Sunday, June 19, 2011

मेरे पापा...मेरी मां...

रविवार को समाचार पत्रों का अवलोकन किया तो पता चला कि आज फादर्स डे है। कुछ इसी भावना के साथ हम मदर्स डे भी मनाने लगे हैं। लगभग हर अखबारों में फादर्स डे के ही चर्चे थे। इस विषय पर कई अखबारों ने तो बाकायदा अतिरिक्त अंक भी निकाले थे। वैसे माता-पिता के लिए साल में एक-एक दिन निर्धारित करने का मैं कतई पक्षधर नहीं हूं। इस प्रकार के आयोजन भारतीय संस्कृति के बिलकुल भी अनुकूल नहीं है। हमारे देश में माता-पिता का दर्जा देवताओं के समतुल्य है। जैसे हम देवताओं का रोज स्मरण करते हैं, उसी प्रकार माता-पिता भी प्रातः स्मरणीय हैं। भौतिकवाद के वशीभूत एवं पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर हम प्रकार के दिन विशेष मनाने तो लग गए हैं लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समूची दुनिया को संस्कृति और ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले देश में इस प्रकार के आयोजनों का औचित्य क्या है। देखा जाए तो माता-पिता को किसी परिधि में बांधा ही नहीं जा सकता है।
खैर, फादर्स डे को लेकर मैं अपना मंतव्य स्पष्ट कर चुका हूं। अब कुछ ऐसे बातें आपसे शेयर कर लूं जो मेरे लिए रोजमर्रा का हिस्सा है। पिछले 11 साल से पेशेगत मजबूरियों के चलते मैं पैतृक घर से बाहर हूं लेकिन रोज उठते ही मैं पहला फोन घर पर करना नहीं भूलता। यह एक तरह का नियम सा बन चुका है। हां, कभी-कभार कार्य अधिकता की वजह से कुछ विलम्ब हो जाता है  तो पापा का फोन आ जाता है। मतलब संवादहीनता वाली स्थिति पिछले 11  सालों में एक भी दिन नहीं आई है। गांव में संचार सुविधाएं कैसी हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है, लिहाजा,  कई बार फोन खराब भी हो जाता है। ऐसे में पापा किसी एसटीडी बूथ पर जाकर फोन करके मेरे हालचाल पूछ लेते हैं।
मेरे इस नियम से कुछ सवाल भी उठ रहे हैं, मसलन, माता-पिता के प्रति इतनी श्रद्धा और प्रेम है तो उम्र के उस पड़ाव में उनको अकेला क्यों छोड़ रखा है? क्यों नहीं उनको अपने साथ रख लेते?  क्या फोन के माध्यम से ही आप हालचाल पूछने से काम चल जाता है? आप अपनी पत्नी को उनके पास क्यों नहीं छोड़ देते,  आदि। बिलकुल यही सवाल मेरे मन भी उठते हैं और मुझे विचलित भी करते हैं। माता-पिता को साथ न रख पाने के पीछे सबसे बड़ी दिक्कत मेरी दादी जी हैं,  वे एकदम परम्परावादी हैं। वे जीते-जी किसी भी हालत में घर के ताला लगाने की पक्षधर नहीं हैं। ऐसे में मां और पापा भला उनको अकेला कैसे छोड़ दें। मां और पापा मेरे साथ रहने को तैयार हैं लेकिन दादी जी किसी भी कीमत पर तैयार नहीं होती। अब बात धर्मपत्नी की ले लीजिए। वो मेरे साथ है तो उसके पीछे भी मेरे पापा और मां का प्यार ही है। वो खुद दुख उठा रहे हैं लेकिन मुझे दुखी देखना नहीं चाहते।  मुझे खाना बनाना नहीं आता है। बाहर का खाना मजबूरी में खा तो लेता हूं लेकिन स्वास्थ्य बहुत जल्द खराब हो जाता है। शादी से पहले लगातार यह क्रम चार साल तक चला। स्वास्थ्य इतना खराब हुआ कि करीब आठ किलो वजन कम हो गया। गाल पिचक गए और आंखें अंदर धंस गई। हालात यह हो गई कि मैं समय से पहले ही उम्रदराज दिखने लगा। मेरी हालत दुबारा वैसी ना हो जाए  इसलिए पापा-मां स्वयं दुख उठाने के लिए तैयार हैं, हालांकि मैंने अपनी धर्मपत्नी को सास-ससुर की सेवा के लिए गांव में रहने को कहा, तो  वह तैयार भी हो गई लेकिन पापा-मां तैयार नहीं हुए। बोले बेटा तो अकेला इतनी दूर दुख पाएगा, इसलिए बिनणी को साथ ले जा। मेरे बार-बार आग्रह के बावजूद वो तैयार नहीं हुए।
इधर, दादी मां जिनको मैं बूढी मां भी कहता हूं, वे उम्र के मामले में शतक मारने की नजदीक हैं जबकि मां और पापा 74-75 के करीब पहुंच चुके हैं। कहने का मतलब है गांव में रहने वाले यह तीनों प्राणी बस बड़ी मुश्किल के साथ अपना काम कर पाते हैं। घर का काम तो  कैसे होता है ये ही जानें.... मैं तीनों की हालत देखकर बड़ा दुखी हूं और चिंतित भी। सर्वाधिक पीड़ा तो उस वक्त होती है जब गांव का अदना सा आदमी भी इस बात के लिए उलाहना दे देता है। सचमुच उलाहने की शर्मिन्दगी से जमीन में गड़ा तो नहीं जाता लेकिन बाकी कुछ बचता भी नहीं है। मेरा कुछ होना उस वक्त बेकार साबित हो जाता है। कहने वाले कहते हैं,  उनका मुंह तो पकड़ा नहीं जा सकता,  लेकिन हकीकत में जो दिक्कत है,  उनको उससे कोई मतलब भी नहीं है।
बहरहाल, विषयवस्तु पर लौटते हुए मैं अब कुछ अतीत से जुड़ी यादों को जिंदा कर लूं। यादें इसलिए क्योंकि वे वर्तमान में फिर अपने आप को दोहरा रही हैं। बस भूमिका बदल गई है लेकिन भाव वो ही हैं। कहा भी गया है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। हाल ही में करीब पांच साल तक घर के सबसे निकटतम स्थान पर कार्यरत रहा। ऐसे में कभी महसूस ही नहीं हुआ कि घर से दूर हूं। हाल में तबादला हुआ और मां-पापा से जब मिलकर लौटने लगा तो पापा की आंखों में आंसू देखकर मैं भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाया। पापा देर तक अपनी बांहों में कस कर मुझे गले लगाकर सुबकते रहे। रास्ते में भी मां-पापा को याद कर करके आंखों से आंसू अपने आप निकलते रहे। आंसुओं को पोंछ-पोंछ कर रुमाल कब गीला हो गया पता नहीं चला।  मां-पापा को याद कर आंखें अब भी नम हो जाती हैं।  आज भी हो चली हैं। भले ही कुछ लिख रहा हूं लेकिन आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी है। आंसूओं की बूंदें टप-टप कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर गिर रही हैं।  मैं बेहद गमगीन हो चला हूं... कुछ देर सामान्य होने का प्रयास करता हूं लेकिन आज विषय ही ऐसा चुन लिया और वैसे भी मैं बेहद संवेदनशील हूं।  .... हां तो इतिहास वाली बात यह है कि मैं जब छोटा था और पापा जब अपनी छुट्‌टी पूरी करके वापस नौकरी पर लौटने लगते तब मैं उनके पैरों में लिपट जाता और उनके साथ जाने की जिद करता। रो रोकर अपनी आंखें सुजा लेता था। यह पापा का प्यार ही था कि कि वो मुझे रोता हुआ नहीं देख सकते थे, इस कारण रात को मुझे सोता हुआ छोड़कर जाते थे। शायद मेरी बाल हठ पर पापा भी भावुक हो जाते थे। वर्तमान में हालात बदले और जिस दिन घर से मैं रवाना हुआ और पापा की आंखों में आसूं देखकर अतीत याद आ गया। बस, आज मैं इतना ही लिख पाऊंगा। आसूं बह रहे हैं, रुकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। काश! आज  पापा और मां मेरे साथ होते लेकिन हाय री किस्मत! सचमुच मुझे मेरे पापा और मां से बहुत प्यार है, लेकिन मैं चाहकर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूं। उम्मीद जरूर है कि बूढी मां घर छोड़ने को तैयार हो जाएंगी तो मुझे पापा-मां की सेवा का मौका मिल जाएगा। मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतजार है।