीं होने दें। मन में यह हीन भावना भी कभी न आने दें कि मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि का हूं और यह शहरी है। ऐसा कुछ नहीं है, यह केवल वहम है। सोच का फर्क है। दूसरी बात यह है कि प्राइवेट क्षेत्र में कौशल विकास करने के मौके लगातार मिलते रहते हैं, इसके लिए खुद को कभी विशेषज्ञ न मानें और निरंतर सीखते रहे। सीखने में छोटे-बड़े का भेद न हो बल्कि प्रयास यही रहे कि हम उसके अनुभवों का लाभ उठाएं। मैं स्वयं हमेशा सीखने को लालायित रहता हूं। जहां भी मौका मिलता हूं सीखता हूं, क्योंकि मैं जब से चला मेरी मंजिल पर नजर है, मेरी आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा, जैसे फलसफे में विश्वास रखता हूं।  मतलब साफ है कि अपने लक्ष्य को अपने जेहन में रखता हूं तथा उसे पाने के लिए के लिए प्रयास व मेहनत भी करता रहता हूं। आखिर में आयोजकों को अच्छे विषय पर सेमीनार करवाने तथा मुझे इसमें आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद देते हुए अपनी वाणी को विराम देना चाहूंगा।
जय हिन्द, जय भारत।

दिनांक 10 फरवरी 12  को डा. सीवीरमन विश्वविद्यालय में कौशल विकास एवं व्यावसायिक शिक्षा में विश्वविद्यालयों की भूमिका विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में बतौर विशिष्ट अतिथि दिया गया भाषण।