Thursday, October 20, 2011

काहे के लोकसेवक


टिप्पणी
प्रशासन के निर्देशों के बावजूद बाजार फिर अतिक्रमण की चपेट में है। दीपोत्सव के चलते शहर की सड़कें और ज्यादा संकरी हो गई हैं। बीच सड़क पर पार्किंग हो रही है। सजावट के नाम सडक़ों पर टेंट लगाने का काम बेखौफ, बेधड़क और सरेआम हो रहा है। न कोई रोकने वाला न कोई टोकने वाला। कुछ जगह तो हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि वाहन तो दूर पैदल निकलने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। दरअसल, यहां  तासीर ही ऐसी है।  प्रशासन तो बस बयान जारी करने तक ही सीमित हो गया है। कार्रवाई के नाम पर अफसरों के माथे पर बल पड़ जाते हैं।  पता नहीं किस बात की नौकरी कर रहे हैं और किसके लिए कर रहे हैं। काहे के लोकसेवक हैं। वातानुकूलित कक्षों में बैठकर दिशा-निर्देश जारी हो जाते हैं। अधिकारी कभी बाजार में निकल कर देखें तो पता चलेगा कि आमजन को बाजार में सड़क पार करने में किस प्रकार की दुविधाओं एवं दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। अमूमन देखा गया है कि कुछ वर्ग विशेष के लोगों तथा वीआईपी को फायदा पहुंचाने के लिए आमजन के हितों की सरेआम बलि चढ़ा दी जाती है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी किसी के जन्मदिन के नाम पर। कभी किसी वीआईपी के आगमन के नाम पर तो कभी किसी बड़े आयोजन के बहाने, शहर में कुछ भी करो। किसी प्रकार की मनाही नहीं है। कोई रास्ता रोक रहा है तो कोई चंदे के नाम पर उगाही कर लेता है। मनमर्जी का खेल यहां खुलेआम चलता है।
भूल से कोई कानून की पालना करवाने की हिम्मत करता भी है तो ऐन-केन-प्रकारेण उसे चुप करवा दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि जिस जोश एवं उत्साह के साथ अभियान का आगाज होता है वह उसी अंदाज में अंजाम तक पहुंच ही नहीं पाता। मिलावटी मिठाई के खिलाफ चले अभियान का उदाहरण सबके सामने है। व्यापारियों के विरोध के बाद अभियान को रोक दिया गया। यहां सवाल उठाना लाजिमी है कि सिर्फ एक दिन में क्या अभियान का मकसद हल हो गया। प्रशासन के इस प्रकार के रवैये के कारण ही तो  अवैध कामों को बढ़ावा मिलता है। तभी तो बाजार में मिलावटी मिठाइयां बिकती हैं। कम तौल पर पेट्रोल मिलता है। घरेलू सिलेण्डरों का व्यावसायिक दुरुपयोग होता है। बिना बिल के बाजार में सोना बिकने आ जाता है। नकली मावे की खेप लगातार पहुंच जाती है। नेताओं के नाम के लेटरपैड से लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। यह चंद उदाहरण ही ऐसे हैं, जो यह बताने के लिए .पर्याप्त हैं कि प्रशासन कैसे व किस प्रकार की भूमिका निभा रहा है। यह सब क्यों व कैसे हो रहा है इस पर विचार करने का समय किसी के पास नहीं है। जनप्रतिनिधि तो इस प्रकार के मामले में कुछ बोलने की बजाय पर्दे के पीछे बैठकर तमाशा देखना ही ज्यादा पसंद करते हैं। उनको वोट बैंक खिसक जाने का खतरा जो रहता है।
बहरहाल, प्रशासन को अपनी भूमिका ईमानदारी से निभानी चाहिए। किसी प्रकार के दबाव या दखल को दरकिनार कर आम जन के हित से संबधित निर्णय तत्काल लेना चाहिए। प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों के रोज-रोज के बयानों से लोग अब तंग आ चुके हैं। बात काम की हो, विकास हो या किसी तरह की व्यवस्था बनाने की हो, ऐसे मामलों में अब तक शहरवासियों के हिस्से बयानबाजी ज्यादा आई है। उन पर अमल होता दिखाई नहीं देता। पानी बहुत गुजर चुका है। जरूरी है अब काम को, विकास को प्राथमिकता दी जाए। बदहाल व्यवस्था को सुधारने के लिए कोई निर्णायक पहल होनी चाहिए। बिना किसी लाग लपेट व राजनीति के। ईमानदारी के साथ।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 20 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।

Saturday, October 15, 2011

ये मोबाइल फोन कम्पनी वाले....

बात इसी सोमवार यानी दस अक्टूबर की है। मैं अपने कार्यालय की सुबह की मीटिंग की निवृत्त होकर घर पहुंचा ही था कि अचानक मैंने मेरे दूसरे मोबाइल पर एक अजनबी नम्बर से आई मिस्सड काल को देखा। जैसी कि मेरी आदत है, मैं जो भी मिस्सड कॉल देखता हूं, उस पर कॉल कर लेता हूं। उस दिन भी मैंने वैसा ही किया। मैंने फोन दूसरे नम्बर से लगाया था, इसलिए पहले मुझे परिचय देना पड़ा और बताना पड़ा कि मेरे दूसरे नम्बरों पर आपने कॉल किया था। मामला समझ में आने के बाद सामने वाले शख्स ने कहा कि मैं दिल्ली पुलिस का इंस्पेक्टर बोल रहा हूं। आपके खिलाफ दिल्ली तीस हजारी कोर्ट में याचिका लगी हुई है। फोन पर उस कथित इंस्पेक्टर की बात सुनकर मुझे यकायक करंट सा लगा और मेरे हाथ से मोबाइल छूटते-छूटते बचा। जैसे-तैसे खुद को संभालते हुए मैंने घबराहट में  पूछा आखिरकार मेरा कसूर क्या है। तो वह बोला कसूर की बात करते हो। एक तो नोटिस का जवाब नहीं देते हा्रे ऊपर से सवाल भी करते हो। आप को कल 11 अक्टूबर को दिल्ली हाईकोर्ट में उपस्थित होना है। इतना सुनते ही मेरी धड़कनें लुहार की धौकनी की मानिंद जोर-जोर से चलने लगी। चेहरा एकदम से पीला पड़ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि आखिरकार अब क्या करूं। थोड़ी हिम्मत से जुटाकर फिर पूछा तो वह कथित इंस्पेक्टर बोला भाईसाहब आपके नाम कोई वोडाफोन का बिल लम्बित है। आपने उसे लम्बे समय से जमा नहीं कराया है, इसलिए वोडाफोन वालों ने आपके खिलाफ यह कार्रवाई की है।
कथित इंस्पेक्टर ने आगे कहा कि बिल जमा कराने के लिए तीन माह पूर्व आपको नोटिस भेजा था लेकिन आपने उसका जवाब ही नहीं दिया। इस पर मैंने कहा कि जिस स्थान की आप बात कर रहे हैं, मैं उस स्थान पर छह माह से नहीं रह रहा हूं। रही बात बिल जमा कराने की तो मैंने बिल जमा कराने से इनकार ही कब किया, जो नोटिस देने या अदालत में हाजिर होने की नौबत आ गई। मेरी दलीलों का उस कथित इंस्पेक्टर पर कोई असर नहीं हुआ। उसने कहा कि आप इस मामले को देख रहे वकील के नम्बर ले लो। हो सकता है वह आपकी कुछ मदद कर दें। वकील के नम्बर देते हुए उस इंस्पेक्टर ने मुझे बताया कि इनका नाम आरके चौधरी हैं। आप अपना पूरा मामला इनको बता दो। हो सकता है आपकी कोई मदद हो जाए।
मैंने हिम्मत जुटाकर तत्काल वकील साहब को फोन लगाया तो सामने से धीमे से आवाज आई। मैंने अपना परिचय देते हुए मामले की जानकारी लेनी चाही तो उन्होंने कुछ देर के लिए मुझे फोन पर होल्ड रखा। इसके बाद बोले आपने वोडाफोन का बिल जमा नहीं करवाया है और कनेक्शन भी विच्छेद करवा लिया है। आपको कल 11 अक्टूबर को तीस हजारी कोर्ट में हाजिर होना है। मैंने उनको बताया कि  एक दिन में मेरा दिल्ली पहुंचना संभव नहीं है। क्या इस समस्या का किसी तरह से कोई समाधान हो सकता है? वकील साहब ने कहा कि आप एक घंटे के भीतर 2307 रुपए जमा करवाके मुझे रसीद नम्बर बताओ तो मामले का निपटारा हो सकता है अन्यथा आपको कल हाजिर होना पड़ेगा। इसके बाद मैंने उस कथित इंस्पेक्टर को फोन लगाया और वकील साहब से हुए वार्तालाप के बारे में बताया। उस कथित इंस्पेक्टर ने भी वकील साहब की तर्ज पर मुझे एक घंटे के भीतर बिल जमा करवाने की सलाह दी।
दरसअल यह वोडाफोन की कहानी भी करीब छह माह पुरानी है। वोडाफोन के नम्बर वाला फोन मेरी धर्मपत्नी के पास था। पोस्टपैड होने के कारण वह बिल भी मैं ही जमा करवाता था। अचानक मेरा तबादला राजस्थान से बाहर हो गया। ऐसे में  बिल समय पर जमा नहीं हो पाया। जिस एजेंसी से यह फोन नम्बर लिया गया था, वहां से  मेरे पास फोन आया तो मैंने अपनी धर्मपत्नी जो कि उस वक्त अपने मायके में थी, से कहा कि किसी परिचित को बोलकर बिल जमा करवा दो।  तब उसने अपने बुआ के बेटे  जो कि वोडाफोन में किसी सीनियर पोस्ट पर काम करते बताए, उनसे कहा तो उन्होंने कहा कि आप चिंता मत करो काम हो जाएगा। यह बात सुनकर मैं निश्चिंत हो गया। कुछ समय बाद श्रीमती ने भी राजस्थान छोड़ दिया और मेरे पास आ गई, लेकिन बिल जमा नहीं हो पाया। हम तो बुआ के बेटे के भरोसे पर बैठे थे, इसलिए नहीं करवाया। मन में कोई पूर्वाग्रह या बिल जमा न कराने की भावना भी नहीं थी। सोचा राजस्थान चलेंगे तो बिल की राशि लौटा देंगे।
करीब दस दिन ही शांति से बीते होंगे कि एजेंसी वाले का फोन फिर आ गया, बोला भाईसाहब बिल जमा नहीं कराओगे क्या? मैं उसके बात करने के तरीके पर कुछ चौंका फिर उससे पूछा कि भईया उसमें जमा कराने या न कराने की कोई बात ही नहीं है। मेरे रिश्तेदार हैं, जो कि वोडाफोन में ही है। उन्होंने कहा कि बिल जमा हो जाएगा, इसलिए मैं तो शांत हूं। आप एक बार उनसे बात कर लो। इसके बाद मेरे पास एजेंसी से फोन आना बंद हो गए। करीब दो माह बाद फिर एजेंसी से फोन आया। वह बोला आपका बिल अभी पेंडिंग ही चल रहा है। आपके वोडाफोन वाले रिश्तेदार ने कोई बिल जमा नहीं कराया है। इस पर मैंने एजेंसी वाले को कहा कि यार तू मेरे गांव के पास का है। मैं तेरे को जानता हूं और तू मेरे को जानता है। ऐसा कर अगर रिश्तेदार ने नहीं कराया है तो तू करा दे। मैं अगले माह दीवाली पर गांव आ रहा हूं तब तुम्हारा पैसा लौटा दूंगा। मेरी बात पर सहमति जताते हुए उसने फोन काट दिया। मैं भी आश्वस्त हो गया कि अब फोन नहीं आएगा। मुझे नहीं पता था कि इस बार फोन नहीं बल्कि इस तरह का बवाल आएगा।
खैर, कहानी बताने का मतलब यही था कि मेरे मन में कहीं भी फोन की राशि हड़पने की बात भी नहीं थी। मैं एक प्रतिष्ठित परिवार से जुड़ा हूं और बेहद संवेदनशील इंसान हूं। मेरा जॉब भी सार्वजनिक उपक्रम का है, लिहाजा वैसे भी फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। वकील से बात खत्म होते ही मैंने अपने पुराने साथी को फोन लगाया और वकील के नम्बर दे दिए। उसने पूछा क्या बात हो गई तो मैंने कहा पूरी कहानी बाद में बताऊंगा पहले 2307 रुपए का बिल वोडाफोन की एजेंसी पर जाकर जमा कराओ और वहां से जो रसीद मिले उसके नम्बर वकील को बताओ। राशि जमा होने के होने के बाद उसका मेरे पास फोन आ गया कि बिल जमा हो चुका है। उसने कहा कि वकील को आप ही बता दो, यह कहकर उसने रसीद नम्बर भी मुझे नोट  करा दिए। राहत की सांस लेते हुए मैंने वकील को इस समूचे घटनाक्रम से अवगत कराया। मैंने वकील से वोडाफोन के किसी अधिकारी के नम्बर जानना चाहे तो उन्होंने कहा कि उनके पास तो कम्पनी से ई मेल से शिकायत आती है उसी के आधार पर वे केस लड़ते हैं चूंकि आपने बिल जमा करवा दिया है इसलिए आपके समझौते का मेल वोडाफोन के अधिकारियों को भेज देता हूं।
इधर, फोन पर लम्बे समय तक मुझे बात करते देख मेरी धर्मपत्नी  भी सारा माजरा समझ चुकी थी। उसने तत्काल अपने पिताश्री को फोन लगाया और कहा कि भैया (बुआ के बेटे) को उलहाना दो कि उनके भरोसे के कारण आज क्या-क्या सुनने को मिल गया। इसके बाद श्रीमती ने ही अपने भैया को फोन लगाया। भैया ने मुझे बताया कि बिल की रिकवरी करने के लिए वोडाफोन वाले ऐसा ही करते हैं। आपको बिल जमा कराने से पहले एक बार मेरे से बात कर लेनी चाहिए थी। अब तो आपने बिल जमा करवा दिया है, इसलिए कुछ नहीं हो सकता है। चूंकि इस समूचे घटनाक्रम से मैं बेहद गुस्सा था। मैंने कहा कि आप वोडाफोन के किसी बड़े अधिकारी के नम्बर या मेल आईडी दीजिए ताकि मैं अपनी बात कह सकूं। मैं चोर नहीं हूं फिर भी मेरा साथ जो बर्ताव हुआ, उससे मुझे काफी दुख पहुंचा है। इसके बाद उन्होंने मामला दिखवाने का आश्वासन देते हुए दुबारा फोन करने का आश्वासन दिया।
इसके बाद मेरे एक दोस्त जो कि पहले वोडाफोन में कार्यरत थे और आजकल दूसरी मोबाइल कम्पनी में गुजरात चले गए, मैंने उनको फोन लगाया। मैंने उनसे भी वोडाफोन के किसी अधिकारी का नम्बर या ईमेल आइडी की जानकारी चाही, तो उन्होंने कहा कि बकाया बिल की रिकवरी के लिए इसी प्रकार के तरीके अपनाए जाते हैं ताकि उपभोक्ता डर के मारे राशि जमा करवा दें। उन्होंने कहा कि इस तरीके पर पहले भी काफी बवाल मच चुका है और समाचार-पत्रों में काफी छपा है। इसके बावजूद इन फोन कम्पनियों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है। दोस्त से बात अभी खत्म ही हुई थी कि श्रीमती के बुआ के बेटे का फोन दुबारा आ गया और उन्होंने कहा कि आपका मूल बकाया तो 12 सौ ही है, उसने 2307 रुपए कैसे जमा करवाए। इसके बाद उन्होंने कहा कि रसीद लेकर आपके बंदे को एजेंसी तक भिजवा दीजिए। मैंने दुबारा फोन करके अपने साथी को एजेंसी तक भिजवा दिया। वहां पर 12 सौ रुपए जमा करके बाकी राशि वापस कर दी गई। इस प्रकार से यह समूचा घटनाक्रम करीब तीन घंटे तक चला।
चूंकि घटनाक्रम मेरे लिए एकदम नया और चौंकाने वाला था इस कारण इसको लिखने का मन कर गया। उस कथित इंस्पेक्टर तथा वकील साहब के नम्बर भी लिखना चाह रहा था, जो कि उस दिन एक किताब पर लिखे थे। जल्दबाजी में आज वह किताब मिली नहीं। मिली तो दोनों के नम्बरों का उल्लेख जरूर करूंगा। इस सारे घटनाक्रम से एक बात तो साबित हो गई कि खुद के  मरे बिना स्वर्ग नहंी मिलता। आज उस घटना को पांच दिन हो गए हैं लेकिन उसको याद करके कभी गुस्सा आता है तो कभी खुद पर ही हंसता हूं।  किसी बात को हल्के से लेना बाद में कितना गंभीर बन जाता है यह मैंने अभी तक सुना ही था अब जान भी गया हूं। मन में एक तरह की टीस जरूर है कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। अपनी इस पीड़ा को मैंने सार्वजनिक जरूर किया है लेकिन सुकून तभी मिलेगा जब वोडाफोन के किसी बड़े अधिकारी से मुलाकात होगी। ज्यादा नहीं तो इतना तो कह ही दूंगा कि रिकवरी करवाने का यह तरीका कृपया बंद करवा दीजिए, क्योंकि आपका यह तरीका किसी हंसते-खेलते परिवार में कोहराम मचवा सकता है। पैसे वसूलने के तरीके और भी हो सकते हैं। किसी की जान पर बन आए, यह तो सरासर नाइंसाफी है। सवाल यह भी है कि जितनी नम्रता के साथ यह फोन वाले कनेक्शन देते वक्त या उपभोक्ताओं को अपनी तरफ मोड़ते समय पेश आते हैं, लेकिन बाद में इनका व्यवहार बदल जाता है। इसी घटनाक्रम को एक परिचित को बताया तो वे हंस पड़े और बोले, आप उनकी बातों से डर गए। बड़े-बड़े अपराधियों का कुछ नहीं होता फिर आपने ऐसा कौनसा गुनाह किया था जो डर गए। अब परिचित को यह कौन समझाए कि इज्जजदार के लिए तो तू कहना ही गाली के समान है।
और अंत में आखिरकार नम्बर मिल गए। कथित पुलिस इंस्पेक्टर के नम्बर 9250213864 हैं जबकि वकील साहब के नम्बर 92137 11928  हैं। इन दोनों नम्बरों पर मैंने बात की थी।









Friday, October 14, 2011

पूंछ तो गीली हो गई...

मेरा छोटा बेटा चीकू (एकलव्य) जितना चंचल है, उतना ही हाजिर जवाब भी। अभी वह पांच साल का भी नहीं हुआ है कि अपनी बातों से बड़े-बड़ों को भी आसानी से बेवकूफ बना देता है। अभी दशहरे की बात है। मोहल्ले में रावण का पुतला देखकर मचल गया और अपनी मम्मी से कहने लगा कि उसे रावण देखने जाना है। उसकी मम्मी उससे दो कदम आगे निकली। तत्काल बाजार गई और प्लास्टिक की गदा खरीद लाई वह भी दो। दो इसलिए क्योंकि मेरा बड़ा बेटा योगराज भी जब किसी चीज के लिए मचल जाए तो फिर जिद पूरी करके ही मानता है। दोनों चुप और संतुष्ट रहे इसलिए दो गदा खरीदी गई। इसके बाद चीकू की जिद देखते उसकी मम्मी ने उसे बाल हनुमान के रूप में सजा दिया। बाकायदा धोती पहनाई गई। कानों में बिन्दी चिपका दी गई। हाथों में पट्‌का और गालों पर सिंदूर लगा दिया गया। चीकू छोटा है इस कारण सहज ही हनुमान के रूप में उसने सभी को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया। भूल यह हो गई कि  बाल हनुमान के पूंछ नहीं लगाई है। वह भूल से रह गई थी। वैसे भी पूंछ के लायक कोई वस्तु थी नहीं जिसे पूंछ बनाकर लगाया जा सके, लिहाजा बिना पूंछ का ही हनुमान बना दिया गया। हाथ में गदा लिए वह रावण के पास पहुंच गया और जोर जोर से जय सियाराम, जय सियाराम के जयकारे लगाने लगा।
छोटे से बालक को जयकारे लगाते देख वहां मौजूद लोग आश्चर्य जताने लगे। इतने में चीकू ने अपनी गदा से रावण के पुतले पर प्रहार किया। फिर क्या था मोहल्ले वाले कहने लगे कि आज तो रावण का दहन बाल हनुमान ही करेंगे। इसके बाद चीकू ने रावण का दहन किया। रावण की अंदर आतिशबाजी एवं पटाखों का शोर सुनकर वह बहुत उत्साहित हो गया। रावण दहन के बाद  जब चीकू अपनी मम्मी व योगराज के साथ घर लौट रहा था पड़ोस की आंटी जो चीकू से बेहद प्यार करती है उसने चीकू को अपने पास बुलाया। वैसे चीकू मूडी है जब मूड होता है तभी किसी के पास जाता है वरना वह टस से मस नहीं होता है। चाहे कोई कितनी भी मन्नत कर ले। चूंकि हनुमान बनने की खुशी में वह इतना उत्साहित था कि बिना किसी ना नुकर के वह आंटी के पास चला गया। आंटी देखते ही बोली, अरे वाह चीकू तुम तो आज बाल हनुमान के रूप में बहुत जम रहे हो। चलो यह तो बताओ की तुम्हारी पूंछ कहां है। इतना सुनते ही चीकू ने जवाब दिया कि पूंछ तो गीली हो गई थी, इसलिए मम्मी ने सूखा दी। चीकू का जवाब सुनकर वहां मौजूद अन्य महिलाएं भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी। मेरी धर्मपत्नी भी चीकू के जवाब से काफी प्रसन्न नजर आई। इसकी वजह यह थी कि  पूंछ न लगाने की उसकी भूल को चीकू ने बड़ी ही चतुराई के साथ नया मोड़ दे दिया था।

Thursday, October 13, 2011

वर्तमान की नहीं भविष्य की चिंता

टिप्पणी
पुरानी कहावत है कि राम और राज की 'मर्जी' के आगे किसी का बस नहीं चलता है। बिलासपुर नगर निगम की एमआईसी को भंग करने से यह साबित हो भी गया है। यह भी एक संयोग ही है कि नगरीय प्रशासन विभाग का यह निर्णय ऐसे समय पर आया जब महापौर अपने जन्म दिन की बधाइयां लेने में व्यस्त थीं तो स्थानीय विधायक बदहाल शहर को पटरी पर लाने की कवायद में अधिकारियों से बैठक करने में जुटे थे। इस संयोग के पीछे भी गहरे अर्थ छिपे हैं। तभी तो एमआईसी भंग होने के साथ ही सड़क, नाली, बिजली एवं पानी की व्यवस्था के लिए आनन-फानन में २० करोड़ रुपए के प्रस्ताव बनाकर स्वीकृति के लिए राज्य शासन को भिजवा भी दिया गया। संभवतः यह प्रस्ताव स्वीकृत भी हो जाएगा।
राज्य सरकार के नुमाइंदे भी तो यही चाहते हैं कि शहर में होने वाले विकास कार्यों का श्रेय उनके हिस्से में आएं। वे यह आसानी से प्रचारित कर सकें कि  निगम ने जो काम नहीं करवाए वे राज्य सरकार ने या उन्होंने कर दिखाए। देखा जाए तो एमआईसी भंग करने के पीछे भी शहर का विकास कम बल्कि नुमाइंदों के भविष्य की चिंता ज्यादा छिपी है। राज्य सरकार के नुमाइंदे सत्ता मद में इतने गाफिल हैं कि उनको शहर की वर्तमान दुर्दशा की चिंता की बजाय अपने भविष्य का डर सता रहा है। इसी डर को भगाने के लिए उन्होंने अभी से प्रयास करने शुरू कर दिए हैं। एमआईसी भंग करवाने को भी उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
वैसे भी राज्य सरकार का यह निर्णय राजनीति से प्रेरित ज्यादा नजर आता है। राज्य सरकार ने एमआईसी भंग करने के लिए दो साल किस बात का इंतजार किया?  इसके असंवैधानिक होने का ख्याल इसके गठन के समय क्यों नहीं आया? भंग करने के लिए बीच का समय ही क्यों चुना गया? भंग होने के बाद विकास कार्यों के लिए हाथोहाथ प्रस्ताव भिजवाने का मतलब क्या है? अगर गठन गलत था तो हर बैठक में निगम के आयुक्त तथा अधिकारी क्यों आए?  वे किस हैसियत से इन बैठकों में भाग लेते रहे?  एमआईसी की ओर से पारित प्रस्तावों को क्यों पास किया जाता रहा?  एमआईसी की ओर से पारित ३३ में से २५ को ही निरस्त क्यों किया? आठ प्रस्तावों के बारे में चुप्पी क्यों साधी गई? आदि अनगिनत सवाल हैं, जो आम मतदाता के जेहन में उमड़ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि एमआईसी से पारित योजनाओं पर खर्च हुई राशि का क्या होगा? 
एमआईसी भंग करने से ऐसा लगता है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित था। सुनियोजित तरीके से ऐसे समय को चुना गया जब माहौल को अपनी तरफ मोड़ा जा सके। जनता की दुखती रग को टटोला जा सके। वर्तमान समय से ज्यादा मुफीद समय शायद हो भी नहीं सकता है। वर्तमान में शहरवासियों को मूलभूत एवं बुनियादी सुविधाएं भी ठीक से मय्यसर नहीं हो पा रही हैं। शहर की बदहाली से आमजन त्रस्त हैं। आलम यह है कि एमआईसी भंग होने के बाद प्रस्ताव तैयार करने में तत्परता दिखाने वाले निगम के अधिकारी हाईकोर्ट की फटकार पर भी गंभीर नहीं हुए। यह भी एक यक्ष प्रश्न है कि निगम अधिकारियों में इतना सजगता एवं सतर्कता यकायक कहां से एवं कैसे आ गई। वैसे भी एमआईसी के गठन के बाद से असंतोष के स्वर उठने शुरू हो गए थे। कांग्रेस के कुछ पार्षद भी एमआईसी के गठन से संतुष्ट नहीं थे। पार्टी के नाते एवं दिखावे के लिए अब भले ही वे राज्य सरकार के निर्णय का विरोध कर रहे हों लेकिन राज्य सरकार के नुमाइंदों से उनकी नजदीकियां शहरवासियों के लिए न तो नई हैं और न ही छिपी हुई नहीं है।
बहरहाल, एमआईसी भंग होने के बाद उसे सही एवं गलत ठहराने के अपने-अपने दावे किए जा रहे हों लेकिन इतना तो तय है कि शहर अभी भी राजनीतिक चंगुल में फंसा हुआ है। शहर के नुमाइंदे बदहाल शहर एवं बेबस जनता के दुखदर्द दूर करने के बजाय अपना भविष्य पुख्ता एवं सुनिश्चित करने की कवायद में जुटे हैं। खामोश जनता यह सब देख रही है लेकिन  'उचित मौके'  की तलाश भी कर रही है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 13 अक्टूबर 11 के अंक में प्रकाशित।


Friday, October 7, 2011

'रावण' बोला- मैं जिंदा हूं...


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बोलने वाले रावण के पुतले को अग्नि के हवाले करने के बाद गर्वित मन से शहरवासी जैसे ही घरों की ओर मुडे़, तभी जोरदार धमाका हुआ। अचानक आसमान में कौंधी तेज रोशनी से वहां मौजूद लोगों की आंखें चुंधियां गई। इसके बाद का नजारा देखकर तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई। जलते पुतले से एक विशालकाय आकृति निकली और देखते ही देखते आसमान में जोरदार अट्‌टाहास गूंजने लगा। यह सब देख शहरवासियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे एकदम डरे, सहमे उस आकृति को अपलक निहारने लगे। रफ्ता-रफ्ता आकृति आकार लेने लगी और पुनः पुतले में तब्दील हो गई। पुतले का अट्‌टाहास जारी था, लिहाजा, वहां जमा सभी लोग जड़वत हो गए। अचानक पुतले ने बोलना शुरू गया। वह बोला 'बिलासपुरवालो, मुझे पहचानो। मैं रावण हूं, रावण। वही रावण, जिसके पुतले का आप लोगों ने अभी-अभी दहन किया है। ऐसा आप लोग हर साल करते हो। फिर भी मैं हर बार नए रूप में आता हूं और भी बड़ा होकर। मैं तो आप लोगों का इस बात के लिए शुक्रिया अदा करने आया हूं कि आज आपने मेरे साथ भ्रष्टाचार रूपी पुतले का भी दहन किया है।'
लम्बी सांस छोड़ते हुए पुतला हंसने लगा। हंसते-हंसते ही उसने सवाल दागा, 'भ्रष्टाचार का पुतला जलाने से क्या भ्रष्टाचार खत्म हो गया? आप ही बताओ, आज भ्रष्टाचार कहां नहीं है। आपका शहर तो भ्रष्टाचार के दलदल में बुरी तरह फंसा हुआ है। हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला है। कदम-कदम पर भ्रष्टाचार है। शासन-प्रशासन के लिए तो भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार बन चुका है। हालात यह हो गए हैं कि आचार, विचार, संस्कार आदि भी भ्रष्टाचार से अछूते नहीं रहे। गली, घर, समाज, प्रदेश व देश सभी जगह भ्रष्टाचार की घुसपैठ है।'
गंभीर मुद्रा बनाते हुए पुतला फिर बोला 'बिलासपुर वालो। हजारों हजार वर्ष पूर्व मर कर भी मैं आज तक नहीं मरा हूं। भ्रष्टाचार मेरा ही स्वरूप है। यह मेरा छोटा भाई ही तो है। मैं त्रेतायुग में पैदा हुआ और यह कलयुग में। वैसे भी इस भ्रष्टाचार रूपी रावण को पैदा करने तथा पनपाने में आप सब का ही योगदान है और इसके लिए जिम्मेदार भी आप लोग ही हैं। आप लोगों ने भ्रष्टाचार को इतना प्यार एवं स्नेह दिया कि इसका कद मेरे से भी बड़ा हो गया। आपने भ्रष्टाचार रूपी पुतले का दहन करके एक नई बहस को जन्म दे दिया है।'
यकायक पुतला आवेश में आ गया। वह गुस्से में जोर से गरजा, 'कलयुग के इस रावण को मारने के लिए अब कोई विभीषण भी नहीं आएगा। वह बेचारा हिम्मत जुटाकर कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास करता भी है तो आप लोग ही उसे पागल कह कर शांत कर देते हो। मेरी जमात मेरे अनुयायी तो साल दर साल बढ़ रहे हैं लेकिन विभीषण जैसे लोग तो अपने वजूद के लिए जूझ रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं।' पुतले के ठहाके लगातार गूंज रहे थे। वह कहने लगा 'भ्रष्टाचार का रावण अब नहीं मरेगा। वह जिंदा रहेगा। उसके जिंदा होने से मुझे भी संबल मिला है। मैं जिंदा हूं, मैं जिंदा हूं....मेरा नए रूप में पुनर्जीवन हो गया।' इतना कहकर पुतला आसमान में लीन हो गया।
 शहरवासी इस समूचे घटनाक्रम से हतप्रभ थे। उनके जेहन में कई सवाल उमड़ने लगे तो कानों में पुतले के डायलॉग ही गूंज रहे थे। वे सोचने लगे, सचमुच भ्रष्टाचार ही तो कलयुग का रावण है। आज का सबसे बड़ा रावण। सबसे खतरनाक रावण। बिलासपुर एवं देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा संकट। परेशान सब हैं, लेकिन विभीषण या राम बनने को कोई तैयार नहीं।


साभार : बिलासपुर पत्रिका के  07 अक्टूबर 11 के अंक में प्रकाशित।


Monday, October 3, 2011

नई परम्परा का आगाज

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लम्बी जद्‌दोजहद एवं कशमकश के बाद आखिरकार शहर में दूध के भाव तय हो गए हैं। इसी के साथ करीब सप्ताहभर से चल रहे दूध के दंगल का भी पटाक्षेप हो गया। दूध उत्पादक संघ व डेयरी व्यवसायियों के बीच सहमति के बाद अब आम उपभोक्ताओं को दूध 32 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से मिलेगा। नई दरें तय करने के मामले में दोनों पक्षों को ही झुकना पड़ा। अपनी-अपनी मांगों एवं शर्तों से समझौता करना पड़ा। वैसे भी इस प्रकार के मामलों में समझौते या सहमति की बुनियाद भी तभी संभव है, जब दोनों पक्ष बराबर झुकें। इधर प्रशासन ने देर आयद, दुरुस्त आयद वाली कहावत चरितार्थ करते हुए दूध के दाम तय करने में न केवल प्रमुख भूमिका निभाई बल्कि भविष्य के लिए नई इबारत भी लिख दी। नई बात यह है कि प्रशासन के हस्तक्षेप से बिलासपुर में पहली बार दूध के दाम तय हुए वो भी लिखित में, वरना अभी तक मनमर्जी से ही भाव बढ़ रहे थे। कोई रोकने या टोकने वाला नहीं था। प्रशासन की इस पहल से एक नई परम्परा का आगाज हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए इस परम्परा का लाभ उपभोक्ताओं को कालांतर में भी मिलता रहेगा। सबसे अहम बात यह भी रही कि आम उपभोक्ताओं से जुडे़ इस मामले में 'पत्रिका' ने शुरू से लेकर आखिर तक सजग प्रहरी की भूमिका निभाई। इसका नतीजा यह निकला कि शुरू में मूल्यवृद्धि का समर्थन करने वाला 'एक खास वर्ग' भी अंततः 'पत्रिका' के सुर में सुर मिलाता दिखाई दिया। जनप्रतिनिधि एवं स्वयंसेवी संगठनों ने तो इस मामले में अंत तक चुप्पी ही साधे रखी। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि गाहे-बगाहे मतदाताओं के दुख-दर्द में शामिल होने का दम भरने वालेकिसी भी दल के जनप्रतिनिधि ने इस मूल्यवृद्धि के विरोध में एक शब्द तक नहीं कहा। इस बात को उपभोक्ताओं ने महसूस भी किया होगा।
खैर, दूध की नई दरें तय होने से उपभोक्ताओं को कुछ तो राहत मिली ही है, मनमर्जी से कीमतें तय करने वालों को भी अपनी औकात का अंदाजा हो गया होगा। उनको यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई होगी कि सार्वजनिक हित के आगे और सारे हित गौण क्यों हैं। मांगें जबरिया मनवाने का उपक्रम करने वालों को इस बात का अंदाजा भी हो गया कि महापुरुषों की प्रतिमाओं का दूध से अभिषेक करने तथा अरपा नहीं में दूध प्रवाहित करना किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। यह दूध का अपमान है। इस प्रकार के उपक्रमों से ध्यान जरूर बंटाया जा सकता है लेकिन मागें मान ली जाएं यह जरूरी तो नहीं।
बहरहाल, दूध की कीमतें नए सिरे तय होने के बाद सवाल उसकी गुणवत्ता का है। प्रशासन ने गुणवत्ता के मामले में समझौता करने वालों के पर कुतरने की कोशिश तो जरूर की है लेकिन उसमें भी स्पष्ट दिशा-निर्देश और सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दूध की थोक में खरीदी के मामले  गुणवत्ता की बात कहने वाला प्रशासन, आम उपभोक्ताओं के मामले में भी गंभीरता से विचार करेगा। जिस गुणवत्ता का दूध थोक में खरीदा जा रहा है, ठीक वैसा ही आम उपभोक्ता तक भी पहुंचे, तभी  जिला प्रशासन की इस पहल का सही अर्थों में लाभ मिलेगा। भले ही दूध की गुणवत्ता के लिए कोई अभियान ही क्यों न चलाना पड़े। वैसे भी कीमत का असर जेब पर पड़ता है लेकिन गुणवत्ता से खिलवाड़ तो सरासर स्वास्थ्य से खिलवाड़ है। तभी तो गुणवत्ता  मूल्यवृद्धि से भी बड़ा विषय है, इसलिए जितनी गंभीरता एवं तत्परता दरें तय करने में दिखाई गई, उतनी ही सजगता गुणवत्ता के मामले में भी दिखानी होगी। यह काम प्रशासन के लिए चुनौतीपूर्ण जरूर है लेकिन असंभव तो बिलकुल नहीं।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के  03 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।


Sunday, October 2, 2011

प्रशासन है किसके लिए

टिप्पणी
बिलासपुर के लिए शनिवार का दिन अब तक के इतिहास का संभवतः पहला दिन था जब किसी संगठन ने अपनी मांगें जबरिया मनवाने के लिए एक अनूठा तरीका अपनाया। संगठन के लोगों ने न केवल दूध को अरपा नदी में प्रवाहित किया बल्कि महापुरुषों की प्रतिमाओं का अभिषेक भी दूध से ही किया। इतना ही नहीं छोटे दूधियों को रोककर उनसे जबरन दूध छीनने की खबर भी है। इस आंदोलन का सारांश यही था कि जैसा वो चाहते हैं, वैसा नतीजा भुगतने को तैयार रहो। खैर, दूध की बर्बादी का मंजर जिसने भी देखा या सुना वह इसअनूठे तरीके की आलोचना से खुद को रोक नहीं पाया। जिसने भी सुना, उसका कहना था, इससे अच्छा तो किसी जरूरतमंद को दे देते। किसी गरीब के बच्चे को बांट देते। और नहीं तो अस्पताल में मरीजों के लिए दान ही कर देते आदि-आदि। अपनी मांगें मनवाने के लिए अपनाए गए इस तरीके पर जिला कलक्टर ने भी नाराजगी जतार्इ। इस तमाम घटनाक्रम के बाद भी दूध के भावों का विवाद सुलझता दिखार्इ नहीं दिया। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि दूध के भावों को लेकर दो खेमों में बंटे लोगों को प्रशासन भी संतुष्ट नहीं कर पाया। उनमें आम सहमति नहीं बनवा पाया। इतना जरूर हुआ कि ३५ रुपए प्रति लीटर बेचने की मुनादी करने वालों के तेवर कुछ ढीले पड़ गए हैं। इसके बावजूद विवाद सुलझा नहीं है।
प्रशासन के इस रवैये से यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिरकार वह किसके लिए काम रहा है। राज्य सरकार भी तो आखिरकार आमजन के लिए ही प्रतिबद्ध है। एक तरफ राज्य सरकार के नुमाइंदे सुराज अभियान के तहत लोगों के घर-घर तक पहुंच रहे हैं जबकि दूसरी तरफ लोग प्रशासन के पास खुद चलकर आ रहे हैं, ज्ञापन दे रहे हैं। इसके बावजूद उनकी बातों को अनसुना किया जा रहा है। आखिरकार ऐसी कौनसी दिक्कत या दबाव है जो प्रशासन को भाव तय करने से रोक रहा है। अगर प्रशासन ने दोनों पक्षों की बैठक बुलाई थी तो लगे हाथ भाव भी तय कर देने चाहिए थे। प्रशासन ने भाव तय करने का निर्णय भी उन्हीं लोगों पर छोड़ दिया जो पहले से ही लड़ रहे हैं। अगर दोनों धड़े सहमत ही होते तो शहर में पांच दिन से दूध क्या दो भावों पर बिकता। वैसे दूध की इस लड़ार्इ में सर्वाधिक नुकसान तो उस दूधिये या ग्वाले का ही है जो इन दो संगठनों के बीच पीस रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए दो धड़ों की इस नूरा कश्ती का प्रशासन जल्द ही कोर्इ सर्वमान्य हल निकालेगा। कीमतों की इस लड़ार्इ में छोटे दूधियों का भी ख्याल जरूरी है। उपभोक्ताओं को हित तो सर्वोपरि है ही।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 02 अक्टूबर 11  के अंक में प्रकाशित।